अध्याय 03 हिंदुस्तानी संगीत के पारिभाषिक शब्द

ध्वनि

संगीत एक ऐसी कला या विधा है जिसका माध्यम है ध्वनि। ध्वनि के अनेक प्रकारों पर जब हम गहन दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि ये विभिन्न प्रकार की ध्वनियाँ कभी हमें चौंकाती हैं, कभी हमारे अंदर दिलचस्पी जगाती हैं तो कभी अनूठी लगती हैं। कभी मेघ गर्जन की तरह तेज़ तो कभी नर्म-मुलायम घास पर किसी की पदचाप, कभी पक्षियों के कलरव और पशुओं के रँभाने की आवाजों, कभी फ़ेरी वालों की हाँक लगाती आवाजेें तो कभी अनेक मानवीय ध्वनियाँ हमें सुनाई पड़ती रहती हैं। नदी की धाराओं की कलकल ध्वनि, पत्तियों की सरसराहट, आकाश से गिरती वर्षा की बूँदों की रिमझिम और ऐसी ही अनेक ध्वनियाँ प्रकृति में समाहित हैं। एक संवेदनशील व्यक्ति इन सभी का अनुभव करता है।

घर्षण अथवा आघात से उत्पन्न ध्वनि एक प्रकार का कंपन या आंदोलन है जो किसी ठोस, द्रव या वायु रूपी पदार्थ से होकर संचारित होता है। इसे वैज्ञानिकों द्वारा भी सिद्ध किया जा चुका है। ध्वनि अनेक प्रकार से उत्पन्न हो सकती है किंतु मुख्य रूप से उन कंपनों को ही ध्वनि कहते हैं जो मानव के कान को सुनाई पड़ती है। ध्वनि के संचारण के लिए माध्यम की आवश्यकता होती है। मनुष्य के कानों द्वारा लगभग 20 हर्ट्ज से लेकर 20 किलोहर्ट्र्ज (20000 हर्ट्ज़) आवृत्ति की तरंगों को सुना जा सकता है। बहुत से अन्य जीव-जंतु इससे बहुत अधिक या बहुत कम आवृत्ति की तरंगों को भी सुन सकते हैं। पेड़-पौधों में भी ध्वनि को सुनने की क्षमता होती है।

उदाहरणस्वरूप, यदि हम किसी तंत्री वाद्य के तार को छेड़ें या किसी तबले जैसे वाद्य या किसी ऐसी वस्तु पर आघात करें तो उसमें से ध्वनि अवश्य उत्पन्न होगी। अनेक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि प्रत्येक ध्वनि की विशेषता उसके पदार्थ व कंपन की संख्या पर निर्भर होती है। बाँसुरी में हवा के कंपन से ध्वनि उत्पन्न होती है। झाँझ में धातु के कंपन से तथा मनुष्य के कंठ के भीतर जो स्वर तंत्रियाँ हैं, उसके कंपन से ध्वनि उत्पन्न होती है। ध्वनि दो प्रकार की होती है- मधुर और अमधुर अथवा कोलाहल मधुर ध्वनि संगीतोपयोगी होती है।

नाद

संगीत का आधार नाद है। नाद से श्रुति, श्रुति से स्वर तथा स्वर से ही राग की उत्पत्ति होती है। नियमित और स्थिर आंदोलन संख्या वाली ध्वनि को ‘नाद’ की संज्ञा प्रदान की गई है।

भावार्थ— नाद के बिना न गीत, न स्वर और न ही नृ है इसलिए पूरा संसार नादात्मक है। नाद के दो भेद हैं-

  1. आहत नाद , $ \qquad $ 2. अनाहत नाद

1. आहत नाद — जब आघात अथवा घर्षण करने के बाद कोई ध्वनि उत्पन्न होती है तो उसे ‘आहत नाद’ कहते हैं। संगीत में यही नाद प्रयोग में लाया जाता है।

2. अनाहत नाद — ऐसी ध्वनि जो बिना किसी आघात के उत्पन्न हो उसे अनाहत नाद कहते हैं। इसे सुना नहीं जा सकता, यह सिर्फ़ अनुभव किया जा सकता है। यह प्रकृति में पहले से ही विद्यमान है। अगर दोनों कानों में अँगुली डालकर, कान बंद करके तन्मयता से सुनें तो कुछ अस्पष्ट आवाजें सुनाई देती हैं। इसी को ‘अनाहत नाद’ कह सकते हैं।

नाद की विशेषताएँ

1. नाद का ऊँचा-नीचापन या तारता — प्रत्येक नाद एक-दूसरे से ऊँचा या नीचा होता है। गाने-बजाने के समय हम यह अनुभव करते हैं कि स से ऊँचा रे, रे से ऊँचा ‘गग’ है। जैसे-जैसे हम ऊपर चढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे स्वर ऊँचा होता जाता है और जैसे-जैसे नीचे उतरते जाते हैं तो स्वर नीचा होता जाता है। यही नाद का ऊँचा-नीचापन कहलाता है।

2. नाद का छोटा-बड़ापन या तीव्रता — एक ही नाद को हम धीरे या ज़ोर से उत्पन्न कर सकते हैं जो नाद धीरे से उत्पन्न किया गया हो उसे ‘नाद का छोटापन’ कहते हैं। यह नाद या ध्वनि कम दूर तक सुनाई देती है। ज़ोर से उत्पन्न की गई ध्वनि को ‘नाद का बड़ापन’ कहते हैं। यह नाद या ध्वनि अधिक दूर तक सुनाई देती है।

3. नाद की जाति अथवा गुण — नाद की जाति के आधार पर वाद्य या व्यक्ति को बिना देखे उसकी आवाज़ सुनकर हम यह आसानी से पहचान जाते हैं कि सितार की आवाज़ आ रही है या किसी इंसान के बोलने की। इसे ही नाद की जाति अथवा गुण कहते हैं।

1. ध्वनि के संचरण के लिए कौन से माध्यम हो सकते हैं? किन्हीं दो पर विचार करें। आप सभी ने दसवीं कक्षा तक विज्ञान पढ़ा है। विज्ञान द्वारा ध्वनि को किस तरह समझ सकते हैं।

2. ध्वनि में कंपन पर विचार करें।

3. आजकल आप सब इंटरनेट से बहुत कुछ खोज निकालते हैं। तो खोज करके बताइए कि जब हम तबला, सितार, संतूर या सुमधुर कंठ से संगीत सुनते हैं तो इतने आनंद का क्यों अनुभव होता है?

4. नाद शब्द संगीत में बहुत महत्व रखता है। ऐसा क्यों?

श्रुति

संगीत में उपयोग होने वाली ध्वनि जो कानों को स्पष्ट एवं साफ़ सुनाई दे और एक-दूसरे से अलग व स्पष्ट रूप से पहचानी जा सके उसे श्रुति कहते हैं। ‘श्रूयते इतिश्रुति’ अर्थात् जिसे सुना जा सके उसे श्रुति कहते हैं। श्रुति शब्द की उत्पत्ति श्रृ धातु से हुई है जिसका अर्थ है- सुनना। शरीर में अलग-अलग स्थानों पर नाड़ियाँ होती हैं। शरीर का रक्त संचार इन्हीं नाड़ियों पर निर्भर होता है। भरत के अनुसार हृदय स्थान में 22 नाड़ियाँ हैं। इसी कारण विद्वानों ने श्रुतियों की संख्या 22 निर्धारित की है-

1. तीव्रा 7 कुमुद्वती 13. मंदा 19. रौद्री
2. दयावती 8. रंजनी 14. रक्तिका 20. प्रीति
3. कोरा 9 वज्रिका 15. प्रसारिणी 21. संदीपनी
4. मार्जनी 10 क्षिति 16. रक्ता 22 रम्या
5. आलापिनी 11. मदंती 17. रोहिणी
6. उग्रा 12 क्षोभिणी 18. छंदोवती

संगीत के विद्वानों ने एक सप्तक के अंतर्गत 22 श्रुतियों को माना है। इन्हीं 22 श्रुतियों में से 7 मुख्य श्रुतियों को ‘स्वर’ की संज्ञा दी है। भरतमुनि से लेकर वर्तमान काल तक के सभी ग्रंथकारों ने 22 श्रुतियों को सात स्वरों के अंतर्गत विभाजित किया है। इनमें स म प की चार श्रुतियाँ, रे ध की तीन श्रुतियाँ तथ ग नि की दो श्रुतियाँ मानी जाती हैं।

प्राचीन तथा मध्यकालीन संगीतकारों ने अपने स्वरों को अंतिम श्रुति पर स्थापित किया जिसके फलस्वरूप स्वरों की ध्वनि व्यवस्था काफ़ी थाट के समान थी। निम्न तालिका से यह विभाजन स्पष्ट हो जाएगा-

मध्य काल तक विद्वानों के मतानुसार, इस विभाजन में स्वर की स्थापना श्रुतियों में से अंतिम श्रुति पर की गई और इस प्रकार स चौथी श्रुति पर, रे सातवों श्रुति पर स्थित है, ग नौवीं श्रुति पर, म तेरहवीं श्रुति पर, प सत्रहवीं श्रुति पर, ध बीसवीं श्रुति पर और नि बाइसवीं श्रुति पर स्थित माना गया परंतु वर्तमान काल में पंडित भातखंडे द्वारा स्वर की स्थापना श्रुतियों में से प्रथम श्रुति पर की गई।

भरतमुनि के अनुसार— संगीत रत्नाकर में

भावार्थ— स म प की चार-चार, ग नि की दो-दो तथा रे ध की तीन-तीन श्रुतियाँ मानी गई हैं।

श्रुतियाँ

क्र. सं. श्रुतियों के नाम प्राचीन कालीन
स्वर
आधुनिक स्वर आंदोलन संख्या
1. तीव्रा घड्ज 240
2. कुमुद्वती
3. मंदा
4. छंदोवती षड्ज
5. दयावती रिषभ 270
6. रंजनी
7. रक्तिका रेषभ
8. रौद्री गंधार
9. क्रोधा गंधार
10. वज्रिका मध्यम 320
11. प्रसारिणी
12. प्रीति
13. मार्जनी मध्यम
14. क्षिति पंचम 360
15. रक्ता
16. संदीपनी
17. आलापिनी पंचम
18. मदंती धैवत 405
19. रोहिणी
20. रम्या धैवत
21. उग्रा निषाद
22. क्षोभिणी निषाद

आधुनिक संगीतकारों ने अपने स्वरों को प्रथम श्रुति पर स्थापित किया जिसके फलस्वरूप प्राचीन और आधुनिक स्वर भिन्न हो गए और आधुनिक स्वर बिलावल थाट जैसे हो गए। आधुनिक श्रुति स्वर व्यवस्था निम्न प्रकार से हो गई-

स्वर

22 श्रुतियों में से सात शुद्ध स्वर की उत्पत्ति हुई है। ऐसी मान्यता है कि नाभि, हृदय, कंठ, मूर्धा और मुख इन पाँच स्थानों से पाँच प्रकार के नाद उत्पन्न होते हैं। नाद ही क्रमश: स्वरों का जन्मदाता है एवं स्वर भाव तथा रस की सृष्टि करता है। भारतीय संगीत में मुख्यत: सात स्वर माने गए हैं जो क्रमश: इस प्रकार हैं— षड्ज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद। इन्हें सामान्य बोलचाल में स रे ग म प ध नि कहते हैं।

जैन आचार्य पार्श्वदेव ने अपने ग्रंथ संगीत समयसार में लिखा है कि सिर, कंठ, उर, तालु, जिह्बा और दाँत इन छ: स्थानों से उत्पन्न स्वर षड्ज कहलाता है। नाभि से उठकर कंठ तथा सिर से समाहित वायु जब वृषभ के समान नाद उत्पन्न करता है तब ॠषषभ कहलाता है। नाभि से उत्पन्न तथा कंठ एवं सिर से संबद्ध वह स्वर जो गंधर्वों के सुख का कारण बना, गंधार बना। नाभि से उठा हुआ और हृदय से समाहित वायु मध्य स्थान में उत्पन्न होने के कारण मध्यम कहलाया तो होंठ, तालु, कंठ, सिर और हृदय— इन पाँच स्थानों से उत्पन्न स्वर को पंचम कहा गया। वायु होंठ, कंठ, तालु, सिर और हृदय से होकर जब गुज़रती है तो उसे धैवत नाम से संबोधित किया जाता है। इसी प्रकार वायु के द्वारा कंठ, तालु और सिर का समर्थन न होने पर जिस स्वर से सभी स्वरों की समाप्ति होती है वही स्वर निषाद है।

(मनके: भाव, सुर, लय के/प्रथम संस्करण/पं. विजयशंकर मिश्र/ पृष्ठ 43-44/ प्रकाशन विभाग, भारत सरकार)

नारद द्वारा रचित शिक्षा ग्रंथ में लिखा गया है- मयूर से षड्ज, चातक से ऋषभ, बकरे से गंधार, कौवे से मध्यम, कोयल से पंचम, मेढ़क से धैवत और हाथी की आवाज़ से निषाद स्वरों की उत्पत्ति हुई है।

भारतीय संगीत में इन सप्त स्वरों मेंरे, ग, म, ध, और नि के दो रूप होते हैं। इनमें रे, ग, ध तथा नि के दो रूप शुद्ध व विकृत तथा म के दो रूप शुद्ध और तीव्र होते हैं। इस तरह शुद्ध और विकृत स्वरों की कुल संख्या 12 (बारह) हो जाती है। स और प स्वर अचल होते हैं।

स्वर जब नीचे से ऊपर की ओर जाते हैं अर्थात् स रे ग म प ध और नि तो उसे ‘आरोह’ कहते हैं। जबकि, ऊपर से नीचे की ओर आने वाली क्रिया-स नि ध प म ग रे स ‘अवरोह’ कहलाती है।

सप्तक

सात स्वरों के एक समूह को ‘सप्तक’ कहते हैं। सप्तक के तीन प्रकार माने गए हैं- मंद्र सप्तक, मध्य सप्तक और तार सप्तक। सामान्य बोलचाल के लिए जिस ध्वनि का प्रयोग किया जाता है यदि उसे ‘मध्य सप्तक’ माना जाए तो उससे दुगुनी नीची ध्वान को ‘मंद्र सप्तक’ व दुगुनी ऊँची ध्वनि को ‘तार सप्तक’ की संज्ञा दी जा सकती है। इसी प्रकार गाने-बजाने के मध्य स से नि तक जिस ध्वनि का प्रयोग किया जाता है उसे मध्य सप्तक कहा जाएगा। उससे दुगुनी नीची तारता वाले स्वरों को मंद्र सप्तक व दुगुनी ऊँची तारता वाले स्वरों को तार सप्तक कहा जाएगा।

वर्ण

किसी भी व्यक्ति के वर्ण से उसकी पहचान होती है। उसी तरह गाने या बजाने के विभिन्न आयामों को ‘वर्ण’ कहा गया है।

भावार्थ — गान करने की क्रिया को वर्ण कहते हैं। वर्ण चार प्रकार के होते हैं-

1. स्थायी वर्ण —— जब एक ही स्वर बार-बार उच्चरित होता है, तो उसे ‘स्थायी वर्ण’ कहते हैं।

2. आरोही वर्ण —— ड्ज से ऊपर निषाद की ओर स्वरों को गाने या बजाने को ‘आरोही वर्ण’ कहते हैं।

3. अवरोही वर्ण —— निषाद से नीचे की ओर स्वरों को गाने या बजाने को ‘अवरोही वर्ण’ कहते हैं।

4. संचारी वर्ण —— स्थायी, आरोही, अवरोही इन तीनों के मिश्रण से स्वरों के गाने या बजाने को ‘संचारी वर्ण’ कहते हैं।

अष्टक

जब शास्त्रीय संगीत गाते-बजाते हैं तो मध्य सप्तक के स से लेकर बीच के सारे स्वर रे ग म प ध नि गाने या बजाने के पश्चात तार सप्तक के स पर जाकर ठहरते हैं। इसी तरह अवरोह के समय तार सप्तक के स से आरंभ कर सारे स्वरों को बोलते हुए मध्य स पर आकर ही गान क्रिया को संपन्न करते हैं। इसी को ‘अष्टक’ कहा जाता है। यह क्रिया तीनों सप्तक में अपनाई जाती है, जैसे-

आरोह $ \quad $ स $ \quad $ रे $ \quad $ ग $ \quad $ म $ \quad $ प $ \quad $ ध $ \quad $ नि $ \quad $ स
अवरोह $ \quad $ स $ \quad $ नि $ \quad $ ध $ \quad $ प $ \quad $ म $ \quad $ ग $ \quad $ रे $ \quad $ स

1. 22 श्रुतियों के नाम एवं आंदोलन संख्या को समझकर याद कीजिए और उनकी सूची बनाइए।

2. प्रकृति में पायी गई ध्वनियों को ध्यान से सुनें अपने फ़ोन में उन्हें रिकॉर्ड करें और कक्षा में उस पर विचार-विमर्श करें। क्या उनमें स्वर जो हम गाते बजाते हैं, सुनाई दे रहे हैं?

3. अष्टक द्वारा वर्णों को बताइए, उन्हें समूह में गाएँ और कक्षा में प्रस्तुत करें।

4. प्रार्थना सभा जो आपके विद्यालय का दैनंदिन कार्यक्रम है, उसमें किसी भी प्रार्थना गीत के साथ समन्वय बनाकर इसको गाएँ एवं बजाएँ। महसूस कीजिए कि इस तरह के माहौल से किस तरह का आनंद्रद अनुभव होता है।

5. ध्वनि के अमूर्त (intangible) रूप पर विचार कीजिए।

अलंकार

स्वरों के निश्चित क्रम को अपनाकर उसका आरोह या अवरोह करने को ‘अलंकार’ कहा जाता है। साधारण भाषा में अलंकार का अर्थ है शरीर को विभिन्न आभूषणों से सजाना। काव्य में भी अलंकारों का प्रयोग कर काव्य को आकर्षक बनाना होता है। संगीत के क्षेत्र में अलंकार के दो प्रयोजन हैं-

1. विद्यार्थियों के गले व हाथ की तैयारी कराना तथा स्वर व ताल का ज्ञान कराना।

2. गायन व वादन क्रिया में इन अलंकारों का प्रयोग कर अपने गायन व वादन को सुंदर तथा भावयुक्त बनाना।

सामान्यत: स्वरों को आरोह एवं अवरोह में इस प्रकार गाते हैं-

आरोह $ \quad $ स $ \quad $ रे $ \quad $ ग $ \quad $ म $ \quad $ प $ \quad $ ध $ \quad $ नि $ \quad $ सं
अवरोह $ \quad $ स $ \quad $ नि $ \quad $ ध $ \quad $ प $ \quad $ म $ \quad $ ग $ \quad $ रे $ \quad $ स

इन स्वरों से विभिन्न प्रकार के स्वर समुदाय बनाकर जब एक निश्चित क्रम में गाया या बजाया जाता है तो अलंकारों के विभिन्न प निर्मित होते हैं जिनके कुछ उदाहरण निम्न रूप में प्रस्तुत हैं-

राग

विशिष्ट स्वरों से बनने वाले समुदाय ‘राग’ कहलाते हैं।

भावार्थ-ध्वनि की वह विशिष्ट रचना जो स्वर तथा वर्ण से सुशोभित हो और जो सुनने वाले के मन को प्रसन्न कर सके, उसे राग कहते हैं। यहाँ पर स्वर एवं वर्ण शब्दों का उल्लेख आया है। स्वर से तात्पर्य संगीतोपयोगी ध्वनि जो मधुर व निरंतर हो एवं स्वत: चित्त को प्रसन्न करने वाली हो।

राग लक्षण या राग नियम

1. राग की विशेषता यह है कि उनमें रंजकता अवश्य होनी चाहिए अर्थात् वह सुनने में मधुर लगे।

2. राग में कम से कम पाँच और अधिक से अधिक सात स्वर होने चाहिए। पाँच स्वरों से कम समूह का राग नहीं होता है।

3. प्रत्येक राग को किसी न किसी थाट से उत्पन्न माना गया है, जैसे- राग भूपाली कल्याण थाट से तथा राग बाग्रेश्री को काफ़ी थाट से उत्पन्न माना गया है।

4. किसी भी राग में षड्ज अर्थात् स कभी वर्जित नहीं होता क्योंकि यह सप्तक का आधार स्वर होता है।

5. प्रत्येक राग में मध्यम (म) और पंचम (प) में से एक स्वर अवश्य रहना चाहिए। दोनों स्वर एक साथ वर्जित नहीं होते। अगर किसी राग में प के साथ शुद्ध म भी वर्जित है तो उसमें तीव्र मध्यम (म’) अवश्य रहता है। उदाहरणस्वरूप— भूपाली में मध्यम वर्जित है, मालकौंस में पंचम वर्जित है, परंतु भूपाली में पंचम तथा मालकौंस में मध्यम स्वर विद्यमान है।

6. प्रत्येक राग में आरोह-अवरोह, वादी-संवादी, पकड़ एवं गायन-समय को निर्धारित करना आवश्यक है।

7. राग में किसी स्वर के दोनों रूप एक साथ अर्थात् एक के बाद दसरा प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। उदाहरणस्वरूप— कोमल रे और शुद्ध रे अथवा कोमल ग और शुद्ध ग किसी भी राग में एक के बाद एक नहीं आते। यह संभव है कि आरोह में शुद्ध प्रयोग किया जाए तथा अवरोह में कोमल। जैसे खमाज राग में शुद्ध नि और अवरोह में कोमल नि का प्रयोग होता है। फिर भी कुछ राग ऐसे हैं जिनमें शुद्ध व कोमल स्वरों का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है, जैसे— राग मियाँ मल्हार में पहले कोमल नि और फिर शुद्ध नि का प्रयोग या फिर राग ललित में शुद्ध मध्यम व तीव्र मध्यम का प्रयोग एक-दूसरे के बाद किया जाता है। ऐसे रागों को सौंदर्यदृष्टि या विशेष माधुर्य के कारण अपवादस्वरूप ही माना जाना चाहिए।

राण की जातियाँ

किसी भी राग के नियम के अनुसार उसमें कम से कम पाँच और अधिक से अधिक सात स्वरों का होना अनिवार्य है। राग विभिन्न स्वरों से बनता है। राग की मुख्य तीन जातियाँ होती हैं-

1. संपूर्ण— जिस राग में सातों स्वरों का प्रयोग हो उसे संपूर्ण जाति का राग कहा जाता है।

2. षाड़व— जिस राग में केवल छ: स्वरों का प्रयोग किया जाता है उसे षाड्व जाति का राग कहते हैं।

3. औड्व— जिस राग में केवल पाँच स्वरों का प्रयोग किया जाता है उसे औड्व जाति का राग कहते हैं।

किसी-किसी राग में आरोह-अवरोह में स्वरों की संख्या समान होती है परंतु कई रागों में आरोह और अवरोह में स्वरों की संख्या भिन्न होती है, जैसे-

राग यमन

आरोह स रे ग म प ध नि सं (सात स्वर)

अवरोह सं नि ध प मं ग रे स (सात स्वर)

राग भीमपलासी

आरोह स $ \underline {ग} $ म प $ \underline {नि} $ सं (पाँच स्वर)

अवरोह सं $ \underline {नि}$ ध प म $ \underline {ग}$ रे स स (सात स्वर)

राण खमाज

आरोह स ग म प ध नि सं (छ: स्वर)

अवरोह सं $ \underline {नि}$ ध प म ग रे स (सात स्वर)

उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि हिंदुस्तानी संगीत में यह ज़रूरी नहीं कि हर राग के आरोह और अवरोह में समान स्वर ही प्रयुक्त हों। राग के लक्षण में आरोह तथा अवरोह दोनों में स्वरों की संख्या भिन्न होने के भी प्रावधान हैं। इसी कारण उपर्युक्त बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए तीन जातियों को तीन-तीन उपजातियों में बाँट दिया गया जो इस प्रकार है-

1. संपूर्ण-संपूर्ण— इसके आरोह तथा अवरोह दोनों में सातों स्वर को प्रयोग किया जाता है।

2. संपूर्ण-षाड्व- इसके आरोह में सात स्वर और अवरोह में छ: स्वर का प्रयोग किया जाता है।

3. संपर्ण-औड़्- इसके आरोह में सात स्वर तथा अवरोह में पाँच स्वर का प्रयोग किया जाता है।

4. षाड्व-संपूर्ण— इसके आरोह में छ: स्वर तथा अवरोह में सात स्वर का प्रयोग किया जाता है।

5. षाड्व-षाड्व— इसके आरोह तथा अवरोह में छः-छ: स्वर का प्रयोग किया जाता है।

6. षाड्व-औड़व— इसके आरोह में छः: स्वर तथा अवरोह में पाँच स्वर का प्रयोग किया जाता है।

7. औड्व-संपूर्ण— इसके आरोह में पाँच तथा अवरोह में सात स्वर का प्रयोग होता है।

8. औड्व-षाड्व— इसके आरोह में पाँच तथा अवरोह में छः: स्वर का प्रयोग किया जाता है।

9. औड़व-औड्व- इसके आरोह तथा अवरोह दोनों में पाँच स्वर का प्रयोग किया जाता है।

कुछ राग ऐसे हैं जिसमें 12 स्वरों का प्रयोग दृष्टिगोचर है, जैसे— राग पील। ऐसे रागों को उपर्युक्त जातियों के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता है। इन्हें मिश्र या संकीर्ण जाति की संज्ञा प्रदान की गई है। राग भैरवी गाते हुए भी कई स्वरों का प्रयोग होता है जो मिश्र भैरवी के नाम से गाते-बजाते हैं।

मूचर्छना

सात स्वरों को क्रमानुसार आरोह तथा अवरोह में प्रयोग करने को ‘मूर्च्छना’ कहा जाता है। शार्ड्ग्गदेव के अनुसार मूर्च्छयते-येन राग:।

अर्थात् जिससे राग चमकते, उभरते तथा पैदा होते हों, उसे मूर्च्छना कहा जाता है। मूर्च्छनाएँ ग्रामों पर आधारित होती हैं। एक ग्राम के अंतर्गत 7 मूर्च्छनाओं को लिपिबद्ध किया गया है। इसमें 7 शुद्ध तथा 5 विकृत यानि 12 स्वर प्रयोग किये जाते हैं। जो भूमिका आज रागों में थाटों की होती है वही भूमिका प्राचीन काल में मूर्च्छनाओं की होती थी।

यहाँ यह जानना अति आवश्यक है कि षड्ज की मूर्च्छना को स से, मध्यम ग्राम की मूर्च्छना को म से तथा गंधार ग्राम की मूर्च्छना को नि से आरंभ किया गया है। कुछ विद्वानों ने इनमें संबंधित देवताओं का भी उल्लेख किया है। मूर्च्छनाओं के प्रयोग से तानों की उत्पत्ति होती है तथा जाति, राग व सप्त स्वरों की सिद्धि प्राप्त होती है।

अनेक मतों के अनुसार मूर्छ्धना के चार प्रकार बताए गए हैं। भरत के अनुसार— पूर्णा, षाड्वा, औड्वा, साधारणी। शार्ड्ग्रदेव के अनुसार-विकृत स्वरों के आधार पर भी चार प्रकार हैं-

  • शुद्धा— सात शुद्ध स्वर युक्त मूर्च्छना।
  • काकली संहिता— काकली निषाद युक्त मूर्च्छना।
  • अंतर संहिता— अंतर गंधार युक्त मूर्च्छना।
  • अंतर काकली संहिता— अंतर गंधार तथा काकली निषाद युक्त मूर्च्छना।

षड्ज ग्राम की मूच्च्छना तथा उनके समतुल्य आधुनिक थाठ

मूच्च्छना क्रम मूर्च्छना का नाम आधुनिक थाट
प्रथम मूर्च्छना उत्तरमंद्रा काफी
द्वितीय मूर्च्छना रंजनी बिलावल
तृतीय मूर्च्छना उत्तरायता कोई समान थाट नहीं
चतुर्थ मूर्च्छना शुद्ध षडडजा आसावरी
पंचम मूर्च्छना मत्सरीकृता खमाज
छठी मूर्च्छना अश्वक्रांता कल्याण
सप्तम मूर्च्छना अभिरूद्गता भैरवी

ग्राम

‘ग्राम’ शब्द का प्रयोग सामान्य अर्थ में गाँव अर्थात् कुछ घर और वहाँ रहने वाले व्यक्तियों का समूह आदि से लिया गया है। ग्राम शब्द एक छोटे समूह की ओर संकेत करता है। संगीत में भी ग्राम का अर्थ कुछ इसी प्रकार है। प्राचीन संगीत में ग्राम शब्द बहुत ही महत्वपूर्ण था। ग्राम मूर्च्छनाओं के आधार पर बनता था।

शार्ड्गदेव के अनुसार “ग्राम: स्वरसमूह: स्यान्मूर्च्छनाऽऽदे: समाश्रय:" अर्थात् ग्राम एक ऐसा स्वर समूह है जो मूर्च्छना का आश्रय हो।

प्राचीन ग्रंथों में तीन प्रकार के ग्राम राग बताए गए हैं- (1) षड्ज ग्राम (2) मध्यम ग्राम (3) गंधार ग्राम। सभी ग्रामों में 22 श्रुतियाँ थीं। पंडित अहोबल के अनुसार निश्चित श्रुति अंतरालों पर स्थापित किए गए 7 स्वरों के समूहों को ‘ग्राम’ कहा जाता है।

1. षड्ज ग्राम— षड्ज ग्राम का आरंभिक एवं प्रधान स्वर षड्ज है। शास्त्रकारों ने वीणा पर प्रत्येक स्वर का स्थान निश्चित कर दिया। षड्ज ग्राम में षड्ज— पंचम संवाद होना अनिवार्य है। भरत ने षड्ज के स्वरों की स्थिति निम्न दोहे द्वारा बताई है-

अर्थात् षड्ज, मध्यम व पंचम चार-चार श्रुति के, निषाद व गंधार दो-दो श्रुति के और ऋषभ-धैवत तीन-तीन श्रुति के हैं। बड्ज-पंचम संवाद 13 श्रुति के अंतराल पर होता है।

स्वर रे नि
श्रुति संख्या 4 7 9 13 17 20 22

2. मध्यम ग्राम— मध्यम ग्राम के संबंध में भरत ने कहा है— “मध्यम ग्रामे तु श्रुति अपकृष्ट: पंचम: कार्य:"। इस सूत्र के अनुसार पंचम को एक श्रुति नीचे उतारने से ही मध्यम ग्राम की रचना हुई। मध्यम ग्राम भी षड्ज ग्राम के समान ही है लेकिन इसका पंचम 17 वीं श्रुति पर स्थित न होकर 16 वीं श्रुति पर स्थित होता है। अत: यहाँ 4 श्रुतियों वाला पंचम त्रिश्रुतिक बन जाता है तथा धैवत एक श्रुति बढ़कर चतुश्रुतिक बन जाता है। इसमें षड्ज मध्यम स्वर संवाद है जोकि 9 श्रुति के अंतराल पर होता है।

स्वर रे नि
श्रुति संख्या 4 7 9 13 16 20 22

3. गंधार ग्राम— गंधार ग्राम नाममात्र प्रचलन में रहा। ऐसा कहा जाता है कि इसका प्रयोग केवल गंधर्वो द्वारा किया गया था। इसे निषाद ग्राम भी कहा जाता है।

  1. अलंकार का अर्थ तो आप समझ ही गए हैं, अब अपने रचनात्मक तरीके से तीन अलंकार बनाइए जो मंद्र और माध्य सप्तक में हों।
  2. राग के लक्षण लिखिए।
  3. क्या प्राचीन काल में मूर्च्छना और आधुनिक समय में राग की तुलना कर सकते हैं? अगर हाँ तो कैसे और अगर नहीं तो क्यों ?
  4. ग्राम शब्द पर विचार विमर्श हो जाए। हिंदी साहित्य में ग्राम शब्द तो आपने बहुत सालों से पढ़ा ही है। तो उसकी तुलना संगीत में ग्राम शब्द से किस प्रकार हो सकती है।

लय एवं उसके प्रकार

देखा जाए तो प्रत्येक स्थान पर व्यक्ति, वस्तु, जीव-जंतु सभी में एक लय होती है। यहाँ तक कि सूर्य, चंद्रमा इत्यादि भी समान लय में ही चलते हैं। मनुष्य की नाड़ी की गति भी समान लय में चलती रहती है। गायन, वादन एवं नर्तन में व्यतीत हो रहे समय की समान गति को ‘लय’ कहा जाता है। एक मात्रा से दूसरे मात्रा के समान अंतर को भी लय कहते हैं। लय अपने व्यापक अर्थ में संपूर्ण जगत में व्याप्त है। पृथ्वी अपनी धुरी पर एक निश्चित लय में घूमती है, मनुष्य की नाड़ी एक निश्चित लय में चलती है, उसका हृदय एक निश्चित लय में धड़कता है। इसमें जब भी व्यवधान आता है तो संतुलन बिगड़ जाता है। लय के सही प्रयोगों के कारण ही ताल अपना आवर्तन निर्दिष्ट समय में पूरा करती है। दिन-रात और सूर्योदय-सूर्यास्त भी निश्चित समय पर होते हैं। घड़ी की सुई की चाल, स्वस्थ मनुष्य की नाड़ी और उसके हृदय की धड़कन आदि लय के जीवंत उदाहरण हैं। शास्त्रों में लय के तीन प्रकार बताये गये हैं — विलंबित, मध्य और द्रुत।

1. विलंबित लय— जब लय बहुत धीमी गति में चलती है तो उसे ‘विलंबित लय’ कहा जाता है। इस लय में गाये जाने वाले ख्याल की बंदिश को विलंबित ख्याल कहते हैं। सितार पर बजने वाली गत को मसीतखानी या विलंबित गत कहते हैं। तबला, पखावज या अन्य वाद्यों में भी विलंबित लय का प्रयोग किया जाता है। इसकी गति मध्य लय की तुलना में आधी होती है। सामान्यत: झममरा, तिलवाड़ा, एकताल, आड़ा चौताल, धमार, रूपक और झपताल जैसी तालें इसके लिए अधिक उपयुक्त मानी गई हैं। इसका एक अन्य प्रकार अति विलंबित लय रूप में भी प्रयुक्त किया जाता है।

2. मध्य लय— जब लय साधारण रहे अर्थात् न बहुत ज़्यादा हो और न बहुत कम तो उसे ‘मध्य लय’ कहते हैं। गाने-बजाने में अधिकतर मध्य लय का प्रयोग किया जाता है। वह लय जो सामान्यत: न तो बहुत अधिक विलंबित हो और न बहुत अधिक द्रुत हो, वह मध्य अर्थात् बीच की लय कहलाती है। मध्य लय की मात्रा काल लगभग एक सेकेंड की होती है। धमार गायन, छोटा ख्याल, सितार की गतें और तबले में रेला आदि का वादन प्राय: इसी लय में होता है। त्रिताल, एकताल, झपताल, रूपक, आड़ा चौताल, तीव्रा इत्यादि ताल इसी लय में बजाये जाते हैं। शांत रस, शृंगार रस के लिए इस लय को उपयोगी माना गया है।

3. द्रत लय— गाते-बजाते समय एक लय स्थिर की जाती है जो बराबर की लय कहलाती है। मध्य लय से दोगुनी लय को ‘द्रुत लय’ कहा जाता है। इसी लय में द्रुत ख्याल, तराने तथा सितार पर रजाखानी या द्रुत गतें बजाई जाती हैं। स्वर वाद्यों में यहीं से झाला की शुरूआत करते हैं जिसे अतिद्रुत लय तक ले जाकर वादन का चमत्कार दर्शाया जाता है। तबला स्वतंत्र वादन में इस लय में टुकड़े, परन, गत, फर्द आदि का वादन होता है। इसमें एक मात्रा से दूसरी मात्रा के बीच का अंतराल कम लगभग आधा सेकेंड का होता है। त्रिताल, एकताल, झपताल, सूलताल, रूपक, तीव्रा, दीपचंदी, कहरवा, दादरा आदि जैसी तालें इस लय के लिए उपयोगी हैं। रौद्र, वीभत्स, भयानक, वीर एवं अद्भुत रसों का प्रदर्शन इसी लय में होता है।

ताल

ताल शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की ‘तल्’ धातु से हुई है जिसे ‘आधार’ और ‘भित्ति’ भी कहा जाता है। इसीलिए ताल की गणना संगीत के आधारभूत तत्वों में होती है। जिस प्रकार अनुशासन, सामाजिक नियमों और प्रतिबंधों का हमारे दैनिक जीवन में बहुत महत्व होता है उसी तरह ताल का संगीत में महत्व होता है। ताल ही संगीत को अनियंत्रित होने से रोककर एक निश्चित समय सीमा में बाँधती है। यह संगीत में व्यतीत हो रहे समय को मापने का वह महत्वपूर्ण साधन है जो भिन्न-भिन्न मात्राओं, विभागों, ताली व खाली के योग से बनती है। ताल के अंदर लय रक्त की तरह, मात्रा नाड़ी की तरह और ताली-खाली विभिन्न अंगों की तरह होती है। ताल के माध्यम से ही गायन, वादन और नर्तन की विभिन्न विधाओं की संगति की जाती है। समस्त सांगीतिक रचनाएँ किसी न किसी ताल में निबद्ध होती हैं। पारिभाषिक रूप से विभिन्न मात्राओं के समूह को ‘ताल’ कहते हैं। संगीत में समय का माप ताल द्वारा किया जाता है। यह भी कहा जा सकता है कि संगीत में समय-आधारित एक निश्चित ढाँचे को ताल कहा जाता है। हिंदुस्तानी संगीत पद्धति में अनेक तालों की रचना की गई है। भारतीय संगीत में प्रचलित विभिन्न गायन शैलियों के लिए अलग-अलग तालों का निर्माण हुआ है। उदाहरणस्वरूप— ध्रुपद के लिए चारताल, सूलताल, ब्रह्रताल आदि, धमार के लिए धमार ताल, ठुमरी के लिए दीपचंदी व जतताल इत्यादि ताल बनाए गए हैं।

उदाहरण के लिए प्रस्तुत है— एकताल— जिसमें 12 मात्राएँ छह विभाग हैं, चार ताली और दो खाली हैं।

एक ताल

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
बोल धि धिं धागे तिरकिट तू ना त्रा धागे तिरकिट धी ना
चिह्न $x$ 0 2 0 3 4

मात्रा

लय की गति के मापन की क्रिया को ‘मात्रा’ कहते हैं। मात्रा और लय दोनों एक-दूसरे की पूरक होती हैं। एक मात्रा एक सेकेंड की मानें और मात्रा की लंबाई बढ़ा दें यानि दो सेकेंड का कर दें तो विलंबित लय हो जाएगी। यदि मात्रा की लंबाई घटाकर आधे सेकेंड की एक मात्रा कर दें तो द्रुत लय हो जाएगी। मात्रा की गति पर ही लय निर्भर करती है। जब दो मात्राओं के मध्य अंतराल अधिक होगा तो लय भी धीमी होगी और अंतराल कम होगा तो लय तेज़ होगी। संगीत में व्यतीत हो रहे समय को मापने का साधन ताल है और ताल की सबसे छोटी इकाई अथवा पैमाना मात्रा है। मात्रा पर विचार करते समय लय को ध्यान में रखना ज़रूरी होता है। भिन्न-भिन्न लयों में मात्रा की अवधि भी भिन्न-भिन्न होती है।

भिन्न-भिन्न मात्राओं के योग से ही एक ताल की रचना होती है। जैसे— तीव्रा ताल सात मात्रा की है इसमें तीन ताली है। इसमें खाली नहीं होती है।

तीव्रा ताल

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7
बोल धा दि ता तिट कृ गदि गन
चिह्न $\times$ 2 3

विभाग

प्रत्येक ताल के कुछ खंड होते हैं जिन्हें ‘विभाग’ कहा जाता है। किसी भी ताल की मात्रा और स्थान विशेष को पहचानने की सुविधा के लिए उसे अलग-अलग खंडों या विभागों में बाँटा जाता है। हर विभाग एक नए ताली या खाली का सूचक होता है, जैसे— रूपक में एक खाली और दो ताली हैं तो रूपक में तीन विभाग हैं। चौताल (चार ताल) में चार ताली और दो खाली है तो उसके विभागों की संख्या छ: है। विभाग के ‘चि’ के रूप में खड़ी रेखा चि का प्रयोग होता है। उदाहरण के लिए,

चारताल (चौताल)

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
बोल धा धा दिं ता किट धा दिं ता तिट कत गदि गन
चिह्न $\times$ 0 2 0 3 4

ताली एवं खाली

जब किसी ताल को अलग-अलग विभागों में बाँट दिया जाता है, तो उन विभागों की पहचान के लिए दो अलग-अलग क्रियाओं का सहारा लिया जाता है - 1. सशब्द क्रिया 2. निशब्द क्रिया। सशब्द क्रिया को साधारण बोलचाल की भाषा में ‘ताली’ या ‘आघात’ कहते हैं। बोलों की पढ़ंत करते समय ताली को दोनों हथेलियों को जोड़कर एक ध्वनि उत्पन्न करके दिखाया जाता है यही सशब्द क्रिया होती है। खाली अर्थात् रिक्त या शून्य खाली का भाव प्रदर्शित करने के लिए हाथ को हिलाकर शून्य भाव का बोध कराया जाता है यही निशब्द क्रिया होती है। दक्षिण भारतीय ताल पद्धति में इसके लिए विसर्जितम् शब्द का प्रयोग किया जाता है।

सामान्यत: ताली वाले स्थानों पर संयुक्त वर्ण, जैसे— धा, धिं आदि का ही प्रयोग होता है जबकि खाली के लिए ता, तिं आदि बोलों का प्रयोग किया जाता है। खाली सामान्यत: ताल के मध्य में होती है, जैसे— त्रिताल में नवीं मात्रा पर, झपताल में छठवीं और कहरवा में पाँचवीं मात्रा पर। किसी भी ताल में जिस मात्रा पर खाली होती है वहाँ प्राय: बंद बोलों का प्रयोग होता है लेकिन इस नियम का बहुत कठोरता से पालन नहीं किया जाता है। किसी भी ताल में खाली के दो विभाग एक साथ नहीं होते हैं जबकि ताली के कई विभाग एक साथ हो सकते हैं।

भातखण्डे ताल पद्धति में ताली दर्शाने के लिए क्रमश: ताली की संख्या लिखी जाती है तथा इसे ’ 0 ’ चिह्न से दर्शाते हैं। उदाहरणस्वरूप तीन ताल-

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16
बोल धा धिं धिं धा धा धिं धिं धा धा ति ति ता ता धिं धिं धा
चिह्न $\times$ 2 0 3

सम

किसी भी ताल की प्रथम मात्रा पर सम होती है। गीत, गत अथवा नृत्य में इस स्थान पर विशेष ज़ोर दिया जाता है। वैसे तो सम किसी भी ताल की प्रथम मात्रा को कहते हैं परंतु अपवादस्वरूप रूपक ताल को छोड़ दें तो सम पर प्राय: ताली ही होती है। इसीलिए ताल की अन्य मात्राओं की अपेक्षा इस मात्रा पर अधिक बल दिया जाता है। इसे हाथ पर ताल देकर भी दिखाया जाता है।

सम किसी भी ताल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान होता है। संगीत में आनंद का केंद्र सम ही है। भातखण्डे ताल लिपि पद्धति में इसे $\times$ से दर्शाया जाता है। जब हम कोई बंदिश गाते हैं या नृत्य में तत्कार इत्यादि पेश करते हैं तो सम की महत्ता समझ में आती है। गीत, वाद्य और नृत्य को लय के अनुसार कलाकार स्वरों/टुकड़ों से अलंकृत करता है। इस अलंकरण के पश्चात् जब कलाकार सम पर आकर मिलता है या समाहित होता है तो एक अलग भाव की सृष्टि होती है। गायक, वादक और नर्तक सम को अपने घर जैसा मानते हैं, जिस तरह प्रात: काल एक व्यक्ति कामकाज के लिए निकलता है, समयानुसार विभिन्न तरह के क्रियाकलापों से कार्य को निपटाकर रात को उसी घर में लौट आता है। ठीक इसी तरह कलाकार एक मुखड़े को गाकर बजाकर प्रदर्शन आरंभ करता है। मुखड़े के बाद सम आते ही विभिन्न तरह के टुकड़े, लयकारियों का सहारा लेकर मूल स्वर के साथ अपनी कला को उभारते हुए वापस सम पर आकर मिलते हैं।

रूपक ताल भातखण्डे ताल लिपि में

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7
बोल ती ती ना धी ना धी ना
चिह्न 0 2 3

ठेका

ठेका उत्तर भारतीय संगीत की वह विशेषता है जो अन्य संगीत शैलियों में लगभग नहीं के बराबर पाया जाता है। किसी भी ताल का वह मूल बोल जिसके द्वारा उस ताल को पहचाना जाता है, उस ताल का ‘ठेका’ कहलाता है। इस ठेके की रचना उस ताल की प्रकृति, गति प्रकार और ताली, खाली, विभाग आदि को ध्यान में रखकर की जाती है।

जैसे- झपताल की गति अगर 2 / 3 / 2 / 3 / की है तो इसका ठेका उसी प्रकार चलेगा।

मात्रा 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
बोल धी ना धी धी ना ती ना धी धी ना
चिह्न $\times$ 2 0 3

उल्लेखनीय है कि कर्नाटकीय संगीत और पाश्चात्य संगीत में ताल तो हैं किंतु उनकी शैली में ठेके के सुनिश्चित बोल नहीं हैं। गायन की प्रकृति के अनुसार ताल के स्वरूप को ध्यान में रखकर, अनुकूल बोलों का वादन किया जाता है।

आवर्तन या आवृत्ति

किसी भी ताल की प्रथम मात्रा से अंतिम मात्रा तक का क्षेत्र उस ताल का एक ‘आवर्त’, ‘आवृत्ति’ या ‘आवर्तन’ कहलाता है। दूसरी बार जब वह ताल आरंभ होता है वह उसका दूसरा आवर्तन कहलाता है। उदाहरण के लिए, सूलताल का एक आवर्तन 10 मात्रा का होता है। 10 मात्रा बजने के बाद फिर दूसरा आवर्तन शुरू होता है।

सारांश

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के विकास एवं संगीतज्ञों की नवीनतम चिंतन के कारण गायन-वादन के सभी प्रकरणों को विशेष शब्दों द्वारा नामांकन किया गया, जैसे— नाद, श्रुति, स्वर, राग, लय और मूर्च्छना इत्यादि। गायन-वादन प्रदर्शन कला है। ध्वनि में सुर और ताल को पहचान कर विभिन्न उपायों से प्रदर्शन ही मूल है। विभिन्न उपाय/प्रकरण को ही सुधिजन ने नामकरण किया और शताब्दी-दर-शताब्दी, पीढ़ी-दर-पीढ़ी पारिभाषिक शब्दों को सशक्त किया गया है।

लिशेष शब्द

ध्वनि, नाद, श्रुति, स्वर, सप्तक, वर्ण, अष्टक, अलंकार, राग, भीमपलासी, राग खमाज, मूच्छना, ग्राम, लय, ताल, मात्रा, विभाग, ताली, खाली, सम, ठेका, आवर्वन या आवृत्ति

भारतीय संगीत में प्रथम

वर्ष 1896 में स्थापित ‘श्री पार्थसारथी स्वामी सभा’ देश की सबसे पहली और प्राचीन सांस्कृतिक संस्था है जिसकी स्थापना श्री मन्नी तिरुमलाचार ने दक्षिण भारत में भारतीय कला और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए की थी। इस संस्था को ‘श्री पार्थसारथी स्वामी सभा’ से पहले ‘संगीत विद्वत सभा’ के नाम से जाना जाता था।

अभ्यास

इस पाठ को आप पढ़ चुके हैं। आइये, नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास करें-

1. संगीत कला का माध्यम है इसकी पुष्टिकरण करें।

2. नाद किसे कहते हैं?

3. श्रुति को परिभाषित करते हुए श्रुतियों की संख्या बताइए।

4. मूर्च्छना किसे कहते हैं?

5. लय को परिभाषित करते हुए लय के प्रकार बताइए।

6. भातखण्डे ताललिपि के अनुसार सम को परिभाषित करते हुए, उसका चिह्न लिखिए।

7. वर्ण से आप क्या समझते हैं?

8. शार्ड्गदेव ने संगीत रत्नाकर में राग की क्या परिभाषा दी है?

9. मतंग मुनि ने रागों के कितने भेद बताए हैं?

10. अष्टक किसे कहते हैं?

11. नाद की जाति अथवा गुण से आप क्या समझते हैं। उदाहरण सहित समझाइए।

12. 22 भ्रुतियों के नाम व उनकी आंदोलन संख्या लिखिए।

13. आधुनिक काल के स्वर-स्थापना के अनुसार, 22 श्रुतियों में सात स्वर का स्केल बनाकर दिखाइए।

14. संगीत रत्नाकर में वर्ण को किस तरह परिभाषित किया गया है?

15. राग के सभी लक्षणों की उदाहरण सहित विवेचना कीजिए।

16. औड्व-संपूर्ण जाति का राग बताएँ एवं उसका विवरण कीजिए।

17. ग्राम को परिभाषित करते हुए ग्राम के प्रकारों को समझाइए।

18. मूर्च्छना एवं मूर्छ्छना के प्रकारों को विस्तार से समझाइए।

19. मतंग कृत बृहद्देशी में वर्णित विषयों एवं सिद्धांतों को विस्तार से समझाइए।

20. हिंदुस्तानी संगीत में ताल के महत्व को समझाएँ। किसी एक ताल का विवरण देते हुए उसका ठेका लिखिए।

सही या गलत बताइए-

1. आहत तथा अनाहत नाद के भेद हैं।

(सही/गलत)

2. विद्वानों ने श्रुतियों की संख्या 24 बताई है।

(सही/गलत)

3. भरतमुनि के अनुसार रे-ध की चार श्रुतियाँ मानी गयी हैं।

(सही/गलत)

4. मंद्र, मध्य तथा तार सप्तक के प्रकार हैं।

(सही/गलत)

5. राग यमन की जाति औड्व-संपूर्ण है।

(सही/गलत)

6. खाली को दक्षिण भारतीय ताल पद्धति में विसर्जितम कहते हैं।

(सही/गलत)

7. किसी भी ताल की प्रथम तथा अंतिम मात्रा को सम कहते हैं।

(सही/गलत)

8. चारताल में 12 मात्राएँ होती हैं।

(सही/गलत)

9. विद्वानों ने श्रुतियों की संख्या 26 निर्धारित की है।

(सही/गलत)

10. नाद की जाति के आधार पर वाद्य या व्यक्ति को बिना देखे उसकी आवाज़ सुनकर हम यह आसानी से पहचान जाते हैं कि आवाज़ किसकी है।

(सही/गलत)

11. किसी भी राग में षड्ज स्वर कभी वर्जित नहीं होता।

(सही/गलत)

12. जब एक ही स्वर बार-बार उच्चारित होता है, तो उसे संचारी वर्ण कहते हैं।

(सही/गलत)

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए-

1. संगीत का आधार __________ है, नाद से __________ श्रुति से __________ तथा स्वर से __________ की उत्पत्ति होती है।

2. जब आघात अथवा घर्षण से ध्वनि उत्पन्न होती है उसे __________ नाद कहते हैं।

3. सात स्वरों के समूह को __________ कहते हैं।

4. योऽसौ ध्वनि __________ __________

5. जिस राग में छह स्वर गाये जाते हैं वह __________ जाति का राग होता है।

6. मतंग __________ वीणा के अविष्कारक माने जाते हैं।

7. वर्तमान काल में पंडित भातखण्डे द्वारा स्वर की स्थापना श्रुतियों में से __________ श्रुति पर की गई।

8. सात स्वरों को क्रमानुसार आरोह तथा अवरोह में प्रयोग करने को __________ कहते हैं।

9. षड्ज ग्राम का आरंभिक एवं प्रधान स्वर __________ है।

10. भीमपलासी __________

11. तीव्रा ताल में __________ मात्राएँ होती हैं।

विभाग ‘अ’ के शब्दों का ‘आ’ विभाग में दिए गए शब्दों से मिलान करें-

(क) आहत 1. 12 मात्रा
(ख) रौद्री 2. जाति
(ग) औड्व 3. लय
(घ) उरमंदा 4. नाद
(ङ) विलंबित 5. ताली
(च) सशब्द क्रिया 6. रस
(छ) अद्भुत 7. श्रुति
(ज) राग बागेश्री 8. 2323
(झ) झपताल 9. प्रथम मूच्छना
(ञ) एकताल 10. काफी थाट


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