अध्याय 07 तबला एव पखावज वाद्यों के घरानों का वर्णन
हमारे देश में संगीत राजाओं के दरबारों में व्याप्त था, परंतु जब राजाओं का युग समाप्त हो गया एवं अंग्रेजों ने धीरे-धीरे हमारे देश पर राज करना शुरू कर दिया, तो संगीतज्ञों एवं संगीतकारों ने अलग-अलग रहकर अपने परिवार और शिष्यों को प्रशिक्षण दिया। बहुत कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने अपनी कला और शैली को जीवित रखा।
जब किसी असाधारण प्रतिभाशाली कलाकार द्वारा किसी विशिष्ट शैली (गायन, वादन अथवा नृत्य) का निर्माण होता है, जिसका पालन उसी रूप में उसकी वंश परंपरा तथा शिष्य परंपरा में कई पीढ़ियों तक होता है, तब किसी घराने का निर्माण होता है। उत्तर भारतीय संगीत में घरानों की शुरुआत मुगल काल के अंतिम दौर से ही मानी जाती है। संगीत को समृद्ध बनाने में घरानों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। एक ओर घरानों ने संगीत की किसी विधा की शैलीगत विशेषताओं को संरक्षित किया, उनका प्रचार-प्रसार किया तो दूसरी ओर संगीत शैलियों की विविधता को विस्तार दिया और उसे नीरस होने से भी बचाया।
तबला वाद्य का इतिहास लगभग तीन-साढ़े तीन सौ वर्ष पुराना है। इन वर्षों में तबले के छह घराने विकसित हुए, इन घरानों की अपनी-अपनी शैलीगत विशेषताएँ हैं, जिनके आधार पर असंख्य बंदिशों का निर्माण हुआ है तथा जिन्होंने तबले के साहित्य को विविधता से समृद्ध किया है। विभिन्न घरानों की वादन शैलियों को ‘बाज’ कहा जाता है। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से तबले के बाज को मूलतः दो भागों में बाँटा गया है- पश्चिम बाज और पूरब बाज। पश्चिम बाज के अंतर्गत दिल्ली और अजराड़ा घराने की वादन शैली आती है, जबकि पूरब बाज के अंतर्गत लखनऊ, फ़र्रुखाबाद और बनारस घराने की वादन शैली आती है। इसके अतिरिक्त पंजाब घराने का विकास स्वतंत्र रूप से हुआ माना जाता है। तबले के घरानों का संक्षिप्त परिचय निम्न है।
दिल्ली घराना
यह तबला वादन का प्रथम घराना माना जाता है। यह घराना मुगल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीले के शासन काल में विकसित हुआ। इस घराने की स्थापना उस्ताद सिद्धार खाँ डाढ़ी ने की। उन्होंने अपने पुत्रों एवं शिष्यों को शिक्षा देकर इस घराने को आगे बढ़ाया। उस्ताद सिद्धार खाँ ने पखावज पर बजने वाले खुले और ज़ोरदार बोलों को तबले पर बजाए जाने के अनुकूल बनाकर एक नई शैली विकसित की, जो दिल्ली बाज के नाम से जानी गई। इसे ‘दो अँगुलियों का बाज’ या ‘किनार का बाज’ भी कहते हैं। दिल्ली बाज में तिट, धिट, तिरकिट, धाति, धगेनधा, धिन-गिन, तिन-किन आदि बोलों के व्यवहार की प्रधानता रहती है। पेशकार, चतस्त्र जाति के छोटे कायदे व रेला के वादन के लिए यह बाज जाना जाता है। इस घराने में नत्थू खाँ, महबूब खाँ मिरजकर, गामी खाँ, इनाम अली खाँ, लतीफ़ अहमद खाँ, शफात अहमद खाँ आदि प्रसिद्ध तबला वादक हुए, जिन्होंने इस घराने की वादन शैली को नए आयाम दिए।
अजराड़ा घराना
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ ज़िले में अजराड़ा नामक गाँव है। इसके मूल निवासी कल्लू खाँ और मीरू खाँ ने दिल्ली जाकर उस्ताद सिताब खाँ से तबला वादन की शिक्षा ग्रहण की और वापस आकर इसकी वादन शैली में परिवर्तन करके अजराड़ा घराने की स्थापना की। दिल्ली से संबद्ध होने के कारण इसकी सारी विशेषताएँ अजराड़ा बाज में आना स्वाभाविक ही है। फिर भी इसकी कुछ अपनी निजी विशेषताएँ हैं जिस कारण इस घराने को मान्यता प्राप्त हुई। इसमें बायाँ या डग्गा का व्यवहार बहुत कलात्मक रूप से किया गया एवं इस कारण तबले की नादात्मकता में सकारात्मक एवं प्रगतिशील परिवर्तन आया। बायाँ के बोलों को प्रधानता देते हुए आड़ी लय के कायदों का प्रसार हुआ। डग्गे के बोलों की प्रधानता, तबले और डग्गे के वर्णों के गुथाव से निर्मित बोल— घेतग, घेनग, घेघेनक, दिंग-दिनागिन, धातग-घेतग आदि का प्रचलन, त्रिस्त जाति के कायदे का अधिक प्रयोग आदि को इस घराने की विशेषताओं के अंतर्गत माना जाता है। इस घराने के प्रमुख कलाकारों में, हबीबुद्दीन खाँ, सुधीर कुमार सक्सेना, मनमोहन सिंह, सुधीर पाण्डेय, हशमत खाँ, रमज़ान खाँ, अकरम खाँ आदि सम्मिलित हैं।
लखनऊ घराना
अठाहरवीं शताब्दी के मध्य में, दिल्ली की राजनैतिक अस्थिरता के कारण वहाँ से कलाकारों का पलायन आरंभ हो गया। इसी समय नवाब आसिफुद्दौला के शासनकाल में अवध की नई राजधानी लखनऊ, एक सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित हो रही थी। सिद्धार खाँ के पौत्र मोंदू खाँ और बखशू खाँ लखनऊ आकर बस गए और इन्हें लखनऊ दरबार में राजाश्रय प्राप्त हुआ। लखनऊ उस समय कथक नृत्य और ठुमरी गायन शैली के विकास का केंद्र था। यहाँ उन्होंने कथक और ठुमरी के संगति करने के लिए एक नई वादन शैली विकसित की, जो ‘लखनऊ बाज’ के नाम से जानी जाती है। कथक नृत्य के साथ संगति के कारण इसे ‘नचकरन बाज’ भी कहा जाता है। इस बाज में मुक्त प्रहार से बजने वाले खुले बोलों का प्रधान्य रहता है, जिस कारण इस बाज में बजाई जाने वाली रचनाएँ ज़ोरदार और गूँजयुक्त होती हैं। लखनऊ बाज में धिरधिर, घड़ाऽन, तक-घड़ाऽन, कड़ाइन, किटतक दिंगड़, धिटािट, गदिगन, धिनगिन, तूना कत्ता आदि बोल प्रचुरता से बजाए जाते हैं। इस बाज में कायदे, रेले, गत, परन, टुकड़े, चक्करदार आदि बजाए जाते हैं। इस घराने में आबिद हुसैन, वाजिद हुैैन, अफ़ाक हुसैन, छुट्टन खाँ, हीरू गांगुली, अनिल भट्टाचार्या, स्वपन चौधरी जैसे महान कलाकार हुए हैं।
फ़ररुखाबाद घराना
फ़र्रुखाबाद उत्तर प्रदेश का एक ज़िला है। फ़र्रखाबाद घराने का विकास लखनऊ घराने से ही माना जाता है। फ़र्रेखाबाद निवासी हाजी विलायत अली खाँ ने लखनऊ के उस्ताद बख्शू खाँ से तबला वादन की उच्च स्तरीय शिक्षा प्राप्त की और वापस जाकर एक नई शैली प्रचलित की, जो लखनऊ और दिल्ली से काफ़ी अलग थी, जो कालांतर में फ़रखखाबाद घराने के रूप में स्थापित हुई। बख्शू खाँ ने अपनी पुत्री का विवाह भी विलायत अली साहब से कर दिया था। इस प्रकार वह उनके शिष्य और दामाद दोनों थे। हाजी साहब अपने समय के उच्चकोटि के संगीतकार, विद्वान, रचनाकार और शिक्षक थे। इस घराने की वादन शैली में खुले बाज (लखनऊ) और बंद बाज (दिल्ली) का सुंदर सम्मिश्रण है। पेशकार और कायदों के अतिरिक्त गतों का वादन फ़ररखाबाब बाज की सबसे बड़ी विशेषता है। इस घराने में रेले का वादन एक नवीन रूप में होता है, जिसे ‘रौ’ कहते हैं। इस घराने में धिरििरकिटतक, तकिट धा, दिंग, दिंगदीनाघिड़नग, धात्रक-धिकिट, धिनगिन आदि बोलों का प्रयोग किया जाता है। इस घराने के प्रमुख कलाकारों में अमीर हुसैन, अहमदजान थिरकवा, नन्हे खाँ, मसीत खाँ, ज्ञान प्रकाश घोष, करामत उल्ला, साबिर खाँ आदि का नाम उल्लेखनीय है।
बनारस घराना
बनारस निवासी पंडित राम सहाय ने लखनऊ घराने के उस्ताद मोंदू खाँ से तबला वादन की शिक्षा ली थी। कालांतर में राम सहाय ने अपनी प्रतिभा से एक नवीन और मौलिक वादन शैली का निर्माण किया, जिसकी शिक्षा उन्होंने अपने भाई, भतीजों और शिष्यों को दी और इस प्रकार एक विशिष्ट वादन शैली ‘बनारस बाज’ के रूप में स्थापित हुई। बनारस बाज की वादन शैली में पखावज के मुक्त प्रहार वाले बोलों का आधिक्य दिखाई देता है। पखावज का प्रभाव होने के कारण पेशकार और कायदे के स्थान पर उठान से तबला वादन आरंभ किया जाता है। इसके अतिरिक्त छंद, गत, परन, गत-परन, फ़र्द, चक्करदार रचनाओं के साथ-साथ देवी-देवताओं की स्तुति परनों का वादन इस घराने की प्रमुख विशेषताएँ हैं। बनारस बाज में पूरब बाज के सभी बोलों का प्रयोग करते हुए नाड़ा, धाड़ा, धाड़ागिन, ताड़ागिन आदि बोलों का भी व्यवहार किया जाता है। इस घराने में राम शरण मिश्र, प्रताप महाराज, भैरव सहाय, बिक्कू महाराज, केठे महाराज, अनोखे लाल मिश्र, सामता प्रसाद, किशन महाराज आदि महान ताबलिक हुए हैं।
पंजाब घराना
ऐसी मान्यता है कि पंजाब के पुराने तबला वादकों ने पखावज के ही बोलों के निकास में परिवर्तन करके तबला वादन की एक पृथक शैली का निर्माण किया, जोकि कालांतर में ‘पंजाब बाज’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस बाज पर पखावज की वादन शैली का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
इस घराने के संस्थापक लाला भवानी दास उर्फ़ भवानीदीन उर्फ़ भवानी सिंह हैं। भवानी सिंह और दिल्ली घराने के संस्थापक सिद्धार खाँ समकालीन माने जाते हैं। लाला भवानी सिंह ने ताज खाँ, हदू खाँ, क्रादिर बख्श जैसे प्रतिभाशाली कलाकारों को तैयार किया, जिन्होंने आगे चलकर पंजाब घराने को विस्तार दिया। इसके अतिरिक्त आपने कई पखावज के कलाकारों को भी शिक्षा दी जिनमें ग्वालियर के कुदऊ सिंह और जोधसिंह प्रमुख हैं। पखावज से प्रभावित होने के कारण यह बाज जोरददार और खुला है। चारों अँगुलियों के साथ तबले पर थाप का प्रहार किया जाता है। बड़ी-बड़ी गतें, परनें, चक्करदार गतें, चक्करदार परनें तथा लयकारियों से युक्त तिहाइयों का प्रयोग इस घराने की प्रमुख विशेषताएँ हैं। इस घराने के कुछ प्रसिद्ध कलाकारों में हुसैन बख्श, फकीर बख्श, करम इलाही, अल्ला रक्खा, जााकिर हुसैन, योगेश शम्शी आदि प्रमुख हैं।
पखावज की कुछ प्रमुख परंपराएँ
कोदऊ सिंह अथवा कुदऊ सिंह पखावज के सर्वाधिक महत्वपर्ण कलाकार हुए। अधिकांश लोगों के मतानुसार इनका जन्म 1812 में उत्तर प्रदेश के बाँदा शहर में हुआ और निधन 1907 में हुआ था। पखावज वादन की शिक्षा इन्होंने मथुरा के प्रसिद्ध पखावजी भवानी दीन से प्राप्त की थी, जिन्हें भवानी सिंह और भवानी दास के नाम से भी जाना जाता है। कुदऊ सिंह झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के दरबार से भी जुड़े थे। इन्हें ‘सिंह’ की उपाधि भी प्राप्त हुई थी। अपने शिष्यों द्वारा इन्होंने अपनी कला का चतुर्दिक प्रचार-प्रसार किया।
ओजपूर्ण और गंभीर वादन, हथेलियों का प्रयोग, ज़ोरदार, क्लिष्ट और एक-दूसरे से गुँथे हुए वर्ण, जैसे— धड़गण, धड़न्न, तड़न्न, धिलांग, धुमकित, धेत्रा, क्रिधेत, तक्का थुंगा इस परंपरा में अधिक प्रयुक्त होते हैं। कोदऊ सिंह के भाई राम सिंह भी श्रेष्ठ पखावजी थे। राम सिंह के पुत्र जानकी प्रसाद, पौत्र गया प्रसाद और प्रपौत्र पंडित अयोध्या प्रसाद श्रेष्ठ पखावजी हुए। अयोध्या प्रसाद के पुत्र पंडित रामजी लाल शर्मा वर्तमान में इस परंपरा का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
नाना पानसे परंपरा
नाना पानसे ने पखावज वादन की शिक्षा अपने पिता सहित बाबू जोधसिंह, मान्याबा कोड़ीतकर, चौण्डे बुवा, मारतण्ड बुवा और योगीराज माधव स्वामी से प्राप्त करके एक नयी वादन शैली सृजित की जिसे ‘पानसे परंपरा’ कहा गया। इनकी वादन शैली कर्णप्रिय और मधुर थी। आसानी से द्रुतलय में बजने वाले वर्ण, तबले और कथक नृत्य के वर्णों का समन्वय भी इनकी रचनाओं में दिखता है। सुदर्शन नामक एक नवीन ताल की रचना करने वाले नाना पानसे ने प्राचीन शास्त्रीय ग्रंथों के आधार पर कई तालों के ठेकों का नवीनीकरण किया, हज़ारों रचनाएँ भी रचीं और सैकड़ों लोगों को पखावज सिखाया। आज महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और दक्षिण भारत में जो पखावज बजाया जा रहा है, वह नाना पानसे और उनके शिष्यों की ही देन है।
नाथदारा परंपरा
नाथद्वारा (राजस्थान) की पखावज परंपरा के नाम से विख्यात इस परंपरा का शुभारंभ सत्रहवीं शताब्दी में तुलसीदास, नरसिंह दास और हालू नामक तीन भाइयों से हुआ। हालू बाद में आमेर आ गए। इस परंपरा में स्वामी, छबील दास, फकीर दास, चंद्रभान, मानजी और रूपराम महान पखावजी हुए। रूपराम के पुत्र वल्लभ दास, 1802 में श्रीनाथद्वारा जाकर बस गए। वल्लभ दास के पुत्र चतुर्भुज, शंकरलाल और खेमलाल हुए। खेमलाल के पुत्र श्यामलाल और शंकरलाल के पुत्र पंडित घनश्याम दास पखावजी महान कलाकार हुए। पंडित घनश्याम दास के पुत्र गुरु पुरुषोत्तम दास ने देश-विदेश में इस परंपरा का प्रचार-प्रसार किया। उनका निधन 21 जनवरी, 1991 को हुआ। इस परंपरा की दो महत्वपूर्ण पुस्तकों — मृदंग सागर और मृदंग वादन में अनेक सुंदर बंदिशें संकलित हैं। मिठास, माधुर्य और भक्ति प्रधान रचनाओं का वादन इस परंपरा की विशेषता है। इस परंपरा में ‘ता’ बायें पर और ‘क’ दायें पर बजता है। किट, किटी, ता, दीं, थुं, ना धिड़नक जैसे वर्णों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग होता है। इस परंपरा की पंचदेव स्तुति परन अत्यंत प्रचलित एवं विख्यात है।
अभ्यास
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. पंजाब घराने के कुछ कलाकारों के नाम बताइए।
2. सामता प्रसाद, राम जी मिश्र और गोपाल मिश्र किस घराने के तबला वादक हैं?
3. घराना शब्द से आप क्या समझते हैं?
4. गुदई महाराज का दूसरा नाम क्या था?
5. बायाँ या डग्गे का व्यवहार किस घराने में कलात्मक रूप से किया गया है?
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
1. दिल्ली घराने में तबला किस प्रकार बजाया जाता है?
2. पंजाब घराने में तबला वादन की विधि का वर्णन कीजिए।
3. बनारस घराने के तबला वादक किन-किन विधाओं के साथ बजाने की क्षमता रखते हैं?
4. नाथद्वारा घराने के कुछ पखावज वादकों के नाम बताइए।
सही और गलत बताइए
1. अनोखे लाल मिश्र एवं किशन महाराज पंजाब घराने के तबला वादक हैं।
2. दिल्ली घराने के मूल पुरुष उस्ताद सिद्धार खाँ डाढ़ी थे।
3. घराना शब्द राजमहलों से आया है।
4. लतीफ़ अहमद खाँ बनारस घराने के तबला वादक हैं।
5. दिल्ली घराने का जन्म अकबर के काल में हुआ।
रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए
1. लाला भवानी दास ___________ घराने के मूल संस्थापक थे।
2. पंडित राम सहाय ___________ घराने के कलाकार थे।
3. अजराड़ा ___________ ज़िले में है।
4. शफात अहमद खाँ ___________ घराने के तबला वादक हुए।
5. हसमत खाँ एवं अकरम खाँ ___________ घराने के विख्यात तबला वादक हैं।
6. ___________ नाथद्वारा घराने की एक विख्यात परन है।
विद्यार्थियों हेतु गतिविधि
1. उठान, बाँट, लग्गी, कवित्त, फ़र्द, परन आदि का वादन अपने शिक्षक के साथ बैठकर देखिए, समझिए एवं इन्हें सीखने का प्रयत्न कीजिए। विभिन्न कलाकारों को बजाते हुए सुनने से अलग-अलग शैलियों का भी ज्ञान प्राप्त कीजिए।
2. नाथद्वारा घराने के कलाकारों से संपर्क स्थापित कर एक परियोजना तैयार कीजिए, जिसमें घराने के प्रमुख कलाकारों के छायाचित्रों एवं प्रचलित बंदिशों का संकलन सम्मिलित हो।
हबीवुद्दीन खाँ
तबले के अजराड़ा घराने को एक नई दिशा और नई पहचान देने वाले प्रसिद्ध तबला वादक उस्ताद हबीबुद्दीन खाँ का जन्म मेरठ के अजराड़ा गाँव (उत्तर प्रदेश) में सन् 1899 में हुआ था। परिवार में तबला वादन की कला पहले से थी। पिता शम्मू खाँ, पितामह फस्सू खाँ और प्रपितामह काले खाँ तबले के उस्ताद थे। अतः स्वाभाविक ही था कि शिक्षा की शुरुआत घर से ही होती और वह हुई भी। हबीबुद्दीन खाँ बचपन से कुशाग्र बुद्धि के थे। वे अत्यंत परिश्रमी भी थे। उन्होंने शुरू में ही जान लिया था कि अजराड़ा का तबला कई मामलों में सीमित है। अत: वे उसे और अधिक क्षमतावान बनाना चाहते थे। वे अपने वादन को चौमुखा बनाना चाहते थे, इसलिए वे अजराड़ा की सीमा से बाहर निकले।
चित्र 8.1 - हबीबुद्दीन खाँ
उस्ताद हबीबुद्दीन खाँ ने अपने वादन को और अधिक विस्तार देने के उद्देश्य से उस समय के दिल्ली घराने के महान तबला वादक उस्ताद नत्थू खाँ से सीखा। वह कथक नृत्य की संगत भी करना चाहते थे। अतः लखनऊ घराने के उस्ताद अली रज़ा से भी उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। इस तरह दिल्ली और लखनऊ के तबले को जब उन्होंने अजराड़ा के तबले के साथ मिलाकर बजाया तो उसकी चमक ने सबको चमत्कृत कर दिया। यही कारण है कि अजराड़ा घराने की चर्चा चलने पर पहला नाम उस्ताद हबीबुद्दीन खाँ का ही लिया जाता है, क्योंकि वे इस घराने के पहले ताबलिक थे जो चतुर्मुखी थे। स्वतंत्र वादन और गायन तथा वादन की संगति के साथ-साथ कथक नृत्य की भी उन्होंने बहुत अच्छी संगति की थी। अपने समय के लगभग सभी महान संगीतकारों के साथ उन्होंने संगत की थी। सन् 1940 से 1960 का समय तबला वादन की दृष्टि से हबीबुद्दीन खाँ का था। उस समय उनके नाम का डंका बजता था, उनके बिना कोई संगीत सम्मेलन पूरा नहीं होता था। वह समय खाँ साहब के चरमोत्कर्ष का था, जब देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया। लखनऊ के अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में उन्हें अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। रमजान खाँ, मनमोहन सिंह और एस. के सक्सेना जैसे इनके शिष्यों ने भी अच्छी प्रतिष्ठा अर्जित की थी।
पहिलियों के उत्तर
पहेली संख्या 1
पहेली संख्या 2
पहेली संख्या 3