अध्याय 03 भूसंसाधन तथा कृषि

आपने अपने चारों ओर भूमि के कई उपयोग देखे होंगे। पृथ्वी के कुछ भाग पर नदियाँ हैं, कुछ पर वृक्ष हैं तथा कुछ पर सड़कें व इमारतें निर्मित हैं। विभिन्न प्रकार की भूमि विभिन्न कार्यों हेतु उपयोगी हैं। इस प्रकार मनुष्य भूमि को उत्पादन, रहने तथा नाना प्रकार के मनोरंजक कार्यों हेतु संसाधन के रूप में प्रयोग करता है। आपके स्कूल की इमारत, सड़कें जिन पर आप यात्रा करते हैं, क्रीड़ा उद्यान जहाँ आप खेलते हैं, खेत जिन पर फ़सलें उगाई जाती हैं एवं चरागाह जहाँ पशु चरते हैं आदि भूमि के विभिन्न उपयोगों को प्रदर्शित करते हैं।

भू-उपयोग वर्गीकरण

भूराजस्व विभाग भू-उपयोग संबंधी अभिलेख रखता है। भू-उपयोग संवर्गों का योग कुल प्रतिवेदन (रिपोर्टिंग) क्षेत्र के बराबर होता है जो कि भौगोलिक क्षेत्र से भिन्न है। भारत की प्रशासकीय इकाइयों के भौगोलिक क्षेत्र की सही जानकारी देने का दायित्व भारतीय सर्वेक्षण विभाग पर है। क्या आपने कभी भारतीय सर्वेक्षण विभाग द्वारा तैयार किए गए मानचित्रों का प्रयोग किया है? भूराजस्व तथा सर्वेक्षण विभाग दोनों में मूलभूत अंतर यह है कि भूराजस्व द्वारा प्रस्तुत क्षेत्रफल पत्रों के अनुसार रिपोर्टिंग क्षेत्र पर आधारित है जो कि कम या अधिक हो सकता है। कुल भौगोलिक क्षेत्र भारतीय सर्वेक्षण विभाग के सर्वेक्षण पर आधारित है तथा यह स्थायी है। आप भू-उपयोग वर्गीकरण के विषय में सामाजिक विज्ञान की पुस्तक कक्षा दस में पढ़ चुके हैं।

भूराजस्व अभिलेख द्वारा अपनाया गया भू-उपयोग वर्गीकरण निम्न प्रकार है-

(i) वनों के अधीन क्षेत्र (Forest) : यह जानना आवश्यक है कि वर्गीकृत वन क्षेत्र तथा वनों के अंतर्गत वास्तविक क्षेत्र दोनों पृथक हैं। सरकार द्वारा वर्गीकृत वन क्षेत्र का सीमांकन इस प्रकार किया जहाँ वन विकसित हो सकते हैं। भूराजस्व अभिलेखों में इसी परिभाषा को सतत अपनाया गया है। इस प्रकार इस संवर्ग के क्षेत्रफल में वृद्धि दर्ज हो सकती है परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि वहाँ वास्तविक रूप से वन पाए जाएँगे।

(ii) बंजर व व्यर्थ-भूमि (Barren and wastelands) : वह भूमि जो प्रचलित प्रौद्योगिकी की मदद से कृषि योग्य नहीं बनाई जा सकती, जैसे- बंजर पहाड़ी भूभाग, मरुस्थल, खड्डआदि को कृषि अयोग्य व्यर्थ-भूमि में वगीकृत किया गया है।

(iii) गैर कृषि-कार्यों में प्रयुक्त भूमि (Land put to Non-agricultural uses) : इस संवर्ग में बस्तियाँ (ग्रामीण व शहरी) अवसंरचना (सड़कें, नहरें आदि) उद्योगों, दुकानों आदि हेतु भू-उपयोग सम्मिलित हैं। द्वितीयक व तृतीयक कार्यकलापों में वृद्धि से इस संवर्ग के भू-उपयोग में वृद्धि होती है।

(iv) स्थायी चरागाह क्षेत्र (Permanent pastures) : इस प्रकार की अधिकतर भूमि पर ग्राम पंचायत या सरकार का स्वामित्व होता है। इस भूमि का केवल एक छोटा भाग निजी स्वामित्व में होता है। ग्राम पंचायत के स्वामित्व वाली भूमि को ‘साझा संपत्ति संसाधन’ कहा जाता है।

(v) विविध तरु-फ़सलों व उपवनों के अंतर्गत क्षेत्र (Area under miscellaneous tree crops and groves) : (जो बोए गए निवल क्षेत्र में सम्मिलित नहीं है)- इस संवर्ग में वह भूमि सम्मिलित है जिस पर उद्यान व फलदार वृक्ष हैं। इस प्रकार की अधिकतर भूमि व्यक्तियों के निजी स्वामित्व में है।

(vi) कृषि योग्य व्यर्थ भूमि (Culturable waste land) : वह भूमि जो पिछले पाँच वर्षों तक या अधिक समय तक परती या कृषिरहित है, इस संवर्ग में सम्मिलित की जाती है। भूमि उद्धार तकनीक द्वारा इसे सुधार कर कृषि योग्य बनाया जा सकता है।

(vii) वर्तमान परती भूमि (Current fallow) : वह भूमि जो एक कृषि वर्ष या उससे कम समय तक कृषिरहित रहती है, वर्तमान परती भूमि कहलाती है। भूमि की गुणवत्ता बनाए रखने हेतु भूमि का परती रखना एक सांस्कृतिक चलन है। इस विधि से भूमि की क्षीण उर्वरकता या पौष्टिकता प्राकृतिक रूप से वापस आ जाती है।

(viii) पुरातन परती भूमि (Fallow other than current fallow) : यह भी कृषि योग्य भूमि है जो एक वर्ष से अधिक लेकिन पाँच वर्षों से कम समय तक कृषिरहित रहती है। अगर कोई भूभाग पाँच वर्ष से अधिक समय तक कृषि रहित रहता है तो इसे कृषि योग्य व्यर्थ भूमि संवर्ग में सम्मिलित कर दिया जाता है।

(ix) निवल बोया क्षेत्र (Net area sown) : वह भूमि जिस पर फ़सलें उगाई व काटी जाती हैं, वह निवल बोया गया क्षेत्र कहलाता है।

भारत में भू-उपयोग परिवर्तन

किसी क्षेत्र में भू-उपयोग, अधिकतर वहाँ की आर्थिक क्रियाओं की प्रवृत्ति पर निर्भर है। यद्यपि समय के साथ आर्थिक क्रियाओं में बदलाव आता रहता है लेकिन भूमि अन्य बहुत से संसाधनों की भाँति, क्षेत्रफल की दृष्टि से स्थायी है। हमें भू-उपयोग को प्रभावित करने वाले अर्थव्यवस्था के तीन परिवर्तनों को समझना चाहिए जो निम्न प्रकार से हैं-

(i) अर्थव्यवस्था का आकार (जिसे उत्पादित वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्य के संदर्भ में समझा जाता है), समय के साथ बढ़ता है; जो बढ़ती जनसंख्या, बदलते आय-स्तर, उपलन्ध प्रौद्योगिकी व इसी से मिलते-जुलते कारकों पर निर्भर है। परिणामस्वरूप समय के साथ भूमि पर दबाव बढ़ता है तथा सीमांत भूमि को भी प्रयोग में लाया जाता है।

(ii) दूसरा, समय के साथ अर्थव्यवस्था की संरचना में भी बदलाव होता है। दूसरे शब्दों में, द्वितीयक व तृतीयक सेक्टरों में, प्राथमिक सेक्टर की अपेक्षा अधिक तीव्रता से वृद्धि होती है। इस प्रकार के परिवर्तन भारत जैसे विकासशील देश में एक सामान्य बात है। इस प्रकिया में धीरे-धीरे कृषि भूमि गैर-कृषि संबंधित कार्यों में प्रयुक्त होती है। आप पाएँगे कि इस प्रकार के परिवर्तन शहरों के चारों तरफ़ अधिक तीव्र हैं जहाँ कृषि भूमि को इमारतों के लिए उपयोग किया जा रहा है।

(iii) तीसरा, यद्यपि समय के साथ, कृषि क्रियाकलापों का अर्थव्यवस्था में योगदान कम होता जाता है, भूमि पर कृषि क्रियाकलापों का दबाव कम नहीं होता। कृषि-भूमि पर बढ़ते दबाव के कारण हैं-

(अ) प्रायः विकासशील देशों में कृषि पर निर्भर व्यक्तियों का अनुपात अपेक्षाकृत धीरे-धीरे घटता है जबकि कृषि का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान तीव्रता से कम होता है।

(ब) वह जनसंख्या जो कृषि सेक्टर पर निर्भर होती है। प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है।

चित्र 3.1

क्रियाकलाप

वर्ष 1950-51 तथा 2014-15 में बदलते भू-उपयोग आँकड़ों का तुलनात्मक वर्णन करें।

पिछले चार या पाँच दशकों में भारत की अर्थव्यवस्था में प्रमुख बदलाव आए हैं तथा इसने देश के भू-उपयोग परिवर्तन को प्रभावित किया है। वर्ष 1950-51 तथा 2014-15 के दौरान हुए इस परिवर्तन को चित्र 3.1 में दर्शाया गया है। इस आरेख को समझने में दो बातें ध्यान रहें- पहला, चित्र में प्रदर्शित प्रतिशत अभिलेख (रिपोर्टिंग) के संदर्भ में आकलित हैं। दूसरा, चूँकि रिपोर्टिंग क्षेत्र भी कुछ वर्षों से अपेक्षाकृत स्थायी है, अतः एक संवर्ग में कमी प्राय: दूसरे संवर्ग में वृद्धि दिखाती है।

चित्र 3.1 से यह पता चलता है कि चार संवर्गों में वृद्धि व चार संवर्गों के अनुपात में कमी दर्ज की गई है। वन क्षेत्रों, गैर-कृषि कार्यों में प्रयुक्त भूमि, वर्तमान परती भूमि निवल बोया क्षेत्र आदि के अनुपात में वृद्धि हुई है।

वृद्धि के निम्न कारण हो सकते हैं :

(i) गैर-कृषि कार्यों में प्रयुक्त क्षेत्र में वृद्धि दर अधिकतम है। इसका कारण भारतीय अर्थव्यवस्था की बदलती संरचना है, जिसकी निर्भरता औद्योगिक व सेवा सेक्टरों तथा अवसंरचना संबंधी विस्तार पर उत्तरोत्तर बढ़ रही है। इसके अतिरिक्त, गाँवों व शहरों में, बस्तियों के अंतर्गत क्षेत्रफल में विस्तार से भी इसमें वृद्धि हुई हैं। अतः गैर कृषि कार्यों में प्रयुक्त भूमि का प्रसार कृषि योग्य परंतु व्यर्थ भूमि तथा कृषि भूमि की हानि पर हुआ है।

(ii) जैसा कि पहले वर्णन किया गया है कि देश में वन क्षेत्र में वृद्धि सीमांकन के कारण हुई न कि देश में वास्तविक वन आच्छादित क्षेत्र के कारण।

(iii) वर्तमान परती भूमि में वृद्धि को दो कारणों से समझा जा सकता है- वर्तमान परती क्षेत्र में समयानुसार काफ़ी उतार-चढ़ाव की प्रवृत्ति रही है, जो वर्षा की अनियमितता तथा फ़सल-चक्र पर निर्भर है।

(iv) कृषि हेतु कृषि योग्य व्यर्थ भूमि के उपयोग के कारण निवल बोए गए क्षेत्र में वृद्धि एक वर्तमान घटना है। इससे पहले निवल बोए गए क्षेत्र में धीमी गति से ह्रास दर्ज किया जाता रहा। ऐसे संकेत हैं कि निवल बोए गए क्षेत्र में न्यूनता का कारण गैर कृषि कार्यों में प्रयुक्त भूमि के अनुपात में वृद्धि थी (अपने गाँव तथा शहर में कृषि योग्य भूमि पर बढ़ते भवन निर्माण कार्यों के विषय में लिखें।)

वे चार भू-उपयोग संवर्ग, जिनमें क्षेत्रीय अनुपात में गिरावट आई है- बंजर, व्यर्थ भूमि व कृषि योग्य व्यर्थ भूमि, चरागाहों तथा तरु फ़सलों के अंतर्गत क्षेत्र तथा परती भूमि। इनके घटते क्रम की व्याख्या निम्न कारणों द्वारा की जा सकती है :

(i) समय के साथ जैसे-जैसे कृषि तथा गैर कृषि कार्यों हेतु भूमि पर दबाव बढ़ा, वैसे-वैसे व्यर्थ एवं कृषि योग्य व्यर्थ भूमि में समयानुसार कमी इसकी साक्षी है।

(ii) चरागाह भूमि में कमी का कारण कृषि भूमि पर बढ़ता दबाव है। साझी चरागाहों पर गैर-कानूनी तरीकों से कृषि विस्तार ही इसकी न्यूनता का मुख्य कारण है।

क्रियाकलाप

वास्तविक वृद्धि और वृद्धि दर में क्या अंतर है? 1950-51 एवं 2014-15 के आँकड़ों के अनुसार भूमि उपयोग के सभी वर्गों की वास्तविक वृद्धि व वृद्धि दर के विषय में बताइए। परिशिष्ट तालिका च परिणाम की विवेचना कीजिए।

अध्यापक के लिए

वास्तविक वृद्धि की गणना के लिए, दो समय कालों के भू-उपयोग संवर्गों का अंतर निकालें।

वृद्धि दर की गणना हेतु, सामान्य वृद्धि दर अर्थात् दोनों वर्षों के आँकड़ों का अंतर निकालकर उसे आधार वर्ष यानी 1950-51 के आँकड़ों से विभाजित करें। जैसे-

$\dfrac{\text{निवल बोया गया क्षेत्र (2014-15) - निवल बोया गया क्षेत्र (1950-51)}}{\text{निवल बोया गया क्षेत्र (1950-51)}} \times 100$

साझा संपत्ति संसाधन (Common Property Resources)

भूमि के स्वामित्व के आधार पर इसे मोटे तौर पर दो वर्गों में बाँटा जाता है- निजी भूसंपत्ति तथा साझा संपत्ति संसाधन (CPRs)। पहले वर्ग की भूमि पर व्यक्तियों का निजी स्वामित्व अथवा कुछ व्यक्तियों का सम्मिलित निजी स्वामित्व होता है। दूसरे वर्ग की भूमियाँ सामुदायिक उपयोग हेतु राज्यों के स्वामित्व में होती हैं। साझा संपत्ति संसाधन-पशुओं के लिए चारा, घरेलू उपयोग हेतु ईंधन, लकड़ी तथा साथ ही अन्य वन उत्पाद जैसे- फल, रेशे, गिरी, औषधीय पौधे आदि उपलन्ध कराती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीन छोटे कृषकों तथा अन्य आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के व्यक्तियों के जीवन-यापन में इन भूमियों का विशेष महत्व है; क्योंकि इनमें से अधिकतर भूमिहीन होने के कारण पशुपालन से प्राप्त आजीविका पर निर्भर हैं। महिलाओं के लिए भी इन भूमियों का विशेष महत्व है क्योंकि ग्रामीण इलाकों में चारा व ईंधन लकड़ी के एकत्रीकरण की ज़िम्मेदारी उन्हीं की होती है। इन भूमियों में कमी से उन्हें चारे तथा ईंधन की तलाश में दूर तक भटकना पड़ता है।

साझा संपत्ति संसाधनों को सामुदायिक प्राकृतिक संसाधन भी कहा जा सकता है, जहाँ सभी सदस्यों को इसके उपयोग का अधिकार होता है तथा किसी विशेष के संपत्ति अधिकार न होकर सभी सदस्यों के कुछ विशेष कर्त्तव्य भी हैं। सामुदायिक वन, चरागाहों, ग्रामीण जलीय क्षेत्र तथा अन्य सार्वजनिक स्थान साझा संपत्ति संसाधन के ऐसे उदाहरण हैं जिसका उपयोग एक परिवार से बड़ी इकाई करती है तथा यही उसके प्रबंधन के दायित्वों का निर्वहन करती हैं।

भारत में कृषि भू-उपयोग

भू-संसाधनों का महत्व उन लोगों के लिए अधिक है जिनकी आजीविका कृषि पर निर्भर हैं :

(i) द्वितीयक व तृतीयक आर्थिक क्रियाओं की अपेक्षा कृषि पूर्णतया भूमि पर आधारित है। अन्य शब्दों में, कृषि उत्पादन में भूमि का योगदान अन्य सेक्टरों में इसके योगदान से अधिक है। अतः ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीनता प्रत्यक्ष रूप से वहाँ की गरीबी से संबंधित है।

(ii) भूमि की गुणवत्ता कृषि उत्पादकता को प्रभावित करती है जो अन्य कार्यों में नहीं है।

(iii) ग्रामीण क्षेत्रों में भू-स्वामित्व का आर्थिक मूल्य के अतिरिक्त सामाजिक मूल्य भी हैं तथा प्राकृतिक आपदाओं या निजी विपत्ति में एक सुरक्षा की भाँति है एवं समाज में प्रतिष्ठा बढ़ाता है।

समस्त कृषि भूमि संसाधनों का अनुमान (अर्थात समस्त कृषि योग्य भूमि) निवल बोया गया क्षेत्र तथा सभी प्रकार की परती भूमि और कृषि योग्य व्यर्थ भूमियों के योग से लगाया जा सकता है। तालिका 3.1 से यह निष्कर्ष निकलता है कि पिछले वर्षों में समस्त रिपोर्टिंग क्षेत्र से कृषि भूमि का प्रतिशत कम हुआ है। कृषि योग्य व्यर्थ भूमि संवर्ग में कमी के बावजूद कृषि योग्य भूमि में कमी आई है।

उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि भारत में निवल बोए गए क्षेत्र में बढ़ोतरी की संभावनाएँ सीमित हैं। अतः भूमि बचत प्रौद्योगिकी विकसित करना आज अत्यंत आवश्यक है।

तालिका 3.1 : समस्त कृषि योग्य भूमि की संरचना

कृषि योग्य भू-उपयोग रिपोर्टिंग क्षेत्रफल का प्रतिशत समस्त कृषि योग्य भूमि का प्रतिशत
$\mathbf{1 9 5 0 - 5 1}$ $\mathbf{2 0 1 4 - 1 5}$ $\mathbf{1 9 5 0 - 5 1}$ $\mathbf{2 0 1 4 - 1 5}$
कृषि योग्य बंजर भूमि 8.0 4.0 13.4 6.8
पुरातन परती भूमि 6.1 3.6 10.2 6.2
वर्तमान परती भूमि 3.7 4.9 6.2 8.4
निवल बोया गया क्षेत्र 41.7 45.5 70.0 78.4
सकल कृषि योग्य भूमि $\mathbf{5 9 . 5}$ $\mathbf{5 8 . 0}$ $\mathbf{1 0 0 . 0 0}$ $\mathbf{1 0 0 . 0 0}$

यह प्रौद्योगिकी दो भागों में बाँटी जा सकती हैं- पहली, वह जो प्रति इकाई भूमि में फ़सल विशेष की उत्पादकता बढ़ाएँ तथा दूसरी, वह प्रौद्योगिकी जो एक कृषि वर्ष में गहन भू-उपयोग से सभी फ़सलों का उत्पादन बढ़ाएँ। दूसरी प्रौद्योगिकी का लाभ यह है कि इसमें सीमित भूमि से भी कुल उत्पादन बढ़ने के साथ श्रमिकों की माँग भी पर्याप्त रूप से बढ़ती है। भारत जैसे देश में भूमि की कमी तथा श्रम की अधिकता है, ऐसी स्थिति में फ़सल सघनता की आवश्यकता केवल भू-उपयोग हेतु वांछित हैं; अपितु ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोज़गारी जैसी आर्थिक समस्या को भी कम करने के लिए आवश्यक है।

फ़सल गहनता की गणना निम्न प्रकार से की जाती है :

कृषि गहनता : अर्थात् $\dfrac{\text { सकल बोया गया क्षेत्र }}{\text { निवल बोया गया क्षेत्र }} \times 100$

भारत में फ़सल ऋतुएँ

हमारे देश के उत्तरी व आंतरिक भागों में तीन प्रमुख फ़सल ऋतुएँ- खरीफ, रबी व ज़ायद के नाम से जानी जाती है। खरीफ़ की फ़सलें अधिकतर दक्षिण-पश्चिमी मानसून के साथ बोई जाती हैं जिसमें उष्ण कटिबंधीय फ़सलें सम्मिलित हैं, जैसे- चावल, कपास, जूट, ज्वार, बाजरा व अरहर आदि। रबी की ऋतु अक्टूबर-नवंबर में शरद ऋतु से प्रारंभ होकर मार्च-अप्रैल में समाप्त होती है। इस समय कम तापमान शीतोष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधीय फ़सलों जैसेगेहूँ, चना, तथा सरसों आदि फ़सलों की बुवाई में सहायक है। ज़ायद एक अल्पकालिक ग्रीष्मकालीन फ़सल-ऋतु है, जो रबी की कटाई के बाद प्रारंभ होता है। इस ऋतु में तरबूज, खीरा, ककड़ी, सब्ज़ियाँ व चारे की फ़सलों की कृषि सिंचित भूमि पर की जाती है यद्यपि इस प्रकार की पृथक फ़सल ॠतुएँ देश के दक्षिण भागों में नहीं पाई जातीं। यहाँ का अधिकतम तापमान वर्षभर किसी भी उष्ण कटिबंधीय फ़सल की बुवाई में सहायक है, इसके लिए पर्याप्त आर्द्रता उपलब्ध होनी चाहिए। इसलिए देश के इस भाग में, जहाँ भी पर्याप्त मात्रा में सिंचाई सुविधाएँ उपलब्ध हैं, एक कृषि वर्ष में एक ही फ़सल तीन बार उगाई जा सकती है।

कृषि के प्रकार

आर्द्रता के प्रमुख उपलब्ध स्रोत के आधार पर कृषि को सिंचित कृषि तथा वर्षा निर्भर ( बारानी) कृषि में वर्गीकृत किया जाता है। सिंचित कृषि में भी सिंचाई के उदेश्य के आधार पर अंतर पाया जाता है, जैसे- रक्षित सिंचाई कृषि तथा उत्पादक सिंचाई कृषि। रक्षित सिंचाई का मुख्य उदेश्य आर्द्रता की कमी के कारण फ़सलों को नष्ट होने से बचाना है जिसका अभिप्राय यह है कि वर्षा के अतिरिक्त जल की कमी को सिंचाई द्वारा पूरा किया जाता है। इस प्रकार की सिंचाई का उद्देश्य अधिकतम क्षेत्र को पर्याप्त आर्द्रता उपलब्ध कराना है। उत्पादक सिंचाई का उद्देश्य फ़सलों को पर्याप्त मात्रा में पानी

तालिका 3.2 : भारतीय कृषि ऋतु

कृषि ऋतु प्रमुख फ़सलें
उत्तरी भारत राज्य दक्षिणी राज्य
खरीफ़
(जून से सितंबर)
उत्तरी भारत राज्य चावल, कपास, बाजरा, मक्का, ज्वार, अरहर (तुर)
दक्षिणी राज्य चावल, मक्का, रागी, ज्वार तथा मूँगफली
रबी
(अक्टूबर से मार्च)
उत्तरी भारत राज्य गेहूँ, चना, तोरई, सरसों, जौ
दक्षिणी राज्य चावल, मक्का, रागी, मूँगफली
ज़ायद
(अप्रैल से जून)
उत्तरी भारत राज्य वनस्पति, सब्जियाँ, फल, चारा फ़सलें
दक्षिणी राज्य चावल, सब्जियाँ, चारा फ़सलें

उपलब्ध कराकर अधिकतम उत्पादकता प्राप्त करना है। उत्पादक सिंचाई में जल निवेश की मात्रा रक्षित सिंचाई की अपेक्षा अधिक होती है। वर्षानिर्भर कृषि भी कृषि ऋतु में उपलब्ध आर्द्रता मात्रा के आधार पर दो वर्गों; शुष्क भूमि कृषि तथा आर्द्र भूमि कृषि में बाँटी जाती है। भारत में शुष्क भूमि खेती मुख्यतः उन प्रदेशों तक सीमित है जहाँ वार्षिक वर्षा 75 सेंटीमीटर से कम है। इन क्षेत्रों में शुष्कता को सहने में सक्षम फ़सलें जैसेरागी, बाजरा, मूँग, चना तथा ग्वार (चारा फ़सलें) आदि उगाई जाती हैं तथा इन क्षेत्रों में आर्द्रता संरक्षण तथा वर्षा जल के प्रयोग के अनेक विधियाँ अपनाई जाती हैं। आर्द्र कृषि क्षेत्रों में वर्षा ऋतु के अंतर्गत वर्षा जल पौधों की ज़रुरत से अधिक होता है। ये प्रदेश बाढ़ तथा मृदा अपरदन का सामना करते हैं। इन क्षेत्रों में वे फ़सलें उगाई जाती हैं जिन्हें पानी की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है, जैसे- चावल, जूट, गन्ना आदि तथा ताज़े पानी की जलकृषि भी की जाती है।

खाद्यान्न फ़सल

भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था में खाद्यान्नों की महत्ता को इस तथ्य से मापा जा सकता है कि देश के समस्त बोये क्षेत्र के दो-तिहाई भाग पर खाद्यान्न फ़सलें उगाई जाती हैं। देश के सभी भागों में खाद्यान्न फ़सलें प्रमुख हैं, भले ही वहाँ जीविका-निर्वाह अर्थव्यवस्था या व्यापारिक कृषि अर्थव्यवस्था हो। अनाज की संरचना के आधार पर खाद्यान्नों को अनाज तथा दालों में वर्गीकृत किया जाता है।

अनाज

भारत में कुल बोये क्षेत्र के लगभग 54 प्रतिशत भाग पर अनाज बोये जाते हैं। भारत विश्व का लगभग 11 प्रतिशत अनाज उत्पन्न करके अमेरिका व चीन के बाद तीसरे स्थान पर है। भारत विविध प्रकार के अनाजों का उत्पादन करता है जिन्हें उत्तम अनाजों (चावल, गेहूँ) तथा मोटे अनाजों (ज्वार, बाजरा, मक्का, रागी) आदि में वर्गीकृत किया जाता है। मुख्य अनाजों का विवरण निम्न प्रकार है :

चावल

भारत की अधिकतर जनसंख्या का प्रमुख भोजन चावल है। यद्यपि यह एक उष्ण आर्द्र कटिबंधीय फ़सल है, इसकी 3000 से भी अधिक किस्में हैं जो विभिन्न कृषि जलवायु प्रदेशों में उगाई जाती है। इसकी कृषि समुद्रतल से 2000 मीटर तक की ऊँचाई तक एवं पूर्वी भारत के आर्द्र भागों से लेकर उत्तरपश्चिमी भारत के शुष्क परंतु सिंचित क्षेत्र पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश व उत्तरी राजस्थान में, सफलतापूर्वक की जाती है। दक्षिणी राज्यों तथा पश्चिम बंगाल में जलवायु अनुकूलता के कारण एक कृषि वर्ष में चावल की दो या तीन फ़सलें बोई जाती हैं। पश्चिम बंगाल के किसान चावल की तीन फ़सलें लेते हैं जिन्हें- औस, अमन तथा बोरो कहा जाता है। परंतु हिमालय तथा देश के उत्तर-पश्चिम भागों में यह दक्षिण-पश्चिम मानसून ऋतु में खरीफ़ फ़सल के रूप में उगाई जाती है।

भारत विश्व का 22.07 प्रतिशत चावल उत्पादन करता है तथा चीन के बाद भारत का विश्व में दूसरा स्थान है (2018)। देश के कुल बोए क्षेत्र के एक-चौथाई भाग पर चावल बोया जाता है। देश के प्रमुख चावल उत्पादक राज्य पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, पंजाब हैं। चावल की प्रति हेक्टेयर पैदावार पंजाब, तमिलनाडु, हरियाणा, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल तथा केरल राज्यों में अधिक है। इसमें से पहले चार राज्यों में लगभग संपूर्ण चावल क्षेत्र सिंचित है। पंजाब व हरियाणा पारंपरिक रूप से चावल उत्पादक राज्य नहीं है। हरित क्रांति के अंतर्गत हरियाणा, पंजाब के सिंचित क्षेत्रों में चावल की कृषि 1970 से प्रारंभ की गई। उत्तम किस्म के बीजों, अपेक्षाकृत अधिक खाद तथा कीटनाशकों का प्रयोग एवं शुष्क जलवायु के कारण

चित्र 3.2 : भारत के दक्षिणी भाग में चावल की रोपाई

फ़सलों में रोग प्रतिरोधकता आदि कारक इस प्रदेश में चावल की अधिक पैदावार के उत्तरदायी हैं। इसकी प्रति हेक्टेयर पैदावार मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व ओडिशा के वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में बहुत कम है।

चित्र 3.3 : भारत - चावल का वितरण

गेहूँ

भारत में चावल के पश्चात् गेहूँ दूसरा प्रमुख अनाज है। भारत विश्व का 12.8 प्रतिशत गेहूँ उत्पादन करता है (2017)। यह मुख्यतः शीतोष्ण कटिबंधीय फ़सल है। अतः इसे शरद् अर्थात् रबी ऋतु में बोया जाता है। इस फ़सल का 85 प्रतिशत क्षेत्र भारत के उत्तरी मध्य भाग तक केंद्रित है अर्थात् उत्तर गंगा का मैदान, मालवा पठार तथा हिमालय पर्वतीय श्रेणी में 2700 मीटर ऊँचाई तक का क्षेत्र है। रबी फ़सल होने के कारण यह सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में ही उगाया जाता है। लेकिन हिमालय के उच्च भागों में तथा मध्य प्रदेश के मालवा के पठारी क्षेत्र में यह वर्षा पर निर्भर फ़सल है।

देश के कुल बोटे क्षेत्र के लगभग 14 प्रतिशत भाग पर गेहूँ की कृषि की जाती है। गेहूँ के प्रमुख उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, पंजाब, हरियाणा तथा राजस्थान हैं। पंजाब व हरियाणा में गेहूँ की उत्पादकता ( 4000 किलोग्राम//प्रति हेक्टेयर) अधिक है। जबकि उत्तर प्रदेश, राजस्थान व बिहार में प्रति हेक्टेयर पैदावार मध्यम स्तर की है। मध्य प्रदेश हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू-कश्मीर में गेहूँ की कृषि वर्षा आधारित है तथा उत्पादकता कम है।

ज्वार

देश के कुल बोटे क्षेत्र के 16.5 प्रतिशत भाग पर मोटे अनाज बोटे जाते हैं। इनमें ज्वार प्रमुख है जो कुल बोए क्षेत्र के 5.3 प्रतिशत भाग पर बोया जाता है। यह दक्षिण व मध्य भारत के अर्ध-शुष्क क्षेत्रों की प्रमुख खाद्य फ़सल है। महाराष्ट्र राज्य अकेला, देश की आधे से अधिक ज्वार उत्पादन करता है। अन्य प्रमुख ज्वार उत्पादक राज्यों में कर्नाटक, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना हैं। दक्षिण राज्यों में यह खरीफ़ तथा रबी दोनों ऋतुओं में बोया जाता है। परतु उत्तर भारत में यह खरीफ़ की फ़सल है तथा मुख्यतः चारा फ़सल के रूप में उगायी जाती है। विंध्याचल के दक्षिण में यह वर्षा आधारित फ़सल है तथा यहाँ इसकी उत्पादकता कम है।

बाजरा

भारत के पश्चिम तथा उत्तर-पश्चिम भागों में गर्म तथा शुष्क जलवायु में बाजरा बोया जाता है। यह फ़सल इस क्षेत्र के शुष्क दौर तथा सूखा सहन करने में समर्थ है। यह एकल तथा मिश्रित फ़सल के रूप में बोया जाता है। यह फ़सल देश के कुल बोटे क्षेत्र के लगभग 5.2 प्रतिशत भाग पर बोई जाती है। बाजरा उत्पादक प्रमुख राज्य- महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, राजस्थान व हरियाणा है। वर्षानिर्भर फ़सल होने के कारण राजस्थान में इसकी उत्पादकता कम हैं तथा इसमें अत्यधिक उतार-चढ़ाव है। कुछ वर्षों से सूखा प्रतिरोधक किस्मों के आगमन से तथा गुजरात व हरियाणा में सिंचाई सुविधाओं के विस्तार से इस फ़सल की पैदावार में वृद्धि हुई है।

मक्का

मक्का एक खाद्य तथा चारा फ़सल है जो निम्न कोटि मिट्टी व अर्धशुष्क जलवायवी परिस्थितियों में उगाई जाती है। यह फ़सल कुल बोये क्षेत्र के केवल 3.6 प्रतिशत भाग में बोई जाती है। मक्का की कृषि किसी विशेष क्षेत्र में केंद्रित नहीं हैं। यह पूर्वी तथा उत्तर पूर्वी भारत को छोड़कर देश के लगभग सभी हिस्सों में बोई जाती है। मक्का के प्रमुख उत्पादक राज्य कर्नाटक, मध्य प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, राजस्थान व उत्तर प्रदेश हैं। अन्य मोटे अनाजों की अपेक्षा इसकी पैदावार अधिक है। इसकी पैदावार दक्षिण राज्यों में अधिक है जो मध्य भागों की ओर कम होती जाती है।

दालें

प्रचुर मात्रा में प्रोटीन के स्रोत होने के कारण दालें शाकाहारी भोजन के प्रमुख संघटक है। ये फलीदार फ़सलें है जो नाइट्रोजन योगीकरण के द्वारा मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरकता बढ़ाती है। भारत दालों का प्रमुख उत्पादक देश है। देश में दालों को खेती अधिकतर दक्कन पठार, मध्य पठारी भागों तथा उत्तर-पश्चिम के शुष्क भागों में की जाती है। देश के कुल बोये क्षेत्र का लगभग 11 प्रतिशत भाग दालों के अधीन है। शुष्क क्षेत्रों में वर्षा आधारित फ़सल होने के कारण दालों की उत्पादकता कम है तथा इसमें वार्षिक उतार-चढ़ाव पाया जाता है। चना तथा अरहर भारत की प्रमुख दालें हैं।

चना

चना उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों की फ़सल है। यह मुख्यत: वर्षा आधारित फ़सल है जो देश के मध्य, पश्चिमी तथा उत्तर-पश्चिमी भागों में रबी की ऋतु में बोई जाती है। इस फ़सल को

चित्र 3.4 : भारत - गेहूँ का वितरण

सफलतापूर्वक उगाने के लिए वर्षा की केवल एक या दो हल्की बौछारों या एक या दो बार सिंचाई की आवश्यकता होती है। हरियाणा, पंजाब तथा उत्तरी राजस्थान में हरित क्रांति की शुरुआत से चने के फ़सल क्षेत्रों में कमी आई है तथा इसके स्थान पर गेहूँ की फ़सल बोई जाती है। अब देश के कुल बोये क्षेत्र के केवल 2.8 प्रतिशत भाग पर ही चने की खेती की जाती है। इस फ़सल के प्रमुख उत्पादक राज्य मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना तथा राजस्थान है। इसकी उत्पादकता कम है तथा सिंचित क्षेत्रों में भी इसकी उत्पादकता में एक वर्ष से दूसरे वर्ष के बीच उतार-चढ़ाव पाया जाता है।

अरहर ( तुर)

यह देश की दूसरी प्रमुख दाल फ़सल है। इसे लाल चना तथा पिजन पी. के नाम से भी जाना जाता है। यह देश के मध्य तथा दक्षिणी राज्यों के शुष्क भागों में वर्षा-आधारित परिस्थितियों तथा सीमांत भूक्षेत्रों पर बोई जाती है। भारत के कुल बोए गए क्षेत्र के लगभग 2 प्रतिशत भाग पर इसकी खेती की जाती है। देश के अरहर के कुल उत्पादन का लगभग एक तिहाई भाग अकेले महाराष्ट्र से आता है। अन्य प्रमुख उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात तथा मध्य प्रदेश हैं। इस फ़सल की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता कम तथा अनियमित है।

क्रियाकलाप

विभिन्न खाद्यान्नों में अंतर स्पष्ट करें। विभिन्न प्रकार के अनाजों को मिश्रित करें तथा उनमें से दालों व अनाजों को पृथक करें। मोटे व उत्तम अनाजों को भी अलग करें।

तिलहन

खाद्य तेल निकालने के लिए तिलहन की खेती की जाती है। मालवा पठार, मराठवाड़ा, गुजरात, राजस्थान के शुष्क भागों तेलंगाना व आंध्र प्रदेश के रायलसीमा प्रदेश, भारत के प्रमुख तिलहन उत्पादक क्षेत्र हैं। देश के कुल शस्य क्षेत्र के लगभग 14 प्रतिशत भाग पर तिलहन फ़सलें बोई जाती है। भारत की प्रमुख तिलहन फ़सलों में मूंगफली, तोरिया, सरसों, सोयाबीन तथा सूरजमुखी सम्मिलित है।

मूँगफली

भारत विश्व में 18.8 प्रतिशत मूँगफली का उत्पादन करता है (2018)। यह मुख्यतः शुष्क प्रदेशों की वर्षा-आधारित खरीफ फ़सल है। परंतु दक्षिण भारत में यह रबी ऋतु में बोई जाती है। यह देश के कुल शस्य क्षेत्र के 3.6 प्रतिशत क्षेत्र पर फैली है। गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, इसके अग्रणी उत्पादक राज्य हैं। तमिलनाडु में जहाँ भी यह फ़सल आंशिक रूप से सिंचित है, वहां इसकी पैदावार अपेक्षाकृत अधिक है। परंतु आंध्र प्रदेश तथा कर्नाटक में इसकी पैदावार कम है।

तोरिया व सरसों

तोरिया व सरसों में बहुत से तिलहन सम्मिलित हैं, जैसे - राई, सरसों, तोरिया व तारामीरा आदि। ये उपोष्णकटिबंधीय फ़सलें हैं तथा भारत के मध्य व उत्तर-पश्चिमी भाग में रबी में बोई जाती है। ये फ़सलें पाला सहन नहीं कर सकतीं तथा इनके उत्पादन में वार्षिक उतार-चढ़ाव है। परंतु सिंचाई के प्रसार बीज सुधार तथा प्रौद्योगिकी के साथ इनके उत्पादन में वृद्धि हुई है। इन फ़सलों के अंतर्गत क्षेत्र का लगभग दो-तिहाई भाग सिंचित है। तिलहन, देश के कुल शस्य क्षेत्र के केवल लगभग 2.5 प्रतिशत भाग पर ही बोये जाते हैं। इनके उत्पादन का एक-तिहाई भाग राजस्थान से आता है तथा अन्य प्रमुख उत्पादक राज्य हरियाणा, तथा मध्य प्रदेश हैं। इन फ़सलों की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता हरियाणा तथा पंजाब में अपेक्षाकृत अधिक है।

अन्य तिलहन

सोयाबीन तथा सूरजमुखी भारत के अन्य महत्वपूर्ण तिलहन हैं। सोयाबीन अधिकतर मध्य प्रदेश व महाराष्ट्र में बोया जाता है। दोनों राज्य मिलकर देश का लगभग 90 प्रतिशत सोयाबीन पैदा करते हैं। सूरजमुखी की फ़सल का सांद्रण राजस्थान, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना तथा इससे जुड़े हुए महाराष्ट्र के भागों में है

चित्र 3.5 : अमरावती, महाराष्ट्र में सोयाबीन का बीजारोपण करते हुए कृषक

चित्र 3.6 : भारत - कपास तथा जूट का वितरण

देश के उतरी भागों में यह एक गौण फ़सल है लेकिन सिंचित क्षेत्रों में इनका उत्पादन अधिक है।

रेशेदार फ़सलें

ये फ़सलें हमें कपड़ा, थैला, बोरा व अन्य कई प्रकार का सामान बनाने के लिए रेशा प्रदान करते हैं। कपास तथा जूट भारत की दो प्रमुख रेशेदार फ़सलें हैं।

कपास

कपास एक उष्ण कटिबंधीय फ़सल है जो देश के अर्ध-शुष्क भागों में खरीफ़ ऋतु में बोई जाती है। देश विभाजन के समय भारत का बहुत बड़ा कपास उत्पादन क्षेत्र पाकिस्तान में चला गया। यद्यपि पिछले 50 वर्षों में भारत में इसके क्षेत्रफल में लगातार वृद्धि हुई है। भारत, छोटे रेशे वाली (भारतीय) व लंबे रेशे वाली (अमेरिकन) दोनों प्रकार की कपास का उत्पादन करता है। अमेरिकन कपास को देश के उत्तर-पश्चिमी भाग में ‘नरमा’ कहा जाता है। कपास पर फूल आने के समय आकाश बादलरहित होना चाहिए।

भारत का कपास के उत्पादन में विश्व में चीन के पश्चात दूसरा स्थान है। देश के समस्त बोए क्षेत्र के लगभग 4.7 प्रतिशत क्षेत्र पर कपास बोया जाता है।

चित्र 3.7 : कपास की खेती

कपास के तीन मुख्य उत्पादक क्षेत्र हैं। इसमें उत्तर-पश्चिम भारत में पंजाब, हरियाणा तथा उत्तरी राजस्थान; पश्चिम में गुजरात तथा महाराष्ट्र; तथा दक्षिण में तेलंगाना, कर्नाटक व तमिलनाडु के पठारी भाग सम्मिलित हैं। कपास के अग्रणी उत्पादक राज्य- गुजरात, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, पंजाब तथा हरियाणा हैं। देश के उत्तर-पश्चिमी सिंचाई सुविधा वाले भागों में कपास का प्रति हेक्टेयर उत्पादन अधिक है। इसका उत्पादन महाराष्ट्र के वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में बहुत कम है।

जूट

जूट का प्रयोग मोटे वस्त्र, थैला, बोरे व अन्य सजावटी सामान बनाने में किया जाता है। यह पश्चिम बंगाल तथा इससे संस्पर्शी पूर्वी भागों की एक व्यापारिक फ़सल है। विभाजन के दौरान देश का विशाल जूट उत्पादक क्षेत्र पूर्वी पाकिस्तान (बांग्ला देश) में चला गया। आज भारत विश्व का लगभग 60 प्रतिशत जूट उत्पादन करता है। पश्चिम बंगाल देश के इस उत्पादन का तीन-चौथाई भाग पैदा करता है। बिहार व आसाम अन्य जूट उत्पादक क्षेत्र हैं। यह देश के कुल शस्य क्षेत्र के 0.5 प्रतिशत भाग पर ही बोया जाता है।

अन्य फ़सलें

गन्ना, चाय तथा कॉफ़ी भारत की अन्य महत्वपूर्ण फ़सलें हैं।

गन्ना

गन्ना एक उष्ण कटिबंधीय फ़सल है। वर्षा पर निर्भर परिस्थितियों में यह केवल आर्द्र व उपार्र जलवायु वाले क्षेत्रों में बोई जा सकती है। परंतु भारत में इसकी खेती अधिकतर सिंचित क्षेत्रों में की जा सकती है। गंगा-सिंधु के मैदानी भाग में इसकी अधिकतर बुवाई उत्तर-प्रदेश तक सीमित है। पश्चिम भारत में गन्ना उत्पादक प्रदेश महाराष्ट्र व गुजरात तक विस्तृत है। दक्षिण भारत में इसकी कृषि कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना व आंध्र प्रदेश के सिंचाई वाले भागों में की जाती है।

चित्र 3.8 : गन्ने की खेती

चित्र 3.9 : भारत - गन्ने का वितरण

ब्राजील के बाद भारत दूसरा बड़ा गन्ना उत्पादक देश था (2018)। यहाँ विश्व के 19.76 प्रतिशत गन्ने का उत्पादन होता है। देश के कुल शस्य क्षेत्र के 2.4 प्रतिशत भाग पर ही इसकी कृषि की जाती है। उत्तर प्रदेश देश का 40 प्रतिशत गन्ना उत्पादन करता है। इसके अन्य प्रमुख उत्पादक राज्य महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा तमिलनाडु आंध्र प्रदेश हैं, जहाँ इसका उत्पादन स्तर अधिक है। उत्तरी भारत में इसका उत्पादन कम है।

चाय

चाय एक रोपण कृषि है जो पेय पदार्थ के रूप में प्रयोग की जाती है। काली चाय की पत्तियाँ किण्वित होती हैं जबकि चाय की हरी पत्तियाँ अकिण्वित होती हैं। चाय की पत्तियों में कैफ़िन तथा टैनिन की प्रचुरता पाई जाती है। यह उत्तरी चीन के पहाड़ी क्षेत्रों की देशज फ़सल है। यह उष्ण आर्द्र तथा उपोष्ण आर्द्र कटिबंधीय जलवायु वाले तरंगित भागों पर अच्छे अपवाह वाली मिट्टी में बोई जाती है। भारत में चाय की खेती 1840 में असम की ब्रह्मपुत्र घाटी में प्रारंभ हुई जो आज भी देश का प्रमुख चाय उत्पादन क्षेत्र है। बाद में इसकी कृषि पश्चिमी बंगाल के उपहिमालयी भागों (दार्जिलिंग, जलपाईगुड़ी तथा कूचबिहार ज़िलों) में प्रारंभ की गई। दक्षिण में चाय की खेती पश्चिमी घाट की नीलगिरी तथा इलायची की पहाड़ियों के निचले ढालों पर की जाती है। भारत चाय का अग्रणी उत्पादक देश है तथा विश्व का लगभग 21.22 प्रतिशत चाय का उत्पादन करता है। अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में भारतीय चाय का भाग घटा है।

चित्र 3.10: चाय की खेती

चाय-निर्यातक देशों में भारत का चीन के पश्चात् विश्व में दूसरा स्थान है (2018)। असम के कुल शस्य क्षेत्र के 53.2 प्रतिशत भाग पर चाय की कृषि की जाती है तथा देश के कुल उत्पादन में आधे से अधिक भाग असम में पैदा होता है। चाय के अन्य महत्त्वपूर्ण उत्पादक राज्य- पश्चिम बंगाल व तमिलनाडु हैं।

कॉफ़ी

कॉफ़ी एक उष्ण कटिबंधीय रोपण कृषि है। इसके बीजों को भूनकर पीसा जाता है तथा एक पेय के रूप में प्रयोग किया जाता है। कॉफ़ी की तीन किस्में हैं; अरेबिका, रोबस्ता व लिबेरिका हैं। भारत अधिकतर उत्तम किस्म की ‘अरेबिका’ कॉफ़ी का उत्पादन करता है, जिसकी अंतर्राष्टीय बाज़ार में बहुत माँग हैं। परंतु भारत में विश्व का केवल 3.17 प्रतिशत कॉफ़ी का उत्पादन होता है। ब्राजील, वियतनाम, इंडोनेशिया, कोलंबिया, होंडुरास, इथियोपिया तथा पेरू के बाद भारत का विश्व में आठवाँ स्थान है (2018)। कर्नाटक, केरल व तमिलनाडु में पश्चिम घाट की उच्च भूमि पर इसकी कृषि की जाती है। देश के समस्त कॉफ़ी उत्पादन का दो-तिहाई से अधिक भाग अकेले कर्नाटक राज्य से आता है।

भारत में कृषि विकास

स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले भारतीय कृषि एक जीविकोपार्जी अर्थव्यवस्था जैसी थी। बीसवीं शताब्दी के मध्य तक इसका प्रदर्शन बड़ा दयनीय था। यह समय भयंकर अकाल व सूखे का साक्षी है। देश-विभाजन के दौरान लगभग एक-तिहाई सिंचित भूमि पाकिस्तान में चली गई। परिणामस्वरूप स्वतंत्र भारत में सिंचित क्षेत्र का अनुपात कम रह गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरकार का तात्कालिक उद्देश्य खााद्यान्रों का उत्पादन बढ़ाना था, जिसमें निम्न उपाय अपनाए गए- (i) व्यापारिक फ़सलों की जगह खाद्यान्नों का उगाया जाना। (ii) कृषि गहनता को बढ़ाना, तथा (iii) कृषि योग्य बंजर तथा परती भूमि को कृषि भूमि में परिवर्तित करना। प्रारंभ में इस नीति से खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ा, लेकिन 1950 के दशक के अंत तक कृषि उत्पादन स्थिर हो गया। इस समस्या से उभरने के लिए गहन कृषि ज़िला कार्यक्रम (IADP) तथा गहन कृषि क्षेत्र कार्यक्रम (IAAP) प्रारंभ किए गए। परंतु 1960 के दशक के मध्य में लगातार दो अकालों से देश में अन्न संकट उत्पन्न हो गया। परिणामस्वरूप दूसरे देशों से खाद्यान्नों का आयात करना पड़ा।

चित्र 3.11 : भारत - चाय तथा कॉफ़ी का वितरण

1960 के दशक के मध्य में गेहूँ ( मैक्सिको) तथा चावल (फिलिपोंस) की किस्में - जो अधिक उत्पादन देने वाली नई किस्में थीं, कृषि के लिए उपलब्ध हुई। भारत ने इसका लाभ उठाया तथा पैकेज प्रौद्योगिकी के रूप में पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश तथा गुजरात के सिंचाई सुविधा वाले क्षेत्रों में, रासायनिक खाद के साथ इन उच्च उत्पादकता की किस्मों (HYV) को अपनाया। नई कृषि प्रौद्योगिकी की सफलता हेतु सिंचाई से निश्चित जल आपूर्ति पूर्व आपेक्षित थी। कृषि विकास की इस नीति से खाद्यान्नों के उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि ‘हरित क्रांति’ के नाम से जानी जाती है। हरित क्रांति ने कृषि में प्रयुक्त कृषि निवेश, जैसे- उर्वरक, कीटनाशक, कृषि यंत्र आदि, कृषि आधारित उद्योगों तथा छोटे पैमाने के उद्योगों के विकास को प्रोत्साहन दिया। कृषि विकास की इस नीति से देश खाद्यान्नों के उत्पादन में आत्म-निर्भर हुआ। लेकिन प्रारंभ में “हरित क्रांति’ देश के सिंचित भागों तक ही सीमित थी; फलस्वरूप कृषि विकास में प्रादेशिक असमानता बढ़ी। ऐसा 1970 के दशक के अंत तक रहा तथा 1980 के आरंभ इसके पश्चात् यह प्रौद्योगिकी मध्य भारत तथा पूर्वी भारत के भागों में फैली।

1980 के दशक में भारतीय योजना आयोग ने वर्षा आधारित क्षेत्रों की कृषि समस्याओं पर ध्यान दिया। योजना आयोग ने 1988 में कृषि विकास में प्रादेशिक संतुलन को प्रोत्साहित करने हेतु कृषि जलवायु नियोजन प्रारंभ किया। इसने कृषि, पशुपालन तथा जलकृषि को विकास हेतु संसाधनों के विकास पर भी बल दिया।

1990 के दशक की उदारीकरण नीति तथा उन्मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था ने भारतीय कृषि विकास को भी प्रभावित किया है।

सतत कृषि के लिए राष्ट्रीय मिशन ( NMSA)

सतत कृषि के लिए राष्ट्रीय मिशन कृषि को अधिक विशिष्ट, स्थायी, पारिश्रमिक और जलवायु के अनुकूल बनाने के लिए स्थान विशिष्ट एकीकृत/समग्र कृषि प्रणालियों को बढ़ावा देकर और उपयुक्त मिट्टी और नमी संरक्षण उपायों के माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करना हैं। सरकार परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY) और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY) जैसी योजनाओं के माध्यम से देश में जैविक खेती को बढ़ावा दे रही है।

कृषि उत्पादन में वृद्धि तथा प्रौद्योगिकी का विकास

पिछले पचास वर्षों में कृषि उत्पादन तथा प्रौद्योगिकी में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई है।

  • बहुत-सी फ़सलों जैसे- चावल तथा गेहूँ के उत्पादन तथा पैदावार में प्रभावशाली वृद्धि हुई है अन्य फ़सलों मुख्यतः गन्ना, तिलहन तथा कपास के उत्पादन में प्रशंसनीय वृद्धि हुई है।
  • सिंचाई के प्रसार ने देश में कृषि उत्पादन बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसने आधुनिक कृषि प्रौद्योगिकी जैसे बीजों की उत्तम किस्में, रासायनिक खादों, कीटनाशकों तथा मशीनरी के प्रयोग के लिए आधार प्रदान किया है।
भारत का किसान पोर्टल

कृषि से संबंधित किसी भी जानकारी की तलाश के लिए किसान पोर्टल किसानों के लिए एक मंच है। किसानों के बीमा, कृषि भंडारण, फसलों, विस्तार गतिविधियों, बीजों, कीटनाशकों, कृषि मशीनरी आदि पर विस्तृत जानकारी प्रदान की जाती है। उर्वरकों, बाज़ार मूल्य, पैकेज और प्रथाओं, कार्यक्रमों, कल्याणकारी योजनाओं के विवरण भी दिए गए हैं। मिट्टी की उर्वरता, भंडारण, बीमा से संबंधित ब्लॉक स्तर का विवरण, प्रशिक्षण आदि एक इंटरेक्टिव मानचित्र में उपलब्ध हैं। उपयोगकर्ता फार्म फ्रैंडली हैंडबुक, योजना दिशा-निर्देश आदि भी डाउनलोड कर सकते हैं।

चित्र 3.12 : रोटो टिल ड्रिल - एक अत्याधुनिक कृषि उपकरण

  • देश के विभिन्न क्षेत्रों में आधुनिक कृषि प्रौद्योगिकी का प्रसार तीव्रता से हुआ है। पिछले 40 वर्षों में रासायनिक

उवर्रकों की खपत में भी 15 गुना वृद्धि हुई है। चूँकि उत्तम बीज के किस्मों में कीट प्रतिरोधकता कम है, अतः देश में 1960 के दशक से कीटनाशकों की खपत में भी महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है।

भारतीय कृषि की समस्याएँ

कृषि पारिस्थितिकी तथा विभिन्न प्रदेशों के ऐतिहासिक अनुभवों के अनुसार भारतीय कृषि की समस्याएँ भी विभिन्न प्रकार की हैं। अतः देश की अधिकतर कृषि समस्याएँ प्रादेशिक हैं। तथापि कुछ समस्याएँ सर्वव्यापी हैं जिसमें भौतिक बाधाओं से लेकर संस्थागत अवरोध शामिल हैं। इन समस्याओं का विवरण निम्न प्रकार है :

अनियमित मानसून पर निर्भरता

भारत में कृषि क्षेत्र का केवल एक-तिहाई भाग ही सिंचित है। शेष कृषि क्षेत्र में फ़सलों का उत्पादन प्रत्यक्ष रूप से वर्षा पर निर्भर है। दक्षिण-पश्चिम मानसून की अनिश्चितता व अनियमितता से सिंचाई हेतु नहरी जल आपूर्ति प्रभावित होती है। दूसरी तरफ़ राजस्थान तथा अन्य क्षेत्रों में वर्षा बहुत कम तथा अत्यधिक अविश्वसनीय है। अधिक वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में भी काफ़ी उतार-चढ़ाव पाया जाता है। फलस्वरूप यह क्षेत्र सूखा व बाढ़ दोनों सुभेद्य हैं। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सूखा एक सामान्य परिघटना है लेकिन यहाँ यदा-कदा बाढ़ भी आ जाती है। वर्ष 2006 और 2017 में महाराष्ट्र, गुजरात तथा राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में आई आकस्मिक बाढ़ इस परिघटना का उदाहरण है। सूखा तथा बाढ़ भारतीय कृषि के जुड़वाँ संकट बने हुए हैं।

निम्न उत्पादकता

अंतर्राष्ट्रीय स्तर की अपेक्षा भारत में फ़सलों की उत्पादकता कम है। भारत में अधिकतर फ़सलों जैसे- चावल, गेहूँ, कपास व तिलहन की प्रति हेक्टेयर पैदावार अमेरिका, रूस तथा जापान से कम है। भूसंसाधनों पर अधिक दबाव के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तुलना में भारत में श्रम उत्पादकता भी बहुत कम है। देश के विस्तृत वर्षा निर्भर विशेषकर शुष्क क्षेत्रों में अधिकतर मोटे अनाज, दालें तथा तिलहन की खेती की जाती है तथा यहाँ इनकी उत्पादकता बहुत कम है।

शुष्क क्षेत्रों में फ़सल उत्पादकता कम क्यों है?

वित्तीय संसाधनों की बाध्यताएँ तथा ॠणग्रस्तता

आधुनिक कृषि में लागत बहुत आती है। सीमांत और छोटे किसानों की कृषि बचत बहुत कम या न के बराबर है। अतः वे सघन संसाधन दृष्टिकोण से की जाने वाली कृषि में निवेश करने में असमर्थ हैं। इन समस्याओं से उबरने के लिए, बहुत से किसान विविध संस्थाओं तथा महाजनों से ऋण लेते हैं। कृषि से कम होती आय तथा फ़सलों के खराब होने से वे कर्ज़ के जाल में फँसते जा रहे हैं।

अत्यधिक ॠणग्रस्तता के क्या गंभीर परिणाम हैं? क्या आप मानते हैं कि देश के विभिन्न राज्यों में किसानों द्वारा आत्महत्या ऋणग्रस्तता का परिणाम है?

भूमि सुधारों की कमी

भूमि के असमान वितरण के कारण भारतीय किसान लंबे समय से शोषित हैं। अंग्रेज़ी शासन के दौरान, तीन भूराजस्व प्रणालियोंमहालवाड़ी, रैयतवाड़ी तथा ज़मींदारी में से ज़मींदारी प्रथा किसानों के लिए सबसे अधिक शोषणकारी रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात्, भूमि सुधारों को प्राथमिकता दी गई, लेकिन ये सुधार कमज़ोर राजनीतिक इच्छाशक्ति के कारण पूर्णत: फलीभूत नहीं हुए। अधिकतर राज्य सरकारों ने राजनीतिक रूप से शक्तिशाली ज़मींदारों के खिलाफ़ कठोर राजनीतिक निर्णय लेने में टालमटोल किया। भूमि सुधारों के लागू न होने के परिणामस्वरूप कृषि योग्य भूमि का असमान वितरण जारी रहा जिससे कृषि विकास में बाधा रही है।

छोटे खेत तथा विखंडित जोत

भारत में सीमांत तथा छोटे किसानों की संख्या अधिक है। 60 प्रतिशत से अधिक किसानों के पास एक हेक्टेयर से छोटे भूजोत हैं और लगभग 40 प्रतिशत किसानों की जोतों का आकार तो 0.5 हेक्टेयर से भी कम है। बढ़ती जनसंख्या के कारण इन जोतों का औसत आकार और भी सिकुड़ रहा है।

इसके अतिरिक्त भारत में अधिकतर भूजोत बिखरे हुए हैं। कुछ राज्यों में तो एक बार भी चकबंदी नहीं हुई है। वे राज्य जहाँ एक बार चकबंदी हो चुकी है, वहाँ पुनःचकबंदी की आवश्यकता है क्योंकि अगली पीढ़ी में भूमि बँटवारे की प्रक्रिया से भूजोतों का दोबारा विखंडन हो गया है। विखंडित व छोटे भूजोत आर्धिक दृष्टि से अलाभकारी हैं।

वाणिज्यीकरण का अभाव

अधिकतर किसान अपनी ज़रूरत या स्वयं उपभोग हेतु फ़सलें उगाते हैं। इन किसानों के पास अपनी ज़रूरत से अधिक उत्पादन के लिए पर्याप्त भू-संसाधन नहीं हैं। अधिकतर उपांत तथा छोटे किसान खाद्यान्नों की कृषि करते हैं, जो उनकी पारिवारिक ज़रूरतों को पूरा करती है। यद्यपि सिंचित क्षेत्रों में कृषि का आधुनिकीकरण तथा वाणिज्यीकरण हो रहा है।

व्यापक अल्प रोज़गारी

भारतीय कृषि में विशेषकर असिंचित क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर अल्प रोज़गारी पाई जाती है। इन क्षेत्रों में ऋत्विक बेरोज़गारी है जो 4 से 8 महीने तक रहती है। फ़सल ऋतु में भी वर्ष-भर रोज़गार उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि कृषि कार्य लगातार गहन श्रम वाले नहीं है। अतः कृषि में कार्यरत लोगों को वर्ष-भर कार्य करने के अवसर प्राप्त नहीं होते।

कृषि योग्य भूमि का निम्नीकरण

भूमि संसाधनों का निम्नीकरण सिंचाई और कृषि विकास की दोषपूर्ण नीतियों से उत्पन्न हुई समस्याओं में से एक गंभीर समस्या है। यह गंभीर समस्या इसलिए है क्योंकि इससे मृदा उर्वरता क्षीण हो सकती है। यह समस्या विशेषकर सिंचित क्षेत्रों में भयावह है। कृषि भूमि का एक बड़ा भाग जलाक्रांतता, लवणता तथा मृदा क्षारता के कारण बंजर हो चुका है। कीटनाशक रसायनों के अत्यधिक प्रयोग से मृदा परिच्छेदिका में ज़हरीले तत्वों का सांद्रण हो गया है। सिंचित क्षेत्रों के फ़सल प्रतिरूप के दलहन (लेग्यूम) विस्थापित हो गई तथा बहु-फ़सलीकरण में बढ़ोतरी से परती भूमि में काफ़ी मात्रा में कमी आई है। इससे भूमि में पुनः उरर्वकता पाने की प्राकृतिक प्रक्रिया अवरुद्ध हुई है जैसे नाइट्रोजन योगीकरण। उष्ण कटिबंधीय आर्द्र व अर्ध शुष्क क्षेत्र भी कई प्रकार के भूमि निम्नीकरण से प्रभावित हुए हैं, जैसे जल द्वारा मृदा अपरदन तथा वायु अपरदन जो प्राय: मानवकृत हैं।

क्रियाकलाप

अपने प्रदेश की कृषि समस्याओं की सूची तैयार करें। क्या आपके क्षेत्र की समस्याएँ इस अध्याय में वर्णित समस्याओं से मिलती-जुलती है अथवा भिन्न है? वर्णन करें।

अभ्यास

1. नीचे दिए गए चार विकल्पों में से सही उत्तर को चुनिए।

(i) निम्न में से कौन-सा भू-उपयोग संवर्ग नहों है?

(क) परती भूमि
(ख) सीमांत भूमि
(ग) निवल बोया क्षेत्र
(घ) कृषि योग्य व्यर्थ भूमि

(ii) पिछले 40 वर्षों में वनों का अनुपात बढ़ने का निम्न में से कौन-सा कारण है?

(क) वनीकरण के विस्तृत व सक्षम प्रयास
(ख) सामुदायिक वनों के अधीन क्षेत्र में वृद्धि
(ग) वन बढ़ोतरी हेतु निर्धारित अधिसूचित क्षेत्र में वृद्धि
(घ) वन क्षेत्र प्रबंधन में लोगों की बेहतर भागीदारी

(iii) निम्न में से कौन-सा सिंचित क्षेत्रों में भू-निम्नीकरण का मुख्य प्रकार है?

(क) अवनालिका अपरदन
(ख) वायु अपरदन
(ग) मृदा लवणता
(घ) भूमि पर सिल्ट का जमाव

(iv) शुष्क कृषि में निम्न में से कौन-सी फ़सल नहीं बोई जाती?

(क) रागी
(ख) ज्वार
(ग) मूँगफली
(घ) गन्ना

(v) निम्न में से कौन से देशों में गेहूँ व चावल की अधिक उत्पादकता की किस्में विकसित की गई थीं?

(क) जापान तथा आस्ट्रेलिया
(ख) संयुक्त राज्य अमेरिका तथा जापान
(ग) मैक्सिको तथा फिलीपोंस
(घ) मैक्सिको तथा सिंगापुर

2. निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर लगभग 30 शब्दों में दें।

(i) बंजर भूमि तथा कृषि योग्य व्यर्थ भूमि में अंतर स्पष्ट करें।
(ii) निवल बोया गया क्षेत्र तथा सकल बोया गया क्षेत्र में अंतर बताएँ।
(iii) भारत जैसे देश में गहन कृषि नीति अपनाने की आवश्यकता क्यों है?
(iv) शुष्क कृषि तथा आर्द्र कृषि में क्या अंतर हैं?

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दें।

(i) भारत में भूसंसाधनों की विभिन्न प्रकार की पर्यावरणीय समस्याएँ कौन-सी हैं? उनका निदान कैसे किया जाए?
(ii) भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् कृषि विकास की महत्वपूर्ण नीतियों का वर्णन करें।



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