अध्याय 03 मुगलकालीन लघु चित्रकला

मुगल चित्रकला, लघु चित्रकला शैली है, जो सोलहवों शताब्दी और उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक भारतीय उपमहाद्वीप में विकसित हुई। यह चिर्रकला परिष्कृत तकनीक और विषयवस्तु की विविधता के लिए जानी जाती है। मुगल चित्रकला ने कई परवर्ती चित्रकला शैलियों व भारतीय चित्रकला ैैलियों को प्रेरित किया जिसके कारण भारतीय चित्रकला में मुगल चित्रकला शैली का एक विशिष्ट स्थान है।

मुगल शासक विभिन्न कलारूपों के संरक्षक थे। प्रत्येक मुगल उत्तराधिकारी ने अपनी रुचि व पसंद के आधार पर सुलेखन चित्रकला, वास्तुकला, किताब बनाना, पुस्तकें चित्रित करना आदि के विकास में अपना योगदान दिया। उन्होंने कलाकारों की चित्रशाला (एटेलियर) में गहरी रुचि ली तथा अभूतपूर्व नयी शैली का पालन-पोषण कर तत्कालीन कला परिदृश्य को गतिशीलता प्रदान की और उसे नई ऊँचाई पर ले गए। अतः मुगलकालीन चित्रकला को समझने के लिए प्राय: मुगलकालीन राजनीति एवं वंशावली को ध्यान में रखा जाता है।

मुगल वित्रकला पर विभिन्न प्रभाव

मुगल लघु चित्रकला में देशीय विषयवस्तु और चित्रकला शैली, फ़ारसी शैली व उसके बाद यूरोपीय शैली का सम्मिश्रण रहा है। इस काल की कलाओं में देशी व विदेशी प्रभावों के घुलने-मिलने की झलक दिखाई देती है। मुगल चित्रकला शैली अपने चरम पर इस्लामिक, भारतीय व यूरोपियन दृश्य संस्कृति और सौंदर्य के अति परिष्कृत मिश्रित रूप को प्रस्तुत करती है। मिश्रित शैली वाले चित्रों को देखते हुए उस काल में निर्मित कलाकृतियों का यह समृद्ध खजाना पहले से चली आ रही उस काल की पारंपरिक मूल भारतीय व ईगानी शैली से काफी अधिक विकसित था। इस शैली का महत्व इसके संरक्षकों के उद्देश्य, प्रयास व इसके कलाकारों की बेजोड़ क्षमता में निहित है। यह अद्वितीय चित्रकला शैली कलाकारों व कला संरक्षकों दोनों के दार्शनिक विचार, अभिरुचियों, विश्वास और सौंदर्यबोध की कलात्मक अभिव्यक्ति है।

मुगल दरबार में कला अधिक औपचारिक हो गई, क्योंकि वहाँ कार्यशालाएँ थीं। कार्यशाला में ईरान से बुलाए गए चित्रकार भी शामिल होते थे, जिसके परिणामस्वरूप विशेष रूप से अपने आरंभिक वर्षों के दौरान मुगल चिक्रकला शैलियों में भारतीय व ईरानी चित्रकला ैैलियों का अति सुंदर सामंजस्यपूर्ण मिश्रण हुआ। मुगलकालीन चित्रकला की श्रेष्ठता भारतीय और ईरानी दोनों मूल के चित्रकारों द्वारा उनकी अलग-अलग चित्रकला शैलियों की विशिष्टताओं का विवेकपूर्ण मिलान करने से ही उपलब्ध हो सकी। इन चित्रकारों ने मुगल शैली के निर्माण और उसे कलात्मक शिखर तक पहुँचाने में भरपूर योगदान दिया।

मुगल चित्रशाला में सुलेखक, चित्रकार, जिल्दसाज, मुलमची (सोना फेरेवाले) होते थे। उस समय के महत्वपूर्ण आयोजनों के विवरण, हस्तियाँ और शासक की रुचियाँ चित्रों में दर्ज किए जाते थे। ये चित्र सिर्फ़ शाही परिवार के सदस्यों के देखने के लिए होते थे। ये चित्र प्रायः शाही व्यक्तियों की बौद्धिक व मानसिक संवेदनशीलता के अनुकूल चित्रित किए जाते थे। ये चित्र पांडुलिपियों और एल्बम के भाग होते थे।

भारत में कला व चित्रकला की पंपरा की समृद्ध ऐतिहासिक जड़ों के बारे में हम पहले के अध्यायों में पढ़ चुके हैं। भारत के सुप्रसिद्ध मुगल चित्रों के विकास को कई चित्रकला शैलियों के आपसी आदान-प्रदान के संदर्भ में देखा जा सकता है। इनमें प्राक् मुगल शैली, भारतीय व ईरान की कई समकालीन चित्रकला शैलियों का समावेश था। इस प्रकार मुगल चित्रकला शैली का विकास एकाएक नहीं हुआ है। बल्कि उस समय मौज़द विभिन्न कलारूपों व शैलियों के प्रत्यक्ष मेलजोल के कारण यह पल्लवित हुई है। मूल भारतीय व मुगल चित्रकला शैलियाँ एक साथ विद्यमान थीं। दोनों ही चित्रकला शैलियों ने एक-दूसरे को प्रभावित किया और एक साथ घुल-मिल गईं।

भारत में प्राक् मुगल शैली व उसके सामांतर देशीय चित्रकला शैलियों की अपनी विशिष्टताएँ थीं, जिसमें उनका सौंदर्यबोध और उद्देश्य निहित था। मूल भारतीय चित्रला शैली का सपाट परिदृश्य सशक्त रेखांकन, बहुंगी रंगयोजना, आकृति व वास्तु के स्पष्ट प्रतिरूपण पर जोर था। जबकि मुगल शैली सूक्ष्म तकनीक, आकृतियों के त्रिआयामी चित्रण से निर्मित यथार्थवादी (ऑप्टिकल रियलिटी) चित्रण पर केंद्रित थी। शाही दरबार के दृश्य, शाही व्यक्तियों के छवि चित्रण, फूल-पौधों, जीव-जंतु का यथार्थवादी चित्रण मुगल चित्रारों की प्रिय विषयवस्तु थी। इस प्रकार भारत में उस समय मुगल चित्रकला शैली एक तूतन परिक्हृत शैली के रूप में उभरी।

मुगल संरक्षकों ने अपनी विशिष्ट कलात्मक वरीयताओं, विषयवस्तु की रुचि, दार्शनिकता व सौंदर्यबोध गम्य संवेदनशीलता के आधार पर मुगल चित्रकला शैली का विस्तार किया। इस अध्याय में आगे कालक्रमानुसार मुगल चिर्रकला शैली के विकास की चर्चा करेंगे।

प्रारंभिक मुगल वित्रकला

प्रथम मुगल शासक बाबर वर्तमान के उज्बेकिस्तान से 1526 में भारत आया। वह तैमूर और चरघटाई तुर्क का वंशज था। उसने ईरान व मध्य एशिया की संस्कृति और सौंदर्यात्मक संवेदनशीलता का सम्मिश्रण किया था। विभिन्न कलारूपों में बाबर की सक्रिय रुचि थी। उसकी ख्याति एक विद्वान और कला पारखी, पांडुलिपियों व वास्तुकला के उदार संरक्षक आदि के तौर पर थी। उसकी आत्मकथा बाबरनामा में सम्राट की राजनैतिक गतिविधियों व कलात्मक जुनून का विस्तृत विवरण है। बाबरनामा उस त्रेम व आसक्ति को दिखाता है जो एक विदेशी के तौर पर भारत के लिए बाबर के मन में थी। सभी घटनाओं को उत्साहवश विस्तार से लिखने के कारण बाबर ने संस्मरणों को दर्ज करने की परंपरा स्थापित की जिसका भारत में उसके उत्तराधिकारियों ने भी अनुकरण किया। शाही चित्रशाला में रचित पुस्तकें व एल्बम सिर्फ सुलिखित ही नहीं, बल्कि चित्रित भी की गईं। ये बहुमूल्य पुस्तकें संग्रहित की गईं और शाही परिवार के उन सदस्यों को भेंट की गई जो उसके योग्य थे और उनका महत्व समझते थे। छवि चित्रण में बाबर की गहरी रुचि का ज़िक्र उसके संस्मरणों में मिलता है। उसके संस्मरण में चित्रकारों के उल्लेख के बीच बिहज़ाद का ज़िक्र आता है। बिहज़ाद के चित्र सुंदर होते थे पर वह चेहरों का उत्तम चित्रण नहीं करता था, बल्कि दोहरी ठुड्डी वाले चेहरों को काफी लंबा करके दाढ़ी का आकर्षक चित्रण करता था। बिहज़ाद ईरान की चित्रकला शैली का मुख्य चित्रकार था। हेरात (वर्तमान में अफगानिस्तान में स्थित) उत्कृष्ट-संयोजन व आकर्षक रंग छटा के लिए जाना जाता था। चित्रकार के तौर पर शाह मुजफ़्रुर का ज़िक्र भी आता है जिसे बाबर केशसज्जा के आकर्षक चित्रण करने वाला उत्कृष्ट चित्रकार मानता था। हालाँकि बाबर को भारतीय भूमि पर जज्यादा समय रहने का अवसर नहीं मिला और जल्दी ही उसकी मृत्यु हो गई और उसके उत्तराधिकारियों ने भारत को अपनाकर उस पर शासन किया।

तैमूर के दरबार के राजकुमार, अन्द उस समद, $1545-50$ ब्रिटिश संग्रहालय, लंदन

बाबर का पुत्र हुमायूँ 1530 में भारत का शासक नियुक्त हुआ पर दुर्भायववश प्रतिकूल राजनैतिक स्थितियों की वजह से उसके जीवन में काफी उतार-चढ़ाव आए। अफगान शासक शेरखान (शेरशाह) ने उसकी गद्दी छीन ली| हुमायूँ ने पर्शिया (फ़ारसी) के सफ़ाविद दरबार में वहाँ के शासक शाह तहमास की शरण ली। यद्यपि यह घटना उसके राजनैतिक शासन में अगौरवशाली है, परंतु पांडुलिपि व चित्रकला के इतिहास के लिए हुमायूँ का सफ़ाविद दरबार में शरण लेना सौभाग्यपूर्ण था। अपने इसी निर्वासन के दौरान शाह तहमास के दरबार में ही पांडुलिपि चित्रण व लघु चित्रकला शैली की अप्रतिम आकर्षक कला परंपरा से उसका पहली बार साक्षात्कार हुआ था। दरबार के कुशल चित्रकारों द्वारा शाह तहमास के लिए बनाए गए चित्रों को देखकर हुमायूँ काफी प्रसन्न हुआ। शाह तहमास की सहायता से उसने 1545 में काबुल में अपना दरबार स्थापित किया। हुमायूँ ने राजनैतिक व सांस्कृतिक कार्यभारों के साथ आगे बढ़ते हुए उदार और मिलनसार शासक के रूप में अपनी पहचान बनाई। शाही दरबार में होने वाले चित्रण व चित्रकारों से वह काफी प्रभावित था और भारत में भी ऐसी कार्यशाला निर्मित करने की आकांक्षा रखता था। भारत में अपना शासन पुनः स्थापित करते ही उसने वहाँ के मुख्य चित्रकारों को अपने दरबार में बुला लिया। उसने दो फ़ारसी चित्रकार, मीर सैयद अली और अब्द उस समद, को अपने दरबार में स्टूडियो स्थापित करने और शाही चित्र बनाने के लिए आमंत्रित किया। ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये दोनों चित्रकार विशेष रूप से छवि चित्रण के लिए जाने जाते थे और इन्हें विशेष सम्मान प्राप्त था।

तूतीनामा— लड़की और तोता, $1580-85$, चेस्टर बीटी लाइब्रेरी, डबलिन

पुस्तक प्रेमी व विवेकशील हुमायूँ का शासन काल चित्रकला व सुलेख कला के जोरददार संरक्षण के साथ शुरू हुआ। उसके शासन काल से हमें बहुत स्पष्ट चित्रण व लिखित दस्तावेज़ मिलते हैं जो इस तथ्य का प्रमाण देते हैं कि हुमायूँ की कलात्मक संग्रह व शाही चित्रशाला बनाने में गहरी रुचि थी। यह हुमायूँ की कलात्मक अभिरुचि का संकेत देता है। इसके साथ ही उसके कला पारखी व्यक्तित्व की झलक भी दिखाई देती है। उसने ‘निगार खाना’ (चित्रों की कार्यशाला) स्थापित किया, जो उसके पुस्तकालय का हिस्सा था। भारत में उसकी चित्रशालाओं के आकार, प्रकार व चित्रकारों की विस्तृत जानकारी नहीं मिलती है। लेकिन यह तथ्य ज्ञात है कि ‘हम्जानामा’ का चित्रण उसने शुरू करवा दिया था जिसे उसके पुत्र व उत्तराधिकारी अकबर ने जारी रखा।

जब हम मुगल कालीन लघु चित्रकला शैली के शुरुआती दौर के एक असाधारण चित्र प्रिंसेज ऑफ़ द हाउस ऑफ़ तैमूर $(1545-50)$ का अध्ययन करते हैं तो उसके आकार, जटिल संरचना व उसमें ऐतिहासिक छवियों के चित्रण को देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं। यह चित्र सफ़ाविद चित्रकार अब्द उस समद द्वारा कपड़े पर जलीय रंगों से चित्रित किया गया है। शाही परिवार के सम्मानित संग्रह में संरक्षित इस चित्र में आने वाले विभिन्न काल के मुगलवंशियों की मूल छवि चित्रित की गई है। हुमायूँ काल में चित्रित इन चित्रों पर दोबारा बनाए गए अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के चित्रण में छवियाँ काफी समानता लिए हुए मुखर हैं।

खुले परिदृश्य वाले चित्र जिनमें पेड़-पौधे, जीव-जंतु व शाही शादी, मुगल वंश के पूर्वजों का चित्रण किया जाता था, उसका अनुकरण हुमायूँ के बाद भी जारी रहा। हुमायूँ इस प्रकार के चित्रों का संरक्षक था। इन चित्रों का प्रारूप, विषयवस्तु, आकृतियाँ और रंग संयोजन पूरी तरह फ़ारसी शैली में होते थे। इस बिंदु पर हम कह सकते हैं कि इन चित्रों में भारतीय शैली का विशेष प्रभाव नहीं है। पर जल्द ही चित्रों की भाषा बदलनी शुरू होती है और विकसित होती हुई अनूठी मुगल शैली के साथ विशिष्ट शाही अभिरुचि का सामंजस्य होने लगता है।

हुमायूँ द्वारा शुरू की गई चित्रकला की परंपरा और उनके प्रति लगाव को उनके पुत्र अकबर (1556-1605) ने बरकरार रखा। अकबर के दरबार के इतिहासकार अबुल फ़ज़ल ने कला के लिए अकबर के जुनून का उल्लेख किया है। वह बताता है कि सौ से भी अधिक चित्रकार उसकी शाही चित्रशाला में नियुक्त किए गए थे। इसमें उस समय के सर्वाधिक कुशल फ़ारसी और देशी भारतीय चित्रकार शामिल थे। इससे भारतीय और फ़ारसी चित्रकारों का मेलजोल हुआ जिसने एक विशिष्ट कला शैली के विकास में योगदान दिया। इन कलाकारों ने एक साथ मिलकर महत्वाकांक्षी योजनाओं पर काम शुरू किया जिससे दृश्यभाषा और विषयवस्तु को लेकर नये मानक स्थापित हुए। यह माना जाता है कि अकबर को पढ़ने-लिखने में परेशानी होती थी (डिस्लेक्सिया) जिससे पांडुलिपि चिर्रण का महत्व बढ़ गया। उसके संर्षण से पांडुलिपि के अनुवाद और चित्रण की मौलिक परियोजनाएँ पूर्ण की गईं।

ग्वालियर के किले का निरीक्षण करते बाबर, भूरे, बाबरनामा, 1598 , राष्ट्रीय संग्रहालय, नयी दिल्ली

उसकी योजनाओं में सबसे पहला कार्य अपने पिता की कलात्मक विरासत हम्जानामा के चित्रण कार्य को जारी रखना था। हम्जानामा पैगंबर मोहम्मद के चाचा हमजजा के वीरतापूर्ण कामों का चित्रित ग्रंथ है। अकबर को हम्जा की कहानियाँ सुनने में आनंद आता था। हम्जा मध्य पूर्व के देशों के जन सामान्य व बुद्धिजीवियों के बीच लोकत्रिय चरित्र थे जिनकी कहानियाँ व्यावसायिक कथावाचक जोरे से सुनाते थे। हम्जा के विवरण की स्पष्ट झलक के लिए लिखित पन्नों के साथ-साथ चित्र भी चित्रित किए जाते थे। राजा को चित्रांकित विवरण तथा हम्जानामा के पाठ सुनने, दोनों में गहरी रुचि थी। इन चित्रों के विशिष्ट उद्देश्य के कारण इनका आकार बड़ा है। इनकी सतह कागज़ के ऊपर चिपकाए गए कपड़े की बनी है। जिसके ऊपर कथावाचक के लिए विवरणात्मक गद्य लिखा गया है। इसके ऊपर जलीय और अपारदर्शी रंगों की (गाउच) तकनीक इस्तेमाल की गई है।

ऐसा लगता है कि मुगल चित्रकला विभिन्न कलात्मक परंपराओं से प्रेरित कलाकारों का सामूहिक कार्य है। मुगल चित्रकला में आसपास मौजूद प्रकृति से ही फूल-पत्पी, पेड़-पौधों व जीव-जंतु के अंकन की छवि ली गई है। हम्जानामा के चित्रित पन्ने पूरी दुनिया के विभिन्न कला संग्रहों में हैं। यह लिखित हम्जानामा 14 खंड में है। इसके 1400 पन्नों को चित्रित करने में करीब 15 वर्ष लगे थे। इस विशाल योजना की तिथि 1567-82 मानी गई है। यह दो फ़ारसी कुशल चित्रकार मीर सैयद अली और अब्द उस समद के निरीक्षण में चित्रित की गई।

हम्जा के जासूसों का कैमू शहर पर हमला, 1567-82, ए्लाइड आर्ट्रस संग्रहालय, विएना

हम्जानामा के चित्र हम्जा के जासूसों का कैमूर शहर पर हमला में जगह का सावधानीपूर्वक उपयोग किया गया है तथा दृश्यों का स्पष्ट विभाजन किया गया है कि जिससे उसे आसानी से देखा व समझा जा सकता है। इस प्रकार चित्र में बहुत-सी गतिविधियाँ घटित हो रही हैं और तीखे-चटख रंगों का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार चित्र की जीवंतता को दर्शाया गया है जिसमें हम्जा के जासूस कैमूर शहर पर हमला कर रहे हैं। पेड़-पौधों, पत्तियों व अन्य आकार को सशक्त बाह्य रेखांकन से स्पष्ट किया गया है। ज़्यादातर चेहरे पार्श्वकार अंकित किए गए हैं, पर तीन-चौथाई चेहे भी दिखाए गए हैं। फ़र्श, खंभों और बुर्ज पर उत्कृष्ट घने जटिल पैर्टन के अंकन पर फ़ारसी प्रभाव दिखता है। इसी तरह चट्टानों और चौपाया पशुओं के चित्रण पर भी फ़ारसी प्रभाव दिखाई देता है, जबकि वृक्ष, लताएँ और चटख लाल-पीले रंगों की समृद्ध रंग योजना भारतीय है।

अकबर ने सांस्कृतिक एकीकरण के लिए कई हिंदू ग्रंथों का अनुवाद करवाया। उसने कई महत्वपूर्ण संस्कृत ग्रंथों का फ़ारसी भाषा में अनुवाद और चित्रण करवाया। हिंदू महाकाव्य महाभारत का फ़ारसी में अनुवाद और चित्रण भी इसी काल में हुआ जिसे रज़्मनामा के नाम से जाना जाता है। इसका चित्रण 1589 में कुशल चित्रकार दसवंत के निरीक्षण में संपूर्ण हुआ। यह पांडुलिपि खूबसूरत सुलेख में लिपिबद्ध है व इसमें 169 चित्र हैं। इसी समय रामायण का भी अनुवाद व चित्रण हुआ। गोवर्धन और मिस्किन जैसे चित्रकार उनके दरबार के उत्कृष्ट दृश्यांकन के लिए सम्मानित किए गए। एक असाधारण पांडुलिपि अकबरनामा अकबर की व्यक्तिगत व राजनैतिक ज़िंदगी के विस्तृत विवरणों पर आधारित थी और सबसे कीमती योजनाओं में से एक थी।

अकबर स्वयं व्यक्तिगत रूप से चित्रकारों से मिलता-जुलता था और उनके कार्यों का निरीक्षण एवं मूल्यांकन करता था। अकबर के संरक्षण में मुगल चित्रकला में विभिन्न विषयवस्तु का अंकन हुआ जिसमें राजनैतिक विजय, दरबार के मौलिक दृश्य, धर्म निरपेक्ष ग्रंथ, महत्वपूर्ण व्यक्तियों की छवियों के साथ-साथ हिंदू पौराणिक, फ़ारसी व इस्लामिक विषय शामिल थे। भारत के लिए सम्मान व भारतीय शास्त्रों के प्रति अकबर के आकर्षण ने उसे देश का लोकप्रिय शासक बनाया।

अकबर के दरबार में यूरोपवासियों के आवागमन से उस समय के चित्रों में वास्तविकता की ओर झुकाव देखने को मिलता है। इस सदंर्भ में मेडोना एंड चाइल्ड (1580) आरंभिक मुगल शैली का एक महत्वपूर्ण चित्र है जो अपारदर्शी जलीय रंगों से कागज़ पर चित्रित है। मेडोना यहाँ एक असाधारण विषय है जो कि बाईईजेनटाईन कला, यूरोपीय शास्त्रीय कला और इसके पुर्नजागरण को मुगल चित्रशाला तक लाती है जहाँ वह रूपांतरित होकर पूरी तरह एक अलग दृश्य में परिवर्तित हो जाती है। वर्जिन मेरी शास्त्रीय तरीके से सुसज्जित है। माँ और बच्चे के बीच का गहरा लगाव यूरोपीय पुर्नजागरण के मानवतावादी दृष्टिकोण से प्रभावित है। शिशु की शारीरिक संरचना तथा कुछ अन्य विवरण, जैसे— पंखा व आभूषण आदि पूरी तरह भारतीय परिवेश से जुड़े हैं।

अकबर की कला में रुचि से प्रेरित कई अन्य अधीनस्थ शाही दरबारों ने भी इस शौक को अपनाया। अभिजात्य परिवारों के लिए कई उत्कृष्ट चित्र निर्मित किए गए, जिन्होंने मुगल दरबार की चित्रशाला की अनुकृति करने की कोशिश की और क्षेत्रीय रस में विशिष्ट विषयों और दृश्य को प्रस्तुत किया।

अकबर ने मुगल चित्रकला शैली के नए मानक बनाए। उसने एक अनौपचारिक ढाँचा बनाया जिसे उसके पुत्र जहाँगीर (1605-27) ने नई ऊँचाइयाँ प्रदान कीं।

मेडोना एंड चाइल्ड, बसावन, 1590, सैन डिएगो कला संग्रहालय, कैलिफ़ोर्निया

शहज़ादे सलीम (जहाँगीर) ने बहुत कम उम्र से कला में रुचि लेनी शुरू कर दी। अपने पिता अकबर के विपरीत (जिन्होंने राजनैतिक व धार्मिक महत्व के ग्रंथों पर चित्र और पांडुलिपियाँ बनाने का काम किया) जहाँगीर जिज्ञासु स्वभाव का था और उसने चित्रकारों को गहन निरीक्षण व उत्कृष्ट विवरणों के चित्रण के लिए प्रेरित किया।

जहाँगीर ने प्रसिद्ध चित्रकार अका रिज़ा और उसके पुत्र अबुल हसन को नियुक्त किया। अकबर की औपचारिक शाही चित्रशाला होने के बावजूद भी कला के शौकीन संरक्षक जहाँगीर ने पिता के साथ-साथ अपनी स्वयं की भी चित्रशाला बनाई। इलाहाबाद से लौटने और मुगल सिंहासन हासिल करने के बाद शहज़ादे सलीम को जहाँगीर के नाम से जाना गया। जहाँगीर का अर्थ है- दुनिया पर कब्जा। जहाँगीर के संस्मरण तुल्क-ए-जहाँगीरी में कला में उसकी गहन रुचि तथा वैज्ञानिक शुद्धता का विवरण है। इसके साथ ही चित्रण में उसकी सर्वाधिक दिलचस्पी और इसके लिए किए गए प्रयासों का भी विवरण है। उसके संरक्षण में मुगल चित्रकला शैली ने उच्चतम दर्जे की वास्तविकता व वैज्ञानिक शुद्धता हासिल की। उसके द्वारा करवाए गए प्रकृति और आसपास के लोगों के चित्रण में उसकी जिज्ञासा और आश्चर्य की झलक दिखाई देती है।

अकबर की चित्रशाला में जहाँ चित्र बहुत अधिक संख्या में निर्मित किए जाते थे वहीं जहाँगीर की चित्रशाला में एक ही चित्रकार के उत्कृष्ट गुणवत्ता के साथ कम संख्या में चित्रण करने पर ज़ोर दिया गया। मुरक्का चित्रों ने जहाँगीर के संरक्षण में लोकप्रियता प्राप्त की। ये संग्रहित किए गए एल्बम में एकल चित्र होते थे। चित्रों के हाशिये सुनहरे रंग या सोना मिश्रित रंगों से उभारे जाते थे। इन हाशियों में फूल-पत्ती व कभी मानव आकृतियाँ भी चित्रित रहती थीं। अकबर के काल में प्रचलित युद्ध के दृश्य, छवि चित्रण, विवरण और कहानियों के आख्यान के चित्रण की जगह अब भव्य समृद्ध दरबार के दृश्यों के सूक्ष्म विवरण व परिष्कृत चित्रण, अभिजात्य शाही छवियाँ, चारित्रिक लक्ष्ण व फूल-पौधे और जीव-जंतु के विशिष्ट अंकन ने ले ली।

जहाँगीर के दरबार में आने वाले यूरोपीय व्यक्तियों द्वारा उसे उपहार में यूरोप की उच्च स्तरीय कला के चित्र व सजावटी वस्तुएँ भेंट की जाती थीं। इस प्रकार अंग्रेज़ व्यापारियों के संपर्क में आने से जहाँगीर यूरोपीय कला की ओर आकर्षित हुआ और अपने संग्रह में ऐसी अधिक वस्तुएँ संग्रहित करने के लिए उत्सुक हुआ। कई ईसाई धर्म के धार्मिक उत्सवों के चित्र भी जहाँगीर के दरबार में चित्रित किए गए। इस सांस्कृतिक और कलात्मक संसर्ग के कारण यूरोपीय कला संवेदनाओं ने प्रचलित भारत-ईरानी शैली के ऊपर अपना प्रभाव डालना शुरू किया जिसके कारण जहाँगीर कालीन कला ज़्यादा आकर्षक और जीवंत हो गई। चित्रों के संयोजन में स्थानिक गहराई व जीवन का स्वाभाविक चित्रण उच्च मापदंड बन गया जिसे कला के इस संवेदनशील संरक्षक ने अपने जीवन काल में स्थापित किया। मुगल चित्रशाला के कलाकारों ने सृजनात्मक तरीके से देशी, फ़ारसी व यूरोपीय, तीनों शैलियों का सम्मिश्रण करके मुगल चित्रों को अपने समय की जीवंत शैली का उद्गम बनाया। यह अपनी तरह की एक विशिष्ट शैली भी बनी।

एक राजकुमार और एक साधु, अमीर शाही के दीवान से जिल्द के पन्ने, 1595 , आगा खान संग्रहालय, कनाडा

अबुल हसन और मनोहर द्वारा 1620 में चित्रित जहाँगीरनामा (कई संग्रहों में बिखरा हुआ) का चित्र ‘दरबार में जहाँगीर’ एक विलक्षण चित्र है। चित्र के केंद्र में सबसे ऊँचे स्थान पर जहाँगीर हैं और उसकी आँखें चमकदार स्पष्ट रंगों से घिरे शानदार सफ़ेद स्तंभों और सिर के ऊपर की शानदार छतरी की ओर जाती हैं। दायीं ओर हाथ जोड़े खुर्रम उपस्थिति में खड़ा है और शुजा भी उसके बराबर में है। शुजा, मुमताज महल का पुत्र है जिसकी परवरिश दरबार में नूरजहाँ ने की है। दरबारियों को उनके ओहदे के अनुसार स्थान दिया गया। छवियों के सही और वास्तविक चित्रण की वजह से उन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है। दर्शकों के बीच जाने-माने अन्य कुलीन लोगों के साथ पादरी फ़ादर कोरसी मौजूद हैं। उनका नाम अंकित है जिससे आसानी से उनकी पहचान की जा सकती है। हाथी-घोड़ों की उपस्थिति इस आयोजन को अनुष्ठानिक बनाती है, जैसे— जहाँगीर के अभिवादन के लिए जुड़े हुए हाथ और झुके हुए चेहरे।

दरबार में जहाँगीर, जहाँगीरनामा, अबुल हसन और मनोहर, 1620 , ललित कला संग्रहालय, बोस्टन

जहाँगीर का स्वप्न (1618-22) अबुल हसन द्वारा चित्रित किया गया। जिसे ‘नादिर अल ज़मान’ खिताब से नवाज़ा गया था। जिसका अर्थ होता है- ‘समय का आश्चर्य’। यह सम्राट के सपने को संदर्भित करता है, जिसमें वह फ़ारसी सफ़ाविद सम्राट शाह अब्बास से मिलने गया जिसके अधीन कांधार क्षेत्र था, जिसे पाने की कामना सम्राट जहाँगीर रखते थे। इस शुभ स्वप्न को चित्रित करने के लिए उसके पास दरबारी चित्रकार अबुल हसन थे। इस चित्र में राजनैतिक कल्पना के कारण संयोजन में जहाँगीर की उपस्थिति सबसे अधिक हावी है। जहाँगीर से गले मिलते हुए फ़ारसी शाह दुर्बल और दयनीय दिखते हैं। चित्र में राजा पृथ्वी पर खड़े हैं और उनके बीच में भारत और मध्य पूर्व का अधिकांश हिस्सा दिख रहा है। इसी चित्र में दो जानवर शांति से सो रहे हैं। हालाँकि इस चित्रण में मौजूद संकेत देखने वालों को आसानी से समझ में आते हैं जिसमें शक्तिशाली सिंह पर जहाँगीर व विनम्र भेड़ पर शाह अब्बास खड़े हैं। दोनों एक शानदार सूरज और चाँद के सुनहरे दीप्त को साझा कर रहे हैं, जिसे दो पंखोंयुक्त दूतों ने थामा हुआ है। जो मुगल दरबार के यूरोपीय कला रूपांकनों और बिंबों से प्रभावित होने का संकेत है।

रेतघड़ी (आवरग्लास) पर विराजमान जहाँगीर का चित्र, दरबारी चित्रकार बिचित्र द्वारा चित्रित किया गया। यह चित्र 1625 में बनाया गया था। उसमें प्रतीकों का सृजनात्मक उपयोग किया गया था। चित्र में जहाँगीर के दायों तरफ कोने में चित्रकार को अपने महान सम्राट को चिर्र भेंट करते हुए देखा जा सकता है।

फ़ारसी सुलेख से चित्र का ऊपरी और नीचे का हिस्सा सुसज्जित है, जिसकी पंक्तियों में यह वर्णित है कि इस दुनिया के शाह उसके सामने खड़े हो सकते हैं क्योंकि जहाँगीर को फकीरों को रखना पसंद है। यह चित्र ऑटोमन सुल्तान के चित्र से मिलता-जुलता है, जिसमें इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम दाएँ कोने में खड़े हुए सम्राट को उपहार पेश कर रहे हैं। जहाँगीर, चिश्ती दगाह के शेख हुसैन को पुस्तक भेंट कर रहे हैं। शाह हुरैन उस शेख सलीम का उत्तराधिकारी है जिसके सम्मान में अकबर ने अपने पुत्र का नाम सलीम रखा था।

जहाँगीर का पुत्र शहजजादा खुर्म (1628-58) शाहजहाँ के नाम से दिल्ली के ताज का उत्तराधिकारी बना। उसने सिर्फ़ राजनैतिक रूप से स्थिर साम्राज्य ही नहीं प्राप्त किया, बल्कि उत्कृष्ट कलाकार और चित्रशाला को भी अधिगृहीत किया। शाहजहाँ ने कलाकारों को ऐसी शानदार कृतियाँ बनाने के लिए प्रेरित किया जिसमें कल्पना और प्रलेखन का समावेश हो। स्वाभाविक और यथार्थवादी चित्रण के बजाय आदर्शीकरण और अधिक से अधिक शैलीकरण को वरीयता दी गई। उसकी देखरेख में बनी आकृतियाँ प्रभावशाली व उतकृृष्ट सौंदर्यांकरण पर केंद्रित थीं जो कि रत्नों से सुसज्जित, जैसे— सही प्रस्तुतीकरण और जटिल छवि रेखांकन द्वारा बनाई गई थी। चित्रों में उच्च अवधारणाओं को बहुत प्रमुखता दी गई और बहुत सूक्ष्मता से ऐसे दृश्य रचे गए जिसमें एकल चित्र से बहुतनसे अर्थ बाहर आएँ। उनके समय में चित्रित चित्रों में राजसी छवि निर्मित की गई जिसमें हरर-जवाहरात के प्रति उनके अगाध त्रेम को दर्शाया गया। इसी छवि को वह अपने बाद छोड़ना चाहते थे। गौरवशाली उपाधियों के साथ ऐसे शाही छवियों को चित्रित किया गया जो स्वयं सम्राट के व्यक्तित्व को दर्शाते थे।

पदशाहनामा (राजा का इतिहास) दरबार की चित्रशाला के अंत्तगत चित्रित सबसे अधिक समृद्ध लुभावनी योजनाओं में से एक था। यह एक असाधारण पांडुलिपि है, जिसने भारतीय लघु चित्रकारी में ऊँचाइयों को पाया है। इस काल में मुगल चित्रकला ने शाही, ऐतिहासिक और रहस्यवादी विषयों को चित्रित करने के लिए सम्मोहक रंगों और जटिल संयोजनों का विभिन्न दृश्यों में प्रभावशाली प्रयोग किया।

जहाँगीर का सपना, अबुल हसन, 1618-22, स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूशन, वाशिंगटन डी.सी.

जहाँगीर एक रेतघड़ी के ऊपर, बिचित्र, 1625, स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूशन, वाशिंगटन डी.सी.

मुगल चित्रकला ने अपने समय की समकालीन दुनिया की विकसित कला परंपराओं के शानदार समावेश को अपनी शैली में प्रस्तुत किया था। उसने उस समय के यूरोपीय कलाकारों को प्रेरित करना शुरू कर दिया। प्रसिद्ध यूरोपीय चित्रकार रेम्ब्रा बहुत गहराई से मुगल दरबार की चित्रकला से प्रभावित था और उसने रेखाओं की नज़ाकत पर महारत पाने के लिए कई भारतीय चित्रों का अध्ययन किया। इस अध्ययन से उसने यह स्पष्ट किया कि विश्व कला के परिदृश्य में मुगल चित्रकला का एक विशिष्ट स्थान है।

बगीचे में साधुओं के साथ दारा शिकोह, बिचित्र, आरंभिक स्रहवीं शताब्दी चेस्टर बीटी लाइब्रोरी, डबलिन

शाहजहाँ के उत्तराधिकारी पुत्र दारा शिकोह को साम्राज्य का उत्तराधिकारी नहीं मिला। वह एक उदार अपंपरागत मुगल था। सूफी रहस्यवाद के लिए दारा की प्रतिबद्धता और वेदांतिक दर्शन में उसकी गहरी रुचि उल्लेखनीय है। ‘दारा शिकोह विद सेजेज इन गार्डेन’ 1635 में चित्रित असाधारण चित्र ने उसके व्यक्तित्व को अमर कर दिया। अपने लोगों द्वारा प्यार किए जाने वाला विद्वान, संस्कृत समेत अन्य कई भाषाओं के जानकार व्यक्तित्व का अंकन इस चित्र का केंद्रीय विषय था। वह कवि व कला पारखी था। उसने अपनी पत्नी को भेंट करने के लिए चित्रों का एक विशेष एल्बम बनवाया। दुर्भाग्यपूर्वक दारा के साहित्य व दर्शन के शौक के कारण उसके व्यक्तित्व को गलत समझा गया। उसकी विनम्रता को नकारात्मक माना गया और उसमें प्रशासन के लिए निपुणता की कमी समझी गई। दारा अपने भाई औरंगजे़े से बिलकुल अलग था। वह उदार, दार्शनिक और वैचारिक व संघर्ष के मुद्दों पर सबको मिलाकर चलने वाला समझौतावादी दृष्टिकोण रखता था।

शाहजााँ के जीवनकाल में ही उत्तराधिकार की जंग में दारा शिकोह अपने भाई औरंगजे़ब से पराजित हो गया। आलमगीर औरंगज़ेब जब सत्ता में आया उसने उस समय के राजनैतिक परिदृश्य को अकबर के समकालीन दिखाने का प्रयास किया। भारत के दक्का में संघर्षों और विजय की भृंखला ने मुगल साम्राज्य को वापस अपनी जगह पर ला दिया। उसका ध्यान मुगल साम्राज्य के विस्तार और अपने नेतृत्व में एकीकरण पर केंद्रित था। औरंगज़ेब ने मुगल चित्रशाला में चित्रों को निर्मित करने के काम को आगे नहीं बढ़ाया। हालाँकि शाही चित्रशाला को तुरंत बंद नहीं किया गया और सुंदर चित्रों का चित्रण जारी रहा।

उत्तरकालीन मुगल चित्रकला

कला के प्रोत्साहन और संरक्षण में सतत गिरावट के कारण अति कुशल कलाकारों ने मुगल कार्यशालाओं को छोड़ दिया। इन कलाकारों का प्रांतीय मुगल शासकों ने स्वागत किया। ये राजा मुगल राजवंश की अनुकृति पर अपने राजकुल के गौरव तथा दरबार की कार्यवाही या घटनाओं को चित्रों में प्रदर्शित करना चाहते थे।

बहादुर शाह जफर, 1838 , फ़ॉग म्यूजियम ऑफ़ आर्ट, कैम्ब्रिज, त्रिटेन

हालाँकि मोहम्मद शाह रंगीला, शाह आलम द्वितीय और बहादुर शाह ज़फर के समय में कुछ उत्कृष्ट चित्र बने, लेकिन वे चित्र मुगल लघु चित्रकला शैली की बुझती शमा की आखरी लौ के समान थे। 1838 में ‘बहादुर शाह ज़फर’ शीर्षक का चित्र बनाया गया। यह चित्र अंग्रेजों द्वारा उन्हें बर्मा से देश निकाला दिए जाने के करीब दो दशक पहले बनाया गया था। 1857 के भारतीय विद्रोह की विफलता के बाद अंग्रेज़ यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि दिल्ली के आसपास कोई मुगल शासक अधिकार जताने वाला न रहे। बहादुर शाह ज़फर अंतिम मुगल बादशाह था जो कवि, विद्वान और कला पारखी था।

नए राजनीतिक माहौल, अस्थिर स्थानीय रजवाड़े और अंग्रेजों के उत्थान ने भारतीय कला परिदृश्य को फिर से बदल दिया। चित्रकारों की कला नए संरक्षक, उनके सौंदर्य संबंधी सरोकारों, विषयवस्तु की पसंद और चित्रात्मक भाषा के अनुसार ढलने लगी। अन्ततोगत्वा मुगल लघु चित्रकला शैली अन्य प्रांतीय चित्रकला शैली और कंपनी चित्रकला शैली में विलीन हो गई।

मुगल चित्रकला की प्रक्रिया

मुगल लघु चित्रकला शैली के ज़्यादातर चित्र पांडुलिपियों या शाही एल्बम के हिस्से थे अर्थात् दृश्य और प्रारूप में दिए गए स्थान में विषयवस्तु साझा करते थे। किताबें बनाने के लिए पहले हाथ से कागज़ बनाया जाता था और फिर उन्हें पांडुलिपि के आकार के अनुसार काटा जाता था। फिर पृष्ठों पर लिखा जाता था। कलाकार के लिए निर्दिष्ट स्थान छोड़ा जाता था और वह कलाकार को दिया जाता था कि वे लिखी गई विषयवस्तु के अनुरूप चित्र बनाएँ। कलाकार इसके लिए पहले खाका खींचता था फिर तसवीर या चिहारनामा बनाता और अंतिम चरण में रंग भरता था जिसे रंगमिजी कहते हैं।

मुगल वित्रकला के रंग और तकनीक

कार्यशालाओं के चित्रकार रंग बनाने की कला में भी माहिर थे। मुगलकालीन चित्र, विशेषकर हस्त निर्मित कागज़ों पर बनाए जाते थे। रंग अपारदर्शी होते थे और प्राकृतिक स्रोतों से पीसकर या मनचाहा रंग बनाने के लिए अन्य रंगों को मिलाकर बनाए जाते थे। रंग गिलहरी या बिल्ली के बच्चों के बालों से बनी तूलिका द्वारा लगाया जाता था। कार्यशाला में चित्र बनाना विभिन्न कलाकारों के सामूहिक प्रयास का परिणाम था। मूल चित्र का खाका बनाना, रंग पीसना, चित्र में रंग भरना और अन्य बारीकियों को जोड़ना आदि काम आपस में बंटे होते थे। सभी कार्य एक ही व्यक्ति द्वारा किए गए हों ऐसी भी संभावना हो सकती थी।

अतः शुरुआती मुगल दौर में बनी कलाकृतियाँ कलाकारों के सामूहिक प्रयास का परिणाम थीं। इसमें प्रत्येक कलाकार अपनी क़ाबलियत या सौंपे गए कार्य के अनुसार काम करता था। अभिलेख बताते हैं कि कलाकारों को काम के अनुसार प्रोत्साहन और वेतन में बढ़ोतरी दी जाती थी। अभिलेखों में उत्कृष्ट कलाकारों के नाम शाही कार्यशाला में उनके स्तर के बारे में भी जानकारी देते हैं।

एक बार चित्र के पूरा हो जाने पर उसे एक खास किस्म के बहुमूल्य पत्थर (एगेट) द्वारा घिसा जाता था। इसका उद्देश्य कलाकृति पर पालिश करना, रंगों को पक्का करना और उस पर वांछित चमक लाना होता था।

सिंदूरी रंग हिंगुल से, नीला रंग लाजवर्त से, चमकीला पीला हरताल से, सफ़ेद रंग सीप को पीसकर तथा गहरा काला रंग लकड़ी के कोयले से बनाया जाता था। किसी चित्र को बेशकीमती दिखाने के लिए सोने और चाँदी का चूरा रंगों में मिलाया या चित्रों पर बिखेरा जाता था।

विद्यार्थियों के लिए प्रोजेक्ट

किसी लेखक, कवि या दार्शनिक के लगभग पाँच उद्धरणों का चयन करें। उनका अपनी पसंद की भाषा में अनुवाद करें। मुगल पांडुलिपियों से प्रेरणा लेकर सुलेख शैली और अलंकृत किनारों के साथ अपने अनुवाद की एक पांडुलिपि बनाएँ।

अभ्यास

1. हुमायूँ द्वारा भारत में बुलाए गए दो उत्कृष्ट कलाकारों के नाम बताएँ एवं उनकी उत्कृष्ट रचनाओं की विस्तार से चर्चा करें।

2. अकबर द्वारा शुरू की गई कई कला परियोजनाओं में से अपनी खास पसंद की कला परियोजना पर यह समझाते हुए चर्चा करें कि उसके बारे में आपको क्या पसंद है।

3. मुगल दरबार के कलाकारों की एक विस्तृत सूची तैयार करें तथा उनमें प्रत्येक के एक-एक चित्र की लगभग 100 शब्दों में चर्चा करें।

4. मध्य काल में प्रचलित अपनी पसंद के तीन चित्रों देशज भारतीय, फ़ारसी और यूरोपीय दृश्य तत्वों पर चर्चा करें।

नोआस् आर्क

नोआस् आर्क, 1590 में बनी चित्रित पांडुलिपि दीवाने हाफिज का एक उत्कृष्ट चित्र है। इस पांडुलिपि के अलग-अलग पृष्ठ विभिन्न संग्रहालयों में हैं। ऐसा बताया जाता है कि हलके रंगों का यह चित्र अकबर की शाही चित्रशाला के अग्रणी कलाकार, मिस्किन द्वारा बनाया गया है। पैगंबर नूह जहाज़ में हैं और उनके साथ कई जानवरों के जोड़े हैं ताकि ईश्वर द्वारा मनुष्यों के गुनाहों की सज़ा देने के लिए भेजी गई बाढ़ से पैदा हुई तबाही के बाद दुनिया फिर पनप सके और आबाद हो सके।

इस चित्र में इब्लीस को नूह के बेटे जहाज़ से बाहर फेंक रहे हैं जो कि जहाज़ को तबाह करने आया था। चित्र में सफ़ेद और लाल, नीले, पीले रंगों का सूक्ष्म इस्तेमाल आकर्षक है। चित्र में पानी का चित्रण ऊर्ध्वाधर परिप्रेक्ष्य में होने के कारण चित्र में एक विशेष नाटकीय ऊर्जा उत्पन्न करता है। यह चित्र फ्रीयर गैलरी ऑफ़ आर्ट, स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूशन, वाशिंगटन डी.सी., संयुक्त राज्य अमरीका के संग्रह में है।

गोवर्धन पर्वत को उठाते हुए कृष्ण

ऐसा बताया जाता है कि हरिवंश पुराण के इस चित्र के अलग-अलग पृष्ठ विभिन्न संग्रहालयों में हैं, मिस्किन (1585-90) द्वारा बनाया गया था। यह चित्र मेट्रोपोलिटन म्यूजियम ऑफ़ आर्ट, न्यूयॉर्क, संयुक्त राज्य अमरीका के संग्रह में है। हरिवंश पुराण उन कई संस्कृत पांडुलिपियों में से एक है जिसका मुगलों ने फ़ारसी में अनुवाद कराया था। भगवान कृष्ण पर आधारित इस ग्रंथ के फ़ारसी भाषा में अनुवाद की ज़िम्मेदारी अकबर के दरबार के एक कुलीन विद्वान बदायूनी को सौंपी गई थी। यह जानना दिलचस्प होगा कि अकबर के दरबार में एक और प्रसिद्ध विद्वान अबुल फ़ज़ल के विपरीत बदायूनी अपने कट्टर धार्मिक विचारों के लिए जाना जाता था।

हरि या भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपने सभी अनुयायियों (ग्रामीणों और उनके पशुओं) को एक अन्य शक्तिशाली भगवान, इंद्र, द्वारा भेजी गई मूसलाधार बारिश से बचाने के लिए उठाया था। हरि उस पर्वत को एक विशाल छतरी की तरह उपयोग करते हैं ताकि पूरा गाँव उसके नीचे शरण ले सके।

पक्षी-विश्राम पर बाज़

यह चित्र उस्ताद मंसूर द्वारा बनाया गया है। जिसे जहाँगीर ने नादिर उल अस्र की उपाधि से नवाजा था। जहाँगीर के पास कई बेहतरीन बाज़ थे और एक उत्साही पारखी की तरह उसने उनका चित्रण कराया। यह चित्र संयुक्त राष्ट्र अमरीका में ओहायो के क्लीवलैंड संग्रहालय में संग्रहित है। इन छवियों को उसकी अधिकारिक जीवनी जहाँगीरनामा में शामिल किया गया। फ़ारसी सम्राट शाह अब्बास द्वारा भेंट किए गए एक बाज़ का दिलचस्प संस्मरण जहाँगीर बताते हैं। जहाँगीर उस बाज़ को बिल्ली द्वारा मार दिए जाने पर उसकी स्मृति को भविष्य के लिए सुरक्षित करने के लिए अपने चित्रकारों से चित्रित करवाते हैं।

यहाँ दिखाया गया चित्र ‘पक्षी-विश्राम पर बाज़’ (1615) मुगल कलाकार उस्ताद मंसूर द्वारा बनाए गए कई चित्रों में से एक है।

ज़ेबरा

इस चित्र में तुर्कों द्वारा इथियोपिया से लाया गया ज़ेबरा दिखाया गया है। यह जेबबरा मुगल सम्राट जहाँगीर को उनके रईस मीर जाफ़र ने भेंट किया था। जहाँगीर ने इस चित्र पर राज दरबार की भाषा फ़ारसी में लिखा था कि, “यह एक खच्चर है जिसे तुर्क (रमियां) मीर जाफ़र के साथ इथियोपिया (हबेशा) से लाए थे"" यह चित्र नादिर उल अस्र (अपने समय के प्रतिष्ठित व्यक्ति) उस्ताद मंसूर द्वारा बनाया गया था। जहाँगरिनामा में स्पष्ट कहा गया है कि यह जानवर नवरोज़ या नए साल के उत्सव में, मार्च 1621 में, राजा को भेंट किया गया। यह भी कहा गया है कि जहाँगीर ने उसे गौर से जाँचा क्योंकि कुछ का मानना था कि यह एक घोड़ा है जिस पर किसी ने धारिया रंग दी हैं। जहाँगीर ने इसे ईरान के शाह अब्बास को भेजने का निर्णय किया जिसके साथ वह पशुओं और पक्षियों समेत कई दुर्लभ और विशेष उपहारों का आदान-प्रदान किया करता था।

ईरान का शाह भी बाज़ जैसे दुर्लभ उपहार जहाँगीर को भिजवाता था। बाद में इसे शाही एल्बम में जोड़ दिया गया। चित्र के किनारे पर अलंकरण शाहजहाँ के शासन काल में किया गया।

दारा शिकोह की बारात

यह चित्र कलाकार हाजी मदनी द्वारा बनाया गया था। चित्र शाहजहाँ के काल का है, जिसने आगरा में ताजमहल बनवाया था। यह चित्र मुगल बादशाह शाहजहाँ के सबसे बड़े पुत्र दारा शिकोह के विवाह को दर्शाता है। चित्र में मुगल राजकुमार पारंपरिक सेहरे के साथ भरे रंग के घोड़े पर बैठा है और उसके साथ उसके पिता शाहजहाँ (जिसके सर के चारों तरफ एक चमकता प्रभामंडल है) सफ़ेद घोड़े पर सवार है। बारात का स्वागत संगीत, नाच, उपहार और आतिशबाजी के साथ किया गया है। कलाकार ने बारात का बहुत ही सजीव चित्रण किया है। यह चित्र राष्ट्रीय संग्रहालय, नयी दिल्ली मे संग्रहित है।



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