अध्याय 03 जनपोषण तथा स्वास्थ्य
प्रस्तावना
आपको स्मरण होगा कि कक्षा XI में आप पोषण और स्वास्थ्य, स्वस्थता और खुशहाली की मूलभूत संकल्पनाओं के बारे में पढ़ चुके हैं और आप स्वास्थ्य की बुनियाद के रूप में अच्छे पोषण के महत्त्व को भी जानते हैं। तो इस संदर्भ में ‘जन’ शब्द का क्या महत्त्व है। आइए पता लगाएँ। आप ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ द्वारा दी गई स्वास्थ्य की परिभाषा से पहले ही परिचित हैं। जन स्वास्थ्य की संकल्पना का अर्थ है-सभी लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा और बढ़ावा देने के लिए समाज द्वारा किए गए सामूहिक प्रयास।
कक्षा XI में आपको अल्पपोषण और अतिपोषण जैसे शब्दों से परिचित कराया गया था। जन स्वास्थ्य पोषण का लक्ष्य अल्पपोषण और अतिपोषण दोनों की रोकथाम करना तथा लोगों के अनुकूलतम पोषण स्तर को बनाए रखना है।
महत्त्व
हमें पोषण के इस क्षेत्र के विशिष्ट पहलू पर ध्यान देने की आवश्यकता क्यों है? पाँच वर्ष से कम आयु के कम से कम 50 प्रतिशत बच्चों की मृत्यु का कारण कुपोषण होता है। हमारे देश में पोषण संबंधी समस्याओं के आँकड़े खतरे का संकेत देने वाली परिस्थिति को दर्शाते हैं-
- भारत में जन्म लेने वाले लगभग $1 / 5$ बच्चे, कम जन्म-भार वाले बच्चे होते हैं अर्थात् जन्म के समय उनका भार $2500 \mathrm{~g}$ या $2.5 \mathrm{~kg}$ से कम होता है। ये शिशु इस अक्षमता के साथ जीवन प्रारंभ करते हैं जो उन्हें उनकी विकासशील अवस्था में निर्तर कष्ट देता रहता है और उनकी प्रौढ़ अवस्था में भी अत्यन्त प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।
- सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से कमजोर परिवारों के विद्यालयपूर्व आयु के बच्चों में वृद्धि-मंदन व्यापक रूप से पाया जाता है और लगभग आधे बच्चे मध्यम और साधारण अल्पपोषण से ग्रसित होते हैं।
- बच्चों (और प्रौढ़ों) की बड़ी संख्या गंभीरता के विभिन्न स्तरों पर सूक्ष्मपोषक तत्वों की कमी से पीड़ित है। सबसे अधिक महत्त्व वाले सूक्ष्मपोषक लौहतत्व, ज़िंक, विटामिन A, विटामिन C, विटामिन D, आयोडीन, फ़ॉलिक अम्ल और विटामिन $B^{12}$ हैं।
यदि समय पर इन समस्याओं को नियंत्रित नहीं किया जाता है तो ये केवल शारीरिक वृद्धि पर ही प्रभाव नहीं डालतीं (जिसके कारण वयस्क होने पर शरीर का कद छोटा रह जाता है), बल्कि ये मानसिक और संज्ञानात्मक विकास को भी प्रभावित कर सकती हैं। ये सब मिलकर फिर जीवन की उत्पादकता और गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव डालती हैं। कुपोषण का बहुत अधिक मूल्य चुकाना पड़ता है। विशेषज्ञों ने अनुमान लगाया है कि कुपोषण के कारण उत्पादकता में क्षति, जीवन भर की कमाई का 10 प्रतिशत से अधिक होती है और राष्ट्र के समग्र घरेलू उत्पाद में $2-3$ प्रतिशत होती है। इससे स्पष्ट है कि यदि हम कुपोषण का समाधान कर लेते हैं तो हम भारत के विकास और आर्थिक वृद्धि में सहायक हो सकते हैं और शक्तिशाली राष्ट्र बना सकते हैं।
भारत में अधिक समस्या अल्पपोषण की है; तथापि अतिपोषण की समस्या भी बढ़ रही है। धीर–धीरे, पिछले कुछ वर्षों में बड़ी संख्या में लोगों ने अपनी आहारी पद्धतियों और जीवन शैली में बदलाव किया है। जीवन-शैली के संदर्भ में, लोग अपेक्षाकृत अल्प श्रम करने वाले हो गए हैं, यातायात के द्रूतगामी साधनों पर निर्भर रहते हैं, कम पैदल चलते हैं तथा घर के बाहर की और शारीरिक गतिविधियाँ कम करने लगे हैं। बड़े शहरों में, बच्चे तक भी बाहर मैदान में बहुत अधिक नहीं खेलते। साथ ही आहार पद्धतियाँ भोजन के अतिसेवन से संभवतः कम स्वास्थ्यवर्धक हो गई हैं। इसके अतिरिक्त खाद्य विकल्प कम ‘स्वास्थ्यकर’ हो गए है, क्योंकि संसाधित खाद्य पदार्थ, तले खाद्य पदार्थ, अल्पाहार (स्नैक्स), पाश्चात्य खाद्य पदार्थ जैसे - बर्गर,
पिज्जा, बिस्कुट, चॉकलेट, केक और पेस्ट्री, मृदु पेय पदार्थ, यहाँ तक कि भारतीय मिठाइयाँ, समोसा, इत्यादि (जिनमें ऊर्जा, शक्कर, वसा, नमक अधिक होता है तथा अन्य पोषकों और रेशों की कमी होती है) तेज़ी से हमारे दैनिक आहार का हिस्सा बनते जा रहे हैं। इसके साथ ही साबुत अनाजों, दालों, सब्ज़्जों और फलों का सेवन कम हो गया है। इन सबके कारण अवाँछनीय/अनुचित भार में वृद्धि, अतिभार और मोटापा होता है और अंतत: इससे अन्य रोगों के साथ-साथ उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, मधुमेह, कैंसर, गठिया (आर्थराइटिस) जैसे रोग हो जाते हैं। ये रोग असंक्रामक हैं और ये अपना कुप्रभाव केवल शारीरिक स्वास्थ्य पर नहीं डालते, बल्कि जीवन की गुणवत्ता को भी प्रभावित करते हैं और वित्तीय बोझ भी बढ़ाते हैं।
अतः कहा जा सकता है कि भारत ‘कुपोषण का दोहरा भार’ उठा रहा है, अर्थात् यहाँ अल्पपोषण और अतिपोषण दोनों ही पाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त, यद्यपि चेचक जैसे संक्रामक रोग पर नियंत्रण पा लिया गया है, लेकिन एच. आई. वी./एड्स जैसे नए रोग और क्षयरोग, यकृत्शोथ (हेपेटाइटिस), मलेरिया जैसे पुराने रोग व्यापक रूप से बढ़ रहे हैं। इन संक्रामक रोगों के अंतिम परिणाम उन लोगों के लिए बदृतर होते हैं, जिनका सही पोषण नहीं होता अर्थात् जो अल्पपोषित होते हैं और मोटापे, मधुमेह, एच. आई. वी./एड्स से पीड़ित होने के कारण उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो गई है। इससे डॉक्टरों, आहार विशेषज़ों और सरकार के लिए उपचार, नियंत्रण और रोकथाम के संदर्भ में बड़ी चुनौती खड़ी हो जाती है।
जन स्वास्थ्य पेशेवरों के प्रशिक्षित संगठन, जिसमें जन स्वास्थ्य आहार विशेषज्ञ भी सम्मिलित हैं, इन समस्याओं पर विचार करने और समाधान करने की अत्यधिक आवश्यकता है। आइए पहले स्वयं जान लें कि जन स्वास्थ्य पोषण क्या है?
मूलभूत संकल्पनाएँ
जन स्वास्थ्य पोषण क्या है?
जन स्वास्थ्य पोषण, अध्ययन का वह क्षेत्र है जो अच्छे स्वास्थ्य को बढ़ावा देने से संबंधित है। इस उद्देश्य के लिए यह पोषण संबंधी रोगों/समस्याओं का समाधान करने वाली सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों के ज़रिए लोगों के इन पोषक संबंधी रोगों/समस्याओं का समाधान करता है। जन स्वास्थ्य आहार विशेषज्ञ/ व्यावसायिक जनसंख्या (अर्थात् बड़ी संख्या में लोगों के लिए सामुहिक कार्रवाई की आवश्यकता हो) को प्रभावित करने वाली समस्याओं के समाधान के लिए बड़े पैमाने पर सुनियोजित और बहुविषयक पद्धतियों का उपयोग करते हैं। अत: यह क्षेत्र बहुविषयक प्रकृति का है और जीवन विज्ञान तथा सामाजिक विज्ञान विषयों की बुनियाद पर टिका हुआ है। यह पोषण के अन्य क्षेत्रों जैसे - नैदानिक पोषण और आहारिकी से भिन्नता रखता है, क्योंकि इसके लिए समुदाय/जनता, विशेष रूप से अतिसंवेदनशील समूहों की समस्याओं के समाधान के लिए व्यावसायिक की आवश्यकता होती है। जन पोषक, ज्ञान का एक विशिष्ट भाग है, जो पोषणात्मक, जैविक, व्यवहार-संबंधी, सामाजिक और प्रबंधन विज्ञानों से विकसित हुआ है।
इसका वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है- “समाज के संगठित प्रयासों/कार्रवाई द्वारा स्वास्थ्य को उन्नत करना और परिस्थितियों/रोगों की रोकथाम करते हुए जीवन-अवधि को दीर्घ बनाने की कला और विज्ञान जन पोषण है।”
समुदाय लोगों का एक ऐसा विशिष्ट समूह होता है, जिसमें कुछ सामान्य विशेषताएँ पाई जाती हैं, जैसे - एक जैसी भाषा, एक ही सरकार (एक राष्ट्र, एक राज्य, एक शहर) अथवा एक जैसी स्वास्थ्य समस्याएँ।
जन पोषण के क्षेत्र के किसी भी पेशेवर (प्रोफ़ेशनल) का काम अच्छे पोषण को बढ़ावा देना और/अथवा पोषण संबंधी समस्याओं को रोकना है। इसके लिए महत्वपूर्ण है, समस्या और उसकी व्यापकता की पहचान करना, यह समझना कि कैसे और क्यों ये समस्याएँ पैदा होती हैं और उसके उपरान्त कार्यनीतियों की योजना बनाना तथा उन्हें लागू करने के लिए कार्रवाई करना और फिर उनके प्रभाव का मूल्यांकन करना।
किसी भी समाज में पोषण की समस्याएँ केवल भोजन से ही संबंधित नहीं होतीं, अपितु विभिन्न स्तरों पर कई प्रकार के परस्पर क्रिया करने वाले/परस्पर संबद्ध कारक होते हैं, जिनकी जड़ें गरीबी में निहित हैं और इसे चित्र 3.1 में संक्षेप में दिखाया गया है। ऐसे में स्थिति और भी बदतर हो जाती है, क्योंकि अधिकांश परिवारों को मूलभूत सुख-सुविधाएँ उपलब्ध ही नहीं होतीं। ग्रामीण परिवारों में शौचालय की सुविधा कम होती है। अपर्याप्त सफ़ाई के कारण कार्य दिवसों की हानि होती है और साथ ही आर्थिक दृष्टि से हानि होती है। इसके अतिरिक्त जनसंख्या के बड़े भाग को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं हो पाता। प्रतिवर्ष-प्रतिदिन जलजनित रोगों के कारण कार्य दिवसों की हानि होती है।
जैसा कि (a) और (b) दिखाया गया है, पोषण समस्याओं से संबंधित कारक-आर्थिक कारकों (वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता) से लेकर कृषि नीति (उत्पाद, विभिन्न खाद्य पदार्थों के मूल्य); स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएँ सेवाएँ, उनकी उपलब्धता और उन तक पहुँच; सरकारी नीतियाँ, राजनीतिक इच्छा शक्ति और सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों तक विस्तारित हैं।
भारत में पोषण संबंधी समस्याएँ- हमारे लिए अपने देश की पोषण समस्याओं के बारे में जानना महत्वपूर्ण है आइए इन पर संक्षेप में चर्चा करें -
(a) प्रोटीन — ऊर्जा कुपोषण (पी. ई. एम.) —यह हर समाज में पाया जाता है, यहाँ तक कि विकसित और औद्योगीकृत देशों में भी, यद्यपि इनमें विकासशील देशों की अपेक्षा संख्या कम हो सकती है। यह ज़ूरतों की अपेक्षा अपर्याप्त भोजन लेने से होता है अर्थात् बृहत् पोषकों अर्थात् ऊर्जा और प्रोटीन का अपर्याप्त अंतर्गहण। बच्चों को प्रोटीन-ऊर्जा कुपोषण से ग्रसित होने का खतरा अधिक होता है, यद्यपि बड़ी उम्र के लोगों और जो क्षयरोग, एड्स जैसे रोगों से ग्रसित हैं, उनको भी इस कुपोषण का खतरा रहता है। इसका निर्धारण मानवमितिक मापों (भार और/अथवा ऊँचाई) द्वारा किया जाता है।
चित्र 3.1-अल्पपोषण से संबंधित कारक
एक व्यक्ति अल्पभारी तब कहलाता है, जब उसके शरीर का भार उसकी आयु के अनुरूप उचित भार से कम होता है। बौनापन (छोटा कद) तब होता है, जब शरीर की ऊँचाई आयु के अनुरूप उपयुक्त ऊँचाई से कम होती है। जब भार ऊँचाई की तुलना में पर्याप्त नहीं होता तो इसे ‘क्षयकारी’ कहा जाता है।
(b) सूक्ष्मपोषकों की कमी — यदि आहार में ऊर्जा और प्रोटीन की मात्रा कम होती है, तो इसमें अन्य पोषकों विशेषकर सूक्ष्म पोषक जैसे खनिजों और विटामिनों की मात्रा कम होने की संभावना भी होती है। सूक्ष्मपोषक हीनता के लिए ‘छिपी भूख’ जैसा शब्द प्रयोग में लाया जाता है। जन स्वास्थ्य से संबंधित मुख्य हीनताएँ लौहतत्व, विटामिन $\mathrm{A}$, आयोडीन, ज़िंक की होती हैं। इनके अतिरिक्त विटामिन $\mathrm{B}^{12}$, फ़ॉलिक अम्ल, कैल्सियम, विटामिन $\mathrm{D}$ और राइबोफ़्लेविन में भी चिंता बढ़ रही है।
(a)
(b)
(a) प्रोटीन ऊर्जा कुपोषण एवं (b) माइक्रोन्यूट्रिएंड की कमी से पीड़ित
स्रोत-SIGHT and LIFE, बासेल, स्विट्ज्जरलैंड
(i) लौह तत्व (आयरन) की कमी से अरक्तता (आई. डी. ए.) — यह विश्व का सबसे अधिक सामान्य पोषण विकार है और यह विकसित तथा विकासशील दोनों देशों में व्याप्त है। इसके प्रति संवेदनशील वर्ग हैं-गर्भधारण करने वाली कम आयु की महिलाएँ, किशोर बालिकाएँ, गर्भवती महिलाएँ और विद्यालयी आयु वाले बच्चे। लौहतत्व की कमी से अरक्तता तब होती है, जब शरीर में हीमोग्लोबिन का बनना काफ़ी कम हो जाता है और इसके परिणाम स्वरूप रक्त में हीमोग्लोबिन का स्तर कम हो जाता है। लक्षण हीमोग्लोबिन के कम होने की दर पर निर्भर करते हैं। चूँकि शरीर में ऑक्सीजन के पहुँचाने के लिए हीमोग्लोबिन की आवश्यकता होती है, अत: किसी भी शारीरिक परिश्रम से साँस फूलने लगती है (थोड़े परिश्रम से हाँफ़ना) और व्यक्ति थकावट की शिकायत करता है तथा निढाल महसूस करता है। लौहतत्व की कमी के कारण दिखाई देने वाले संकेतों में सम्मिलित हैं — सामान्य पीलापन, नेत्र-श्लेष्मा, जीभ, नख-परतों और कोमल तालु में पीलापन। बच्चों में संज्ञानात्मक क्रियाएँ (एकाग्र रह पाने की अवधि, स्मरण शक्ति, ध्यान केंद्रित करना) बुरी तरह प्रभावित होती हैं।
(ii) विटामिन $A$ की कमी (वी. ए. डी.) —आप जानते हैं कि विटामिन $\mathrm{A}$ स्वस्थ उपकला (एपिथीलियम), सामान्य दृष्टि, वृद्धि और रोग प्रतिरोधकता के लिए आवश्यक है। विटामिन $\mathrm{A}$ की कमी से रतौंधी हो जाती है और यदि सही उपाय नहीं किए जाते तो यह पूर्ण अंधता में परिवर्तित हो जाती है। साथ ही संक्रमण के प्रति प्रतिरोधक कम हो जाता है, शरीर की वृद्धि बुरी तरह प्रभावित होती है। विटामिन A की कमी और संक्रमण के बीच दुष्क्रम होता है। विटामिन $\mathrm{A}$ की कमी छोटे बच्चों के अंधेपन का मुख्य कारण होती है।
(iii) आयोडीन हीनता विकार (आई. डी. डी.) — सामान्य मानसिक और शारीरिक वृद्धि एवं विकास के लिए आयोडीन की आवश्यकता होती है। आयोडीन हीनता विकार एक पारिस्थितिक परिघटक है, जो अधिकतर मृदा (मिट्टी) में आयोडीन की कमी से होती है। भारत के राज्य जहाँ आयोडीन हीनता विकार पाए जाते हैंउनमें हिमालय क्षेत्र में जम्मू और कश्मीर से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश हैं। ‘आयोडीन हीनता विकार’ ऐसी अशक्त अवस्थाओं को दर्शाते हैं जो आयोडीन को आहार द्वारा अपर्याप्त मात्रा में ग्रहण करने के कारण भ्रूण से लेकर प्रौढ़ावस्था तक मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। आयोडीन की कमी के कारण थाइरॉइड हार्मोन अपर्याप्त मात्रा में बनता है, जिसका संश्लेषण थाइरॉइड ग्रंथि द्वारा होता है। आयोडीन की कमी से थाइरॉइड ग्रंथि बढ़ जाती है और यह बढ़ा हुआ थाइरॉड गलगण्ड (ग्वाइटर) कहलाता है, जो आयोडीन हीनताकी बहुत सामान्य अभिव्यक्ति है। बच्चों में यह क्रेटिनिज्म के रूप में प्रकट होता है। गर्भावस्था में आयोडीन की कमी से बहुत विपरीत प्रभाव पड़ते हैं, जो विशेष रूप से भ्रूण के मानसिक मंदन और जन्मजात विकृतियों के रूप में सामने आते हैं। दुर्भाग्य से ये प्रभाव अनुत्क्रमणीय हैं। आयोडीन हीनता विकार विश्व की 13 प्रतिशत जनसंख्या को प्रभावित करते हैं और लगभग 30 प्रतिशत को इसका खतरा रहता है।
पोषण समस्याओं का सामना करने के लिए कार्यनीतियाँ/ हस्तक्षेप
जैसा कि हमारे पूर्व प्रधानमंत्री ने अपने एक भाषण में कहा, “कुपोषण की समस्या राष्ट्र के लिए शर्म का विष्य है … मैं राष्ट्र से अनुरोध करता हूँ कि शपथ लें और 5 वर्षों में कुपोषण के उन्मूलन के लिए कड़ा प्रयास करों" पोषण संबंधी समस्याओं अन्य एवं $\mathrm{A}, \mathrm{B}$ का समाधान करने के लिए बहु-विषयक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। वर्तमान सरकार समस्याओं के समाधान के लिए पर्याप्त प्रयास कर रही है। पोषण अभियान या समग्र पोषण के लिए पीएम की व्यापक योजना मार्च 2018 में झुंडुनू राजस्थान में शुरू की गई थी। यह विभिन्न पोषण संबंधी योजनाओं के अभिसरण सुनिश्चित करके अल्पपोषण और अन्य संबंधित समस्याओं के स्तर को कम करने का लक्ष्य रखता है।
यह स्टंटिंग, कम पोषण, एनीमिया (छोटे बच्चों, महिलाओं और किशोर लड़कियों के बीच) और कम जन्म दर को भी लक्षित करता है। यह ऐसी सभी योजनाओं के कार्यान्वयन की निगरानी और समीक्षा करेगा इसके बड़े घटक में देश के सभी जिलों में 2022 तक क्रमिक स्केलिंग-अप शामिल है। पोषण अभियान 2022 तक कुपोषण मुक्त भारत के लक्ष्य की प्राप्ति को सुनिश्चित करने के लिए एक बहु-मंत्रीय अभिसरण मिशन है। पोषण अभियान का उद्देशय प्रमुख आँगनवाड़ी सेवाओं के उपयोग में सुधार और उच्चतम कुपोषण भार को कम करने के साथ भारत के चिह्हित जिलों में स्टंटिंग को भी कम करना है। इसका उद्देश आँगनवाड़ी सेवा वितरण की गुणवत्ता, गर्भवती महिलाओं, माताओं और बच्चों के लिए समग्र विकास और पर्याप्त पोषण सुनिश्चित करना है। महिला और बाल विकास मंत्रालय (MWCD) प्रथम वर्ष में 315 जिलों में पोषण अभियान लागू कर रहा है, दूसेरे वर्ष में 235 जिले और तीसरे वर्ष में शेष जिले शामिल किए जाएंगे। बच्चों के पोषण की स्थिति (0-6 वर्ष की आयु) और गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं पर प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से कईयोजनाएँलगूहोती हैं।इनके वावजूद, देश मेंकुपोषण औरसंबंधितसमस्याओं कास्तर अधिक है। योजनाओं
की कोई कमी नहीं है लेकिन तालमेल बनाने और सामान्य लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए योजनाओं को एकदूसरे से जोड़ने की आवश्यकता है। मजबूत अभिसरण तंत्र और अन्य घटकों के माध्यम से पोषण अभियान तोलमेल बनाने का प्रयास करेगा। लक्ष्य है: (a) $0-6$ वर्ष आयु समूह के सभी संवेदनशील बच्चों और सभी गर्भवती महिलाओं और सभी दुग्धपान कराने वाली माताओं के लिए समेकित बाल विकास सेवाएँ (आई.सी.डी.एस.) सुनिश्चित करना, (b) आवश्यक खाद्य पदार्थों का पुष्टीकरण (नमक का आयोडीन द्वारा प्रबलीकरण होता है।) (c) महिलाओं के सहयोग से देशी और स्थानीय उपलब्ध कच्चे माल से कम कीमत वाले पोषक खाद्य पदार्थों का उत्पादन करना और उन्हें लोकप्रिय बनाना। (d) संवेदनशील वर्गों में सूक्ष्मपोषकों की कमी पर नियंत्रण लाना, जैसे -बच्चों, गर्भवती महिलाओं और दुध्ध पान कराने वाली माताओं में लौहतत्व, विटामिन $\mathrm{A}$, फ़ॉलिक अम्ल और आयोडीन की कमी।
अप्रत्यक्ष संस्थागत और ढाँचागत परिवर्तनों द्वारा राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अप्रत्यक्ष नीति साधनों में लंबी अवधि की योजनाएँ सम्मिलित हैं जैसे - (a) खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना अर्थात् भोजन उपलब्धता में सुधार करना। (b) पोषण की दृष्टि से पोषण तत्वों से युक्त पदार्थ की उपलब्धता को सुनिश्चित करके आहार-पद्धतियों में सुधार लाना। (c) रोज़गारपरक योजनाओं और जन वितरण प्रणाली, भूमि सुधार लागू करके, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण में सुधार करके, खाद्य पदार्थों में मिलावट रोककर, मीडिया को सम्मिलित करके, आधारभूत पोषण की जानकारी देकर, पोषण कार्यक्रमों की निगरानी करके महिलाओं, शिक्षा और साक्षरता के स्तर में सुधार करके और समाज की भागेदारी से ग्रामीण और शहरी गरीबों की गरीबी कम करना।
विभिन्न कार्य नीतियाँ हैं जिनका उपयोग जन पोषक समस्याओं से जूझने के लिए किया जा सकता है। इनका मोटे तौर पर निम्न प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है-
(a) आहार अथवा भोजन-आधारित कार्यनीतियाँ
(b) पोषण-आधारित दृष्टिकोण अथवा औषधीय दृष्टिकोण
आहार अथवा भोजन-आधारित कार्य नीतियाँ — ये निवारक और व्यापक योजनाएँ हैं जो पोषण हीनताओं पर काबू पाने के लिए एक माध्यम के रूप में भोजन का प्रयोग करती हैं। ये सूक्ष्म पोषकों की कमी को रोकने के लिए, सूक्ष्मपोषक-समृद्ध खाद्य पदार्थों की उपलब्धता और उपभोग को बढ़ाकर, महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। इस कार्यनीति का सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह दीर्घोपयोगी है और इसके लाभ लंबी अवधि तक मिलते रहेंगे। दूसरे लाभ हैं कि ये लागत प्रभावी हैं और विभिन्न सांस्कृतिक और आहारी परंपराओं के लिए अपनाए जा सकते हैं और अधिक महत्वपूर्ण यह है कि इनमें अतिमात्रा या आविषालुता का खतरा नहीं होता जैसा पोषक-आधारित/औषधीय दृष्टिकोण (दृष्टिकोणों) में हो सकता है। कुछ महत्वपूर्ण भोजन-आधारित उपागमों में सम्मिलित हैं-आहारी विविधता और रूपांतरण या परिवर्तन, बागवानी हस्तक्षेप जैसे - घरेलू बागवानी, पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा, भोजन पुष्टिकरण।
पोषण-आधारित अथवा औषधीय दृष्टिकोण — इस दृष्टिकोण में संवेदनशील समूहों को पोषक पूरक भोजन पदार्थ दिए जाते हैं, अर्थात् उन लोगों को जिनमें कमी का खतरा है और वे जिनमें पोषन की कमी है। यह भारत में विशेष रूप से विटामिन $\mathrm{A}$ और लौहतत्व के लिए उपयोग की जाने वाली एक अल्पावधि नीति है। ये पूरक कार्यक्रम अधिकतर महँगे होते हैं और इनमें क्या शामिल किया जाता है, इस संबंध में समस्याएँ भी हो सकती हैं। विभिन्न पोषकों के लिए मुख्य लक्ष्य समूह भिन्न होते हैं। सारणी 1 में दो दृष्टिकोणों की तुलना की गई है। यह याद रखें कि दीर्घकालिक लक्ष्य पूरक भोजन की बजाय भोजन-आधारित दृष्टिकोण के लिए हो।
पोषाक आहार उपलब्ध कराना
स्रोत一 दृष्टि और जीवन , बेसल, स्विट्ज़रलैंड
विटामीन $A$ के अच्छे स्रोत हैं। पीले, हरे और नारंगी रंग के फल तथा सब्ज़ियाँ
बच्चे का वजजन
विटामिन $A$ की न्यूता वाला बालक
स्रोत — दृष्टि और जीवन , बेसल, स्विट्ज्जरलैंड
विटामिन $A$ की न्यूनता वाली आँख का चित्र
आइरन ड्रॉप्स और फ़ॉलिक एसिड
माताओं के साथ परामर्श
सारणी 3.1 - अल्पपोषण कम करने के लिए विभिन्न हस्तक्षेप
हस्तक्षेप | जिसके लिए उचित है |
लाभ | चुनौतियाँ/हानियाँ |
---|---|---|---|
चिकित्सीय अथवा पोषण-आधारित | |||
पोषण पूरक | डॉक्टरी उपचार रोकथाम विशिष्ट लक्ष्य समूहों के लिए कार्यक्रम |
समयबद्ध दीर्घोपयोगिता |
दूररे उपायों से अधिक महँगे कार्यक्षेत्र का सीमित लक्ष्य |
भोजन-आधारित अथवा आहार - आधारित नीतियाँ | |||
पुष्टीकरण (भोजन को पोषकों द्वारा पुष्ट करना) |
रोकथाम (सार्वभौमिक/ सभी लिए) |
बहुत अधिक मूल्य- प्रभाव दीर्घोपयोगी व्यापक क्षेत्र |
खाद्य उद्योग की भागीदारी की आवश्यकता होती है। पोषण और पोषकों के महत्त्व के बारे में लोगों को जागरूक नहीं करता। लंबी अवधि वाले दीर्घकालिक आहारी/व्यावहारिक परिवर्तनों की ओर अग्रसित नहीं करता। आहारी/व्यावहारिक परिवर्तनों की ओर अग्रसित नहीं करता। |
आहार विविधता | रोकथाम (सार्वभौमिक / सभी के लिए) |
बहुत अधिक मूल्य प्रभावी दार्घोपयोगी व्यापक क्षेत्र बहुत से सूक्ष्म पोषक एक साथ उपल॰्ध कराना भोजन सुरक्षा में सुधार |
भोजन लेने के व्यवहार में परिवर्तन की आवश्यकता होती है। आर्थिक विकास की संभावना की आवश्यकता होती है। कृषि नीतियों में परिवर्तन की आवश्यकता |
स्रोत — जन पोषण (पाठ्यक्रम सामग्री), ‘इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय’ द्वारा प्रकाशित।
आइए अपने देश में चल रहे पोषण- कार्यक्रमों की सूची बनाएँ —
1. एकीकृत बाल विकास सेवाएँ (आई. सी. डी. एस.) —यह प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और विकास के लिए एक विस्तारित कार्यक्रम है। इसमें गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताएं, शिशु और 6 साल तक के छोटे बच्चे शामिल हैं।
2. पोषण हीनता नियंत्रण कार्यक्रम जैसे - विटामिन $\mathrm{A}$ की कमी के कारण अंधापन रोकने के लिए राष्ट्रीय रोग निरोधक कार्यक्रम, राष्ट्रीय आयोडीन हीनता विकार नियंत्रण कार्यक्रम,
3. आहार पूरक कार्यक्रम जैसे - मध्याह्न भोजन कार्यक्रम,
4. भोजन सुरक्षा कार्यक्रम जैसे - जन वितरण प्रणाली, अंत्योदय अन्न योजना, अन्नपूर्णा योजना, कार्य के बदले अनाज राष्ट्रीय कार्यक्रम, और
5. स्वरोज़गार और वैतनिक रोज़गार योजनाएँ।
स्वरोज़गार और वैतनिक रोज़गार सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम हैं।
स्वास्थ्य देखभाल - स्वास्थ्य एक मूलभूत मानव अधिकार है। यह सरकार का दायित्व है कि वह नागरिकों को समुचित स्वास्थ्य देखभाल उपलब्ध कराए। स्वास्थ्य देखभाल केवल डॉक्टरी देखभाल नहीं है, बल्कि इसमें बहुत-सी सेवाएँ सम्मिलित हैं, जिन्हें स्वास्थ्य को संवर्धित करने, कायम रखने, निगरानी करने और स्वास्थ्य लाभ में सहायक होना चाहिए। भारत में स्वास्थ्य देखभाल तीन स्तरों —प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक पर की जाती है। प्राथमिक स्तर- व्यक्ति, परिवार या समुदाय का स्वास्थ्य पद्धति से प्रथम संपर्क का स्तर होता है। हमारे देश में ये सेवाएँ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पी.एच. सी.) के नेटवर्क द्वारा उपलब्ध कराई जाती हैं।
द्वितीय स्तर पर अधिक जटिल स्वास्थ्य समस्याओं का निराकारण ज़िला अस्पतालों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों द्वारा किया जाता है। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र परामर्श देने के पहले स्तर के रूप में कार्य करते हैं। तृतीय स्तर स्वास्थ्य देखभाल का तीसरा और उच्चतम स्तर है। यह अधिक जटिल समस्याओं को सुलझाता है, जिन्हें पहले- प्रथम स्तरों पर नहीं सुलझाया जा सकता। तृतीयक स्तर के संस्थान मेडिकल कॉलेजों के अस्पताल, क्षेत्रीय अस्पताल, विशिष्ट अस्पताल और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान होते हैं।
कार्यक्षेत्र
जन पोषण विशेषज की भूमिका — पोषण स्वास्थ्य का एक महत्वपूर्ण निर्धारक है। पूरे विश्व में परिवर्तित हो रहे स्वास्थ्य परिदृश्य ने जन पोषण विशेषज्ञों की चुनौतियों को बढ़ा दिया है। जन पोषण विशेषज्ञ सामुदायिक पोषण विशेषज्ञ भी कहलाते हैं। वे जो महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी भली-भाँति प्रशिक्षित और साधन संपन्न होते हैं, वे स्वास्थ्य संवर्धन और बीमारी की रोकथाम की सभी कार्यनीतियों में सहभागी बनने के लिए पूर्ण रूप से उपयुक्त होते हैं। प्रमुख क्षेत्रों में पोषण विज्ञान, पूरे जीवन क्रम में पोषण आवश्यकताएँ, पोषण मूल्यांकन, पोषण देख-रेख, खाद्य विज्ञान और कला, शैक्षिक पद्धतियाँ, जन-संचार माध्यमों का प्रयोग, और कार्यक्रम प्रबंधन शामिल हैं।
एक सामुदायिक पोषण विशेषज्ञ निम्नलिखित क्षेत्रों /परिस्थितियों में कार्य कर सकता है -
(a) अस्पतालों द्वारा रोकथाम और संवर्धन तथा शिक्षा के लिए किए जाने वाले विस्तारित कार्यक्रमों में भाग लेने के रूप में।
(b) शैक्षिक योग्यताओं और विशेषज्ञता के आधार पर विभिन्न स्तरों पर, राष्ट्रीय समेकित बाल विकास सेवाओं में भाग लेने के रूप में।
(c) सरकारी स्तर पर परामर्शदाताओं, सलाहकारों के रूप में अथवा नीति निर्धारण समितियों में।
(d) सरकार के सारे विकासात्मक कार्यक्रमों, स्वयंसेवी संस्थाओं और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं जैसे यूनिसेफ़, ए.जी.ओ, यू.एस.ए.आईडी,जी.ए.आई.एन, पोषण इंटरनेशनल,आई.एफ. पी.आर.आई. और अन्य में कार्य करने के रूप में अन्य राष्ट्रीय और क्षेत्रीय संस्थाएँ भी हैं।
(e) एक पोषक विशेषज्ञ का साथ, उन संस्थाओं के साथ भी हो सकता है जो विभिन्न लक्ष्य समूहों के लिए बड़े पैमाने पर पोषाहार कार्यक्रम चलाती हैं। ये लक्ष्य समूह हो सकते हैं, छोटे बच्चे, विद्यालयी बच्चे, किशोर, गर्भवती और दुाधपान करवाने वाली महिलाएँ, वृद्ध और अशक्तजन।
(f) पोषण विशेषज्ञ अथवा विद्यालय स्वास्थ्य कार्यक्रमों के विद्यालय स्वास्थ्य परामर्शदाता के रूप में।
(g) वे कमजोर समूहों के लिए खाद्य और पोषण सुरक्षा से संबंधित कॉर्पोरेट सी.एस.आर. कार्यक्रमों में शामिल हो सकते हैं।
इसके अतिरिक्त शिक्षण, शोध, उद्यमवृत्ति में भागीदारी के रूप में, पर्याप्त और समुचित शिक्षण प्राप्त लोगों के लिए संचार सामग्रियों और शैक्षिक पैकेज विकसित करने के कार्य में सम्मिलित एजेंसियों में भी अवसर हैं।
क्रियाकलाप 1
विद्यालय विद्यार्थियों के लिए आँगनवाड़ियों (आई. सी. डी. एस. केंद्रों) का एक भ्रमण आयोजित करें। विद्यार्थी पर्यवेक्षक (यदि संभव हो) या सेविका से बातचीत कर जानकारी प्राप्त करें वहाँ की गतिविधियाँ देखें (संभव हो तो भोजन के वितरण के समय वहाँ उपस्थित रहें) और इन सबका एक पावर प्वाइंट प्रस्तुति तैयार करें।
क्रियाकलाप 2
विद्यालय अल्पपोषण और इसके संभावित कारणों पर चिकित्सा अधिकारी/स्वास्थ्य अधिकारी पी. एस. एम. डिपार्टमेंट/पी. एच. सी./ नगर निगम के साथ एक चर्चा आयोजित कीजिए।
क्रियाकलाप 3
विद्यालय में भारत में पोषण समस्याओं, उनके कारणों, संवेदनशील समूहों और साधारण रोकथाम उपायों पर एक प्रदर्शनी आयोजित कीजिए।
क्रियाकलाप 4
डब्ल्यू. एच. ओ, यूनिसेफ़, आई. सी. एम. आर, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय तथा महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की वेबसाइट देखिए और उनके कार्यक्रमों तथा गतिविधियों की विस्तृत जानकारी प्राप्त कीजिए।
जीविका के अवसर
- अस्पतालों के पी. एस. एम. विभागों में सामुदायिक विशेषज्ञ
- सरकार के पोषण कार्यक्रम, जैसे >- आई. सी. डी. एस, खाद्य एवं पोषण बोर्ड
- क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्थानों में पोषण विशेषज्ञ के रूप में
- परामर्शदाता के रूप में
- विद्यालयों, उद्योगों, इत्यादि के लिए आहार विशेषज्ञों या परामर्शदाताओं के रूप में
- शिक्षण और शैक्षिक
- अनुसंधान
पोषण स्थिति, अल्प पोषण, कुपोषण, जन स्वास्थ्य, जन पोषण, राष्ट्रीय पोषण नीति, हस्तक्षेप, पोषण कार्यक्रम, समुदाय
पुनरवलोकन प्रश्न
1. निम्नलिखित शब्दों को समझाइए -
बौनापन, जन्म के समय कम भार वाला शिशु, आई. डी. डी, क्षयकारी, कुपोषण का दोहरा भार, मरास्मस,क्वाशिओरकोर, समुदाय।
2. जन पोषण समस्याओं से जूझने के लिए उपयोग में लाई जा सकने वाली विभिन्न कार्य नीतियों की विवेचना कीजिए।
3. जन स्वास्थ्य पोषण क्या है?
4. भारत किन सामान्य पोषण समस्याओं का सामना कर रहा है?
5. आई. डी. ए और आई. डी. डी. के परिणाम क्या होते हैं?
6. सार्वजनिक स्वास्थ्य पोषण का दायरा क्या है? इस क्षेत्र में कैरियर के कुछ विकल्पों को सूचीबद्ध करें।
प्रायोगिक कार्य -1
विषयवस्तु — पोषण कार्यक्रमों के लिए पूरक खाद्य पदार्थों को विकसित करना और तैयार करना।
कार्य- 1 सामान्य रूप से खाए जाने वाले, स्थानीय रूप में उपलवध खाद्य पदार्थों के मूल्यों की जानकारी प्राप्त करना।
2. आँगनवाड़ी में आने वाले विद्यालयपूर्व आयु के बच्चों के पूरक भोजन के लिए कम कीमत के व्यंजनों की योजना बनाना।
3. चुने गए व्यंजनों को तैयार करना।
4. तैयार किए गए व्यंजनों का मूल्यांकन करना।
उद्देश्य-यह प्रायोगिक कार्य विद्यार्थियों को दिए गए बजट में विद्यालय-पूर्व विद्यार्थियों के लिए पूरक आहारों की योजना बनाने में लागत का अनुमान लगाने और उन्हें बनाने संबंधी पूरी जानकारी प्रदान करेगा।
प्रयोग कराना-1
1. विद्यार्थियों को चार समूहों में बाँटे।
2. प्रत्येक समू चुने गए पोषक उपल॰्ध कराने के लिए व्यंजनों की निम्न प्रकार योजना बनाएँ प्रत्येक समूह दो-दो व्यंजनों की योजना बनाए और मूल्य सूची का उपयोग कर लागत निकाले। योजना पाँच लोगों को परोसने के लिए बनाएँ।
समूह $\mathrm{A}$ - ऐसे व्यंजनों की योजना बनाएँ जो ऊर्जा और प्रोटीन के अच्छे स्रोत हों।
समूहू $B$ - ऐसे वंजनों की योजना बनाएँ जो लौहतत्व के अच्छे स्रोत हों।
सूमह $\mathrm{C}$ - ऐसे ख्यंजनों की योजना बनाएँ जो विटामिन $\mathrm{A}$ और बीटा कैरोटीन के अच्छे स्रोत हों।
सूमह D - ऐसे व्यंजनों की योजना बनाएँ जो कैल्सियम के स्रोत हों।
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शिक्षक द्वारा लागत सीमा दी जानी चाहिए (एक व्यक्ति को परोसने की लागत पाँच रुपये से अधिक न हो)।
3. प्रत्येक समूह ने जिन व्यंजनों की योजना बनाई है, उनके लिए विशिष्ट पोषक के लिए संभावित स्थानीय उपलब्ध स्रोतों की पहचान, समूह द्वारा की जानी चाहिए।
4. आयोजित व्यंजनों की शिक्षक द्वारा जाँच की जानी चाहिए और तैयार करने के लिए एक उचित व्यंजन का चयन किया जाना चाहिए।
5. व्यंजन को कक्षा में तैयार किया जाए और उसका (a) परोसने की मात्रा (b) लागत (c) विद्यालयपूर्व बच्चों के लिए उपयुक्तता (d) दिखावट (e) स्वाद (f) बच्चों द्वारा स्वीकृति के लिए मूल्यांकन किया जाए।
6. अवलोकन और टिप्पणियाँ रिकॉर्ड की जाएँ और सुधार के लिए सुझाव दिए जाएँ।