अध्याय 04 दक्कनी चित्रकला शैली

दक्कनी चित्रकला के इतिहास को सोलहवीं शताब्दी के अंत से सत्रहवीं शताब्दी के अंत तक देखा जा सकता है- जब मुगलों ने दक्कन पर आधिपत्य स्थापित किया। (इस शैली का प्रभाव उन्नीसवीं शताब्दी के असफिया राजवंश के चित्रकला से लेकर प्रांतीय राज्य के राजाओं और नवाबों तथा हैदराबाद के निज़ाम के अधीनस्थ कई शासकों के काल में देखने को मिलता है।) दक्कनी चित्रकला शैली को लंबे समय तक ‘इंडो पर्शियन शैली’ समझा जाता था। इसके उद्गम का आधार मध्य पूर्वी सफ़ाविद, फ़ारसी, तुर्की चित्रकला शैली या मुगल चित्रकला शैली को माना जाता है।

कला इतिहासकारों ने दक्कनी चित्रकला शैली को एक विशिष्ट चित्रकला शैली मानते हुए भी एक स्वतंत्र चित्रकला शैली के तौर पर इसके अस्तित्व को नहीं स्वीकारा। जबकि इस चित्रकला शैली को दक्कन के कई राजाओं का संरक्षण प्राप्त हुआ जिनकी प्रखर राजनैतिक व सांस्कृतिक दृष्टि थी। इन राजाओं ने चित्रकारों को बहाल किया, संरक्षण प्रदान किया और उनकी कलात्मक संवेदनशीलता में वृद्धि करते हुए अपनी शासकीय आवश्यकताओं के अनुरूप चित्रण करवाया।

मानवाकृति का चित्रण और ऐतिहासिक व धार्मिक आकृतियों का चित्रांकन इस समय की कई शैलियों में दिखाई पड़ता है। इन अर्थों में मुगल चित्रकला ही सिर्फ़ विशिष्टशैली नहीं थी। इस तरह की कलात्मकता सफ़ाविद और ऑटोमन शैली में भी दिखाई देती है। इस शैली के चित्रण उत्कृष्ट हू-ब-हू चित्र के लिए मशहूर थे। कलात्मक विकास विशेषत: एशियन इस्लामिक कला व मुगल कला में बड़े पैमाने पर दिखाई देता है।

सुल्तान आदिल शाह द्वितीय तंबूरा बजाते हुए, फ़ारिख बेग, बीजापुर, 1595-1600, राष्ट्रीय संग्रहालय, प्राग, चेक गणराज्य

विंध्य पर्वतों से दूर दक्षिणी भारत के पठारी क्षेत्रों में सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में विभिन्न दक्कनी शासकों के अंर्तगत तत्कालीन क्षेत्रीय व सांस्कृतिक विशेषताओं के साथ आकर्षक, सशक्त चित्रकला शैली का विकास हुआ। बीजापुर, गोलकुंडा और अहमदनगर के शासकों ने चित्रकला की अति परिष्कृत विशिष्ट शैली को विकसित किया। इस चित्रकला शैली की अद्भुत रसमयता मधुर रंगों की तीव्रता क्षेत्रीय सौंदर्यबोध से जुड़ी है। चित्रकारों ने घने संयोजन के चित्रों में प्रणय का वातावरण रचा जिसमें सौंदर्य की सहज स्वाभाविक अभिव्यक्ति हुई।

अहमदनगर चित्रकला शैली

दक्कनी चित्रकला के शुरुआती उदाहरण अहमदनगर के हुसैन निज्ञामशाह प्रथम (1553-65) के कविता संग्रह से मिलते हैं। बारह लघु चित्रकारियों में अधिकांश चित्रों में युद्ध दृश्यों का चित्रण बिना किसी कलात्मक विशिष्टता के हुआ है। परंतु वे चित्र जिसमें रानी के विवाह का चित्रण हुआ है, उनमें रंगों की भव्यता, रेखांकन की मधुरता से हमें संतुष्टि की अनुभूति होती है। युवती का चित्रण मालवा और अहमदाबाद के प्राक् मुगल चित्रकला से साम्यता रखते हुए उत्तर भारतीय परंपरा में हुआ है। अहमदनगर के इस चित्रण में युवती की वेशभूषा थोड़े बदलाव के साथ उत्तर भारतीय परंपरा में है। जिसमें उसने चोली पहनी हुई है और उसकी लंबी चोटी है जिसके अंत में फूंदने बँधे हैं। शरीर के इर्द-गिर्द से होते हुए नितंब तक लटकते लंबे दुप्टे का चित्रण दक्षिण भारतीय शैली में है जो लेपाक्षी के भित्ति चित्रों में दिखाई देता है। रंग योजना निश्चित तौर पर उत्तर भारतीय पांडुलिपि चित्रण से भिन्न है जो व्यापक रूप से मुगल चित्रशाला से मेल खाती है। इसमें अधिक तीखी व समृद्ध रंग योजना है। दक्कनी चित्रकला में भी ये विशेषताएँ हैं। ऊँचा उठा हुआ वृताकार क्षितिज और सुनहरे आकाश का चित्रण फ़ारसी प्रभाव प्रदर्शित करता है। हम देख सकते हैं कि सभी दक्कनी राज्यों के परिदृश्य का पूरा चित्रण ही फ़ारसी शैली से प्रभावित है।

तारिफ-ए-हुसैन शाही—सिंहासन पर बैठे राजा, अहमदनगर, 1565-69, भारत इतिहास समशोधक मंडल, पूना

दक्कन की रागमाला चित्रकला भृंखला के चित्रों में नारी चित्रण में वेशभूषा का चित्रण काफी रोचक है। इसमें सोहलवीं शताब्दी के दक्कनी चित्रकला का विकास दिखाई देता है। नारी चित्रण में बालों का जूड़ा लिपाक्षी भित्ति चित्रों की तरह गर्दन पर टिका हुआ है। क्षितिज लुप्त हो गया है, जिसे रंग विहीन उदासीन पृष्ठभूमि में छोटे-छोटे पौधों के चित्रण या विथिका के ऊपर दक्कनी शैली जैसे गुंबदाकार वस्तु के अंकन से विस्थापित किया गया है। बालों को बनाने की शैली के अलावा अन्य सभी विशिष्टताओं में उत्तर भारतीय या फ़ारसी शैली के चिह्न मिलते हैं। पुरुषों की वेशभूषा भी निश्चित रूप में उत्तर भारतीय है। लंबी नुकीली चाक वाला जामा प्राक् अकबरी लघु चित्रकारी में काफी दिखाई देता है। ये चित्र संभवतः दिल्ली-अहमदाबाद के बीच के क्षेत्र में बने हैं। छोटी पगड़ी का चित्रण भी प्रारंभिक अकबरी लघु चित्रकारी के प्रभाव में है जो 1567 की ‘गुलिस्ताँ’ के चित्रों में दिखाई देता है। गुलिस्ताँ के इन चित्रों को बुखारा के चित्रकारों ने चित्रित किया है। तथ्यात्मक रूप से यह भी संभावना है कि इन चित्रकारों ने दक्कनी चित्रकला के लिए भी काम किया। इसका संदर्भ या प्रमाण बांकीपुर लाइब्रेरी, पटना में संग्रहित एक पांडुलिपि से मिलता है। यह चित्रकार युसुफ द्वारा हस्ताक्षरित (1569) है और इब्राहिम आदिलशाह को समर्पित है। ये संभवतः गोलकुंडा के इब्राहिम कुतुब शाह हैं, जिन्होंने 1550-80 के बीच यहाँ शासन किया। इस पांडुलिपि में सात लघु चित्रकारी हैं जो पूरी तरह उस समय की बुखारा शैली में चित्रित हैं।

बीजापुर वित्रकला शैली

सोलहवीं शताब्दी के बीजापुर के चित्रों में 1570 ई. का चित्रित विश्वकोश नुजूम-अल-उलूम महत्वपूर्ण है। इसके 876 लघु चित्रकारियों में कई चित्र पात्र (बरतन), अस्त्र-शस्त्र और नक्षत्र के हैं। इसमें नारियों का चित्रण रागमाला चित्रकला की तरह लंबी और पतली तथा दक्षिण भारतीय वेशभूषा में हुआ है। बीजापुर चित्रकला शैली को अली आदिलशाह प्रथम (1558-80) और उसके अधिकारी इब्राहिम द्वितीय (1580-1627) ने संरक्षण दिया। दोनों कला व साहित्य प्रेमी थे। इब्राहिम द्वितीय भारतीय संगीत के मर्मज्ञ थे और उन्होंने भारतीय संगीत पर नौरस-नामा पुस्तक लिखी। यह नुजूम-अल-उलूम के भी लेखक थे। उनके आधिपत्य में ही संभवतः 1590 ई. में रागमाला भृंखला प्रमाणित हुई। बीजापुर का तुर्की से संबंध उस शृंखला के अंतरिक्ष संबंधी चित्रों के चित्रांकन में दिखता है। ये चित्र तुर्की पांडुलिपि से काफी प्रभावित हैं। रागमाला के आध्यात्मिक व भावपक्ष (अंतरात्मा) से संबंधित चित्र भारतीय प्रभाव में हैं, जिनमें लेपाक्षी शैली की झलक दिखाई देती है। ये आदिल शाह के दरबार के सुरुचिपूर्ण चित्रों में समृद्ध तीखे रंग, वेगपूर्ण रेखाएँ और सहज संयोजन सौंदर्यबोध का अनुकरण करते हैं। समृद्धि का सिंहासन सात खंडों का प्रतीकात्मक खाका है। प्रत्येक खाके में इनके निवासी हाथी और शेर से लेकर खजूर के वृक्ष, तोते व आदिवासी जनजातीय लोग अंकित किए गए हैं। छोटे-छोटे चित्रों की यह चित्र भृंखला गुजरात के घरों के मुख्य दरवाज़ों पर लगे काष्ट उत्कीर्ण पैनलों जैसे दिखते हैं या दक्कन के मंदिरों पर हाथियों की सीढ़ीनुमा चित्रों की याद दिलाते हैं। इस पृष्ठ की रंग योजना पूरी तरह इस्लामिक फ़ारसी शैली में है, विशेष रूप से सिंहासन के ऊपरी हिस्से में पेड़-पौधों का चित्रण गहरी नीली पृष्ठभूमि के विरुद्ध दक्कनी शैली में चित्रित फूल-पत्तियों से घिरा है। सिंहासन के दोनों ओर पेड़-पौधों का ये रूढ़िबद्ध चित्रण सोलहवीं शताब्दी के गुजराती पांडुलिपि चित्रों के हाशिये के चित्रण से मिलता-जुलता है। इस प्रकार इस चित्र में सशक्त भारतीय दृश्य चित्रण परंपरा मौजूद है जो इस लघु चित्रकला को संरचित करती है।

नुजूम अल-उलूम—समृद्धि का सिंहासन, बीजापुर, 1570 चेस्टर बीट्टी लाइब्रेरी, डबलिन, आयरलैंड

चित्रकला की एक अन्य विषयवस्तु योगिनी है। योगिनी अर्थात् योग में विश्वास करने वाली, शारीरिक व मानसिक रूप से अनुशासित जीवन जीने वाली, आध्यात्मिकता व बौद्धिकता की खोज में अंततः सब कुछ का त्याग कर असाधारण जीवन जीने वाली।

इसे एक अज्ञात चित्रकार ने बनाया है। इसमें उसकी व्यक्तिगत शैली का विकास दिखता है। योगिनी की आकृति के अनुरूप चित्रकार ने लंबवत संयोजन चुना है। चित्र की पृष्ठभुमि में योगिनी की लंबी आकृति के ऊपर दायें कोने में सफ़ेद वस्तु का शंकुवाकार अंकन है। योगिनी मायना चिड़ियों के साथ क्रीड़ारत है। योगिनी के सिर पर बालों का ऊँचा जूड़ा है जो उसे और अधिक लंबा दिखा रहा है। शररर के इर्व-गिर्द वृत्ताकार लहराता लंबा दुपद्टा व अग्रभूमि में चित्रित अति सुंदर फूल, पौधे चित्र को अद्भुत बनाते हैं।

योगिनी, बीजापुर, सत्रहवीं शताब्दी, चेस्टर बीट्टी लाइब्रेरी, डबलिन, आयरलैंड

गोलकुंडा वित्रकला शैली

गोलकुंडा 1512 से एक स्वतंत्र राज्य था और सोलहवीं शताब्दी के अंत तक वह दक्कन राजवंश का सबसे समृद्ध राज्य था। अन्य देशों के साथ सामुद्रिक व्यापार के कारण इसे यह समृद्धि प्राप्त थी। एक तरफ़ पूर्वी तट से दक्षिणी पश्चिमी एशिया लोहा व सूती वस्त्र भेजे जाते थे। फ़ारस (पर्शिया) के साथ विशेष रूप से छपाई किए हुए सूती कपड़े का व्यापार होता था, जो बाद में पश्चिमी यूरोप में काफी लोकप्रिय हुए। सत्रहवों शताब्दी की शुरुआत में यहाँ हीरा पाया गया जिससे व्यापार की स्थिति और अधिक मज़बूत हुई और यह आय का अच्छा स्रोत बन गया। गोलकुंडा के पुरुष स्त्रियों विशेषकर नर्तक-नर्तकियों और अन्य दरबारियों द्वारा पहने जाने वाले आभूषणों में यह समृद्धि दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त, गोलकुंडा चित्रकला ने असाधारण प्रसिद्धि प्राप्त की।

सत्रहवीं शताब्दी में जब डच व्यापारियों द्वारा सुल्तानों की छवियों को यूरोप लेकर जाया गया तब गोलकुंडा कला प्रसिद्ध हुई। ये संभवत: बाज़ार के लिए किया गया था और राजदरबारी चित्रकला के लिए संदर्भित थे। 1635-50 के बीच में, गोलकुंडा चित्रकला से पूर्व ये पट आठ फ़िट ऊँचे और दीवार पर लटकन के तौर पर इस्तेमाल किए गए। ये चित्रण सांकेतिक डिजाइन से आच्छादित हैं, जिसमें आमतौर पर वास्तु संरचनाएँ विभिन्न आकृतियों के चित्र चित्रित होते थे।

अभी तक गोलकुंडा की कला के तहत पहचानी गई शुरू की पाँचों लघु चित्रकारियाँ 1463 के हाफिज के दीवान में पाई गई हैं। ये चित्र दरबार के दृश्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं, इनमें से एक चित्रण में चित्र के बीचों बीच युवा शासक सिंहासन पर बैठा है। वह हाथ में लंबी सीधी ठेठ दक्कनी तलवार पकड़े हुए है। उसने मलमल का कोट पहना हुआ है, जिसमें लंबवत कढ़ाई की हुई पट्टी लगी हुई है। यह गोलकुंडा दरबार की वेशभूषा है। पाँचों चित्रकलाओं में आकाश, वास्तु व बहुत-सी आकृतियों की वेशभूषा के चित्रण में सुनहरे रंग का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। दरबार में नर्तकियों की कलाबाजियों का आनंद लिया जा रहा है। संयोजन में एक जैसे अनुपयोगी वास्तु की एक के ऊपर कई पट्टियों का चित्रण काफी रोचक है। फ़र्श पर आकृतियों से सुसज्जित कालीन बिछा है। चित्र मुगल प्रभाव से बिलकुल अछूते हैं। बैंगनी रंग का उन्मुक्त प्रयोग हुआ है। कुछ भित्ति चित्रों के चित्रण में एक चित्र में नीली लोमड़ियों व सियारों का रोचक चित्रण किया गया है।

मुहम्मद कुली कुतुब शाह के सामने नृत्य प्रस्तुतीकरण, गोलकुंडा, 1590 त्रिटिश संग्रहालय, लंदन, यू.के. (यूनाइटेड किंगडम)

मोहम्मद कुतुब शाह (1611-20) का एक चित्र है, जिसमें वह अपने शासन के शुरुआती काल में दीवान पर बैठे हैं। छोटी चुस्त सूरुचिपूर्ण टोपी के साथ उन्होंने ठेठ गोलकुंडा पोशाक पहनी है। उनकी 1590 वाले चित्रों से काफी साम्यता के बावजूद संयोजन में अधिक तकनीकी दक्षता और परिष्करण दिख रहा है। दरबारियों व दूल्हे के वेशभूषा के चित्रण में प्लास्टिक की परत दिखाई देती है।

सूफी कविता की पांडुलिपि में पद का सचित्र चित्रण है जिसमें पदों की व्याख्या के साथ लगभग 20 लघु चित्रकारियाँ हैं। इसमें सुनहरे रंग का प्रचुर इस्तेमाल किया गया है। नीले और सुनहरे रंग की अलग-अलग पट्टियों से आकाश का विचित्र चित्रण देखा जाता है। जिसमें सुनहरा रंग नीले रंग के नीचे है। दोनों पट्टियों में बादलों का चित्रण है। पुरुष और स्त्रियों की वेशभूषा बीजापुर के इब्राहिम द्वितीय के काल के प्रचलन जैसी है। पेड़-पौधे दक्कनी शैली जैसे हैं। कुछ पौधों को घनी पत्तियों के बीच चित्रित किया गया है। एक अन्य चित्र में छोटी चिड़िया से बातचीत करती स्त्री का चित्रण है जो दक्कनी चित्रकला शैली की एक और अन्य विशेषता है।

एक बगीचे में कवि, मुहम्मद अली, गोलकुंडा, 1605-15, ललित कला संग्रहालय, बोस्टन, संयुक्त राज्य अमरीका

अभ्यास

  1. दक्कनी शैली के योगिनी चित्रकला की क्या विशेषताएँ हैं? क्या आप वर्तमान में इस शैली जैसा काम करने वाले चित्रकार को ढूँढ़ सकते हैं?
  2. दक्कनी चित्रकला शैली की लोकप्रिय विषयवस्तु क्या है?
  3. दक्कनी शैली की अपनी पसंद की किन्हीं दो चित्रकलाओं पर लगभग 100 शब्दों में लिखिए।
  4. दक्कनी चित्रकला शैली मुगल चित्रकला शैली से किस प्रकार भिन्न है? बताइए।
  5. दरबारी दक्कनी चित्रकला का शाही प्रतीक क्या है?
  6. दक्कनी चित्रकला शैली के केंद्रों के बारे में बताइए और उन्हें मानचित्र पर दर्शाइए।

संयोजित घोड़ा

सत्रहवीं शताब्दी की इस चित्रकला में कई आकृतियों व कलात्मक तत्वों का रोचक मिश्रण हुआ है, जिसकी पराकाष्ठा संयोजित घोड़ा के रूप में हुई है। इस चित्रकला के अंदर मानव व पशु-पक्षी की आकृतियों को एक साथ इस तरह से चित्रित किया गया है कि यह असाधारण संयोजन बन गया है। अलंकृत पृष्ठभूमि पर सरपट दौड़ते हुए घोड़े का यह अद्भुत चित्रण है। उड़ते हुए पक्षी, सिंह, चीनी बादल, पौधे व विशाल वृक्षों का रुचिकर संयोजन है, जिनमें अति यथार्थवादी कला तत्वों की झलक मिलती है। एक तरफ सभी आकृतियों को हवा में उड़ते हुए गतिशील दिखाया गया है, दूसरी ओर अग्रभूमि में नीचे के दोनों किनारों पर चट्टानों का चित्रण इसे विलक्षण बनाता है। कल्पनाशीलता का पुट भी इसे विशिष्टता प्रदान करता है। सभी गतिशील क्रियाओं को बहुत सीमित रंग योजना में भूरे और नीले रंग से चित्रित किया गया है।

सुल्तान इबाहिम आदिल शाह द्वितीय हॉकिंग

यह चित्रकला असाधारण ऊर्जा और संवेदना से परिपूर्ण है। घोड़े के पैरों और पूँछ के कोने पर तीखा लाल रंग, सुल्तान इब्राहिम आदिल शाह द्वितीय के लहराते हुए वस्त्र का चित्रण, एक दृश्यात्मक अनुभव प्रदान करता है। पृष्ठभूमि में पत्तियों से भरे घने जंगल में काई रंग, पन्ना हरा रंग, नीला रंग, हरे रंग की पत्तियों, संभोगरत पक्षी का जोड़ा, नीले आकाश व सुनहरे सूर्य की किरणों से चमकता संयोजन अति आकर्षक है। सबसे अद्भुत बीच में चमकता सफ़ेद बाज़ और सुल्तान का तराशा हुआ चेहरा है। घोड़े और चट्टानों के चित्रण में फ़ारसी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। अग्रभूमि में पेड़-पौधों और घना परिदृश्य देशी प्रभाव प्रदर्शित करता है। दौड़ते घोड़े की गति संपूर्ण चित्र को ऊर्जावान और परिदृश्य को मनोहरी, सुरम्य बनाती है। यह चित्रकला इंस्टीट्यूट ऑफ़ द पीपल्स ऑफ़ एशिया, लेनिनग्राद, रूस में संग्रहित है।

राग हिंडोल की रागिनी पथमासिका

राष्ट्रीय संग्रहालय, नयी दिल्ली में राग हिंडोला की रागिनी पथमासिका शीर्षक की एक दिलचस्प चित्रकला संग्रहित है। यह भारतीय संगीत विधा के रागमाला परिवार का एक महत्वपूर्ण भाग है जो कि लगभग 1590-95 के समय के पूर्व का है। कुछ अध्येताओं का विश्वास है कि यह दक्कन के एक महत्वपूर्ण राज्य, बीजापुर से संबंधित है। लगभग मुगल चित्रकला शैली के विकास के साथ-साथ ही दक्कनी राज्यों में चित्रकला का एक अत्यधिक कला रूप विकिसत हुआ। चित्रकला में फ़ारसी प्रभाव स्पष्ट है। यह प्रभाव दो गुंबदों पर बेलबूटे के काम से सुसज्जित पृष्ठभूमि पर दिखाई देता है, जो कि चित्रकला के ऊपरी भाग को चित्रित करता है। इस चित्रकला में दोनों गुंबदों के ऊपर की गई सुसज्जा में फ़ारसी चित्रकला का प्रभाव दिखाई देता है। गुंबदों का ऊपरी भाग चित्र को विभाजित करता है जहाँ खाली स्थान पर देवनागरी लिपि में लिखा गया है। मंडप में दो महिलाएँ खूबसूरती से सजे और आभूषण पहने हुए दिखाई दे रही हैं, जबकि तीसरी इसके बाहर दिखाई दे रही है। केंद्र में बैठी महिला वादक एक भारतीय वाद्य यंत्र बजा रही है जो कि वीणा प्रतीत होता है, जबकि पास में अन्य दो महिलाएँ अपने शरीर से लयबद्ध होती प्रतीत होती हैं। इस चित्रकला में चमकीले रंग हैं। लाल रंग प्रमुख है और हरे रंग द्वारा सराहा जाता है। आकृतियों को इस अर्थ में शैलीबद्ध कहा जा सकता है कि चेहरे सहित उनके शरीर का निर्माण लगभग सूत्रात्मक विवरणों पर किया गया है। गढ़़ रेखा के साथ लगभग सभी रूपों पर ज़ोर दिया गया है। इसे सदियों पहले चित्रित अजंता के भित्ति चित्रों में भी देखा जा सकता है। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि बायें हाथ के कोने में एक हाथी सूँड उठाए हुए है, जो स्वागत का एक मनोहर संकेत है। नाप में छोटा होने के बावजूद, हाथी दृश्य रुचि जाग्रत करता है और स्थापत्य विद्या की संरचना को तोड़ता है।

सुल्तान अब्दुल्ला कुतुब शाह

बीजापुर के सुल्तान अब्दुल्ला का छवि चित्रण राष्ट्रीय संग्रहालय, नयी दिल्ली में संग्रहित है। चित्र के ऊपरी भाग में फ़ारसी अभिलेख है। सुल्तान कुतुब शाह दक्कन के प्रसिद्ध राज्य बीजापुर का समर्थ शासक था। इसने दुनिया के विभिन्न हिस्सों के शासकों व कलाकारों को आकर्षित किया। इसमें वह सिंहासन पर बैठा है और उसने अपने हाथ में तलवार थामी हुई है जो उसके राजनीतिक आधिपत्य का प्रतीक है। इसके अलावा उसके सिर के चारों ओर देवत्व का प्रभामंडल दिखाई देता है।

हज़रत निज़ामुहीन औलिया और अमीर खुतसरो

राष्ट्रीय संग्रहालय, नयी दिल्ली में संग्रहित यह प्रांतीय (प्रोवेंशियल) चित्र हैदराबाद, दक्कन का है। यह तेरहवीं शताब्दी के पूर्वतीय सूफी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया को दर्शाता है। इस चित्र में वह अपने शिष्य तथा प्रसिद्ध कवि और विद्वान हजजरत अमीर खुसरो का संगीत सुन रहे हैं। इन दिनों नयी दिल्ली हज़रत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर खुसरो द्वारा अपने पीर की प्रशंसा में कव्वाली आयोजित की जाती है। इस नियमित सांस्कृतिक कार्यक्रम का आनंद लेने के लिए दुनिया भर से श्रद्धालु यहाँ आते हैं। हैदाबाद के दरबार से लिया गया यह चित्र बगैर किसी तकनीकी व कलात्मक परिष्करण के अति सरल चित्र है। इसके बावजूद इसमें भारतीय लोकप्रिय विषय का विवरणात्मक और आर्कषक चित्रण है।

पोलो खेलते हुए चाँद बीबी

यह चित्रकला सर्वाधिक समृद्ध और सांस्कृतिक रूप से परिष्कृत, दक्कन राज्य के बीजापुर की रानी, चाँद बीबी का है। चाँद बीबी ने सम्राट अकबर द्वारा राज्य पर अधिकार करने के राजनीतिक प्रयासों का विरोध किया था। सम्माननीय और निपुण शासक चाँद बीबी बड़ी खिलाड़ी भी थीं। इस चित्रण में वह चौगान खेलते हुए दिखाई गई हैं। यह उस समय का लोकप्रिय शाही खेल है। यह चित्र बहुत बाद की अवधि की प्रांतीय शैली का है और यह राष्ट्रीय संग्रहालय, नयी दिल्ली में संग्रहित है।



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