अध्याय 01 परिचय

1.1 सामान्य अर्थव्यवस्था

किसी भी समाज के विषय में सोचिए। समाज में लोगों को खाना, वस्त्र, घर, सड़क व रेल सेवाओं जैसे यातायात के साधनों, डाक सेवाओं तथा चिकित्सकों-अध्यापकों जैसी बहुत-सी वस्तुओं तथा सेवाओं की प्रतिदिन जीवन में आवश्यकता होती है। वास्तव में किसी व्यक्ति विशेष को जिन-जिन वस्तुओं या सेवाओं की आवश्यकता होती है, उनकी सूची इतनी लंबी है कि मोटे-तौर पर यह कहा जा सकता है कि समाज में किसी भी व्यक्ति के पास वे सभी वस्तुएँ नहीं होतीं, जिनकी उसे आवश्यकता होती है। प्रत्येक व्यक्ति जितनी वस्तुओं या सेवाओं का उपभोग करना चाहता है, उनमें से कुछ ही उसे उपलन्ध होती हैं। एक कृषक परिवार के पास भूमि का टुकड़ा, थोड़ा अनाज, कृषि के उपकरण, शायद एक जोड़ी बैल तथा परिवार के सदस्यों की श्रम सेवा हो सकती है। एक बुनकर के पास धागा, कुछ कपास तथा कपड़ा बुनने के काम में आने वाले उपकरण हो सकते हैं। स्थानीय विद्यालय की अध्यापिका के पास छात्रों को शिक्षित करने के लिए आवश्यक कौशल होता है। हो सकता है कि समाज के कुछ अन्य व्यक्तियों के पास उनके अपने श्रम के सिवाय और कोई भी संसाधन न हो। इनमें से हर निर्णायक इकाई अपने पास उपलन्ध संसाधनों को उपयोग में लाकर कुछ वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन कर सकती है तथा अपने उत्पाद के एक अंश का प्रयोग अनेक ऐसी अन्य वस्तुओं व सेवाओं को प्राप्त करने के लिए कर सकती है, जिनकी उसे आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, कृषक परिवार अनाज के उत्पदन के बाद उसके एक अंश का उपयोग उपभोग के लिए कर सकता है तथा बाकी के उत्पाद का विनिमय करके वस्त्र, आवास व विभिन्न सेवाएँ प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार, बुनकर सूत-धागे से जो वस्त्र बनाता है उनका विनिमय करके आवश्यकतानुसार वस्तुएँ तथा सेवाएँ प्राप्त कर सकता है। अध्यापिका विद्यालय में छात्रों को पढ़ाकर रुपये कमा सकती है, जिनका उपयोग वह उन वस्तुओं तथा सेवाओं को प्राप्त करने में कर सकती है, जिनकी उसे आवश्यकता है। मज़दूर भी किसी अन्य व्यक्ति के लिए कार्य करके जो कुछ धन कमाता है उससे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। इस प्रकार, हर व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपने संसाधनों का उपयोग कर सकता है। अतः सब लोग मानते हैं कि व्यक्ति की आवश्यकताएँ जितनी अधिक होती हैं, उनकी पूर्ति के लिए उसके पास असीमित संसाधन नहीं होते। यहाँ कृषक परिवार जितना अनाज पैदा कर सकता है, उसकी मात्रा उसे प्राप्त संसाधनों की मात्रा द्वारा नियंत्रित होती है। इस कारण इस अनाज के बदले में विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं की जो मात्रा वह प्राप्त करता है, वह भी सीमित होती है। इसके परिणामस्वरूप, वह परिवार अपने लिए उपलब्ध वस्तुओं और सेवाओं में से कुछ का चयन करने के लिए बाध्य हो जाता है। वह अन्य वस्तुओं तथा सेवाओं का त्याग करके ही वाँछित वस्तुएँ तथा सेवाएँ अधिक मात्रा में प्राप्त कर सकता है। उदाहरण के लिए, यदि एक परिवार बड़ा घर लेना चाहता है, तो उसे कुछ और एकड़ खेती योग्य ज़मीन खरीदने का अपना विचार त्याग देना होगा। यदि उसे बच्चों के लिए उत्तम शिक्षा चाहिए तो उसे जीवन की कुछ विलासिताओं को त्यागना पड़ सकता है। समाज के अन्य व्यक्तियों के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है। सभी को संसाधनों की कमी का सामना करना पड़ता है और इसलिए प्रत्येक को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सीमित संसाधनों का उत्कृष्ट प्रयोग करना पड़ता है।

सामान्यतः समाज का प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी वस्तु या सेवा के उत्पादन में संलग्न रहता है तथा उसे ऐसी कुछ वस्तुओं तथा सेवाओं से संयोजन की आवश्यकता होती है, जिनमें से सभी उसके द्वारा उत्पादित नहीं होतीं। यह कहना अनावश्यक होगा कि किसी भी अर्थव्यवस्था में लोगों की सामूहिक आवश्यकताओं तथा उनके द्वारा किए गए उत्पादन के बीच सुसंगतता होनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर, हमारे कृषक परिवार तथा अन्य कृषि इकाइयों द्वारा पैदा किए गए अनाज की मात्रा इतनी अवश्य होनी चाहिए कि वह समाज के सदस्यों के सामूहिक उपभोग के लिए आवश्यक मात्रा के बराबर हो। यदि समाज के लोगों को अनाज की उतनी मात्रा की आवश्यकता नहीं है, जितना कृषक इकाइयाँ सामूहिक रूप से पैदा कर रही हैं, तो इन इकाइयों के पास उपलब्ध संसाधनों का उन वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन के लिए प्रयोग किया जा सकता है, जिनकी माँग बहुत अधिक हो। इसके विपरीत, यदि समाज में लोगों की अनाज की आवश्यकता कृषक इकाइयों द्वारा सम्मिलित रूप से उपजाए जाने वाले अनाज की मात्रा की तुलना में अधिक है, तो दूसरी वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन के लिए उपयोग में लाए जा रहे संसाधनों का पुनः विनिधान अनाज के उत्पादन के लिए किया जा सकता है। यही स्थिति अन्य वस्तुओं तथा सेवाओं के विषय में है। जिस प्रकार व्यक्ति के पास संसाधनों की कमी होती है, उसी प्रकार समाज के लोगों की सामूहिक आवश्यकताओं की तुलना में भी समाज के पास उपलब्ध संसाधनों की कमी होती है। समाज के लोगों की पसंद और नापसंद को ध्यान में रखते हुए समाज के पास उपलब्ध सीमित संसाधनों का विनिधान विभिन्न वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन के लिए करना पड़ेगा।

समाज के संसाधनों का किसी भी रूप में विनिधान करने के फलस्वरूप विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं के विशिष्ट संयोजन का उत्पादन होता है। इस प्रकार उत्पादित वस्तुओं तथा सेवाओं को समाज के व्यक्तियों के बीच वितरित करना होगा। समाज के सामने सीमित संसाधनों का विनिधान तथा वस्तुओं और सेवाओं के अंतिम मिश्रण का वितरण- ये दो ऐसी मूल आर्थिक समस्याएँ हैं, जिनका समाज सामना करता है। समाज के परिर्रेक्ष्य में अर्थव्यवस्था की जो स्थिति ऊपर बतायी गयी है, वस्तुतः वह उससे कहीं जटिल होती है। समाज के विषय में हमने अभी तक जो कुछ पढ़ा है, उसके संदर्भ में अब अर्थशास्त्र के कुछ ऐसे मूलभूत विषयों पर चर्चा करें, जिनमें से कुछ का अध्ययन हम आद्योपांत पुस्तक में करेंगे।

1.2 अर्थव्यवस्था की केंद्रीय समस्याएँ

वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन, विनिमय तथा उपभोग जीवन की आधारभूत अर्थिक गतिविधियों के अंतर्गत आते हैं। प्रत्येक समाज को इन आधारभूत आर्थिक क्रियाकलापों के दौरान संसाधनों की कमी का सामना करना पड़ता है तथा संसाधनों की यह कमी ही चयन की समस्या को जन्म देती है। अर्थव्यवस्था में इन दुर्लभ संसाधनों के उपयोग के लिए प्रतिस्पर्धी विकल्प होते हैं। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक समाज को यह निर्णय करना पड़ता है कि वह अपने दुर्लभ संसाधनों का किस प्रकार उपयोग करें। अर्थव्यवस्था की समस्याएँ प्रायः संक्षेप में इस प्रकार होती हैं-

किन वस्तुओं का उत्पादन किया जाए और कितनी मात्रा में?

प्रत्येक समाज को निर्णय करना पड़ता है कि प्रत्येक संभावित वस्तुओं तथा सेवाओं में से किन-किन वस्तुओं और सेवाओं का वह कितना उत्पादन करेगा। अधिक खाद्य पदार्थों, वस्तुओं या आवासों का निर्माण किया जाए अथवा विलासिता की वस्तुओं का अधिक उत्पादन किया जाए? कृषिजनित वस्तुओं का अधिक उत्पादन किया जाए या औद्योगिक उत्पादों तथा सेवाओं का? शिक्षा तथा स्वास्थ्य पर अधिक संसाधनों का उपयोग किया जाए अथवा सैन्य सेवाओं के गठन पर? बुनियादी शिक्षा को बढ़ाने पर अधिक खर्च किया जाए या उच्च शिक्षा पर? उपयोग की वस्तुएँ अधिक मात्रा में उत्पादित की जाए या निवेशपरक वस्तुएँ (मशीन आदि)? जिससे भविष्य में उत्पादन तथा उपभोग में वृद्धि होगी? इस प्रकार की वस्तुएँ कैसे उत्पादित की जाती हैं?

इन वस्तुओं का उत्पादन कैसे करते हैं?

प्रत्येक समाज को निर्णय करना पड़ता है कि विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं से उत्पादन करते समय किस-किस वस्तु या सेवा में किस-किस संसाधन की कितनी मात्रा का उपयोग किया जाए। अधिक श्रम का उपयोग किया जाए अथवा मशीनों का? प्रत्येक वस्तु के उत्पादन के लिए उपलब्ध तकनीकों में से किस तकनीक को अपनाया जाए?

इन वस्तुओं का उत्पादन किसके लिए किया जाए?

अर्थव्यवस्था में उत्पादित वस्तुओं की कितनी मात्रा किसे प्राप्त होगी? अर्थव्यवस्था के उत्पाद व्यक्ति विशेष के बीच किस प्रकार विभाजित किया जाना चाहिए? किसको अधिक मात्रा प्राप्त होगी तथा किसको कम? यह सुनिश्चित किया जाए अथवा नहीं कि अर्थव्यवस्था की सभी व्यक्तियों को उपभोग की न्यूनतम मात्रा उपलब्ध हो? क्या प्रारंभिक शिक्षा तथा बुनियादी स्वास्थ्य सेवा जैसी सेवाएँ अर्थव्यवस्था के सभी व्यक्तियों को नि:शुल्क उपलब्ध करायी जाएँ?

अतः प्रत्येक अर्थव्यवस्था को इस समस्या का सामना करना पड़ता है कि विभिन्न संभावित वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन के लिए दुर्लभ संसाधनों का विनिधान कैसे किया जाए और उन व्यक्तियों के बीच, जो अर्थव्यवस्था के अंग हैं उत्पादित वस्तुओं तथा सेवाओं का वितरण किस प्रकार किया जाए। सीमित संसाधनों का विनिधान तथा अंतिम वस्तुओं एवं सेवाओं का वितरण ही किसी भी अर्थव्यवस्था की केंद्रीय समस्याएँ हैं।

सीमांत उत्पादन संभावना

जिस प्रकार व्यक्तियों के पास संसाधनों का अभाव होता है, उसी तरह कुल मिलाकर किसी अर्थव्यवस्था के संसाधन भी उस अर्थव्यवस्था में रहने वाले व्यक्तियों की सम्मिलित आवश्यकताओं की तुलना में सर्वदा सीमित होते हैं। दुर्लभ संसाधनों के वैकल्पिक उपयोग होते हैं तथा प्रत्येक समाज को यह निर्णय करना पड़ता है कि वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन के लिए प्रत्येक संसाधन का कितनी मात्रा में उपयोग किया जाना है। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक समाज को यह निर्णय लेना होता है कि विभिन्न वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन के लिए वह अपने दुर्लभ संसाधनों का विनिधान किस प्रकार करे।

अर्थव्यवस्था के दुर्लभ संसाधनों के विनिधान से विभिन्न वस्तुओं तथा सेवाओं के विशिष्ट संयोग उत्पन्न होते हैं। उपलब्ध संसाधनों की कुल मात्रा के परिप्रेक्ष्य में उन संसाधनों का विभिन्न रूपों में विनिधान संभव है और उससे सभी संभावित वस्तुओं तथा सेवाओं के विभिन्न मिश्रणों को प्राप्त किया जा सकता है। उपलब्ध संसाधनों की मात्रा तथा उपलब्ध प्रौद्योगिकीय ज्ञान के द्वारा उत्पादित की जा सकने वाली सभी वस्तुओं तथा सेवाओं के सभी संभावित संयोगों के समूह को अर्थव्यवस्था का उत्पादन संभावना सेट कहते हैं।

उदाहरण 1.1
एक ऐसी अर्थव्यवस्था को लें, जो अपने संसाधनों का उपयोग करके अनाज या कपास का उत्पादन कर सकती है। तालिका 1.1 में अनाज तथा कपास के उन कुछ संयोग को दर्शाया गया है, जिनका उत्पादन उस अर्थव्यवस्था में संभव है। जब इसके संसाधन पूर्णतया प्रयुक्त किए जाते हैं।

तालिका 1.1: उत्पादन संभावनाएँ

संभावनाएँ अनाज कपास
A 0 10
B 1 9
C 2 7
D 3 4
E 4 0

सभी संसाधनों का उपयोग अनाज के ही उत्पादन पर किए जाने पर अनाज की अधिकतम संभावित उत्पादित मात्रा 4 इकाइयाँ हैं और यदि सभी संसाधनों का उपयोग कपास के ही उत्पादन में किया जाए, तो कपास की अधिकतम संभावित उत्पादित मात्रा 10 इकाइयाँ हो सकती हैं। अर्थव्यवस्था में अनाज की 1 इकाई तथा कपास की 9 इकाइयाँ अथवा अनाज की 2 इकाइयाँ तथा कपास की 7 इकाइयाँ अथवा अनाज की 3 इकाइयाँ और कपास की 4 इकाइयाँ उत्पादित की जा सकती हैं। बहुत सी अन्य संभावनाएँ भी हो सकती हैं। रेखाचित्र 1.1 में अर्थव्यवस्था की उत्पादन संभावनाएँ दर्शायी गईं हैं। वक्र पर अथवा उसके नीचे स्थित कोई भी बिंदु अनाज तथा कपास के उस संयोग को दर्शाती है, जिसका उत्पादन अर्थव्यवस्था के संसाधनों द्वारा संभव है। यह वक्र कपास की किसी निश्चित मात्रा के बदले अनाज की अधिकतम संभावित उत्पादित मात्रा तथा अनाज के बदले कपास की मात्रा दर्शाता है। इस वक्र को सीमांत उत्पादन संभावना कहते हैं।

सीमांत उत्पादन संभावना अनाज तथा कपास के उन संयोगों को दर्शाती है, जिनका उत्पादन अर्थव्यवस्था के संसाधनों का पूर्णरूप से उपयोग करने पर किया जाता है। ध्यान दीजिए कि सीमांत उत्पादन संभावना के ठीक नीचे स्थित कोई भी बिंदु अनाज तथा कपास का वह संयोग दर्शाता है, जो तब उत्पादित होगा जब सभी अथवा कुछ संसाधनों का उपयोग या तो पूरी तरह न किया गया हो अथवा उनका अपव्यय करते हुए किया गया हो। यदि दुर्लभ संसाधनों में से अधिक संसाधनों का उपयोग अनाज के लिए किया जाएगा तो कपास के उत्पादन के लिए कम संसाधन उपलब्ध होंगे। इसी तरह, कपास को अपनाने पर अनाज के लिए कम साधन मिलेंगे। अतः यदि हम किसी एक वस्तु की अधिक मात्रा प्राप्त करना चाहते हैं, तो अन्य वस्तुओं की कम मात्रा प्राप्त की जा सकेगी। इस प्रकार एक वस्तु की कुछ अधिक मात्रा प्राप्त करने के बदले दूसरी वस्तु की कुछ मात्रा को छोड़ना पड़ता है। इसे वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई प्राप्त करने की अवसर लागत कहते हैं।

प्रत्येक अर्थव्यवस्था को अपने पास उपलब्ध अनेक संभावनाओं में से किसी एक का चयन करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में, बहुत सी उत्पादन संभावनाओं में से किसी एक का चयन करना ही अर्थव्यवस्था की एक केंद्रीय समस्या है।

1.3 आर्थिक क्रियाकलापों का आयोजन

आर्थिक क्रियाकलाप की आधारभूत समस्याओं को या तो उन व्यक्तियों के निर्बाध अंतःक्रिया द्वारा किया जा सकता है, जैसा कि बाज़ार में होता है या सरकार जैसी किसी केंद्रीय सत्ता द्वारा सुनियोजित ढंग से किया जा सकता है।

1.3.1 केंद्रीकृत योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था

केंद्रीकृत योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था के अंतर्गत सरकार या केंद्रीय सत्ता उस अर्थव्यवस्था के सभी महत्त्वपूर्ण क्रियाकलापों की योजना बनाती है। वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन, विनिमय तथा उपभोग से संबद्ध सभी महत्त्वपूर्ण निर्णय सरकार द्वारा किये जाते हैं। वह केंद्रीय सत्ता संसाधनों का विशेष रूप से विनिधान करके वस्तुओं एवं सेवाओं का अंतिम संयोग प्राप्त करने का प्रयास कर सकती है; जो पूरे समाज के लिए वाँछनीय है। उदाहरण के लिए, यदि यह पाया जाता है कि कोई ऐसी वस्तु अथवा सेवा जो पूरी अर्थव्यवस्था की सुख-समृद्धि के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है

जैसे- शिक्षा या स्वास्थ्य सेवा, जिसका व्यक्तियों द्वारा स्वयं पर्याप्त मात्रा में उत्पादित नहीं किया जा रहा हो, तो सरकार उन्हें ऐसी वस्तुओं तथा सेवाओं का उपयुक्त मात्रा में उत्पादन करने के लिए प्रेरित कर सकती है या फिर सरकार स्वयं ऐसी वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन करने का निर्णय कर सकती है। दूसरे परिप्रेक्ष्य में यदि कुछ लोगों को अर्थव्यवस्था में उत्पादित वस्तुओं तथा सेवाओं के अंतिम मिश्रण का इतना कम अंश प्राप्त हो कि उनका जीवित रहना ही दाँव पर लग जाए, तो ऐसी स्थिति में केंद्रीय सत्ता हस्तक्षेप करके सभी को वस्तुओं तथा सेवाओं के अंतिम मिश्रण का न्यायोचित हिस्सा देने का कार्य कर सकती है।

1.3.2 बाज़ार अर्थव्यवस्था

केंद्रीकृत योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था के विपरीत बाज़ार अर्थव्यवस्था में सभी आर्थिक क्रियाकलापों का निर्धारण बाज़ार की स्थितियों के अनुसार होता है। अर्थशास्त्र के अनुसार, बाज़ार एक ऐसी संस्था है जो अपने आर्थिक क्रियाकलापों का अनुसरण करने वाले व्यक्तियों को निर्बाध अंतःक्रिया प्रदान करती है। दूसरे शब्दों में, बाज़ार व्यवस्थाओं का ऐसा समुच्चय है जहाँ आर्थिक अभिकर्ता मुक्त रूप से अपने धन अथवा अपने उत्पादों का परस्पर निर्बाध आदान-प्रदान कर सकते हैं। यहाँ यह ध्यान देना महत्त्वपूर्ण है कि अर्थशास्त्र में प्रयुक्त ‘बाज़ार’ शब्द, बाज़ार के उस स्वरूप से भिन्न है जैसा हम उसे आमतौर पर समझते हैं। विशेषरूप से, आप इस बाज़ार के विषय में जो सोचते हैं, उससे इसका कुछ भी लेना-देना नहीं है। वस्तुओं को खरीदने तथा उनके विक्रय के लिए व्यक्ति एक-दूसरे से किसी वास्तविक भौतिक स्थल पर मिल भी सकते हैं अथवा नहीं भी। क्रेताओं तथा विक्रेताओं के बीच क्रियाकलाप विभिन्न परिस्थितियों में संभव है, जैसे-गाँव के चौक पर या शहर के सुपर बाज़ार में अथवा वैकल्पिक रूप से क्रेता और विक्रेता टेलीफोन अथवा इंटरनेट द्वारा भी वस्तुओं का आदान-प्रदान कर सकते हैं। बाज़ार का स्पष्ट लक्षण वह व्यवस्था है जिसमें लोग निर्बाध रूप से वस्तुओं को खरीदने और विक्रय करने का काम कर सकते हैं।

किसी भी तंत्र के सुचारू रूप से संचालन के लिए यह अनिवार्य है कि उस तंत्र के विभिन्न घटकों के कार्यों में समन्वय हो अन्यथा अव्यवस्था हो सकती है। शायद आप जानना चाहेंगे कि वे कौन-सी शक्तियाँ हैं जो बाज़ार तंत्र में करोड़ों अलग-अलग व्यक्तियों की क्रियाओं में समन्वय स्थापित करती हैं।

बाज़ार व्यवस्था में प्रत्येक वस्तु तथा सेवा की एक तय कीमत होती है (जिस पर क्रेता एवं विक्रेता में सहमति होती है)। क्रेताओं तथा विक्रेताओं का परस्पर इसी कीमत पर विनिमय होता है। औसतन समाज किसी वस्तु अथवा सेवा का जैसा मूल्यांकन करता है, कीमत उसी मूल्यांकन पर निर्धारित होती है। यदि क्रेता किसी वस्तु की अधिक मात्रा की माँग करते हैं, तो उस वस्तु की कीमत में वृद्धि हो जायेगी। यह उस वस्तु के उत्पादकों को संकेत देता है कि वे उस वस्तु की जिस मात्रा का उत्पादन कर रहे हैं, समाज को उसकी अधिक मात्रा की आवश्यकता है। इस पर उत्पादक उस वस्तु का उत्पादन बढ़ा सकते हैं। इस प्रकार, वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतें बाज़ार में सभी व्यक्तियों को महत्त्वपूर्ण संकेत प्रदान करती हैं, जिससे बाज़ार तंत्र में समन्वय स्थापित होता है। अतः बाज़ार तंत्र में उन केंद्रीय समस्याओं का समाधान किस वस्तु का और किस मात्रा में उत्पादन किया जाना है, कीमत के इन्हीं संकेतों के द्वारा हुए आर्थिक क्रियाकलापों के समन्वय से होता है।[^3]

सभी अर्थव्यवस्थाएँ वास्तव में मिश्रित अर्थव्यवस्थाएँ होती हैं जहाँ महत्त्वपूर्ण निर्णय सरकार द्वारा लिए जाते हैं तथा आर्थिक क्रियाकलाप प्राय: बाज़ार द्वारा ही किए जाते हैं। अंतर केवल इतना है कि आर्थिक क्रियाकलापों के दिशा के निर्धारण में सरकार की भूमिका कितनी अधिक है। संयुक्त राज्य अमेरिका में सरकार की भूमिका न्यूनतम है। बीसवों सदी की एक लंबी अवधि तक केंद्रीकृत योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था का निकटतम उदाहरण चीन है। भारत में स्वतंत्रता के पश्चात् सरकार ने देश के आर्थिक क्रियाकलापों के नियोजन में प्रमुख भूमिका निभायी है। तथापि, पिछले दो दशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका बहुत हद तक कम हो गयी है।

1.4 सकारात्मक तथा आदर्शक अर्थशास्त्र

यह पहले ही सैद्धांतिक रूप से उल्लेखित किया जा चुका है कि किसी अर्थव्यवस्था की केंद्रीय समस्याओं को सुलझाने के लिए एक से अधिक विधियाँ होती हैं। ये भिन्न-भिन्न क्रियाविधियाँ सामान्यतः इन समस्याओं के लिए भिन्न समाधान प्रस्तुत कर सकती हैं, जिसके कारण अर्थव्यवस्था में संसाधनों के विनिधानों में अंतर हो सकता है और उत्पादित वस्तुओं तथा सेवाओं के अंतिम मिश्रण के विनिधान में भी अंतर हो सकता है। इस कारण यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि इन वैकल्पिक क्रियाविधियों में से कौन-सी क्रियाविधि किस अर्थव्यवस्था की दृष्टि से सामान्यतः अधिक अच्छी रहेगी। अर्थशास्त्र में हम विभिन्न क्रियाविधियों का विश्लेषण करते हैं तथा इनमें से प्रत्येक क्रियाविधि के उपयोग से होने वाले संभावित परिणामों का विश्लेषण करने का प्रयत्न करते हैं। हम इन क्रियाविधियों का मूल्यांकन करने के लिए यह अध्ययन भी करते हैं कि उनसे होने वाले परिणाम कितने अनुकूल होंगे। प्रायः सकारात्मक आर्थिक विश्लेषण तथा आदर्शक आर्थिक विश्लेषण में इस आधार पर अंतर किया जाता है कि क्या हम किसी क्रियाविधि के अंतर्गत होने वाले कार्यों का पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं अथवा उसका मूल्यांकन करने का। सकारात्मक आर्थिक विश्लेषण के अंतर्गत, हम यह अध्ययन करते हैं कि विभिन्न क्रियाविधियाँ किस प्रकार कार्य करती हैं, जबकि आदर्शक आर्थिक विश्लेषण में हम यह समझने का प्रयास करते हैं कि ये विधियाँ हमारे अनुकूल हैं भी या नहीं। तथापि, सकारात्मक तथा आदर्शक आर्थिक विश्लेषण के मध्य यह अंतर पूर्णातः स्पष्ट नहीं है। सकारात्मक तथा आदर्शक विषय केंद्रीय आर्थिक समस्याओं के अध्ययन में निहित वे सकारात्मक और आदर्शक पहलू या प्रश्न हैं, जो एक-दूसरे से अत्यंत निकटता से संबंधित हैं तथा इनमें से किसी एक की पूर्णातः उपेक्षा करके अथवा अलग करके दूसरे को ठीक से समझ पाना संभव नहीं होता।

1.5 व्यष्टि अर्थशास्त्र तथा समष्टि अर्थशास्त्र

परंपरागत रूप से अर्थशास्त्र की विषय-वस्तु का अध्ययन दो व्यापक शाखाओं के अंतर्गत किया जाता रहा है: व्यष्टि अर्थशास्त्र तथा समष्टि अर्थशास्त्र। व्यष्टि अर्थशास्त्र के अंतर्गत हम बाज़ार में उपलब्ध विभिन्न वस्तुओं तथा सेवाओं के परिप्रेक्य में विभिन्न आर्थिक अभिकर्ताओं के व्यवहार का अध्ययन करके यह जानने का प्रयास करते हैं कि इन बाज़ारों में व्यक्तियों की अंत:क्रिया द्वारा वस्तुओं तथा सेवाओं की मात्राएँ और कीमतें किस प्रकार निर्धारित होती हैं। इसके विपरीत समष्टि अर्थशास्त्र में हम कुल निर्गत, रोज़गार तथा समग्र कीमत स्तर आदि समग्र उपायों पर अपना ध्यान केंद्रित करते हुए पूरी अर्थव्यवस्था को समझने का प्रयास करते हैं। हम यह जानना चाहते हैं कि समग्र उपायों के स्तर किस प्रकार निर्धारित होते हैं तथा उनमें समय के साथ परिवर्तन किस प्रकार आता है। समष्टि अर्थशास्त्र में अध्ययन के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न इस प्रकार हैं- अर्थव्यवस्था में कुल निर्गत का स्तर क्या है? कुल निर्गत निर्धारण किस प्रकार किया जाता है? कुल निर्गत में समय के साथ किस प्रकार वृद्धि होती रहती है? क्या अर्थव्यवस्था के संसाधनों (उदाहरण के लिए श्रम) का पूर्ण रूप से उपयोग किया जा रहा है? संसाधनों का पूर्ण रूप से उपयोग न होने के क्या कारण हैं? कीमतों में वृद्धि क्यों होती है? अतः जिस प्रकार व्यष्टि अर्थशास्त्र में विभिन्न बाज़ारों का अध्ययन किया जाता है, वैसा समष्टि अर्थशास्त्र में नहीं। समष्टि अर्थशास्त्र में हम अर्थव्यवस्था के कार्य निष्पादन की समग्र अथवा समष्टिगत उपायों के व्यवहार का अध्ययन करने का प्रयास करते हैं।

1.6 पुस्तक की योजना

यह पुस्तक आपको व्यष्टि अर्थशास्त्र के आधारभूत विचारों से परिचित कराएगी। इस पुस्तक में हम एक वस्तु के व्यक्तिगत उपभोक्ताओं तथा उत्पादकों के व्यवहार का अध्ययन करते हुए इस बात का विश्लेषण करेंगे कि एक वस्तु के लिए बाज़ार में कीमत तथा मात्रा का निर्धारण किस प्रकार होता है। दूसरे अध्याय में हम उपभोक्ताओं के व्यवहार का अध्ययन करेंगे। तीसरे अध्याय में उत्पादन तथा लागत के आधारभूत विचारों पर चर्चा की गयी है। चौथे अध्याय में हम उत्पादक के व्यवहार का अध्ययन करेंगे। पाँचवे अध्याय में हम यह अध्ययन करेंगे कि किसी वस्तु के लिए एक पूर्ण प्रतिस्पर्धी बाज़ार में कीमत तथा मात्रा का निर्धारण किस प्रकार होता है। छठे अध्याय में बाज़ार के कुछ अन्य स्वरूपों का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।

1.7 आधारभूत संकल्पनाएँ

उपभोग उत्पादन विनिमय
दुर्लभता उत्पादन संभावनाएँ अवसर लागत
बाज़ार बाज़ार अर्थव्यवस्था केंद्रीकृत योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था
मिश्रित अर्थव्यवस्था सकारात्मक विश्लेषण आदर्शक विश्लेषण
व्यष्टि अर्थशास्त्र समष्टि अर्थशास्त्र।

1.8 अभ्यास

1. अर्थव्यवस्था की केंद्रीय समस्याओं की विवेचना कीजिए।

2. अर्थव्यवस्था की उत्पादन संभावनाओं से आपका क्या अभिप्राय है?

3. सीमांत उत्पादन संभावना क्या है?

4. अर्थशास्त्र की विषय-वस्तु की विवेचना कीजिए।

5. केंद्रीकृत योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था तथा बाज़ार अर्थव्यवस्था के भेद को स्पष्ट कीजिए।

6. सकारात्मक आर्थिक विश्लेषण से आपका क्या अभिप्राय है?

7. आदर्शक आर्थिक विश्लेषण से आपका क्या अभिप्राय है?

8. व्यष्टि अर्थशास्त्र तथा समष्टि अर्थशास्त्र में अंतर स्पष्ट कीजिए।



विषयसूची