अध्याय 06 पारिभाषिक शब्‍द

ध्वनि

संगीत एक ऐसी कला या विद्या है जिसका माध्यम ध्वनि है। ध्वनि के अनेक प्रकारों पर जब हम गहन दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि ये विभिन्न प्रकार की ध्वनियाँ कभी हमें चौंकाती हैं, कभी हमारे अंदर दिलचस्पी जगाती हैं तो कभी अनूठी लगती हैं। कभी मेघ गर्जन की तरह तेज तो कभी नर्म, मुलायम, मखमली घास पर किसी की पदचाप तो कभी पक्षियों के कलरव और पशुओं के रँभाने की आवाज, कभी फ़ेरी वालों की हाँक लगाती आवाजें तो कभी अनेक मानवीय ध्वनियाँ हमें सुुाई पड़ती रहती हैं। नदी की धाराओं की कलकल ध्वनि, पत्तियों की सरसराहट, आकाश से गिरती वर्षा की बूँदों की रिमझिम और ऐसी ही अनेक ध्वनियाँ प्रकृति में समाहित हैं। एक संवेदनशील व्यक्ति इन सभी का अनुभव करता है।

घर्षण अथवा आघात से उत्पन्न ध्वनि एक प्रकार का कंपन या आंदोलन है जो किसी ठोस, द्रव या वायु रूपी पदार्थ से होकर संचरित होता है। इसे वैज्ञानिकों द्वारा भी सिद्ध किया जा चुका है। ध्वनि अनेक प्रकार से उत्पन्न हो सकती है, किंतु मुख्य रूप से उन कंपनों को ही ध्वनि कहते हैं जो मानव के कान में सुनाई पड़ती है। ध्वनि के संचरण के लिए माध्यम की आवश्यकता होती है। मनुष्य के कानों द्वारा लगभग 20 हर्ट्स से लेकर 20 किलोहर्ट्स (20000 हर्ट्स) आवृत्ति की तरंगों को सुना जा सकता है। बहुत-से जीव-जंतु इससे बहुत अधिक या बहुत कम आवृत्ति की तरंगों को भी सुन सकते हैं। पेड़-पौधों में भी ध्वनि को सुनने की क्षमता होती है।

उदाहरणस्वरूप, यदि हम किसी तंत्री वाद्य के तार को छेड़ें या किसी तबले जैसे वाद्य या किसी ऐसी वस्तु पर आघात करें जिनमें कंपन संभव हो, तो उसमें ध्वनि अवश्य उत्पन्न होगी। अनेक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि प्रत्येक ध्वनि की विशेषता उसके कंपन पदार्थ व कंपन की संख्या पर निर्भर करती है। बाँसुरी में हवा के कंपन से ध्वनि उत्पन्न होती है। झाँझ में धातु के कंपन से तथा मनुष्य के कंठ के भीतर जो स्वर तंत्रियाँ हैं, उसके कंपन से ध्वनि उत्पन्न होती है। ध्वनि दो प्रकार की होती है- मधुर और कटु अथवा कोलाहल। मधुर ध्वनि संगीतोपयोगी होती है।

नाद

संगीत का आधार नाद है। नाद से श्रुति, श्रुति से स्वर तथा स्वर से ही राग की उत्पत्ति होती है। नियमित और स्थिर आंदोलन संख्या वाली ध्वनि को नाद की संज्ञा प्रदान की गई है।

नाद के दो भेद हैं -

1. आहत नाद — जब आघात अथवा घर्षण करने के बाद कोई ध्वनि उत्पन्न होती है तो उसे आहत नाद कहते हैं। संगीत में यही नाद प्रयोग में लाया जाता है।

2. अनाहत नाद — ऐसी ध्वनि जो बिना किसी प्रकार के आघात किए उत्पन्न हो, उसे अनाहत नाद कहते हैं। इसे सुना नहीं जा सकता, यह सिर्फ़ अनुभव की जा सकती है। यह प्रकृति में पहले से ही विद्यमान है। अगर दोनों कानों में अँगुली डालकर, कान बंद करके तन्मयता से सुनें तो कुछ अस्पष्ट आवाजेें सुनाई देती हैं। इसी को अनाहत नाद कहते हैं।

नाद की विशेषताएँ अथवा लक्षण

1. नाद की तारता (नीचा-ऊँचापन) — प्रत्येक नाद एक-दसरे से ऊँचा या नीचा होता है। गाने-बजाने के समय हम यह अनुभव करते हैं कि ‘सा’ से ऊँचा ‘रे’, ‘रे’ से ऊँचा ‘ग’ है। जैसे-जैसे हम ऊपर चढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे स्वर ऊँचा होता जाता है और जैसे-जैसे नीचे उतरते जाते हैं तो स्वर नीचा होता जाता है। यही नाद की तारता (नीचा-ऊँचापन) कहलाती है।

2. नाद का छोटा-बड़ापन या तीव्रता — एक ही नाद को हम धीरे या ज़ोर से उत्पन्न कर सकते हैं, जो नाद धीरे से उत्पन्न किया गया हो उसे नाद का छोटापन कहते हैं। यह नाद या ध्वनि कम दूर तक सुनाई देती है। ज़ोर से उत्पन्न की गई ध्वनि को नाद का बड़ापन कहते हैं। यह नाद या ध्वनि अधिक दूर तक सुनाई देती है।

3. नाद की जाति अथवा गुण - नाद की जाति के आधार पर वाद्य या व्यक्ति को बिना देखे उसकी आवाज़ सुनकर हम यह आसानी से पहचान जाते हैं कि सितार की आवाज़ आ रही है या किसी इनसान के बोलने की। इसे ही नाद की जाति अथवा गुण कहते हैं।

श्रुति

संगीत में उपयोग होने वाली ध्वनि जो कानों को स्पष्ट अथवा साफ़ सुनाई दे और एक-दूसरे से अलग व स्पष्ट रूप से पहचानी जा सके, उसे ‘श्रुति’ कहते हैं। “भ्रूयते इति श्रुति” अर्थात् जिसे सुना जा सके, श्रुति कहलाती है।

स्वर

ऐसी मान्यता है कि नाभि, हृदय, कंठ, मूर्धा और मुख— इन पाँच स्थानों से पाँच प्रकार के नाद उत्पन्न होते हैं। नाद ही क्रमशः स्वरों का जन्मदाता है एवं स्वर भाव तथा रस की सृष्टि करता है।

भारतीय संगीत में मुख्यत: सात स्वर माने गए हैं जो क्रमश: इस प्रकार हैं— षड्ज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद। इन सात स्वरों को सामान्य बोलचाल में “सा रे ग म प ध नि" कहते हैं। ये सातों शुद्ध स्वर हैं। लेकिन इनमें- रे, ग, ध, और नि कोमल स्वर होते हैं तथा म तीव्र स्वर होता है, इन्हें विकृत स्वर भी कहते हैं। इस तरह शुद्ध और विकृत स्वरों की कुल संख्या 12 हो जाती है। ‘सा’ और ‘प’ स्वर अचल होते हैं।

स्वर जब नीचे से ऊपर की ओर जाते हैं अर्थात् ‘सा रे ग म प ध और नि’ तो उसे आरोह कहते हैं। जबकि, ऊपर से नीचे की ओर आने वाली क्रिया अर्थात् ‘सा नि ध प म ग रे सा’ अवरोह कहलाती है।

जैन आचार्य पार्श्वदेव ने अपने ग्रंथ संगीत समयसार में लिखा है कि सिर, कंठ, उर, तालु, जिह्ना और दाँत- इन छह स्थानों से उत्पन्न स्वर षड्ज कहलाता है। नाभि से उठकर कंठ तथा सिर से समाहित वायु जब वृषभ के समान नाद उत्पन्न करता है, तब ऋषभ कहलाता है। नाभि से उत्पन्न तथा कंठ एवं सिर से संबंद्ध वह स्वर जो गंधर्वों के सुख का कारण बना, गंधार कहलाया। नाभि से उठा हुआ और हृदय से समाहित वायु मध्य स्थान में उत्पन्न होने के कारण मध्यम कहलाया। होंठ, तालु, कंठ, सिर और हृदयइन पाँच स्थानों से उत्पन्न स्वर को पंचम कहा गया। वायु होंठ, कंठ, तालु, सिर और हृदय से होकर जब गुजजरती है तो उसे धैवत नाम से संबोधित किया जाता है। इसी प्रकार वायु के द्वारा कंठ, तालु और सिर का समर्थन न होने पर जिस स्वर से सभी स्वरों की समाप्ति होती है, वह स्वर निषाद है।

(मनके— भाव, सुर, लय के, प्रथम संस्करण, पं. विजयशंकर मिश्र, पृष्ठ 43-44, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार)

सप्तक

सात स्वरों के एक समूह को सप्तक कहते हैं। सप्तक के तीन प्रकार माने गए हैं- मंद्र सप्तक, मध्य सप्तक और तार सप्तक। सामान्य बोलचाल के लिए जिस ध्वनि का प्रयोग किया जाता है, यदि उसे मध्य सप्तक माना जाए तो उससे दुगुनी नीची ध्वनि को मंद्र सप्तक व दुगुनी ऊँची ध्वनि को तार सप्तक की संज्ञा दी जा सकती है। इसी प्रकार गाने-बजाने के मध्य ‘सा’ से ‘नि’ तक जिस ध्वनि का प्रयोग किया जाता है, उसे मध्य सप्तक कहा जाता है। उससे दुगुनी नीचे पिच वाले स्वरों को मंद्र सप्तक व दुगुनी ऊँची तारता वाले स्वरों को तार सप्तक कहा जाता है।

एक मान्यता के अनुसार, मयूर से षड्ज, चातक से ऋषभ, बकरे से गंधार, कीवे से मध्यम, कोयल से पंचम, मेंढक से धेवत और हाथी की आवाज से निषाद स्वरों की उत्पत्ति हुई है।

राग

विशिष्ट स्वरों से बनने वाले समुदाय राग कहलाते हैं।

“योऽसो ध्वनि विषेशस्तु स्वरवर्ण विभूषीतः। रंजको जनचित्तानां स रागः कथितो बुधै:।।”

  • बृहृद्रदसी तृतीयोअध्याय: श्लोक 264

भावार्थ— ध्वनि की वह विशिष्ट रचना जो ‘स्वर’ तथा ‘वर्ण’’ से सुशोभित हो और जो सुनने वाले के मन को प्रसन्न कर सके, उसे राग कहते हैं। यहाँ पर ‘स्वर’ एवं ‘वर्ण’ शब्दों का उल्लेख आया है। स्वर से तात्पर्य संगीतोपयोगी ध्वनि से है जो अपने आप में मधुर हो, निंतंर एवं स्वयं चित्त को प्रसन्न करने वाली हो।

लय एवं उसके प्रकार

देखा जाए तो प्रत्येक स्थान पर व्यक्ति, वस्तु, जीव-जंतु सभी में एक लय होती है। यहाँ तक कि सूर्य, चंद्रमा इत्यादि भी समान लय में ही चलते हैं। मनुष्य की नाड़ी की गति भी समान लय में चलती रहती है। गायन, वादन एवं नर्तन में व्यतीत हो रहे समय की समान गति को लय कहा जाता है। एक मात्रा से दूसरी मात्रा के समान अंतर को भी लय कहते हैं। लय अपने व्यापक अर्थ में संपूर्ण जगत में व्याप्त है। पृथ्वी अपनी धुरी पर एक निश्चित लय में घूमती है, मनुष्य की नाड़ी एक निश्चित लय में चलती है तथा उसका हृदय एक निश्चित लय में धड़कता है। इसमें जब भी व्यवधान आता है तो संतुलन बिगड़ जाता है। लय के सही प्रयोगों के कारण ही ताल अपना आवर्तन निर्दिष्ट समय में पूरा करता है। दिन-रात और सूर्योदय-सूर्यास्त भी निश्चित समय पर होते हैं। घड़ी की सुई की चाल, स्वस्थ मनुष्य की नाड़ी और उसके हृदय की धड़कन आदि लय के जीवंत उदाहरण हैं।

शास्त्रों में लय के तीन प्रकार बताए गए हैं — विलंबित, मध्य और द्रुत।

1. विलंबित लय— जब लय बहुत धीमी गति में चलती है तो उसे विलंबित लय कहा जाता है। इस लय में गाए जाने वाले खयाल की बंदिश को विलंबित खयाल कहते हैं। सितार पर बजने वाली गत को मसीतखानी या विलंबित गत कहते हैं। तबला, पखावज या अन्य वाद्यों में भी विलंबित लय का प्रयोग किया जाता है। जब एक मात्रा से दूसरी मात्रा पर जाने में विलंब होता है, तो उसे विलंबित लय कहते हैं। विलंबित अर्थात् विलंब से आने वाला। इसकी गति मध्य लय की तुलना में आधी होती है। खयाल गायन में बड़ा अर्थात् विलंबित खयाल, ध्रुपद, तंत्री और सुषिर वाद्यों की विलंबित और मसीतखानी गतें और नृत्य तथा एकल तबला वादन का आरंभ इसी लय में होता है। सामान्यत: झमरा, तिलवाड़ा, एकताल, आड़ा चौताल, धमार, रूपक और झपताल जैसी तालें इसके लिए अधिक उपयुक्त मानी गई हैं। इसका एक अन्य प्रकार अति विलंबित लय भी मिलता है।

2. मध्य लय— वह लय जो सामान्यत: न तो बहुत अधिक विलंबित हो और न बहुत अधिक तेज़ हो, मध्य अर्थात् बीच की लय कहलाती है। गाने-बजाने में अधिकतर मध्य लय का प्रयोग किया जाता है। इसका मात्रा काल लगभग एक सेकंड का होता है। धमार गायन, छोटा खयाल, सितार की गतें और तबले में रेला आदि का वादन प्राय: इसी लय में होता है। त्रिताल, एकताल, झपताल, रूपक, आड़ा चौताल, तीव्रा इत्यादि ताल इसी लय में बजाए जाते हैं। शांत रस और भृंगार रस के लिए इस लय को उपयोगी माना गया है।

3. द्रुत लय- गाते-बजाते समय एक लय स्थिर की जाती है जो बराबर की लय कहलाती है। मध्य लय से दुगुनी लय को द्रुत लय कहा जाता है। इसी लय में द्रुत खयाल, तराने तथा सितार आदि पर रजाखानी या द्रुत गतें बजाई जाती हैं। स्वर वाद्यों में यहीं से झाला की शुरुआत करते हैं, जिसे अतिद्रुत लय तक ले जाकर वादक अपनी कुशलता का प्रदर्शन करते हैं। तबला स्वतंत्र वादन में, इस लय में टुकड़े, परन, गत, फ़र्द आदि का वादन होता है। इसमें एक मात्रा से दूसरी मात्रा के बीच का अंतराल लगभग $1 / 2$ सेकंड का होता है। त्रिताल, एकताल, झपताल, सूलताल, रूपक, तीव्रा, दीपचंदी, कहरवा, दादरा आदि जैसी तालें इस लय के लिए उपयोगी हैं। रौद्र, वीभत्स, भयानक, वीर एवं अद्भुत रसों का प्रदर्शन इसी लय में होता है।

ताल

ताल शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की ‘तल्’ धातु से हुई है जिसे आधार और भित्ति भी कहा जाता है। इसलिए ताल की गणना संगीत के आधारभूत तत्वों में होती है। जिस प्रकार अनुशासन और सामाजिक नियमों, प्रतिबंधों का हमारे दैनिक जीवन में बहुत महत्व होता है, उसी तरह ताल का संगीत में महत्व होता है। ताल ही संगीत को अनियंत्रित होने से रोककर एक निश्चित समय सीमा में बाँधता है। यह संगीत में व्यतीत हो रहे समय को मापने का एक महत्वपूर्ण साधन है जो भिन्न-भिन्न मात्राओं, विभागों, ताली व खाली के योग से बनता है। ताल के अंदर लय रक्त की तरह, मात्रा नाड़ी की तरह और ताली-खाली विभिन्न अंगों की तरह होती हैं। ताल के माध्यम से ही गायन, वादन और नर्तन की विभिन्न विधाओं की संगति की जाती है। समस्त सांगीतिक रचनाएँ किसी न किसी ताल में निबद्ध होती हैं। पारिभाषिक रूप से विभिन्न मात्राओं के समूह को ताल कहते हैं। संगीत में समय का माप ताल द्वारा किया जाता है। कह सकते हैं कि संगीत में समय आधारित एक निश्चित ढाँचे को ताल कहा जाता है। हिंदुस्तानी संगीत पद्धति में अनेक तालों की रचना की गई है। भारतीय संगीत में प्रचलित विभिन्न गायन शैलियों के लिए अलग-अलग तालों का निर्माण हुआ है। उदाहरणस्वरूप, ध्रुपद के लिए चारताल, सूलताल, ब्रह्माताल आदि, धमार के लिए धमार ताल आदि, ठुमरी के लिए दीपचन्दी व जतताल इत्यादि ताल बनाए गए हैं।

उदाहरण के लिए एकताल, जिसमें 12 मात्राएँ, छह विभाग हैं, चार ताली और दो खाली हैं।

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
ताली धिं धि धागे तिरकिट ना त्ता धागे तिरकिट धी ना
चिह्न $\times$ 0 2 0 3 4

मात्रा

लय की गति के मापन की क्रिया को मात्रा कहते हैं। मात्रा और लय दोनों एक-दूसरे की पूरक होती हैं। एक मात्रा एक सेकंड की मानें और मात्रा की लंबाई बढ़ा दें यानि दो सेकंड की कर दें तो विलंबित लय बनेगी। यदि मात्रा की लम्बाई घटाकर आधे सेकंड की एक मात्रा कर दें तो द्रुत लय हो जाएगी। मात्रा की गति पर ही लय निर्भर करती है। जब दो मात्राओं के मध्य अंतराल अधिक होगा तो लय भी धीमी होगी और अंतराल कम होगा तो लय तेज़ होगी। संगीत में व्यतीत हो रहे समय को मापने का साधन ताल है और ताल की सबसे छोटी इकाई अथवा पैमाना ‘मात्रा’ है। मात्रा पर विचार करते समय लय को ध्यान में रखना ज़रूरी होता है। भिन्न-भिन्न लयों में मात्रा की अवधि भी भिन्न-भिन्न होती है।

भिन्न-भिन्न मात्राओं के योग से ही एकताल की रचना होती है। जैसे तीव्रा ताल सात मात्रा की है, इसमें तीन ताली हैं। इस ताल में खाली नहीं होती है।

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7
ताल धा दि ता तिट कत गदि गन
चिह्न $\times$ 2 3

विभाग

प्रत्येक ताल के कुछ खंड होते हैं, इन्हें विभाग कहा जाता है। किसी भी ताल की मात्रा और स्थान विशेष को पहचानने की सुविधा के लिए उसे अलग-अलग खंडों या विभागों में बाँटा जाता है। किसी भी ताल की कुल तालियों, खालियों के योग के बराबर उस ताल के विभागों की संख्या होती है अर्थात् हर विभाग एक नई ताली या खाली का सूचक होता है, जैसे— रूपक में एक खाली और दो ताली हैं तो रूपक में तीन विभाग हैं। चौताल (चारताल) में चार ताली और दो खाली हैं तो उसके विभागों की संख्या छह है। विभाग के चिह्न के रूप में खड़ी रेखा चिह्न का प्रयोग होता है। उदाहरण के लिए, चारताल (चौताल), (अगले पृष्ठ पर देखें)—

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
ताल धा धा दि ता किट धा दि ता तिट कत गदि गन
चिह्न $\times$ 0 2 0 3 4

ताली एवं खाली

जब किसी ताल को अलग-अलग विभागों में बाँट दिया जाता है तो उन विभागों की पहचान के लिए दो अलग-अलग क्रियाओं का सहारा लिया जाता है। इसमें सशब्द क्रिया को साधारण बोलचाल की भाषा में ताली या आघात कहते हैं। बोलों की पढ़ंत करते समय ताली को दोनों हरेलियों को जोड़कर एक ध्वनि उत्पन्न करके दिखाया जाता है। खाली अर्थात् रिक्त या शून्य का भाव प्रदर्शित करने के लिए हाथ को हिलाकर शून्य के भाव का बोध कराया जाता है।

सामान्यतः ताली वाले स्थानों पर संयुक्त वर्ण, जैसे— धा, धिं आदि का ही प्रयोग होता है। खाली सामान्यत: ताल के मध्य में होती है, जैसे— त्रिताल में नौवीं मात्रा पर, झपताल में छठी और कहरवा में पाँचवीं मात्रा पर। किसी भी ताल में जिस मात्रा पर खाली होती है, वहाँ प्राय: बंद बोलों का प्रयोग होता है। लेकिन इस नियम का बहुत कठोरता से पालन नहीं किया जाता है। किसी भी ताल में खाली के दो विभाग एक साथ नहीं होते हैं। जबकि ताली के कई विभाग एक साथ हो सकते हैं। खाली को निशब्द क्रिया भी कहते हैं। दक्षिण भारतीय ताल पद्धति में इसके लिए विसर्जितम् शब्द का प्रयोग किया जाता है।

भातखंडे ताल पद्धति में ताली दर्शाने के लिए क्रमशः ताली की संख्या लिखी जाती है तथा इसे ’ 0 ’ चिह्न से दर्शाते हैं। उदाहरणस्वरूप तीनताल-

बोल धा धिं धिं धा धा धिं धिं धा धा तिं तिं ता ता धिं धिं धा
भातखंडे पद्धति $\times$ 2 0 3

सम

किसी भी ताल की प्रथम मात्रा पर सम होती है। गीत, गत अथवा नृत्य में इस स्थान पर विशेष जोर दिया जाता है। वैसे तो सम किसी भी ताल की प्रथम मात्रा को कहते हैं, परंतु अपवाद स्वरूप रूपक ताल को छोड़ दें तो सम पर प्राय: ताली ही होती है। इसलिए ताल की अन्य मात्राओं की अपेक्षा इस मात्रा पर अधिक बल दिया जाता है। इसे हाथ पर ताल देकर भी दिखाया जाता है।

सम किसी भी ताल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान होता है। संगीत में आनंद का केंद्र सम ही है। भातखंडे ताल लिपि पद्धति में इसे $(\times)$ से दर्शाया जाता है। जब हम कोई बंदिश गाते हैं या नृत्य में तत्कार इत्यादि पेश करते हैं तो सम की महत्ता समझ में आती है। गीत, वाद्य और नृत्य को लय के अनुसार कलाकार स्वरों या टुकड़ों से अलंकृत करता है। इस अलंकरण के पश्चात् जब कलाकार सम पर आकर मिलता है या समाहित होता है तो एक अलग भाव की सृष्टि होती है। गायक, वादक और नर्तक ‘सम’ को अपने घर जैसा मानते हैं। जिस तरह प्रात:काल एक व्यक्ति कामकाज के लिए निकलता है, समयानुसार विभिन्न तरह के क्रियाकलापों से कार्य को निपटाकर रात को उसी घर में लौट आता है, ठीक इसी प्रकार कलाकार एक मुखड़े को गाकर-बजाकर प्रदर्शन आरंभ करता है। मुखड़े के बाद सम आते ही विभिन्न तरह के टुकड़े, लयकारियों का सहारा लेकर मूल स्वर के साथ अपनी कला को उभारते हुए वापस सम पर आकर मिलता है।

भातखंडे ताल-लिपि में रूपक ताल

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7
ताल तीं तीं ना धी ना धी ना
चिह्न $\otimes$ 1 2

ठेका

ठेका उत्तर भारतीय संगीत की वह विशेषता है जो अन्य संगीत शैलियों में लगभग नहीं के बराबर पाई जाती है। किसी भी ताल का वह मूल बोल, जिसके द्वारा उस ताल को पहचाना जाता है, उस ताल का ठेका कहलाती है। इस ठेके की रचना उस ताल की प्रकृति, गति प्रकार और ताली, खाली, विभाग आदि को ध्यान में रखकर की जाती है, जैसे— झपताल की गति अगर $2 / 3 / 2 / 3$ की है तो इसका ठेका उसी प्रकार चलेगा।

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
ताल धी ना धी धी ना ती ना धी धी ना
चिह्न $\times$ 2 0 3

उल्लेखनीय है कि कर्नाटक संगीत और पाश्चात्य संगीत में ताल तो हैं, किंतु उनकी शैली में ठेके के सुनिश्चित बोल नहीं हैं। गायन की प्रकृति के अनुसार, ताल के स्वरूप को ध्यान में रखकर, अनुकूल बोलों का वादन किया जाता है।

आवर्तन या आवृत्ति

ताल को हमेशा से चक्ररूप में प्रदर्शित किया जाता रहा है। अत: किसी ताल की प्रथम मात्रा से अंतिम मात्रा के पूर्ण होने तक अर्थात् सम से सम तक के कालखंड को उस ताल का एक आवर्त, आवृत्ति या आवर्तन कहते हैं। दूसरी बार जब वह ताल आरंभ होता है, वह उसका दूसरा आवर्तन कहलाता है। उदाहरण के लिए, सूलताल का एक आवर्तन 10 मात्रा का होता है। 10 मात्रा बजने के बाद फिर दूसरा आवर्तन शुरू होता है।

तिहाई और इसके प्रकार (दम तथा बेदम)

जब किसी छोटे से बोल समूह को तीन बार एक जैसा गाया, बजाया या नाचा जाता है तो उसे तिहाई या तीया कहते हैं। तिहाई का भारतीय संगीत की हर विधा में महत्वपूर्ण स्थान है। तबला वादन के क्षेत्र में अनेक बोल, जैसे- पेशकर, कायदा, बाँट, रेला, टुकड़ा और परन आदि का समापन तिहाई से ही होता है। वस्तुत: तिहाई किसी भी बोल का समापन अंश होता है।

उदाहरण के लिए, दिल्ली घराने के एक पारंपरिक कायदे की तिहाई नीचे दर्शाई तालिका में दी गई है।

धातिटधा तिटधाधा तिटधागे तिनगिन धा ऽ धातिटधा तिटधाधा तिटधागे तिनगिन धा ऽ धातिटधा तिटधाधा तिटधागे तिनगिन धा
$\times$ 2 0 3 $\times$

लेकिन पिछले कुछ वर्षों में तिहाई की भूमिका का काफ़ी विस्तार हुआ है। अब स्वतंत्र तिहाइयाँ भी बनने लगी हैं। उनके आकार भी बढ़ने लगे हैं। कई बार तो कलाकार कई तरह की चमत्कारिक तिहाइयों का भी प्रयोग करते हैं। इसके दो प्रकार— दमदार तिहाई और बेदम तिहाई विशेष महत्वपूर्ण हैं।

दमदार तिहाई— जब तिहाई के प्रत्येक भाग के बाद थोड़ा रुका जाए, जिसे दम लेना या विराम अथवा विश्रांति भी कहा जा सकता है तो उस तिहाई को दमदार तिहाई की श्रेणी में रखा जाता है, जैसे- झपताल की यह तिहाई-

तिटकत गदिगन धा ऽ तिटकत गदिगन धा ऽ तिटकत गदिगन धा
$x$ 2 0 3 $x$

बेदम तिहाई- जब तिहाई के तीनों भागों के बीच कोई भी अंतराल न हो और तिहाई में प्रयुक्त सभी वर्ण समान वज़न और अनुपात के हों तो उसे बेदम तिहाई के अंतर्गत रखा जाता है। बेदम तिहाई के संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि सभी तालों में इसकी रचना संभव नहीं है। झपताल में बेदम तिहाई-

धाधा तिट धाती धाधा धाति टधा तीधा धाधा तिट धाती धा
$\times$ 2 0 3 $\times$

त्रिताल में बेदम तिहाई-

घेना धागे धीना गीना धाती धाघे नाधा गेधी नगी नाध तीधा घेना धागे धीना गीना धाति धा
$x$ 2 0 3 $\times$

कायदा

कायदा शब्द अरबी भाषा से बना है, जिसका अर्थ है— बंधन या नियम। कायदा के साथ एक और शब्द अभिन्नता से जुड़ा होता है- कायदा-कानून। कायदा का अर्थ है पद्धति अथवा किसी भी कार्य को करने का ढंग या सलीका। अंग्रेज़ी में इसके लिए मेथड शब्द का प्रयोग होता है। तबला वादन की शिक्षा मुख्यतः कायदे से ही आरंभ होती है। इसकी रचना मूलतः उन्हीं तालों में की जाती है, जिनमें स्वतंत्र वादन किया जाता है। अत: इस रचना में कुछ प्रतिबंध, पाबंदियाँ होती हैं। कायदा तबले पर बजने वाली उस विस्तारशील रचना को कहते हैं जिसके दो भाग होते हैंपहला भाग भरा और दूसरा खाली का होता है तथा जिसका विस्तार पलटों के रूप में किया जाता है। कायदा मूल रूप से तबला वाद्य की ही बंदिश है। किसी अन्य अवनद्ध वाद्य पर कायदे नहीं बजते। कायदा की रचना करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिस ताल में कायदा हो, उस ताल के विभाग और ताली, खाली के अनुरूप हो। कायदे की मूल रचना को ठाह, दुगुन व चौगुन में बजने के बाद पलटों के रूप में विस्तार करते हुए इसका समापन तिहाई के साथ किया जाता है।

एकताल में कायदा-

धातीधागे धिनगिन तिरकिटतकधा गिनधेन धागेतिरकिट तिनकिन
$x$ 0 2
तातीताके तिनकिन तिरकिटतकत किनधेन धागेतिरकिट धिनगिन
0 3 4

एक अन्य पारंपरिक कायदा (त्रिताल) में (दिल्ली घराना)-

धाति टधा तिट धाधा तिट धागे तिन किन ताती टता तिट ताता तिट धागे धिन गिन
$\times$ 2 0 3

कायदे के दो भाग होते हैं —खुली और मुँदी। पहले भाग में खुले बोलों का प्रयोग होता है, जैसे-धा धा ति ट धा धा ति ना और दूसरे भाग के आधे में बंद तथा आधे में खुले वर्णों का प्रयोग होता है, जैसे— ता ता ति ट, धा धा धि ना।

पलटा

भारतीय संगीत के क्षेत्र में सृजनशीलता का काफ़ी महत्वपूर्ण स्थान है। एक छोटी-सी रचना को घंटों अपनी सृजनात्मक प्रतिभा का परिचय देते हुए गाया-बजाया जाता है। इसे विस्तार करना भी कहते हैं। जब किसी कायदे के वर्ण समूहों को सुंदर ढंग से उलट-पलट कर और विभिन्न संयोजनों द्वारा विस्तार किया जाता है तो इन्हें पलटा, प्रकार, पेंच, किस्में, विस्तार आदि कहते हैं। पलटा करने की क्षमता से ही किसी कलाकार की रचनात्मकता का मूल्यांकन किया जा सकता है। मूलतः जिन बोलों से कायदा बनाया जाता है, उन्हीं बोलों से उसका विस्तार किया जाता है। विस्तार के दौरान या पलटे करने में बाहर के बोलों का प्रयोग वर्जित होता है। उदाहरण के लिए, तीनताल में एक कायदा व कुछ पलटे अग्रलिखित हैं-

कायदा

अब इस कायदे में प्रयुक्त धा, तिट, धागे, तिनकिन के आधार पर इसके पलटे किए जा सकते हैं, जैसे—

पलठा 1

पलढा 2

पलठा 3

पलठा 4

इसी प्रकार से नाना प्रकार के पलटे बनाए जाते हैं, जिससे एक ही कायदा हर बार नए रूप, नए रंग में सामने आता है और सुनने वालों को विविधता का बोध कराता है। विस्तार की यह क्रिया हिंदुस्तानी संगीत की बहुत बड़ी विशेषता है।

रेला

रेला का अर्थ है— समूह या धारा प्रवाह, जैसे— आदमियों का रेला, पानी का रेला आदि। तबले के वर्णों से निर्मित ऐसा बोल जो आकार में छोटा, सुनने में कर्णप्रिय और बजाने में गति प्रधान हो, रेला कहलाता है। इसमें तिरकिट, धिनगिन, धिड़नग, धिरधिर किटतक आदि वर्णों की प्रधानता होती है। अत्यंत द्रत लय में बजने वाले इस बोल का विस्तार भी पलटों के माध्यम से किया जाता है। एकल वादन मेंरेला का आधार बनाकर टुकड़े, परन, गत, फ़र्द आदि को प्रस्तुत किया जाता है।

त्रिताल में एक पारंपरिक रेला

धातिर किटतक धिरधिर किटतक धिराधिर किटतक तातिर किटतक तातिर किटतक तिरतिर किटतक | धिरधिर किटतक धातिर किटतक

मुखड़ा और मोहरा

मुखड़ा और मोहरा समानार्थी और एक ही उद्देश्य से जुड़े होने के बावजूद आपस में कुछ भिन्नता रखते हैं। काम दोनों का एक ही है, सम अर्थात् ठेके का मुख दिखलाना। गायन और स्वर वाद्यों की अनेक रचनाएँ सीधे सम से न शुरू होकर अन्य स्थानों से भी शुरू होती हैं और ये रचनाएँ चाहे जहाँ से भी शुरू होती हों, उस स्थान को मुखड़ा कहा जाता है। सम की तरह मुखड़े का स्थान निर्धारित नहीं होता है। लेकिन तबला एवं पखावज वादक के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान सम होता है। इसी सम को स्पष्ट करने के लिए तबला वादक दूसरी, चौथी, पाँचवों या आठवीं मात्रा आदि की आकर्षक और गतिमान बोलों की कोई रचना बजाकर सम को जब प्रदर्शित करते हैं तो उस रचना को मुखड़ा और मोहरा कहा जाता है।

सामान्य तौर पर मुखड़ा और मोहरा एक ही जैसी रचना है, किंतु कुछ लोग इन दोनों में कुछ अंतर मानते हैं। उनके अनुसार मुखड़ा आकार में छोटा होता है और मोहरा बड़ा। साथ ही, मोहरा के अंत में एक तिहाई भी जुड़ी होती है, जबकि मुखड़ा में यह जरूरी नहीं। मुखड़ा और मोहरा के संबंध में यह भी याद रखना चाहिए कि किसी भी ताल का मुखड़ा या मोहरा उसके एक आवर्तन से अधिक का नहीं होना चाहिए।

उदाहरण के लिए, किसी भी ताल के अंत में अगर-

चार मात्राओं के बोल बजाए जाएँ तो वे मुखड़ा कहलाएँगे, किंतु अगर त्रिताल के अंतिम आठ मात्राओं में-

का वादन किया जाए तो वह मोहरा कहलाएगा।

त्रिताल में उदाहरणस्वरूप आठ मात्रा का एक और मोहरा-

टुकड़ा

तबले के खुले और ज़ोरदार वर्णों से निर्मित वह रचना जो कम से कम एक आवर्तन की हो, जिसके अंत में तिहाई भी हो और जो अविस्तारशील होने के कारण सिर्फ़ एक ही बार द्रुत लय में बजाई जाती हो, टुकड़ा कहलाती है। स्वतंत्र तबला वादन और नृत्य की संगति में इसका विशेष प्रयोग होता है।

उदाहरणस्वरूप त्रिताल में दो टुकड़े

अभ्यास

लघु उत्तरीय प्रश्न

1. नाद किसे कहते हैं?

2. श्रुति को पारिभाषित कीजिए।

3. लय को पारिभाषित कीजिए तथा लय के प्रकार बताइए।

4. भातखंडे ताल-लिपि के अनुसार सम को पारिभाषित करते हुए उसका चिह्न बताइए।

5. रेला किसे कहते हैं?

6. कायदा को पारिभाषित कीजिए।

7. तिहाई को उदाहरण सहित समझाइए।

8. ताल में ताली व खाली के महत्व को समझाइए।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

1. नाद की जाति अथवा गुण से आप क्या समझते हैं? उदाहरण सहित समझाइए।

2. ‘श्रुयते इति श्रुति’ से आप क्या समझते हैं? विस्तारपूर्वक समझाइए।

3. हिंदुस्तानी संगीत में किस प्रकार के स्वर पाए जाते हैं? चिह्नों द्वारा सभी स्वरों को लिखिए।

4. संगीत रत्नाकर में वर्ण को किस तरह परिभाषित किया गया है?

5. राग के सभी लक्षणों की उदाहरण सहित विवेचना कीजिए।

6. औड्व-सम्पूर्ण जाति के किसी एक राग का विवरण कीजिए।

7. द्रुत लय से आप क्या समझते हैं?

8. तीनताल में एक रेला लिखिए।

सही और गलत बताइए

1. किसी भी ताल की प्रथम तथा अंतिम मात्रा को सम कहते हैं।

2. मंद्र, मध्य तथा तार सप्तक के प्रकार हैं।

3. रूपक ताल में 10 मात्राएँ होती हैं।

4. प्रत्येक ताल के कुछ बोल होते हैं, जिन्हें विभाग कहा जाता है।

5. जब तिहाई के प्रत्येक भाग के बाद थोड़ा रुका जाए तो उसे दमदार तिहाई कहते हैं।

6. पलटा, प्रकार, पेंच, किस्में व विस्तार समानार्थी शब्द हैं व कायदे के विस्तार में प्रयुक्त होते हैं।

7. ध्वनि की वह विशिष्ट रचना जो स्वर तथा वर्ण से सुशोभित हो, उसे राग कहते हैं।

8. स्वर जब ऊपर से नीचे की ओर आते हैं, तो उसे आरोह कहते हैं।

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए

1. संगीत का आधार _________ है, नाद से _________ श्रुति से _________ तथा स्वर से _________ की उत्पत्ति होती है।

2. आघात अथवा घर्षण से उत्पन्न ध्वनि को _________ नाद कहते हैं।

3. सात स्वरों के समूह को _________ कहते हैं।

4. योयं ध्वनि _________ विभूषीत:।

5. जिस राग में छह स्वर गाए जाते हैं वह _________ जाति का राग होता है।

6.

1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
धि धि $\ldots$ $\ldots$ तू ना $\ldots$ $\ldots$ धागे तिरकिट $\ldots$. $\ldots$.

7. किसी भी ताल की प्रथम मात्रा में अंतिम मात्रा तक का क्षेत्र ___________ कहलाता है।

सुमेलित कीजिए

(क) एकताल 1. $2 / 3 / 2 / 3$
(ख) आहत 2. खाली
(ग) तिहाई 3. सप्तक
(घ) सम 4. 12 मात्रा
(ड.) मंद्र-मध्य 5. नाद
(च) विसर्जितम 6. बेदम
(छ) विकृत स्वर 7. प्रथम मात्रा
(ज) झपताल 8. $\underline {रे}$ $\underline {ग}$ $\underline {ध}$ $\underline {नि}$

गतिविधि

नीचे दिए गए सांगीतिक शब्दों का उपयोग करते हुए रिक्त स्थानों को भरिए। (उत्तर कुंजी में पहेली संख्या 2 पृष्ठ संख्या 92 देखें)

स्वर, कायदा, पेशकार, राग, टुकड़ा, विषम, वर्ण, मोहरा, आहत, लय, मुखड़ा, अनाहत, ताल, आरोह, ताली, पकड़, औड्व, विभाग, षाड्व, सम, सम्पूर्ण, ठेका, आन्दोलन, आवर्तन, तारता, आवृत्ति, तीव्रता, काल, परन

नत्थू खाँ

दिल्ली घराने के महान तबला वादक उस्ताद नत्थू खाँ का जन्म सन् 1875 में दिल्ली में हुआ था। इनके पिता उस्ताद बोली बख्श और पितामह उस्ताद काले खाँ प्रसिद्ध तबला वादक थे। नत्थू खाँ की गिनती अपने समय के श्रेष्ठ तबला वादकों में होती है। यह उनके वादन का ही कमाल था कि फ़र्रूखाबाद घराने के प्रसिद्ध तबला वादक उस्ताद अमीर हुसैन खाँ और उस्ताद अहमद जान थिरकवा तथा अजराड़ा घराने के प्रसिद्ध तबला वादक उस्ताद हबीबुद्दीन खाँ ने भी उनसे तबला सीखा। इनके अन्य शिष्यों में उस्ताद शमशुद्दीन खाँ, हरेंद्र किशोर राय चौधरी और केशवचंद्र बैनर्जी के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।

उस्ताद नत्थू खाँ दिल्ली घराने का शुद्ध तबला बजाते थे। ये अपनी परंपरा के प्रतिनिधि कलाकार थे और खलीफ़ा की पदवी से भी सम्मानित थे। दिल्ली के दो अँगुलियों का बाज इनकी विशेषता थी। पेशकार, कायदे और रेलों का जिस तरह एक-एक बंद खोलते हुए ये विस्तार करते थे, उससे उनके चिंतन का पता लगता था। दो अँगुलियों का कर्णप्रिय सम्मोहक वादन कानों के रास्ते से होकर सीधे दिल तक उतरता था। उस्ताद नत्थू के लिए उस युग के तबला वादक कहते थे कि जब वे पेशकार अथवा कायदे का विस्तार करते थे तो ऐसा लगता था कि हर बार एक नया पेशकार या नया कायदा सुन रहे हैं। तित, तिरकट और धिरधिर किटितक जैसे वर्ण समूहों वाले बोलों को वे अत्यंत तीव्र गति में बजाते थे। उस्ताद अमीर हुसैन खाँ ने उस्ताद नत्थू खाँ के तबले पर एक बार अपनी राय देते हुए कहा था, “उस्ताद नत्थू खाँ साहब के हाथ की तैयारी असाधारण थी। उनकी दो अँगुलियों से बजने वाले धिरधिर से प्रभावित होकर मैंने दो अँगुलियों के धिरधिर का रियाज किया है।”

उस्ताद नत्थू खाँ के जीवन का उत्तरार्द्ध कोलकाता में व्यतीत हुआ। वहाँ उन्होंने दिल्ली घराने के तबले का खूब प्रचार-प्रसार किया तथा कई लोगों को शिक्षा प्रदान की। उन दिनों स्वतंत्र तबला वादन का बहुत अधिक प्रचलन नहीं था। स्वतंत्र तबला वादन को लोकप्रिय बनाने में उनकी बड़ी भूमिका थी। उनके वादन से प्रभावित होकर एच.एम.वी. कंपनी ने उनके एकल वादन की एक ध्वनि मुद्रिका भी बनाई थी। वे प्रथम ताबलिक थे जिनके एकल वादन का एल.पी. रिकॉर्ड बना था। दिल्ली घराने के तबले को लोकप्रियता की नई ऊँचाई देने वाले इस महान् ताबलिक का निधन सन् 1940 में 65 वर्ष की उम्र में हुआ। उनके विषय में, उस्ताद हबीबुद्दीन खाँ का कथन था— “हमारे उस्ताद नत्थू खाँ साहब जब तबला बजाते थे, तब वे सोने की स्याही से तबले की खूबियों को लिखते थे।”



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