अध्याय 06 बंगाल स्कूल और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

कंपनी चित्रकला

अं ंग्रेजों के आने से पूर्व भारत में कला का निर्माण विभिन्न उद्देश्यों से किया जाता था। कभी इसे मंदिर की दीवारों पर प्रतिमाओं के रूप में देखा गया तो कभी झोपड़ियों की दीवारों के अलंकरण के रूप में और कभी हम लघुचित्रों के रूप में पांडुलिपियों में इसे देख सकते हैं। अठारहवीं शताब्दी में जब ईस्ट इंडिया कंपनी भारत आई और उसने भारत में उपनिवेशवाद की स्थापना की तो अंग्रेज वे भारतीय कला देखकर उससे आकर्षित हुए। विशेषकर यहाँ के विभिन्न लोगों के रहन-सहन, जीव-जंतु और वनस्पति से प्रभावित होकर उन्होंने कई स्थानीय कलाकारों को कमीशन पर रखकर कथात्मक चित्रण करवाया। ये स्थानीय कलाकार मुर्शिदाबाद, लखनऊ और दिल्ली के थे, जिन्होंने भारी संख्या में कागज़ पर चित्र बनाए। अपने नए संरक्षक को खुश करने के लिए इन कलाकारों ने अपने आसपास की जीवन शैली को पारंपरिक तरीके से चित्रित करना शुरू किया। इसका आशय यह है कि उन्होंने यथार्थवादी चित्रण करना शुरू कर दिया जो यूरोपीय शैली का एक गुण है। यह मिश्रित कला, भारतीय और यूरोपीय कला का सम्मिश्रण है जिसे ‘कंपनी शैली’ के नाम से जाना जाता है। इस शैली के चित्रों की भारत में रह रहे अंग्रेजों के साथ-साथ ब्रिटेन में भी बहुतायत से माँग थी।

गुलाम अली खान, वेश्याओं का समूह, कंपनी पेंटंग, 1800-25, सैन डिएगो कला संग्रहालय, कैलिफोर्निया, संयुक्त राज्य अमेरिका

रजा यवि वर्मा

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में भारत में छायाचित्रण (फ़ोटोग्राफ़ी) के आने के साथ चित्रकला की गुणवत्ता में गिरावट आई क्योंकि कैमरे द्वारा अधिक वास्तविक दस्तावेज़ तैयार किए जाने लगे। हालाँकि ब्रिटिश कलाकारों द्वारा स्थापित किए गए कला विद्यालयों में तैलीय रंग प्रयोग किए गए जो अकादमिक शैली के चित्रों में प्रयोग में लाए जाते थे। इनमें भारतीय विषय को चित्रित करने के लिए यूरोपीय तैलीय रंगों का प्रयोग किया जाता था। इस प्रकार की चित्रकला के सबसे सफल उदाहरण कला स्कूलों के बाहर पाए गए। इस प्रकार की शैली केरल में त्रावणकोर राज्य के राजा रवि वर्मा द्वारा निर्मित चित्रों में दिखाई देती है। भारतीय राजप्रसादों में लोकत्रिय यूरोपीय शैली के चित्रों की नकल चित्रित करने का प्रचलन था, जहाँ उन्होंने यथार्थवादी शैली में महारत हासिल की और रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्यों के दृश्यों को चित्रित किया। समय के साथ वह इतने लोकप्रिय हो गए कि उनके चित्रों की ओलियोग्राफ़ी बाजार में बेची जाने लगी तथा जनसाधारण के घरों में कैलेंडर के रूप में उनके बनाए धार्मिक चित्र सजाए जाने लगे। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक भारत में राष्ट्रवाद के उदय के साथ रवि वर्मा द्वारा निर्मित इस शैक्षणिक शैली को विदेशी माना जाने लगा। इसके साथ ही भारतीय मिथकों तथा इतिहास को दिखाने के लिए इस शैली को पश्चिमी शैली माना जाने लगा। इस तरह की राष्ट्रवादी सोच के बीच बीसवीं सदी के पहले दशक में ‘बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट’ की स्थापना हुई।

बंगाल स्कूल

आधुनिक एवं राष्ट्रवादी स्कूल का प्रारंभ सर्वप्रथम बंगाल से ही हुआ जो केवल इस क्षेत्र तक ही सीमित नहीं था। यह एक कला आंदोलन था और एक चित्रकला शैली थी, जो ब्रिटिश सत्ता के केंद्र कलकत्ता में आरंभ हुई, लेकिन कुछ ही समय में यह देश के विभिन्न हिस्सों में फैल गई (यहाँ तक कि शांतिनिकेतन भी इसमें शामिल था जहाँ भारत का पहला कला विद्यालय स्थापित किया गया) यह राष्ट्रवादी आंदोलन (स्वदेशी) से जुड़ा हुआ था जिसकी अगुवाई ठाकुर अवनीन्द्रनाथ टैगोर (1871-1951) ने की थी। जिन्हें ब्रिटिश प्रशासन और कलकत्ता स्कूल ऑफ़ आर्ट के प्रधानाचार्य ई.बी. हैवेल (1861-1984) से पूरी सहायता मिली। हैवेल और

टैगोर दोनों ही कंपनी शैली के आलोचक थे। वे दोनों दृढ़ता से एक नए शैली के चित्र बनाने में विश्वास रखते थे। जो न केवल विषय में बल्कि चित्रकला हैली में भी भारतीय हो। उनके लिए मुगल चित्र और पहाड़ी लघु चित्र प्रेरणा के महत्वपूर्ण स्रोत थे जो विषय और शैली दोनों से भारतीय थे।

अवनीन्द्रनाथ टैगोर और ई. बी. हैवेल

वर्ष 1896, भारतीय इतिहास में दृश्य कला के लिए महत्वपूर्ण था। ई. बी. हैवेल और अवनीन्द्रााथ टैगोर दोनों ने अनुभव किया कि कला में भारतीय शैली की विशेषताओं के विश्लेषण की आवश्यकता है। इस उद्देश्य से उन्होंने गवर्मेंट कॉलेज ऑफ़ आर्ट की स्थापना की, जो वर्तमान समय में गवर्मेंट कॉलेज ऑफ़ आर्ट एंड क्राफ़्ट, (वर्वमान कोलकाता) के नाम से प्रसिद्ध है। इसी तरह के कला विद्यालय लाहौर, बंबई (वर्तमान मुंबई) एवं मद्रास में स्थापित किए गए थे। जिनका उद्देश्य क्राफ़्र, धातु शिल्पों तथा फ़र्नीचर जैसे शिल्पों पर ज़्यादा था, जबकि कलकत्ता के विद्यालय का रुझान ललित कला में था। ई.बी. हैवेल और अवनीन्द्रनाथ टैगोर ने कला में भारतीय परंपरा की तकनीक और विषयों को शामिल करने और प्रोत्साहित करने के लिए एक नया पाठ्यक्रम तैयार किया। टैगोर के प्रसिद्ध चित्र जर्नीस एण्ड में पहाड़ी और मुगल शैली का प्रभाव है, जो एक नवीन भारतीय शैली को जन्म देती है।

जैसा कि कला इतिहासकार पार्थ मित्तर लिखते हैं, “अवनीन्द्रनाथ टैगोर के छात्रों की पहली पीढ़ी भारतीय कला की गुम हुई शैली और विषय को पुर्न्राप्त करने में लगी हुई थी" अवनीन्द्रनाथ टैगोर ‘इंडियन सोसायटी ऑफ़ ओरियंटल आर्ट’, नामक एक महत्वपूर्ण पत्रिका के मुख्य कलाकार और रचनाकार थे, जिससे आधुनिक भारतीय कलाकारों को अपने भव्य इतिहास से सीखने का अवसर मिला। इस प्रकार वे कला में स्वदेशी के प्रथम प्रमुख समर्थक थे, जिन्होंने बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट के निर्माण में अपना योगदान दिया। बंगाल स्कूल द्वारा आधुनिक चित्रकला के विकास के लिए पृष्ठभूमि तैयार की गई। टैगोर द्वारा प्रारंभ की गई नई दिशा के फलस्वरूप क्षितिंद्रनाथ मजुमदार (रस-लीला) तथा मुहम्मद अब्दुर रहमान चुगतई (राधिका) जैसे युवा कलाकार सामने आए।

शांतिनिकेतन-प्रारंभिक आधुनिकतावाद

शांतिनिकेतन की स्थापना के बाद कवि और दार्शनिक रवांद्रनाथ टैगोर ने कला भवन के नेतृत्व के लिए अवनीन्द्रनाथ टैगेर के शिष्य नंदलाल बोस को आमंत्रित किया। कला भवन, रवांद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित विश्वभारती विश्वविद्यालय का हिस्सा था जो कि पहला राष्ट्रीय कला विद्यालय था। कलाभवन में, नंदलाल बोस के चित्रों में भारतीय शैली के साथ-साथ बौद्धिकता और

नंदलाल बोस, ढाकी, हरिपुरा पोस्टर, 1937, एन.जी.एम.ए., नयी दिल्ली, भारत

के. वेंकटप्पा, राम का विवाह, 1914, निजी संग्रह, भारत

कलात्मकता का भी समावेश हुआ। शांतिनिकेतन के आसपास की लोक कला की भाषा पर उन्होंने विशेष ध्यान दिया। नंदलाल बोस ने नयी धारणाओं या विचारों की शिक्षा में कला का महत्व समझते हुए ‘वुडकर’ की तकनीक से चित्र बनाकर पुस्तिकाएँ बनाईं। इसी कारण महात्मा गाँधी ने उन्हें 1937 में हरिपुरा में कांग्रेस अधिवेशन में प्रदर्शन के लिए लगाए जाने वाले पैनलों को चित्रित करने के लिए आमंत्रित किया। ये चित्र ‘हरिपुरा पोस्टर’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ जिसमें ग्रामीण लोगों की गतिविधियों को चित्रित किया गया, जैसे-एक संगीतकार ढोल बजाता हुआ, एक किसान खेत को हल से जोतता हुआ, एक महिला दूध मंथती हुई इत्यादि। इन चित्रों को उन्होंने विविध रंगों से चित्रित किया और राष्ट्र निर्माण में उनके योगदान को दिखाया। इन पोस्टरों में महात्मा गाँधी के विचारों को कला के माध्यम से तथा भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों को शामिल कर समाजवादी दृष्टि से प्रदर्शित किया गया है।

नंदलाल बोस ने कला भवन में जिस प्रकार से कला की शिक्षा दी उससे भारतीय युवा कलाकार राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से प्रभावित हुए। यह कई कलाकारों के लिए प्रशिक्षण केंद्र बन गया जिन्होंने देश के अन्य भागों में केंद्र बनाए जिसका प्रमुख उदाहरण दक्षिण भारत में के. वेंकटप्पा हैं। नंदलाल बोस चाहते थे कि कला सिर्फ़ उच्च वर्ग तक ही सीमित न रहे बल्कि सामान्य जनता तक पहुँचे।

जामिनी रॉय, आधुनिक भारतीय कला के विशिष्ट उदाहरण हैं, जिन्होंने आधुनिक कला विद्यालयों में दिया जाने वाला अकादमिक प्रशिक्षण प्राप्त करके उसे अस्वीकार कर गाँवों की सपाट और रंगीन शैली को अपनाया। उन्होंने अपने चित्रों का विषय ग्रामीण समाज की महिलाओं और बच्चों को बनाया। वह चाहते थे कि उनके चित्र सरल और आसान हों, ताकि वे व्यापक रूप से सामान्य जनजीवन तक भी पहुँच सकें।

हालाँकि ब्रिटिश काल में भारतीय व यूरोपीय दोनों कलाओं का अपना शैलीगत संघर्ष जारी रहा। उदाहरण के लिए, लुटियन की दिल्ली की इमारत का बंबई स्कूल ऑफ़ आर्ट के कलाकारों द्वारा अलंकरण करवाया गया जो यथार्थवादी प्रधानाचार्य ग्लेडस्टोन सोलोमन की शैली का अनुसरण करते

थे। वहीं दूसरी तरफ बंगाल स्कूल के कलाकारों को ब्रिटिश के निरीक्षण में लंदन स्थित भारतीय भवन के अलंकरण की अनुमति दी गई।

अखिल एशियावाद और आधुनिकतावाद

कंपनी शैली ने यूरोपीय अकादमिक शैली और भारतीय शैली को पसंद करने वालों को विभाजित कर दिया। परंतु 1905 में बंगाल विभाजन के बाद आंदोलन अपने चरम पर था तथा ये कलाकृतियाँ विचार में दिखने लगी थीं। कला इतिहासकार आनंद कुमारस्वामी ने स्वदेशी कला के बारे में लिखा है जहाँ वे जापानी कलाकार काकुजो ओकाकुरा, जो कलकत्ता में रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलने आए थे, उनके विचारों के साथ थे। वे, अखिल-एशियाई विचार से भारत आए थे जिससे वे सभी एशियाई देशों के साथ जिनमें भारत भी शामिल हो, पार पाश्चात्य साम्राज्यवाद का विरोध कर सकें। उनके साथ दो जापानी कलाकार भी आए थे जो शांतिनिकेतन जाकर भारतीय छात्रों को वॉश पेंटिंग सिखा रहे थे जो पाश्चात्य तैल रंग के चित्रण का विकल्प था।

जहाँ एक ओर अखिल एशियावाद की लोकत्रियता बढ़ रही थी, वहीं आधुनिक यूरोपीय कला भी भारत आई। अत: वर्ष 1922 को महत्वपूर्ण माना जाता है जब पॉल क्ली, कैंडिन्स्की जैसे कलाकार जो जर्मनी के बाहौस का हिस्सा थे, उनकी प्रदर्शनी कलकत्ता में की गई। इन यूरोपीय कलाकारों ने यथार्थवादी अकादमिक शैली का परित्याग कर दिया था जिससे स्वदेशी कलाकार प्रेरित हुए। उन्होंने अमूर्तकला का सृजन किया जिसमें ज्यामितीय आकारों का प्रयोग किया गया, जैसे— वर्ग, रेखा, वृत्त जिससे सर्वार्रथम सामान्यजन और कलाकारों का सीधा संपर्क आधुनिक कला से हुआ। यह प्रभाव अवनीन्द्रनाथ टैगोर के भाई गगनेंद्रनाथ टैगोर के चित्रों में देखा जा सकता था जिसमें उन्होंने ज्यामितीय आकारों को लेकर आधुनिक कला को दिखाया तथा इसमें पाश्चात्य कला शैली का उपयोग करते हुए कई चित्र बनाए। इनमें इमारतों के अंदरूनी हिस्से को ज्यामितीय शैली में दर्शाया गया है। इसके अलावा उनकी कैरीकेचर (कार्टन) बनाने में भी गहरी रुचि थी, जिसमें वह अकसर यूरोपीय जीवन शैली की नकल करने वाले अमीर वर्ग के बंगाली लोगों का मज़ाक उड़ाते थे।

आधुनिकतावाद की विभिन्न अवधारणाएँ-प्विमी और भारतीय

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है कि पश्चिमी और भारतीय, आधुनिक और पारंपरिक कलाओं के बीच आगे बढ़ने की होड़ थी। बंगाली बुद्धिजीवी, बिनॉय सरकार ने अपने लेख ‘द फ्यूचररिज़्म ऑफ़ यंग एशिया’ में पारंपरिक कला की तरफ ध्यान न देकर यूरोपीय आधुनिक कला और कला पर लिखे लेखों पर ध्यान दिया, जो एशिया के नवयुवकों का भविष्यवाद था। उनके विचार में भारतीय बंगाल स्कूल समकालीन और आधुनिकता का विरोधी था। इसी तरह, एक अंग्रेज़, ई.बी. हैवेल ने भारतीय कला को आधुनिक बनाने और लोक कला की वापसी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अवनीन्द्रनाथ का पूरा सहयोग किया।

अमृता शेरगिल, ऊँट, 1941, राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय, नयी दिल्ली, भारत

अमृता शेरगिल के बारे में अगले अध्याय में चर्चा करेंगे, जो इन दोनों के विचार के सम्मिश्रण का सबसे अच्छा उदाहरण हैं। वे भारतीय शैली में दिखाए जाने वाले बाहौस प्रदर्शनी का उपयोग अपनी कला शैली में करती थीं।

भारत में उपनिवेशवादी कला और परंपरावाद के बीच होने वाले संघर्ष के बाद यहाँ आधुनिक कला का जन्म हुआ। कंपनी शैली ने कला के नए संस्थानों, जैसे- कला स्कूल, प्रदर्शनी दीर्घा, कला पत्रिका और कला समाज आदि की शुरुआत की। राष्ट्रवादी कलाकारों ने इन परिवर्तनों को स्वीकार करते हुए कला में और भी अधिक भारतीय गुणों को सम्मिलित कर भारतीय कला को एशियाई कला के रूप में पहचान दिलाई। यह भारतीय विरासत आधुनिक भारतीय कला के इतिहास पर गहरा प्रभाव छोड़ने वाली थी तथा यह कला अंतर्राष्ट्रीय कला में अपना स्थान बढ़ाती रहेगी, जिसमें पश्चिमी और भारतीय कला का समावेश होगा।

अभ्यास

  1. पिछले दो सप्ताह के स्थानीय समाचार पत्र लीजिए। इनमें से वे चित्र और लेख चयनित करें जिन्हें आप भारत के आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य के जीवन के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं। इन दृश्यों और लेखों की सहायता से एक एल्बम संकलित करें जो समकालीन दुनिया में एक स्वतंत्र सार्वभौम भारत की कहानी को दर्शाता है।
  2. राष्ट्रीय कला शैली के निर्माण में बंगाल स्कूल के कलाकारों के महत्व पर टिप्पणी करें?
  3. अवनीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा चित्रित किसी एक चित्र पर अपने विचारों को लिखें।
  4. भारत की किन कला परंपराओं ने बंगाल स्कूल के कलाकारों को प्रेरित किया?
  5. जामिनी रॉय ने चित्रकला की अकादमिक शैली को त्यागने के बाद कौन-से विषयों का चित्रांकन किया?

टिलर ऑफ़ द सॉयल

यह चित्र 1938 में कांग्रेस के हरिपुरा सम्मेलन के लिए नंदलाल बोस द्वारा बनाए गए पैनलों में से एक है। इस पट्टिका (पैनल) में, एक किसान को खेत की जुताई करते हुए दिखाया गया है- एक गाँव में आम आदमी के दैनिक क्रियाकलापों का चित्रण किया गया है। बोस ने ग्रामीण जीवन के तत्वों या अनुभवों को दर्शाने के लिए स्थानीय ग्रामीणों या ग्रामवासियों का कलम और स्याही से चित्रण किया है जिसमें उन्होंने गहरे टेम्परा से प्रभावशाली तिरछी रेखाओं के लिए चौड़े ब्रुश का प्रयोग किया है। इस तकनीक और शैली का प्रयोग ‘पटुआ’ लोक कला प्रथा की याद दिलाता है। लोक शैली का विशेष रूप से प्रयोजन, ग्रामीण जीवन दर्शाने के लिए किया गया है। साथ ही साथ यह गाँधी के ग्रामीण जीवन के राजनीतिक विचारों को भी प्रस्तुत करता है। पैनल की पृष्ठभूमि में एक मेहराब का चित्रण है। बोस द्वारा निर्मित इन पट्टिकाओं पर अजंता के भित्ति चित्रों और मूर्तियों के प्रभावों को— अलंकरण की अभिव्यक्ति, सुस्पष्ट रंग संयोजना और प्रकृति के साथ सम्मेलन के रूप में देखा जा सकता है। बोस की देखरेख में कला भवन में 400 से अधिक पोस्टर तैयार किए गए, जो गाँधी के विचारों से प्रभावित थे। ये पोस्टर आम लोगों को राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया में अहम पात्र के रूप में दर्शाते हैं। इस तरह देश के नैतिक चरित्र के निर्माण के लिए बोस ने कला का उपयोग किया।

रास-लीला

यह एक जलरंग चित्र है जिसमें वॉश तकनीक का प्रयोग किया गया है। यह चित्र क्षितिंद्रनाथ मजूमदार (1891-1975) द्वारा बनाया गया है। यह चित्र श्रीकृष्ण के दिव्य जीवन को दर्शाता है। मजूमदार, अवनीन्द्रनाथ टैगोर के शुरुआती छात्रों में से एक थे, जिन्होंने कुछ विषयांतर या परिवर्तनों के साथ वॉश तकनीक का विस्तार किया। ग्रामीण, दुबली-पतली आकृतियाँ, साधारण भाव-भंगिमाएँ, रमणीय संरचना और कोमल जलरंग उनकी शैलीगत विशेषताओं को व्यक्त करते हैं। उन्होंने पौराणिक और धार्मिक विषयों को चित्रित किया है। भक्ति मार्ग के अनुयायियों के रूप में धार्मिक अवधारणाओं की उनकी समझ से प्रेरित— राधा का मन भंजन, सखी और राधा, लक्ष्मी और श्री चैतन्य का जन्म, अभिव्यक्ति की उनकी असाधारण कला के कुछ उदाहरण हैं। इस चित्र में कृष्ण, राधा और सखियों के साथ नाच रहे हैं, पृष्ठभूमि में पेड़ एक साधारण गाँव का दृश्य है, जैसा कि भागवत पुराण और गीत गोविंद में चिह्नित है। मानव आकृतियों और उनके कपड़ों के चित्रण के लिए साधारण, प्रवाहित, कोमल रेखाओं का उपयोग किया गया है। पात्रों की उदात्त मनोदशा को खूबसूरती से दर्शाया गया है। कृष्ण और गोपियों को एक ही अनुपात में बनाया गया है। इस प्रकार, मनुष्यों और भगवान को एक ही स्तर पर दर्शाया गया है।

राधिका

मुहम्मद अब्दुल रहमान चुगतई (1898-1975) ने वॉश और टेम्परा तकनीक का प्रयोग करते हुए कागज़ पर यह चित्र बनाया है। वह शाहजहाँ के मुख्य वास्तुकार उस्ताद अहमद के वंशज थे जिन्होंने दिल्ली में जामा मस्जिद और लाल किला तथा आगरा का ताजमहल डिज़ाइन किया था। वह अवनीन्द्रनाथ टैगोर, गगनेंद्रनाथ टैगोर और नंदलाल बोस से प्रभावित थे। उन्होंने वॉश तकनीक में प्रयोग किए और मुगल पांडुलिपियों और पुराने फ़ारसी चित्रों में सुलेख की रेखाओं का प्रयोग किया। यह चित्र एक नाज़ुक वातावरण को दर्शाता है। इस चित्र में राधिका को एक जलते दीपक से दूर जाते हुए दिखाया गया है जहाँ पृष्ठभूमि का वातावरण उदासीन है। यह चित्र हिंदू पौराणिक कथाओं पर आधारित है। उन्होंने महान विभूतियों, लोक कथाओं, भारतीय-इस्लाम संबंधी और राजपूत तथा मुगल आदि सभी विषयों पर चित्र बनाए। उन्होंने राधिका नामक इस चित्र में पृष्ठभूमि की रोशनी और छाया प्रकाश का जो सरलीकरण किया है, उसका संयोजन इस चित्र को सुंदर बनाता है। वह चीनी और जापानी शैली से प्रभावित थे। राधा को इस चित्र में इतना मनमोहक चित्रित किया गया है, जैसे संगीतात्मक कविता की पंक्ति हो। अन्य और भी ऐसे चित्र हैं जो काव्यात्मक— भावपूर्ण और संगीतमय गुणों से युक्त हैं, उदाहरणार्थ उदास राधिका, उमर खय्याम, स्वप्न, हिरामन तोता, वृक्ष के नीचे महिला, संगीतकार महिला, एक कब्र के पीछे आदमी एवं महिला दीपक जलाती हुई आदि।

सिटी इन द नाइट

यह जलरंग चित्र गगनेंद्रनाथ टैगोर द्वारा (1869 से 1938) द्वारा 1922 में चित्रित किया गया था। उनकी घनवाद शैली को देखकर यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि वह पहले ऐसे भारतीय कलाकार थे जिन्होंने भारतीय कला के परिदृश्य को ही बदलकर रख दिया था। उन्होंने अपने चित्रों में आंतरिक भाव के उथल-पुथल को ज्यामितीय रूप में अंकित किया जो विश्लेषणात्मक घनवाद शैली के नाम से जाना जाता है, जिसमें मानव आकृति हो या रूपरेखा सभी को ज्यामितीय घनवाद में बनाया गया है। उन्होंने अपने काल्पनिक कला जगत को कई दृष्टिकोण से समझकर चित्रित किया, जैसे- द्वारका (कृष्ण का काल्पनिक आवास) या स्वर्णपुरी। शहर और पर्वत के चित्रांकन में हीरे के समान चमकदार प्रकाश और प्रिज़्मीय रंगों का परस्पर समायोजन है।

वे टेढ़ी-मेढ़ी आकृतियों से एक घनात्मक भाव उत्पन्न करने में सक्षम रहे। उनके चित्रों की रहस्यमयी कृत्रिम रोशनी तथा रंगमंच की विशेषताओं से यह स्पष्ट है कि उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर के नाटक में रुचि लेने के साथ-साथ उसमें भागीदारी भी की। चित्रकार गगनेंद्रनाथ टैगोर ने अपने चित्रों में रंगमंच की सारी वस्तुओं की सजावट, स्क्रीन का विभाजन, कृत्रिम प्रकाश आदि के संदर्भ लिए हैं। अंतहीन गलियारे, खंभे, हॉल, आधे खुले दरवाजे, पर्दा, रोशनी वाली खिड़कियाँ, सीढ़ियाँ और दीवरें, एक जादू भरी दुनिया का आभास कराते हैं।

राम वैविविशिंग द प्राइड ऑफ़ द ओशन

यह चित्र राजा रवि वर्मा द्वारा पौराणिक विषय (पौराणिक कहानियाँ) पर केंद्रित है। वह भारत के पहले कलाकार हैं, जिन्होने तैल रंग और लिथोग्राफ़ी तकनीक का प्रयोग करके पौराणिक विषयों के चित्र बनाए। यह चित्र एक महाकाव्य या शास्त्रीय पाठ के एक ऐतिहासिक क्षण पर आधारित है जिसमें नाटकीय प्रभाव उत्पन्न किया गया है। इस चित्र में कलाकार ने भावनात्मक चित्रण किया है। यह दृश्य बाल्मीकि रामायण से लिया गया है जहाँ राम अपनी सेना के साथ समुद्र को पार करना चाहते हैं। इसके लिए वह समुद्र देव, वरुण से प्रार्थना करते हैं लेकिन जब समुद्र देव ने कोई उत्तर नहीं दिया तब क्रोधित होकर राम ने वरुण देव को मारने के लिए अपना धनुष और बाण उठा लिया। तुरंत, वरुण देव प्रकट हुए और राम को शांत किया। इस चित्र में चित्रित कथानक अगले चित्रों के लिए उद्गार है। इस शृंखला के प्रत्येक चित्र अगले चित्र की पृष्ठभूमि है जिनमें न केवल राम एवं सीता अपितु संपूर्ण महाकाव्य के प्रमुख विषय शामिल हैं।

राजा रवि वर्मा के अन्य प्रमुख चित्रों में अहिल्या की मुक्ति, राम का धनुष तोड़ना, सीता के विवाह से पहले, राम, सीता और लक्ष्मण सरयु को पार करते हुए, सीता हरण और जटायु, अशोक वाटिका में सीता, राम का तिलक आदि शामिल हैं।

वुमन विद वाइल्ड

यह चित्र जामिनी रॉय (1887-1972) द्वारा 1940 में गॉश तकनीक में बनाया गया है। लोककला को भारतीय आधुनिक कला में एक अलग पहचान देने की वजह से जामिनी रॉय को लोककला के पुर्नजागरण का पिता कहा जाता है। 1920 के दशक के मध्य में उन्होंने बंगाल के ग्रामीण इलाकों में घूमकर वहाँ के लोक कलाकारों से उनकी कला सीखी। उन्होंने अपने चित्र ‘मदर एंड चाइल्ड’ में बहुत ही साधारण रंग द्वारा गतिपूर्ण रेखाओं का प्रयोग किया है जो उनकी तूलिका के अभ्यास के साथ उनके साधारण भावनात्मक व्यक्तित्व को भी स्पष्ट करता है। उन्होंने चित्र में धुँधला पीला और ईंट जैसे लाल रंग का प्रयोग पृष्ठभूमि में किया है जो उनके गाँव बाकुँरा मृण्य मूर्तियों का गेरू रंग था। इस द्वि-आयामी चित्र और उसे बड़े ही सरल ढंग से कपड़े पर बनाना उनकी स्वयं की खोज थी। रॉय ने मात्र लयात्मकता, अलकंरण की स्पष्टता और चित्रों की संगीतमयता को दिखाया। पर चित्र बनाने की कला में पांरगत होने के लिए उन्होंने पहले कई एकरंगीय चित्र बनाए और तब जाकर उन्होंने टेम्परा पद्धति में प्रारंभिक सात रंगों का प्रयोग किया। उन्होंने सभी रंगों को जैविक सामग्री से बनाया, जैसे— पत्थर के चूर्ण से सलेटी रंग, हल्दी से पीला, पारा पाउडर से सफ़ेद रंग, जलोढ़ मिट्टी से धुँधला पीला, नील से नीला और दूधिया आदि। ये सभी उन्हें आसानी से अपने आसपास गाँव में ही मिल गए, जिन्हें पत्थर की धूल, मिट्टी, नील अथवा खड़िया से बनाया। रॉय ने अपने कैनवास घर पर ही बनाए जिसमें चित्र बनाने के लिए सबसे पहले काले एवं गाढ़े रंगों का प्रयोग कर रेखाचित्र बनाया। जामिनी रॉय ने ग्रामीण विचारधारा के माध्यम से उपनिवेशवाद का विरोध किया एवं स्थानीय कला को गौण बनाया।

जर्नीस एंड

जलंग से बने इस चित्र का चित्रण अवनीन्द्रनाथ टैगोर (1871-1951) द्वारा 1913 में किया गया था। भारत में राष्ट्रवादी और आधुनिक कला के पिता के रूप में अवनीन्द्रनाथ टैगोर को देखा जाता है। उन्होंने भारतीय और प्राच्य परंपराओं के कुछ पहलुओं को पुनर्जीवित किया, विशेष रूप से विषय, शैली और तकनीक के रूप में वॉश चित्रण का आविष्कार किया। वॉश चित्रण तक्नीक एक कोमल, धुँधली और प्रभाववादी परिदृश्य उत्पन्न करती है। धुलाई के कारण चित्रों में धुँधला और वायुमंडलीय प्रभाव उत्पन्न होता है जिसका उपयोग जीवन के अंत को सांकेतिक रूप में दर्शाने के लिए किया जाता है।

इस चित्र में, एक थक कर बैठते हुए ऊँट को सूर्यास्त के लाल रंग की पृष्ठभूमि पर यात्रा के अंत को संध्या से सांकेतिक रूप से दर्शाया गया है। अवनीन्द्रनाथ ने एक तरफ अनुभव और कथन को प्रतीकात्मक सौंदर्य से प्रकट करने की कोशिश की है, वहीं दूसरी तरफ सुंदरता और साहित्य का गठजोड़ करने की चेष्टा की है। ऊँट की शारीरिक बनावट को सटीक रेखाओं और कोमल रंगों के द्वारा उकेरा गया है और उसकी संवेदी संरचना चित्र के अर्थ को स्पष्ट करती है। अवनीन्द्रनाथ द्वारा अन्य चित्र — द फ़ॉरेस्ट, कमिंग ऑफ़ नाइट, माउंटेन ट्रैवलर, क्वीन ऑफ़ द फ़ॉरेस्ट और अरेबियन नाइट्स पर आधारित 45 चित्रों की एक भृंखला हैं।



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