अध्याय 05 पहाड़ी चित्रकला शैली

पहाड़ी चित्रकला शैली

पर्वतीय क्षेत्र में विकसित चित्रकला को पहाड़ी चित्रकला शैली के नाम से जाना जाता है। सत्रहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य बसोहली, गुलेर, काँगड़ा, कुल्लू चंबा, मनकोट, नूपुरा, मंडी, बिलासपुर, जम्मू और पश्चिमी हिमालय के अन्य पहाड़ी शहर चित्रकला केंद्र के रूप में उभरे। ये सभी क्षेत्र पहाड़ी चित्रकला शैली के अंतर्गत आते हैं। बसोहली से आरंभ हुई अपरिष्कृत अत्यलंकृत शैली गुलेर और आरंभिक-काँगड़ा दौर से होते हुए भारतीय कला में अत्यंत उत्कृष्ट और परिष्कृत काँगड़ा शैली के रूप में उभरकर आई।

मुगल, दक्कनी और राजस्थानी चित्रकला की स्पष्ट शैलीगत विशिष्ट पहचान से भिन्न पहाड़ी चित्रकला अपनी क्षेत्रीय विभाजन की चुनौतियों को प्रदर्शित करती है।

हालाँकि ऊपर उल्लिखित सभी केंद्रों में सटीक विशेषताओं के साथ प्रकृति, स्थापत्य, विशिष्ट आलंकारिक चेहरे, पहनावे, किसी रंग विशेष की प्राथमिकता और ऐसी अनेक विशेषताएँ प्रदर्शित की गई हैं। उन्होंने आवश्यक अंतर को स्थापित नहीं किया और न ही ये सभी अपनी विशिष्ट पहचान के साथ एक शैली के रूप में विकसित हुईई । इसीलिए दिनांकित सामग्री के अभाव के कारण एक सूचित वर्गीकरण नहीं हो सकता।

कृष्ण मक्सन चुराते हुए, भागवत पुरणण, 1750, एन. सी. मेहता संग्रह, अहमदाबाद, गुजरात, भारत

पहाड़ी चित्रकला शैली का उद्भव अभी तक बहुत स्पष्ट नहीं है जबकि शोधकर्ता लगातार इसके उदूभव और प्रभाव की विवेचना करते रहे हैं। यह व्यापक रूप से स्वीकारा गया है कि मुगल एवं राजस्थानी चित्रकला शैली, पहाड़ी क्षेत्रों में प्रांतीय मुगल शैली और राजस्थानी राजसी दरबार के पहाड़ी राजाओं के साथ पारिवारिक संबंधों के उदाहरणस्वरूप जानी जाती है। जबकि चमकीली, चटक स्पष्ट बसोहली शैली साधारणतः शुरुआती प्रचलित चित्रात्मक भाषा के रूप में पहचानी जाती है। पहाड़ी शैली के प्रसिद्ध अध्धेताओं में से एक बी.एन. गोस्वामी ने सरल सादगीपूर्ण बसोहली शैली को, गीतात्मक काव्य और परिष्कृत काँगड़ा शैली का रूप देने के लिए उस प्रतिभाशाली कलाकार परिवार को श्रेय दिया है, जिन्होंने अपनी विद्वता के दृष्टिकोण से इसे आकार दिया। गोस्वामी का मत था कि पंडित सिऊ (शिव) का परिवार ही मुख्यतः पहाड़ी चित्रकला की भृंखला बनाने के लिए उत्तरदायी था। उसका यह भी तर्क है कि क्षेत्रों के आधार पर पहाड़ी चित्रकला की पहचान करना भ्रामक हो सकता है, क्योंकि राजनीतिक सीमाएँ हमेशा बहुत अनिश्चित होती थीं। यही तर्क राजस्थानी शैली के लिए भी सत्य है कि सिर्फ़ क्षेत्रीयता को श्रेय देना अस्पष्टता दिखाता है और कुछ असमानताएँ अनुत्तरित रह जाती हैं। इसलिए यदि कलाकारों के परिवार को शैली के वाहक के रूप में माना जाता है तो शैली के अनेक प्रकारों को स्वीकार कर उन्हें एक क्षेत्रीय शैली में समाहित किया जा सकता है।

शोधकर्ता यह मानते हैं कि अठारहवीं शताब्दी के आरंभ में पंडित सिऊ परिवार एवं अन्य कलाकारों की रचना शैली बसोहली शैली के पर्याय बन गए थे। जबकि अठारहवीं शताब्दी के मध्य से उन्होंने इस शैली को काँगड़ा के आरंभिक दौर से इसके चरम तक रूपांतरित कर दिया था। इस अचानक परिवर्तन और प्रयोगात्मक आरंभ ने पहाड़ी केंद्रों से संबद्ध अनेक शैलीगत विकास का सूजन किया और ये ही विभिन्न कलाकार परिवारों द्वारा मुगल शैली के उदाहरणों से पहाड़ी राज्यों को परिचित करने के लिए उत्तरदायी हैं। अचानक इन चित्रों के उद्गम से चाहे वे शासकों, कलाकारों व्यापारियों या ऐसी कोई संस्था या घटना के कारण विकसित हुआ, कलाकार प्रभावित हुए और उनकी चित्रकला की भाषा पर गहरा प्रभाव पड़ा।

वन में राम और सीता, काँगड़ा, 1780, डगलस बैरेट कलेक्शन

अधिकांश विद्वान इस परिकल्पना पर विवाद करते हैं कि इस अचानक परिवर्तन की शुऊुआत मुगल चित्रशाला के प्रवासी कलाकारों से हुई।

गोस्वामी के अनुसार पहाड़ी कलाकारों की चित्रों में नैसर्गिक शैली की मनोहारिता के प्रति संवेदनशीलता जाग्रत हुई।

सादृश्य के आधार पर की गई संरचनाओं में कुछ चित्रों में सुसज्जित हाशिये दिखाई देते हैं। इन चित्रों की विषयवस्तुओं में दैनंदिन अथवा राजाओं के जीवन से संबंधित महत्वपूर्ण समारोह, महिलाकृतियों में नवीनता एवं आदर्श चेहरे का चित्रण आदि सभी कांगड़ा शैली के उद्भव के साथ कालांश में परिपक्व हो गए।

बसोहली शैली

पहाड़ी राज्य का पहला एवं प्रभावकारी कला का उदाहरण बसोहली से मिलता है। सन् 1678 से 1695 तक प्रबुद्ध राजा कृपाल पाल ने इस राज्य पर शासन किया। उनके शासन काल में बसोहली एक विशेष एवं प्रभावशाली शैली के रूप में विकसित हुई। प्रभावी प्राथमिक रंग, उष्ण पीली रंगत लिए पृष्ठभूमि, उच्च क्षितिज रेखा, प्रकृति का शैलीगत दृश्यांकन और उभरे हुए श्वेत रंग का अनुकरण, जो गहनों में मोतियों को प्रदर्शित करता है, ये सब इस शैली की चारित्रिक विशेषताओं को प्रस्तुत करते हैं। बसोहली शैली की सबसे महत्वपूर्ण चारित्रिक विशेषता है- ज़ेवरात को चित्रित करने के लिए छोटे चमकीले हरे कीट-पंखों के अंश का प्रयोग और पन्ना के प्रभाव का अनुकरण। इनके चमकीले रंग और लालित्य ने पश्चिम भारतीय चौरपंचाशिका समूह की चित्रकला के सौंदर्य को साझा किया है।

रासमंजरी, बसोहली, 1720, ब्रिटिश संग्रहालय, लंदन, यू.के. (यूनाइटेड किंगडम)

भानुदत्त की रासमंजरी बसोहली कलाकारों का सबसे प्रचलित विषय था। सन् 1694-95 में तरखान (सुतार चित्रकार) देवीदास ने अपने संरक्षक राजा कृपाल पाल के लिए चित्रों की आलीशान भृंखला बनाई। भागवत पुराण और रागमाला चित्रकला के अन्य प्रसिद्ध विषय रहे। कलाकारों ने स्थानीय राजाओं के छवि चित्रणों के साथ-साथ उनकी पत्नियों, दरबारियों, ज्योतिषियों, वैद्यों, गणिकाओं एवं अन्य लोगों के छवि चित्र बनाए। बसोहली चित्रशाला के कलाकार धीर–धीरे अन्य पहाड़ी राज्यों, जैसे— चंबा और कुल्लू में चले गए और बसोहली (कलम) शैली को स्थानीय रूपांतर के साथ सृजित किया। सन् 1690 से 1730 की अवधि में चित्रों की एक नवीन शैली ‘गुलेर-काँगड़ा’ के रूप में प्रचलित हुई। इस समयकाल में कलाकारों ने प्रयोगशीलता और तात्कालिक प्रदर्शन में आसक्त होकर, अंततः काँगड़ा शैली का विकास किया।

राम अपनी संपत्ति दान देते हुए, अयोध्या कांड, शांगरी रामायण, 1690-1700, लॉस एंजिल्स काउंटी कला संग्रहालय, संयुक्त राज्य अमरीका

अतः बसोहली से प्रारंभ होकर यह शैली धीरे-धीरे अन्य पहाड़ी राज्यों — मनकोट, नूरुर, कुल्लू, मंडी, बिलासपुर, चंबा, गुलेर और काँगड़ा में प्रसारित हुई।

संस्कृत महाकाव्य रामायण बसोहली के साथ-साथ कुल्लू के कलाकारों का भी पसंदीदा विषय था। यह शृंखला ‘शांगरी’ नाम से जानी जाती है जो कुल्लू के राजकीय परिवार के निवास की एक शाखा थी जो इस भृंखला के संरक्षक एवं प्रारंभ में इसके स्वामी थे। कुल्लू के कलाकारों के ये चित्र बसोहली एवं बिलासपुर शैली के अलग-अलग अंदाजज से प्रभावित हुए।

शांगरी रामायण के अयोध्या कांड पर आधारित एक चित्र में राम अपनी भार्या सीता और भ्राता लक्ष्मण के साथ वनवास जाने के लिए अयोध्या छोड़ने की तैयारी करते हैं। राम धैर्य के साथ अपने अधिकार की सभी वस्तुएँ देने में लिप्त हैं। राम के अनुरोध पर भ्राता लक्ष्मण अपनी वस्तुओं को उतार रहे हैं और लोगों की भीड़ अपने दानशील प्रिय राम के अमूल्य ज़ेवरों, हज़ारों गायों और अन्य ज़ेवरात को ग्रहण करने के लिए एकत्रित हो रही है।

ऋषि विश्वामित्र का अनुसरण करते हुए राम और लक्ष्मण जंगल की ओर जाते हुए, बाल कांड, शांगरी रामायण, 1680-88 राजा रघबीर सिंह संग्रह, शांगरी, कुल्लू घाटी, भारत

चित्र के बायें तरफ दो राजकुमार, सीता के साथ कालीन पर खड़े चित्रित किए गए हैं, जहाँ दान लेने के लिए भीड़ उनकी ओर-बढ़ रही है। कलाकार ने बहुत सावधानीपूर्वक अलग-अलग व्यक्तियों—बैरागियों, ब्राह्लणों, दरबारियों, सामान्य व्यक्तियों एवं राजकीय पारिवारिक सेवकों को चित्र में प्रस्तुत किया है। गलीचे पर सोने के सिक्कों के ढेर और वस्त्राभूषण विपुल मात्रा में प्रदर्शित किए गए हैं। गायें एवं बछड़ें अवसर को समझ नहीं पा रहे हैं, उनकी निगाहें स्थिर और गर्दन ऊँची है तथा मुँह खुले हुए हैं। परिस्थिति की गंभीरता विभिन्न भाव-भंगिमाओं से प्रदर्शित होती है- राम की शांत परंतु मृद मुस्कुराहट, आतुर भाव लिए लक्ष्मण, आशंकित सीता और ब्राह्मण जो भिक्षा पाने की इच्छा रखते हैं, किंतु प्रसन्न नहीं हैं और अन्य लोग अविश्वसनीयता और कृतज्ञता के भाव लिए दिखाए गए हैं। उत्कृष्ट प्रभाव प्रदर्शित करने की आनंदानुभूति के साथ कलाकार ने राम द्वारा पकड़े पारदर्शी वस्त्र, ब्राह्मणों की दाढ़ी एवं तिलक, गहने तथा शस्त्रों का रमणीय अंकन किया है।

इसी शृंखला का एक अन्य चित्र जिसमें राम एवं लक्ष्मण गुरू विश्वामित्र के साथ राक्षसों, जो तपस्वियों की तपस्या एवं धार्मिक अनुष्ठानों में हस्तक्षेप कर बाधाएँ उत्पन्न करते हैं, के नाश के लिए वन की तरफ जा रहे हैं। इस चित्र का एक रोचक तथ्य है कि कलाकार ने भारी शरीर वाले जानवरों को पेड़ों के पीछे छिपकर शिकार खोजते हुए अंकित किया है, पेड़ों के पीछे से उनका आधा शरीर दिखाई दे रहा है। बायीं ओर एक लोमड़ी और दायीं ओर एक शेर का चित्र कलाकार ने बड़ी दक्षता से अंकित किया है जो केवल घने जंगल में छिपे पशुओं को ही प्रदर्शित नहीं करता, बल्कि दो राजकुमारों (राम एवं लक्ष्मण) के अद्भुत साहस के भावनात्मक मूल्यों को भी दर्शाता है। दृश्य में विविध पशुओं का अंकन, कपट वेश में राक्षसों के संभावित रहस्य को शामिल करता है।

गुलेर शैली

अठाहरवीं शताब्दी के आरंभिक दौर में बसोहली शैली में पूर्णतः बदलाव आया। इससे गुलेर-काँगड़ा का दौर प्रारंभ हुआ। काँगड़ा के उच्च शाही परिवार के राजा गोवर्धन चंद (1744-73) के संरक्षण में यह दौर सबसे पहले गुलेर में दिखाई दिया। गुलेर शैली के कलाकार पंडित सिऊ एवं उनके पुत्र मानक और नैनसुख को (1730-40 के दशक में) इस शैली को एक नवीन रूप देने का श्रेय जाता है जो प्रायः ‘पूर्व काँगड़ा’ या ‘गुलेर-काँगड़ा कलम’ के नाम से जानी जाती है। बसोहली की सुस्पष्ट जीवंतता की तुलना में यह अधिक परिष्कृत, सहज और सुंदर शैली है। नैनसुख, जो जसरोटा के राजा बलवंत सिंह के दरबारी चित्रकार थे, को सुस्पष्ट रूप से इस शैली को आकार देने का श्रेय जाता है जबकि मानक, जिन्हें मनकु के नाम से भी जाना जाता है, उन्होंने इस शैली का आरंभ किया था। 1780 में इस शैली का सबसे परिपक्व रूप काँगड़ा में पहुँचा। इस प्रकार काँगड़ा शैली बसोहली की प्रशाखा के रूप में चंबा और कुल्लू में फैल गई।

प्रार्थना में बलवंत सिंह, नैनसुख, 1750 , विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय, लंदन, यू.के. (यूनाइटेड किंगडम)

मानक एवं नैनसुख के पुत्रों एवं प्रपोत्रों ने अनेक केंद्रों में चित्रण कार्य किया और उन्हें इन पहाड़ी चित्रों को परिष्कृत रूप देने का श्रेय जाता है।

सभी पहाड़ी चित्रशैलियों में गुलेर की परंपरा सबसे अधिक लंबे समय तक प्रभावी रही। इसके साक्षात प्रमाण हरिपुर-गुलेर में कलाकार हैं, जो राजा दलीप सिंह (1695-1743) के राज्यकाल में कार्य कर रहे थे। दलीप सिंह और उनके पुत्र बिशन सिंह के छवि चित्र अस्तित्व में हैं जो 1730 के पूर्व के हैं अर्थात् गुलेर-काँगड़ा दौर आरंभ होने के पूर्व के हैं। बिशन सिंह अपने पिता दलीप सिंह के कार्यकाल में ही मृत्यु को प्राप्त हो गए थे, इसलिए उनके छोटे भाई गोवर्धन चंद सिंहासन पर बैठे जो इस चित्रकला शैली के बदलाव के साक्षी बने।

सन् 1730 में चित्रित गीत गोविंद भृंखला मानक की सबसे सुंदर, अद्भुत रचना है जिसमें बसोहली शैली के तत्व भी समाहित हैं, इनमें प्रचुर मात्रा में भौरों के पंखों की झालर का उपयोग किया गया है जो सबसे आकर्षक है।

ऐसा प्रतीत होता है कि नैनसुख ने अपने गृहनगर गुलेर को छोड़ दिया था और जसरोटा चले गए थे। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने आरंभ में मियाँ जोरावर सिंह के लिए काम किया था जिनके पुत्र व उत्तराधिकारी बलवंत सिंह थे, जो उनके मुख्य संरक्षक बने। नैनसुख द्वारा बलवंत सिंह के जीवन पर बनाए मशहूर चित्रों का एक ऐसा दृश्यात्मक अभिलेख है जो उनके जीवन को प्रतिबिंबित करता है। बलवंत सिंह को अलग-अलग गतिविधियों में व्यस्त दिखाया गया है, जैसे— अपने स्नानगॄह में, पूजन करते हुए, इमारत का निरीक्षण करते हुए, शीत ऋतु में कंबल लपेटकर तंबू में बैठे हुए आदि। कलाकार ने अपने संरक्षक को कृतार्थ करने के जुनून में हर संभव अवसर को चित्रित किया है। नैनसुख छवि चित्र बनाने में बहुत प्रतिभाशाली थे, जो बाद में पहाड़ी शैली की मुख्य विशेषता बनी। उनकी रंगपटिका कोमल हलके रंगों की थी जिसमें श्वेत एवं धूसर रंगों का साहसिक विस्तार शामिल था।

गोपियों को गले लगाते कृष्ण, गीत गोविंद, गुलेर, 1760-65, एन. सी. मेहता संग्रह, अहमदाबाद, गुजरात, भारत

मनकू ने भी अपने उत्साही संरक्षक, राजा गोवर्धन चंद और उनके परिवार के अनेक छवि चित्र बनाए। प्रकाश चंद, जो गोवर्धन चंद का उत्तराधिकारी था, उसने अपने पिता की कला के प्रति जुनून को आत्मसात किया और मनकू और नैनसुख के पुत्र कौशल, फत्तू और गोधू उनके दरबारी कलाकार थे।

काँगड़ा शैली

काँगड़ा क्षेत्र में चित्रकला, एक विशिष्ट शासक राजा संसार चंद (1775-1823) के संरक्षण में पल्लवित हुई। ऐसा माना जाता है कि जब गुलेर के राजा प्रकाश चंद आर्थिक तंगी के कारण अपनी चित्रशाला को सहेज नहीं पा रहे थे, तब उनके मुख्य कलाकार मनकू एवं उसके पुत्रों ने काँगड़ा के राजा संसार चंद का आश्रय लिया।

संसार चंद, दस वर्ष की आयु में सिंहासन पर बैठे, इस साम्राज्य की महिमा उनके दादा घमंड चंद द्वारा पुनः स्थापित की गई थी। वे कटोच साम्राज्य के शासकों से संबंध रखते थे, जो इस क्षेत्र में लंबे समय तक राज्य करते रहे। सत्रहवीं शताब्दी में जहाँगीर ने काँगड़ा को अपने अधिकार क्षेत्र में लेकर, उन्हें उसका जागीरदार बना दिया था। मुगल शासन के पतन के बाद, राजा घमंड चंद ने मुख्य अधिकार क्षेत्र को अपने अधीन कर लिया और व्यास नदी के किनारे बसे तीरा सुजानपुर शहर को अपनी राजधानी बनाया और उत्तम स्मारकों का निर्माण किया। उन्होंने कलाकारों के लिए चित्रशाला का रखरखाव भी किया।

राजा संसार चंद ने आसपास के सभी पहाड़ी राज्यों में काँगड़ा के प्रभुत्व को स्थापित किया। उनके संरक्षण में तीरा सुजानपुर एक बहुत उन्नत केंद्र के रूप में उभरा। आरंभिक दौर में ‘काँगड़ा कलम’ के चित्र आलमपुर में विकसित हुए और सबसे परिपक्व चित्र नादौन में चित्रित हुए जहाँ संसार चंद बाद में स्थानांतरित हुए। ये सभी केंद्र व्यास नदी के किनारे बसे थे और आलमपुर, व्यास नदी के साथ कुछ चित्रों में पहचाना जा सकता है। मुख्य काँगड़ा में बहुत थोड़े से चित्र बने, क्योंकि सन् 1786 तक यह राज्य मुगलों के और बाद में सिखों के अधीन रहा।

संसार चंद का पुत्र अनिरूद्ध चंद (1823-31) भी कला का उदार संरक्षक था और कई बार अपने दरबारियों के साथ उसका भी चित्रण किया गया।

कालिया मर्दन, भागवत पुराण, काँगड़ा, 1785 , राष्ट्रीय संग्रहालय, नयी दिल्ली, भारत

अगर देखा जाए तो काँगड़ा शैली सबसे अधिक काव्यात्मक एवं गीतात्मक भारतीय शैली है जो स्थायी सुंदरता और कोमलता के प्रदर्शन में अपनी पहचान बनाती है। महीन रेखा, चटक रंग, अलंकरण में बारीकी और सबसे मुख्य महिला आकृतियों के चेहरे का चित्रण-माथे से नाक तक सीधी रेखाएँ, जो लगभग 1790 में प्रचलन में आईं, काँगड़ा शैली की मुख्य चारित्रिक विशेषताएँ हैं।

भागवत पुराण, गीत गोविंद, नलदमयंति, बिहारी-सतसई, रागमाला और बारहमासा चित्रण के प्रचलित विषय थे। कई अन्य चित्रों में संसार चंद और उनके दरबार का लेखा-जोखा समाहित है। संसार चंद को नदी किनारे बैठे हुए, संगीत सुनते हुए, नृत्य देखते हुए, त्यौहार पर सभापतित्व करते हुए, तंबू की खूंटी बाँधते और तीरंदजी करते हुए, सैनिक अभ्यास आदि करते हुए दिखाया गया है। फत्तू, परखू और खुशलाल आदि काँगड़ा शैली के प्रमुख कलाकार थे।

संसार चंद के राज्यकाल में काँगड़ा शैली के चित्र अन्य पहाड़ी राज्यों की अपेक्षा बहुत प्रखर थे। उन्होंने व्यापक राजनीतिक शक्ति का प्रयोग किया और गुलेर और अन्य क्षेत्र के कलाकारों के साथ एक बड़ी कार्यशाला की मदद करने में सक्षम रहे। काँगड़ा शैली शीघ्र ही तीरा सुजानपुर से, पूर्व में गढ़वाल और पश्चिम में कश्मीर तक फैल गई। 1809 में रणजीत सिंह की मदद से गोरखाओं को भगा दिया गया, हालाँकि संसार चंद ने अपने कलाकारों की चित्रशाला को सहेज कर रखा, परंतु 1785-1805 के बीच हुए उत्कृष्ट कार्य के समानांतर कार्य नहीं हुआ।

भागवत पुराण चित्रों की भृंखला काँगड़ा कलाकारों की सबसे बड़ी उपलब्धि है। ये चित्र उनकी सहज व्यावहारिक और असामान्य मुद्रा में आकृतियों के प्रस्तुतीकरण के लिए उल्लेखनीय हैं जो नाटकीय दृश्यों में स्पष्ट रूप से चित्रित हुए। माना जाता है कि मुख्य कलाकार की अपने हुनर अर्थात् कौशल पर पकड़ थी, जो नैनसुख का वशंज था।

कृष्ण की लीलाओं का अभिनय का चित्र रस पंचध्यायी से लिया गया है, यह भागवत पुराण के पाँच अध्यायों का एक समूह है जो रस के दार्शनिक तत्व को समर्पित है। इसमें हृदयस्पर्शी तरीके से गोपियों के कृष्ण के प्रति प्रेम को प्रस्तुत किया गया है। कृष्ण के अचानक उनके मध्य से अदृश्य हो

गोपियों के साथ होली खेलते कृष्ण, काँगड़ा, 1800, राष्ट्रीय संग्रहालय, नयी दिल्ली, भारत

जाने पर उनके दुख की पराकाष्ठा दिखाई देती है। विलग हुए कृष्ण की खोज में निष्फल होने पर वे निराश हो जाती हैं। वे व्याकुल होकर हिरण, वृक्षों और लताओं को संबोधित करते हुए कृष्ण का पता पूछती हैं, परंतु उन्हें किसी से भी प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता।

कृष्ण के कार्यों को पुनः स्मरण करना, भागवत पुराण, गुलेर-काँगड़ा, भारत, 1780-85, निजी संग्रह

उनका ध्यान कृष्ण की स्मृतियों में डूब जाता है, गोपियाँ उन्हें याद करके उनकी लीलाओं की नकल करती हैं या अभिनय करती हैं। इनमें से कुछ पूतना-वध, यशोदा द्वारा ओखली से बाँधने पर यमला-अर्जुन की मुक्ति, गोवर्धन पर्वत को उंगुली पर उठाकर इंद्र के क्रोध से भारी वर्षा से बृजवासियों की रक्षा, कालिया नाग को वश में करना और कृष्ण की बाँसुरी द्वारा सम्मोहित करना सम्मिलित है। गोपियाँ अलग-अलग पात्रों को चुनकर उनकी दैवीय लीलाओं का अनुकरण करती हैं।

इन पन्नों (फ़ोलियो) में कलाकार ने इन संवेदनशील आकृतियों की उत्कृष्टता को आत्मसात कर चित्रित किया है। सबसे बायीं ओर के मध्य में एक गोपी जो कृष्ण की भूमिका अदा कर रही है, आगे झुकी हुई दूसरी गोपी के वक्ष को चूस रही है, जो पूतना की भूमिका अदा कर रही है और अपना हाथ सिर पर ले जाकर यह दर्शा रही है कि उसकी सांसे उखड़ कर वह मर जाएगी। उसके आगे एक दूसरी गोपी जो यशोदा का पात्र अदा कर रही है, राक्षसनी पूतना को मारने के साहसिक प्रदर्शन के बाद, अन्य गोपियों के साथ अपने वस्त्र को पकड़कर बुरी नज़रों से छुड़ाने की भाव भंगिमा में है।

इस समूह के अतिरिक्त दायीं ओर एक गोपी ओखली बनी है, जो कृष्ण का पात्र अदा करने वाली दूसरी गोपी के साथ कपड़े से बंधी है, जबकि उनकी माँ हाथ में छड़ी लिए उलाहना भर रही है। इसके पास वाले समूह में एक गोपी सिर पर साफा बांधे, अपनी ओढ़नी को नुकीले आकार में ऐसे ऊपर उठाए है जैसे गोवर्धन पर्वत, जबकि अन्य उसके नीचे सुरक्षा माँग रहे हैं। चित्र में सबसे बायीं और नीचे एक गोपी बाँसुरी बजाते कृष्ण बनी है जिसके प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ गोपियाँ नाच-गा रही हैं और अन्य आगे रेंगते हुए उनकी तरफ बढ़ रही हैं। एक अन्य गोपी अपनी नाराज़ सास से अपने आपको छुड़ाती हुई दिख रही है, जो उसे खींचकर वहाँ जाने से रोक रही है। दायीं ओर नीचे सबसे आलीशान दृश्य है, जिसमें सुनहरी किनार वाले नीले रंग के घुमावदार कपड़े से कई सिर वाले कालिया नाग का रूप ज़मीन पर बनाया गया है और जिस पर गोपी कृष्ण की तरह नृत्य कर रही है।

अभिसारिका नायिका, काँगड़ा, 1810-20,सरकारी संग्रहालय और कला दीर्घा, चंडीगढ़, भारत

अष्ट नायिका या आठ नायिका चित्रण पहाड़ी शैली का मुख्य विषय रहा है

जिसमें नारी की अलग-अलग प्रवृत्ति और भावपूर्ण चित्रण को समाहित किया गया है। इनमें से कुछ इस प्रकार हैंउतका, वह जो अपने प्रिय के आगमन की संभावना में धैर्य से प्रतिक्षारत है; स्वाधीनभर्तका, वह जिसका पति उसकी चाह जैसा है; वासकसज्जा, वह जो समुद्र यात्रा से वापस आए अपने प्रिय का इंतजार कर रही है और उसके स्वागत में फूलों की सेज सजा रही है; कलहांतरिता, वह जो अपने प्रिय के चाहने पर विरोध करती है और बाद में उसके देर से आने पर पश्चाताप करती है।

जब भी अष्ट नायिकाओं का उल्लेख होता है, कवियों और कलाकारों की सबसे अधिक पसंदीदा अभिसारिका को एक विशिष्ट स्थान मिलता है। अभिसारिका, वह जो सारी विपत्तियों को पार कर अपने प्रिय से मिलने दौड़ कर चली जाती है। इनमें परिस्थिति की कल्पनाएँ प्रायः बहुत विचित्र हैं और जुनून के साथ नाटकीय संभावनाएँ तथा प्रकृति के विपरीत तत्वों के विरुद्ध नायिका की दृढ़ता है।

इस चित्र में सखी ये बताती है कि नायिका किस तरह रात में जंगल पार करके अपने प्रिय से मिलने जाती है। कवि कहता है योग, लक्ष्य प्राप्ति के ध्येय के कारण ही नायिका रात्रि में घने जंगल में निकलती है।

ज्येष्ठ के महीने में एक जोड़ा, काँगाड़ा, 1800, राष्ट्रीय संग्रहालय, नयी दिल्ली, भारत

विस्तृत रूप में अभिसारिका की प्रतिमा एक जैसी ही रही परंतु कई बार कलाकारों ने कुछ भिन्नता के साथ प्रस्तुति की। प्रायः भूत-प्रेत जो सामान्यतः अनेक दृश्यों में दिखाई देते हैं, वे इनमें नहीं दिखते हैं। परंतु रात्रि का गहन अंधकार, बादलों में बिजली की चमक, सर्पों का रात के अंधेरे में फुँकारना, खोखले वृक्षों से अचानक बाहर आना, जेवररातों का गिरना आदि सभी चित्रित किया गया है।

बारहमासा चित्रों में 12 पन्ने (फ़ोलिया) चित्रित हैं जिनमें प्रेम के अलग-अलग भाव समाहित हैं और साल के प्रत्येक माह के प्रतीक हैं, उन्नीसवीं शताब्दी में यह विषय पहाड़ों में बहुत लोकप्रिय रहा।

कवित्रिया के दसवें अध्याय में, केशवदास द्वारा बारहमासा का उल्लेख किया गया है। इसमें उन्होंने सबसे गर्म माह ज्येष्ठ, जो मई-जून में पड़ता है, का वर्णन किया है। कलाकार ने भी कवि द्वारा वर्णित सादृश्य को चित्रित करने में अत्यधिक आनंद का अनुभव किया है।

सन् 1780 में काँगड़ा शैली उस समय प्रकाश में आई जब बसोहली शैली की शाखाएँ उभरकर अपनी कुछ चारित्रिक विशेषताओं के साथ चंबा, कुल्लू, नूरपुर, मनकोट, जसरोटा, मंडी, बिलासपुर, जम्मू और अन्य केंद्रों पर निरंतर प्रवाहित हो रही थीं। कश्मीर में (1846-85) काँगड़ा शैली एक स्थानीय शैली ‘हिंदू पुस्तक सजावट’ के रूप में प्रकाशित हुई। फलत: सिखों ने काँगड़ा कलाकारों को रोज़गार प्रदान किया।

पहाड़ी शैली के संदर्भ में, कोई उसके प्रत्येक केंद्र में चित्रण की कोई एक या अनेक नियमबद्ध चारित्रिक विशेषता को प्राप्त नहीं कर सकता। इसे मोटे तौर पर तीन शैलियों में विभाजित किया गया है— बसोहली, गुलेर और काँगड़ा। विद्वान इसके विषय में अलग-अलग मत रखते हैं। तथापि ये सूचक केंद्र हैं जहाँ से ये शैलियाँ अन्य स्थानों पर पहुँची। इसीलिए, जसरोटा में गुलेर शैली पहचानी गई, जो गुलेर शैली के अंतर्गत जसरोटा केंद्र के रूप में श्रेणीबद्ध हुई। संक्षिप्त में इन अन्य केंद्रों का उल्लेख हुआ है, जहाँ सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में बसोहली शैली में चंबा के शासकों के छवि चित्र मिलते हैं।

कुल्लू शैली नुकीली ठोड़ी, बड़ी-बड़ी आँखे, धूसर रंग का प्रचुर प्रयोग, टेराकोटा-लाल रंग की पृष्ठभूमि आदि विशेषताओं के साथ उत्पन्न हुई। सत्रहवों शताब्दी के अंतिम चोथाई चरण में शांगरी रामायण एक बहुत ही प्रसिद्ध संग्रह कुल्लू घाटी में चित्रित हुआ। चित्रों का यह संग्रह आपस में एक-दूसरे से शैलीगत भिन्नता रखता है। इसलिए माना जाता है कि अलग-अलग समूह के कलाकारों ने इन्हें बनाया होगा। यह मत है कि जब बसोहली शैली स्वतः पल्लवित हो रही थी और काँगड़ा शैली के रूप में परिपक्व हो रही थी, नूरुपर के कलाकारों ने काँगड़ा की सुंदर आकृतियों के साथ, बसोहली के चमकीले रंगों को बरकरार रखा।

बसोहली एवं मनकोट के वैवाहिक संबंधों की वजह से कुछ कलाकार बसोहली से मनकोट स्थानांतरित हुए, अतः वैसी ही चित्रण शैली वहाँ भी विकसित हुई। जबकि जसरोटा में संरक्षक बलवंत सिंह थे और शैली, जो दरबारी कलाकार नैनसुख द्वारा बनाए उनके अनेक छविचित्रों के लिए प्रसिद्ध थी, जिसने आरंभिक सादगीपूर्ण बसोहली शैली से नवीन परिष्कृत शैली तक का नेतृत्व किया था। नैनसुख की यह शैली गुलेर-काँगड़ा शैली के नाम से भी जानी जाती है।

मंडी के शासक विष्णु और शिव के अनन्य भक्त थे, इसलिए कृष्ण लीला विषय के अतिरिक्त शैव विषय भी चित्रित हुए। मोलाराम नाम एक कलाकार था जो गढ़वाल शैली से संबद्ध था। उसके हस्ताक्षर किए हुए कई चित्र प्राप्त हुए हैं। यह शैली संसार चंद के दौर की काँगड़ा शैली से प्रभावित थी।

अभ्यास

  1. प्रकृति का चित्रण पहाड़ी लघुचित्रों में हर जगह दिखाई देता है। आपके अनुसार इसके क्या कारण हो सकते थे?
  2. पहाड़ी लघु चित्रकला की प्रमुख शैलियाँ कौन-कौन सी हैं और किन स्थानों पर उनका विस्तार हुआ? वे आपस में एक-दसरे से कैसे भिन्न थे? मानचित्र पर सभी पहाड़ी (हिमालय) शैलियों को अंकित कीजिए।
  3. अपनी पाठ्यपुस्तक से कोई कहानी या कविता चुनकर, पहाड़ी लघुचित्र शैली की किसी भी शैली में चित्रित कीजिए।
  4. निम्नलिखित की समीक्षा कीजिए-

(क) नैनसुख

(ख) बसोहली चित्र

(ग) अष्ट नायिकाएँ

(घ) काँगड़ा कलम

प्रतीक्षारत कृष्ण और संशयशील राधा

कलाकार पंडित सिऊ के दो पुत्र थे— मानक या मनकू और नैनसुख। पहाड़ी शैली को बसोहली शैली के स्तर से काँगड़ा की कुशलता तक पहुँचाने में इन दोनों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उनके पुत्र काँगड़ा के स्वर्णिम युग का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह चित्र गुलेर-काँगड़ा दौर के अंतर्गत आता है जबकि बदलाव के लिए प्रयोगों की शुरुआत पहले ही हो गई थी।

गीत गोविंद मनकू का उत्कृष्ट चित्र संग्रह है। जैसा कि पहले उल्लेख हुआ है कि जयदेव द्वारा रचित या संयोजित गीत गोविंद का आरंभ यमुना नदी के किनारे राधा-कृष्ण की प्रेम लीला के वर्णन से होता है। कवि द्वारा वसंत ऋतु का रमणीय विवरण और कृष्ण का अन्य गोपियों के साथ रासलीला का सुंदर वर्णन किया गया है। कृष्ण द्वारा अनदेखी किए जाने पर दिल से दुखी राधा अपनी सखी के साथ कुंज में उदास बैठी है। जहाँ सखी वर्णन करके बता रही है कि कृष्ण कैसे सुंदर गोपियों से घिरे हैं। कुछ समय बाद कृष्ण ग्लानि महसूस करते हैं और राधा को ढूँढ़ते हैं, परंतु वह उन्हें नहीं मिलती, वह उनके लिए विलाप करते हैं। तब संदेशवाहक गोपी राधा के पास जाती है और उनके लिए कृष्ण की उत्कंठा व्यक्त करती है। अंततः राधा उनसे मिलने के लिए तैयार हो जाती हैं और यही आध्यात्मिक एकात्म का प्रवाह है। दार्शनिक स्तर पर यह एक नाटक है जिसमें पात्र दैवीय हैं- जहाँ राधा एक भक्त या आत्मा है और कृष्ण परमात्मा, जिनमें वह डूब जाती है। यहाँ प्रेमलीला मानवीय है।

इस चित्र में राधा शर्माते हुए दिखाई दे रही हैं और वे झाड़ियों में जाने से संकोच कर रही हैं जबकि कृष्ण बेसब्री से इंतजजार कर रहे हैं।

कलाकार की कल्पना का स्रोत चित्र के पीछे वर्णित किया गया है, जिसका अनुवाद इस प्रकार है-

“राधा! सखियाँ तुम्हारे प्रेम-युद्ध में तुम्हारी आत्मा के अभिप्राय को समझ गई हैं। अब तुम संकोच छोड़ दो, अपने कटिसूत्र को खुशी से खनखनाने दो और अपने प्रेमी से मिलने के लिए आगे बढ़ो। राधा! अपनी प्रिय दासियों के साथ आगे बढ़ो; उंगलियों से अपनी सखी का हाथ थाम लो। अपने प्रेमी से प्रणय के लिए, अपनी चूड़ियों को खनकने दो और अपना मार्ग तय करो|”

जयदेव के ये सुंदर गीत कृष्ण के श्रद्धालुओं के होठों पर सदैव रहे होंगे।

अंततः राधा अपनी सखियों का आग्रह स्वीकार कर लेती हैं। जयदेव इसे इस तरह से वर्णित करते हैं-

“तब वह और देर नहीं करती, सीधे प्रवेश करती है, उनके पग थोड़े धीमे पड़ रहे हैं किंतु उनका चेहरा अकथनीय प्रेम को दर्शा रहा है, उनकी चूड़ियों का संगीत प्रवेश हुआ, लज्जा जो उनकी झुकी हुई नज़रों पर थी, अब ओझल हो गई…"

बलवंत सिंह नैनसुख के साथ एक चित्र देखते हुए

चित्र में जसरोटा के राजकुमार बलवंत सिंह को बड़े जतन से चित्र को देखते हुए दर्शाया गया है, जिसे उन्होंने अपने हाथों में पकड़ा है। एक व्यक्ति सिर झुकाए हुए शिष्टतापूर्वक खड़ा है, वह अन्य कोई नहीं, कलाकार नैनसुख है। यह चित्र शायद ऐसा बिरला चित्र है जिसमें नैनसुख ने अपने आपको अपने संरक्षक के साथ चित्रित किया है।

बलवंत सिंह अपने महल में बैठे हैं, हरे-भरे वृक्षों से परिपूर्ण दृश्य की अनदेखी कर रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि संध्या का समय है और नैनसुख का व्यवस्थित संयोजन अपने आप में वैराग्य, शांति और स्थिरता को प्रदर्शित करता है जो बलवंत सिंह के स्वभाव को चित्र में दर्शाते हैं। वे हुक्का पी रहे हैं जो सामान्यतः कार्य की व्यस्तता के बीच कुछ पलों के विश्राम के लिए करते थे। संगीतज्ञों को बड़ी निपुणता से चित्र में किनारे पर चित्रित किया गया है जो उनकी उपस्थिति को दर्शाता है। चित्र में उनकी स्थिति ऐसी प्रतीत होती है कि संगीत की प्रस्तुति ध्यानाकर्षण के लिए नहीं, बल्कि नैपथ्य में हलकी धुन के लिए है, जिससे माहौल शांत हो रहा है। साथ-ही-साथ बलवंत सिंह कृष्ण को दर्शाते चित्र की बारीकियों में तल्लीन हैं।

नंद, यशोदा और कृष्ण

यह चित्र भी भागवत पुराण के एक दृश्य को दृष्टांत करता है जिसमें नंद अपने परिवार और रिश्तेदारों के साथ वृंदावन की और यात्रा करते हुए अंकित किए गए हैं। उन्होंने देखा कि गोकुल राक्षसों से पीड़ित है, जो कृष्ण को अत्यंत परेशान करने में जुटे हुए हैं, इसलिए उन्होंने सुरक्षित स्थान पर जाने का निर्णय लिया। चित्र में नंद बैलगाड़ी पर बैठे, समूह का नेतृत्व कर रहे हैं और उनके पीछे आ रही बैलगाड़ी में दोनों भाई- कृष्ण एवं बलराम, अपनी माताओं- यशोदा एवं रोहिणी के साथ बैठे हैं। स्त्री एवं पुरुष अपने साथ गृहस्थी का सामान और बच्चों को लेकर साथ में चल रहे हैं। उनके भावों और गतिविधियों का अंकन बहुत बारीकी से किया गया है। आपस में बातचीत करते हुए उनके सिर का एक ओर झुकना, सिर पर रखे भार से झुकी हुई आँखों से थकान के भाव को प्रदर्शित करना और सिर पर रखे बरतन को खीचें हुए हाथों से कस कर पकड़ना आदि अद्भुत निरीक्षण एवं उत्कृष्ट कौशल के उदाहरण हैं।

जैसे कि इस अध्याय के आरंभ में उल्लेख किया गया है कि काँगड़ा (कलाकार) चित्रकारों ने प्राकृतिक दृश्यों का बहुत बारीकी से निरीक्षण किया है और स्वाभाविक तरीके से प्रदर्शित किया है। बारीकियों को अर्थपूर्ण तरीके से अभिव्यक्त किया गया है। छायाचित्रों सी समानता जो चित्र को यथार्थता प्रदान करती है, वह भी हम इस संयोजन में देख सकते हैं।




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