अध्याय 06 खुली अर्थव्यवस्था समष्टि अर्थशास्त्र

खुली अर्थव्यवस्था एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जो विभिन्न माध्यमों द्वारा अन्य देशों से अंर्तव्यवहार करती है। अब तक हमने इस पहलू पर विचार नहीं किया था और बंद अर्थव्यवस्था तक सीमित रेखा जिसमें शेष विश्व से कोई जुड़ाव हीं होते ताकि हमारा विश्लेषण सरल रहे और समष्टि अर्थशास्त्र के आधार तंत्र की व्याख्या सरल हो। वास्तव में, अधिकांश अर्थव्यवस्थाएँ खुली हैं। इन जुड़ावों को स्थापित करने के तीन तरीके हैं।

1. निर्गत बाजार- एक अर्थव्यवस्था अन्य देशों से वस्तुओं और सेवाओं में व्यापार कर सकती है। इससे चयन विस्तृत होता है, इस अर्थ में कि उपभोक्ता और उत्पादक घरेलू और विदेशी वस्तुओं के बीच चयन कर सकते हैं।

2. वित्तीय बाजार- अधिक बार, एक अर्थव्यवस्था, दूसरे देशों से वित्तीय परिसंपत्तियाँ खरीदती है। इससे विनियोजकों को घरेलू तक विदेशी परिसंपत्तियाँ से चयन की अवसर मिलता है।

3. श्रम बाजार- फर्म यह चयन कर सकती हैं कि उत्पादन को कहाँ किया जाए और श्रमिक चयन कर सकते हैं कि कहाँ काम किया जाय। अनेकों अप्रवासन कानून, श्रमिकों की देशों के मध्य आवागमन को प्रतिबंधित करते हैं। पारंपरिक रूप से, वस्तुओं के अवागमन को, श्रम आवागमन के स्थापना की भाँति देखा गया है। हम, पहले दो जुड़ावों पर विचार करते है।

इस प्रकार, खुली अर्थव्यवस्था वह है जो अन्य देशों के साथ वस्तुओं और सेवाओं में व्यापर करती है और बहुधा, वित्तीय परिसंपत्तियों में भी। उदाहरणार्थ, भारतीय चारों ओर विश्व में उत्पादित वस्तुओं का उपभोग कर सकते हैं और भारत से कुछ वस्तुओं का अन्य देशों को निर्यात किया जाता है।

इस प्रकार, विदेशी व्यापार, भारत की समस्त माँग को दो प्रकार से प्रभावित करता है। प्रथम, जब भारतीय विदेशी वस्तुओं को खरीदते हैं तो उनके द्वारा किया गया व्यय समस्त माँग को कम करते हुए, आय के वर्तुल प्रवाह से रिसाव के रूप में निष्कासित होता है। द्वितीय, विदेशों को जो हम निर्यात करते हैं वह घरेलू उत्पादित वस्तुओं के लिये समस्त माँग में वृद्धि करते हुए वर्तुल प्रवाह में अंतः क्षेपण के रूप में प्रवेश करता है।

जब राष्ट्रीय सीमाओं के बीच वस्तुओं का आवागमन होता है, सौदों के लिये द्रव्य का उपयोग किया जाता है। अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर ऐसी कोई एक करेंसी नहीं है जो किसी एक बैंक द्वारा निर्गमित की जाती हो। विदेशी आर्थिक एजेंट, किसी राष्ट्रीय करेंसी को तभी स्वीकार करेंगे, यदि वे आश्वस्त हो कि उस करेंसी की एक निश्चित मात्रा से वे जो वस्तुएँ खरीद सकेंगे, उसमें अवसर परिवर्तन नहीं होगा। दूसरे शब्दों में, करेंसी की क्रय शाक्ति स्थिर रहेगी।

इस विश्वास के बगैर, किसी करेंसी को अंतर्राष्ट्रीय विनिमय के माध्यम के रूप में उपयोग नहीं किया जायेगा और न ही लेखा की इकाई के रूप में उपयोग होगा क्योंकि ऐसा कोई अंतराष्ट्रीय प्रधिकरण नही है जिसके पास यह शक्ति हो कि वह अंतर्राष्ट्रीय लेन देन में किसी करेंसी के उपयोग को लागू कर सके।

भूतकाल में, देशों की सरकारों के द्वारा संभाव्य उपयोगकर्ताओं का विश्वास पाने के लिये यह घोषणा की गई कि राष्ट्रीय मुद्रा निर्वाध रूप से स्थिर कीमत पर दूसरी परिसंपत्तियों में परिवर्तित होंगे, जिसके मूल्य पर जारीकर्ता का कोई नियंत्रण नहीं होगा। यह दूसरी परिसंपत्ति बहुधा सोना या अन्य राष्ट्रीय मुद्राएँ थी। इस वचनबद्धता के दो पहलू हैं जिसने इसकी विश्वसनीयता को प्रभावित किया है- असीमित मात्रा में निर्वाध रूप में परिवर्तन की समता और कीमत, जिस पर परिवर्तन होता है। इन्हों मुद्रों का निराकरण करने तथा अंतर्राष्ट्रीय लेनदेन में स्थिरता लाने के लिये, अंतराष्ट्रीय मुद्रा प्रणाली की स्थापना की गई।

लेनदेनों के मात्रा में वृद्धि के साथ, स्वर्ण वह परिसंपति नहीं रहा जिसमें राष्ट्रीय करेंसियों को परिवर्तित किया जा सके। (बॉक्स 6.1 को देखें)। यद्यपि कुछ राष्ट्रीय करेंसियों की अंतर्राष्ट्रीय मान्यता है, दो देशों के बीच लेन देन में, वह करेंसी महत्वपूर्ण होती है जिसमें व्यापार किया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई भारतीय अमेरिका में निर्मित वस्तु खरीदना चाहता है तो लेनदेन को पूरा करने के लिए उसे डॉलरों की आवश्यकता होगी। यदि वस्तु की कीमत 10 डॉलर है तो उसे यह जानना जरूरी होगा कि भारतीय रूपयों में इसकी लागत क्या होगी। एक देश की मुद्रा की किसी अन्य देश की मुद्रा के रूप में कीमत को विदेशी विनिमय दर अथवा सरल रूप में विनिमय दर कहते हैं। इस विषय दर हम खंड 6.2 में विस्तृत चर्चा करेंगे।

6.1 अदायगी-संतुलन

अदायगी संतुलन (BOP) किसी एक देश के निवासियों और शेष विश्व के बीच, एक निश्चित समयावधि में, खासकर 2 वर्ष में, वस्तुओं, सेवाओं और परिसंपत्तियों के लेनदेन का विवरण है। अदायगी संतुलन के दो मुख्य खाते होते हैं- चालू खाता और पूँजी खाता’।

6.1.1 चालू खाता

चालू खाता वस्तुओं और सेवाओं के व्यापार में अंतरण अदायगियों का विवरण है। चित्र 6.1 , चालू खाते के घटकों की प्रदर्शित करता है। वस्तुओं के व्यापार में, वस्तुओं के निर्यातों तथा आयातों को शामिल किया जाता है। सेवाओं के व्यापार में उपदान आय तथा गैर उपदान आय लेनदेन को शामिल किया जाता है। अंतरण भुगतान, ऐसी प्रभत्तियाँ हैं जो किसी देश के निकासियों को निशुल्क प्रभाव होती है और बदले में कोई वस्तुऐं अथवा सेवाएँ नहीं देनी पड़ती। इनमें उपहार, प्रेषित जन और अनुदान शामिल हैं। यह सरकार अथवा विदेशों में रहने वाले निजी व्याक्तियों द्वारा दिये जा सकते हैं।

विदेशों से वस्तुएँ खरीदना, हमारे देश का व्यय है तथा यह विदेश की आय है। इसलिए, विदेशी वस्तुओं की खरीद अथवा आयात है, हमारे देश में घरेलू वस्तुओं और सेवाओं की माँग को कम कर देते हैं। इसी प्रकार, विदशों को माल बेचने अथवा निर्यातों से हमारे देश को आय प्राप्त होती है जो हमारे देश में वस्तुओं और सेवाओं की कुल घरेलू माँग में वृद्धि करते हैं।

चित्र 6.1 चालू खाते के घटक

चालू खाते में संतुलन

चालू खाता संतुलन में होता है जब, चालू खाते में प्राप्तियाँ चालू खाते के भुगतानों के बराबर होती हैं। चालू खाते के आधिक्य का अर्थ है कि एक देश को अन्य देशों लेना है और चालू खाते के घाटे का अर्थ है कि देश अन्य देशों की ऋणी है।

चालू खाते का आधिक्य संतुलित चालू खाता चालू खाते का घाटा
प्राप्तियाँ > भुगतान प्राप्तियाँ = भुगतान प्राप्तियाँ < भुगतान

चालू खाते के संतुलन के दो धरक होते हैं

  • व्यापार का संतुलन के दो धरक होते हैं
  • अदृश्य मदों का संतुलन

व्यापार संतुलन (BOT) किसी देश के एक निश्चित समयवधि में, निर्यातों और आयातों के मूल्यों की अंतर है। वस्तुओं के निर्यात को BOT में क्रेडिट किया जाता है तथा आयात को BOT में डेबिट किया जाता है। इसका व्यापार संतुलन भी कहते हैं।

BOT को संतुलित कहा जाता है जब वस्तुओं के निर्यात, वस्तुओं के आयात के बराबर होते हैं। BOT में अधिक्य अथवा व्यापार अधिक्य तभी होता है जब कोई देश आयातों की अपेक्षा, वस्तुओं का निर्यात अधिक करता है। घाटे की BOT तब होगा।

जब कोई देश निर्यातों की अपेक्षा, वस्तुओं का अधिक आयात करता है। निवल अदृश्य मदें एक देश के एक निश्चित अवधि में अदृश्य मदों के निर्यातों एवं आयातों के मूल्यों का अंतर होती हैं। अदृश्य मदों में विभिन्न देशों के बीच होने वाली, सेवाओं, हस्तांतरणों तथा आम प्रवाह शामिल होते हैं। सेवाओं के व्यापार में, उपदान तथा गैर-उपदान आय दोनों शामिल किया जाता है। उपदान आय में उत्पादन के साधनों जैसे व्यय, भूमि तथा पूँजी) से प्राप्त निवल अंतर्राष्ट्रीय आयों को शामिल किया जाता है। सेवा-उत्पादों जैसे जहाजरानी, बैंकिंग, पयर्टन, सॉफ्टवेयर सेवाएँ आदि से प्राप्त निवल बिक्री को गैर-उपदान आय कहते हैं।

6.1.2. पूँजी खाता

पूँजी खाता, परिसंपत्तियों के समस्त अंतर्राष्ट्रीय लेनदेनों को दर्ज करता है। परिसम्पत्ति धन को रखने का कोई भी रूप होता है। जैसे, मुद्रा, स्टॉक, बंधपत्र, सरकारी ॠण आदि। परिसम्पत्तियों की खरीद पँजी-खाते में डेबिट की जाती है। यदि कोई भारतीय एक यू. के. कार कंपनी को खरीदता है तो वह इस पूंजी खाते के लेनदेन का, डेबिट मद में प्रविष्टी कर देता है (क्योंकि विदेशी विनिमय का भारत से बाह्य प्रवाह हो रहा है)। दूसरी ओर, परिसंपत्ति की बिक्री जैसे, यू. के. से खरीदी गई, एक भारतीय कंपनी के शेयर की बिक्री एक चीनी व्यापारी को बिक्री करना पूंजी खाते की क्रेडिट मद है। चित्र 6.2 उन मदों का वर्गीकरण करता है जो चालू खाते के लेनदेनों का भाग है। यह मदें प्रत्यक्ष विदेशी विनियोग (FIIs) विदेशी संस्थागत विनयोग (FIIs) विदेशी ऋण तथा सहायता हैं।

चित्र 6.2 पूँजी खाते के घटक

पूँजी खाता संतुलन

पूँजीखाता संतुलन में होता है जब पूँजी अंर्तप्रवाह (जैसे विदेशों से ॠण प्राप्ति, विदेशी कंपनियों में शेयरों की बिक्री) पूँजी बाह्य प्रवाहों (जैसे ऋणों की भुगतान, विदेशों में कम्पनियों के शेयरों या परिसंपत्तियों का खरीदना) के बराबर होते हैं। पूँजी खाते में आधिक्य तब होता है जब पूँजी अंर्तप्रवाह, पूँजी खाते में घाटा तब होता है जब पूँजी अंर्तवाह, पूँजी बाह्य प्रवाहों से कम होते हैं।

6.1.3 अदायगी-संतुलन और घाटा

अंतर्राष्ट्रीय अदायगी का सार है कि जिस प्रकार अपनी आय से अधिक व्यय करने वाले को, परिसम्पत्तियाँ बेचकर अथवा उधार लेकर, आय व्यय के अंतर को पूरा करना पड़ता है, उसी प्रकार कोई देश जिसके चालू खाते में घाटा है (जो शेष विश्व को बिक्री से प्राप्त धन से अधिक धन व्यय करता है। उसे अपनी परिसम्पत्तियों को बेचकर या विदेशों से ऋण लेकर उस कमी को पूरा करना होता है। इस प्रकार, किसी भी चालू खाता घाटे को निवल पूँजी खाता अधिक्य अर्थात् निवल पूँजी प्रवाह से वित्तपोषित करना होता है।

चालू खाता + पूँजी खाता $=0$

वैकल्पिक रूप में, एक देश अपने घाटे को संतुलित करने के लिये, अपने विदेशी विनिमय कोषों का उपयोग कर सकता है। जब घाटा होता है तो रिजर्व बैंक विदेशी विनिमय बेचता है। इसे अधिकारिक कोष विक्रय कहा जाता है। अधिकारिक कोषों में कमी (वृद्धि) का कुल अदायगी-संतुलन घाटा (अधिक्म) कहते हैं। मूलभूत तथ्य यह है कि अदायगी संतुलन में मौद्रिक अधिकारी अंतिम वित्तपोषक होते हैं (अथवा किसी अधिक्य के अधिग्रही होते हैं)

ध्यातव्य है कि अधिकारिक कोष लेनदेन एक अधिकोलित विनिमय दर अवस्था में, अस्थायी विनिमय दरों की अपेक्षा अधिक प्रासंगिक होते हैं।

स्वायत्त और समायोजित लेनदेन

अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक लेनदेनों को तब स्वायत कहा जाता है जब लेनदेन, अदायगी संतुलन में विषमता को पूरा करने के अलावा, किसी और कारणवश किये जाते हैं, अर्थात जब वे BOP की दशा से स्वतंत्र होते हैं। एक कारण लाभ कमाना हो सकता है। इन मदों को अदायगी संतुलन में ‘रोक के ऊपर की मदें’ कहते है। जब स्वायत्त प्राप्तियाँ स्वायत्त अदायगियों से अधिक (कम) हों, तो अदायगी संतुलन को अधिवय (घाटा) काहा जाता है।

समायोजित लेनदेनों (रेखाओं के नीचे की मदों) का निर्धारण अदायगी-संतुलन की विषमता द्वारा होता है अर्थात जब अदायगी-संतुलन में घाटा हो अथवा अधिक्य हो। अन्य शब्दों में ये स्वायत्त लेनदेनों के निवल परिणामों द्वारा निर्धारित होते हैं। क्योंकि अधिकारिक कोष लेनदेन BOP की विषमता को पाटने के लिये किये जाते हैं, उन्हें अदायगी-संतुलन में समायोजित मदों के रूप में देखा जाता है (अन्य सभी स्वायत्ता हों)।

त्रुटि और लोपः सभी अंतर्राष्ट्रीय लेनदेनों को सही प्रकार से रिकार्ड करना कठिन है। अतः हमारे पास BOP का एक तीसरा अवयव (चालू और पूंजी खातों के अतिरिक्त) जिसे त्रुटि और लोप का प्रतिबिंबित मानते हैं।

तालिका 6.1 भारत के अदायगी-संतुलन का एक नमूना प्रस्तुत करती है। ध्यान दीजिये, इस तालिका में व्यापार घाटा है, चालू खाते का घाटा है लेकिन पूंजी खाते का अधिक्य है। फलस्वरूप BOP संतुलन में है।

अदायगी-संतुलन घाटा अदायगी संतुलन अदायगी संतुलन अधिक्य
कुल संतुलन $<0$ कुल संतुलन $=0$ कुल संतुलन $>0$
रक्षित परिवर्तन $>0$ रक्षित परिवर्तन $=0$ रक्षित परिवर्तन $<0$

तालिका 6.1 भारत का अदायगी-संतुलन (मिलियन अमेरिकी डॉलरों में)

संख्या मद मिलियन अमेरिकी डॉलर
1. निर्यात (केवल वस्तुओं का) 150
2. आयात (केवल वस्तुओं का) 240
3. व्यापार संतुलन (2-1) -90
4. (निवल) अदृश्य मदें
$(4 a+4 b+4 c)$
52
(a). गैर-उपदान सेवाऐं 30
(b). आय -10
(c). हस्तांतरण 32
5. चालू खाते का शेष $(3+4)$ -38
6. चालू खाते का शेष
$(6 a+6 b+6 c+6 d+6 e+6 f)$
41.15
(a). बाह्य सहायता ( निवल) 0.15
(b). बाह्य व्यापारिक ऋण 2
(c). अल्पकालीन ॠण 10
(d). बैंकिंग पूंजी ( निवल) जिसमें
गैर निवासी जमाऐं
15
9
(e). विदेशी निवेश (निवल) जिसमें
$(6 \mathrm{e}+6 \mathrm{eB})$
19
A. प्रत्येक विदेशी निवेश (निवल) 13
B. पोर्ट फोलियो (निवल) 6
(f). अन्य प्रवाह ( निवल) -5
7. त्रुटि एवं लोप -3.15
8. कुल संतुलन 0
9. आरक्षियों में परिवर्तन 0

बॉक्स 6.1

यहाँ दिखाया गया अदायगी संतुलन लेखा, लेनदेनों को दो खातों में बांटता है-चालू खाता तथा पूंजी खाता। वैसे अंर्रराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा Balance of Payments and International Investment Position Manual के छठे संस्करण में नये लेखीय मानदंड लागू किये जाने के पश्चात भारतीय रिजर्व बैंक ने भी, अदायगी-संतुलन की संरचना में परिवर्तन किये हैं। नये वर्गीकरण के अनुसार, लेनदेनों को तीन खातों में बांटा गया है- चालू खाता, वित्तीय खाता तथा पूंजी खाता। सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन यह है कि वित्तीय परिसम्पत्तियों जैसे बांड और इक्विटी शेयरों में व्यापार के कारण, हाने वाले सभी लेनदेनों का अब वित्तीय खाते में रख दिया गया है। लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक अभी भी पुरानी प्रणाली के अनुसार ही अदायगी-संतुलन खातों को प्रकाशित कर रहा है। अतः यहाँ पर नई प्रणाली के विवरणों को नहीं दिया जा रहा। यह विवरण भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा सितम्बर 2010 में प्रकाशित Balance of Payments Manual में उपलब्ध है।

6.2 विदेशी विनिमय बाजार

अंतर्राष्ट्रीय लेनदेन के लेखांकन पर समस्त रूप में विचार करने के पश्चात् अब हम किसी एकल लेनदेन की चर्चा करते हैं। कल्पना कीजिए कि एक भारतीय निवासी छुट्टी बिताने के लिये लंदन की यात्रा (पर्यटन सेवा का आयात) पर जाना चाहता है। लंदन में ठहरने के लिये उसे पौंड में भुगतान करना होगा। उसे यह जानने की आवश्यकता होगी कि पौंड कहाँ से और किस कीमत पर प्राप्त किये जा सकते हैं। जैसा कि पहले जिक्र किया जा चुका है, इस कीमत को ‘विनिमय दर’ कहते है। वह बाजार जिसमें राष्ट्रीय मुद्राओं का एक-दूसरे से व्यापार होता है, उसे विदेशी विनिमय बाजार कहते हैं। इस बाजार के मुख्य प्रतिभागी व्यावसायिक बैंक, विदेशी विनिमय दलाल एवं अन्य अधिकाशत डीलर और मुद्रा प्राधिकारी होते हैं। यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि यद्यपि प्रतिभागियों के अपने व्यापारिक केंद्र हो सकते हैं, फिर भी यह बाजार अपने आप में विश्वव्यापी होता है। यहाँ व्यापारिक केंद्रों के बीच निकट और निरंतर संपर्क बना रहता है और प्रतिभागी एक से अधिक बाजार में व्यापार करते हैं।

6.2.1. विदेशी विनिमय दर

विदेशी विनिमय दर (जिसे फोटेक्स दर भी कहते हैं) एक मुद्रा की दूसरी मुद्रा में कीमत है। यह विभिन्न देशों की मुद्राओं के बीच कड़ी है और अंतर्राष्ट्रीय लागतों और कीमतों की तुलना करने में सहायक है। उदाहरण के लिए यदि हमें एक डॉलर के लिये रुपये 50 देने पड़ते हैं तो विनिमय की दर रुपये 50 प्रति डॉलर होगी।

इसे और सरल बनाने के लिये, मान लीजिए कि विश्व में दो ही देश यू.एस.ए. और भारत हैं तो एक ही विनिमय की दर निर्धारण की आवश्यकता होगी।

विदेशी विनिमय की माँग

लोग विदेशी मुद्रा की माँग करते हैं क्योंकि वे अन्य देशों से वस्तुएँ और सेवाएँ खरीदना चाहते हैं, वे विदेशों को उपहार भेजना चाहते हैं और वे किसी देश की वित्तीय परिसंपत्तियों को खरीदना चाहते हैं। विनिमय दर में वृद्धि करेगी (रुपयों के रूप में) इससे आयातों की माँग में कमी होती है और फलस्वरूप विदेशी विनिमय की माँग भी कम हो जायेगी यदि अन्य बातें समान रहें।

विदेशी विनिमय की पूर्ति

किसी स्वदेश में, विदेशी मुद्रा का प्रवाह निम्न कारणोंवश होता है- एक देश के निर्यातों से, विदेशियों द्वारा घरेलू वस्तुओं और सेवाओं की खरीद में वृद्धि करते हैं; विदेशी उपहार भेजते हैं तथा विदेशियों द्वारा स्वदेश की परिसंपत्तियाँ खरीदी जाती हैं।

विदेशी विनिमय की कीमत में वृद्धि, विदेशियों की लागतों (USD के रूप में) को कम कर देती है, अन्य बातें समान रहने पर। इससे भारत के निर्यात बढ़ जाते हैं और इसलिए विदेशी विनिमय की पूति बढ़ सकती है (क्या वह वास्तव में बढ़ता है? यह कितने ही कारकों पर निर्भर करता है, विशेषतया नियार्तों तथा आयातों की माँग की लोच)।

6.2.2 विनिमय दर का निर्धारण

अलग-अलग देशों की, अपनी मुद्रा विनिमय दर का निर्धारण करने की अलग अलग प्रणालियाँ हैं। इसको तिरती विनिमय दर स्थिर विनिमय दर अथवा प्रबंधित तिरती विनिमय दर के द्वारा निर्धारित किया जा सकता है।

तिरती विनिमय दर

यह विनिमय दर, बाजार माँग और पूर्ति की शक्तियों द्वारा निर्धारित होती है। इसे तिरती विनिमय दर भी कहते हैं। जैसा कि चित्र 6.1 में दिखाया गया है। विनिमय दर वहाँ निर्धारित होती है जहाँ माँग वक्र, पूर्ति वक्र को काटती है अर्थात् $\mathrm{Y}$ अक्षक $\mathrm{e}$ बिंदु पर। $\mathrm{X}$ अक्ष पर $\mathrm{q}$, यू.एस. डॉलरों की विनिमय दर पर माँगी जाने वाली माँग और पूर्ति को दिखाता है। पूर्णातया तिरती प्रणाली में, केंद्रीय बैंक विदेशी विनिमय बाजार में हस्कक्षेप नहीं करती।

तिरती विनिमय दर के अंतर्गत संतुलन

मान लीजिये कि विदेशी वस्तुओं और सेवाओं की माँग बढ़ जाती है (उदाहरणार्थ, भारतीयों द्वारा विदेशों में अधिक यात्रा करने के कारण) तो जैसा चित्र 6.2 में दिखाया गया है, माँग वक्र मूल माँग वक्र के सीधी ओर ऊपर की तरफ शिफ्ट कर जाता है। विदेशी वस्तुओं और सेवाओं की माँग में वृद्धि विनिमय की दर में बदलाव लाती है। प्रारंभिक विनिमय दर $\mathrm{e} _{0}=50$ जिसका अर्थ है कि हमें रुपये 50 को एक डॉलर से विनिमय करता है। नये संतुलन दर विनिमय दर $\mathrm{e} _{\mathrm{i}}=70$ रुपये हो जाती है। जिसका अर्थ है कि हमें अब डॉलर के लिये और अधिक रुपये देने

विदेशी मुद्रा बाज़ार में आयात की माँग में वृद्धि के प्रभाव

होंगे (अर्थात् 70 रुपये) इससे यह इंगित होता है कि डॉलर के संदर्भ में रुपये का मूल्य गिर गया है और रुपये के संदर्भ में डॉलर का मूल्य बढ़ गया है। विनिमय दर में वृद्धि का तात्पर्य है कि विदेशी मुद्रा डॉलर की कीमत, घरेलू मुद्रा (रुपयों) के रूप में बढ़ गई है। इसे घरेलू मुद्रा (रुपयों) का विदेशी मुद्रा (डालरों) के रूप में ह्रास कहते हैं।

इसी भांति, तिरती विनिमय दर व्यवस्था के अंर्तगत, जब घरेलू मुद्रा (रुपयों) की कीमत, विदेशी मुद्रा (डॉलरों) के रूप में बढ़ जाती है तो इसे घरेलू मुद्रा (रुपयों) की, विदेशी मुद्रा (डॉलरों) के रुप में ‘मूल्य वृद्धि’ कहते हैं।

सट्टेबाज़ी: बाज़ार में विनिमय दर केवल निर्यात और आयात की माँग एवं पूर्ति तथा परिसंपत्तियों में निवेश पर ही निर्भर नहीं करती है बल्कि विदेशी विनिमय के सट्टे पर भी निर्भर करती है, जहाँ विदेशी विनिमय की माँग मुद्रा की मूल्य वृद्धि से प्राप्त संभावित लाभ के लिए की जाती है। किसी भी देश की मुद्रा एक प्रकार की परिसंपत्ति है। यदि भारतीयों को यह विश्वास हो कि ब्रिटिश पौंड के मूल्य में रुपये की अपेक्षा वृद्धि होने की संभावना है, तो वे पौंड को अपने पास रखना चाहेंगे। उदाहरण के लिए, यदि चालू विनिमय दर 80 रुपये प्रति पौंड है और निवेशकर्ताओं को यह विश्वास है कि माह के अंत तक पौंड के मूल्य में वृद्धि होने की संभावना है तथा यह 85 रु० प्रति पौंड तक हो सकता है, तो निवेशकर्ता यह सोचेंगे कि यदि वह 80,000 रुपये विक्रेता को दिये होते 1000 पौंड खरीदेगा तो माह के अंत में वह उसे 85,000 रु० में बेचकर 5,000 रु० का लाभ अर्जित कर लेगा। इस परिकल्पना से पौंड की माँग बढ़ेगी और इससे रुपया पौंड विनिमय दर में वर्तमान में वृद्धि होगी, जिससे उसके विश्वास की स्वतः पूर्ति हो जाती है।

उपर्युक्त विश्लेषण में यह मान लिया जाता है कि ब्याज की दर, आय और कीमत स्थिर रहती है। किंतु इनमें परिवर्तन हो सकता है और इससे विदेशी विनिमय के माँग और पूर्ति वक्र शिफ्ट होंगे।

ब्याज की दरें और विनिमय दरः अल्पकाल में विनिमय दर के निर्धारण में एक दूसरा कारक भी महत्त्वपूर्ण होता है, जिसे ब्याज दर विभेदक कहते हैं। अर्थात देशों के बीच ब्याज की दरों में अंतर है। बैंक, बहुराष्ट्रीय निगम और धनी व्यक्ति, विशाल निधि के स्वामी होते हैं जिसका अधिक आय प्राप्त करने के लिए ऊँची ब्याज दर की खोज में पूरे विश्व में संचलन होता है। यदि हम कल्पना करें कि एक देश A में सरकारी बंधपत्र पर ब्याज की दर 8 प्रतिशत है जबकि उसी के समान सुरक्षित बंधपत्र पर दूसरे देश $\mathrm{B}$ में 10 प्रतिशत की आय होती है, तो ब्याज दर विभेदक 2 प्रतिशत होगा। देश $\mathrm{A}$ का निवेशकर्त्ता देश $\mathrm{B}$ की उच्च ब्याज दर की ओर आकर्षित होंगे और अपने देश की मुद्रा को बेचकर देश $\mathrm{B}$ की मुद्रा का क्रय करेंगे। इस स्थिति में, देश $\mathrm{B}$ के निवेशकर्ता भी अपने देश में निवेश करना चाहेंगे और इस प्रकार देश $\mathrm{A}$ की करेंसी की कम माँग करेंगे। इसका अर्थ यह है कि देश $\mathrm{A}$ की करेंसी का माँग वक्र बायों ओर तथा पूर्ति वक्र दायीं ओर शिफ्ट होगा। इससे देश A की मुद्रा के मूल्य में ह्रास तथा देश $\mathrm{B}$ की मुद्रा के मूल्य में वृद्धि होगी। अतः किसी देश की आंतरिक ब्याज दर में वृद्धि से घरेलू मुद्रा के मूल्य में वृद्धि होगी। यहाँ यह मान लिया जाता है कि विदेशों की सरकारों के द्वारा बंधपत्रों के क्रय पर किसी भी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगाया गया है।

आय और विनिमय दरः जब आय में वृद्धि होती है, तो उपभोक्ता के व्यय में भी वृद्धि होती है तथा आयातित वस्तुओं पर व्यय में भी वृद्धि की संभावना होती है। जब आयात बढ़ता है तो विदेशी विनिमय की माँग वक्र दायीं ओर शिफ्ट होती है। इससे घरेलू मुद्रा के मूल्य में ह्रास होता है। यदि विदेशी आय में भी वृद्धि होती है, तो घरेलू निर्यात में वृद्धि होगी जिससे विदेशी विनिमय का पूर्ति वक्र बाहर की ओर शिफ्ट होगा। संतुलन की स्थिति में घरेलू मुद्रा का मूल्य ह्रास हो भी सकता है और नहीं भी। यह सब इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या निर्यात आयात से अधिक तेज़ी से बढ़ रहे हैं। आमतौर पर, अन्य बातें पूर्ववत् रहने पर एक देश जिसकी समस्त माँग शेष विश्व की तुलना में अधिक तेज़ी से बढ़ रही है, प्राय: उसकी मुद्रा के मूल्य में, निर्यात से आयात में अधिक वृद्धि के कारण ह्रास होता है। इसके विदेशी मुद्रा का माँग वक्र पूर्ति वक्र से अधिक तेज़ी से शिफ्ट होती है।

दीर्घकाल में विनिमय दरः दीर्घकाल में नम्य विनिमय दर प्रणाली में विनिमय दर के संबंध में पूर्वानुमान करने के लिए क्रय-शक्ति समता सिद्धांत का उपयोग किया जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार जब कोई व्यापारिक अवरोधक जैसे- टैरिफ (व्यापारिक कर) और कोटा (आयात की मात्रा की सीमा) नहीं होंगे, तो विनिमय दर स्वतः समायोजित हो जाएगी। इससे एक प्रकार के उत्पाद की लागत, चाहे भारत में रुपयों में या संयुक्त राज्य अमेरिका में डॉलर में अथवा जापान में येन में क्यों न हो, समान ही होगी। सिर्फ परिवहन व्यय में अंतर होगा। अतः दीर्घकाल में किन्हीं दो देशों की करेंसियों के बीच विनिमय दर के समायोजन से दोनों देशों के कीमत स्तर के अंतर का पता चलता है।

उदाहरण 6.1

यदि एक कमीज़ की लागत अमेरिका में 8 डॉलर और भारत में 400 रु० है, तो रुपया-डॉलर की विनिमय दर 50 रु० होगी। अब 50 रु० से अधिक किसी भी दर को देखने के लिए हम 60 रु० लेते हैं, इसका अर्थ यह है कि अमेरिका में एक कमीज़ की लागत 480 रु० और भारत में केवल 400 रु० है, तो ऐसी स्थिति में सभी विदेशी उपभोक्ता भारत से कमीज़ खरीदेंगे। इसी प्रकार, प्रति डॉलर 50 रु० से कम किसी भी विनिमय दर पर कमीज़ों का समस्त व्यापार अमेरिका के पास चला जाएगा। अब हम कल्पना करते हैं कि भारत में कीमत में 20 प्रतिशत की वृद्धि होती है, जबकि अमेरिका में 50 प्रतिशत की वृद्धि होती है। अब भारत में एक कमीज़ की लागत 480 रु० जबकि अमेरिका में 12 डॉलर होगी। इन दोनों कीमतों में समानता तभी होगी, जब 12 डॉलर का मूल्य 480 रु० अथवा एक डॉलर का मूल्य 40 रु० होगा। अतः डॉलर के मूल्य में ह्रास हुआ। क्रय-शक्ति समता सिद्धांत के अनुसार घरेलू स्फीति और विदेशी स्फीति के बीच अंतर ही विनिमय दर के समायोजन का प्रमुख कारण है। यदि एक देश में दूसरे देश की अपेक्षा स्फीति की दर अधिक है, तो इसकी विनिमय दर का ह्रास होगा।

स्थिर विनिमय दरें

इस विनिमय दर प्रणाली में, सरकार विनिमय दर का एक स्तर विशेष दर पर निर्धारित कर देती है। चित्र 6.3 में बाजार द्वारा निध रिित विनिमय दर ’ $e$ ’ है। फिर भी मान लीजिये कि भारत सरकार किसी कारणवश निर्यातों को बढ़ाना चाहती है, इसके लिये इसे विदेशियों के लिये रुपये को सस्ता करना होगा। वह ऐसा विनिमय दर रुपये 50 प्रति डॉलर की वर्तमान दर से ऊंची विनिमय दर (जैसे रुपये 70 प्रति डॉलर) तय करके कर सकती है। इस विनिमय दर पर डॉलरों की पूर्ति, इनकी माँग से अधिक हो जायेगी। इस अतिरिक्त पूर्ति को जिसे चित्र में $\mathrm{AB}$ द्वारा दिखाया गया है, रिजर्व बैंक डॉलरों को रुपयों के बदले बेचकर बाजार में हस्तक्षेप करती है। इस प्रकार, हस्तक्षेप द्वारा सरकार अर्थव्यवस्था में किसी भी विनिमय दर को बनाये रख सकती है। अतः हस्तक्षेप द्वारा, सरकार अर्थव्यस्था में किसी भी विनिमय दर को बनाये रख सकती है। लेकिन जब तक हस्तक्षेप चलेगा, यह ज्यादा और ज्यादा विदेशी विनिमय एकत्रित कर लेगी। दूसरी तरफ यदि सरकार ऐसे स्तर पर विनिमय दर को निर्धारित करती है जैसे $\mathrm{e} 2$, विदेशी विनिमय बाज़ार में डॉलर के अधिक माँग होगी। डॉलरों की इस अधिक माँग को पूरा करने के लिये, सरकार को डॉलरों की पहले से ही एकत्रित स्टॉक से डॉलर निकालने पड़ेगें। यदि यह ऐसा करने में असफल रहती है तो डॉलरों के लिये काला बाज़ार पैदा हो जायेगा।

स्थिर विनिमय दर के साथ विदेशी विनिमय बाज़ार

स्थिर विनिमय दर प्रणाली के अंर्तगत, जब किसी सरकारी कार्यवाही द्वारा विनिमय दर बढ़ती है (इस प्रकार घरेलू मुद्रा को सस्ता करो) तो इसे ‘अवमूल्यन’ कहते हैं। दूसरी तरफ, मुद्रा का ‘पुर्नमूल्यन’ होता है, जब स्थिर विनिमय दर प्रणाली के अर्न्तगत, सरकार विनिमय दर का घटा देती है।

6.2.3 तिरती और स्थिर विनिमय दर प्रणालियों के गुण और दोष

स्थिर विनिमय दर प्रणाली का मुख्य लक्षण यह विश्वसनीयता है कि सरकार एक निश्चित स्तर पर विनिमय की दर को बनाये रखने में सक्षम होगी। स्थिर विनिमय दर प्रणाली के अंर्तगत बहुध BOP में अधिक्य अथवा घाटा होता है। सरकारी आरक्षित कोषों का उपयोग कर, सरकारें इस लोप को पूरा करने के लिये हस्तक्षेप करती हैं। यदि लोगों को यह पता चल जाये कि सरकार के पास आरक्षित कोष कम हैं तो वे सरकार की स्थिर दरों को बनाये रखने की क्षमता पर संदेह करने लगते हैं। इससे अवमूल्यन का अनुमान बढ़ेगा। जब यह विश्वास, किसी मुद्रा को आक्रामक खरीद में बदल जाता है और सरकार को मुद्रा के अवमूल्यन के लिये बाध्य कर देता है, तो इस मुद्रा पर अनुमानित आक्रमण कहते हैं।

स्थिर विनिमय दरें, इस प्रकार के आक्रमणों के उन्मुक्त होती हैं जैसा कि ब्रेटन वुड्स प्रणाली के पतन से पूर्व में देखा गया। स्थिर विनिमय दर प्रणाली, सरकार को अधिक नम्यता प्रदान करती है और उन्हें विदेशी मुद्रा के विशाल कोषों का स्टॉक नहीं रखना पड़ता। तिरती विनिमय दर प्रणाली का एक बड़ा लाभ यह है कि विनिमय दरों में परिवर्तन, BOP के अधिक्य और घाटे की स्वत: देखभाल कर लेते हैं। इसके अलावा भी, देश अपनी मौद्रिक नीतियों के संचालन में स्वतंत्र रहते हैं क्योंकि उन्हें विनिमय दर को बनाये रखने के लिये किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि इनकी देखभाल कर लेता है।

6.2.4 प्रबंधित तिरती

किसी औपचारिक अंतर्राष्ट्रीय समझौते के बिना विश्व में उत्तम विनिमय प्रणाली का उदय हुआ, जिसे उत्तम रूप में प्रबंधित तिरती विनिमय दर प्रणाली कहा जा सकता है। यह नम्य विनिमय दर प्रणाली (तरितभाग) और स्थिर दर प्रणाली (प्रबंधित भाग) का मिश्रण है। त्रुटिबहुल तिरती नाम की इस प्रणाली में केंद्रीय बैंक विनिमय दर को उदार बनाने के लिए जब कभी ऐसे कार्य को समुचित समझता है, तब विदेशी मुद्रा का क्रय-विक्रय करके हस्तक्षेप करता है। अतः अधिकृत सुरक्षित संव्यवहार शून्य के समान नहीं होता है।

सारांश

1. उत्पाद और वित्तीय बाज़ारों में खुलापन से घरेलू और विदेशी वस्तुओं के बीच तथा घरेलू और विदेशी परिसंपत्तियों के बीच चयन की छूट होती है।

2. अदायगी-संतुलन में किसी देश का शेष विश्व के साथ लेन-देन का उल्लेख होता है।

3. चालू लेखा शेष सौदा व्यापार, सेवाओं और शेष विश्व से प्राप्त निवल अंतरण का योग होता है। पूँजीगत लेखा शेष, विश्व में होने वाले पूँजीगत प्रवाह, शेष विश्व को होने वाले प्रवाह के घटाव के बराबर होता है।

4. चालू लेखा के घाटे को विदेशों से प्राप्त निवल पूँजी प्रवाह से वित्त पोषित किया जाता है, जिस प्रकार पूँजो खाता आधिक्य से।

5. मौद्रिक विनिमय दर घरेलू मुद्रा के रूप में विदेशी मुद्रा की एक इकाई की कीमत है।

6. वास्तविक विनिमय दर घरेलू वस्तु के रूप में विदेशी वस्तुओं की सापेक्ष कीमत है। यह मौद्रिक विनिमय दर के बराबर होती है, जो कि विदेशी कीमत स्तर में घरेलू कीमत स्तर से भाग देकर प्राप्त किया जाता है। इससे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में किसी देश की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का मूल्यांकन होता है। जब वास्तविक विनिमय दर एक के बराबर हो, तो दोनों देशों में क्रय-शक्ति समता होती है।

7. स्थिर विनिमय दर व्यवस्था का सार स्वर्णमान था, जिसमें प्रत्येक सहभागी देश एक निश्चित कीमत पर अपने देश की मुद्रा को स्वतंत्र रूप से स्वर्ण में परिवर्तित करने के लिए प्रतिबद्ध रहता था। अधिकीलित विनिमय दर एक प्रकार की परिवर्तनीय नीति है, जिसमें आधिकारिक कार्यवाही (अवमूल्यन) द्वारा परिवर्तन किया जा सकता है।

8. स्वच्छ तिरती निधि के अंतर्गत विनिमय दर का निर्धारण बाज़ार द्वारा बिना किसी केंद्रीय बैंक के हस्तक्षेप के होता है। प्रबंधित तिरती की स्थिति में केंद्रीय बैंक विनिमय दर में उतार-चढ़ाव को कम करने के लिए हस्तक्षेप करता है।

9. खुली अर्थव्यवस्था में घरेलू वस्तु की माँग, वस्तु की घरेलू माँग (उपभोग, निवेश, सरकारी खर्च) और निर्यात घटा आयात के योग के बराबर होता है।

10. खुली अर्थव्यवस्था गुणक बंद अर्थव्यवस्था गुणक से छोटा होता है, क्योंकि घरेलू माँग का एक हिस्सा विदेशी वस्तुओं के लिए होता है। अतः स्वायत्त माँग में वृद्धि से बंद अर्थव्यवस्था की तुलना में निर्गत में कम वृद्धि होती है। इससे: व्यापार शेष में भी गिरावट होती है।

11. विदेशी आय में वृद्धि से निर्यात में वृद्धि और घरेलू निर्गत में वृद्धि होती है तथा व्यापार शेष में सुधार होता है।

12. यदि किसी देश में ॠण की गई निधि से ब्याज दर की अपेक्षा विकास दर अधिक होता है, तो व्यापार घाटे से किसी प्रकार के खतरे का संकेत नहीं होता।

मूल संकल्पनाएँ

खुली अर्थव्यवस्था अदायगी-संतुलन
चालू खातागत घाटा आधिकारिक आरक्षित
लेन-देन स्वायत्त और समंजन लेन-देन
मौद्रिक और वास्तविक विनिमय दर क्रय-शक्ति समता
नम्य विनिमय दर मूल्यह्नास
ब्याज दर विभेदक स्थिर विनिमय दर
अवमूल्यन प्रब्बंधित तिरती
घरेलू वस्तु की माँग आयात की सीमांत प्रवृति
निवल निर्यात खुली अर्थव्यवस्था गुणक

बॉक्स 6.3 विनिमय दर प्रबंध: भारतीय अनुभव

भारत की विनिमय दर नीति अंतर्राष्ट्रीय और देशीय विकास के साथ विकसित हुई है। स्वतंत्रता के बाद ब्रेटन वुड्स व्यवस्था की दृष्टि से भारतीय रुपया ब्रिटेन के साथ ऐतिहासिक संबंध के कारण पौंड स्टर्लिंग में अधिकीलित हुआ। जून, 1966 में रुपये का 36.5 प्रतिशत अवमूल्यन एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। ब्रेटन वुड्स व्यवस्था के विखंडन और भारत के व्यापार में यूनाइटेड किंगडम के अंश के घटने से सिंतबर, 1975 में पौंड स्टर्लिंग से रुपये का संबंध-विच्छेद कर दिया गया। 1975 से लेकर 1992 तक की अवधि के दौरान रुपये की विनिमय दर भारतीय रिज़र्व बैंक के द्वारा निर्धारित होती थी, जो भारत के प्रधान व्यापारिक हिस्सेदार की मुद्रा के भारित बंडल के +/- $5 %$ नाममात्र के व्यापारिक सहभागियों के अंतर्गत होता था। रिज़र्व बैंक दैनिक आधार पर हस्तक्षेप करता था। जिससे आरक्षित निधि के आकार में व्यापक परिवर्तन होता था। इस अवधि की विनिमय दर व्यवस्था का वर्णन एक पट्टी के साथ नाममात्र अधिकीलित के समायोजन के रूप में किया जा सकता है।

1990 के आरंभ में तेल की कीमत में अत्यधिक वृद्धि हुई और खाड़ी संकट के कारण खाड़ी के क्षेत्र से धन का आना रुक गया। इससे और अन्य देशी और अंतर्राष्ट्रीय विकास से भारत में अदायगी-संतुलन की समस्या गंभीर हो गई। व्यवसायिक बैंकों से उधार लेने की और अल्पकालिक साख की गुंजाइश कम हो जाने के फलस्वरुप चालू लेखागत घाटा के लिए वित्त प्रबंध कठिन हो गया। भारत की विदेशी मुद्रा की आरक्षित निधि अगस्त, 1990 के 3.1 बिलयन यू एस डॉलर से तेजी से घटकर 12 जुलाई, 1991 में 975 मिलियन यू एस डॉलर रह गई (हमारी वर्तमान विदेशी मुद्रा आरक्षित निधि 27 जनवरी, 2006 के अनुसार 139.2 बिलयन यू. एस. डॉलर थी)। विदेशों को सोना भेजने, गैर-जरूरी आयात को कम करने, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा बहु-पक्षीय (और) द्वि-पक्षीय स्रोतों से संपर्क करने, स्थिरीकरण और ढाँचागत सुधार लाने के अतिरिक्त 1 जुलाई और 3 जुलाई, 1991 को रुपये में दो चरणों में 18-19 प्रतिशत का अवमूल्यन किया गया। मार्च, 1992 में दुहरे विनिमय दरों वाला उदारवादी विनिमय दर प्रबंधन व्यवस्था को अपनाया गया। इस व्यवस्था के तहत विनिमय आय का 40 प्रतिशत रिज़र्व बैंक द्वारा निर्धारित दर से सुपुर्द करना पड़ता था और 60 प्रतिशत का परिवर्तन बाज़ार द्वारा निर्धारित दर पर होता था। दुहरे दरों को 1 मार्च, 1993 को बदल दिया गया और चालू खाते की परिवर्तनीयता की ओर महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए। अंतिम रूप से इसकी उपलब्धि 1994 में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष समझौता के अनुच्छेद VIII को स्वीकार कर लेने के बाद मिली। इस प्रकार, रुपये की विनिमय दर बाज़ार के द्वारा निर्धारित होती है और अपने क्रय और विक्रय द्वारा रिज़र्व बैंक विदेशी मुद्रा बाज़ार में स्थिति को विनियमित रखता है।

अभ्यास

1. संतुलित व्यापार शेष और चालू खाता संतुलन में अंतर स्पष्ट कीजिए।

2. आधिकारिक आरक्षित निधि का लेन-देन क्या है? अदायगी-संतुलन में इनके महत्त्व का वर्णन कीजिए।

3. मौद्रिक विनिमय दर और वास्तविक विनिमय दर में भेद कीजिए। यदि आपको घरेलू वस्तु अथवा विदेशी वस्तुओं के बीच किसी को खरीदने का निर्णय करना हो, तो कौन-सी दर अधिक प्रासंगिक होगी?

4. यदि 1 रुपया की कीमत 1.25 येन है और जापान में कीमत स्तर 3 हो तथा भारत में 1.2 हो, तो भारत और जापान के बीच वास्तविक विनिमय दर की गणना कीजिए (जापानी वस्तु की कीमत भारतीय वस्तु के संदर्भ में)। संकेत : रुपये में येन की कीमत के रूप में मौद्रिक विनिमय दर को पहले ज्ञात कीजिए।

5. स्वचालित युक्ति की व्याख्या कीजिए जिसके द्वारा स्वर्णमान के अंतर्गत अदायगी-संतुलन प्राप्त किया जाता था।

6. नम्य विनिमय दर व्यवस्था में विनिमय दर का निर्धारण कैसे होता है?

7. अवमूल्यन और मूल्यह्रास में अंतर स्पष्ट कीजिए।

8. क्या केंद्रीय बैंक प्रबंधित तिरती व्यवस्था में हस्तक्षेप करेगा? व्याख्या कीजिए।

9. क्या देशी वस्तुओं की माँग और वस्तुओं की देशीय माँग की संकल्पनाएँ एक समान है?

10. जब $M=60+0.06 Y$ हो, तो आयात की सीमांत प्रवृति क्या होगी? आयात की सीमांत प्रवृति और समस्त माँग फलन में क्या संबंध है?

11. खुली अर्थव्यवस्था स्वायत्त व्यय खर्च गुणक बंद अर्थव्यवस्था के गुणक की तुलना में छोटा क्यों होता है?

12. पाठ में इकमुश्त कर की कल्पना के स्थान पर आनुपातिक कर $T=t Y$ के साथ खुली अर्थव्यवस्था गुणक की गणना कीजिए।

13. मान लीजिए $C=40+0.8 Y D, T=50, I=60, G=40, X=90, M=50+0.05 Y$ (a) संतुलन आय ज्ञात कीजिए (b) संतुलन आय पर निवल निर्यात संतुलन ज्ञात कीजिए (c) संतुलन आय और निवल निर्यात संतुलन क्या होता है, जब सरकार के क्रय में 40 से 50 की वृद्धि होती है।

14. उपर्युक्त उदाहरण में यदि निर्यात में $X=100$ का परिवर्तन हो, तो संतुलन आय और निवल निर्यात संतुलन में परिवर्तन ज्ञात कीजिए।

15. व्याख्या कीजिए कि $G-T=\left(S^{g}-X\right)-(X-M)$ ।

16. यदि देश $\mathrm{B}$ से देश $\mathrm{A}$ में मुद्रास्फीति ऊँची हो और दोनों देशों में विनिमय दर स्थिर हो, तो दोनों देशों के व्यापार शेष का क्या होगा?

17. क्या चालू पूँजीगत घाटा खतरे का संकेत होगा? व्याख्या कीजिए।

18. मान लीजिए $C=100+0.75 Y , I=500, G=750$, कर आय का 20 प्रतिशत है, $X=150$, $M=100+0.2 Y$, तो संतुलन आय, बजट घाटा अथवा आधिक्य और व्यापार घाटा अथवा आधिक्य की गणना कीजिए।

19. उन विनिमय दर व्यवस्थाओं की चर्चा कीजिए, जिन्हें कुछ देशों ने अपने बाह्य खाते में स्थायित्व लाने के लिए किया है।



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