अध्याय 01 कार्य, आजीविका तथा जीविका
प्रस्तावना
स्वयं अपने लिए एक जीविका (करिअर) को तय करना आसान काम नहीं है, क्योंकि एक ओर तो बहुत से करिअर के मार्ग खुले हैं और दूसरी ओर एक युवा व्यक्ति के लिए अभिरुचि और प्रतिभा की पहचान करके उसे मान्यता भी देनी होती है। साथ ही कुछ मामलों में, रुचियों में भी बहुत विविधता होती है। अत: चयन करना आसान नहीं है। सही चयन करने के लिए युवाओं को विभिन्न संभावी विकल्पों को जानना भी आवश्यक है। सबसे पहली महत्वपूर्ण बात यह है कि व्यक्ति अपनी अभिरुचि, प्रतिभा, व्यक्तिगत
प्राथमिकताओं, आवश्यकताओं और इच्छाओं को पहचाने। तत्पश्चात् ऐसे विकल्पों की खोज-बीन प्रारंभ करे, जिनमें व्यक्ति अपने लाभ के साथ-साथ सामाजिक योगदान के लिए अपनी क्षमताओं को एकजुट करने का प्रयास कर सकता है। उचित विकल्प से व्यक्ति को सफ़लता और संतोष प्राप्त होगा।
कार्य और अर्थपूर्ण कार्य
कार्य मूलतः ऐसी गतिविधि है, जिसे सभी मनुष्य करते हैं और जिसके द्वारा प्रत्येक, इस संसार में एक स्थान पाता है, नए संबंध बनाता है, अपनी विशिष्ट प्रतिभाओं और कौशलों का उपयोग करता है और सबसे ऊपर अपनी पहचान और समाज के प्रति लगाव की भावना को विकसित करना सीखता है और उसमें वृद्धि करता है। कार्य का वर्णन आवश्यक गतिविधियों के रूप में किया जा सकता है जो किसी उद्देश्य या आवश्यकता के लिए की जाती हैं।
कार्य सभी संस्कृतियों का केंद्र बिंदु होता है, यद्यपि प्रत्येक संस्कृति के इसके बारे में अपने, स्वयं के मूल्य और संकल्पनाएँ होती हैं। वास्तव में, सभी मनुष्यों के लिए कार्य मुख्यत: दैनिक जीवन की अधिकांश गतिविधियाँ हैं। लोगों द्वारा किए जाने वाले कार्य बहुत से कारकों पर निर्भर होते हैं, जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, आयु और जेंडर (स्त्री-पुरुष), अवसर की सुलभता, वैश्वीकरण, भौगोलिक स्थिति, वित्तीय लाभ, पारिवारिक पृष्ठभूमि, इत्यादि।
अधिकांश व्यक्ति इतना धन अर्जित करने के लिए कार्य करते हैं जिससे परिवार का खर्च चल सके और साथ ही आराम, मनोरंजन, खेल और खाली समय के लिए समुचित व्यवस्था हो सके। कार्य स्वयं की व्यक्तिगत पहचान को विकसित करने और स्वाभिमान बढ़ाने में उत्प्रेक का कार्य कर सकता है। कार्य अनेक रूपों में योगदान देता है। जब हम कोई कार्य करते हैं, तब हमें स्वयं को विकसित अथवा कुशलता का बोध होता है, हम अपनी आवश्यकता और वित्तीय लाभ को एक चुनौती के रूप में देखते हैं। हम बेहतर का निर्माण करके या संस्थान को बेहतर ख्याति दिलाकर या बेहतर लाभ कराकर उस संस्थान के लिए भी योगदान देते हैं जो हमें नौकरी देता है। हमारा कार्य हमारे आस-पास के परिवेश में जीवन की गुणवत्ता पर भी अपना प्रभाव डालता है।
किसी ने सही कहा है - “कार्य वह तेल है जो समाज रूपी मशीन के लिए स्नेहक का काम करता है” केवल मनुष्य ही नहीं, प्रकृति के सभी जीव और तत्व निरंतर कार्यरत् हैं और जीवन चक्र में अपना योगदान देते रहते हैं। वास्तव में, यह मानव और प्रकृति का सामूहिक कार्य है जो हमारी आधारभूत आवश्यकताएँ पूरी कर रहा है और हमें सुख-साधन और सुविधाएँ भी उपलब्ध करा रहा है। अधिकांश मामलों में, कार्य से कार्यकर्ता को आजीविका प्राप्त होती है, परंतु अन्य ऐसे भी लोग हैं जो आनंद, बौद्धिक प्रोत्साहन, समाज को योगदान, इत्यादि के लिए निरंतर कार्य करते हैं, इस तथ्य के बावजूद कि वे इससे कोई धन अर्जित नहीं कर रहे हैं, उदाहरण के लिए, गृहणियों/माताओं द्वारा किया गया कार्य। अत: ऐसे लोगों के लिए कार्य एक कर्त्तन्य भी है और एक योगदान भी। इस प्रकार कार्य सदैव इसलिए नहीं किया जाता कि कोई व्यक्ति उससे कितना धन कमा रहा है, बल्कि वह स्वयं के लिए, अपने परिवार, अपने नियोक्ताओं और समाज या दुनिया के लिए भी योगदान करता है।
कार्य को इन रूपों में देखा जा सकता है -
- एक नौकरी और अनेक व्यक्तियों के लिए ‘आजीविका’ का साधन,
- एक ऐसा कार्य अथवा कर्त्तव्य जिसमें बाध्यता का बोध निहित है,
- नौकरी और आय प्राप्ति द्वारा आजीविका सुरक्षा का माध्यम,
- ‘धर्म’ अथवा कर्त्तव्य, स्वयं के सच्चे व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति, स्वयं की विलक्षण प्रतिभा की अभिव्यक्ति जो स्वयं और आस-पास के व्यक्तियों के जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करती है,
- आध्यात्मिक आचरण का एक भाग,
- स्वयं की सृजन-क्षमता का माध्यम,
- आनंद और पूर्ण मानसिक संतुष्टि का स्रोत,
- कार्य करना और अपनी जीविका उपार्जित करना- मूलत: भावी आशा, स्वाभिमान और गरिमा के लिए अवसर प्रदान करता है,
- पद, शक्ति और नियंत्रण का प्रतीक,
- एक लाभप्रद अनुभव, एक प्रकार का मानसिक या भौतिक कार्य जिसके अंत में सफ़लता मिल सकती है,
- स्वविकास और स्वकार्यान्वयन का साधन (मूल्यों और अभिलाषा को प्रतिबिंबित करता है)।
जब कोई व्यक्ति अर्थपूर्ण कार्य में सम्मिलित होता है, तो उसमें पहचान, महत्त्व और प्रतिष्ठा का बोध विकसित होता है।
अर्थपूर्ण कार्य क्या है? — अर्थपूर्ण कार्य समाज अथवा अन्य लोगों के लिए उपयोगी होता है, जिसे ज़िम्मेदारी से किया जाता है और करने वाले के लिए आनंददायक भी होता है। यह कार्य करने वाले को अपने कौशल अथवा समस्या समाधान की योग्यता के लिए समर्थ बनाता है। सही बात तो यह है कि कार्य ऐसे वातावरण में संपादित किया जाना चाहिए जो सकारात्मक व्यावसायिक संबंधों के विकास को प्रेरित करे और जिससे मान्यता तथा/अथवा लाभ भी प्राप्त हो।
जब किए गए कार्य का परिणाम अर्थपूर्ण अथवा सफ़ल होता है, तब यह व्यक्तिगत विकास में योगदान देता है, अपने आप में विश्वास एवं महत्त्व जागृत करता है और अंतत: इससे कार्य को संपन्न करने की क्षमता मिलती है। कार्य अपने स्वयं के जीवन की और व्यापक रूप से समाज की परिस्थितियों को सुधारने के लिए योगदान के अवसर उपलब्ध कराता है।
किसी कार्य में कार्यरत् व्यक्ति, (कर्मचारी अथवा स्वनियुक्ति) के लिए उसके व्यक्तिगत गुणों, प्रतिभाओं अथवा अभिरुचियों, योग्यता और कौशलों के प्रति, जो सबसे अधिक अनुकूल है, वह बहुत महत्वपूर्ण है। यह जीवन भर की जीविका का मार्ग प्रशस्त करता है। अत: कुछ ऐसा चुनना आवश्यक है जिसके करने के लिए व्यक्ति का उत्साह बना रहता है। अत: किसी के लिए और सभी के लिए कार्य-जीवन सही रूप में उसकी क्षमताओं और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। व्यक्ति, जो कार्य-जीवन में प्रवेश कर रहे हैं और वे भी जो एक करिअर बनाने की सोच रहे हैं, स्वयं से निम्नलिखित प्रश्न पूछ सकते हैं -
- एक व्यवसाय के लिए मेरी विशिष्ट प्रतिभाएँ, विशेषताएँ और अभिरुचियाँ क्या हैं?
- क्या कार्य प्रेरक और चुनौतीपूर्ण है?
- क्या यह व्यवसाय मेंर उपयोगी होने का बोध कराने वाला है?
- क्या यह नौकरी मुझे यह आभास कराती है कि मैं समाज के लिए कुछ योगदान कर रहा हूँ।
- क्या कार्य-स्थल का वातावरण और लोकाचार मेरे लिए उपयुक्त रहेगा?
अधिकांश लोगों के लिए, अपनी और परिवार की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु अपनी जीविका उपार्जित करना निश्चित रूप से अत्यावश्यक और अनिवार्य होता है। अधिकांश कार्य धन कमाने के लिए हो सकते हैं- इन कार्यों को परंपरागत रूप से “नौकरी" कहा जाता है। फिर भी, बहुत से व्यक्ति जीविका के लिए अपने कार्य को करते हुए, नौकरी से हटकर कुछ अलग कार्य भी करते हैं। अत: ‘करिअर’ मात्र एक नौकरी से कुछ अधिक है। कोई भी यह कहकर नौकरी और जीविका में भेद कर सकता है कि “नौकरी उसके निमित कार्य करना है, जबकि करिअर जीवन को बेहतर बनाने की प्रबल इच्छा और आगे बढ़ने, विकसित होने तथा चुने हुए कार्य क्षेत्र में स्वयं को प्रमाणित करने की आवश्यकता से जुड़ा होता है"
गत वर्षों में करिअर के बारे में संकल्पनाओं में परिवर्तन हुए हैं। अब मात्र नौकरी प्राप्त करना ही पर्याप्त नहीं है। सफलता प्राप्ति के लिए यह अतिआवश्यक है कि निरंतर नए कौशल सीखें और उन्हें उन्नत करें, विषय की नयी जानकारी प्राप्त करें और कार्य क्षमता बढ़ाएँ या उसमें वृद्धि करें। अतः आज के ज़माने में, शिक्षा को युवावस्था अथवा प्रारंभिक वयस्कता में ही नहीं छोड़ना चाहिए, बल्कि इसे व्यक्ति के करिअर के बीच के अथवा यदि आवश्यक हो तो बाद के वर्षों में भी जारी रखना चाहिए।
कोई व्यक्ति निश्चित कैसे करे कि वह कौन-सा करिअर अपनाए? अनेक बच्चे अपने माता-पिता के पद चिह्नों के अनुसार यह निश्चिय कर सकते हैं। दूसरे उन करिअरों को अपना सकते हैं जो उनके माता-पिता के करिअर से भिन्न हैं अथवा वे करिअर जिनके बारे में माता-पिता ने उनके लिए सोचा है। किसी मार्ग के चयन में सबसे महत्वपूर्ण मापदंड यह है कि व्यक्ति चयनित मार्ग के लिए गहन रुचि और अभिलाषा महसूस करे। करिअर के विकल्प के बारे में निर्णय लेने के लिए एक कठिन पहलू यह भी है कि व्यक्ति को नौकरी में आनंद आना चाहिए, विशेष रूप से जब उसने अपने परिवार का वित्तीय दायित्व अपने ऊपर ले रखा हो।
कार्य, जीविका और आजीविकाएँ
कार्य नियत परिणामों की गतिविधियों का एक समूह है। फिर भी यह आवश्यक नहीं है कि वह वेतन के लिए ही काम करे। इसमें उद्यमवृत्ति, परामर्श, स्वेच्छा-वृत्ति, अनुबंध, समाज कल्याण के लिए सामाजिक कार्य और अन्य व्यावसायिक गतिविधियाँ सम्मिलित हो सकती हैं। जीविका का अर्थ है साधन और व्यवसाय तथा जिसके द्वारा कोई, मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्वयं की सहायता करता है और अपनी जीवनशैली को बनाए रखता है। इसमें व्यवसाय और जीविका मार्ग तथा जीवनशैली से संबंधित कार्य की रूपरेखा सम्मिलित है। दूसरी ओर, जीविका प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग रूप में विशिष्ट होती है तथा उनमें बदलाव भी आता रहता है। जीविका एक जीवन-प्रबंधन संकल्पना है। जीवन पर्यन्त जीविका में विकास होता रहता है, जिसमें प्रबंधक भूमिकाएँ, वैतनिक और अवैतनिक कार्यों में संतुलन बनाए रखना, सीखना तो शामिल है ही, साथ-ही-साथ व्यक्तिगत जीवन संबंधी भूमिकाएँ और निजी तौर पर तय किए गए भविष्य की ओर गमन करने के लिए आवश्यक कभी भी और कहीं भी किए जाने वाले परिवर्तन भी सम्मिलित हैं। वेबस्टर शब्दकोश में जीविका को इस प्रकार परिभाषित किया गया है-“विशेष रूप से
सार्वजनिक, व्यावसायिक अथवा व्यापारिक जीवन से जुड़े निरंतर प्रगतिशील क्षेत्र अथवा व्यवसाय” और कार्य हैं - “श्रम अथवा कर्त्तव्य जो व्यक्ति द्वारा उसकी आजीविका के लिए चयनित जीविका अथवा रोज़गार का सामान्य माध्यम है।” कोई व्यक्ति जो कुछ भी चुनता है, व्यापक रूप से वह शरीर और मनोवृत्ति दोनों का पोषण करने के साथ-साथ दूसरों को भी लाभान्वित करे।
कार्य के बहुत-से परिप्रेक्ष्य होते हैं। व्यापक रूप से कार्य के प्रचलित अर्थ हैं-
(i) एक नौकरी और जीविका के रूप में कार्य — यहाँ कार्य मुख्य रूप से आय का स्रोत होता है जो ऐच्छिक परिणाम उपलब्ध कराता है। उदाहरण के लिए अपने परिवार को सहायता प्रदान करने के लिए नौकरी करना। इसमें व्यक्ति को नौकरी करने का संतोष अर्जित आय के रूप में होता है।
(ii) जीविका के रूप में कार्य—इसमें व्यक्ति अपने कार्य को निरंतर उन्नत, व्यावसायिक रूप में उच्च पद, स्तर, वेतन और उत्तरदायित्व के रूप में देखता है। एक व्यक्ति जो जीविका के लिए कार्य करता है पर्याप्त समय और ऊर्जा लगाता है, क्योंकि ऐसा करने पर ही उसे भविष्य में लाभ होता है, ऐसे लोगों को नौकरी के दौरान निंरतर बढ़ने और उपलब्धियाँ प्राप्त करने से संतुष्टि प्राप्त होती है।
(iii) जीविका के रूप में मनपसंद कार्य— कार्य को अपनी मनपसंद जीविका मानकर उसे करने पर व्यक्ति को संतोष मिलता है। इससे जीविका को करने के लिए उसे प्रेरणा मिलती है और वह आंतरिक अथवा उत्कृष्ट उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रेरित होता है।
निम्नलिखित दंतकथा अभी तक विवेचित संकल्पनाओं को दर्शाती है-तीन व्यक्ति मजबबूत हथौड़ों से पत्थर तोड़ रहे थे। उनसे पूछा गया कि क्या कर रहे हैं? तो पहले व्यक्ति ने उत्तर दिया, “यह मेरा रोज़गार है, मैं इन चट्टानों को छोटे टुकड़ों में तोड़ रहा हूँ", दूसरे व्यक्ति ने कहा, “यह मेरी आजीविका है, मैं चट्टानों को तोड़कर अपने परिवार का भरणपोषण करता हूँ"। तीसरे व्यक्ति ने कहा, “मेरी एक कल्पना है, एक मूर्तिकार बनने की और इसलिए में इस बड़े पत्थर से एक मूर्ति गढ़ रहा हूँ।” तीसरे व्यक्ति ने यह कल्पना कर ली थी कि हथौड़े की प्रत्येक चोट उसकी जीविका को साकार करने के लिए योगदान देगी, जबकि पहले और दूसरे व्यक्ति का ध्यान उनके रोजगार और आजीविका पर था।
पुनरवलोकन प्रश्न
- वे कौन से विभिन्न तरीके हैं, जिनसे ‘कार्य’ को समझा जा सकता है?
- नौकरी और जीविका में भेद कीजिए।
- अर्थपूर्ण कार्य से आप क्या समझते हैं?
भारत के परंपरागत व्यवसाय
जहाँ तक कला और संस्कृति की बात है, भारत सबसे धनी देशों में से एक है। विश्व के बहुत कम देशों में इस देश की तरह की प्राचीन और विविध संस्कृति पाई जाती है। इस विविधता के होने पर भी यहाँ टिकाऊ प्रकृति वाली सांस्कृतिक और सामाजिक साहचर्यता है। वर्षों से इस संस्कृति का स्थायित्व अधिकतर सामाजिक और सांस्कृतिक
प्रथाओं के कारण कायम है, यद्यपि विदेशी आक्रमणों और उथल-पुथल से कुछ विघटन भी हुए हैं।
कृषि जनसंख्या के एक बड़े भाग के मुख्य व्यवसायों में से एक व्यवसाय रहा है, क्योंकि भारत के अधिकांश भागों में जलवायुवीय परिस्थितियाँ कृषि कार्यों के लिए उपयुक्त हैं, क्योंकि कुल जनसंख्या का लगभग सत्तर प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करता है, उन लाखों लोगों के लिए कृषि ही रोज़गार का सबसे बड़ा स्रोत है। उनमें से काफ़ी भूमि के छोटे-छोटे भूखंडों में खेती कर रहे हैं, उनमें बहुत से लोगों के पास मालिकाना हक़ भी नहीं है। इससे उनको फ़सल का एक छोटा हिस्सा मिल जाता है। इतना कम उत्पाद उनके परिवार के लिए पर्याप्त नहीं होता, उसे बेचकर लाभ प्राप्त करने की बात तो दूर की है। देश के अधिकांश भागों में कुछ किसान शहरी बाज़ार में बेचने के लिए ‘नक़दी फसलें’ उगाते हैं और कुछ क्षेत्रों में अधिक आर्थिक महत्त्व वाली फ़सलें, जैसे - चाय, कॉफ़ी, इलायची और रबड़ उगाते हैं, क्योंकि इनसे विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। भारत विश्व में काजू, नारियल, दूध, अदरक, हल्दी और काली मिर्च के सबसे अधिक उत्पादन करने वाले देशों में से एक है। इसके अतिरिक्त एक अन्य महत्वपूर्ण व्यवसाय मछली पकड़ने का है, क्योंकि देश की तट-रेखा काफ़ी लंबी है।
भारतीय गाँवों के परंपरागत व्यवसायों में से हस्तशिल्प एक है और आज अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बहुत-सी ललित कलाएँ तथा हस्तशिल्प काफ़ी लोकप्रिय हैं और यह ग्रामीण जनता की जीविका का साधन बन गया है। शिल्प के कुछ उदाहरण हैं-काष्ठशिल्प, मिट्टी के बर्तन बनाना, धातु शिल्प, आभूषण बनाना, हाथी दाँत शिल्प, कंघा शिल्प, काँच और कागजज-शिल्प, कशीदाकारी, बुनाई, रँगाई और छपाई, शैली शिल्प, मूर्तिकला, टेराकोटा (लाल-भूरी मिट्टी के पकाए हुए बर्तन और मूर्तियाँ), शोलापीठ शिल्प, दरी, गलीचे, कार्पेट, मिट्टी और लोहे की वस्तुएँ, इत्यादि। बुनाई भारत का एक कुटीर उद्योग है। प्रत्येक राज्य के विशिष्ट वस्त्र, कसीदाकारी और परंपरागत परिधान होते हैं जो उस क्षेत्र-विशेष की जलवायु और जीवन-शैली के लिए उपयुक्त होते हैं। भारत विभिन्न या भिन्न-भिन्न प्रकार की बुनाई के लिए प्रसिद्ध है। हाथ से बुने भारतीय वस्त्रों ने सदियों से प्रशंसा पाई है। इनमें से बहुत से वस्त्र प्राचीन काल में प्रतिदिन उपयोग के लिए और अन्य
सजावट के उद्देश्य से बनाए जाते थे। ये व्यवसाय और कई अन्य, सामाजिक-आर्थिक संस्कृति के आधार को प्रतिबिंबित करते हैं। परंतु आधुनिक अर्थव्यवस्था ने इस प्रकार के शिल्पों की सामग्री को वैश्विक बाजजार तक पहुँचाया है जिससे देश को पर्याप्त विदेशी मुद्रा प्राप्त हो रही है।
उड़ीसा की शोला शिल्प
कर्नाटक की चन्नपटन की मूर्तियाँ
पत्थर की मूर्तिकला
परंपरागत रूप से, शिल्प निर्माण/उत्पादन करने की विधियाँ, तकनीक और कौशल परिवार के सदस्यों को पीढ़ी दर पीढ़ी सौंप दिए जाते थे। इस देशी ज्ञान का हस्तांतरण और उसका प्रशिक्षण मुख्य रूप से गृहआधारित प्रशिक्षण और जानकारी थी और इन ज्ञान के सूक्ष्म तत्वों को उस रोज़गार से जुड़े समूहों में कड़ी सुरक्षा के साथ गोपनीय रखा जाता था। भारत में धर्म, जाति और व्यवसाय की गति घनिष्ठ रूप से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और साथ ही देश के सामाजिक ढाँचे में जनसमूहों की सोपानिक व्यवस्था से भी संबद्ध हैं। ऐसे सैंकड़ों परंपरागत रोज़गार हो सकते हैं, जैसे - शिकार करना और पक्षियों और जानवरों को जाल में फँसाना, विदेशी सामान इकट्ठा करना और बेचना, माला बनाना, नमक बनाना, नीरा या ताड़ का रस निकालना, खनन कार्य, ईंट और टाइल बनाना, पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले अन्य परंपरागत रोज़गारों में सम्मिलित हैं - पुजारी, सफ़ाई करने वाले, चमड़े का काम करने वाले इत्यादि।
बुनाई, कशीदाकारी और चित्रण कलाओं के समान भारत के प्रत्येक क्षेत्र की विशिष्ट पाक-प्रणाली होती है, जिसमें देसी सामग्री और मसालों को लेकर विविध प्रकार के स्थानीय व्यंजन बनाए जाते हैं। आज, भारत अपने स्वादिष्ट व्यंजनों के लिए प्रसिद्ध है और ऐसे अनेक व्यक्तियों की आजीविका के स्रोत के रूप में उभर कर आया है जो सड़क पर भोजन बेचने से लेकर विशिष्ट भोजनालयों और पाँच सितारा होटलों के थीम मंडपों में कार्य करते हैं। अनेक प्रकार के परंपरागत व्यंजनों और मिर्च-मसालों की बहुत से देशों में माँग रहती है।
भारत की कशीदाकारी और वस्त्र
भारत में चित्रण कलाओं की विविधता है, जो चार हज़ार वर्षों से प्रचलन में हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से, कलाकारों और शिल्पकारों को दो मुख्य वर्गों के संरक्षकों से सहायता मिलती थी- बड़े हिंदू मंदिर और विभिन्न राज्यों के राजसी शासका धार्मिक उपासना के संदर्भ में मुख्य चित्रण कलाओं का उदय हुआ। भारत के विभिन्न भागों में वास्तुकला की भिन्न क्षेत्रीय शैलियाँ देखने को मिलती हैं जो विभिन्न धर्मों को प्रतिबिंबित करती हैं, जैसे- इस्लाम, सिक्ख धर्म, जैन धर्म, ईसाई धर्म और हिंदू धर्मा ये सभी धर्म संपूर्ण देश में विशिष्ट रूप से साथ-साथ अस्तित्व में थे। अत: विभिन्न उपासना स्थलों और मकबरे युक्त महलों, समाधि स्थलों, इत्यादि के पत्थरों पर कुशलता से गढ़ी हुई, काँसे या चाँदी में ढाली हुई या टेराकोटा या लकड़ी की बनी हुई अथवा रंगों द्वारा चित्रित कई प्रकार की प्रतिमाएँ देखने को मिलती हैं। इनमें से अधिकांश भारत की विशाल धरोहर के रूप में परिरक्षित की गई हैं। आधुनिक परिदृश्य में, इन कलाओं को सरकार और कुछ गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा संरक्षण और प्रोत्साहन मिला है। इससे उद्यमिता के साथ-साथ रोज़गार के अवसर उपलब्ध हुए हैं।
महाराष्ट्र की वार्ली चित्रकला कठपुतली शिल्प
कठपुतली शिल्प
परंपरागत व्यवसायों की समृद्ध धरोहर के होते हुए भी, आधुनिक संदर्भ में कला की ये कृतियाँ धीरे-धीरे बहुमात्रा में उत्पादित सामग्री की अपेक्षा कम पसंद की जा रही हैं। इससे एक ओर शिल्पकारों की आय के स्रोत कम हो गए हैं तो दूसरी ओर ललित कलाओं का सौंदर्यबोध धीरे-धीरे कम होता चला
जा रहा है। निरक्षरता, सामान्य सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन, भूमि सुधार लागू करने में धीमी प्रगति और पर्याप्त अथवा अकुशल वित्तीय और विपणन सेवाएँ मुख्य बाधाएँ हैं जो प्रगति को बीच में लटका रही हैं। वन-आधारित संसाधनों का कम होना और सामान्य पर्यावरणीय निम्नीकरण, भारत के संदर्भ में, सामने आने वाली विभिन्न समस्याओं के लिए उत्तरदायी है।
केरल का नारियल शिल्प
आसाम का बाँस शिल्प
ये सब एक ज़बरदस्त चुनौती सामने लाते हैं और इस देसी ज्ञान, जानकारी तथा कौशलों, जो तेज़ी से अपना आधार खो रहे हैं, के पुनरुद्धार और उसे बनाए रखने की आवश्यकता को इंगित करते हैं। कुछ क्षेत्र जहाँ अंत:क्षेप की आवश्यकता है — नए डिज़ाइन बनाना, संरक्षण और परिष्करण नीतियाँ, पर्यावरण हितैषी कच्चे माल का उपयोग, पैकेजिंग, प्रशिक्षण सुविधाओं की व्यवस्था का संरक्षण और बौद्धिक संपदा अधिकारी (आई.पी.आर.) का रक्षण। आधुनिक युवा और समुदायों के लिए आवश्यक है कि वे व्यक्तिगत रूप से जीविका अवसरों के व्यापक क्षेत्र और संभावनाओं के प्रति जागरूक रहें। इसके अतिरिक्त, ऐसे प्रयास और पहल ग्रामीण जनता की आय-उत्पादन की संभावनाएँ बढ़ाने में बहुत कारगर सिद्ध होंगे। यह नोट करना महत्वपूर्ण होगा कि भारत सरकार इस दिशा में सामूहिक प्रयास कर रही है। समय की माँग और चुनौती के रूप में जिसका भारतीय समाज सामना कर रहा है, वह है — लोकतांत्रिक वातावरण में पदानुक्रम अथवा जाति-आधारित कार्य-विभाजन के बिना विविधता को बनाए रखना।
क्रियाकलाप 3
विद्यालय द्वारा स्थानीय शिल्पकारों के यहाँ भ्रमण की व्यवस्था की जा सकती है। इसके बाद विद्यार्थी स्थानीय परंपरागत कलाओं, शिल्पों और पाक-कलाओं पर संसाधन फ़ाइल (पोरफफोलियो) तैयार करेंगे।
क्रियाकलाप 4
स्थानीय परंपरागत कलाओं और शिल्पों के प्रदर्शन हेतु प्रदर्शनी का आयोजन किया जा सकता है।
कार्य, आयु और जेंडर
किसी कार्यबल के सदस्यों की आयु और लिंग (सेक्स), व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन की कार्य पद्धति को, व्यक्ति के दृष्टिकोण (व्यष्टि दृष्टकिण) और समाज तथा राष्ट्र के दृष्टिकोण (समष्टि दृष्टिकोण) को दोनों तरह से प्रभावित करता है। बच्चों और महिलाओं का स्वास्थ्य और विकास दाँव पर होता है जब उनको ऐसे श्रम कार्य में ज़बरदस्ती लगा देते हैं जो उनकी शारीरिक और मनोवैज्ञानिक अवस्था के उपयुक्त नहीं होता। जनसंख्या के इस खंड और बड़ी आयु वर्ग के लोगों पर अनेक दृष्टिकोणों से ध्यान देने की आवश्यकता है। आइए इन तीन समूहों के सामने आ रही चुनौतियों की संक्षिप्त विवेचना करें।
कार्य के संबंध में जेंडर मुद्धे
जीवन के अधिकांश स्वरूपों में प्रकृति ने जैविक और कार्यात्मक भिन्नताओं को भली-भाँति स्थापित करते हुए स्त्री और पुरुष में भेद किया है। सामान्यत: मानव-जाति को दो लिंगों में बाँटा गया है- पुरुष और स्त्रियाँ। परंतु अभी हाल में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पारजेंडर (ट्रांसजेंडर) लोगों को तीसरे जेंडर के रूप में मान्यता दी है, जिन्हें पारलैंगिक, पार परिधानिक इत्यादि कहा जाता है। लिंग (सेक्स) तथा स्त्री-पुरुष (जेंडर) जैविक से लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण की भिन्नताओं को इंगित करते हैं। सेक्स और जेंडर शब्द अकसर अदल-बदल कर उपयोग में ले लिए जाते हैं, परंतु निश्चित रूप से इनके भिन्न अर्थ हैं। सेक्स आनुवंशिकी, जनन अंगों, इत्यादि के आधार पर जैविक वर्ग से संबंधित है जबकि जेंडर सामाजिक पहचान पर आधारित है। नर शब्द लड़कों और पुरुषों को बताता है जबकि मादा शब्द लड़कियों और महिलाओं को दर्शाता है। लिंग का बाहरी प्रमाण प्राथमिक यौन अंगों या जननांगों से होता है। ऐसा $\mathrm{XX}$ और $\mathrm{XY}$ अथवा अन्य दूसरे गुणसूत्रों संयोजनों के कारण होता है। प्रत्येक समाज में सामाजिक और सांस्कृतिक प्रथाएँ तय करती हैं कि विभिन्न जेंडरों को कैसा व्यवहार करना है और उन्हें किस प्रकार के कार्य करने हैं। इस प्रकार बचपन से ही व्यक्ति की पहचान बन जाती है, जो उसकी वृद्धि और विकास के साथ-साथ निरंतर धीरे-धीरे उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। किसी भी समाज अथवा समुदाय के सदस्यों द्वारा अपनी भूमिका निभाना विशिष्ट रूप से अपेक्षित है, जैसा सामाजिक और सांस्कृतिक प्रथाएँ चाहती हैं। इस प्रकार स्त्री-पुरुष की भूमिका की पहचान के मानदंड बनते हैं और स्थापित हो जाते हैं। समय के साथ, ये मापदंड और प्रथाएँ उनके लिए रूढ़िबद्ध हो गईं और तब यह प्रत्येक सदस्य का सामान्य और अपेक्षित व्यवहार समझा जाने लगा। यद्यपि ये मानदंड और प्रथाएँ कहीं भी लिखी हुई नहीं हैं और न ही इनके लिए कोई नियमों की किताब है। ये तो सामान्यत: एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होते रहते हैं और निरंतर चलन में रहते हैं। अत: यह कहा जाता है कि जेंडर शब्द की रचना सामाजिक रूप से बनाई गयी है।
सामान्य और अपेक्षित व्यवहार से अलग किसी भी तरह का विचलन अनौपचारिक, अपरंपरागत और कभी-कभी अवज्ञाकारी हो जाता है। फिर भी, समय बीतने के साथ-साथ भूमिकाएँ और आचरण विकसित हो रहें हैं, जिसका परिणाम “परिवर्तन के साथ निरंतरता” में हो रहा है। यह देखा जा सकता है कि आदमी रोटी कमाने वाला और घर संभालने वाली स्त्रियाँ जैसी बरसों पुरानी भूमिकाएँ बदल रही हैं। परंतु पूरे भारत में स्त्रियाँ उत्पादन संबंधी कार्यों से और कुछ समाजों में विपणन कार्यों से भी जुड़ी हुई हैं। ग्रामीण भारत में, स्त्रियाँ कृषि और पशुपालन में गहनता से और व्यापक रूप से जुड़ी हुई हैं और शहरी क्षेत्रों में भी निर्माण कार्यों में कार्यरत् हैं अथवा घरेलू “सहायिका” के रूप में रोज़गार प्राप्त कर रही हैं। ये सभी कामकाज़ी महिलाएँ हैं और किसी-न-किसी रूप में परिवार की आय में योगदान कर रही हैं। बहुत से परिवारों में अकेले महिलाएँ ही कमाने वाली होती हैं।
कमाने से सक्रिय भागीदारी और परिवार के संसाधनों में योगदान देने के बावजूद स्त्रियों को स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने और स्वतंत्र रहने की मनाही है। इस कारण से स्त्रियाँ निरंतर शक्तिहीन रहती चली आ रही हैं और समय की माँग है कि इन्हें शिक्षित करें, सशक्त बनाएँ, समर्थ बनाएँ और समाज में उचित स्थान और अपनी बात कहने का अधिकार दें।
महिलाएँ तब तक सशक्त नहीं हो सकतीं जब तक कि घर पर किए गए उनके कार्यों का मूल्य नहीं आँका जाता और उसे सवेतन कार्य के बराबर नहीं माना जाता। महिलाओं को घर चलाने वाली (गृहिणी) मानते हुए घर पर किए गए उनके कार्यों का शायद ही मूल्यांकन किया जाता है और इसे आर्थिक गतिविधि के रूप में भी गिना नहीं जाता। परंतु एक कहावत है ‘धन बचाना, धन कमाना है’। महिलाएँ परिवार के भरण-पोषण के लिए अपने जीवन के सभी स्तरों-माँ, बहन, बेटी, पत्नी और दादी के रूप में घरेलू काम-काज या परिवार के अन्य कार्य करती हैं, उसके लिए उन्हें जीवन भर ऊर्जा की आवश्यकता होती है। इस प्रकार का योगदान परिवार के अन्य सदस्यों को अधिक दक्षता से उनकी भूमिका निभाने और कर्तव्य पूरा करने में सहायक होता है। अत: महिलाओं द्वारा किए गए घरेलू कार्य को आर्थिक योगदान और उत्पादन गतिविधि की तरह महत्त्व देने की आवश्यकता है।
घर के बाहर रोज़गार के लिए काम करना उनके स्वाधीन होने में सहायक हुआ है और साथ ही उनके परिवार के संसाधनों में भी सुधार लाया है। महिलाओं ने अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र में भाग लेना शुरू कर दिया है और उनमें बहुत-सी उच्च पदों पर आसीन हैं। परंतु इससे महिलाओं पर दोहरा भार पड़ गया है, क्योंकि अभी भी उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे घर का अधिकांश काम-काज करें और मुख्य देखभाल करने वाली बनी रहें।
स्त्रियों और उनके कार्य से संबंधित मुद्दे और सरोकार
कुशल कारीगरों की आवश्यकता के कारण श्रम बाजाार में स्त्रियों की भागीदारी के अवसरों में कमी आई है। अत: स्त्रियों के हितों की रक्षा के लिए कौशलों को विकसित करने वाली प्रशिक्षण सुविधाओं में वृद्धि की जानी चाहिए। आदमी को मुख्य कमाई करने वाला माना जाता है और स्त्रियों की कमाई को पूरक और गौण
माना जाता है, भले ही वह एकमात्र कमाने वाली हैं, तब भी बाजार में उनको समान प्रतिष्ठा नहीं मिलती। आधुनिक भारत में स्त्रियों से संबंधित कुछ दूसरे मुद्दे हैं — तनाव और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव, बिना जेंडर भेदभाव के कार्य स्थलों पर सुनिश्चित सुरक्षा तथा मातृत्व लाभ और बच्चे की देखभाल के लिए सामाजिक सहायता।
संवैधानिक अधिकार, अधिनियम और सरकारी पहल — यह जानना महत्वपूर्ण है कि भारत का संविधान सभी क्षेत्रों में पुरुषों और स्त्रियों दोनों को समानता की गारंटी देता है। सरकार के किसी भी दफ़्तर में रोज़गार या नियुक्ति संबंधी मामलों में सभी नागरिकों को बराबर के अवसरों की गारंटी भी शामिल है। यह जाति, पंथ, रंग, प्रजाति या जेंडर के आधार पर किसी रोज़गार अथवा दफ़्तर के संदर्भ में भेदभाव को रोकता है। यह भी माँग करता है कि महिला मज़दूरों को काम करने में (के लिए)मानवोचित परिस्थितियाँ दी जाएँ और किसी भी प्रकार के शोषण से उन्हें बचाया जाए और उनकी शैक्षिक तथा आर्थिक प्राप्तियों के लिए सहायता और प्रोत्साहन दिया जाए। भारतीय संविधान महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बनाने के लिए राज्य को शक्तियाँ प्रदान करता है। साथ ही ऐसे बहुत से अधिनियम हैं जो महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा करते हैं, जैसे- 1948 का फ़ैक्टरी अधिनियम, 1951 का बाग़ान श्रम अधिनियम, 1952 का खदान अधिनियम, कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम (ई. एस. आई. अधिनियम) और मातृत्व लाभ अधिनियम 1961, जो महिलाओं को विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों में सुरक्षा उपलब्ध कराता है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 16 (1) राज्य के अधीन किसी भी दफ़्तर में रोज़गार और नियुक्ति से संबंधित मामलों में सभी नागरिकों को समानता की गारंटी देता है।
इसके अतिरिक्त फ़ैक्टरी अधिनियम की धारा 48 कहती है कि यदि किसी उद्योग या फ़ैक्टरी में तीस से अधिक महिलाएँ नियुक्त की जाती हैं तो शिशुसदनों की व्यवस्था रखनी चाहिए। छ: वर्ष से छोटे बच्चों की देखभाल इन शिशुसदनों में होगी, जिसका प्रबंधन उद्योग को ही करना होगा। अनेक राज्यों द्वारा रोज़गार की आवश्यकताओं तथा महिलाओं की दशा में सुधार के लिए पहल की गई। श्रम मंत्रालय में महिला मजदूरों की समस्याओं का निपटारा करने के लिए महिला प्रकोष्ठों की स्थापना की गई। समान कार्य अथवा समान प्रकृति के कार्य सुनिश्चित करने हेतु समान वेतन के लिए, समान पारिश्रमिक अधिनियम लागू किया गया। समान पारिश्रमिक अधिनियम लागू करने के लिए समाज कल्याण विभाग ने महिलाओं के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना (एन.पी.ए) को हाथ में लिया। ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं के लिए रोज़गार के अवसरों को बढ़ाने हेतु और महिलाओं के काम तथा उनकी आर्थिक एवं उत्पादक गतिविधियों में भागीदारी पर श्रम कानूनों का पुनरवलोकन करने हेतु योजना आयोग द्वारा एक कार्यकारी समूह भी बनाया गया। महिलाओं द्वारा, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में किए जाने वाले कार्यों पर डेटाबेस निर्माण के लिए योजना आयोग द्वारा एक परिचालन समिति भी बनाई गई।
पिछले कुछ वर्षों में, महिला विकास कार्यक्रमों की मूल अवधारणा में परिवर्तन की पहल हुई है। प्रारंभ के दशकों में महिलाओं संबंधी कार्यक्रम कल्याणकारी दृष्टिकोण की ओर लक्षित थे, धीरे-धीरे यह अवसर की समानता की तरफ़ और अंतिम रूप से विकास के दृष्टिकोण पर आधारित हो गए। महिला विकास कार्यक्रमों के पूरी तरह से लागू होने पर यह महसूस किया गया कि समुचित लाभ प्राप्त नहीं किए जा सकते क्योंकि महिलाएँ मानव संसाधन का एक हिस्सा हैं। यद्यपि कुछ क्षेत्रों में महिलाओं ने उपलब्धियाँ प्राप्त कीं परंतु आर्थिक और वित्तीय दृष्टिकोण से उन्हें पुरुषों के बराबर हिस्सेदारी उपलब्ध करने में अभी काफ़ी श्रम करना होगा। मानसिकता को आधुनिक बनाना होगा। समाज का, कार्य से संबंधित स्त्री-पुरुष (जेंडर) की समस्याओं के प्रति जो दृष्टिकोण है उसमें अकस्मात मुद्दों की, समाज में पहुँच में नाटकीय परिवर्तन को देखते हुए अभिवृत्ति और नज़रिए को बदलना होगा।
कस्तूरा गांधी बालिका विद्यालय (के.जी.बी.वी) को भारत सरकार की सर्व शिक्षा अभियान के तहत एक योजना के रूप में शुरू किया गया था, लेकिन अब यह भारत सरकार की समग्र शिक्षा योजना के तहत आ गई है। के.जी.बी.वी. की शुरुआत ग्रामीण, दूरदराजज और वंचित वर्ग से संबद्ध उन लड़कियों के लिए की गई थी जो कभी स्कूल न जा सकी हों या फिर स्कूल से ड्रापआउट हो गई हों। इसमें इन लड़कियों के लिए आवासीय विद्यालय में रह कर प्रारंभिक स्तर की शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था थी। अब इस व्यवस्था को बारहवीं कक्षा तक बढ़ा दिया गया है ताकि इनकी स्कूली शिक्षा में समावेशी एवं समान गुणवत्ता वाली शिक्षा सुनिश्चित की जा सके। इन लड़कियों के लिए प्रवेश का स्तर छठी कक्षा है। के.जी.बी.वी. को प्रत्येक ज़िले के पिछड़े ब्लॉक में खोला गया। यह योजना भारत सरकार की ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आर.टी.ई.)’ को लागू करने में भी मदद करती है। इसमें नामांकित सभी लड़कियाँ प्रवेश स्तर की तैयारी के लिए ब्रिज कोर्स का अध्ययन करती हैं।
उद्यमी महिलाएँ
किरण मज़ूमदार शा, (एक जैवप्रोद्योगिकीविद्) बायोकॉन इंडिया लिमिटेड की अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक, एक प्रख्यात उद्यमी महिला हैं। उन्होंने अपनी व्यावसायिक जीविका “कार्लटन एंड युनाइटेड बिवरेजेस” में एक किण्वक (खमीर) प्रशिक्षु के रूप में प्रारंभ की और 1978 में अपनी स्वयं की कंपनी, बायोकॉन इंडिया लिमिटेड बनाई। इनके नेतृत्व में बायोकॉन योजनाबद्ध तरीके से शोध का सूत्रपात करने वाली एकीकृत जैव/औषधि/निर्माता कंपनी बन गई है। आज बायोकॉन भारत का एक अग्रणी उद्यम है। किरण मज़ूमदार शा को बहुत से प्रतिष्ठापूर्ण पुरस्कार प्राप्त हुए, जैसे - वर्ष-की ई. टी. व्यावसायिक महिला, अग्रणी निर्यातक, प्रौद्योगिकी पथप्रदर्शक और सर्वश्रेष्ठ महिला उद्यमी। वर्ष 1989 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। वह एक आदर्श उद्यमी के रूप में और वैश्विक स्तर पर एक सफल टेक्नोक्रेट सदैव बनी रहेंगी।
पुनरवलोकन प्रश्न
- जेंडर और लिंग (सेक्स) शब्दों से आप क्या समझते हैं?
- गृहिणियाँ कौन होती हैं? परिवार की अर्थव्यवस्था में उनका क्या योगदान होता है?
- महिलाओं को परिवार और समाज में पहचान कैसे मिलेगी?
- भारत में महिलाओं को समानता की गारंटी कैसे दी जाती है?
- महिलाओं के हित में सरकार के क्या प्रयास हैं?
क्रियाकलाप 5
अपने क्षेत्र की संस्थाओं/व्यक्तियों के बारे में जानकारी प्राप्त करें जो महिलाओं के सशक्तिकरण और आत्मनिर्भर बनने में सहायता कर रहे हैं।
एक स्क्रेप-पुस्तिका तैयार करें और संपूर्ण विद्यालय में उसका प्रदर्शन करें।
क्रियाकलाप 6
अपने क्षेत्र की उन महिलाओं के बारे में जानकारी इकट्ठा करें, जिन्होंने समाज के लिए भरपर योगदान दिया हो।
क्रियाकलाप 7
विज्ञान, प्रौद्योगिकी, गणित, खेल, शिक्षा, साहित्य, औषधि और अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों की ख्याति प्राप्त महिलाओं पर (शिक्षक की सहायता से) एक पावर प्वाइंट प्रस्तुति तैयार कीजिए।
महिला सशक्तिकरण के लिए संगठित प्रयास
श्री महिला गृह उद्योग लि.ज्जत पापड़, महिलाओं के लिए और महिलाओं द्वारा संचालित एक संगठन है। इसका उद्देश्य महिलाओं को अच्छी और सम्मानजनक कमाई वाली जीविका के लिए रोज़गार उपलब्ध कराना है। यह संस्था वर्ष 1959 में सात सदस्यों के साथ प्रारंभ हुई और वर्ष 1966 में बॉम्बे पब्लिक ट्रस्ट अधिनियम तथा समितियाँ पंजीकरण अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत हुई। इसी दौरान इस संस्था को खादी और ग्रामीण उद्योग (के.वी.आई.सी.) द्वारा ‘ग्रामीण उद्योग’ के रूप में मान्यता दी गई। लिज़्जत पापड़ को ‘सर्वश्रेष्ठ ग्रामीण उद्योग’ का पुरस्कार भी मिला। आज इनके उत्पादों में खाखरा, मसाला, बड़ी, डिटरजेंट पाउडर, चपातियाँ, केक और अन्य बेकरी उत्पाद शामिल हैं। यह संस्था पूरे भारत में लगभग 40,000 साथी सदस्यों को स्वरोजगार उपलब्ध कराती है। इनकी बिक्री और वार्षिक कारोबार 1600 करोड़ रुपए का है, जिसमें बहुत से देशों को होने वाला निर्यात भी शामिल है। इस प्रकार इस संस्था ने महिलाओं के आत्म-निर्भर होने का मार्ग प्रशस्त किया।
कार्य के प्रति मनोवृत्तियाँ और दृष्टिकोण, जीवन कौशल और कार्य-जीवन की गुणवत्ता
कार्य के प्रति मनोवृत्तियाँ और दृष्टिकोण
कार्य के प्रति मनोवृत्ति केवल कार्य/नौकरी के लिए ही नहीं होती। यह इसलिए भी होती है कि कोई व्यक्ति कैसे अपने कार्य की परिस्थिति को समझता है, कैसे नौकरी की परिस्थितियों और आवश्यकताओं तथा विभिन्न आवश्यक कार्यों से निपटता है। एक व्यक्ति का नौकरी से संतोष अथवा असंतोष का अनुभव उसकी मनोवृत्ति से काफ़ी प्रभावित होता है, बजाय इसके कि स्वभावत: नौकरी द्वारा पूर्णत: इसे निर्धारित किया जाए। साथ ही वैयक्तिक बोध उसके द्वारा दूसरे से की गई तुलना से प्रभावित होता है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति अपने प्राप्त वेतन की तुलना दूसरे व्यक्ति के वेतन से, उसके काम के उत्तरदायित्व, अर्जित योग्यता, कार्य उत्पादन, सच्चाई और समर्पण पर विचार किए बिना करता है, तो उसमें असंतोष पैदा होने की संभावना हो जाती है। दूसरी ओर, किसी व्यक्ति की नौकरी के सभी पहलूओं (सकारात्मक और नकारात्मक दोनों) की वास्तविक छान-बीन में संतोष और प्रसन्नता की संभावना अधिक होगी। अधिकांश व्यक्ति प्रतिदिन अपना काफ़ी समय काम में व्यतीत करते हैं। अतः कार्य की दिनचर्या का महत्त्व स्वास्थ्य की अच्छी आदतों से जुड़ा हुआ है, जैसे-स्वास्थ्यवर्धक भोजन करना, संतुलित भोजन और पूरी नींद लेना, अवकाश के समय को सक्रिय रूप में व्यतीत करने पर ज़ोर देना चाहिए। परंतु अकसर, कुछ लोग काम को इस दृष्टि से देखते हैं कि उन्हें यह ‘किसी प्रकार या कैसे भी’ करना है और इसलिए कार्य का आनंद लेने में असमर्थ रहते हैं अथवा काम में आनंद की सोचते भी नहीं हैं। परंतु जब कोई व्यक्ति अपने ‘कार्य’ को पारितोष और सीखने के स्रोत के रूप में देखता है, तो नौकरी का संतोष सुनिश्चित हो जाता है।
दूसरी ओर, कुछ लोग अपने कार्य का आनंद लेते हैं, चुनौतियों की उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं, कठिन कार्यों को सकारात्मक दृष्टिकोण से संभालते हैं, जो उन्हें अपनी नौकरी के बारे में अच्छा महसूस कराता है। इसी प्रकार, उनकी जीविका में प्रगति के अवसर और उनकी योग्यता, कौशल और ज्ञान का उपयोग व्यक्तिगत प्रसन्नता और संस्था के ‘कार्य जीवन की गुणवत्ता’ में योगदान करता है।
कार्यजीवन की गुणवत्ता
संस्थाओं द्वारा कर्मचारियों के कार्यजीवन की गुणवत्ता (क्यू. डब्ल्यु. एल.) को महत्वपूर्ण माना जाता है। इस दृष्टिकोण से, कर्मचारियों को ‘महत्वपूर्ण घटक’ समझा जाता है और यह विश्वास किया जाता है कि लोग जब अपनी कार्य परिस्थितियों से संतुष्ट होते हैं तब वे बेहतर काम करते हैं। यह सामान्यत: माना जाता है कि कर्मचारियों को प्रोत्साहन देने के लिए उनकी सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ पूरी करना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि उनकी आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करना। इसमें अनेक संदर्भ शामिल होते
हैं वे केवल कार्य पर ही आधारित नहीं हैं, जैसे - नौकरी और जीविका संतुष्टि, वेतन के साथ-साथ संतोष और साथियों के साथ संबंध, काम में तनाव, और निर्णय करने में भागीदारी के अवसर, कार्य/जीविका और घर में संतुलन और खुशहाली का सामान्य बोध।
सभी मनुष्य एक ऐसे परिवेश में जीना और फलना-फूलना चाहते हैं जो हमें अच्छे काम करने के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित करता है तथा जिसे हम करने में समर्थ हैं। अत: यह एक निर्णायक कदम होगा कि हम ऐसा खुशहाल और स्वस्थ्य कार्य-परिवेश बनाएँ जो केवल भौतिक और सामाजिक अनुभूति से ही नहीं, बल्कि गहन मनोवैज्ञानिक/मानसिक और भावनात्मक दृष्टि से भी उपयुक्त हो। एक स्वस्थ कार्य-परिवेश को सही रूप से सकारात्मक कार्य-परिवेश कहा जा सकता है। इस प्रकार का परिवेश निम्नलिखित बातों पर केंद्रित होकर बनाया जा सकता है -
- संगठन की आवश्यकताओं के अतिरिक्त प्रत्येक कर्मचारी की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं पर समुचित ध्यान देकर,
- एक सकारात्मक कार्य परिवेश बनाकर,
- प्रत्येक व्यक्ति को प्रेरित करके,
- निष्पक्ष और सबके साथ समान व्यवहार करके,
- तकनीकी कार्य-क्षमता को सुनिश्चित और सुसाध्य बनाकर,
- एक आकर्षक और सुरक्षित कार्य-परिवेश उपलब्ध कराकर,
- नौकरी को सुरुचिपूर्ण और चुनौतीपूर्ण बनाकर,
- व्यक्ति को उसके योग्य कार्य देकर,
- जहाँ ज़ूरी हो वहाँ प्रतिनिधि बनाकर,
- सहयोग भावना और टीम उत्तरदायित्व विकसित करके,
- कर्मचारियों का प्रशिक्षण, आत्मविश्वास निर्माण, (फ़ीडबैक) प्रतिपुष्टि, प्रोत्साहन एवं प्रशंसा, समर्थन, सकारात्मक संबलन और उनकी भागेदारी विकसित करके,
- जहाँ उचित हो कर्मचारियों को अधिकार देकर, उन्हें प्रोत्साहित करके और,
- कर्मचारियों को स्वयं के विकास के लिए लगातार अवसर प्रदान करके।
ये सब बातें नियोक्ता द्वारा उन सब कर्मचारियों का मनोबल बढ़ाने में सहायक होती हैं, जो संगठन/ कार्य स्थल पर कार्यरत् हैं। संक्षेप में, कोई भी नियोक्ता/प्रबंधक जानता है कि कर्मचारी इसके महत्वपूर्ण घटक हैं और अंतत: मूल्यवान साधन हैं। अत: ऐसा परिवेश उपलब्ध कराना, जहाँ कर्मचारी संगठन और उसके विकास के प्रति वफ़ादारी के बोध का अनुभव करे, उतना ही महत्वपूर्ण है जितना स्वयं का विकास। अपने वेतन पर ध्यान देना इतना आवश्यक नहीं है जितना अपने संपूर्ण जीवन को समग्र रूप में देखना। आप कितना कमाते हैं, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। महत्वपूर्ण यह है कि आप अपना जीवन सुखमय ढंग से बिता सकें। अपने संपूर्ण जीवन पर ध्यान दें और अपने खाली समय में, अपने परिवार, अपने मित्रों,
इत्यादि के बारे में सोचें। यह आपको सेवानिवृत्ति की आयु तक पहुँचने में सहायक होगा बिना इस पश्चाताप और खेद के कि आपने अपना समय उन चीजों पर क्यों नहीं लगाया जो ज़्यादा महत्वपूर्ण थीं।
पूर्वापेक्षित में से एक है, हम जीवन कौशल प्राप्त करें और उन्हें पैना करें। ये हमें व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन में कम-से-कम तनाव और अधिकतम उत्पादकता के साथ प्रभावी रूप से कार्य करने में हमारे सहायक सिद्ध होंगे।
आजीविका के लिए जीवन कौशल
अनुकूल और सकारात्मक व्यवहार के लिए जीवन कौशल वह क्षमताएँ हैं जो व्यक्तियों को जीवन की दैनिक आवश्यकताओं और चुनौतियों से प्रभावशाली तरीके से निपटने के योग्य बनाती हैं।
जीवन-कौशल महत्वपूर्ण क्यों हैं? जीवन-कौशल लोगों को जीवन की दैनिक आवश्यकताओं और चुनौतियों से निपटने में सहायता करते हैं। ये महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये जीवन पर्यन्त काम आते हैं, और सभी परिस्थितियों में जीवन को प्रोत्साहित तथा स्वास्थ्य एवं कल्याण के लिए समर्थ बनाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जीवन-कौशल, चिंतन, मुकाबला करने तथा सामाजिक कौशल, वे क्षमताएँ हैं जो लोगों और उनके परिवारों के बीच पारस्परिक क्रियाओं को प्रोत्साहित करती हैं तथा विषम परिस्थितियों में व्यक्ति को उनसे उभरने की समर्थता को बढ़ावा भी देती हैं।
विशेषज्ञों द्वारा पहचाने गए दस कौशल निम्नलिखित हैं -
स्व-जागरूकता | परानुभूति |
---|---|
संग्रेषण | अंतरवैयक्तिक संबंध |
निर्णय लेना | समस्या सुलझाना |
सूजनात्मक चिंतन | आलोचनात्मक चिंतन |
मनोभावों से जूझना | तनाव से जूझना |
जीवन कौशल वे क्षमताएँ हैं जो लोगों को समुचित तरीकों से व्यवहार करने योग्य बनाती हैं, विशेष रूप से उन परिस्थितियों में जो उनके लिए चुनौतीपूर्ण होती हैं। यह महत्वपूर्ण बात है कि समुचित कौशल विकसित करें, जैसा कि ऊपर बताया गया है, अनुचित अथवा नकारात्मक व्यवहार न करें। उचित और पर्याप्त ज्ञान, अभिवृत्तियाँ और मूल्य, व्यक्ति को समुचित जीवन कौशलों को विकसित करने में समर्थ बनाते हैं और नकारात्मक अथवा अनुचित व्यवहार को रोकते हैं जैसा कि अगले पृष्ठ पर दिए गए संकल्पनात्मक मॉडल में दिखाया गया है -
ये समुचित जीवन कौशल स्वयं लोगों के स्वास्थ्य और विकास को प्रोत्साहन देने में तो सहायता करते ही हैं, साथ-साथ जिन समुदायों में वे रहते हैं उनके विकास में भी मदद करते हैं। व्यक्तियों को समाज में प्रभावशाली और रचनात्मक रूप से कार्य करने के लिए इनकी आवश्यकता होती है। इनमें व्यक्तिगत और सामाजिक कौशल सम्मिलित हैं और व्यक्तियों को अपने परिवार तथा समाज में आत्मविश्वास और क्षमतापूर्वक कार्य करने में सहायता प्रदान करते हैं। जीवन कौशल वे क्षमताएँ और वास्तविक व्यवहार हैं जिन्हें कक्षा में पढ़ाना संभव नहीं है, बल्कि इनको हासिल करने में अनुभव से प्राप्त ज्ञान ही सहायक होते हैं।
अपना खुद का कार्य जीवन सुधारना
किसी भी संगठन के लिए अपने कर्मचारियों के समग्र कार्य-जीवन में सुधार लाना निर्णायक होता है। फिर भी, प्रत्येक कर्मचारी के लिए अति आवश्यक है कि वह ईमानदारी के साथ अपना कार्य-जीवन सुधारे, जिससे उसे नौकरी से संतोष मिले तथा उत्पादन की गुणवत्ता और उसकी मात्रा में वृद्धि हो। कर्मचारी के दृष्टिकोण से कार्य-जीवन का संबंध केवल नौकरी से ही नहीं होता, बल्कि इस बात से भी होता है कि वह अपने कार्य-जीवन का कैसे अनुभव करता है। इस दिशा में यह भी महत्वपूर्ण है कि व्यक्ति अपने कार्य को ऊर्जा, आत्मसंतोष और अधिगम के स्रोत के रूप में देखे। इस विषय के संदर्भ में कुछ सामान्य सुझाव यहाँ दिए गए हैं -
- स्वस्थ व्यक्तिगत प्रवृत्तियाँ विकसित करें — अपने शरीर, मस्तिष्क तथा प्रवृति का ध्यान रखें, स्वस्थ जीवन शैली बनाए रखने के लिए पौष्टिक आहार लें, पर्याप्त और उचित व्यायाम करें एवं पर्याप्त नींद लें। इस प्रकार की जीवन शैली कार्य-स्थल पर चुनौतियों और दबावों का सामना करने में सहायक होती है।
- परानुभूतिशील और सहानुभूतिशील बनें — सहकर्मी, अधीनस्थ कर्मियों और निरीक्षकों से पारस्परिक क्रिया अनिवार्य है और इसके लिए परानुभूतिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसके फलस्वरूप आपको सकारात्मक परिणाम मिलेंगे।
- काम पर लगे सभी व्यक्ति व्यक्तिगत, व्यावसायिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से परस्पर निर्भरता का ध्यान रखें - सहकर्मियों, अधीनस्थों और निरीक्षकों के साथ सकारात्मक अभिवृत्ति और व्यवहार तथा पारस्परिक क्रिया, सभी मिलकर आपसी सद्भाव पैदा करेंगे। जो लोग एक दूसरे की मदद करते हैं, अधिक आत्मसंतोष और लाभ प्राप्त करते हैं, साथ ही किसी व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति में भी मदद करते हैं। कार्यों को सफलतापूर्वक पूर्ण करने और जीविका के विकास के लिए अच्छा संप्रेषण और अंतरवैयक्तिक कौशल का होना अत्यावश्यक है।
- पूरा समय संगठन के प्रति निष्ठा और वचनबद्धता बनाए रखना तथा व्यावसायिक रूप से नीतिपरक होना महत्वपूर्ण है।
- साझेदारी को प्रोत्साहन दें और दल के सदस्य के रूप में कार्य करें
- जो लोग इस प्रकार एक दूसरे की मदद करते हैं, अधिक आत्मसंतोष और लाभ का अनुभव करते हैं। दूसरों के साथ पारस्परिक क्रियाएँ आपसी लाभ देने वाली होनी चाहिए। दूसरों के साथ मिलकर काम करें और उनके योगदान तथा उपलव्धियों के लिए सम्मान और मान्यता दें।
- परिस्थितियों के लिए प्रतिसंवेदी होने में समझदारी है, न कि प्रतिक्रियाशील होने में - उदाहरण के लिए, यदि काम पर अपने वरिष्ठ से फटकार मिले तो उचित होगा कि स्थिति की वास्तविकता को परख कर और शांति से उसका उत्तर दें, बजाय इसके कि भावावेश में आकर तर्क-वितर्क करने लगें, यदि वरिष्ठ की फटकार उचित है तो व्यक्ति को सुधार के उपाय करने चाहिए और आवश्यक हो तो क्षमा माँग लेनी चाहिए।
- कार्य क्षेत्र में लचीलापन, अनुकूलनशीलता और समस्या-समाधान अभिप्रवृत्ति और कौशल आवश्यक मुख्य योग्यताएँ हैं, चाहे आपका स्वयं व्यवसाय है या आप दूसरों के लिए काम करते हैं।
- आप एक अच्छे नागरिक बनें और अपने आस-पास के समुदाय में सकारात्मकता को विकसित करें।
- जो लोग इन सुझावों को अपनाते हैं, अपने जैसी सोच वाले लोगों को आकर्षित करते हैं। सब मिलकर, लोगों का एक समुदाय बना सकते हैं जो सबकी आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद करते हुए अपना काम भी पूरा करने का प्रयास करते हैं। काम की संतुष्टि के लिए, अपने संगठन के अंदर एक अच्छा नागरिक बनिए, दूसरों को उनकी उपलब्धियों के लिए सम्मान दीजिए और उत्तरदायी परिवर्तन लाने के लिए दूसरों के साथ मिलकर काम कीजिए।
- जीवन के अनुभवों से सीखिए — कार्य की संतुष्टि का संबंध दिन-प्रतिदिन की चुनौतियाँ, दबाव तथा विचलित करने वाली परिस्थितियों को स्वीकार करने और उन्हें जीवन के अनुभवों में बदलने से है। यह आपको विकास करने, एक बेहतर तथा अधिक आत्मसंतुष्टि वाला व्यक्ति एवं व्यावसायिक बनने में मदद करता है। जीवन और कार्य में यह संतुलन प्राप्त करना सरल नहीं हैं, परंतु सामाजिक और पर्यावरणीय परिवर्तनों के अनुरूप स्वयं को ढालने की क्षमता होना आवश्यक है। किसी भी व्यवसाय में, प्रमुख क्षमताएँ आवश्यक कार्यस्थल कौशल, उसकी मूलभूत आवश्यकताएँ हैं, इन्हें विद्यालयों अथवा महाविद्यालयों में ‘शैक्षिक पाठों’ की तरह पढ़ाया नहीं जा सकता, परंतु ये व्यक्ति को सक्षम बनाने में आवश्यक होते हैं और व्यक्ति के विकास के साथ-साथ इन्हें प्राप्त करना और प्रखर बनाना आवश्यक है।
पुनरवलोकन प्रश्न
1. निम्नलिखित शब्दों को समझाइए-
(a) कार्य-जीवन की गुणवत्ता
(b) जीवन-कौशल
2. स्वस्थ कार्य-परिवेश का क्या अर्थ है? यह किस प्रकार बनाया जा सकता है?
कार्य-स्थल पर आवश्यक प्रक्रिया कौशल (सॉफ़्ट स्किल्स्)
- उत्पादकतापूर्ण कार्य — काम करने वाला अपने रोज़गार और काम में प्रभावी कार्य करने की आदतों और अभिवृत्तियों का प्रयोग करता है। इसके लिए पर्याप्त ज्ञान, कौशल और प्रवीणता के साथ-साथ अनुभव भी होना चाहिए। उत्पादकता पर उत्साह, जोश और गतिशीलता का प्रभाव पड़ता है। रोज़गार से लगाव और संस्था से अपनापन महत्वपूर्ण कारक हैं।
- प्रभावी ढंग से सीखना — प्रत्येक व्यक्ति को पढ़ने, लिखने और परिकलन के लिए ज़रूरी कौशलों की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त क्षेत्र से संबंधित अन्य सूचना प्राप्त करने के लिए तथा उपकरणों एवं कार्यनीतियों का उपयोग करने की क्षमता के लिए भी ज़रूरी कौशलों की आवश्यकता होती है। अपने क्षेत्र में प्रतिष्ठा पाने के लिए, क्षेत्र के विकास के साथ प्रगति करने के लिए अपने क्षेत्र की नवीनतम जानकारी रखना और कड़ी मेहनत करने के लिए प्रेरणा, भी उतने ही आवश्यक हैं।
- स्पष्ट संप्रेषण — समुचित लिखने, बोलने और सुनने के कौशलों का प्रयोग करने के लिए स्पष्ट संत्रेषण आवश्यक है, ताकि व्यक्ति यर्थाथ रूप से सूचना, विचार और सुझाव दूसरों तक पहुँचा सके।
- मिल-जुल कर काम करना — प्रत्येक व्यक्ति को काम पूरा करने, समस्याओं को सुलझाने, झगड़ों को निपटाने, सूचना उपलब्ध कराने और प्रोत्साहन देने के लिए आपस में मिल-जुल कर काम करना चाहिए।
- विवेचनात्मक और रचनात्मक सोच — प्रत्येक सफ़ल व्यक्ति कुछ नया करना और सृजन करना चाहता है, इस नाते वह विश्लेषणात्मक चिंतन और विवेचनात्मक मूल्यांकन के लिए विभिन्न सिद्धांतों और कार्यनीतियों को अपनाता है।
- अन्य अपेक्षित कौशलों में सम्मिलित हैं — एकाग्रता, सतर्कता, सूझ-बूू, व्यवहार कुशलता, परानुभूति, व्यवहार कौशल, प्रशिक्षण देने, काम सौंपने और दूसरों से कार्य करवाने की योग्यताएँ, पूर्व सोच और दृष्टिकोण, विविध कार्यों को करने की योग्यता।
कार्य, नैतिकता और श्रम का महत्त्व
कार्य, चाहे सवेतन नौकरी हो या घर पर किया गया अवैतनिक कार्य या स्वयंसेवक के रूप में, मानव प्रकृति की मूलधारा है। प्रत्येक मनुष्य बहुत अधिक माननीय होता है, परंतु आधुनिक युग में धन-दौलत को अधिक महत्त्व दिया जाता है। कोई व्यक्ति कुछ भी काम करे या उसे पद प्राप्त हो या वित्तीय स्तर हो, वह आदर का हक़कार होता है। ‘विश्व-स्तरीय मानवाधिकार घोषणा पत्र’ यह बताता है कि सभी स्वतंत्र पैदा हुए हैं और सम्मान तथा अधिकारों में बराबर होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने काम के बड़े या छोटे भाग द्वारा समाज की भलाई में योगदान देता है।
श्रम के महत्त्व का अर्थ है कि व्यक्ति जो कुछ कार्य करता है उस पर उसे गर्व होता है। अब्राहम लिंकन एक किसान का बेटा था और वह एक निर्धन बालक से उन्नति कर अमेरिका का राष्ट्रपति बना। महात्मा गांधी श्रम की महत्ता के ज्वलंत उदाहरण हैं। वे वर्धा में अपने आश्रम में झाड़ू लगाते थे और साफ़-सफ़ाई भी रखते थे। उन्होंने कभी इन कामों को करने में छोटा अथवा अपमान का अनुभव नहीं किया, जिन्हें कुछ लोग निम्न श्रेणी का कार्य समझते थे। वे श्रम के महत्त्व को बताने के लिए अपना शौचालय तक स्वयं साफ़ करते थे।
इस संदर्भ में यह याद रखना ज़रूरी है कि कोई व्यक्ति जो भी कार्य करता है, उसे मूल्यों और नैतिकता के आधार पर आँकना चाहिए। मूल्य और नैतिकता व्यावहारिक नियम देते हैं। मूल्य वे विश्वास, प्राथमिकताएँ अथवा मान्यताएँ हैं जो बताते हैं कि मनुष्यों के लिए क्या वाँछनीय है या बेहतर है। मूल्य हमारे व्यवहार को प्रभावित करते हैं। छः महत्वपूर्ण मूल्य हैं - सेवा, सामाजिक न्याय, लोगों की मान-मर्यादा और उपयोगिता, मानव संबंधों का महत्त्व और ईमानदारी।
नीतिशास्त्र एक औपचारिक प्रणाली अथवा नियमों का समुच्चय है, जिसे लोगों के एक समूह द्वारा स्पष्टतया अपनाया जाता है, जैसे - व्यावसायिक नीतिशास्त्र, चिकित्सीय नीतिशास्त्र| नैतिकता को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है, “एक व्यक्ति अथवा व्यवसाय के विभिन्न सदस्यों के आचरण का परिचालन करने वाले नियम या मानक।” नीतिशास्त्र को सदैव अपनाने वाला व्यक्ति अपने सहकर्मियों से आदर पाता है उन्हें भी नैतिकता अपनाने के लिए प्रोत्साहित करता है। कार्य-स्थल पर मूल्य और नैतिकता समय और धन के अपव्यय को कम करने में सहायक होते हैं तथा साथ ही कर्मचारी के मनोबल, आत्मविश्वास और उत्पादकता को बढ़ाते हैं।
सभी कार्य परिस्थितियों में नैतिकता और सम्मान का सामान्य नियम लागू होता है, हालाँकि, इस उम्र के कार्मिकों में बच्चे और वृद्ध जन साथ ही महिला कार्मिक विशेष समूह होते हैं, जिनकी कार्य स्थल पर उपस्थिति एक अलग प्रकार की चुनौती और प्रभाव उत्पन्न करती है, जो इनके जीवन की गुणवत्ता और समाज से संबंधित हैं।
पुनरवलोकन प्रश्न
- श्रम के महत्त्व का क्या अर्थ है?
- व्यावसायिक जीवन में मूल्यों और नैतिकता की भूमिका को संक्षेप में समझाइए।
सुकार्यिकी (अर्गोनॉमिक्स)
सुकार्यिकी अपने-अपने कार्य स्थलों पर कार्य करते समय लोगों का, किया जाने वाला अध्ययन है, ताकि व्यवसाय संबंधी आवश्यकताओं को, कार्य करने की विधियों को, इस्तेमाल किए जाने वाले औज़ारों को और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए लोगों के जटिल अंतर संबंधों को समझ सकें। अर्गोनॉमिक्स दो ग्रीक शब्दों से मिलकर बना है - ’ergon’ (काम) तथा ’nomics’ (प्राकृतिक नियम)। इसे “मानव कारक अभियांत्रिक" भी कहा जा सकता है। संक्षेप में, अर्गोनॉमिक्स कर्मचारी के अनुकूल कार्य परिवेश बनाने के प्राथमिक लक्ष्य के साथ कार्य का अध्ययन करना है। इस प्रकार की कार्य परिस्थितियाँ उत्पन्न करने का उद्देश्य है कि ये कार्य परिस्थितियाँ मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक नहीं होती हैं और कर्मचारियों / कार्यबल को स्वीकार्य होती हैं एवं कार्य निर्गम तथा उत्पादकता के लिए भी अनुकूल होती हैं।
“सुकार्यिकी मानव और मशीन का सामंजस्य है।” इसमें मानव और उसके कार्य के आपस में अनुकूलतम सामंजस्य, जिसमें लाभ को मानव क्षमता और स्वास्थ्य-कल्याण के रूप में मापा जाना हो, उसे प्राप्त करने के लिए मानव जैविक विज्ञान के अनुप्रयोग को अभियांत्रिकी विज्ञान के साथ शामिल किया जाता है। औज़ारों, मशीनों और कार्यस्थलों को कार्य के अनुरूप डिज़ाइन किया जाता है, ताकि तनाव और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं में कमी आए।
सुकार्यिकी द्वारा जिन महत्वपूर्ण पहलुओं पर विचार किया जाता है वे हैं — श्रमिक क्षमता (शरीर क्रियात्मक और मनोवैज्ञानिक दोनों), कार्य की माँग (जिसमें शामिल हैं- प्रकृति और जटिलता, कर्मचारियों की आवश्यकता, अवधि, मुद्रा) और कार्य परिवेश (शोर, आर्द्रता, कंपन, प्रकाश, ताप)। सुकार्यिकी का अध्ययन चार स्तंभों पर व्यवस्थित है, जो इस प्रकार हैं — मानवमिति (शरीर का आकार और मापन), जैव-यांत्रिकी (पेशी-कंकाली गतिविधियाँ और लगाए जाने वाला बल), शरीर क्रिया विज्ञान और औद्योगिक मनोविज्ञान।
सुकार्यिकी की आवश्यकता
कार्यस्थल पर सुकार्यिकी का उपयोग निम्नलिखित के लिए महत्वपूर्ण है -
- निरापद और बेहतर स्वास्थ्य निम्न द्वारा पाया जा सकता है -
- कार्यस्थल पर चोटिल होने और उसकी गंभीरता को कम करने के लिए,
- मानवीय त्रुटि से होने वाली दुर्घटाओं की संभावना में कमी लाने के लिए,
एर्गोनॉमिक्स (श्रमदक्षता शास्त्र)-
एक प्रभावी उत्पादकता उपकरण,जो निम्नलिखित बिंदुओं द्वारा संबोधित होता है-
- कार्यस्थल / वर्कस्टेशन (कार्यकेंद्र) डिज़ाइन
- कार्य डिज़ाइन / कार्य विधि का डिज़ाइन
- उपकरण डिजाइन
- सुविधाएँ
- वातावरण
- बेहतर प्रभावी रोज़गार निम्नलिखित के द्वारा पाया जा सकता है,
- उत्पादकता को बढ़ाने के लिए,
- त्रुटियों में कमी लाकर,
- चोट न लगने देना या उसमें कमी लाकर,
- रोज़गार प्रभाविता में वृद्धि द्वारा,
- सुविधाजनक कार्य-परिस्थितियों के द्वारा रोज़गार संतुष्टि में वृद्धि करके।
सुकार्यिक्की के लाभ-
- चोट और दुर्घटनाओं के जोखिमों को कम करता है।
- उत्पादकता को बढ़ाता है।
- त्रुटियों को कम तथा कार्य दोबारा करने की आवश्यकता को कम करता है।
- दक्षता को बढ़ाता है।
- खराब स्वास्थ्य/दुर्घटनाओं/तनाव के कारण होने वाली अनुपस्थिति को कम करता है।
- कर्मचारियों के मनोबल को बेहतर बनाता है।
सुकार्यिकी का महत्त्व एक साधारण उदाहरण द्वारा दर्शाया जा सकता है। एक व्यक्ति, एक ऐसी कुर्सी जो श्रमप्रभाविकी सुरक्षा के मानदंड पूरा नहीं करती, पर बैठकर दफ़्तर का कार्य करता है तो इससे व्यक्ति को पीठ दर्द हो सकता है। सुकार्यिकी सिद्धांतों के अनुसार, यह आवश्यक है कि कुर्सी की ऊँचाई और स्टैंड, कार्य करने वाले व्यक्ति की ऊँचाई और उसके शरीर के आकार के अनुसार समायोजित हो सकने वाली होनी चाहिए। कुर्सी की टांगों की संख्या कुर्सी के आकार के अनुरूप होनी चाहिए, ताकि व्यक्ति गिरे नहीं।
सुकार्यिकी में किसी हस्तक्षेप को, उत्पादकता पर पड़ने वाले इसके प्रभाव की रोशनी में देखना चाहिए और श्रेष्ठ श्रमप्रभाविकी समाधान सामान्यत: उत्पादकता को बेहतर बनाते हैं। सरल रूप में, अनावश्यक अथवा बेढंगी मुद्रा में काम न करने में और परिश्रम में कमी न करने के कारण दिए गए कार्य में लगने वाले समय से पूर्व ही काम पूरा हो जाता है। इस प्रकार उत्पादकता भी बढ़ती है। किसी भी कार्य-स्थल के लिए एक निरापद और उत्पादक कार्य-परिवेश बनाना अत्यन्त आवश्यक होता है। कर्मचारी किसी भी संगठन के लिए बहुमूल्य घटक होते हैं। जब किसी कार्य को उन कर्मचारियों की क्षमता से मिला दिया जाता है जो उस कार्य को करेंगे, तब वे बहुत कम गलतियाँ करते हैं और अपशिष्ट भी कम उत्पन्न होता है। सुकार्यिकी डिज़ाइन पर ध्यान देने से देखा गया है कि वह कर्मचारी की उत्पादकता और उसके उसी संगठन में बने रहने को प्रभावित करता है।
हमने विस्तार से विभिन्न रोज़गार-संबंधी पहलुओं पर विचार किया है जो जीविका और उत्पादकता वाले व्यावसायिक करिअर के अनुरूप हैं। अब, यह आवश्यक है कि स्व-रोज़गार, व्यक्तिगत उद्यम और उद्यमिता की आकर्षक संभावनाओं पर भी सीधा ध्यान दिया जाए। स्व-रोज़गार और नवप्रवर्तनकारी उद्यमिता,
चुनौतीपूर्ण, आकर्षक और अत्यन्त लाभप्रद हो सकती है; अतः संतोषजनक जीविका निर्माण के लिए उन पर ठीक से ध्यान दिया जा सकता है।
उद्यमिता
उद्यमिता एक नया और नवप्रवर्तक उद्यम/उत्पाद या सेवा स्थापित करने का कार्य है। उद्यमियों का कार्य, किसी उत्पाद के उत्पादन या डिज़ाइन के प्रतिरूप में नवप्रवर्तनों/आविष्कार द्वारा बदलना होता है अथवा नयी तकनीकी विधियों/सुधारों द्वारा नयी उपयोगी वस्तु या पुरानी को नए तरीके से बनाना होता है। एक उद्यमी वह व्यक्ति है जो इस प्रकार के परिवर्तनों को एक उद्यम या व्यवसाय के माध्यम से पूरा करता है। उद्यमी संसाधनों और / या अर्थव्यवस्था को अपनी कुशाग्र बुद्धि से जुटाता है और इसे जीविका के लिए लक्ष्य बनाता है। यह एक नए संगठन का रूप ले सकता है अथवा वर्तमान संगठनों को पुनर्जीवित करने में एक अंश हो सकता है।
एक उद्यमी वह व्यक्ति होता है जो एक नए विचार को वास्तविकता का रूप देने का जोखिम उठा सकता है। एक उद्यमी नवप्रवर्तक, रचनात्मक, सुव्यवस्थित और जोखिम उठाने वाला व्यक्ति होता है। भारत में ऐसे उद्यमियों के श्रेष्ठ उदाहरण हैं जिनके पास वस्तुओं को देखने के लिए कल्पना दृष्टि और विचार थे। इनमें से कुछ हैं — श्रीमान नारायण मूर्ति, जे. आर. डी. टाटा, धीरूभाई अंबानी।
आरंभ किए गए संगठन के प्रकार पर निर्भर उद्यमी गतिविधियाँ, भिन्न-भिन्न प्रकार की हो सकती हैं। उद्यमीवृत्ति छोटी व्यक्तिगत परियोजनाओं, सूक्ष्म इकाईयों से लेकर, कई बार अंशकालिक उद्यम तक होती हैं। इनके अतिरिक्त इनमें प्रमुख औद्योगिक संस्थान भी होते हैं, जो उद्यमी के अतिरिक्त अनेक लोगों को भी रोजगार उपलब्ध कराते हैं। उभरते उद्यमियों की सहायता के लिए आज कई प्रकार के संगठन उपलब्ध हैं, जिनमें राजकीय एजेंसियाँ, वैज्ञानिक संस्थान और संगठन, वित्तीय संस्थाएँ जैसे बैंक और कुछ स्वैच्छिक संस्थाएँ सम्मिलित हैं।
उद्यमी विचारों को प्रतिदर्शित करते हैं -
- एक संकल्पना, उत्पाद, नीति या संगठन
- वे नयी प्रक्रियाओं के समर्थक, परिवर्तन के प्रवर्तक बन जाते हैं।
उद्यमियों के लक्षण
एक उद्यमी में कुछ व्यक्तिगत विशेषताएँ अवश्य होनी चाहिए जो उसे एक औद्योगिक संगठन की चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए सक्षम बना सकें। इनमें सम्मिलित हैं -
- कड़ी मेहनत करने की इच्छा
- योजना बनाने और क्रियान्वयन करने का ज्ञान और कौशल
- वित्त, सामग्री, व्यक्तियों और समय के प्रबंधन के कौशल
- आकलित जोखिम उठाने का साहस होना
- एक साथ कई कार्यों को आरंभ करने की योग्यता और तत्परता
- आरंभ किए गए कार्यों के लिए आवश्यक कौशलों को सीखने और प्राप्त करने की योग्यता
- कठिन मुद्दों से निपटने और उनके समाधान ढूँढ़ने की क्षमता
- यर्थाथवादी होना और आसान समाधानों की अपेक्षा न करना
- गतिरोधों, चुनौतियों और असफ़लताओं का सामना करने की योग्यता
- भागीदारी विकसित करना, कार्यनीति बनाना तथा तालमेल बनाने की योग्यता
- समझौता करने, कार्यनीति और प्राथमिकताओं को देखने की योग्यता
- विनम्र होना और संकट की स्थितियों से निपटने की योग्यता
- अच्छे संत्रेषण कौशलों का होना।
संक्षेप में, उद्घमी को अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए नवप्रवर्तनकारी, रचनात्मक और लक्ष्य-अभिमुखी होना चाहिए। उद्यमी को सीधी कार्रवाई करने और कार्य करने के अधिक प्रभावी तरीकों का पता लगाने और अपनाने के लिए तैयार रहना चाहिए। हाल ही में उद्यमवृत्ति की व्यापक और संपूर्ण धारणा उभर कर आई है, जिसमें उद्यमी विभिन्न प्रकार की उद्यमयी पहल, जैसे - सामाजिक उद्यमवृति और ज्ञान उद्यमवृत्ति के बारे में विशिष्टता की सोच रखता है।
सामाजिक उद्यमवृत्ति अच्छे सामाजिक कार्य करने पर केंद्रित रहती है। सामाजिक उद्यमवृत्ति, एक विशेष समूह या व्यापक रूप से समाज के लिए उद्यमवृत्ति के माध्यम से बड़े पैमाने पर लाभ-प्राप्त करने के लक्ष्य तक पहुँचना चाहती है। सामान्यत:, सामाजिक उद्यमी कमजोर, अपेक्षित, वंचित समूह अथवा वे व्यक्ति जिनको स्वयं लाभ प्राप्त करने के लिए वित्तीय साधन प्राप्त नहीं हैं, वे लाभ के लिए कार्य करते हैं। सामाजिक उद्यमी ‘सामाजिक उत्प्रेरक’, दूरदर्शी होते हैं जो मूलभूत सामाजिक परिवर्तनों और टिकाऊ सुधारों का सृजन करते हैं। इस प्रकार के कार्यों की उनके चयनित क्षेत्रों में, चाहे वह शिक्षा, स्वास्थ्य देख-भाल, आर्थिक विकास, पर्यावरण, ललित कलाएँ अथवा कोई और सामाजिक क्षेत्र हो, वैशविक सुधारों को प्रेरित करने की क्षमता हो सकती है। सामाजिक उद्यमवृत्ति की सफ़लता आर्थिक लाभ से उतनी नहीं आँकी जाती जितनी सामाजिक लाभों और प्रभावों से मापी जाती है।
क्रियाकलाप 13
6-8 बच्चों के समूह बनाएँ और बेरोज़गारी के मुद्दों पर समूहों के बीच चर्चा का आयोजन करें। चर्चा और प्रस्तुतीकरण निम्नलिखित पर केंद्रित होने चाहिए -
- क्या आप किसी को जानते हैं, जो बेरोज़गार है?
- उस बात से कि वह बेरोज़गार है, उसके रहने के स्तर और मानसिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है?
- क्या वह काम करना चाहता/चाहती है?
- क्या हमारे देश में बेरोज़गारी एक समस्या है?
- आपके विचार से भारत में बेरोज़ारी के मुख्य कारण क्या हैं?
- सरकार (स्थानीय और राष्ट्रीय) इस समस्या के लिए क्या करती है?
- समस्या के समाधान के लिए आप और क्या सुझाव दे सकते हैं?
कार्य, अर्थपूर्ण कार्य, जीविकाएँ आजीविका, विश्राम एवं मनोरंजन, जीवन-स्तर, सामाजिक उत्तरदायित्व, नैतिक नियम, स्वेच्छावाद, परंपरागत व्यवसाय, आयु और बालश्रम, कार्य के लिए अभिवृत्तियाँ और दृष्टिकोण, जीवन कौशल, कार्य और महत्ता, कार्य-जीवन की गुणवत्ता, रोज़गार संतुष्टि, रचनात्मक और नवप्रवर्तन, कार्य परिवेश, व्यवसाय-संबंधी कार्य और उद्यमिता