अध्याय 04 अधिगम
परिचय
एक नवजात शिशु में बहुत सीमित मात्रा में अनुक्रियाएँ करने को क्षमता होती है। उसको सारी अनुक्रियाएँ परिवेश में उपयुक्त उद्दोपकों के उपस्थित होने पर स्वतः प्रतिवर्ती रूप में घटित होती हैं। परंतु जैसे-जैसे शिशु का विकास होता है तथा परिपक्वता आती है, वैसे-वैसे उसमें भिन्न-भिन्न प्रकार की अनुक्रियाएँ करने की क्षमता बढ़ती जाती है। वह कुछ व्यक्तियों को; जैसे- अपनी माँ, पिता या दादा को पहचानना सीख लेता है। थोड़ा और विकास होने पर वह चम्मच से भोजन करना सीख लेता है, अक्षरों को पहचानना, उन्हें जोड़कर शब्द बनाना और उन्हें लिखना भी सीख लेता है। वह दूसरे व्यक्तियों को कई तरह के कार्य करते हुए देखता है और उनकी नकल करके अनेक क्रियाओं को करना सीखता है। वस्तुओं के नाम सीखना; जैसे- किताब, संतरा, आम, गाय, लड़का और लड़की इत्यादि और इन नामों को प्रतिधारित करना दूसरा महत्वपूर्ण कार्य है। इसके अतिरिक्त, वह अनेक पेशीय कौशलों; जैसे- स्कूटर या कार चलाना, प्रभावशाली ढंग से दूसरों से वार्तालाप करना तथा दूसरों से अंतःक्रिया करना भी सीखता है। मनुष्य में कुछ अन्य विशेषताएँ भी होती हैं; जैसे- परिश्रमी होना या अकर्मण्य होना, अपने पेशो में सक्षम बनना तथा सामाजिक क्षमता विकसित करना, जो अधिगम के कारण ही होती हैं। अधिगम तथा परिवेश के साथ अपने को अनुकूलित करने के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन की विभिन्न समस्याओं का समाधान कर पाता है तथा अपने जीवन को सुव्यवस्थित करता है। इस अध्याय में अधिगम के विभिन्न पक्षों का वर्णन किया गया है। इसमें सर्वप्रथम अधिगम को परिभाषित किया गया है तथा उसे एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के रूप में स्पष्ट किया गया है। इसके बाद अधिगम की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है, जो यह दर्शाता है कि कोई व्यक्ति कैसे अधिगम करता है। अधिगम की बहुत सी विधियों का वर्णन किया गया है, जो साधारण से लेकर जटिल स्तर तक के अधिगम को व्याख्या करती हैं। तीसरे खंड में अधिगम के दौरान घटित होने वाले कुछ आनुभविक गोचरों की व्याख्या की गई है। चौथे खंड में अधिगम की मात्रा तथा गति को निर्धारित करने वाले विभिन्न कारकों और विविध अधिगम अशक्तताओं का वर्णन किया गया है।
अधिगम का स्वरूप
हम यह पहले ही बता चुके हैं कि मनुष्य के व्यवहारों में अधिगम की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। यह व्यक्ति के अनुभव के फलस्वरूप होने वाले व्यापक परिवर्तनों की शृंखला को द्योतित करता है। अधिगम को हम अनुभवों के कारण व्यवहार में अथवा व्यवहार की क्षमता में होने वाले अपेक्षाकृत स्थायी परिवर्तन के रूप में परिभाषित कर सकते हैं। ध्यातव्य है कि व्यवहारों में कुछ परिवर्तन दवाओं के उपयोग अथवा थकान के कारण भी घटित होते हैं। ये परिवर्तन अस्थायी होते हैं। इनको अधिगम नहीं माना जाता है। उन परिवर्तनों को ही अधिगम माना जाता है जो अभ्यास और अनुभव के कारण होते हैं और जो अपेक्षाकृत स्थायी होते हैं।
अधिगम की विशेषताएँ
अधिगम की प्रक्रिया की कुछ अपनी खास विशेषताएँ हैं। पहली विशेषता यह है कि अधिगम में सदैव किसी न किसी तरह का अनुभव सम्मिलित रहता है। हम एक घटना को बहुत बार एक निश्चित क्रम में घटित होते हुए अनुभव करते हैं। हम जान जाते हैं कि अमुक घटना के तुरंत बाद दूसरी निश्चित घटनाएँ होंगी। उदाहरणार्थ, छात्रावास में सूर्यास्त के बाद घंटी बजने से छात्र समझ जाते हैं कि अब भोजनालय में रात का खाना तैयार हो गया है। किसी चीज़ को एक विशेष तरीके से करने के बाद बार-बार प्राप्त संतुष्ट्टि का अनुभव हमें उसको उसी प्रकार करने की आदत डाल देता है। कभी-कभी केवल एक बार किया गया अनुभव भी अधिगम के लिए पर्याप्त होता है। दियासलाई जलाते समय अगर तीली रगड़ते ही किसी बच्चे की अंगुली जल जाती है तो ऐसे एक ही बार के अनुभव से वह भविष्य में दियासलाई का उपयोग करते समय सावधान होना सीख लेता है।
अधिगम के कारण व्यवहार में होने वाले परिवर्तन अपेक्षाकृत स्थायी होते हैं। इनको व्यवहार में होने वाले उन परिवर्तनों से अलग पहचानना चाहिए जो न तो स्थायी होते हैं और न ही सीखे गए होते हैं। उदाहरणार्थ, थकान, औषधि, आदत आदि के कारण भी बहुधा व्यवहार में परिवर्तन होते हैं। मान लीजिए, आप मनोविज्ञान की पाठ्यपुस्तक कुछ समय से पढ़ रहे हैं या मोटरकार चलाना सीख रहे हैं, तो एक समय आता है जब आप थकान महसूस करते हैं। ऐसी स्थिति में आप पढ़ना या कार चलाना छोड़ देते हैं। व्यवहार में यह अस्थायी परिवर्तन थकान के कारण उत्पन्न हुआ है। इसे अधिगम नहीं माना जाता है। आइए, व्यवहार में होने वाले परिवर्तन का एक दूसरा उदाहरण लिया जाए। मान लीजिए, आपके पड़ोस में विवाह हो रहा है। इससे देर रात तक काफी शोर होता है। प्रारंभ में शोर-गुल से आपके कार्य में व्यवधान पड़ता है। आप परेशानी अनुभव करते हैं। जब शोर-गुल होता रहता है तो आप कुछ उन्मुखीकरण के प्रतिवर्त करते हैं। ये प्रतिवर्त धीरे-धीरे कमजोर पड़ जाते हैं और अंत में इन्हें पहचानना संभव नहीं रह जाता। यह भी एक प्रकार का व्यवहार में परिवर्तन है। यह परिवर्तन उद्दीपक के लगातार उद्भासन के कारण होता है। इसे आदत बन जाना कहते हैं। यह परिवर्तन अधिगम के कारण नहीं है। आपने देखा होगा कि अनेक प्रकार के मादक-द्रव्यों के सेवन के परिणामस्वरूप व्यक्ति की दैहिक क्रियाएँ प्रभावित हो जाती हैं, जिनसे व्यवहार में परिवर्तन उत्पन्न हो जाता है। ये परिवर्तन अस्थायी होते हैं और मादक-द्रव्यों का प्रभाव समाप्त होने पर परिवर्तन भी समाप्त हो जाते हैं।
अधिगम में मनोवैज्ञानिक घटनाओं का एक क्रम निहित होता है। यदि हम एक विशिष्ट अधिगम प्रयोग का वर्णन करें, तो यह स्पष्ट हो जाएगा। मान लीजिए कि मनोवैज्ञानिकों की रुचि इस बात के समझने में है कि शब्दों की एक सूची कैसे सीखी जाती है, तो वे निम्नलिखित अनुक्रमों का अनुपालन करेंगे: (1) पूर्व-परीक्षण करना कि कोई व्यक्ति अधिगम के पहले कितना जानता है; (2) निर्धारित समय में स्मरण करने के लिए शब्दों की एक सूची प्रस्तुत करना; (3) इस समय के दौरान नूतन ज्ञान प्राप्त करने के लिए व्यक्ति के द्वारा शब्दों की सूची का प्रक्रमण करना; (4) प्रक्रमण के पूर्ण होने के उपरांत नूतन ज्ञान अर्जित होना (जो अधिगम होगा), तथा (5) कुछ समय व्यतीत हो जाने के उपरांत व्यक्ति के द्वारा प्रक्रमित सूचना का पुनः स्मरण करना। एक व्यक्ति पूर्व-परीक्षण के समय जितने शब्द जानता था, उसकी अपेक्षा अब जितने जानता है; दोनों में तुलना करके कोई भी यह अनुमान लगा सकता है कि अधिगम हुआ है।
इस प्रकार अधिगम एक अनुमानित प्रक्रिया है और निष्पादन (performance) से भिन्न है। निष्पादन व्यक्ति का प्रेक्षित व्यवहार या अनुक्रिया या क्रिया है। आइए, हम अनुमान पद को समझने की चेष्टा करें। मान लीजिए कि आपके अध्यापक आपको एक कविता को याद करने के लिए कहते हैं। आप उस कविता को कई बार पढ़ते हैं। तब आप कहते हैं कि आपने वह कविता सीख ली है। आपसे कविता का पाठ करने के लिए कहा जाता है और आप कविता को सुना देते हैं। आपके द्वारा कविता का पाठ करना ही आपका निष्पादन है। आपके निष्पादन के आधार पर अध्यापक यह अनुमान लगाते हैं कि आपने कविता सीख ली है।
अधिगम के प्रतिमान
अधिगम कई विधियों से होता है। इनमें से कुछ विधियों का उपयोग साधारण प्रकार की अनुक्रियाओं के अर्जन में होता है जबकि कुछ का उपयोग जटिल अनुक्रियाओं को प्राप्त करने में किया जाता है। आप इस खंड में इन सभी विधियों के बारे में पढ़ेंगे। अधिगम की सरलतम विधि को अनुबंधन (conditioning) कहा जाता है। इसके दो प्रमुख प्रकार पाए गए हैं। पहला प्राचीन अनुबंधन (classical conditioning) कहलाता है तथा दूसरा क्रियाप्स सू त/नै मित्रिक अनुबंधन (operant/ instrumental conditioning)। इसके अतिरिक्त, प्रेक्षणात्मक अधिगम (observational learning), संज्ञानात्मक अधिगम (cognitive learning), वाचिक अधिगम (verbal learning) एवं कौशल अधिगम (skill learning) भी होते हैं।
प्राचीन अनुबंधन
इस प्रकार के अधिगम का अध्ययन सर्वप्रथम ईवान पी. पावलव (Ivan P. Pavlov) द्वारा किया गया। पावलव का मुख्य उद्देश्य पाचन क्रिया की शरीरक्रियात्मक प्रक्रियाओं का अध्ययन करना था। उन्होंने अपने अध्ययन के दौरान देखा कि जिन कुत्तों पर वे प्रयोग कर रहे थे वे अपने भोजन की खाली प्लेट को देखते ही लार स्राव करने लगे। जैसा कि आप जानते होंगे भोजन या मुँह में कुछ होने पर लार स्राव की क्रिया होना एक स्वाभाविक प्रतिवर्त अनुक्रिया है। इस प्रक्रिया को विस्तार से समझने के लिए पावलव ने एक प्रयोग किया। उन्होंने दोबारा कुत्तों पर प्रयोग किए। प्रयोग के पहले चरण में एक कुत्ते को एक बॉक्स के अंदर शिकंजे में कस दिया गया और उसे कुछ समय के लिए इसी प्रकार रहने दिया गया। कई दिनों तक इस क्रिया को बार-बार किया गया। इसी दौरान शल्यक्रिया द्वारा कुत्ते के जबड़े में एक नली इस प्रकार फिट कर दी गई कि मुँह में निकलने वाली लार उस नली से होते हुए शीशे के एक मापन गिलास में एकत्र हो जाए। इस प्रायोगिक दशा को चित्र 5.1 में प्रदर्शित किया गया है।
प्रयोग के दूसरे चरण में कुत्ते को भूखा रखने के पश्चात शिकंजे में कस दिया गया। नली का एक सिरा जबड़े में और दूसरा शीशे के जार में रखा गया। इसके बाद एक घंटी बजाई गई और उसके बाद तुरंत उसे खाने के लिए भोजन (मांसचूर्ण) दे दिया गया। कुत्ते को भोजन करने दिया गया। अगले कुछ दिनों तक उसे हर बार घंटी की ध्वनि के बाद मांसचूर्ण प्रदान किया गया। इस तरह के कई प्रयासों के पश्चात एक परीक्षण
चित्र 5.1 : पावलव के शिकंजे में अनुबंधन के लिए कुत्ता
प्रयास किया गया, जिसमें हर प्रक्रिया पूर्ववत् थी सिवाय इसके कि इस प्रयास में कुत्ते को घंटी बजाने के बाद भोजन नहीं दिया गया। कुत्ता मांसचूर्ण प्राप्ति की आशा में, घंटी की ध्वनि सुनने के बाद लार टपकाता रहा क्योंकि घंटी के साथ भोजन का संबंध था। घंटी और भोजन के बीच इस साहचर्य के फलस्वरूप, घंटी की ध्वनि के प्रति कुत्ते द्वारा लार के स्राव के रूप में प्रदर्शित एक नयी अनुक्रिया की प्राप्ति हुई। इसे अनुबंधन कहा गया है। आपने देखा होगा कि कुत्ते को जब भोजन दिया जाता है तो वह लार टपकाने लगता है। अतः भोजन अननुबंधित उद्दीपक (unconditioned stimulus (US) ) है और इसके बाद होने वाला लार स्राव अननुबंधित अनुक्रिया (unconditioned response (UR)) है। अनुबंधन के पश्चात घंटी की ध्वनि की उपस्थिति में लार का स्राव होने लगता है। घंटी अनुबंधित उद्दीपक (conditioned stimulus (CS)) बन जाती है और लार का स्राव अनुबंधित अनुक्रिया ( conditioned response (CR))। इस प्रकार वे अनुबंधन को प्राचीन अनुबंधन (classical conditioning) कहते हैं। इस प्रक्रिया को तालिका 5.1 में प्रदर्शित किया गया है। यह स्पष्ट है कि प्राचीन अनुबंधन में अधिगम की स्थिति में दो उद्दीपकों (घंटी की ध्वनि तथा भोजन) के बीच साहचर्य स्थापित होता है और एक उद्दीपक (घंटी की ध्वनि) दूसरे उद्दीपक (भोजन) के आने की सूचना देने वाला बन जाता है। यहाँ एक उद्दीपक दूसरे उद्दीपक के घटित होने की संभावना को दर्शाता है।
मनुष्य के दैनिक जीवन में प्राचीन अनुबंधन के अनेक उदाहरण मिलते हैं। कल्पना कीजिए कि आप खाना खाकर अभी-अभी तृप्त हुए हैं तभी आप देखते हैं कि बगल की मेज़ पर एक मिठाई परोसी गई है। यह आपके मुँह में अपने स्वाद का संकेत देती है और लार स्राव आरंभ हो जाता है। आप उसे खाने जैसा अनुभव करते हैं। यह एक अनुबंधित अनुक्रिया है। एक दूसरा उदाहरण लीजिए। शैशवावस्था में बच्चे तीव्र ध्वनि से स्वाभाविक रूप से डरते हैं। मान लीजिए, एक छोटा बच्चा फुला हुआ गुब्बारा पकड़ता है जो तीव्र ध्वनि के साथ उसके हाथों में फट जाता है। बच्चा डर जाता है। अब अगली बार उसे गुब्बारा पकड़ाया जाता है तो उसके लिए यह तीव्र ध्वनि का संकेत बन जाता है और भय की अनुक्रिया उत्पन्न करता है। अनुबंधित उद्दीपक $(\mathrm{CS})$ के रूप में गुब्बारे एवं अननुबंधित उद्दीपक (US) के रूप में तीव्र ध्वनि के साथ-साथ प्रस्तुत किए जाने के कारण ऐसा होता है।
तालिका 5.1 अनुबंधन के चरणों और संक्रियाओं के बीच संबंध
अनुबंधन के चरण | उद्दीपक की प्रकृति | अनुक्रिया की प्रकृति |
---|---|---|
अनुबंधन के पूर्व | भोजन (US) घंटी की ध्वनि |
लार स्राव (UR) |
चौंकना (कोई विशेष अनुक्रिया नहीं) | ||
अनुबंधन के समय | घंटी की ध्वनि (CS) + भोजन (US) | लार स्राव (UR) |
अनुबंधन के पश्चात | घंटी की ध्वनि (CS) | लार स्राव (CR) |
प्राचीन अनुबंधन के निर्धारक
प्राचीन अनुबंधन में कितनी जल्दी से और कितनी मजबूती से अनुक्रिया प्राप्त होती है, यह अनेक कारकों पर निर्भर करता है। अनुबंधित अनुक्रिया के अधिगम को प्रभावित करने वाले कुछ प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं :
1. उद्दीपकों के बीच समय संबंध : प्राचीन अनुबंधन प्रक्रियाएँ प्रमुखतः चार प्रकार की होती हैं। इनका आधार अनुबंधित उद्दीपक और अननुबंधित उद्दीपक की शुरूआत के बीच समय संबंध पर आधारित होता है। पहली तीन प्रक्रियाएँ अग्रवर्ती अनुबंधन (forward conditioning) की हैं तथा चौथी प्रक्रिया पश्चगामी अनुबंधन (backward conditioning) की है। इन प्रक्रियाओं की मूल प्रायोगिक व्यवस्थाएँ इस प्रकार हैं :
(अ) जब अनुबंधित तथा अननुबंधित उद्दीपक साथ-साथ प्रस्तुत किए जाते हैं तो इसे सहकालिक अनुबंधन ( simultaneous conditioning) कहा जाता है।
(ब) विलंबित अनुबंधन (delayed conditioning) की प्रक्रिया में अनुबंधित उद्दीपक का प्रारंभ अननुबंधित उद्दीपक से पहले होता है। अनुबंधित उद्दीपक का अंत भी अननुबंधित उद्दीपक के पहले होता है।
(स) अवशेष अनुबंधन (trace conditioning) की प्रक्रिया में अनुबंधित उद्दीपक का प्रारंभ और अंत अननुबंधित उद्दीपक से पहले होता है। लेकिन दोनों के बीच में कुछ समय अंतराल होता है।
(द) पश्चगामी अनुबंधन (backward conditioning) की प्रक्रिया में अननुबंधित उद्दीपक का प्रारंभ अनुबंधित उद्दीपक से पहले शुरू होता है। प्रायोगिक अध्ययनों से अब यह बिलकुल स्पष्ट हो चुका है कि विलंबित अनुबंधन की प्रक्रिया अनुबंधित अनुक्रिया प्राप्त करने की सर्वाधिक प्रभावशाली विधि है। सहकालिक तथा अवशेष अनुबंधन की प्रक्रियाओं से भी अनुबंधित अनुक्रिया प्राप्त होती है परंतु इन विधियों में विलंबित अनुबंधन प्रक्रिया की तुलना में अधिक प्रयास लगते हैं। ध्यातव्य है कि पश्चगामी अनुबंधन प्रक्रिया से अनुक्रिया प्राप्त होने की संभावना बहुत कम होती है।
2. अननुबंधित उद्दीपकों के प्रकार : प्राचीन अनुबंधन के अध्ययनों में प्रयुक्त अननुबंधित उद्दीपक मूलत: दो प्रकार के होते हैं - प्रवृत्यात्मक (appetitive) तथा विमुखी (aversive)। प्रवृत्यात्मक अननुबंधित उद्दीपक स्वतः सुगम्य अनुक्रियाएँ उत्पन्न करते हैं; जैसे- खाना, पीना, दुलारना आदि। ये अनुक्रियाएँ संतोष और प्रसन्नता प्रदान करती हैं। दूसरी ओर, विमुखी अननुबंधित उद्दीपक; जैसे- शोर, कड़वा स्वाद, विद्युत आघात, पीड़ादायी सूई आदि दुखदायी और क्षतिकारक होते हैं। ये परिहार और पलायन की अनुक्रियाएँ उत्पन्न करते हैं। यह ज्ञात हुआ है कि प्रवृत्यात्मक प्राचीन अनुबंधन अपेक्षाकृत धीमा होता है और इसकी प्राप्ति के लिए अधिक प्रयास करने पड़ते हैं जबकि विमुखी प्राचीन अनुबंधन दो-तीन प्रयासों में ही स्थापित हो जाता है। यह वस्तुतः विमुखी अननुबंधित उद्दीपक की तीव्रता पर निर्भर करता है।
3. अनुबंधित उद्दीपकों की तीव्रता : अनुबंधित उद्दीपकों की तीव्रता प्रवृत्यात्मक और विमुखी प्राचीन अनुबंधन दोनों की दिशा को प्रभावित करती है। अनुबंधित उद्दीपक जितना ही अधिक तीव्र होगा, अनुबंधित अनुक्रिया के अर्जन की गति उतनी ही अधिक होगी अर्थात अनुबंधित उद्दीपक जितना अधिक तीव्र होगा, उतने ही कम प्रयासों की जरूरत अनुबंधन की प्राप्ति के लिए पड़ेगी।
क्रियाकलाप 5.1
अनुबंधन को समझने तथा उसकी व्याख्या करने के लिए आप निम्नलिखित अभ्यास को कर सकते हैं। आम के अचार के कुछ टुकड़े प्लेट में रखिए और इसे अपनी कक्षा में विद्यार्थियों को दिखाइए। उनसे पूछिए कि उन्हें अपने मुँह के अंदर कैसा अनुभव हो रहा है?
आपके अधिकांश सहपाठी संभवतः कहेंगे कि उनके मुँह में लार आ रही है।
क्रियाप्रसूत/नैमित्तिक अनुबंधन
इस तरह के अनुबंधन का अन्वेषण सर्वप्रथम बी.एफ. स्किनर (B.F. Skinner) द्वारा किया गया। उन्होंने ऐच्छिक अनुक्रियाओं के घटित होने का अध्ययन किया, जो प्राणी द्वारा अपने पर्यावरण में सक्रिय होने पर होती हैं। स्किनर ने इसे क्रियाप्रसूत (operant) कहा। क्रियाप्रसूत वे व्यवहार या अनुक्रियाएँ हैं, जो जानवरों और मानवों द्वारा ऐच्छिक रूप से प्रकट की जाती हैं और उनके नियंत्रण में रहती हैं। क्रियाप्रसूत पद का उपयोग किया गया है क्योंकि प्राणी पर्यावरण में सक्रिय होकर कार्य करता है। क्रियाप्रसूत व्यवहार का अनुबंधन क्रियाप्रसूत अनुबंधन (operant conditioning) कहलाता है।
स्किनर ने क्रियाप्रसूत अनुबंधन से संबंधित अपने अध्ययन चूहों और कबूतरों पर किए थे। प्रयोग हेतु एक भूखे चूहे को (एक समय में) एक विशेष रूप से बनाए गए बॉक्स, स्किनर बॉक्स (Skinner box) में रख दिया जाता था। चूहा इस बॉक्स में चारों ओर घूम-फिर सकता था परंतु इससे बाहर नहीं जा सकता था। बॉक्स की एक दीवार में एक लीवर लगा था, जिसका संबंध बॉक्स की छत पर लगे एक भोजन-पात्र से होता था। लीवर के नीचे एक प्लेट भी रहती थी (चित्र 5.2 देखें)। जब लीवर को दबाया जाता था तो भोजन-पात्र से एक निश्चित मात्रा में भोजन निकलकर प्लेट में गिर जाता था। जब एक भूखा चूहा पहली बार बॉक्स में रखा गया तो उसे लीवर दबाकर भोजन प्राप्त करना तो मालूम नहीं था इसलिए वह भूख से परेशान होकर बॉक्स में इधर से उधर घूमने लगा और दीवारों को पंजों से खरोंचने लगा (अन्वेषी व्यवहार)। इस तरह खोज़-बीन करते हुए संयोग से एक बार उससे लीवर दब गया। लीवर के दबते ही प्लेट में खाना गिर गया और चूहे ने उसे खा लिया। अगले प्रयास में कुछ क्षणों के पश्चात यह अन्वेषी
चित्र 5.2: स्किनर बॉक्स
व्यवहार पुनःआरंभ हुआ। जैसे-जैसे प्रयासों की संख्या बढ़ती गई, चूहे को बॉक्स में रखने और उसके द्वारा लीवर दबाने के बीच का समय अंतराल घटता गया। अनुबंधन पूर्ण हो जाता है जब स्किनर बॉक्स में रखते ही चूहा लीवर दबाकर भोजन प्राप्त कर लेता है। यहाँ यह स्पष्ट है कि लीवर दबाने की अनुक्रिया क्रियाप्रसूत अनुक्रिया है जिसका परिणाम भोजन प्राप्ति है।
इस प्रयोग में हम देखते हैं कि लीवर दबाने की अनुक्रिया भोजन प्राप्त करने का निमित्त है। इसलिए इस प्रकार के अधिगम को नैमित्तिक अनुबंधन (instrumental conditioning) भी कहा जाता है। हमें अपने दैनिक जीवन में नैमित्तिक अनुबंधन के अनेक उदाहरण मिलते हैं। घरों में बच्चे अपनी माँ के न रहने पर मिठाई के लिए उस स्थान को खोजने का कार्य करते हैं जहाँ जार में मिठाई छिपाकर रखी गई है और मिठाई खा लेते हैं। बच्चे जिससे कुछ पाना चाहते हैं उससे अत्यंत विनम्रता से बात करते हैं। विभिन्न प्रकार के यंत्रों; जैसे- रेडियो, कैमरा, टी.वी. आदि को चलाना हम नैमित्तिक अनुबंधन के सिद्धांत के आधार पर ही सीखते हैं। वस्तुतः अपने वांछित उद्देश्य को पाने के लिए मनुष्य नैमित्तिक अनुबंधन द्वारा बहुत से कार्य संपादित करने वाले संक्षिप्त तरीके सीख लेते हैं।
क्रियाप्रसूत अनुबंधन के निर्धारक
आपने ध्यान दिया है कि क्रियाप्रसूत या नैमित्तिक अनुबंधन अधिगम का एक प्रकार है जिसमें इसके परिणाम से व्यवहार को सीखा जाता है, बनाए रखा जाता है अथवा उसमें परिवर्तन किया जाता है। ऐसे परिणाम को प्रबलक (reinforcer) कहा जाता है। प्रबलक ऐसा कोई भी उद्दीपक या घटना है, जो
किसी (वांछित) अनुक्रिया के घटित होने की संभावना को बढ़ाता है। प्रबलक की अनेक विशेषताएँ होती हैं जो अनुक्रिया की दिशा व शक्ति को निर्धारित करती हैं। प्रबलक की मुख्य विशेषताओं में इसका प्रकार (धनात्मक अथवा ऋणात्मक), संख्या या आवृत्ति, गुणवत्ता (उच्च अथवा निम्न), और अनुसूची (सतत अथवा आंशिक) आदि हैं। प्रबलक की ये सभी विशेषताएँ क्रियाप्रसूत अनुबंधन को प्रभावित करती हैं। अनुबंधित की जाने वाली अनुक्रिया या व्यवहार का स्वरूप दूसरा कारक है जो इस प्रकार के अधिगम को प्रभावित करता है। अनुक्रिया के घटित होने और प्रबलन के बीच का अंतराल भी क्रियाप्रसूत अधिगम को प्रभावित करता है। आइए, इनमें से कुछ कारकों का विस्तृत परीक्षण करें।
प्रबलन के प्रकार
प्रबलन धनात्मक अथवा ऋणात्मक हो सकता है। धनात्मक प्रबलन में वे उद्दीपक शामिल होते हैं जिनका परिणाम सुखद होता है। धनात्मक प्रबलन जिस नैमित्तिक अनुक्रिया से प्राप्त होता है उसे दृढ़ करता है और बनाए रखता है। धनात्मक प्रबलक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं, जिनमें भोजन, पानी, तमगा, प्रशंसा, धन, प्रतिष्ठा, सूचनाएँ आदि शामिल हैं। ऋणात्मक प्रबलक अप्रिय एवं पीड़ादायक उद्दीपक होते हैं। प्राणियों की ऐसी अनुक्रियाएँ जो उन्हें पीड़ादायक उद्दीपकों से छुटकारा दिलाती हैं या उनसे दूर रहने और बच निकलने के लिए पथ प्रदर्शन करती हैं, ऋणात्मक प्रबलन प्रदान करती हैं। इस प्रकार, ॠणात्मक प्रबलन, परिहार अनुक्रिया अथवा पलायन अनुक्रिया करना सिखाते हैं। उदाहरण के लिए, दुखदायी ठंड से बचने के लिए व्यक्ति ऊनी कपड़े पहनना, लकड़ी जलाना तथा बिजली के हीटर का उपयोग करना सीखता है। व्यक्ति खतरनाक उद्दीपकों से दूर भागना सीखता है क्योंकि यह ॠणात्मक प्रबलन प्रदान करता है। ध्यातव्य है कि ॠणात्मक प्रबलन दंड नहीं है। यह उल्लेखनीय है दंड का उपयोग अनुक्रिया को कम करता है या दबाता है जबकि ऋणात्मक प्रबलक परिहार या पलायन की अनुक्रिया की संभाव्यता को बढ़ाता है। उदाहरणार्थ, दुर्घटना की स्थिति में घायल होने से बचने के लिए अथवा ट्रैफिक पुलिस के द्वारा जुर्माना किए जाने से बचने के लिए चालक एवं सहचालक सीट बेल्ट पहनते हैं।
यह विदित है कि कोई भी दंड स्थाई रूप से किसी अनुक्रिया को दबा नहीं पाता है। हलके एवं विलंबित दंड का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। दंड जितना ही कठोर होता है उसका दमन प्रभाव भी उतने ही अधिक काल तक बना रहता है, परंतु यह प्रभाव स्थायी नहीं होता।
कभी-कभी दंड चाहे जितना ही कठोर क्यों न हो इसका अनुक्रिया के दमन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसके विपरीत, दंडित किए गए व्यक्ति में दंड देने वाले व्यक्ति के प्रति घृणा व विकर्षण का भाव आ जाता है।
प्रबलन की संख्या तथा अन्य विशेषताएँ
प्रबलन की संख्या से हमारा आशय उन प्रयासों की संख्या से है, जिनमें प्राणी को प्रबलन या पुरस्कार प्राप्त हुआ हो। प्रबलन की मात्रा से आशय प्रबलित करने वाले उद्दीपक (भोजन या पानी या पीड़ादायक कारक की तीव्रता) की कितनी मात्रा को प्रत्येक प्रयास में प्राणी प्राप्त करता है। प्रबलन की गुणवत्ता से तात्पर्य प्रबलक के प्रकार से है। मटर का दाना या ब्रेड का टुकड़ा, किशमिश या केक की तुलना में निम्न गुणवत्ता वाला प्रबलक है। नैमित्तिक अनुबंधन की गति साधारणतया उतनी ही बढ़ती है जितनी प्रबलनों की संख्या, मात्रा और गुणवत्ता बढ़ती है।
प्रबलन अनुसूचियाँ
प्रबलन अनुसूची अनुबंधन के प्रयासों के दौरान प्रबलन उपलब्ध कराने की व्यवस्था को कहते हैं। प्रत्येक प्रबलन अनुसूची अनुबंधन की दिशा को अपने-अपने ढंग से प्रभावित करती है। इसके कारण अनुबंधित अनुक्रियाएँ भिन्न-भिन्न प्रकार की विशेषताओं वाली हो जाती हैं। नैमित्तिक अनुबंधन में किसी प्राणी को प्रत्येक अर्जन प्रयास में प्रबलन दिया जा सकता है अथवा कुछ प्रयासों में यह दिया जाता है और दूसरे प्रयासों में नहों दिया जाता है। इस प्रकार प्रबलन सतत या सविराम हो सकता है। प्रत्येक बार जब वांछित अनुक्रिया घटित होती है तब उसे प्रबलन दिया जाता है तो हम उसे सतत प्रबलन (continuous reinforcement) कहते हैं। इसके विपरीत, सविराम अनुसूची में अनुक्रियाओं को कभी प्रबलित किया जाता है, कभी नहीं। इसे हम आंशिक प्रबलन (partial reinforcement) कहते हैं। यह पाया गया है कि आंशिक प्रबलन, सतत प्रबलन की अपेक्षा में विलोप के प्रति ज्यादा विरोध पैदा करता है।
विलंबित प्रबलन
किसी भी प्रबलन की प्रबलनकारी क्षमता विलंब के साथ-साथ कम होती जाती है। यह पाया गया है कि प्रबलन प्रदान करने में विलंब से निष्पादन का स्तर निकृष्ट हो जाता है। इस बात
बॉक्स 5.1 प्राचीन तथा क्रियाप्रसूत अनुबंधन : भिन्नताएँ
1. प्राचीन अनुबंधन में अनुक्रियाएँ किसी उद्दीपक के नियंत्रण में होती हैं क्योंकि वे प्रतिवर्ती अनुक्रियाएँ हैं जो स्वतः ही उचित उद्दीपकों के द्वारा प्राप्त की गई हैं। ऐसे उद्दीपकों को अननुबंधित उद्दीपक के रूप में चुना जाता है और उनके द्वारा प्राप्त की गई अनुक्रियाएँ, अननुबंधित अनुक्रियाओं के रूप में चुनी जाती हैं। इस प्रकार पावलव के अनुबंधन को बहुधा अनुक्रियाकारी अनुबंधन कहा जाता है, जिसमें अननुबंधित उद्दीपक अनुक्रियाएँ उत्पन्न करते हैं।
नैमित्तिक अनुबंधन में अनुक्रियाएँ प्राणी के नियंत्रण में होती हैं और ऐच्छिक अनुक्रियाएँ या क्रियाप्रसूत अनुक्रिया होती हैं। इस प्रकार इन दो प्रकार के अनुबंधनों में भिन्न-भिन्न प्रकार की अनुक्रियाओं का अनुबंधन किया जाता है।
2. प्राचीन अनुबंधन में अनुबंधित उद्दीपक तथा अननुबंधित उद्दीपक सुपरिभाषित होते हैं परंतु क्रियाप्रसूत अनुबंधन में अनुबंधित उद्दीपक परिभाषित नहीं होते हैं। इसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है लेकिन यह सीधे तौर से ज्ञात नहीं होता है।
3. प्राचीन अनुबंधन में अननुबंधित उद्दीपक का प्रस्तुत किया जाना प्रयोगकर्ता के नियंत्रण में होता है, जबकि क्रियाप्रसूत अनुबंधन में प्रबलक का मिलना या न मिलना अनुक्रिया सीखने वाले प्राणी के नियंत्रण में होता है। इसलिए अननुबंधित उद्दीपक के लिए प्राचीन अनुबंधन के दौरान प्राणी निष्क्रिय रहता है, जबकि क्रियाप्रसूत अनुबंधन में प्राणी को सक्रिय होना होता है ताकि वह प्रबलित हो सके।
4. अनुबंधन के इन दोनों रूपों में प्रायोगिक प्रक्रियाओं को स्पष्ट करने के लिए प्रयुक्त तकनीकी पद भी भिन्न हैं। इसके अतिरिक्त, क्रियाप्रसूत अनुबंधन में जो प्रबलक हैं वही प्राचीन अनुबंधन में अननुबंधित उद्दीपक हैं। अननुबंधित उद्दीपक के दो कार्य होते हैं। प्रारंभिक प्रयासों में यह अनुक्रिया उत्पन्न करता है, तथा उसे प्रबलित भी करता है ताकि अनुबंधित उद्दीपक से संबंधित हो सके और बाद में उसके द्वारा उत्पन्न किया जा सके।
को आसानी से दर्शाया जा सकता है। यदि बच्चों से यह पूछा जाए कि वे किसी काम को करने के तुरंत बाद एक छोटा पुरस्कार या लंबे अंतराल के बाद एक बड़ा पुरस्कार लेना पसंद करेंगे तो वे छोटा पुरस्कार तुरंत लेना पसंद करेंगे।
प्रमुख अधिगम प्रक्रियाएँ
जब अधिगम घटित होता है, चाहे यह प्राचीन अनुबंधन हो या क्रियाप्रसूत अनुबंधन, तब इसमें कुछ प्रक्रियाएँ घटित होती हैं। ये हैं - प्रबलन (reinforcement), विलोप (extinction) या अर्जित अनुक्रिया का घटित न होना, कुछ खास दशाओं में अधिगम का अन्य उद्दीपकों के प्रति सामान्यीकरण (generalisation), प्रबलन देने वाले तथा प्रबलन न देने वाले उद्दीपकों के बीच विभेदन (discrimination), तथा स्वतः पुनःप्राप्ति (spontaneous recovery)।
प्रबलन
प्रबलन प्रयोगकर्ता द्वारा प्रबलक देने की क्रिया का नाम है। प्रबलक वे उद्दीपक होते हैं जो अपने पहले घटित होने वाली अनुक्रियाओं की दर या संभावना को बढ़ा देते हैं। हमने देखा है कि प्रबलित अनुक्रियाओं की दर बढ़ जाती है जबकि अप्रबलित अनुक्रियाओं की दर घट जाती है। एक धनात्मक प्रबलक के मिलने के पहले जो अनुक्रिया घटित होती है उसकी दर बढ़ जाती है। ॠणात्मक प्रबलक अपने हटने या समापन से पहले घटित होने वाली अनुक्रिया की दर बढ़ा देते हैं। प्रबलक प्राथमिक या द्वितीयक हो सकते हैं। एक प्राथमिक प्रबलक (primary reinforcer) जैविक रूप से महत्वपूर्ण होता है चूँकि यह प्राणी के जीवन का निर्धारक होता है (जैसे- एक भूखे प्राणी के लिए भोजन)। एक द्वितीयक प्रबलक वह प्रबलक है जिसने पर्यावरण के साथ प्राणी के अनुभव के कारण प्रबलक की विशेषताएँ प्राप्त कर ली होती हैं। हम बहुधा धन, प्रशंसा और श्रेणियों का उपयोग इसी तरह के प्रबलक के रूप में करते हैं। इन्हें द्वितीयक प्रबलक (secondary reinforcer) कहते हैं। प्रबलकों के नियमित उपयोग से वांछित अनुक्रिया प्राप्त हो सकती है। ऐसी अनुक्रिया की रचना वांछित अनुक्रिया के निरंतर अनुमानों के प्रबलन द्वारा होती है।
विलोप
विलोप का तात्पर्य अधिगत अनुक्रिया के लुप्त होने से है जो प्रबलन को उस परिस्थिति से हटा लेने के कारण होती है
बॉक्स 5.2 अधिगत असहायपन
यह एक रोचक गोचर है जो दो तरह के अनुबंधनों के बीच अंत:क्रिया का परिणाम है। अधिगत असहायपन अवसादग्रस्त व्यक्तियों में पाया जाता है। सेलिगमैन (Seligman) तथा मायर (Maier) ने कुत्तों पर किए गए अध्ययन में इस गोचर को प्रदर्शित किया। उन्होंने सबसे पहले कुत्तों के सामने ध्वनि (CS) तथा विद्युत आघात (US) को प्राचीन अनुबंधन की विधि से प्रसुत किया। पशु को आघात से पलायन या परिहार का कोई अवसर नहीं दिया गया। इन दोनों उद्दीपकों का युग्म कई बार दुहराया गया। इसके बाद कुत्तों को क्रियाप्रसूत अनुवंधन की विधि के अंतर्गत आघात प्रस्तुत किया गया। इसमें कुत्ते आघात से पलायन कर सकते थे यदि वे अपना सिर दोवार पर दबाएँ। पावलवी परिस्थिति में न बच सकने वाले विद्युत्त आघात का अनुभव कर लेने के बाद ये कुत्ते क्रियाप्रसूत अनुबंधन की विधि के अंत्गत आघात से पलायन या परिहार करने में असफल रहे। ये कुत्ते आघात सहते रहे और पलायन का कोई प्रयास नहीं किया। कुत्तों के इस व्यवहार को अधिगत असहायपन कहा गया।
यह गोचर मनुष्यों में भी पाया जाता है। यह पाया गया है कि कार्यों के निष्पादन में बार-बार मिलने वाली असफलता के कारण व्यक्तियों में असहायपन की प्रवृत्ति आ जाती है। प्रायोगिक अध्ययन के प्रथम चरण में प्रयोज्यों को प्रत्येक बार उनके काम को देखे बिना यही सूचित किया जाता है कि वे अपने निष्पादन में असफल रहे हैं। दूसरे चरण में इन्हें एक कार्य दिया जाता है। अधिगत असहायपन को बहुधा प्रयोज्य की योग्यता और कार्य त्यागने से पहले दृढ़ता से मापा जाता है। लगातार असफलता से दृढ़ता लगभग नहीं के बराबर होती है और निष्पादन निकृष्ट होता है। इस प्रकार का व्यवहार अधिगत असहायपन का द्योतक है। अनेक अध्ययनों से यह भी प्रमाणित हुआ है कि दोर्घकालिक अवसाद को दशा भी बहुधा अधिगत असहायपन के कारण ही उत्पन्न होती है।
जिसमें अनुक्रिया घटित हुआ करती थी। प्राचीन अनुबंधन में अनुबंधित उद्दीपक-अनुबंधित अनुक्रिया $(\mathrm{CS}-\mathrm{CR})$ के घटित होने के बाद यदि अननुबंधित उद्दीपक (US) घटित न हो या लीवर दबाने के बाद स्किनर बॉक्स में यदि भोजन न मिले तो इन सब स्थितियों में सीखा हुआ व्यवहार क्रमशः दुर्बल हो जाता है और अंत में लुप्त हो जाता है।
अधिगम की प्रक्रिया विलोप का प्रतिरोध (resistance to extinction) भी प्रदर्शित करती है। इसका तात्पर्य है कि सीखी हुई अनुक्रिया प्रबलित न होने पर भी कुछ समय तक होती रहती है। तथापि बिना प्रबलन वाले प्रयासों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ अनुक्रिया का बल धीरे-धीरे क्षीण होता जाता है और अंततोगत्वा अनुक्रिया होनी बंद हो जाती है। कोई सीखी हुई अनुक्रिया कितने समय तक विलोप का प्रतिरोध प्रदर्शित करेगी यह कई कारकों पर निर्भर करता है। यह पाया गया है कि सीखते समय प्रबलित प्रयासों की संख्या बढ़ने के साथ विलोप का प्रतिरोध बढ़ता है और अधिगत अनुक्रिया अपने सबसे ऊँचे स्तर तक पहुँचती है। इस स्तर पर उपलब्धि स्थिर हो जाती है। इसके बाद प्रयासों की संख्या का अनुक्रिया के बल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। विलोप का प्रतिरोध अर्जन प्रयासों के दौरान प्रबलनों की संख्या बढ़ने के साथ बढ़ता है। इस वृद्धि से ऊपर प्रबलनों की संख्या बढ़ने पर विलोप का प्रतिरोध घटता है। अध्ययनों से यह भी पता चला है कि जैसे-जैसे अर्जन प्रयासों के दौरान प्रबलन की मात्रा (भोज्य पदार्थ की संख्या) बढ़ती है, विलोप का प्रतिरोध घटता है।
यदि अर्जन प्रयासों के दौरान प्रबलन विलंब से मिले तो विलोप का प्रतिरोध बढ़ता है। प्रत्येक अर्जन प्रयास में प्रबलन सीखी हुई अनुक्रिया को विलोप के प्रति कम प्रतिरोधी बना देता है। इसके विपरीत, अर्जन के समय रुक-रुक कर या आंशिक प्रबलन देना सीखी गई अनुक्रिया को विलोप के प्रति अधिक प्रतिरोधी बना देता है।
सामान्यीकरण तथा विभेदन
सामान्यीकरण (generalisation) तथा विभेदन (discrimination) की प्रक्रियाएँ हर प्रकार के अधिगम में पाई जाती हैं। तथापि इनका विस्तृत अध्ययन अनुबंधन के संदर्भ में किया गया है। मान लीजिए, एक प्राणी को अनुबंधित उद्दीपक (प्रकाश या घंटी की ध्वनि) प्रस्तुत करने पर अनुबंधित अनुक्रिया (लार स्राव या कोई अन्य प्रतिवर्ती अनुक्रिया) प्राप्त करने के लिए अनुबंधित किया गया है। अनुबंधन स्थापित हो जाने के बाद जब अनुबंधित उद्दीपक के समान कोई दूसरा उद्दीपक (जैसे- टेलीफोन का बजना) प्रस्तुत किया जाए तो प्राणी इसके प्रति अनुबंधित अनुक्रिया करता है। समान उद्दीपकों के प्रति समान अनुक्रिया करने के इस गोचर को सामान्यीकरण कहते हैं। दोबारा, मान लीजिए कि एक बच्चा एक खास आकार और आकृति वाले उस जार की जगह को जान गया है, जिसमें मिठाइयाँ रखी जाती हैं। जब माँ पास में नहीं रहती है तो भी बच्चा जार को खोज लेता है और मिठाई प्राप्त कर लेता है। यह एक अधिगत क्रियाप्रसूत है। अब मिठाइयाँ एक दूसरे जार में रख दी गईं, जो एक भिन्न आकार तथा आकृति का है और रसोईघर में दूसरी जगह रखा हुआ है। माँ की अनुपस्थिति में बच्चा जार को ढूँढ़ लेता है और मिठाई प्राप्त कर लेता है। यह भी सामान्यीकरण का एक उदाहरण है। जब एक सीखी हुई अनुक्रिया की एक नए उद्दीपक से प्राप्ति होती है तो उसे सामान्यीकरण कहते हैं।
एक दूसरी प्रक्रिया जो सामान्यीकरण की पूरक है, विभेदन कहलाती है। सामान्यीकरण समानता के कारण होता है, जबकि विभेदन भिन्नता के प्रति अनुक्रिया होती है। उदाहरणार्थ, मान लीजिए, एक बच्चा काले कपड़े पहने व बड़ी मूँछों वाले व्यक्ति से डरने की अनुक्रिया से अनुबंधित है। बाद में जब वह एक नए व्यक्ति से मिलता है, जो काले कपड़ों में है और दाढ़ी रखे हुए है तो बच्चा भयभीत हो जाता है। बच्चे का भय सामान्यीकृत है। वह एक दूसरे अपरिचित से मिलता है जो धूसर कपड़ों में है और दाढ़ी-मूँछ रहित है तो बच्चा नहीं डरता है। यह विभेदन का एक उदाहरण है। सामान्यीकरण होने का तात्पर्य विभेदन की विफलता है। विभेदन की अनुक्रिया प्राणी की विभेदक क्षमता या विभेदन के अधिगम पर निर्भर करती है।
स्वतः पुन:प्राप्ति
स्वतः पुन:प्राप्ति किसी अधिगत अनुक्रिया के विलोप होने के बाद होती है। मान लीजिए, एक प्राणी प्रबलन प्राप्त करने के लिए एक अनुक्रिया करना सीखता है। इसके बाद अनुक्रिया विलुप्त हो जाती है और कुछ समय बीत जाता है। यहाँ पर एक प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या अनुक्रिया पूरी तरह विलुप्त हो चुकी है और अनुबंधित उद्दीपक प्रस्तुत करने पर अनुक्रिया घटित नहीं होगी। यह पाया गया है कि काफी समय बीत जाने के बाद सीखी हुई अनुबंधित अनुक्रिया का पुनरुद्धार हो जाता है और वह अनुबंधित उद्दीपक के प्रति घटित होती है। स्वतः पुनःप्राप्ति की मात्रा विलोप के बाद बीती हुई समयावधि पर निर्भर करती है। यह अवधि जितनी ही अधिक होती है, अधिगत अनुक्रिया की पुनःप्राप्ति उतनी ही अधिक होती है। ऐसी पुन:ः्राप्ति स्वाभाविक रूप से होती है। चित्र 5.3 स्वत: पुनःप्राप्ति की घटना को प्रस्तुत करता है।
चित्र 5.3 : स्वतः पुन:प्राप्ति की घटना
प्रेक्षणात्मक अधिगम
प्रेक्षणात्मक अधिगम दूसरों का प्रेक्षण करने से घटित होता है। अधिगम के इस रूप को पहले अनुकरण (imitation) कहा जाता था। बंदूरा (Bandura) और उनके सहयोगियों ने कई प्रायोगिक अध्ययनों में प्रेक्षणात्मक अधिगम की विस्तृत खोजबीन की। इस प्रकार के अधिगम में व्यक्ति सामाजिक व्यवहारों को सीखता है, इसलिए इसे कभी-कभी सामाजिक अधिगम (social learning) भी कहा जाता है। हमारे सामने ऐसी अनेक सामाजिक स्थितियाँ आती हैं, जिनमें यह ज्ञात नहीं रहता कि हमें कैसा व्यवहार करना चाहिए। ऐसी स्थितियों में हम दूसरे व्यक्तियों के व्यवहारों का प्रेक्षण करते हैं और उनकी तरह व्यवहार करने लगते हैं। इस प्रकार के अधिगम को मॉडलिंग (modeling) कहा जाता है।
हमारे सामाजिक जीवन में प्रेक्षणात्मक अधिगम के अनेक उदाहरण मिलते हैं। हम जानते हैं कि फैशन डिजाइनर विशेषतः लंबी, सुंदर तथा गरिमायुक्त नवयुवतियों को और लंबे तथा आकर्षक कद-काठी वाले नवयुवकों को अपने बनाए परिधानों को लोकप्रिय बनाने के लिए नियुक्त करते हैं। लोग उन्हें टी.वी. के फैशन शो तथा पत्रिकाओं और समाचारपत्रों के विज्ञापनों में देखते हैं। वे इन आदर्श लोगों का अनुकरण करते हैं। अपने से श्रेष्ठ और पसंदीदा लोगों को देखना और नयी सामाजिक परिस्थिति में उनके व्यवहारों का अनुकरण करना एक सामान्य अनुभव है।
प्रेक्षणात्मक अधिगम के स्वरूप को समझने के लिए बंदूरा के अध्ययनों का वर्णन करना उचित होगा। बंदूरा ने एक प्रसिद्ध प्रायोगिक अध्ययन में बच्चों को पाँच मिनट की अवधि की एक फिल्म दिखाई। फिल्म में एक बड़े कमरे में बहुत से खिलौने रखे थे और उनमें एक खिलौना एक बड़ा-सा गुड्डा (बोबो डॉल) था। अब कमरे में एक बड़ा लड़का प्रवेश करता है और चारों ओर देखता है। लड़का सभी खिलौनों के प्रति क्रोध प्रदर्शित करता है और बड़े खिलौने के प्रति तो विशेष रूप से आक्रामक हो उठता है। वह गुड्डे को मारता है, उसे फर्श पर फेंक देता है, पैर से ठोकर मारकर गिरा देता है और फिर उसी पर बैठ जाता है। इसके बाद का घटनाक्रम तीन अलग रूपों में तीन फिल्मों में तैयार किया गया। एक फिल्म में बच्चों के एक समूह ने देखा कि आक्रामक व्यवहार करने वाले लड़के (मॉडल) को पुरस्कृत किया गया और एक प्रौढ़ व्यक्ति ने उसके आक्रामक व्यवहार की प्रशंसा की। दूसरी फिल्म में बच्चों के दूसरे समूह ने देखा कि उस लड़के को उसके आक्रामक व्यवहार के लिए दंडित किया गया। तीसरी फिल्म में बच्चों के तीसरे समूह ने देखा कि लड़के को न तो पुरस्कृत किया गया है और न ही दंडित।
इस प्रकार बच्चों के तीन समूहों को तीन अलग-अलग फिल्में दिखाई गईं। फिल्में देख लेने के बाद सभी बच्चों को एक अलग प्रायोगिक कक्ष में बिठाकर उन्हें विभिन्न प्रकार के खिलौनों से खेलने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया गया। इन समूहों को छिपकर देखा गया और उनके व्यवहारों को नोट किया गया। उन लोगों ने पाया कि जिन बच्चों ने फिल्म में खिलौने के प्रति किए जाने वाले आक्रामक व्यवहार को पुरस्कृत होते हुए देखा था, वे खिलौनों के प्रति सबसे अधिक आक्रामक थे। सबसे कम आक्रामकता उन बच्चों ने दिखाई जिन्होंने फिल्म में आक्रामक व्यवहार को दंडित होते हुए देखा था। इस प्रयोग से यह स्पष्ट होता है कि सभी बच्चों ने फिल्म में दिखाए गए घटनाक्रम से आक्रामकता सीखी और मॉडल का अनुकरण भी किया। प्रेक्षण द्वारा अधिगम की प्रक्रिया में प्रेक्षक मॉडल के व्यवहार का प्रेक्षण करके ज्ञान प्राप्त करता है परंतु वह किस प्रकार से आचरण करेगा यह इस पर निर्भर करता है कि उसने मॉडल को पुरस्कृत होते हुए देखा है या दंडित होते हुए।
आपने देखा होगा कि छोटे शिशु भी घर में तथा सामाजिक उत्सवों एवं समारोहों में प्रौढ़ व्यक्तियों के अनेक प्रकार के व्यवहारों का ध्यान से प्रेक्षण करते हैं; इसके बाद अपने खेल में उनको दुहराते हैं। उदाहरणार्थ, छोटे बच्चे विवाह समारोह, जन्मदिन प्रीतिभोज, चोर और सिपाही, घर-रखाव आदि के खेल खेलते हैं। वे अपने खेलों में ऐसा सब करते हैं जैसा वे समाज में और टेलीविज़न पर देखते हैं तथा पुस्तकों में पढ़ते हैं।
बच्चे अधिकांश सामाजिक व्यवहार प्रौढ़ों का प्रेक्षण तथा उनकी नकल करके सीखते हैं। कपड़े पहनना, बालों को सँवारने की शैली और समाज में कैसे रहा जाए यह सब दूसरों को देखकर सीखा जाता है। विभिन्न अध्ययनों से यह भी ज्ञात हुआ है कि बच्चों में व्यक्तित्व का विकास भी प्रेक्षणात्मक अधिगम के द्वारा होता है। आक्रामकता, परोपकार, आदर, नम्रता, परिश्रम, आलस्य आदि गुण भी अधिगम की इसी विधि द्वारा अर्जित किए जाते हैं।
क्रियाकलाप 5.2
निम्नलिखित अभ्यास द्वारा आप स्वयं प्रेक्षणात्मक अधिगम का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं।
विद्यालय जाने वाले चार-पाँच बच्चों को एकत्र करके उनके सामने कागज़ की नाव बनाने का प्रदर्शन कीजिए। इस क्रिया को दो या तीन बार दुहराइए और बच्चों से उसे ध्यान से देखने के लिए कहिए। इसे बार-बार दुहराने के बाद कि कागज़ को कैसे विभिन्न प्रकार से मोड़ा जाए, बच्चों को एक-एक कागज़ दे दीजिए और नाव बनाने के लिए कहिए।
अधिकतर बच्चे कुछ हद तक इसे सफलतापूर्वक कर पाएँगे।
संज्ञानात्मक अधिगम
कुछ मनोवैज्ञानिक अधिगम को उन संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के रूप में देखते हैं जो अधिगम के मूल में होती हैं। उन्होंने अधिगम के ऐसे उपागम विकसित किए हैं जो उन प्रक्रियाओं पर फोकस करते हैं जो अधिगम करते समय घटित होती हैं, न कि केवल S-R या S-S संबंधों पर ध्यान केंद्रित करके जैसा कि प्राचीन एवं क्रियाप्रसूत अनुबंधन में किया जाता है। अतः, संज्ञानात्मक अधिगम में सीखने वाले व्यक्ति के कार्यकलापों की बजाय उसके ज्ञान में परिवर्तन आता है। अंतर्दृष्टि अधिगम एवं अव्यक्त अधिगम में इस प्रकार का अधिगम परिलक्षित होता है।
अंतर्दृष्टि अधिगम
कोहलर (Kohler) ने अधिगम का एक ऐसा मॉडल प्रदर्शित किया जिसकी व्याख्या अनुबंधन के आधार पर सरलता से नहीं की जा सकती। उन्होंने चिम्पैंज़ी पर अनेक प्रयोग किए, जिसमें चिम्पैंज़ी को जटिल समस्याओं का समाधान करना था। कोहलर ने चिम्पैंज़ी को एक बंद खेल क्षेत्र में रखा जहाँ भोजन था, लेकिन चिर्पैंज़ी की पहुँच के बाहर था। इस खेल क्षेत्र में कुछ उपकरण; जैसे- डंडे तथा बॉक्स भी रख दिए गए थे। चिम्पैंज़ी ने तेज़ी से बॉक्स पर खड़े होना या डंडे से भोज्य पदार्थ को अपनी ओर खिसकाना सीख लिया। इस प्रयोग में अधिगम प्रयत्न-त्रुटि तथा प्रबलन के परिणामस्वरूप घटित नहीं हुआ, बल्कि अकस्मात अंतर्दृष्टिय दीप्ति द्वारा घटित हुआ। चिम्पैज़ी कुछ समय तक खेल क्षेत्र में घूमता रहा, फिर एकाएक एक बक्से पर खड़ा हो जाता, एक डंडा उठाकर केले पर मारता, जो कि सामान्यतः उनकी पहुँच के बाहर ऊँचाई पर थे। चिम्पैंज़ी ने जो अधिगम प्रदर्शित किया उसे कोहलर ने अंतर्दृष्टि अधिगम कहा। यह ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी समस्या का समाधान एकाएक स्पष्ट हो जाता है।
अंतर्दृष्टि अधिगम के एक सामान्य प्रयोग में एक समस्या प्रस्तुत की जाती है, उसके पश्चात कुछ समय तक प्रगति का आभास नहीं होता, फिर अंत में एकाएक समस्या समाधान उत्पन्न होता है। अंतर्दृष्टि अधिगम में अचानक समाधान प्राप्त होना अनिवार्य है। एक बार समाधान मिल जाने पर, अगली बार समस्या उपस्थित होने पर उसकी पुनरावृत्ति तत्काल की जा सकती है। अतः यह स्पष्ट है कि जो अधिगत किया गया है वह उद्दीपकों तथा अनुक्रियाओं के बीच अनुबंधित साहचर्यों का विशिष्ट समूह नहीं है, बल्कि साधन तथा साध्य के बीच एक संज्ञातात्मक संबंध है। इसके परिणामस्वरूप अंतर्तृष्टि अधिगम का सामान्यीकरण अन्य मिलती हुई समस्याओं की परिस्थितियों में भी हो सकता है।
अव्यक्त अधिगम
एक अन्य प्रकार के संज्ञानात्मक अधिगम को अव्यक्त अधिगम कहते हैं। अव्यक्त अधिगम में एक नया व्यवहार सीख लिया जाता है, किंतु व्यवहार दर्शाया नहीं जाता, जब तक कि उसे दर्शाने के लिए प्रबलन प्रदान नहीं किया जाता है। टोलमैन (Tolman) ने अव्यक्त अधिगम के संप्रत्यय को अपना प्रारंभिक योगदान दिया। अव्यक्त अधिगम को समझने के लिए उनके एक प्रयोग का संक्षिप्त वर्णन किया जा रहा है। टोलमैन ने चूहों के दो समूहों को भूल-भुलैया में छोड़ा तथा उन्हें अन्वेषण करने का अवसर दिया। चूहों के एक समूह को भूल-भुलैया के अंत में भोजन मिला और उन्होंने भूल-भुलैया में प्रारंभ से अंत तक का रास्ता तेज़ी से ढूँढ़ लिया। दूसरी ओर, चूहों के दूसरे समूह को कोई पुरस्कार नहीं दिया गया तथा उन्होंने अधिगम के कोई स्पष्ट संकेत भी प्रदर्शित नहीं किए। किंतु बाद में जब उन्हें प्रबलित किया गया तो वे भी भूल-भुलैया के रास्ते में प्रारंभ से अंत तक उतनी ही सक्षमता से दौड़ने लगे जितना कि पुरस्कृत समूह के चूहे दौड़ते थे।
टोलमैन ने यह प्रतिपादित किया कि अप्रबलित समूह के चूहों ने भी भूल-भुलैया के मानचित्र को अन्वेषण करके जल्दी ही सीख लिया था। केवल उन्होंने अपने अव्यक्त अधिगम का प्रदर्शन तब तक नहीं किया था जब तक कि ऐसा करने के लिए उन्हें प्रबलन प्रदान नहीं किया गया। इसके बजाय चूहों ने भूल-भुलैया का एक संज्ञानात्मक मानचित्र (cognitive map) विकसित किया, अर्थात अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए उन्हें जिन दिशाओं और स्थानिक अवस्थितियों की आवश्यकता थी उनका मानस चित्रण किया।
वाचिक अधिगम
वाचिक अधिगम अनुबंधन से भिन्न है और यह अधिगम मनुष्यों तक ही सीमित है। आप जानते हैं कि मनुष्य विभिन्न वस्तुओं, घटनाओं तथा इन सबके लक्षणों के बारे में मुख्यतः शब्दों के माध्यम से ही ज्ञान अर्जित करते हैं। एक शब्द का दूसरे शब्द से साहचर्य बन जाता है। मनोवैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में इस तरह से सीखने की प्रक्रिया के अध्ययन के लिए कई विधियों का विकास किया है। प्रत्येक विधि का किसी न किसी तरह की शाब्दिक सामग्री के अधिगम से जुड़े विशिष्ट प्रश्नों की खोज के लिए उपयोग किया जाता है। वाचिक अधिगम की प्रक्रिया के अध्ययन में मनोवैज्ञानिक कई तरह की सामग्रियों का उपयोग करते हैं; जैसे - निरर्थक शब्दांश, परिचित शब्द, अपरिचित शब्द (प्रतिदर्श एकांशों के लिए तालिका 5.2 देखें), वाक्य तथा अनुच्छेद।
वाचिक अधिगम के अध्ययन में प्रयुक्त विधियाँ
1. युग्मित सहचर अधिगम : यह विधि उद्दीपक-उद्दीपक अनुबंधन और उद्दीपक-अनुक्रिया अधिगम के समान है। इस विधि का उपयोग मातृभाषा के शब्दों के किसी विदेशी भाषा के पर्याय सीखने में किया जाता है। पहले युग्मित सहचरों की एक सूची बनाई जाती है। युग्मों के पहले शब्द का उपयोग उद्दीपक के रूप में किया जाता है और दूसरे शब्द का अनुक्रिया के रूप में। प्रत्येक युग्म के शब्द एक ही भाषा से
तालिका 5.2 वाचिक अधिगम प्रयोगों में प्रयुक्त एकांशों की प्रतिदर्श सूची
निरर्थक शब्दांश | अपरिचित शब्द | परिचित शब्द |
---|---|---|
क इ म | गवाक्ष | कमल |
च ओ प | तितिक्षा | महेश |
ग अ ख | यौगपद्य | नयन |
प उ य | तुक्तक | दिवस |
ट ए घ | चतुष्पद | गणेश |
ख ऐ ज् | विषण्ण | उद्योग |
न अ ड | कुलिश | प्रसाद |
य उ घ | सुतक्षणीय | समीर |
ज ओ ग | काकल | अर्जुन |
घ इ क | संकुल | सुवर्ण |
ल ए प | कर्मीदल | मलय |
र ओ य | जम्ब्रमणि | कपाल |
ड ए क | आप्लावन | रमण |
त अ ग | दाड़िम | विक्रम |
न उ य | हुतात्मा | निगम |
या दो भिन्न भाषाओं से हो सकते हैं। ऐसे शब्दों की एक सूची तालिका 5.3 में दी गई है।
युग्मों के पहले शब्द (उद्दीपक शब्द) निरर्थक शब्दांश (व्यंजन-स्वर-व्यंजन) हैं और दूसरे शब्द अंग्रेज़ी संज्ञाएँ (अनुक्रिया शब्द) हैं। अधिगमकर्ता को पहले दोनों उद्दीपक-अनुक्रिया युग्मों को एक साथ दिखाया जाता है और उसे अनुक्रिया शब्द को प्रत्येक उद्दीपक शब्द को प्रस्तुत करने के बाद पुनःस्मरण करने के निर्देश दिए जाते हैं। इसके बाद सीखने का प्रयास शुरू होता है। एक-एक करके उद्दीपक शब्द दिखाए जाते हैं और प्रतिभागी सही अनुक्रिया शब्द देने का प्रयास करता है। असफल होने पर उसे अनुक्रिया शब्द दिखाया जाता है। पहले प्रयास में सारे उद्दीपक शब्द दिखाए जाते हैं। प्रयासों का यह क्रम तब तक जारी रहता है जब तक कि प्रतिभागी सारे अनुक्रिया शब्दों को बिना किसी त्रुटि के बता नहीं देता है। इस मानदंड तक पहुँचने के लिए प्रयासों की कुल संख्या युग्मित सहचर अधिगम की मापक बन जाती है।
2. क्रमिक अधिगम : वाचिक अधिगम की इस विधि का उपयोग यह जानने के लिए किया जाता है कि प्रतिभागी किसी शाद्दिक एकांशों की सूची को किस तरह सीखता है और सीखने में कौन-कौन सी प्रक्रियाएँ शामिल हैं। सबसे पहले शब्दों की एक सूची तैयार कर ली जाती है। सूची में निरर्थक शब्दांश, अधिक परिचित शब्द, कम परिचित शब्द, आपस में संबंधित शब्द आदि हो सकते हैं। प्रतिभागी को सारी सूची प्रस्तुत की जाती हैं और उसको निर्देश दिया जाता है कि वह
तालिका $5.3 युग्मित सहचर अधिगम में प्रयुक्त उद्दीपक-अनुक्रिया युग्म
उद्दीपक-अनुक्रिया | उद्दीपक-अनुक्रिया |
---|---|
कएड - समय | मइक - पहाड़ |
खअग - हिरण | डअन - नाम |
पओच - कोयला | गओज्ञ - छत |
पएल - बकरी | छएट - नाव |
गईत - सोना | लऊ̌ट - बाघ |
नउय - निगम | सआक - नग |
एकांशों को उसी क्रम में बताए जिस क्रम में वे सूची में हैं। पहले प्रयास में, सूची का सबसे पहला एकांश दिखाया जाता है और प्रतिभागी को दूसरा एकांश बताना होता है। यदि वह निर्धारित समय में बताने में असफल रहता है, तो प्रयोगकर्ता उसे दूसरा एकांश प्रस्तुत करता है। अब यह एकांश उद्दीपक बन जाता है और प्रतिभागी को तीसरा एकांश यानी अनुक्रिया शब्द बताना होता है। अगर वह असफल होता है तो प्रयोगकर्ता उसे सही एकांश बता देता है जो चौथे एकांश के लिए उद्दीपक बन जाता है। इस विधि को क्रमिक पूर्वाभास विधि (serial anticipation method) कहा जाता है। अधिगम के प्रयास तब तक चलते रहते हैं जब तक कि प्रतिभागी सभी एकांशों का सही-सही क्रमिक पूर्वाभास न कर ले।
3. मुक्त पुनःस्मरण : इस विधि में प्रतिभागियों को शब्दों की एक सूची प्रस्तुत की जाती है जिसे वे पढ़ते हैं और बोलते हैं। प्रत्येक शब्द एक निश्चित समय तक ही दिखाया जाता है। इसके बाद प्रतिभागियों को शब्दों को किसी भी क्रम में पुनःस्मरण करने के निर्देश दिए जाते हैं। सूची में शब्द आपस में संबंधित या असंबंधित हो सकते हैं। सूची में दस से ज्यादा शब्द शामिल किए जाते हैं। शब्दों के प्रस्तुतीकरण का क्रम एक प्रयास से दूसरे प्रयास में भिन्न होता है। इस विधि का उपयोग यह जानने के लिए किया जाता है कि प्रतिभागी शब्दों को स्मृति में संचित करने के लिए किस तरह से संगठित करता है। अध्ययनों से यह पता चलता है कि सूची के आरंभ और अंत में स्थित शब्दों का पुनःस्मरण, सूची के बीच में स्थित शब्दों की तुलना में अधिक सरल होता है।
वाचिक अधिगम के निर्धारक
वाचिक अधिगम की अत्यंत व्यापक स्तर पर प्रायोगिक जाँच पड़ताल की गई है। इन अध्ययनों से यह ज्ञात हुआ है कि वाचिक अधिगम की प्रक्रिया को अनेक कारक प्रभावित करते हैं। इन निर्धारकों में सबसे महत्वपूर्ण वे हैं जो सीखी जाने वाली सामग्री की विभिन्न विशेषताओं से संबंधित हैं। सूची की लंबाई तथा सामग्री की अर्थपूर्णता इनमें प्रमुख हैं। सामग्री की अर्थपूर्णता का मापन कई विधियों से किया जा सकता है। एक निश्चित समय में प्राप्त साहचर्यों की संख्या, सामग्री की जानकारी और उपयोगों की आवृत्ति, सूची के शब्दों के बीच संबंध तथा पहले आए शब्दों पर सूची के प्रत्येक शब्द की क्रमिक निर्भरता का उपयोग अर्थपूर्णता के मापन के लिए किया जाता है। निरर्थक शब्दांशों की सूची साहचर्यों के भिन्न-भिन्न स्तरों के साथ उपलब्ध हैं। निरर्थक शब्दांशों का चयन एक-से साहचर्य मूल्यों वाली सूची से करना चाहिए। इस संबंध में किए गए शोध अध्ययनों के आधार पर अधोलिखित निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं।
शब्दों की सूची जितनी लंबी होगी, कम साहचर्य मूल्य वाले शब्द जितने ज्यादा होंगे या शब्दों के बीच संबंध का अभाव जितना ज्यादा होगा, सूची के अधिगम में उतना ही अधिक समय लगेगा। जितना अधिक समय सूची को याद करने में लगेगा, अधिगम उतना ही शक्तिशाली होगा। इस परिप्रेक्ष्य में मनोवैज्ञानिकों ने पाया है कि संपूर्ण काल नियम काम करता है। इस नियम के अनुसार किसी सामग्री की निश्चित मात्रा को सीखने के लिए एक निश्चित समयावधि आवश्यक होती है। इस अवधि को चाहे जितने प्रयासों में विभक्त कर लिया जाए इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। अधिगम में जितना ज्यादा समय लगता है, अधिगम उतना ही प्रभावी होता है।
यदि सूची को कोई प्रतिभागी क्रमिक अधिगम विधि से न सीखकर मुक्त पुनःस्मरण विधि से सीखे तो वाचिक अधिगम संगठनात्मक हो जाता है। इसका अर्थ है कि मुक्त पुनःस्मरण विधि से सीखते समय प्रतिभागी शब्दों का पुनःस्मरण उस क्रम में नहीं करता, जिस क्रम में वे प्रस्तुत किए गए होते हैं, बल्कि वह शब्दों को एक नए क्रम में पुनःस्मरण करता है। सर्वप्रथम बोसफील्ड (Bousfield) ने इसे प्रायोगिक रीति से प्रदर्शित किया। उन्होंने साठ शब्दों की एक सूची का निर्माण किया, जिसमें पंद्रह-पंद्रह शब्द चार अलग-अलग वर्गों से लिए गए थे। ये चार वर्ग थे - नाम, पशु, पेशा, तथा सब्जी। इन शब्दों को प्रतिभागियों के सम्मुख एक-एक करके यादृच्छिक क्रम से प्रस्तुत किया गया। इसके बाद प्रतिभागियों को सभी शब्दों का मुक्त पुनःस्मरण करने को कहा गया। तथापि उन्होंने प्रत्येक वर्ग के शब्दों को एक साथ पुनःस्मरण किया। उन्होंने इस प्रक्रिया को वर्ग-गुच्छन (category clustering) कहा। यहाँ महत्वपूर्ण यह है कि प्रतिभागियों को शब्दों का प्रस्तुतीकरण तो यादृच्छिक क्रम में किया गया था परंतु प्रतिभागियों ने उन शब्दों को पुनःस्मरण में वर्गानुसार संगठित किया। इस प्रयोग में वर्ग-गुच्छन की क्रिया सूची के शब्दों के स्वरूप के कारण हुई। यह भी दर्शाया गया है कि मुक्त पुनःस्मरण को हमेशा व्यक्तिनिष्ठता से संगठित किया जाता है। व्यक्तिनिष्ठ संगठन दर्शाता है कि प्रतिभागी शब्दों या एकांशों को अपने-अपने तरीके से संगठित और तदनुसार उनका पुनःस्मरण करते हैं।
वाचिक अधिगम प्राय: साभिप्राय होता है पर लोग शब्दों की कुछ विशेषताओं को अनजाने में या अनायास ही सीख लेते हैं। इस प्रकार के अधिगम में प्रतिभागी उन विशेषताओं को देखते हैं; जैसे- दो या अधिक शब्दों की तुक मिलती है, एक जैसे अक्षरों से शुरू होते हैं, स्वर एकसमान हैं, आदि। इस तरह वाचिक अधिगम साभिप्राय तथा प्रासंगिक दोनों तरह का होता है।
क्रियाकलाप 5.3
नीचे दिए गए शब्दों को अलग-अलग कार्ड पर लिखिए और प्रतिभागियों से एक-एक कर जोर से पढ़ने को कहिए। दो बार पढ़ने के बाद उनसे शब्दों को किसी भी क्रम में लिखने के लिए कहिए : पुस्तक, कानून, रोटी, कमीज़, कोट, कागज़, पेंसेल, बिस्कुट, कलम, जीवन, इतिहास, चावल, दही, जूते, समाजशास्त्र, मिठाई, सरोवर, आलू, आइसक्रीम, मफ़लर और गघ्या शब्दों को प्रस्तुत करने के बाद उनसे पढ़े गए शब्दों को प्रस्तुति के क्रम की परवाह किए बिना लिखने को कहिए।
अपने प्रदत्त का यह देखने के लिए विश्लेषण कीजिए कि पुनःस्सरण किए गए शब्द कोई संगठन प्रदर्शित करते हैं।
कौशल अधिगम
कौशल का स्वरूप
कौशल को किसी जटिल कार्य को आसानी से और दक्षता से करने की योग्यता के रूप में परिभाषित किया गया है। कार चलाना, हवाई जहाज उड़ाना, समुद्री जहाज़ चलाना, आशुलिपि में लिखना तथा लिखना एवं पढ़ना आदि कौशल के उदाहरण हैं। ये कौशल अनुभव और अभ्यास से सीखे जाते हैं। किसी कौशल में प्रात्यक्षिक-पेशीय अनुक्रियाओं की एक शृंखला अथवा उद्दीपक-अनुक्रिया साहचर्यों की एक श्रेणी होती है।
कौशल अर्जन के चरण
कौशल अधिगम गुणात्मक रूप से भिन्न कई चरणों से गुजरता है। किसी कौशल को सीखने के प्रत्येक क्रमिक प्रयास के साथ निष्पादन निर्बाधध अधिक होता जाता है और निष्पादन करने में प्रयास की आवश्यकता भी कम होती जाती है। दूसरे शब्दों में, निष्पादन अधिक स्वाभाविक या स्वचालित हो जाता है। यह भी देखा गया है कि प्रत्येक चरण में निष्पादन के स्तर में सुधार आता है। सीखने के एक चरण से जब व्यक्ति दूसरे चरण में प्रवेश करता है तो इस संक्रमण काल में निष्पादन के स्तर में सुधार रुक जाता है। इस रुके हुए स्तर को निष्पादन पठार कहा जाता है। अगला चरण प्रारंभ होने के पश्चात निष्पादन का स्तर सुधरने लगता है और ऊपर बढ़ना शुरू हो जाता है।
कौशल अर्जन के चरणों के सर्वाधिक प्रभावशाली वर्णनों में से एक वर्णन फिट्स (Fitts) नामक मनोवैज्ञानिक ने प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार, कौशल अधिगम की प्रक्रिया तीन चरणों में होती है - संज्ञानात्मक (cognitive), साहचर्यात्मक (associative) तथा स्वायत्त (autonomous)। प्रत्येक चरण में भिन्न-भिन्न प्रकार की मानसिक प्रक्रियाएँ होती हैं। कौशल अधिगम के संज्ञातात्मक चरण में अधिगमकर्ता को दिए गए निर्देशों को समझना और याद करना पड़ता है। उसे यह भी समझना पड़ता है कि कार्य का निष्पादन किस प्रकार किया जाना है। इस चरण में व्यक्ति को परिवेश से मिलने वाले सभी संकेतों, दिए गए निर्देशों की माँग तथा अपनी अनुक्रियाओं के परिणामों को सदा अपनी चेतना में रखना होता है।
कौशल अधिगम का दूसरा चरण साहचर्यात्मक होता है। इसमें विभिन्न प्रकार की सांवेदिक सूचनाओं अथवा उद्दीपकों को उपयुक्त अनुक्रियाओं से जोड़ना होता है। अभ्यास की मात्रा जैसे-जैसे बढ़ती जाती है त्रुटियों की मात्रा घटती जाती है, निष्पादन की गुणवत्ता बढ़ती जाती है और किसी अनुक्रिया को करने में लगने वाला समय भी घटता जाता है। यद्यपि लगातार अभ्यास करते रहने से अधिगमकर्ता त्रुटिहीन निष्पादन करने लगता है तथापि इस चरण में उसे प्राप्त होने वाली समस्त संवेदी सूचनाओं के प्रति सचेत रहना होता है तथा कार्य पर एकाग्रता बनाए रखनी होती है। इसके बाद तीसरा चरण यानी स्वायत्त चरण प्रारंभ होता है। इस चरण में निष्पादन में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं। साहचर्यात्मक चरण की अवधानिक माँगें (attentional demands) कम हो जाती हैं और बाह्य कारकों द्वारा उत्पन्न की गई बाधाएँ घट जाती हैं। अंत में सचेतन प्रयत्न की अल्प माँगों के साथ कौशलपूर्ण निष्पादन स्वचालिता प्राप्त कर लेता है।
एक चरण से दूसरे चरण में संक्रमण यह स्पष्टतया दर्शाता है कि अभ्यास ही कौशल अधिगम का एकमात्र साधन है। अधिगम के लिए निरंतर अभ्यास और प्रयोग करते रहने की आवश्यकता होती है। अभ्यास के बढ़ने के साथ-साथ सुधार की दर धीरे-धीरे बढ़ती जाती है और त्रुटिहीन निष्पादन की स्वचालिता, कौशल का प्रमाणक बन जाती है। इसी से कहा जाता है कि ‘अभ्यास मनुष्य को पूर्ण बनाता है’।
अधिगम को सुगम बनाने वाले कारक
इस अध्याय के पिछले खंड में हमने अधिगम के विशिष्ट निर्धारकों का परीक्षण किया है। उदाहरण के लिए, प्राचीन अनुबंधन में अनुबंधित तथा अननुबंधित उद्दीपकों का समीपस्थ प्रस्तुतीकरण; क्रियाप्रसूत अनुबंधन में प्रबलित प्रयासों की संख्या, प्रबलन की मात्रा, तथा प्रबलन प्राप्त होने में विलंब; प्रेक्षणात्मक अधिगम में मॉडल की प्रतिष्ठा तथा आकर्षकता; वाचिक अधिगम में सीखने की विधि; तथा संप्रत्यय अधिगम में घटनाओं और वस्तुओं के प्रात्यक्षिक लक्षणों तथा नियमों के स्वरूप आदि का विवरण दिया गया है। इस खंड में अब हम अधिगम के कुछ सामान्य कारकों का वर्णन प्रस्तुत करेंगे। यह विवेचन व्यापक न होकर कुछ प्रमुख कारकों पर केंद्रित होगा जो अधिक महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
सतत बनाम आंशिक प्रबलन
अधिगम के प्रयोगों में प्रयोगकर्ता एक विशेष अनुसूची के अनुसार प्रबलन प्रदान करने का प्रबंध कर सकता है। अधिगम के प्रसंग में दो प्रकार की प्रबलन अनुसूचियों का विशेष महत्त्व है - सतत (continuous) तथा आंशिक (partial)। सतत प्रबलन में प्रतिभागी को प्रत्येक लक्षित अनुक्रिया के बाद प्रबलन दिया जाता है। इस प्रबलन अनुसूची का उपयोग करने पर अनुक्रिया की दर बहुत अधिक होती है परंतु जब प्रबलन देना बंद कर दिया जाता है तो अनुक्रिया की दर बहुत तेजी से घट भी जाती है और अनुक्रिया का विलोप शीघ्र होता है। चूँकि प्राणी को प्रत्येक प्रयास में प्रबलन मिलता है अतः प्रबलक की प्रभावकता कम हो जाती है। ऐसी अनुसूचियों में जहाँ प्रबलन लगातार नहीं किया जाता है वहाँ पर कुछ अनुक्रियाओं को प्रबलित नहीं किया जाता है। इसलिए इसे आंशिक या सविराम प्रबलन अनुसूची कहा जाता है। आंशिक अनुसूची में नैमित्तिक अनुक्रियाओं को कब-कब प्रबलित किया जाएगा और कब-कब नहीं, इसके निर्धारण की अनेक विधियाँ हैं। आंशिक प्रबलन अनुसूची द्वारा प्रबलन देने पर भी अनुक्रिया की दर अत्यंत अधिक होती है, विशेष रूप से उस समय जब अनुक्रियाएँ अनुपात अनुसूची के अनुसार प्रबलित की जाती हैं। इस प्रकार की अनुसूची में प्राणी बहुधा बहुत सी अनुक्रियाएँ करता है जिन्हें प्रबलित नहीं किया जाता है। अतः उसे यह जान पाना कठिन होता है कि कब कोई प्रबलन देना पूर्णतः बंद कर दिया गया है या कब प्रबलन देने में विलंब किया जा रहा है। सतत प्रबलन अनुसूची में तो यह कहना सरल है कि कब प्रबलन देना बंद कर दिया गया है। इस प्रकार का अंतर विलोप के लिए निर्णायक पाया गया है। यह देखा गया है कि सतत प्रबलन की तुलना में आंशिक प्रबलन अनुसूची द्वारा सिखाई गई अनुक्रिया का विलोप अत्यंत कठिनाई से होता है। इस तथ्य-आंशिक प्रबलन में प्राप्त की गई अनुक्रियाएँ विलोप का ज़्यादा प्रतिरोध करती हैं-को आंशिक प्रबलन प्रभाव (partial reinforcement effect) कहा जाता है।
अभिप्रेरणा
जीवन-रक्षा की आवश्यकता सभी जीवित प्राणियों में होती है और मनुष्यों में जीवन-रक्षा के साथ-साथ संवृद्धि की भी आवश्यकता होती है। अभिप्रेरणा से हमारा तात्पर्य प्राणी की एक ऐसी मानसिक तथा शारीरिक अवस्था से है जो प्राणी को उसकी वर्तमान आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए उद्वेलित करती है। दूसरे शब्दों में, अभिप्रेरणा प्राणी को लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रबलता से काम करने के लिए ऊर्जा प्रदान करती है। ऐसे अभिप्रेरित व्यवहार तब तक होते रहते हैं जब तक कि लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए और आवश्यकता की पूर्ति न हो जाए। अधिगम के लिए प्राणी का अभिर्रेरित होना अनिवार्य है। जब घर में माँ नहीं होती तो बच्चे रसोईघर में घुसकर खाने-पीने की चीज़ें क्यों खोजते हैं? चूँकि मिठाई खाने की उनकी वर्तमान में आवश्यकता है और इस आवश्यकता की पूर्ति हेतु वे उन बर्तनों को टटोलते हैं जिनमें मिठाई रखी जाती है। खोजने की इस क्रिया से बच्चे मिठाई के बर्तन को पाना सीख लेते हैं। जब किसी बॉक्स में किसी भूखे चूहे को बंद कर दिया जाता है तो भोजन की आवश्यकता के कारण वह बॉक्स में चारों ओर घूम-घूमकर भोजन की तलाश करता है। इसी कार्य को करने में संयोग से उससे बॉक्स की दीवार में बना एक लीवर दब जाता है और बॉक्स में भोजन का एक टुकड़ा गिर जाता है। भूखा चूहा उसे खा लेता है। बार-बार यही क्रिया दुहराते रहने से चूहा यह सीख जाता है कि लीवर दबाने से भोजन मिलता है।
क्या आपने कभी यह सोचा है कि आप 11 वीं कक्षा में मनोविज्ञान तथा अन्य विषयों का अध्ययन क्यों कर रहे हैं ? आप ऐसा वार्षिक परीक्षा में अच्छे अंकों या ग्रेड से उत्तीर्ण होने के लिए कर रहे हैं। आप में अभिप्रेरणा जितनी ही अधिक होगी, आप विभिन्न विषयों को सीखने में उतना ही अधिक परिश्रम करेंगे। आप में सीखने की अभिप्रेरणा उत्पन्न होने के दो स्रोत हैं। कभी तो आप कोई कार्य इसलिए सीखते हैं, क्योंकि उस कार्य का करना अपने आप में आपको आनंद प्रदान करता है (अंतर्भूत अभिप्रेरणा) या इससे किसी अन्य लक्ष्य की प्राप्ति होती है (बहिर्निहित अभिप्रेरणा)।
अधिगम की तत्परता
विभिन्न प्रजातियों के प्राणी अपनी संवेदी क्षमताओं तथा अनुक्रिया करने की योग्यताओं में एक-दूसरे से बहुत भिन्न होते हैं। साहचर्यों को स्थापित करने के लिए जरूरी क्रियाविधियाँ; जैसे- उद्दीपक-उद्दीपक (S - S ) अथवा उद्दीपक-अनुक्रिया $(\mathrm{S}-\mathrm{S})$ भी भिन्न-भिन्न प्रजातियों में भिन्न-भिन्न होती हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक प्रजाति के प्राणियों में अधिगम की क्षमता उनकी जैविक क्षमता के कारण परिसीमित हो जाती है। कोई प्राणी सीखते समय किस प्रकार के उद्दीपक-उद्दीपक $(\mathrm{S}-\mathrm{S})$ या उद्दीपक-अनुक्रिया $(\mathrm{S}-\mathrm{R})$ साहचर्य निर्मित कर सकेगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसे प्रकृति द्वारा किस सीमा तक साहचर्य कार्यविधि संबंधी आनुवंशिक क्षमता प्राप्त हुई है। एक विशेष प्रकार का सहचारी अधिगम मनुष्यों तथा वनमानुषों के लिए तो आसान है परंतु बिल्लियों तथा चूहों के लिए वैसे साहचर्यों का सीखना अत्यंत कठिन होता है और कभी-कभी तो असंभव होता है। इसका अर्थ यह है कि कोई प्राणी मात्र उन्हीं साहचर्चों को सीख सकता है, जिसके लिए वह आनुवंशिक रूप से सक्षम है।
तत्परता के संप्रत्यय को एक ऐसी सतत विमा या आयाम के रूप में अच्छी तरह से समझा जा सकता है जिसके एक छोर पर वे साहचर्य या सीखे जाने वाले कार्य रखे जा सकते हैं जिनको सीखना किसी प्रजाति के प्राणियों के लिए सरल है तथा दूसरे छोर पर वे साहचर्य या सीखे जाने वाले कार्य रखे जा सकते हैं, जिनको सीखने के लिए किसी प्रजाति के प्राणियों में तत्परता बिलकुल भी नहीं है। अतः वे उन्हें नहीं सीख सकते। इस विमा के दोनों छोरों के बीच के विभिन्न स्थानों पर वे कार्य या साहचर्य रखे जा सकते हैं, जिनको सीखने के लिए प्राणी न तत्पर है न उसमें तत्परता का अभाव है। वे ऐसे कार्यों को सीख तो सकते हैं परंतु कठिनाई और सतत प्रयास के बाद।
अधिगम अशक्तताएँ
आपने अवश्य सुना होगा, पढ़ा होगा या स्वयं देखा होगा कि विद्यालयों में हजारों बच्चे पढ़ने के लिए प्रवेश तो ले लेते हैं परंतु उनमें से कुछ बच्चों के लिए शिक्षण प्रक्रिया की मांग को पूरा कर पाना बहुत कठिन होता है और परिणामस्वरूप वे विद्यालय की पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। ऐसे विद्यार्थियों को बीच में पढ़ाई छोड़ देने वाले छात्र कहते हैं। पढ़ाई को बीच में छोड़ देने के अनेक कारण हो सकते हैं; जैसे - संवेदी अक्षमता, बौद्धिक अशक्तता, सामाजिक एवं सांवेगिक व्यतिक्रम, परिवार की गरीबी, सांस्कृतिक विश्वास और मानक या अन्य पर्यावरणी प्रभाव। इन कारकों के अतिरिक्त अधिगम अशक्तता भी एक ऐसा कारक है, जो पढ़ाई को जारी रखने में व्यवधान डालता है। इसके कारण विद्यालय अधिगम अर्थात ज्ञान तथा विभिन्न कौशलों का अर्जन करना बहुत कठिन हो जाता है। सीखने में अशक्त बच्चे परीक्षा उत्तीर्ण करके अगली कक्षा में नहीं जा पाते और पढ़ाई बीच में छोड़ देते हैं।
अधिगम अशक्तता (learning disability) एक सामान्य पद है। इसका अर्थ विभिन्न प्रकार के उन विकारों के समूह से है, जिनके कारण किसी व्यक्ति में सीखने, पढ़ने, लिखने, बोलने, तर्क करने तथा गणित के प्रश्न हल करने आदि में कठिनाई होती है। इन विकारों के स्रोत बच्चे में जन्मजात रूप से अंतर्निहित होते हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि केंद्रीय तंत्रिका तंत्र की कार्यविधि में समस्याओं के कारण अधिगम अशक्तता पाई जाती है। अधिगम अशक्तता के साथ-साथ किसी बच्चे में शारीरिक अक्षमता, संवेदी अक्षमता, बौद्धिक अशक्तता भी हो सकती है या अधिगम अशक्तता इनके बिना भी हो सकती है।
बच्चों में पाई जाने वाली अधिगम अशक्तता एक पृथक प्रकार की अक्षमता है, जो उन बच्चों में भी पाई जा सकती है, जो सामान्य से श्रेष्ठ बुद्धि वाले, सामान्य संवेदी प्रेरक तंत्र वाले हैं तथा जिनको सीखने के पर्याप्त अवसर प्राप्त होते हैं। यदि अधिगम अशक्तता का समुचित प्रबंध नहीं किया जाए तो यह जीवनपर्यंत बनी रहती है और व्यक्ति के आत्म-सम्मान, पेशा, सामाजिक संबंधों तथा दिन-प्रतिदिन की क्रियाओं को प्रभावित करती है।
अधिगम अशक्तता के लक्षण
अधिगम अशक्तता के अनेक लक्षण हैं। अधिगम अशक्तता वाले बच्चों में ये लक्षण भिन्न-भिन्न संयोजनों में प्रकट होते हैं चाहे उनकी बुद्धि, अभिप्रेरणा तथा अधिगम के लिए किया गया परिश्रम कुछ भी हो।
1. अक्षरों, शब्दों तथा वाक्यांशों को लिखने में, लिखी हुई सामग्री को पढ़ने में तथा बोलने में बहुधा कठिनाई पाई जाती है। यद्यपि उनमें श्रवण दोष नहीं होता है तथापि उनमें
सुनने की समस्याएँ पाई जाती हैं। ऐसे बच्चे सीखने के लिए योजना बनाने या इसके लिए कोई तरकीब खोजने में अन्य बच्चों की अपेक्षा बहुत भिन्न होते हैं।
2. अधिगम अशक्तता वाले बच्चों में अवधान से जुड़े विकार पाए जाते हैं। वे किसी एक विषय पर देर तक ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते तथा उनका ध्यान शीघ्र ही टूट जाता है। अवधान की इस कमी के कारण अनेक बार उनमें अतिक्रिया उत्पन्न हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप वे हमेशा गतिशील रहते हैं, कुछ न कुछ करते रहते हैं तथा विभिन्न सामानों को अनवरत रूप से इधर से उधर हटाते रहते हैं।
3. अधिगम अशक्तता वाले बच्चों में स्थान व समय की समझदारी की कमी आम लक्षण हैं। ये नयी जगहों को आसानी से नहीं पहचान पाते और अक्सर खो जाते हैं। कालबोध की कमी के कारण ये अपने काम के स्थान पर या तो समय से बहुत पहले या फिर बहुत विलंब से पहुँचते हैं। इसी तरह इनमें दिशाबोध की भी कमी होती है। ऊपर, नीचे, दाएँ, बाएँ आदि में भेद करते हुए कार्य करने में इनसे अक्सर गलतियाँ होती हैं।
4. अधिगम अशक्तता वाले बच्चों का पेशीय समन्वय तथा हस्त-निपुणता अपेक्षाकृत निम्न कोटि का होता है। यह उनके शारीरिक संतुलन के अभाव, पेंसिल को नुकीला करने तथा दरवाज़े का दस्ता (हैंडिल) पकड़ने में अक्षमता एवं साइकिल चलाना सीखने में कठिनाई से स्पष्ट होता है।
5. ये बच्चे काम करने के मौखिक अनुदेशों को समझने और अनुसरण करने में असफल होते हैं।
6. सामाजिक संबंधों का मूल्यांकन भी ये ठीक से नहीं कर पाते। उदाहरण के लिए, ये नहीं जान पाते कि कौन सा सहपाठी इनका अधिक मित्र है और तटस्थ कौन है। ये शरीर भाषा को सीखने एवं समझने में भी अक्षम होते हैं।
7. अधिगम अशक्तता वाले बच्चों में आम तौर से प्रात्यक्षिक विकार भी पाए जाते हैं। दृष्टि, श्रवण, स्पर्श तथा गति से जुड़े संकेतों का प्रत्यक्षण करने में इनसे अधिक त्रुटियाँ होती हैं। ये दरवाजे की घंटी तथा फोन की घंटी में विभेद करने में असफल होते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि इनमें संवेदी तीक्ष्णता नहीं होती है। ये सिर्फ निष्पादन में इसका उपयोग करने में असफल रहते हैं।
8. अधिगम अशक्तता वाले अधिकांश बच्चों में पठनवैकल्य (dyslexia) के लक्षण पाए जाते हैं। ये बहुत बार अक्षर और शब्दों की नकल नहीं कर पाते हैं; जैसे- कमर तथा रकम में, सपूत और कपूत्त में, ’ $ट$ ’ तथा ‘ठ’, ‘प’ तथा ‘फ’ में अंतर करना इनके लिए बहुत कठिन होता है। ये शब्दों को वाक्यों के रूप में संगठित करने में अपेक्षाकृत अक्षम होते हैं।
ऐसा सोचना गलत है कि अधिगम अशक्तता वाले बच्चों का इलाज नहों हो सकता है। उपचारी अध्यापन विधि के उपयोग से बहुत लाभ होता है और कक्षा में ये अन्य बच्चों की तरह हो सकते हैं। शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने ऐसी शिक्षण विधियों का विकास किया है जिनसे अधिगम अशक्तता वाले बच्चों में पाए जाने वाले अनेक लक्षणों को दूर किया जा सकता है।
प्रमुख पद
सहचारी अधिगम, जैव्रतिप्राप्त, संज्ञानात्मक मानचित्र, अनुबाधित अनुक्रिया, अनुबंधित उद्दीपक, अनुबंधन, विभेदन, पठनवैकल्य, विलोप, मुक्त पुनः :्मरण, सामान्यीकरण, अंत्दृष्टि, अधिगम अशक्तताएँ, मानसिक विन्यास, मॉडलिंग, ऋणात्मक प्रबलन, क्रियाप्रसूत अथवा नैमित्तिक अनुबंधन, धनात्मक प्रबलन, दंड, प्रबलन, क्रमिक अधिगम, स्वतः पुननप्राप्ति, अननुर्बाधित अनुक्रिया, अननुबंधित उद्दीपक, वाचिक अधिगम
सारांश
- अधिगम का तात्पर्य अनुभव और अभ्यास के द्वारा व्यवहार में अथवा व्यवहार की क्षमता में उत्पन्न होने वाले अपेक्षाकृत स्थायी परिवर्तन से है। अधिगम अनुमान पर आधारित प्रक्रिया है और निष्पादन से भिन्न है। निष्पादन व्यक्ति का प्रेक्षित अनुक्रिया/व्यवहार/क्रिया है।
- प्राचीन अनुबंधन एवं क्रियाप्रसूत अनुबंधन, प्रेक्षणात्मक अधिगम, संज्ञानात्मक अधिगम, वाचिक अधिगम तथा कौशल अधिगम, अधिगम के प्रमुख प्रकार हैं।
- कुत्तों की पाचन क्रिया का अध्ययन करते समय सर्व्रथम पावलव ने प्राचीन अनुबंधन की जाँच पड़ताल की। इस प्रकार के अधिगम में एक प्राणी दो उद्दीपकों के मध्य साहचर्य को सीखता है। एक तटस्थ उद्दीपक (अनुबांधित उद्दीपक) एक अनुुबंधित उदोपक (US) के आने का संकेत देता है। अनुबंधित उद्दोपक के प्रसुत होते ही वह अननुबंधित उद्दीपक के आने की प्रत्याशा में अनुबंधित अनुक्रिया $(C R)$ करने लगता है।
- सर्वप्रथम स्किनर ने क्रियाप्रसूत अथवा नैमित्रिक अनुबंधन की जाँच पड़ताल की। कोई भी अनुक्रिया क्रियाप्रसूत हो सकती है जो एक प्राणी द्वारा स्वेच्छा से प्रकट की जाती है। क्रियाप्रसूत अनुबंधन अधिगम का एक प्रकार है जिसमें अनुक्रिया को प्रबलन द्वारा मज़बूत बनाया जाता है। कोई भी घटना एक प्रबलक हो सकती है जो पूर्गामी अनुक्रिया की आवृत्ति को बढ़ाती है। इस प्रकार एक अनुक्रिया का परिणाम निर्णायक होता है। क्रियाप्रसूत अनुबंन को दर प्रबलन के प्रकार, प्रबलित प्रयासों की संख्या, प्रबलन अनुसूची और प्रबलन में विलंब से प्रभावित होती है।
- प्रेक्षणात्मक अधिगम के अंतर्गत अनुकरण, मॉडलिंग तथा सामाजिक अधिगम सम्मिलित हैं। इसमें हम किसी मॉडल के व्यवहारों का प्रेक्षण करके ज्ञान प्राप्त करते हैं। निष्पादन इस पर निर्भर करता है कि मॉडल के व्यवहार को पुरस्कृत या दंडित किया गया है।
- वाचिक अधिगम में विभिन्न शब्द एक-दूसरे से संरंचात्मक, स्वनिक अथवा आर्थी समानता तथा असमानता के आधार पर संबद्ध हो जाते हैं। सीखे गए शब्दों को प्राय: गुच्छों में संगठित किया जाता है। प्रायोगिक अध्ययनों में युग्मित सहचर अधिगम, क्रमिक अधिगम तथा मुक्त पुनःस्मरण विधियों का उपयोग किया जाता है। सामग्री की अर्थपूर्णता तथा व्यक्तिनिष्ठ संगठन अधिगम को प्रभावित करते हैं। यह प्रासंगिक भी हो सकता है।
- कौशल का अर्थ जटिल कार्यों को दक्षतापूर्वक निर्बाध रूप से करने की योग्यता से है। कौशलों का अर्जन अनुभव और अभ्यास द्वारा होता है। किसी कौशलपूर्ण निष्पादन का तात्पर्य उद्दीपक-अनुक्रिया शृंखला का बड़े अनुक्रिया प्रतिरूपों में संगठन से है। इसके तीन चरण होते हैं : संज्ञानात्मक, साहचर्यात्मक तथा स्वायत्त।
- अधिगम को सुगम बनाने वाले कारकों में अभिप्रेरणा तथा प्राणी की तत्परता प्रमुख हैं।
- अधिगम अशक्तता व्यक्तियों द्वारा सीखने (जैसे- पढ़ना, लिखना) में बाधक होती है। सीखने में अक्षम व्यक्तियों में अतिक्रियाशीलता, कालबोध का अभाव तथा नंत्र-हस्त समन्वय को कमी होती है।
समीक्षात्मक प्रश्न
1. अधिगम क्या है? इसकी प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
2. प्राचीन अनुबंधन किस प्रकार साहचर्य द्वारा अधिगम को प्रदर्शित करता है?
3. क्रियाप्रसूत अनुबंधन की परिभाषा दीजिए। क्रियाप्रसूत अनुबंधन को प्रभावित करने वाले कारकों पर चर्चा कीजिए।
4. एक विकसित होते हुए शिशु के लिए एक अच्छा भूमिका-प्रतिरूप अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। अधिगम के उस प्रकार पर विचार-विमर्श कीजिए जो इसका समर्थन करता है।
5. वाचिक अधिगम के अध्ययन में प्रयुक्त विधियों की व्याख्या कीजिए।
6. कौशल से आप क्या समझते हैं? किसी कौशल के अधिगम के कौन-कौन से चरण होते हैं?
7. सामान्यीकरण तथा विभेदन के बीच आप किस तरह अंतर करेंगे?
8. अधिगम के लिए अभिप्रेरणा का होना क्यों अनिवार्य है?
9. अधिगम के लिए तत्परता के विचार का क्या अर्थ है?
10. संज्ञातात्मक अधिगम के विभिन्न रूपों की व्याख्या कीजिए।
11. अधिगम अशक्तता वाले छात्रों की पहचान हम कैसे कर सकते हैं?
परियोजना विचार
1. आपके माता-पिता आपको वैसा व्यवहार करने के लिए कैसे प्रबलित करते हैं जैसा कि वे आपके लिए अच्छा समझते हैं? पाँच भिन्न-भिन्न दृष्टांतों का चयन कीजिए। कक्षा में अध्यापकों द्वारा प्रयुक्त प्रबलन की तुलना इन दृष्टांतों से कीजिए और कक्षा में पढ़ाए गए संप्रत्ययों से उनका संबंध स्थापित कीजिए।