अध्याय 02 मनोविज्ञान में जाँच की विधियाँ

परिचय

प्रथम अध्याय में आप पढ़ चुके हैं कि मनोविज्ञान अनुभवों, व्यवहारों एवं मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन है। अब आप जानना चाहेंगे कि मनोवैज्ञानिक इन गोचरों (phenomena) का अध्ययन कैसे करते हैं। दूसरे शब्दों में, व्यवहार एवं मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करने में मनोवैज्ञानिक किन विधियों का उपयोग करते हैं। अन्य वैज्ञानिकों की भाँति मनोवैज्ञानिक भी जिन विषयों का अध्ययन करते हैं उनका वर्णन, पूर्वकथन, व्याख्या तथा नियंत्रण करने का प्रयास करते हैं। इसके लिए मनोवैज्ञानिक औपचारिक तथा व्यावहारिक प्रेक्षणों द्वारा प्रश्नों का समाधान करते हैं। अपनी अध्ययन विधियों के कारण ही मनोविज्ञान एक वैज्ञानिक क्रियाकलाप कहलाता है। मनोवैज्ञानिक अनेक अनुसंधान विधियों का उपयोग करते हैं क्योंकि मानव व्यवहार अनगिनत होते हैं तथा एक विधि से ही सबका अध्ययन संभव नहों होता है। मनोविज्ञान की समस्याओं का अध्ययन करने के लिए प्रेक्षण, प्रयोग, सहसंबंधात्मक अनुसंधान, सर्वक्षण, मनोवैज्ञानिक परीक्षण एवं व्यक्ति अध्ययन विधियों का प्राय: उपयोग किया जाता है। इस अध्याय में आप मनोवैज्ञानिक जाँच (enquiry) के लक्ष्य, सूचनाओं अथवा प्रदत्तों के स्वरूप, जिन्हें हम मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में एकत्र करते हैं, से परिचित होंगे। साथ ही मनोविज्ञान के अध्ययनों में प्रयुक्त होने वाली अनेक विधियों के विस्तार तथा मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों से भी आपका परिचय होगा।

मनोवैज्ञानिक जाँच के लक्ष्य

किसी वैज्ञानिक अनुसंधान की तरह मनोवैज्ञानिक जाँच के लक्ष्य इस प्रकार हैं : वर्णन (description), पूर्वकथन (prediction), व्याख्या (explanation), व्यवहार का नियंत्रण (control) और इस प्रकार अर्जित ज्ञान का वस्तुनिष्ठ तरीकों से अनुप्रयोग (application) करना। आइए, इन पदों का अर्थ समझा जाए।

वर्णन : मनोवैज्ञानिक अध्ययन में हम व्यवहार अथवा किसी घटना का यथासंभव सही-सही वर्णन करते हैं। इससे किसी व्यवहार विशेष को अन्य व्यवहारों से अलग करने में सहायता मिलती है। उदाहरण के लिए, शोधकर्ता विद्यार्थियों की अध्ययन की आदतों का प्रेक्षण करना चाहता है। अध्ययन की आदतों में विविध प्रकार के व्यवहार आ सकते हैं; जैसे- सभी कक्षाओं में नियमित रूप से उपस्थित रहना, नियत कार्य समय पर प्रस्तुत करना, अध्ययन अनुसूची की योजना बनाना, नियत कार्यक्रम के अनुसार अध्ययन करना, दिन-प्रतिदिन के आधार पर कार्यों की समीक्षा करना आदि। एक वर्ग विशेष में भी कई सूक्ष्म विवरण हो सकते हैं। शोधकर्ता अध्ययन की आदत का जो अर्थ समझता है, उसे उसका वर्णन करना चाहिए। इस प्रकार के विवरण में व्यवहार विशेष का उल्लेख आवयश्क होता है, जो उसको समझने में सहायता करता है।

पूर्वकथन : वैज्ञानिक जाँच का दूसरा लक्ष्य व्यवहार का पूर्वकथन है। यदि आप व्यवहार को सही-सही समझने तथा उसका वर्णन करने में सक्षम हैं तो आप एक व्यवहार विशेष के अन्य व्यवहारों, घटनाओं, अथवा गोचरों से संबंध को सरलतापूर्वक जान सकते हैं। ऐसी स्थिति में आप इस बात की भविष्यवाणी कर सकते हैं कि कतिपय दशाओं में कुछ त्रुटियों के साथ वह व्यवहार विशेष घटित हो सकता है। उदाहरण के लिए, अध्ययन के आधार पर, एक अनुसंधानकर्ता विभिन्न विषयों के अध्ययन समय की मात्रा एवं उपलब्धियों के बीच धनात्मक संबंध की स्थापना कर सकता है। बाद में यदि आपको ज्ञात होता है कि एक बालक विशेष अध्ययन के लिए पर्याप्त समय देता है तो आप इस बात का पूर्वकथन कर सकते हैं कि वह बालक परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करेगा। पूर्वकथन प्रेक्षण किए गए व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि होने पर अधिक सही होता है। जितने अधिक लोगों का प्रेक्षण किया जाएगा, पूर्वकथन के सही होने की संभावना उतनी ही अधिक होगी।

व्याख्या : मनोवैज्ञानिक जाँच का तीसरा लक्ष्य व्यवहार के कारणों की अथवा उसके निर्धारकों की जानकारी प्राप्त करना

है। मनोवैज्ञानिक मूलतः यह जानना चाहते हैं कि व्यवहार किन कारणों से घटित होता है और वे कौन सी दशाएँ हैं जिनमें व्यवहार विशेष घटित नहीं होता है। उदाहरण के लिए, किन कारणों से कुछ बच्चे अपनी कक्षा में अधिक ध्यान देते हैं? अन्य बच्चों की तुलना में कुछ बच्चे अध्ययन हेतु अधिक समय क्यों नहीं देते हैं? अतः, यह उद्देश्य अध्ययन किए जाने वाले व्यवहार के निर्धारकों अथवा पूर्ववर्ती दशाओं की पहचान करने से संबंधित होता है जिससे दो परिवर्त्यों (वस्तुओं) अथवा घटनाओं के बीच कार्य-कारण संबंध स्थापित किया जा सके।

नियंत्रण : यदि आप व्यवहार विशेष के घटित होने की व्याख्या कर लेते हैं तो आप उक्त व्यवहार की पूर्वर्ती दशाओं में परिवर्तन करके उसको नियंत्रित कर सकते हैं। नियंत्रण तीन बातों से संबंधित होता है: किसी व्यवहार विशेष को घटित कराना, उसे कम करना अथवा बढ़ाना। उदाहरण के लिए, आप चाहें तो अध्ययन करने के घंटों को उतना ही रहने दें अथवा आप उन्हें कम कर सकते हैं या उसमें वृद्धि कर सकते हैं। मनोवैज्ञानिक उपचारों द्वारा चिकित्सा के रूप में व्यक्तियों के व्यवहार में जो परिवर्तन होता है वह नियंत्रण का एक अच्छा उदाहरण है।

अनुप्रयोग : वैज्ञानिक जाँच का अंतिम लक्ष्य लोगों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाना है। विभिन्न दशाओं में समस्याओं का समाधान करने के लिए ही मनोवैज्ञानिक अनुसंधान किए जाते हैं। इन प्रयासों के कारण लोगों के जीवन की गुणवत्ता ही मनोवैज्ञानिक के मूल लगाव का विषय होती है। उदाहरण के लिए, योग एवं ध्यान के अनुप्रयोग से दबाव की मात्रा कम करके दक्षता बढ़ाई जाती है। वैज्ञानिक जाँच नए सिद्धांतों अथवा निर्मितियों के विकास के लिए भी की जाती है, जिनसे भविष्य में भी अनुसंधान कार्य किए जाते हैं।

मनोवैज्ञानिक अनुसंधान के चरण

विज्ञान को इस आधार पर नहीं परिभाषित किया जाता है कि वह किस चीज़ की खोज करता है, बल्कि इस आधार पर कि वह कैसे खोज करता है। वैज्ञानिक विधि में किसी घटना विशेष अथवा गोचर का वस्तुनिष्ठ, व्यवस्थित एवं परीक्षणीय तरीके से अध्ययन करने का प्रयास किया जाता है। वस्तुनिष्ठता (objectivity) का अभिप्राय यह है कि यदि दो या दो से अधिक व्यक्ति स्वतंत्र रूप से किसी घटना विशेष का अध्ययन करें तो दोनों को लगभग एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि आप और आपका कोई मित्र एक मापनी से किसी मेज़ की लंबाई मापते हैं तो इस बात की संभावना अधिक होती है कि आप दोनों एक ही निष्कर्ष पर पहुँचेंगे।

वैज्ञानिक विधि की दूसरी विशेषता यह होती है कि इसमें खोज की व्यवस्थित (systematic) प्रक्रिया अथवा चरण का अनुपालन होता है। इसके अंतर्गत आने वाले चरण हैं: समस्या का संप्रत्ययन, प्रदत्त संग्रह, निष्कर्ष निकालना तथा शोध निष्कर्षों एवं सिद्धांतों का पुनरीक्षण करना (चित्र 2.1 देखें)। आइए इन चरणों का कुछ विस्तार से वर्णन करें।

चित्र 2.1 : वैज्ञानिक जाँच के चरण

(1) समस्या का संप्रत्ययन : वैज्ञानिक शोध का कार्य तब प्रारंभ होता है जब शोधकर्ता अध्ययन के कथ्य अथवा विषय का चयन करता है। इसके बाद वह अपना ध्यान केंद्रित करता है तथा विशेष शोध प्रश्न अथवा समस्या का विकास करता है। ऐसा पूर्व में किए गए अनुसंधानों की समीक्षा, प्रेक्षणों तथा व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर किया जाता है। उदाहरण के लिए, पूर्व में आपने पढ़ा कि शोधकर्ता विद्यार्थियों के अध्ययन की आदतों का प्रेक्षण करने में रुचि लिया करता था। इसके लिए वह पहले अध्ययन की आदतों के विविध पक्षों की पहचान करता है, उसके बाद ही यह सुनिश्चित कर सकता है कि वह घर पर किए जाने वाले अथवा कक्षा में प्रदर्शित अध्ययन की आदतों का अध्ययन करना चाहता है।

मनोविज्ञान में हम व्यवहार एवं अनुभव से संबंधित विविध समस्याओं का अध्ययन करते हैं। इन समस्याओं का संबंध (क) हमारे अपने व्यवहार को समझने (जैसे- जब हम प्रसन्नता अथवा दुख की दशा में होते हैं तो कैसा अनुभव करते हैं? हम अपने अनुभव एवं व्यवहार पर कैसी प्रतिक्रिया करते हैं? हम भूल क्यों जाते हैं?); (ख) दूसरों के व्यवहार को समझने (उदाहरण के लिए, क्या अभिनव अंकुर से अधिक बुद्धिमान है? कुछ लोग अपना कार्य सर्वदा समय से क्यों नहीं पूरा कर पाते हैं? क्या सिगरेट पीने की आदत को नियंत्रित किया जा सकता है? कुछ लोग असाध्य रोग से ग्रसित होने के बाद भी दवाइयाँ क्यों नहीं लेते हैं?); (ग) समूह से प्रभावित वैयक्तिक व्यवहार (उदाहरण के लिए, रहीम अपने कार्य को संपादित करने की तुलना में लोगों से मिलने-जुलने में अधिक समय क्यों देता है? कोई साइकिल चालक साइकिल चलाते हुए अकेले की तुलना में समूह में अधिक अच्छा प्रदर्शन क्यों करता है?); (घ) समूह व्यवहार (उदाहरण के लिए, जब लोग समूह में होते हैं तो उनके खतरा उठाने वाले व्यवहारों में वृद्धि क्यों हो जाती है?) तथा (ङ) संगठनात्मक स्तर (उदाहरण के लिए, कुछ संगठन दूसरे संगठनों की तुलना में अधिक सफल क्यों होते हैं? कोई नियोजक अपने कर्मचारियों की अभिप्ररेणा में कैसे वृद्धि कर सकता है?) से होता है। इसकी सूची लंबी है और आप आगे के अध्यायों में इनके विविध पक्षों को जानेंगे। यदि आप अधिक जिज्ञासु हों तो आप कई समस्याओं को लिख सकते हैं, जिनकी आप जाँच कर सकते हैं।

समस्या की पहचान के बाद शोधकर्ता समस्या का एक काल्पनिक उत्तर ढूँढ़ता है, जिसे परिकल्पना (hypothesis) कहते हैं। उदाहरण के लिए, अपने पूर्व के साक्ष्य या प्रेक्षण के आधार पर आप एक परिकल्पना विकसित कर सकते हैं कि ‘टेलीविज़न पर हिंसा देखने से बच्चों में आक्रामकता आती है।’ इसके बाद आप अपने अनुसंधान में इस कथन को गलत अथवा सही सिद्ध कर सकते हैं।

(2) प्रदत्त संग्रह : वैज्ञानिक विधि का दूसरा चरण प्रदत्त संग्रह होता है। प्रदत्त संग्रह के लिए संपूर्ण अध्ययन का एक अनुसंधान अभिकल्प होना चाहिए। इसके लिए अग्रलिखित चार पहलुओं के बारे में निर्णय लेना पड़ता है : (क) अध्ययन के प्रतिभागी, (ख) प्रदत्त संग्रह की विधि, (ग) अनुसंधान में प्रयुक्त उपकरण एवं (घ) प्रदत्त संग्रह की प्रक्रिया। अध्ययन के स्वरूप के अनुसार अनुसंधानकर्ता को निर्णय करना पड़ता है कि अध्ययन में कौन-कौन प्रतिभागी (सूचना देने वाले) होंगे। प्रतिभागी बच्चे, किशोर, महाविद्यालय के छात्र, अध्यापक और प्रबंधक हो सकते हैं। चिकित्सालय के रोगी, उद्योग में कार्य करने वाले कर्मचारी अथवा व्यक्तियों का कोई समूह भी प्रतिभागी हो सकते हैं जिनमेंजहाँ पर अध्ययन किए जाने वाला गोचर प्रचलित हों। दूसरा निर्णय प्रदत्त संग्रह की विधि के उपयोग से संबंधित होता है; जैसे- प्रेक्षण विधि, प्रायोगिक विधि, सहसंबंधात्मक विधि, व्यक्ति अध्ययन इत्यादि। अनुसंधानकर्ता को प्रदत्त संग्रह के लिए उपयुक्त साधनों के विषय में भी निर्णय लेना पड़ता है (उदाहरण के लिए, साक्षात्कार अनुसूची, प्रेक्षण अनुसूची, प्रश्नावली, आदि)। शोधकर्ता यह भी निर्णय करता है कि इन उपकरणों को प्रदत्त संग्रह हेतु किस प्रकार उपयोग में लाया जाएगा (अर्थात वैयक्तिक अथवा सामूहिक)। इसके बाद वास्तविक प्रदत्त संग्रह किया जाता है।

(3) निष्कर्ष निकालना : अगला चरण संगृहीत प्रदत्तों का सांख्यिकीय प्रक्रियाओं की सहायता से विश्लेषण करना है जिससे हम समझ सकें कि प्रदत्तों का क्या अर्थ है? यह कार्य ग्राफ द्वारा (जैसे वृत्तखंड, दंड-आरेख, संचयी बारंबारता आदि बनाना) तथा विभिन्न सांख्यिकीय विधियों के उपयोग द्वारा भी किया जा सकता है। विश्लेषण का उद्देश्य परिकल्पना की जाँच करके तदनुसार निष्कर्ष निकालना है।

(4) शोध निष्कर्षों का पुनरीक्षण : अनुसंधानकर्ता ने अनुशासनहीनता का अध्ययन इस परिकल्पना से प्रारंभ किया होगा कि टेलीविज़न पर हिंसा देखने एवं बच्चों में आक्रामकता आने के बीच संबंध है। उसे यह देखना होगा कि क्या उसके निष्कर्ष इस परिकल्पना की पुष्टि करते हैं। यदि करते हैं तो प्रस्तुत परिकल्पना/सिद्धांत पुष्ट हो जाएगी। यदि ऐसा नहीं है तो अनुसंधानकर्ता एक वैकल्पिक परिकल्पना/सिद्धांत स्थापित करेगा तथा नए प्रदत्तों के आधार पर इसका परीक्षण करेगा और निष्कर्ष निकालेगा। इस परिकल्पना/सिद्धांत की परीक्षा भावी अनुसंधानकर्ताओं द्वारा की जा सकती है। अतः अनुसंधान निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है।

अनुसंधान के वैकल्पिक प्रतिमान

मनोवैज्ञानिकों की मान्यता है कि मानव व्यवहार का अध्ययन भौतिकी, रसायन विज्ञान तथा जीव विज्ञान जैसे विज्ञानों की विधियों को अपनाकर किया जा सकता है और किया भी जाना चाहिए। इस विचारधारा का प्रमुख अभिमत है कि मानव व्यवहार का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। यह आंतरिक एवं बाह्य शक्तियों द्वारा घटित होता है तथा इसका प्रेक्षण, मापन तथा नियंत्रण किया जा सकता है। इन लक्ष्यों की पुष्टि के लिए, मनोविज्ञान विद्याशाखा ने बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक अपने को मात्र व्यक्त व्यवहार तक सीमित रखा - वह व्यवहार जिसका प्रेक्षण एवं मापन किया जा सकता है। मनोविज्ञान के अध्ययन में वैयक्तिक अनुभूतियों, अनुभवों तथा अर्थों पर ध्यान नहीं दिया गया।

आधुनिक समय में, एक अलग दृष्टि जिसे व्याख्यापरक परंपरा कहते हैं का उदय हुआ है जो व्याख्या एवं पूर्वकथन की तुलना में समझ को अधिक महत्वपूर्ण मानता है। यह परंपरा मानती है कि निरंतर परिवर्तनीय एवं जटिल मानव व्यवहार एवं अनुभव की अन्वेषण विधि, भौतिक जगत की अन्वेषण विधि से भिन्न होनी चाहिए। इस विचारधारा के अनुसार किसी संदर्भ विशेष में घटित होने वाली घटनाओं एवं क्रियाओं की अर्थवत्ता को खोजना एवं समझना अधिक महत्वपूर्ण होता है। कुछ विशिष्ट संदर्भ होते हैं जहाँ बाह्य कारकों (जैसे सुनामी, भूकंप एवं चक्रवात से प्रभावित व्यक्ति) अथवा आंतरिक कारकों (उदाहरणार्थ, लंबी बीमारी आदि) से लोग पीड़ादायी स्थितियों से गुजरते हैं। ऐसी स्थितियों में वस्तुनिष्ठता संभव नहीं होती है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति सत्य का निर्माण अपने-अपने ढंग से करता है, इसलिए हम वास्तविकता की व्यक्तिपरक व्याख्या करते हैं। यहाँ हमारा लक्ष्य होता है कि हम मानवीय अनुभवों एवं व्यवहारों की सहज प्रवहमानता को बिना हानि पहुँचाए विविध पक्षों का पता लगाएँ। उदाहरण के लिए, कोई भी खोज करने वाला यह नहीं जानता कि वह क्या खोज रहा है, कैसे खोज की जाए तथा किस बात की प्रत्याशा की जाए। बल्कि वह प्रयास करता है कि जो कुछ अव्यवस्थित विवरण है उसका प्रारूप तैयार किया जाए यद्यपि उसे उस क्षेत्र की कम अथवा बिलकुल जानकारी नहीं रहती है। उसका मुख्य कार्य जो कुछ एक संदर्भ विशेष में मिलता है उसका विस्तृत विवरण लिपिबद्ध रूप में तैयार करना है।

वैज्ञानिक एवं व्याख्यापरक परंपरा दोनों का उद्देश्य दूसरों के व्यवहारों एवं अनुभवों का अध्ययन करना होता है। हमारे अपने अनुभवों एवं व्यवहारों के विषय में क्या होता है? मनोविज्ञान के छात्र के रूप में आप स्वयं से प्रश्न पूछ सकते हैं: मैं क्यों दुख का अनुभव कर रहा हूँ? कई बार आप प्रण करते हैं कि आप अपने खान-पान को नियंत्रित करेंगे अथवा अध्ययन हेतु अधिक समय देंगे। लेकिन जब भोजन या अध्ययन करने का समय होता है तो आप अपना प्रण भूल जाते हैं। आपको आश्चर्य होगा कि कोई अपने व्यवहार पर नियंत्रण क्यों नहीं कर पाता है। क्या मनोविज्ञान को इस बात में सहायता नहीं करनी चाहिए कि आप अपने अनुभवों, चिंतन प्रक्रियाओं तथा व्यवहार का विश्लेषण कर सकें? मनोवैज्ञानिक जाँच का ध्येय होना चाहिए कि वह अपने अनुभवों एवं अंतर्दृष्टियों द्वारा प्रदर्शित होने वाले ‘स्व’ को समझने का प्रयास करे।

मनोवैज्ञानिक प्रदत्त का स्वरूप

आप जानना चाहेंगे कि मनोवैज्ञानिक प्रदत्त किस प्रकार अन्य विज्ञानों के प्रदत्तों से भिन्न होता है। मनोवैज्ञानिक विविध स्रोतों से विभिन्न विधियों द्वारा सूचनाएँ एकत्रित करते हैं। सूचनाएँ जिन्हें प्रदत्त (data) कहा जाता है (डेटा बहुवचन है और डेटम शब्द एकवचन), व्यक्तियों के अव्यक्त अथवा व्यक्त व्यवहारों, आत्मपरक अनुभवों एवं मानसिक प्रक्रियाओं से संबंधित होती हैं। मनोवैज्ञानिक जाँच का अहम स्वरूप प्रदत्तों से निर्मित होता है। वे वास्तव में कुछ सीमा तक वास्तविकता का अनुमान लगाते हैं और इससे एक ऐसा अवसर प्राप्त होता है जिसमें हम अपने विचारों, अनुमानों धारणाओं आदि के सही अथवा गलत होने की जाँच कर सकते हैं। ध्यातव्य है कि प्रदत्त कोई स्वतंत्र सत्व नहीं होते बल्कि वे एक संदर्भ में प्राप्त होते हैं तथा उस सिद्धांत एवं विधि से आबद्ध होते हैं जिनसे इनके संग्रह की प्रक्रिया संचालित होती है। दूसरे शब्दों में, प्रदत्त भौतिक अथवा सामाजिक संदर्भों, संबंधित व्यक्यिों तथा व्यवहार के घटित होने के समय आदि से स्वतंत्र नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए, हम अकेले में जैसा व्यवहार करते हैं समूह में या घर और कार्यालय में उससे कहीं भिन्न व्यवहार करते हैं। आप अपने अध्यापक अथवा माता-पिता से बातचीत करने में संकोच करते हैं परंतु अपने मित्रों के साथ वैसा नहीं करते हैं। आपने ध्यान दिया होगा कि सभी लोग समान परिस्थितियों में समान व्यवहार नहीं करते हैं। आप भी हर जगह एक ही तरह का व्यवहार नहीं करते। प्रदत्त संग्रह की प्रयुक्त विधियाँ (सर्वेक्षण, साक्षात्कार, प्रयोग आदि) तथा सूचना के स्रोत (उदाहरण के लिए, व्यक्ति अथवा समूह, युवा अथवा वृद्ध, पुरुष अथवा महिला, शहरी अथवा ग्रामीण) प्रदत्त के स्वरूप तथा गुणवत्ता का निर्धारण करते हैं। यह संभव है कि जब आप किसी विद्यार्थी का साक्षात्कार करें तो वह उस परिस्थिति में एक अलग प्रकार से व्यवहार करे, परंतु जब आप वास्तविक स्थिति में उसका प्रेक्षण करें तो सब कुछ विपरीत पाएँ। प्रदत्त की अन्य विशेषता है कि वह स्वयं सत्यता के विषय में कुछ नहीं कहता बल्कि उससे अनुमान लगाया जाता है। दूसरे शब्दों में, शोधकर्ता प्रदत्त को एक संदर्भ विशेष में रखकर अर्थवान बनाता है।

मनोविज्ञान में हम विभिन्न प्रकार के प्रदत्त अथवा सूचनाएँ संगृहीत करते हैं। इनमें से कुछ प्रकारों का उल्लेख आगे किया जा रहा है :

i) जनांकिकीय सूचनाएँ : इन सूचनाओं के अन्तर्गत व्यक्तिगत सूचनाएँ आती हैं; जैसे- नाम, आयु, लिंग, जन्मक्रम, सहोदरों की संख्या, शिक्षा, व्यवसाय, वैवाहिक स्थिति, बच्चों की संख्या, आवास को भौगोलिक स्थिति, जाति, धर्म, माता-पिता की शिक्षा, उनका व्यवसाय, तथा परिवार की आय आदि।

ii) भौतिक सूचनाएँ : इसके अंतर्गत पारिस्थितिक संबंधी सूचनाएँ (पहाडी़रेगिस्तानी/वन), आर्थिक दशा, आवास की दशा, कमरों का आकार, घर में, पड़ोस में एवं विद्यालय में उपलन्ध सुविधाएँ, यातायात के साधन आदि सम्मिलित होती हैं।

iii) दैहिक प्रदत्त : कुछ अध्ययनों में लंबाई, वजन, हृदय गति, थकान का स्तर, गैल्वैनी त्वचा प्रतिरोध, इलेक्ट्रोएनसेफैलोग्राफ द्वारा मापी जाने वाली मस्तिष्क की धारागत क्रियाएँ, रुधिर ऑक्सीजन का स्तर, प्रतिक्रिया काल, निद्रा की अवधि, रक्तचाप, स्वप्न का स्वरूप, लार की मात्रा तथा पशुओं के संदर्भ में दौड़ना एवं कूदना जैसी दैहिक एवं मनोवैज्ञानिक सूचनाओं को संगृहीत किया जाता है।

iv) मनोवैज्ञानिक सूचना : कुछ अध्ययनों में बुद्धि, व्यक्तित्व, रुचि, मूल्य, सर्जनशीलता, संवेग, अभिप्रेरणा, मनोवैज्ञानिक विकार, भ्रमासक्ति, विभ्रांति, भ्रम, अवसादबोधन, प्रात्यक्षिक निर्णय, चिंतन प्रक्रियाएँ, चेतना, व्यक्तिपरक अनुभव आदि अनेक मनोवैज्ञानिक सूचनाएँ संगृहीत की जाती हैं।

मापन की दृष्टि से उपर्युक्त सूचनाएँ अनगढ़ हो सकती हैं। वे श्रेणियों के रूप में (जैसे- उच्च/निम्न, हाँनहीं), कोटियों (जैसे- प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ आदि) अथवा लब्धांकों $(10,12,15,18,20$ आदि) के रूप में होती हैं। हमें वाचिक आख्याएँ, प्रेक्षण अभिलेख, व्यक्तिगत दैनिकी, क्षेत्र टिप्पणियाँ, पुरालेखीय प्रदत्त आदि भी प्राप्त होते हैं। इस तरह की सूचनाओं का गुणात्मक विधि का उपयोग करते हुए पृथक रूप से विश्लेषण किया जा सकता है। इस अध्याय के आगे के भाग में आपको इसके बारे में कुछ जानकारी प्राप्त होगी।

मनोविज्ञान की कुछ महत्वपूर्ण विधियाँ

पिछले खंड में आपने मनोविज्ञान में संगृहीत होने वाले भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रदत्तों के बारे में पढ़ा। ये सभी प्रदत्त किसी एक ही विधि से प्राप्त नहीं होते हैं। अनेक प्रकार की विधियाँ होती हैं, जैसे- प्रेक्षण, प्रायोगिक, सहसंबंधात्मक, सर्वेक्षण, मनोवैज्ञानिक परीक्षण तथा व्यक्ति अध्ययन। इस खंड का उद्देश्य आपको यह बताना है कि आप किसी एक विधि अथवा कई विधियों को मिलाकर अपने उद्देश्य के अनुरूप कार्य कर सकते हैं। उदाहरण के लिए:

  • आप फुटबाल मैच देखते हुए दर्शकों के व्यवहार का प्रेक्षण कर सकते हैं।
  • आप एक प्रयोग करके देख सकते हैं कि बच्चे जब अपनी ही कक्षा में परीक्षा देते हैं तो अच्छा प्रदर्शन करते हैं अथवा परीक्षा भवन में (कार्य-कारण संबंध)।
  • आप बुद्धि एवं आत्म-सम्मान के बीच सहसंबंध स्थापित कर सकते हैं (पूर्वकथन के उद्देश्य से)।
  • शिक्षा के निजीकरण के संबंध में आप विद्यार्थियों की अभिवृत्ति का सर्वेक्षण कर सकते हैं।
  • वैयक्तिक भिन्नता की जानकारी के लिए आप मनोवैज्ञानिक परीक्षण का उपयोग कर सकते हैं।
  • आप बच्चे के भाषा-विकास का व्यक्ति अध्ययन कर सकते हैं।

अगले खंडों में इन विधियों की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन किया गया है।

अध्याय 2 $\cdot$ मनोविज्ञान में जाँच की विधियाँ

प्रेक्षण विधि

प्रेक्षण मनोवैज्ञानिक जाँच का एक सशक्त उपकरण है। व्यवहार के वर्णन की यह एक प्रभावकारी विधि है। अपने दैनिक जीवन में हम दिन भर अनेक चीज़ों का प्रेक्षण करने में व्यस्त रहते हैं। कई बार ऐसा होता है कि हमें उस बात का ध्यान ही नहीं रह पाता है कि हम क्या देख रहे हैं अथवा हमने क्या देखा है। हम देखते हैं, परंतु प्रेक्षण नहीं करते हैं। हम प्रतिदिन जितनी चीज़ों को देखते हैं उनमें से कुछ की ही हमें जानकारी रहती है। क्या आपने ऐसा अनुभव किया है? आपने यह भी अनुभव किया होगा कि यदि आप किसी व्यक्ति या घटना को कुछ देर तक ध्यान से देखते हैं तो आपको उस व्यक्ति अथवा घटना के विषय में बहुत सी रोचक बातों का पता चलता है। वैज्ञानिक प्रेक्षण दिन-प्रतिदिन के प्रेक्षणों से बहुधा भिन्न होते हैं। ये विशेषताएँ हैं:

(क) चयन : मनोवैज्ञानिक उन सभी व्यवहारों का प्रेक्षण नहीं करते हैं जिनसे उनका सामना पड़ता है बल्कि वे एक व्यवहार विशेष का प्रेक्षण हेतु चयन (select) करते हैं। उदाहरण के लिए, आप यह जानना चाहेंगे कि ग्यारहवों कक्षा के विद्यार्थी अपने विद्यालय में समय कैसे व्यतीत करते हैं। इस स्तर पर दो बातें संभव हैं। एक अनुसंधानकर्ता के रूप में आप सोच सकते हैं कि आप भली-भाँति जानते हैं कि विद्यालयों में क्या होता है। आप उन क्रियाकलापों की एक सूची बनाकर विद्यालय जाकर देख सकते हैं कि उनमें से कौन से क्रियाकलाप घटित हो रहे हैं। आप यह भी सोच सकते हैं कि आप इस संबंध में कुछ नहीं जानते हैं कि विद्यालयों में क्या-क्या होता है। अब प्रेक्षण के द्वारा आप इसका पता लगा सकते हैं।

(ख) अभिलेखन : प्रेक्षण करते समय अनुसंधानकर्ता चयनित व्यवहारों का विभिन्न साधनों का प्रयोग करते हुए, जैसे- पूर्व में चयनित व्यवहारों का जब भी वे घटित होते हैं, टैली लगाकार अभिलेख (records) तैयार करता है। इसके लिए वह शाटहैंड अथवा प्रतीकों, फोटोग्राफ अथवा वीडियो अभिलेखन का उपयोग करता है।

(ग) प्रदत्त विश्लेषण : प्रेक्षण के पश्चात मनोवैज्ञानिक जो भी अभिलेख तैयार करते हैं उसका विश्लेषण (analyse) इस ध्येय से करते हैं कि उससे कुछ अर्थ निकाला जा सके।

यह ध्यातव्य है कि प्रेक्षण एक कौशल है। एक कुशल प्रेक्षक जानता है कि वह किस चीज़ का प्रेक्षण कर रहा है, वह किसका प्रेक्षण करना चाहता है, प्रेक्षण कहाँ और कब करना होगा। प्रेक्षण कर अभिलेख किस रूप में तैयार किया जाएगा और प्रेक्षित व्यवहार का विश्लेषण किस विधि द्वारा किया जाएगा।

प्रेक्षण के प्रकार

प्रेक्षण निम्नलिखित प्रकार के हो सकते हैं :

(क) प्रकृतिवादी बनाम नियंत्रित प्रेक्षण : जब प्रेक्षण प्राकृतिक अथवा वास्तविक जगत की स्थिति में किया जाता है (उपर्युक्त उदाहरण में विद्यालय में प्रेक्षण किया गया था) तो उसे प्रकृतिवादी प्रेक्षण (naturalistic observation) कहते हैं। इस उदाहरण में प्रेक्षणकर्ता परिस्थिति का न तो प्रहस्तन करता है और न ही उसको नियंत्रित करने का प्रयास करता है। इस तरह के प्रेक्षण अस्पताल, घर, विद्यालय, दिन में देखभाल करने वाले केंद्र आदि स्थानों पर किए जाते हैं। यद्यपि कई बार आपको कुछ ऐसे कारकों को नियंत्रित करने की आवश्यकता पड़ती है जो व्यवहार का निर्धारण करते हैं परंतु वे आपके अध्ययन के केंद्र नहीं होते हैं। इसलिए, बहुत से मनोवैज्ञानिक अध्ययन प्रयोगशालाओं में किए जाते हैं। उदाहरण के लिए, यदि आप बॉक्स 2.1 का अवलोकन करें तो पाएँगे कि धुआँ मात्र नियंत्रित प्रयोगशाला में ही उत्पन्न किया जा सकता है। इस तरह के प्रेक्षण नियंत्रित प्रयोगशाला प्रेक्षण के नाम से जाने जाते हैं और वास्तव में ये प्रेक्षण प्रयोगशाला के प्रयोगों में प्राप्त होते हैं।

(ख) असहभागी बनाम सहभागी प्रेक्षण : प्रेक्षण दो प्रकार से किया जा सकता है। प्रथम, आप किसी व्यक्ति या घटना का प्रेक्षण दूर से कर सकते हैं। द्वितीय, प्रेक्षक प्रेक्षण किए जाने वाले समूह का एक सदस्य बनकर प्रेक्षण करता है। प्रथम दशा में व्यक्ति जिसका प्रेक्षण किया जा रहा है उसे यह मालूम नहीं हो पाता है कि उसका प्रेक्षण किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, किसी कक्षा विशेष में आप शिक्षकों एवं विद्यार्थियों के बीच होने वाली अन्तःक्रिया का प्रेक्षण करना चाहते हैं। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कई तरीके हैं। आप चाहें तो कक्षा में वीडियो कैमरा लगाकर सारी गतिविधियों का परीक्षण करें, जिन्हें आप बाद में देख सकते हैं तथा उनका विश्लेषण कर सकते हैं। विकल्प के रूप में आप कक्षा की सामान्य गतिविधियों में बिना भाग लिए अथवा बिना कोई अवरोध पैदा किए कक्षा के कौने में बैठ सकते हैं। इस प्रकार के प्रेक्षण को असहभागी प्रेक्षण (non-participant observation)

बॉक्स 2.1 प्रयोग का एक उदाहरण

बिष्ब लताने (Bibb Latane) एवं जान डार्ली (John Darley) नामक दो अमरीकी मनोवैज्ञानिकों ने 1970 में एक अध्ययन किया। इस अध्ययन में भाग लेने के लिए कोलंबिया विश्वविद्यालय के छात्र व्यक्तिगत रूप से एक प्रयोगशाला में उपस्थित हुए। उन्हें बताया गया था कि संभवतः किसी विषय पर उनका साक्षात्कार किया जाएगा। प्रत्येक छात्र को एक प्रतीक्षालय में भेजा गया था जहाँ उसे एक प्रारंभिक प्रश्नावली पूर्ण करनी थी। उनमें से कुछ लोगों को उनके कक्ष में दो व्यक्ति पहले से बैठे मिले जबकि शेष कक्ष में अकेले बैठे थे। ज्योंही विद्यार्थियों ने प्रश्नावली हल करनी प्रारंभ की, कमरे की दीवार के छिद्र से कक्ष में धुआँ भरने लगा। धुएँ की उपेक्षा करना कठिन था। चार मिनट में ही धुआँ दृष्टि एवं श्वसन को बाधित करने लगा। लताने एवं डार्लो यह देखना चाहते थे कि विद्यार्थी कितनी शीघ्रता से कक्ष छोड़ते हैं और उस आपातकाल की सूचना देते हैं। अधिकांश ( 75 प्रतिशत) ऐसे विद्यार्थी जो कक्ष में अकेले थे उन्होंने समूह में रहने वाले विद्यार्थियों की तुलना में धुएँ की सूचना शीघ्रता से दी। जिन समूहों में तीन अपरिचित लोग थे वहाँ मात्र 38 प्रतिशत विद्यार्थियों ने धुएँ की सूचना दी। जहाँ विद्यार्थियों के साथ दो अभिसंगी थे, जिन्हें शोधकर्ता ने कुछ न करने का निर्देश दिया था, वहाँ मात्र 10 प्रतिशत विद्यार्थियों ने धुएँ की सूचना दी थी।

कहते हैं। इस विधि में इस बात का खतरा रहता है कि किसी व्यक्ति (बाहरी व्यक्ति) के कक्षा में बैठने से पूरी कक्षा की वास्तविक स्थिति बिगड़ सकती है।

द्वितीय प्रकार के प्रेक्षण में प्रेक्षणकर्ता एक अध्यापक अथवा विद्यार्थी के रूप में विद्यालय में उपस्थित रहता है तथा शिक्षक व विद्यार्थी के रूप में होने वाली समस्त गतिविधियों में भाग लेता है। इसे प्रतिभागी प्रेक्षण कहा जाता है। प्रतिभागी प्रेक्षण में प्रेक्षक को समूह के साथ घनिष्ठता बनाने में, जिससे कि समूह सदस्य उसे अपने समूह के सदस्य के रूप में स्वीकार करें, कुछ समय लगता है। फिर भी समूह के साथ प्रेक्षक के सम्मिलित होने की मात्रा उसके अध्ययन के केंद्र के आधार पर भिन्न होगी।

प्रेक्षण विधि का लाभ यह होता है कि इसमें अनुसंधानकर्ता लोगों एवं उनके व्यवहारों का प्राकृतिक स्थिति जैसे वह घटित होती है, में अध्ययन करता है। हालाँकि, प्रेक्षण विधि श्रमसाध्य है, अधिक समय लेती है तथा प्रेक्षक के पूर्वाग्रह के कारण इसमें गलती होने का डर रहता है।

हमारा प्रेक्षण व्यक्ति अथवा घटना के संबंध में हमारे मूल्यों एवं विश्वासों से प्रभावित होता है। आप इस बहुप्रचलित कथन से परिचित होंगे: ‘हम चीज़ों को उसी ढंग से देखते हैं जैसा कि हम स्वयं होते हैं न कि जैसी चीज़ें होती हैं।’ अपने पूर्वाग्रह के कारण हम चीज़ों की व्याख्या भिन्न रूप में कर सकते हैं न कि जैसे प्रतिभागी वास्तव में उसका अर्थ समझते हैं। इसीलिए इस बात की सलाह दी जाती है कि प्रेक्षक व्यवहार के घटित होने के समय ही उसका अभिलेख तैयार कर लें, किंतु प्रेक्षण करते समय व्यवहार की व्याख्या न करें।

क्रियाकलाप 2.1

जब मनोविज्ञान का अध्यापक कक्षा में पढ़ा रहा हो तो कुछ विद्यार्थी प्रेक्षण कर सकते हैं। विस्तार से नोट कीजिए कि वह अध्यापक क्या करता है, विद्यार्थी क्या करते हैं तथा विद्यार्थियों एवं शिक्षक की अन्तःक्रिया का लेखा-जोखा तैयार कीजिए। किए गए प्रेक्षणों पर विद्यार्थियों और अध्यापक के साथ विमर्श कीजिए। प्रेक्षण की समानताओं एवं असमानताओं को नोट कीजिए।

प्रायोगिक विधि

प्रयोग प्रायः एक नियंत्रित दशा में दो घटनाओं या परिवर्त्यों के मध्य कार्य-कारण संबंध स्थापित करने के लिए किया जाता है। यह सतर्कतापूर्वक संचालित प्रक्रिया है जिसमें एक कारक में कुछ परिवर्तन किए जाते हैं और किसी दूसरे कारक पर उनके प्रभाव का अध्ययन किया जाता है, जबकि अन्य संबंधित कारक स्थिर रखे जाते हैं। प्रयोग में कारण वह घटना है जिसे परिवर्तित तथा प्रहस्तित किया जाता है। प्रभाव व्यवहार होता है जो प्रहस्तन के कारण परिवर्तित होता है।

परिवर्त्य का संप्रत्यय

आप पहले पढ़ चुके हैं कि प्रायोगिक विधि में अनुसंधानकर्ता दो परिवर्त्यों के मध्य संबंध स्थापित करने का प्रयास करता है। अब प्रश्न है: परिवर्त्य किसे कहते हैं? कोई उद्दीपक या घटना जो बदलती रहती है अर्थात इसके भिन्न-भिन्न मान होते हैं (परिवर्तित होते हैं) और इसलिए इसका मापन किया जा सकता है, को परिवर्त्य (variable) कहते हैं। उदाहरण के लिए, लिखने के लिए आप जिस कलम का उपयोग करते हैं वह एक परिवर्त्य नहीं है। लेकिन कलमें विभिन्न आकारों, प्रकारों एवं रंगों की होती हैं। ये सभी परिवर्त्य हैं। जिस कमरे में आप बैठे हैं वह एक परिवर्त्य नहीं है बल्कि उसका आकार एक परिवर्त्य है क्योंकि विभिन्न आकारों के कमरे होते हैं। व्यक्तियों का कद ( $5^{\prime}$ से $6^{\prime}$ ) भी एक परिवर्त्य है। इसी प्रकार, विभिन्न प्रजाति के लोगों के अलग-अलग रंग होते हैं। युवा लोग विभिन्न रंगों से अपने बाल रँगने लगे हैं। इस प्रकार, बाल का रंग भी एक परिवर्त्य है। बुद्धि भी एक परिवर्त्य है। अनेक प्रकार के बुद्धि स्तर वाले (उच्च, मध्यम, निम्न) लोग होते हैं। एक कक्ष में व्यक्तियों की उपस्थिति या अनुपस्थिति भी एक परिवर्त्य है जैसा बॉक्स 2.1 के प्रयोग में दिखाया गया है। अतः वस्तुओं/घटनाओं की मात्रा अथवा गुणवत्ता में परिवर्तन हो सकते हैं।

परिवर्त्य अनेक प्रकार के होते हैं किंतु यहाँ हम दो प्रकार के परिवर्त्यों की चर्चा करेंगे- अनाश्रित और आश्रित परिवर्त्य। अनाश्रित परिवर्त्य (independent variable) वह परिवर्त्य होता है जिसका प्रहस्तन किया जाता है अथवा जिसे प्रयोग में अनुसंधानकर्ता द्वारा परिवर्तित किया जाता है। अध्ययन में अनुसंधानकर्ता परिवर्त्य के प्रभाव में किए गए परिवर्तन का प्रेक्षण अथवा नोट तैयार करना चाहता है। लताने और डार्ली द्वारा संपादित प्रयोग (बॉक्स 2.1) में अनुसंधानकर्ता धुएँ के संबंध में आपातकाल की सूचना देने वाले व्यक्ति पर अन्य व्यक्तियों की उपस्थिति का प्रभाव देखना चाहते थे। एक कक्ष में दो व्यक्तियों की उपस्थिति या अनुपस्थिति अनाश्रित परिवर्त्य था। जिस व्यवहार पर अनाश्रित परिवर्त्य के प्रभाव का प्रेक्षण किया जाता है उसे आश्रित परिवर्त्य (dependent variable) कहते हैं। आश्रित परिवर्त्य उस गोचर को बताता है जिसकी अनुसंधानकर्ता व्याख्या करना चाहता है। यह मात्र अनाश्रित परिवर्त्य में परिवर्तन के परिणामस्वरूप व्यवहार में परिवर्तन है और कुछ नहीं। धुएँ के आपातकाल की सूचना देना आश्रित परिवर्त्य था। अतः प्रायोगिक दशा में अनाश्रित परिवर्त्य कारण है तथा आश्रित परिवर्त्य प्रभाव।

यहाँ यह स्पष्ट होना चाहिए कि आभ्रित एवं अनाश्रित परिवर्त्य एक दूसरे पर आश्रित होते हैं। किसी की भी परिभाषा दूसरे के बिना संभव नहीं है। अनुसंधानकर्ता द्वारा चयनित अनाभ्रित परिवर्त्य एक मात्र ऐसा परिवर्त्य नहीं होता है जो आश्रित परिवर्त्य को प्रभावित करता है। किसी व्यावहारिक घटना में कई परिवर्त्य होते हैं। यह किसी संदर्भ में ही होता है। आश्रित एवं अनाश्रित परिवर्त्यों का चयन अनुसंधानकर्ता की सैद्धांतिक रुचि के कारण ही किया जाता है। वास्तव में, ऐसे बहुत से अन्य सार्थक अथवा बाह्य परिवर्त्य होते हैं जो आभ्रित परिवर्त्य को प्रभावित करते हैं, किंतु अनुसंधानकर्ता उनके प्रभावों को जानने में रुचि नहीं भी ले सकता है। ऐसे बाह्य परिवर्त्यों को प्रयोग में नियंत्रित करना आवश्यक होता है जिससे अनुसंधानकर्ता अनाश्रित एवं आभ्रित परिवर्त्यों के मध्य कार्य-कारण संबंध स्पष्ट कर सके।

प्रायोगिक एवं नियंत्रित समूह

प्रयोगों में प्रायः एक या अधिक प्रायोगिक समूह और एक या अधिक नियंत्रित समूह होते हैं। प्रायोगिक समूह वह समूह होता है जिसमें समूह सदस्यों को अनाश्रित परिवर्त्य प्रहस्तन के लिए प्रस्तुत किया जाता है। नियंत्रित समूह एक तुलना समूह होता है जो प्रहस्तित परिवर्त्य को छोड़कर शेष अन्य दृष्टियों से प्रायोगिक समूह की तरह का ही होता है। उदाहरण के लिए, लताने और डार्ली के अध्ययन में, दो प्रायोगिक समूह और एक नियंत्रित समूह थे। जैसे आपको ज्ञात है, अध्ययन में प्रतिभागी तीन कक्षों में भेजे गए थे। एक कक्ष में कोई भी उपस्थित नहीं था (नियंत्रित समूह)। अन्य दो कक्षों में दो व्यक्ति बैठाए गए थे (प्रायोगिक समूह)। दो प्रायोगिक समूहों में एक समूह को यह निर्देशित किया गया था कि कमरे में धुआँ भरने पर कुछ भी नहीं करना था। दूसरे समूह को कोई भी निर्देश नहीं दिया गया था। नियंत्रित समूह के निष्पादन की तुलना प्रायोगिक समूह से की गई थी। जैसा कि अध्ययन में पाया गया, नियंत्रित समूह के प्रतिभागियों ने आपातकाल के संबंध में सबसे अधिक सूचना दी, प्रथम प्रायोगिक समूह जिसमें प्रतिभागियों को कोई निर्देश नहों दिया गया था तथा द्वितीय प्रायोगिक समूह (अभिषंगी वाला समूह) ने आपातकाल की बहुत कम सूचना दी।

ध्यातव्य है कि किसी प्रयोग में प्रायोगिक प्रहस्तन के अतिरिक्त प्रायोगिक एवं नियंत्रित समूहों के लिए अन्य दशाएँ स्थिर रखी जाती हैं। उन सभी संबद्ध परिवर्त्यों को नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता है जो आश्रित परिवर्त्य को प्रभावित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, जिस गति से कक्ष में धुआँ आना शुरू हुआ, कक्ष में धुएँ की समग्र मात्रा, कक्ष में भौतिक एवं अन्य प्रकार की सुविधाएँ तीनों समूह के लिए एकसमान थीं। प्रायोगिक एवं नियंत्रित समूहों में प्रतिभागियों का वितरण यादृच्छिक (random) रूप में किया जाता है। यह वह विधि होती है जिसमें यह सुनिश्चित किया जाता है कि हर व्यक्ति के किसी भी समूह में चयनित होने की संभावना एक समान रहे। यह संभव है कि प्रयोगकर्ता एक समूह में सिर्फ़ पुरुषों को और दूसरे समूह में सिऱ् महिलाओं को रखे। जो परिणाम उसको अध्ययन में मिलेगा वह प्रायोगिक प्रहस्तन का न होकर लिंग भिन्नता के कारण होगा। प्रायोगिक अध्ययनों में सभी संबद्ध सार्थक परिवर्त्य जो अध्ययन के परिणाम को प्रभावित कर सकते हैं, उनका नियंत्रण करने की आवश्यकता होती है। ये तीन प्रमुख प्रकार के होते हैं: जैविक परिवर्त्य (जैसे- दुश्चितात, बुद्धि, व्यक्तित्व आदि), परिस्थितिजन्य अथवा पर्यावरणीय परिवर्त्य जो प्रयोग करते समय क्रियाशील होते हैं (जैसे- शोर, तापमान, आर्द्रता) तथा अनुक्रमिक परिवर्त्य। जब प्रयोग के प्रतिभागियों का परीक्षण विभिन्न दशाओं में किया जाता है तो अनुक्रमिक परिवर्त्य अधिक सक्रिय हो जाते हैं। विभिन्न दशाओं के प्रति संवेदनशीलता के परिणामस्वरूप थकान अथवा अभ्यास प्रभाव उत्पन्न हो सकते हैं जो अध्ययन के परिणामों को प्रभावित कर सकते हैं तथा निष्कर्षों की व्याख्या को जटिल बना सकते हैं।

बाा्य परिवर्त्यों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए प्रयोगकर्ता कई नियंत्रण तकनीकों का उपयोग करते हैं। कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैं:

  • चूँकि प्रयोग का लक्ष्य बाह्य परिवर्त्यों को कम करना होता है इसलिए इस समस्या से मुक्त होने का उत्तम तरीका प्रायोगिक दशा से ऐसे परिवर्त्यों का निरसन करना है। उदाहरण के लिए, प्रयोग ध्वनिरोधी एवं वातानुकूलित कक्ष में किया जा सकता है और ध्वनि तथा तापमान के प्रभाव का निरसन किया जा सकता है।
  • निरसन सर्वदा संभव नहीं होता है। इस बात का प्रयास किया जाना चाहिए कि उनका प्रभाव स्थिर रहे जिससे पूरी प्रायोगिक दशा में उनका प्रभाव एक-सा बना रहे।
  • प्राणिगत (जैसे- भय, अभिप्रेरणा) और पृष्ठभूमि संबंधित परिवर्त्यों (जैसे- ग्रामीण/शहरी, जाति, सामाजिक और आर्थिक स्थिति) के नियंत्रण के लिए सुमेलन भी किया जाता है। इस प्रक्रिया में दो समूहों को प्रासंगिक परिवर्त्य के आधार पर समान कर दिया जाता है अथवा प्रयोग विभिन्न दशाओं में प्रतिभागियों के समेल युग्मों को लेते हुए प्रासंगिक परिवर्त्यों को स्थिर रखा जाता है।
  • क्रम प्रभाव को कम करने के लिए प्रतिसंतुलनकारी तकनीक अपनाई जाती है। मान लीजिए, किसी प्रयोग में दो कार्य करने के लिए दिए गए हैं। प्रयोगकर्ता चाहे तो कार्यों के क्रम को परिवर्तित कर सकता है। अतः समूह के आधे प्रतिभागी अ और ब क्रम में कार्य प्राप्त कर सकते हैं जबकि शेष आधे ब और अ क्रम में। इसी प्रकार, एक ही व्यक्ति को अ, ब, ब, अ क्रम में कार्य दिया जा सकता है।
  • विभिन्न समूहों में प्रतिभागियों के यादृच्छिक वितरण से समूहों के बीच विभवपरक व्यवस्थित अंतर समाप्त हो जाते हैं।

किसी भी सु-अभिकल्पित प्रयोग की शक्ति यह होती है कि वह दो या दो से अधिक परिवर्त्यों के मध्य कार्य-कारण संबंधों का युक्त प्रमाण दे सकता है। तथापि प्रयोग प्राय: बहुत नियंत्रित प्रयोगशाला परिस्थितियों में किए जाते हैं। इनकी आलोचना इस बात से होती है कि ये वास्तविक व्यवहार में नहीं होते हैं। प्रयोग ऐसे परिणाम प्रदान कर सकते हैं जिनका ठीक से सामान्यीकरण नहीं हो पाता अथवा वे वास्तविक परिस्थितियों में अनुप्रयुक्त नहीं हो पाते। दूसरे शब्दों में, इनकी निम्न बाह्य वैधता होती है। इनकी एक और सीमा है कि यह सर्वदा संभव नहों होता कि किसी समस्या विशेष का अध्ययन प्रायोगिक रूप में किया जा सके। उदाहरण के लिए, बच्चों के बुद्धि स्तर पर पौष्टिकता की कमी के प्रभाव का अध्ययन नहीं किया जा सकता है, क्योंकि किसी को भूखा रखना नैतिक रूप से गलत है। तीसरी समस्या यह है कि समस्त प्रासंगिक परिवर्त्यों को जानना और उनका नियंत्रण करना कठिन होता है।

क्षेत्र प्रयोग एवं प्रयोग-कल्प

कई बार प्रयोगशाला में अध्ययन कर पाना संभव नहीं होता है। ऐसी दशा में अनुसंधानकर्ता क्षेत्र अथवा प्राकृतिक स्थिति में जाता है जहाँ व्यवहार विशेष वास्तव में घटित होता है। इसे क्षेत्र प्रयोग (field experiment) कहते हैं। उदाहरण के लिए, अनुसंधानकर्ता यह जानना चाहता है कि किस विधि से छात्रों में अधिक अधिगम होगा - व्याख्यान विधि अथवा करके दिखाने की विधि। इसलिए अनुसंधानकर्ता के लिए यह आवश्यक होगा कि वह अध्ययन विद्यालय में संपन्न करे। अनुसंधानकर्ता प्रतिभागियों के दो समूहों का चयन कर सकता है: कुछ समय तक एक समूह को करके दिखाने की विधि द्वारा पढ़ाए तथा दूसरे समूह को व्याख्यान विधि द्वारा पढ़ाए। अध्यापन के अंत में वह उनके निष्पादन की तुलना कर सकता है। इस प्रकार के प्रयोगों में प्रासंगिक परिवर्त्यों पर नियंत्रण प्रयोगशाला प्रयोग की अपेक्षा कम होता है। इसमें समय भी अधिक लगता है तथा यह मँहगा भी पड़ता है।

बहुत से परिवर्त्य ऐसे होते हैं जिनका प्रहस्तन प्रयोगशाला में संभव नहीं हो पाता है। उदाहरण के लिए, यदि आप भूकंप में अनाथ हुए बच्चों पर भूकंप के प्रभाव का अध्ययन करना चाहते हैं तो आप ऐसी परिस्थिति प्रयोगशाला में तैयार नहीं कर सकते हैं। ऐसी परिस्थितियों में अनुसंधानकर्ता प्रयोग-कल्प (quasi experiments) (लैटिन शब्द जिसका अर्थ कल्प होता है) विधि अपनाता है। ऐसे प्रयोगों में अनाभ्रित परिवर्त्य का चयन किया जाता है न कि उसे परिवर्तित अथवा प्रहस्तित किया जाता है। उदाहरण के लिए, प्रायोगिक समूह में हम ऐसे बच्चों को रखेंगे जो भूकंप में अनाथ हो गए और नियंत्रित समूह में उन बच्चों को रखेंगे जिन्होंने भूकंप का अनुभव तो किया है, किंतु माता-पिता से बिछुड़े नहीं हैं। इस प्रकार, प्रयोग-कल्प में एक प्राकृतिक परिवेश में स्वाभाविक रूप से पाए जाने वाले समूहों का उपयोग करके अनाश्रित परिवर्त्य को प्रहस्तित करने का प्रयास किया जाता है और प्रायोगिक तथा नियंत्रित समूह का निर्माण किया जाता है।

क्रियाकलाप 2.2

प्रसुत परिकल्पनाओं में अनाभ्रित एवं आश्रित परिवर्यों की पहचान कीजिए:

1. अध्यापक का कक्षा में व्यवहार छातों के निष्पादन को प्रभावित करता है।
2. माता-पिता एवं बच्चों के मध्य स्वस्थ संबंधों से बच्चों में संवेगात्मक समायोजन का विकास होता है।
3. साथियों के दबाव में वृद्धि के साथ दुश्चिता के स्तर में वृद्धि होती है।
4. युवा बच्चों के वातावरण को विशिष्ट पुस्तकों एवं पहेलियों से समृद्ध बनाने से उनके निष्पादन में वृद्धि होती है।

सहसंबंधात्मक अनुसंधान

मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में हम प्राय: पूर्वकथन करने के लिए दो परिवर्त्यों के मध्य संबंध का निर्धारण करना चाहते हैं। उदाहरण के लिए, आपकी रुचि यह जानने की है कि ‘क्या अध्ययन समय की मात्रा विद्यार्थी की शैक्षिक उपलब्धि से संबंधित है?’ यह विधि प्रयोगात्मक विधि से भिन्न है क्योंकि इसमें आपको अध्ययन के समय का न तो प्रहस्तन करना है, और न ही उपलब्धि पर उसका प्रभाव देखना है। आप मात्र दो परिवर्त्यों के मध्य संबंध जानना चाहते हैं जिससे आप यह जान सकें कि क्या दोनों में साहचर्य अथवा सहसंबंध है या नहीं। दोनों परिवर्त्यों में संबंध की शक्ति एवं दिशा एक गणितीय लब्धांक द्वारा प्रस्तुत होती है जिसे सहसंबंध गुणांक कहते हैं। इसका विस्तार $+1.00,0.0$ से -1.0 तक होता है।

इस प्रकार, सहसंबंध गुणांक तीन प्रकार के होते हैं: धनात्मक, ऋणात्मक एवं शून्य। धनात्मक सहसंबंध (positive correlation) इस बात का संकेत करता है कि जब एक परिवर्त्य का मान बढ़ेगा तो दूसरे परिवर्त्य का मान भी बढ़ेगा। उसी प्रकार जब एक परिवर्त्य का मान घटेगा तो दूसरे का मान भी घटेगा। मान लीजिए यह पाया गया है कि विद्यार्थी जब अध्ययन के लिए अधिक समय देते हैं तो उनमें उपलब्धि लब्धांक की भी वृद्धि होती है तथा यह भी पाया गया है कि जब वे कम अध्ययन करते हैं तो उनका उपलब्धि लब्धांक भी कम होता है। इस प्रकार के साहचर्य को धनात्मक अंक द्वारा दर्शाया जाएगा और अध्ययन एवं उपलब्धि के बीच जितना अधिक सार्थक साहचर्य होगा वह गुणांक +1.00 के उतने ही करीब होगा। आपको +0.85 सहसंबंध गुणांक मिल सकता है जो अध्ययन समय एवं उपलब्धि के बीच उच्च धनात्मक साहचर्य का द्योतक होगा। दूसरी ओर, ॠणात्मक सहसंबंध (negative correlation) हमें बतलाता है कि जैसे ही एक परिवर्त्य (X) का मान बढ़ता है वैसे ही दूसरे परिवर्त्य (Y) का मान कम हो जाता है। उदाहरण के लिए, आप इस बात की परिकल्पना कर सकते हैं कि जैसे ही अध्ययन समय में वृद्धि होगी वैसे ही अन्य गतिविधियों में लगने वाला समय कम हो जाएगा। यहाँ आपको जो ऋणात्मक सहसंबंध मिलेगा उसका विस्तार 0 और -1.0 के बीच होगा। यहाँ यह भी संभव है कि दो परिवर्त्यों के बीच कोई सहसंबंध न हो। इसे शून्य सहसंबंध (zero correlation) कहते हैं। शून्य सहसंबंध मिलना प्राय: कठिन होता है। यद्यपि सहसंबंध शून्य के निकट हो सकता है जैसे -.02 अथवा +.03 । यह बताता है कि दोनों परिवर्त्यों के बीच कोई सार्थक सहसंबंध नहीं है अथवा दोनों परिवर्त्य एक दूसरे से संबंधित नहीं हैं।

सर्वेक्षण अनुसंधान

आपने समाचारपत्रों में पढ़ा होगा अथवा दूरदर्शन पर देखा होगा कि चुनाव के समय यह जानने के लिए सर्वेक्षण किया जाता है कि मतदाता किस राजनीतिक दल विशेष को वोट देंगे अथवा वे किस प्रत्याशी विशेष के पक्ष में हैं। सर्वेक्षण अनुसंधान लोगों के मत, अभिवृत्ति और सामाजिक तथ्यों का अध्ययन करने के लिए अस्तित्व में आया। इसका मुख्य सरोकार प्रारंभ में विद्यमान वास्तविकता अथवा मूल रेखा का पता लगाना था। इसलिए इसका उपयोग तथ्यों को प्राप्त करने के लिए किया गया था जैसे एक अवधि विशेष में साक्षरता की दर, धार्मिक संबद्धता तथा समूह विशेष के सदस्यों का आय-स्तर आदि। इसका उपयोग परिवार नियोजन के प्रति लोगों की अभिवृत्ति, पंचायती राज की संस्थाओं को स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छता आदि से संबंधित कार्यक्रमों के संचालन हेतु शक्ति प्रदान करने के प्रति लोगों की अभिवृत्ति जानने के लिए भी किया गया। यद्यपि अब इसमें परिष्कृत तकनीकों का भी उपयोग होता है जो विविध प्रकार के कारण-कार्य संबंधों का पूर्वानुमान करने में सहायता करते हैं। बॉक्स 2.2 में सर्वेक्षण विधि द्वारा किए गए अध्ययन का एक उदाहरण दिया गया है।

सर्वेक्षण अनुसंधान सूचना एकत्रित करने के लिए विविध प्रकार की तकनीकों का उपयोग करता है। इन तकनीकों में वैयक्तिक साक्षात्कार, प्रश्नावली सर्वेक्षण, दूरभाष सर्वेक्षण तथा नियंत्रित प्रेक्षण आते हैं। यहाँ इन तकनीकों का कुछ विस्तार से वर्णन किया गया है।

वैयक्तिक साक्षात्कार

लोगों से सूचना प्राप्त करने के लिए साक्षात्कार सबसे अधिक प्रयुक्त होने वाली विधि है। इसका उपयोग विभिन्न परिस्थितियों में किया जाता है। एक चिकित्सक इससे रोगियों के विषय में सूचना प्राप्त करता है, एक नियोजक अपने भावी कर्मचारी से मिलते समय इसका उपयोग करता है तथा एक बिक्रीकर्ता यह जानने के लिए एक गृहिणी से साक्षात्कार करता है कि वह एक ब्रांड विशेष के साबुन का ही उपयोग क्यों करती है। दूरदर्शन पर हम मीडियाकर्मियों को राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दों पर साक्षात्कार करते हुए बहुत बार देखते हैं। साक्षात्कार में क्या होता है? हम देखते हैं कि दो या दो से अधिक व्यक्ति आमने-सामने बैठते हैं जिसमें एक व्यक्ति (प्राय: जिसे साक्षात्कारकर्ता कहा जाता है) प्रश्न पूछता है तथा दूसरा व्यक्ति (जिसे साक्षात्कारदाता या प्रतिक्रियादाता कहा जाता है) समस्या से संबंधित प्रश्नों का उत्तर देता है। साक्षात्कार एक उद्देश्यपूर्ण क्रियाकलाप है जिससे तथ्यपरक सूचनाएँ, अभिमत तथा अभिवृत्ति, एवं व्यवहार विशेष के कारण आदि प्रतिक्रियादाताओं से प्राप्त किए जाते हैं। यह आमने-सामने किया जाता है किंतु कभी-कभी यह दूरभाष पर भी संपन्न होता है।

मुख्य रूप से साक्षात्कार दो प्रकार के हो सकते हैं : संरचित (structured) या मानकीकृत (standardised)

बॉक्स 2.2 सर्वेक्षण विधि का उदाहरण

दिसम्बर 2004 में “आउटलुक साप्ताहिक’ पत्रिका ( 10 जनवरी 2005) द्वारा एक सर्वेक्षण यह जानने के लिए किया गया था कि भारत के लोगों को किन चीज़ों से प्रसन्नता मिलती है। सर्वेक्षण मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, बैंगलूर, हैदराबाद, अहमदाबाद, जयपुर तथा रांची जैसे आठ बड़े नगरों में किया गया था। अध्ययन में 25 से 55 आयु वर्ग के 817 प्रतिभागियों ने भाग लिया था। सर्वेक्षण में प्रयुक्त प्रश्नावली में विभिन्न प्रकार के प्रश्न थे। पहले प्रश्न में (क्या आप प्रसन्न हैं?) प्रतिभागियों को पंच-अंक मापनी (5-अत्यधिक प्रसन्न, 4-लगभग प्रसन्न, 3 -न तो प्रसन्न न ही अप्रसन्न, 2 -लगभग अप्रसन्न, 1 -अत्यधिक अप्रसन्न) पर अपनी प्रतिक्रिया देनी थी। लगभग 47 प्रतिशत लोगों ने बताया कि वे अत्यधिक प्रसन्न हैं, 28 प्रतिशत लोग लगभग प्रसन्न थे, 11 प्रतिशत लोगों ने बताया कि वे न तो प्रसन्न हैं और न ही अप्रसन्न, अंतिम दो वर्गों (दोनों में 7 प्रतिशत) में लोगों ने प्रतिक्रिया दी कि वे लगभग अप्रसन्न एवं अत्यधिक अप्रसन्न हैं। द्वितीय प्रश्न (क्या आप पैसों से प्रसन्नता खरीद सकते हैं?) के तीन विकल्प थे (हाँ, नहीं, ज्ञात नहीं)। करीब 80 प्रतिशत लोगों का मत था कि प्रसन्नता पैसों से नहीं खरीदी जा सकती है। अन्य प्रश्न में यह जानने का प्रयास किया गया था कि लोगों को अत्यधिक प्रसन्नता किससे मिलती है? 50 प्रतिशत से अधिक प्रतिक्रियादाताओं ने बताया कि मन की शांति (52 प्रतिशत) तथा स्वास्थ्य (50 प्रतिशत) लोगों को अत्यधिक प्रसन्नता प्रदान करती है। इसके बाद कार्य में सफलता (43 प्रतिशत) तथा परिवार ( 40 प्रतिशत) प्रसन्नता प्रदान करते हैं। एक दूसरा प्रश्न पूछा गया था कि वे अप्रसन्न अथवा दुखी होने पर क्या करते हैं? पाया गया कि 36 प्रतिशत लोग संगीत सुनने में, 23 प्रतिशत मित्रों की संगति में तथा 15 प्रतिशत सिनेमा देखने में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।

एवं असंरचित (unstructured) या अमानकीकृत (nonstandardised)। यह अंतर इस बात पर आधारित होता है कि हमने साक्षात्कार के पहले कैसी तैयारी की है। चूँकि हमें साक्षात्कार के समय प्रश्न पूछने होते हैं, इसलिए प्रश्नों की सूची पहले से ही बना लेना आवश्यक होता है। इस सूची को साक्षात्कार अनुसूची कहते हैं। संरचित साक्षात्कार उसे कहते हैं जिसमें प्रश्न स्पष्ट रूप से अनुसूची में एक क्रम में लिख लिए जाते हैं। साक्षात्कारकर्ता को प्रश्नों की शब्दावली में अथवा उनके पूछछे जाने के क्रम में कोई भी परिवर्तन करने की स्वतंत्रता नहीं होती है। कतिपय दशाओं में उन प्रश्नों की प्रतिक्रियाएँ भी पहले से ही उल्लिखित रहती हैं, इन्हें अमुक्त प्रश्न कहते हैं। इसके विपरीत, असंरचित साक्षात्कार में साक्षात्कारकर्ता पूछे जाने वाले प्रश्नों, प्रश्नों की शब्दावली तथा प्रश्नों के पूछे जाने के क्रम में परिवर्तन करने के लिए स्वतंत्र होता है। चूँकि प्रतिक्रियाएँ पूर्व उल्लिखित नहीं होतों, इसलिए प्रतिक्रियादाता जैसे चाहता है वैसे उत्तर देता है। इनको मुक्त प्रश्न कहते हैं। उदाहरण के लिए, यदि अनुसंधानकर्ता किसी व्यक्ति की प्रसन्नता के स्तर के संबंध में जानना चाहता है तो वह पूछ सकता है कि: आप कितने प्रसन्न हैं? प्रतिक्रियादाता जैसे चाहे वैसे उत्तर दे सकता है।

किसी साक्षात्कार में प्रतिभागियों की निम्न संयुक्तियाँ साक्षात्कार दशा में हो सकती हैं:

(अ) व्यक्ति से व्यक्तिः इस दशा में एक साक्षात्कारकर्ता किसी एक व्यक्ति का साक्षात्कार करता है।

(ब) व्यक्ति से सूमह: इस दशा में एक साक्षात्कारकर्ता व्यक्तियों के एक समूह का साक्षात्कार करता है। इसका एक भिन्न रूप फोकस समूह विमर्श होता है।

(स) समूह से व्यक्ति: यह एक ऐसी दशा होती है जिसमें साक्षात्कारकर्ताओं का एक समूह किसी एक व्यक्ति का साक्षात्कार करता है। जब आप नौकरी के लिए कोई साक्षात्कार देने जाते हैं तो आपको इस प्रकार के साक्षात्कार का अनुभव हो सकता है।

(द) समूह से समूहः ऐसी दशा में साक्षात्कारकर्ताओं का एक समूह साक्षात्कारदाताओं के एक समूह का साक्षात्कार करता है।

साक्षात्कार करना एक कौशल है जिसके लिए उपयुक्त प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। एक कुशल साक्षात्कारकर्ता यह जानता है कि प्रतिक्रियादाता को कैसे सहज रखकर इष्टतम उत्तर प्राप्त किया जा सकता है। व्यक्ति जिस प्रकार उत्तर देता है उसके प्रति साक्षात्कारकर्ता संवेदनशील रहता है तथा आवश्यकता पड़ने पर अधिक सूचना देने के लिए खोजबीन करता है। यदि प्रतिक्रियादाता अस्पष्ट उत्तर देता है तो साक्षात्कारकर्ता उससे उपयुक्त एवं मूर्त उत्तर प्राप्त करने का प्रयास करता है।

साक्षात्कार सूचनाओं को गहराई से प्राप्त करने में सहायता करता है। यह परिस्थितियों के अनुसार लचीला एवं अनुकूलित होता है और इस विधि का उपयोग प्रायः तब किया जाता है जब कोई अन्य विधि संभव अथवा पर्याप्त नहीं हो। इसका उपयोग बच्चों के लिए तथा अशिक्षितों के लिए भी किया जा सकता है। साक्षात्कारकर्ता जान सकता है कि क्या प्रतिक्रियादाता प्रश्नों को समझता है अथवा दुहराने या दूसरी तरह से कहने की आवश्यकता है। यद्यपि साक्षात्कार में समय लगता है। प्राय: किसी एक व्यक्ति से सूचना प्राप्त करने में एक घंटे का अथवा अधिक समय लग सकता है जो लागत-प्रभावी नहीं हो सकता है।

प्रश्नावली सर्वेक्षण

प्रश्नावली सूचना प्राप्त करने की सबसे प्रचलित, साधारण, बहुमुखी तथा अल्प लागत वाली आत्म-संवाद विधि है। इसमें एक पूर्वनिर्धारित प्रश्नों का समुच्चय होता है। प्रतिक्रियादाता को प्रश्न पढ़ना पड़ता है और कागज़ पर उत्तर लिखना पड़ता है न कि साक्षात्कारकर्ता को मौखिक उत्तर देना होता है। यह लगभग अति संरचित साक्षात्कार के जैसा होता है। प्रश्नावली को व्यक्तियों के एक समूह में वितरित किया जा सकता है जो प्रश्नों के उत्तर देते हैं और अनुसंधानकर्ता को लौटा देते हैं अथवा उत्तर डाक द्वारा भी भेजा जा सकता है। प्राय: प्रश्नावाली में दो प्रकार के प्रश्न होते हैं: मुक्त एवं अमुक्त। मुक्त प्रश्नों में प्रतिक्रियादाता कुछ भी उत्तर दे सकता है जो वह ठीक समझता है। अमुक्त प्रश्नों में प्रश्न तथा उनके संभावित उत्तर दिए गए होते हैं तथा प्रतिक्रियादाता को सही उत्तर का चुनाव करना होता है। अमुक्त प्रश्नों की प्रतिक्रियाओं के उदाहरण इस प्रकार हो सकते हैं; जैसे- हाँनहींं, सही/गलत, बहुविकल्प अथवा मापनियों का उपयोग आदि। मापनियों के संबंध में एक कथन दिया रहता है और प्रतिक्रियादाता अपना मत त्रि-अंक (सहमत, अनिर्णय, असहमत) अथवा पंच-अंक (अत्यधिक सहमत, सहमत, अनिर्णय, असहमत, अत्यधिक असहमत) अथवा सप्त-अंक, नौ-अंक, ग्यारह-अंक अथवा तेरह-अंक मापनियों पर देता है। कुछ स्थितियों में, प्रतिक्रियादाता अपनी पसंद के क्रम में बहुत सी चीज़ों को कोटियों में प्रस्तुत करता है। प्रश्नावली का उपयोग पृष्ठभूमि संबंधी एवं जनांकिकीय सूचनाओं, भूतकाल के व्यवहारों, अभिवृत्तियों एवं अभिमतों, किसी विषय विशेष के ज्ञान, तथा व्यक्तियों की प्रत्याशाओं एवं आकांक्षाओं की जानकारी के लिए किया जाता है। कभी-कभी सर्वेक्षण डाक द्वारा प्रश्नावली भेजकर भी किया जाता है। डाक द्वारा भेजी गई प्रश्नावाली की समस्या यह होती है कि लोगों से प्रतिक्रियाएँ कम मिल पाती हैं।

क्रियाकलाप 2.3

एक अन्वेषणकर्ता इंटरनेट पर एक प्रश्नावली देकर जानना चाहता है कि कल्याण कार्यक्रमों के प्रति लोगों की अभिवृत्ति कैसी है। क्या यह अध्ययन सामान्य लोगों के विचारों को सही-सही प्रदर्शित करता है? क्यों अथवा क्यों नहीं?

दूरभाष सर्वेक्षण

सर्वेक्षण दूरभाष (telephone) द्वारा भी किए जाते हैं और आजकल मोबाइल फोन पर एस.एम.एस. (संक्षिप्त संदेश सेवा) द्वारा विचारों को जानने के कार्यक्रम आपने देखे होंगे। दूरभाष सर्वेक्षण में समय कम लगता है। चूँकि प्रतिक्रियादाता साक्षात्कारकर्ता को नहीं जानता है इसलिए प्रतिक्रियादाताओं में असहयोग, अनिच्छा, तथा सतही उत्तर देने की प्रवृत्ति अधिक देखी जाती है। एक संभावना और है कि प्रतिक्रियादाता प्रतिक्रिया न देने वालों से आयु, लिंग, आय-स्तर, शैक्षिक स्तर आदि में भिन्न हो सकते हैं। उससे अभिनत परिणाम मिलने की संभावना बनी रहती है।

प्रेक्षण विधि की चर्चा पहले की गई है। सर्वेक्षण करने हेतु इस विधि का भी उपयोग किया जाता है। प्रत्येक विधि के अपने लाभ एवं सीमाएँ हैं। शोधकर्ता को किसी विधि विशेष का चयन करते समय सावधानी बरतनी चाहिए।

सर्वेक्षण विधि के कई लाभ हैं। प्रथम, हजारों व्यक्तियों से शीघ्रतापूर्वक एवं दक्षतापूर्वक सूचनाएँ संगृहीत की जा सकती हैं। द्वितीय, चूँकि सर्वेक्षण शीघ्रता से किए जा सकते हैं इसलिए नए मुद्दों के उत्पन्न होने के साथ ही उन पर जनमत प्राप्त किया जा सकता है। सर्वेक्षण की कुछ सीमाएँ भी हैं। प्रथम, लोग गलत सूचनाएँ दे सकते हैं। वे ऐसा स्मृति की गड़बड़ी से कर सकते हैं अथवा वे शोधकर्ता को यह नहीं बताना चाहते हैं कि किसी मुद्दे पर उनके वास्तविक विचार क्या हैं - वे कैसा विश्वास करते हैं। द्वितीय, लोग कभी-कभी वैसी प्रतिक्रियाएँ देते हैं जैसा शोधकर्ता जानना चाहता है।

मनोवैज्ञानिक परीक्षण

वैयक्तिक भिन्नता का मूल्यांकन प्रारंभ से ही मनोविज्ञान का महत्वपूर्ण विषय रहा है। मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न मानवीय विशेषताओं; जैसे- बुद्धि, अभिक्षमता, व्यक्तित्व, रुचि, अभिवृत्ति, मूल्य, शैक्षिक उपलब्धि आदि के मूल्यांकन हेतु विभिन्न परीक्षणों का निर्माण किया है। इन परीक्षणों का उपयोग विभिन्न उद्देश्यों; जैसे- कार्मिक चयन, स्थानन, प्रशिक्षण, निर्देशन, निदान आदि के लिए तथा विविध संदर्भों; जैसे- शैक्षणिक संस्थानों, निर्देशन क्लिनिक, उद्योगों, रक्षा संस्थानों तथा अन्य में किया जाता है। क्या आपने कभी किसी मनोवैज्ञानिक परीक्षण को किया है? यदि किया है, तो आपने देखा होगा कि एक परीक्षण में बहुत से प्रश्न होते हैं जिन्हें अपनी संभावित प्रतिक्रियाओं के साथ एकांश कहा जाता है और जो किसी मानव विशेषता या गुण विशेष से संबंधित होते हैं। यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि जिस विशेषता के लिए परीक्षण की रचना की गई है उसको स्पष्ट रूप से तथा बिना किसी अर्थद्वंद्व के परिभाषित किया जाना चाहिए तथा सभी एकांश (प्रश्न) उसी विशेषता से संबद्ध होने चाहिए। आपने यह भी देखा होगा कि परीक्षण किसी आयु वर्ग विशेष के लोगों के लिए होता है। प्रश्नों का उत्तर देने की निश्चित समय सीमा हो सकती है अथवा नहीं भी हो सकती है।

तकनीकी रूप से मनोवैज्ञानिक परीक्षण मानकीकृत (standardised) एवं वस्तुनिष्ठ (objective) उपकरण होते हैं जिसका उपयोग मानसिक अथवा व्यवहारपरक विशेषताओं के संबंध में किसी व्यक्ति की स्थिति के मूल्यांकन में करते हैं। इस परिभाषा में दो बातें अति ध्यातव्य हैं - वस्तुनिष्ठता एवं प्रमाणीकरण। वस्तुनिष्ठता (objectivity) का संबंध इस बात से होता है कि यदि दो या दो से अधिक अनुसंधानकर्ता एक मनोवैज्ञानिक परीक्षण को एक ही समूह के सदस्यों को दें तो दोनों ही समूह के प्रत्येक सदस्य के लिए लगभग एक ही प्रकार के मूल्य दिखाई देने चाहिए। किसी भी परीक्षण के एकांशों की शब्दावली ऐसी होनी चाहिए कि वह विभिन्न पाठकों को समान अर्थ का बोध कराए। साथ ही परीक्षण का उत्तर देने वाले व्यक्ति के लिए एकांशों का उत्तर देने संबंधी निर्देश का पहले ही उल्लेख करना चाहिए। परीक्षण को देने की प्रक्रिया; जैसे- पर्यावरणीय दशाएँ, समय सीमा, देने की रीति (वैयक्तिक अथवा सामूहिक) का भी उल्लेख होना चाहिए तथा प्रतिक्रियादाताओं की प्रतिक्रियाओं की गणना की विधि का भी उल्लेख किया जाना आवश्यक होता है।

परीक्षण की रचना एक व्यवस्थित प्रक्रिया है तथा इसके कुछ चरण हैं। इसके अंतर्गत एकांशों के विस्तृत विश्लेषण तथा समग्र परीक्षण की विश्वसनीयता (reliability), वैधता (validity) एवं मानकों (norms) के आकलन आते हैं।

परीक्षण की विश्वसनीयता का संबंध दो भिन्न अवसरों पर एक ही परीक्षण पर किसी व्यक्ति द्वारा प्राप्त लब्धांकों की संगति से है। उदाहरण के लिए, आप विद्यार्थियों के एक समूह को एक परीक्षण आज दीजिए तथा कुछ समय के बाद, मान लें 20 दिन बाद, उन्हीं विद्यार्थियों को वही परीक्षण पुन: दीजिए। परीक्षण के विश्वसनीय होने पर, दोनों अवसरों पर विद्यार्थियों द्वारा प्राप्त लब्धांकों में कोई अंतर नहीं होना चाहिए। इसके लिए हम परीक्षण-पुनःपरीक्षण (test-retest) विश्वसनीयता की गणना कर सकते हैं जो कालिक स्थिरता (कालाधारित परीक्षण लन्धांक की स्थिरता) का द्योतक है। उन्हों व्यक्तियों पर प्राप्त लब्धांकों के दो समुच्चयों के मध्य सहसंबंध गुणांक प्राप्त करके उसकी गणना की जाती है। दूसरी प्रकार की परीक्षण विश्वसनीयता को विभक्तार्ध (splithalf) विश्वसनीयता कहते हैं। यह परीक्षण की आंतरिक संगति की मात्रा का संकेत देती है। यह इस मान्यता पर आधारित होती है कि यदि एकांश समान क्षेत्र से संबंधित है तो उन्हें एक दूसरे से सहसंबंधित होना चाहिए। यदि वे अलग क्षेत्र से होंगे जैसे- सेब एवं नांरगी, तो वे सहसंबंधित नहीं होंगे। आंतरिक संगति ज्ञात करने के लिए परीक्षण को दो समान भागों में विषम-सम विधि (एकांश $1,3,5$ एक समूह में तथा एकांश $2,4,6$ दूसरे समूह में) द्वारा बांट दिया जाता है तथा विषम-सम एकांशों पर प्राप्त लब्धांकों के मध्य सहसंबंध गुणांक की गणना की जाती है।

परीक्षण के उपयोग योग्य होने के लिए उसकी वैधता भी आवश्यक है। वैधता का संबंध इस प्रश्न से है कि क्या परीक्षण उस चीज़ का मापन कर रहा है जिसका कि वह मापन करने का दावा करता है? उदाहरण के लिए, यदि आपने एक गणितीय उपलब्धि परीक्षण की रचना की है तो क्या परीक्षण गणितीय उपलब्धि का मापन कर रहा है अथवा भाषा दक्षता का।

अंतिम रूप से, कोई परीक्षण प्रामाणिक परीक्षण तब होता है जब परीक्षण के लिए मानक विकसित कर लिए जाते हैं। जैसा कि पूर्व में वर्णित है कि मानक समूह का सामान्य अथवा औसत निष्पादन होता है। परीक्षण विद्यार्थियों के एक बड़े समूह को दिया जाता है। उनकी आयु, लिंग, आवास स्थान आदि के आधार पर औसत निष्पादन मानक सुनिश्चित कर लिए जाते हैं। इससे एक विद्यार्थी के निष्पादन की समूह के अन्य विद्यार्थियों के साथ तुलना करने में सहायता मिलती है। इससे किसी परीक्षण पर व्यक्तियों के प्राप्त लब्धांक की व्याख्या करने में भी सहायता मिलती है।

परीक्षण के प्रकार

मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का वर्गीकरण भाषा, उसके देने की रीति तथा जटिलता-स्तर के आधार पर किया जाता है। भाषा के आधार पर वाचिक (verbal), अवाचिक (non-verbal) तथा निष्पादन (performance) परीक्षण होते हैं। वाचिक परीक्षणों के लिए साक्षरता आवश्यक होती है क्योंकि एकांश किसी भाषा में ही लिखे जाते हैं। अवाचिक परीक्षणों में, एकांश प्रतीकों अथवा चित्रों द्वारा बनाए जाते हैं। निष्पादन परीक्षणों में वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान तक एक क्रम में रखना होता है।

देने की रीति के आधार पर मनोवैज्ञानिक परीक्षणों को वैयक्तिक (individual) अथवा समूह (group) परीक्षणों में विभाजित किया जाता है। अनुसंधानकर्ता द्वारा वैयक्तिक परीक्षण एक समय में एक ही व्यक्ति को दिया जाता है जबकि समूह परीक्षण अनेक व्यक्तियों को एक साथ ही दिया जाता है। वैयक्तिक परीक्षणों में अनुसंधानकर्ता आमने-सामने परीक्षण बाँटता है तथा परीक्षार्थी के सामने बैठकर प्रतिक्रियाएँ नोट करता है। समूह परीक्षण में एकांशों के उत्तर देने के निर्देश आदि परीक्षण पर लिखे होते हैं जिसे परीक्षार्थी पढ़ता है तथा उसी के अनुसार प्रश्नों का उत्तर देता है। परीक्षण देने वाला पूरे समूह को निर्देशों की व्याख्या करता है। वैयक्तिक परीक्षणों में समय अधिक लगता है, परन्तु बच्चों तथा भाषा न जानने वालों से प्रतिक्रिया प्राप्त करने का यह उत्तम तरीका है। समूह परीक्षण देना सरल होता है तथा इनमें समय भी कम लगता है। यद्यपि, प्रतिक्रियाओं की कुछ सीमाएँ होती हैं। प्रतिक्रियादाता प्रश्नों का उत्तर देने के लिए पर्याप्त अभिर्रेरित नहों भी हो सकता है और झूठी प्रतिक्रिया भी दे सकता है।

मनोवैज्ञानिक परीक्षण गति (speed) एवं शक्ति (power) परीक्षण के रूप में भी वर्गीकृत किए जाते हैं। गति परीक्षण की एक समय सीमा होती है जिसमें परीक्षार्थी को सभी एकांशों का उत्तर देना होता है। ऐसा परीक्षण व्यक्ति का मूल्यांकन उसके द्वारा एकांशों के सही उत्तर देने में लिए गए समय के आधार पर किया जाता है। गति परीक्षण में प्रत्येक एकांश की जटिलता की सीमा समान होती है। दूसरी ओर, शक्ति परीक्षण में व्यक्ति की अंतर्निहित योग्यता (अथवा शक्ति) का मूल्यांकन, उसे पर्याप्त समय देकर किया जाता है अर्थात इन परीक्षणों की कोई समय सीमा नहीं होती है। एक शक्ति परीक्षण में एकांशों को जटिलता के बढ़ते क्रम में व्यवस्थित किया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति छठे एकांश का हल करने में असमर्थ है तो उसे आगे के एकांशों को हल करने में कठिनाई होगी। यद्यपि शुद्ध रूप में गति अथवा शक्ति परीक्षण का निर्माण कठिन होता है। अधिकांश परीक्षण गति एवं शक्ति परीक्षण के मिले-जुले रूप में होते हैं।

चूँकि परीक्षण प्रायः अनुसंधानों एवं लोगों के विषय में निर्णय लेने के लिए किया जाता है, इसलिए परीक्षणों का चयन एवं उपयोग बहुत सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए। परीक्षणकर्ता अथवा निर्णय करने वाले व्यक्ति को किसी एक ही परीक्षण पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। परीक्षण प्रदत्तों में व्यक्ति की पृष्ठभूमि, रुचियों तथा पूर्व के निष्पादन के संबंध में सूचनाएँ सम्मिलित होनी चाहिए।

क्रियाकलाप 2.4

एक परीक्षण की अनुदेश पुस्तिका को ध्यानपूर्वक पढ़िए तथा निम्नलिखित को पहचानिए :

  • एकांशों की संख्या एवं प्रकार
  • विश्वसनीयता, वैधता एवं मानकों से संबंधित सूचनाएँ
  • परीक्षण के प्रकार : वाचिक या अन्यथा, वैयक्तिक या समूह
  • परीक्षण के प्रकार : गति, शक्ति अथवा मिश्रित
  • कोई अन्य विशेषताएँ

अन्य विद्यार्थियों तथा अध्यापक के साथ इन पर चर्चा कीजिए।

व्यक्ति अध्ययन

इस विधि में एक व्यक्ति विशेष (केस) का गहराई से अध्ययन करने पर बल दिया जाता है। अनुसंधानकर्ता उन व्यक्तियों पर ज़्यादा ध्यान केंद्रित करते हैं जिनसे कम समझे गए गोचरों के संबंध में महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं अथवा कुछ नया सीखने को मिलता है। केस विशिष्ट योग्यताओं वाला एक व्यक्ति हो सकता है (उदाहरण के लिए, मनोवैज्ञानिक विकार प्रदर्शित करने वाला एक रोगी), अथवा व्यक्तियों का ऐसा छोटा समूह जिनमें बहुत सी विशेषताएँ समान होती हैं (उदाहरण के लिए, सर्जनात्मक लेखक जैसे रवींद्रनाथ टैगोर एवं महादेवी वर्मा), संस्थाएँ (उदाहरण के लिए, खराब अथवा सफलतापूर्वक कार्य करने वाले विद्यालय अथवा कंपनी कार्यालय) तथा विशिष्ट घटनाएँ (उदाहरण के लिए, सूनामी के विध्वंस से प्रभावित बच्चे, युद्ध अथवा वाहन द्वारा उत्पन्न प्रदूषण, आदि)। जिन व्यक्तियों का हम अध्ययन करते हैं वे अपने क्षेत्र में विशिष्ट होते हैं, इसलिए उनमें सूचनाएँ बहुत होती हैं। व्यक्ति अध्ययन में अनेक विधियों का उपयोग विभिन्न प्रकार के प्रतिक्रियादाताओं से सूचना संग्रह के लिए किया जाता है; जैसे- साक्षात्कार, प्रेक्षण तथा मनोवैज्ञानिक परीक्षण। ये प्रतिक्रियादाता किसी-न-किसी रूप में व्यक्ति से संबंधित हो सकते हैं तथा महत्वपूर्ण सूचनाएँ दे सकते हैं। व्यक्ति अध्ययन की सहायता से मनोवैज्ञानिकों ने कल्पनाओं, आशाओं, भय, आघातपूर्ण अनुभवों तथा अभिभावकों द्वारा किए गए लालन-पालन पर अनुसंधान कार्य किया है जिनसे व्यक्ति के मन एवं व्यवहार को समझने में सहायता मिलती है। व्यक्ति अध्ययनों से घटनाओं के आख्यान अथवा विस्तृत विवरण मिलते हैं जो व्यक्ति के जीवन में घटित होते हैं।

व्यक्ति अध्ययन नैदानिक मनोविज्ञान तथा मानव विकास के क्षेत्र में अनुसंधान का एक मूल्यवान उपकरण है। फ्रायड (Freud) की सोच जिससे मनोविश्लेषण के सिद्धांत का विकास हुआ वह उनके व्यक्तियों के विषय में प्रेक्षण एवं व्यवस्थित अभिलेख तैयार करने के कारण संभव हो सका था। उसी प्रकार, पियाजे (Piaget) ने संज्ञातात्मक विकास के सिद्धांत का प्रतिपादन अपने तीन बच्चों के प्रेक्षण के आधार पर किया था। व्यक्ति अध्ययनों का उपयोग बच्चों के समाजीकरण के ढंग को समझने में किया गया है। उदाहरण के लिए, मिन्टर्न (Minturn) एवं हिचकॉक (Hitchcock) ने खालापुर के राजपूत बच्चों के समाजीकरण का व्यक्ति अध्ययन किया। एस. आनन्दलक्ष्मी ने वाराणसी के बुनकर समुदाय में शैशवकाल के स्वरूप का अध्ययन किया था।

व्यक्ति अध्ययन व्यक्तियों के जीवन की गहराइयों का विस्तृत चित्रण प्रदान करते हैं। यद्यपि व्यक्ति अध्ययनों के आधार पर सामान्यीकरण करते समय अधिक सावधानी की आवश्यकता होती है। एकल व्यक्ति अध्ययनों में वैधता की समस्या एक चुनौती होती है। यह सुझाव दिया जाता है कि अनेक अन्वेषकों द्वारा विभिन्न स्रोतों की सूचनाओं को विविध रचना-कौशल बहुल के उपयोग से एकत्रित करना चाहिए। प्रदत्त संग्रह की सावधानीपूर्ण योजना भी आवश्यक होती है। प्रदत्त संग्रह की पूरी प्रक्रिया में अनुसंधानकर्ता को साक्ष्यों की एक शृंखला बनाए रखनी चाहिए जिससे वह विविध प्रदत्त स्रोतों को, जो अनुसंधान के प्रश्नों से संबंधित हों, जोड़ सके।

जैसा कि आप पढ़ चुके हैं, प्रत्येक विधि की अपनी विशेषताएँ एवं सीमाएँ होती हैं। इसलिए, अनुसंधानकर्ता से यह अपेक्षा की जाती है कि वह किसी एक विधि पर ही निर्भर न रहे। वास्तविक स्थिति को जानने के लिए दो या दो से अधिक विधियों की संयुक्तियों का उपयोग करना चाहिए। यदि सभी विधियाँ एक-सा परिणाम दें, अर्थात सब एक ही परिणाम दें, तो निश्चित हुआ जा सकता है।

क्रियाकलाप 2.5

निम्न अनुसंधान समस्याओं के लिए उपयुक्त जाँच विधि सुझाइए।

  • क्या शोर लोगों की समस्या-समाधान की योग्यता को प्रभावित करता है?
  • क्या महाविद्यालय के विद्यार्थियों के लिए एक निश्चित पोशाक होनी चाहिए?
  • गृह कार्य के प्रति विद्यार्थियों, शिक्षकों एवं अभिभावकों की अधिवृत्तियों का अध्ययन करने के लिए।
  • एक विद्यार्थी का खेल समूह एवं कक्षा में व्यवहार का अध्ययन करने के लिए।
  • आपके मनपसंद नेता के जीवन की प्रमुख घटनाओं का पता लगाने के लिए।
  • अपने विद्यालय के 11 वों कक्षा के विद्यार्थियों के दुश्चिता स्तर का मूल्यांकन करने के लिए।

प्रद्त्त विश्लेषण

पूर्व खंड में हमने सूचनाओं के संग्रहण की विविध विधियों की विवेचना की। प्रदत्त संग्रह के बाद अनुसंधानकर्ता का दूसरा कार्य निष्कर्ष निकालना होता है। उसके लिए प्रदत्त विश्लेषण आवश्यक होता है। हम प्राय: प्रदत्त विश्लेषण के लिए दो प्रकार के विधिपरक उपागमों का उपयोग करते हैं। ये हैं: परिमाणात्मक एवं गुणात्मक विधियाँ। इस खंड में हम संक्षेप में इन उपागमों की विवेचना करेंगे।

परिमाणात्मक विधि

अब तक आप अच्छी तरह जान चुके होंगे कि मनोवैज्ञानिक परीक्षण, प्रश्नावली, संरचित साक्षात्कार आदि में अमुक्त प्रश्नों की एक शृंखला होती है। कहने का आशय यह है कि इन मापकों में प्रश्न तथा उनके संभावित उत्तर दिए गए होते हैं। सामान्यतया, ये प्रतिक्रियाएँ मापनियों के रूप में होती हैं अर्थात वे प्रतिक्रिया की शक्ति तथा मात्रा को प्रदर्शित करती हैं। उदाहरण के लिए, वे 1 (निम्न) से 5,7 अथवा 11 (उच्च) तक फैली हुई हो सकती हैं। प्रतिभागियों का कार्य होता है कि वे सर्वाधिक उपयुक्त प्रतिक्रिया का चयन करें। कभी-कभी उसमें सही एवं गलत प्रतिक्रियाएँ होती हैं। अनुसंधानकर्ता प्रत्येक उत्तर के लिए एक अंक प्रदान करता है (प्राय: ’ 1 ’ अंक सही उत्तर के लिए तथा ’ 0 ’ अंक गलत उत्तर के लिए)। अंत में अनुसंधानकर्ता इन सभी अंकों का योग ज्ञात करता है और एक समग्र अंक प्राप्त करता है जो प्रतिभागी के उस गुण विशेष के स्तर के विषय में बताता है (उदाहरण के लिए, बुद्धि, शैक्षिक बुद्धि इत्यादि)। ऐसा करते समय, अनुसंधानकर्ता मनोवैज्ञानिक गुणों को एक मात्रा (साधारणतया अंक) में बदल देता है।

निष्कर्ष ज्ञात करने के उद्देश्य से, अनुसंधानकर्ता व्यक्ति के लब्धांकों की तुलना समूह से करता है अथवा दो समूहों के लब्धांकों की तुलना करता है। उसके लिए कुछ सांख्यिकीय विधियों के उपयोग की आवश्यकता पड़ती है जिसके विषय में आप आगे पढ़ेंगे। आप दसवीं कक्षा में गणित के अंतर्गत केंद्रीय प्रवृत्तियों की विधियों ( माध्य, माध्यिका तथा बहुलक), परिवर्तनशीलता की विधियों (प्रसार, चतुर्थक विचलन, मानक विचलन), सहसंबंध गुणांक आदि के विषय में पढ़ चुके हैं। ये तथा कुछ अन्य अतिविकसित सांख्यिकीय विधियाँ अनुसंधानकर्ता को अनुमान लगाने तथा प्रदत्तों को अर्थवान बनाने हेतु योग्य बनाती हैं।

गुणात्मक विधि

मानवीय अनुभव बहुत जटिल होते हैं। यह जटिलता उस समय समाप्त हो जाती है जब प्रश्नों के आधार पर कोई व्यक्ति किसी परीक्षार्थी से सूचना प्राप्त करता है। यदि आप जानना चाहते हैं कि कोई माँ बच्चे के न रहने पर कैसा अनुभव करती है, तो आपको उसकी वह कहानी सुननी पड़ेगी जिससे आप समझ सकें कि वह अपने अनुभवों को कैसे संगठित करती है तथा उसने अपनी पीड़ा को क्या नाम दिया है। इसके परिमाणीकरण के लिए किए गए किसी भी प्रयास से आप ऐसे अनुभवों को संगठित करने वाले सिद्धांतों को नहीं समझ पाएँगे। मनोवैज्ञानिकों ने ऐसे प्रदत्तों के विश्लेषण के लिए कुछ गुणात्मक विधियाँ विकसित की हैं। इनमें से एक विवरणात्मक विधि है। प्रदत्त सर्वदा लब्धांकों के रूप में नहीं प्राप्त होते हैं। जब अनुसंधानकर्ता सहभागी प्रेक्षण की विधि का अथवा असरंचित साक्षात्कार का उपयोग करता है तो प्रदत्त प्रायः विवरणों के रूप में प्राप्त होते हैं; जैसे- प्रतिभागी की ही शब्दावली में, अनुसंधानकर्ता के प्रेक्षण नोट, फोटोग्राफ, अनुसंधानकर्ता द्वारा साक्षात्कार के साथ ली गई प्रतिक्रियाओं के विवरण अथवा टेप/वीडियो अभिलेखित अनौपचारिक बातचीत आदि रूपों में। ऐसे प्रदत्तों को अंकों में परिवर्तित नहीं किया जा सकता और इनका सांख्यिकीय विश्लेषण भी नहीं किया जा सकता है

बल्कि अनुसंधानकर्ता विषय-विश्लेषण विधि का उपयोग कर कथ्यपरक वर्गीकरणों की जानकारी प्राप्त करता है और प्रदत्तों से उदाहरण लेकर उन वर्गों का निर्माण करता है। यह स्वभावतः अधिक विवरणात्मक होता है।

यह समझ लेना चाहिए कि परिमाणात्मक एवं गुणात्मक विधियाँ परस्पर विरोधी नहीं हैं बल्कि एक दूसरे की पूरक हैं। किसी घटना को समग्र रूप में समझने के लिए दोनों विधियों की उपयुक्त संयुक्ति अधिक अपेक्षित है।

मनोवैज्ञानिक जाँच की सीमाएँ

पूर्व में प्रत्येक विधि के लाभ एवं उसकी सीमाओं का वर्णन किया जा चुका है। इस खंड में आप मनोवैज्ञानिक मापन की कुछ सामान्य समस्याओं के बारे में पढ़ेंगे।

1. वास्तविक शून्य बिंदु का अभाव : भौतिक विज्ञानों में मापन शून्य से प्रारंभ होते हैं। उदाहरण के लिए, यदि आप मेज़ की लंबाई का मापन करना चाहते हैं तो आप उसका मापन शुन्य से शुरू कर कह सकते हैं कि यह 3 फीट लंबी है। मनोवैज्ञानिक मापन में हमें शून्य बिंदु नहीं मिलते हैं। उदाहरण के लिए, इस दुनिया में किसी भी व्यक्ति की बुद्धि शून्य नहीं होती। हम सभी लोगों के साथ बुद्धि की कुछ मात्रा अवश्य होती है। मनोवैज्ञानिक मनचाहे ढंग से किसी बिंदु को शून्य बिंदु निर्धारित कर लेते हैं और आगे बढ़ते हैं। परिणामस्वरूप हम मनोवैज्ञानिक अध्ययन में जो कुछ लब्धांक प्राप्त करते हैं वे अपने आप में निरपेक्ष नहीं होते बल्कि उनका सापेक्षिक मूल्य होता है।

कुछ अध्ययनों में कोटियों को लब्धांक के रूप में उपयोग में लाया जाता है। उदाहरण के लिए, किसी परीक्षण में प्राप्त किए गए लब्बांक के आधार पर शिक्षक विद्यार्थियों को एक क्रम में व्यवस्थित करता है - $1,2,3,4$ और उसी प्रकार आगे भी करता है। ऐसे मूल्यांकन की समस्या यह होती है कि प्रथम एवं द्वितीय कोटि प्राप्त विद्यार्थियों के मध्य का अंतर द्वितीय एवं तृतीय कोटि प्राप्त विद्यार्थियों के मध्य के अंतर के समान नहीं होता। 50 अंक में से प्रथम कोटि वाला विद्यार्थी 48 अंक प्राप्त कर सकता है, द्वितीय 47 अंक तथा तृतीय 40 अंक प्राप्त कर सकता है। जैसा कि आप देख सकते हैं कि प्रथम एवं द्वितीय कोटि प्राप्त विद्यार्थियों का अंतर द्वितीय एवं तृतीय कोटि प्राप्त विद्यार्थियों के समान नहों है। इससे मनोवैज्ञानिक मापन के सापेक्षिक स्वरूप स्पष्ट भी होते हैं। 2.मनोवैज्ञानिक उपकरणों का सापेक्षिक स्वरूप : मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का निर्माण किसी संदर्भ विशेष के प्रमुख पक्षों को ध्यान में रखकर किया जाता है। उदाहरण के लिए, शहरी क्षेत्र के छात्रों के लिए विकसित परीक्षण में शहरी क्षेत्र के उद्दीपकों से संबंधित एकांश से परिचय आवश्यक है - बहुमंजिली इमारतें, हवाई जहाज, मेट्रो रेल आदि। ऐसा परीक्षण जनजातीय क्षेत्रों के बच्चों के लिए उपयुक्त नहीं होगा। वे अधिक सहज उन एकांशों से होंगे जिनमें उनके परिवेश के पेड़-पौधे व जीव-जंतुओं के वर्णन मिलते हैं। इसी प्रकार पश्चिमी देशों में विकसित परीक्षण भारतीय संदर्भ में उपयुक्त नहीं हो सकते हैं। ऐसे परीक्षणों को ध्यानपूर्वक परिष्कृत किया जाना चाहिए तथा उन्हें जिन संदर्भों में प्रयुक्त करना हो, उनकी विशेषताओं से उन्हें अनुकूलित होना चाहिए।

3. गुणात्मक प्रदत्तों की आत्मपरक व्याख्या : गुणात्मक अध्ययनों में प्रदत्त प्रायः आत्मपरक होते हैं क्योंकि इनकी व्याख्या अनुसंधानकर्ता एवं प्रदत्त प्रदान करने वाले करते हैं। एक व्यक्ति की व्याख्या दूसरे से भिन्न हो सकती है। अतः प्राय: यह सुझाव दिया जाता है कि गुणात्मक अध्ययनों के संदर्भ में क्षेत्र अध्ययन एक से अधिक शोधकर्ताओं द्वारा किया जाना चाहिए जो अध्ययन के अंत में बैठकर अपने प्रेक्षणों पर विमर्श करें तथा उसको अंतिम स्वरूप देने के पहले स्वयं एक सहमत बिंदु पर पहुँचे। वस्तुतः यदि ऐसे सार्थक विमर्श में प्रतिक्रियादाताओं को भी सम्मिलित किया जाए तो अधिक अच्छा होगा।

नैतिक मुद्दे

जैसा कि आप जानते हैं मनोवैज्ञानिक अनुसंधान मानव व्यवहार से संबंधित होते हैं, इसलिए अनुसंधानकर्ता से यह आशा की जाती है कि वह अपने अध्ययन के दौरान नैतिकता (अथवा नैतिक सिद्धांत) का पालन करेगा। ये सिद्धांत हैं: अध्ययन में भाग लेने के लिए व्यक्ति की निजता एवं रुचि का सम्मान, अध्ययन के प्रतिभागियों के उपकार अथवा किसी खतरे से उनकी सुरक्षा तथा अनुसंधान के लाभ में सभी प्रतिभागियों की भागीदारी। इन नैतिक सिद्धांतों के कुछ महत्वपूर्ण पक्षों का वर्णन आगे किया जा रहा है :

1. स्वैच्छिक सहभागिता : यह सिद्धांत कहता है कि जिन व्यक्तियों पर आप अध्ययन करने जा रहे हैं उन्हें यह निर्धारित करने का विकल्प होना चाहिए कि वे अध्ययन में भाग लेंगे अथवा नहीं। प्रतिभागियों को इस बात का विकल्प होना चाहिए कि वह बिना किसी प्रपीड़न अथवा प्रलोभन के अध्ययन में भाग लें और अनुसंधान के आरंभ होने के बाद उससे अलग होने पर उन्हें किसी भी प्रकार से दंडित नहीं किया जाए।

2. सूचित सहमति : यह आवश्यक है कि प्रतिभागी को यह पता होना चाहिए कि अध्ययन के दौरान उनके साथ क्या घटित होगा। सूचित सहमति के सिद्धांत के अनुसार, संभाव्य प्रतिभागियों को यह सूचना उनसे प्रदत्त संग्रह से पहले होनी चाहिए जिससे वे अध्ययन में भाग लेने के लिए सूचित निर्णय ले सकें। कुछ मनोवैज्ञानिक प्रयोगों में, प्रतिभागियों को प्रयोग के समय विद्युताघात दिया जाता है। कुछ अन्य अध्ययनों में आपत्तिजनक (घातक अथवा अप्रिय) उद्दीपक प्रस्तुत किए जाते हैं। हो सकता है कि उनसे कुछ व्यक्तिगत सूचनाएँ भी माँगी जाएँ जो प्राय: दूसरों को नहीं बताई जाती हैं। कुछ अध्ययनों में छलछद्म की तकनीक का उपयोग किया जाता है जिसमें प्रतिभागियों को इस बात का निर्देश दिया जाता है कि वे एक निश्चित तरीके से सोचें अथवा कल्पना करें तथा उनके निष्पादन के विषय में उनको झूठी सूचना अथवा प्रतिप्राप्ति दी जाती है (उदाहरण के लिए, आप बहुत बुद्धिमान हैं, आप अक्षम हैं)। इसलिए यह महत्वपूर्ण होता है कि प्रतिभागियों को वास्तविक रूप में अध्ययन प्रारंभ करने से पहले ही उसके स्वरूप के विषय में बता दिया जाना चाहिए। 3. स्पष्टीकरण : अध्ययन समाप्त हो जाने के बाद प्रतिभागियों को वे सब आवश्यक सूचनाएँ देनी चाहिए जिनसे वे अनुसंधान को ठीक से समझ सकें। यह उस समय सबसे आवश्यक हो जाता है जब अध्ययन में छलछद्म का उपयोग किया गया हो। स्पष्टीकरण का उद्देश्य यह होता है कि प्रतिभागी जिस शारीरिक एवं मानसिक दशा में अध्ययन में सम्मिलित हुए थे, अध्ययन समाप्त होने पर उसी दशा में पुन: वापस आ जाएँ। यह प्रतिभागियों को एक प्रकार से भरोसा दिलाने जैसा ही है। अध्ययन के समय छलछद्म के कारण उत्पन्न किसी दुश्चिता अथवा दुष्प्रभाव, जिसे प्रतिभागी ने अनुभव किया हो, को अनुसंधानकर्ता को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। 4. अध्ययन के परिणाम की भागीदारी : मनोवैज्ञानिक अनुसंधनों में प्रतिभागियों से सूचनाएँ संगृहीत करने के बाद हम अपने कार्य-स्थान पर वापस आते हैं, प्रदत्तों का विश्लेषण करते हैं एवं निष्कर्ष निकालते हैं। अनुसंधानकर्ता के लिए यह आवश्यक है कि वह प्रतिभागियों के पास वापस जाकर अध्ययन के परिणाम को उनको बताए। जब आप प्रदत्त संग्रह के लिए जाते हैं तो प्रतिभागी आपसे कुछ आशा रखते हैं। एक आशा यह होती है कि आपने अपने अध्ययन में उनके व्यवहारों की जो अन्वेषणा की है उसके विषय में उन्हें बताएँगे। अनुसंधानकर्ता के रूप में यह हमारा नैतिक कर्तव्य होता है कि हम उनसे वापस मिलें। इस अभ्यास के दो लाभ हैं। प्रथम, आप प्रतिभागियों की प्रत्याशा पूरी करते हैं। द्वितीय, प्रतिभागी परिणाम के विषय में अपने विचार बताएँगे जो आपको नयी अन्तर्दृष्ट्टि विकसित करने में सहायता कर सकते हैं। 5. प्रदत्त स्रोतों की गोपनीयता : अध्ययन में प्रतिभागियों को अपनी निजता का अधिकार होता है। अनुसंधानकर्ता को चाहिए कि वह उनकी निजता की रक्षा के लिए उनके द्वारा दी गई सूचनाओं को अत्यंत गोपनीय रखे। सूचना का उपयोग सिर्फ़ अनुसंधान के लिए किया जाना चाहिए और किसी भी दशा में यह किसी अन्य इच्छुक पक्ष के हाथ नहीं लगनी चाहिए। प्रतिभागियों की गोपनीयता की रक्षा का सबसे सशक्त तरीका यह है कि उनके पहचान का अभिलेख न तैयार किया जाए। कुछ तरह के अनुसंधानों में यह संभव नहीं होता है। ऐसी दशा में संकेत संख्या प्रदत्त पत्र पर अंकित कर दी जाती है तथा नामों को संकेतों से अलग रखा जाता है। पहचान सूची अनुसंधान कार्य समाप्त होने के उपरांत नष्ट कर दी जानी चाहिए।

प्रमुख पद

व्यक्ति अध्ययन, गोपनीयता, नियंत्रित समूह, सहसंबंधात्मक अनुसंधान, प्रदत्त, स्पष्टीकरण, आश्रित परिवर्त्य, प्रायोगिक समूह, प्रायोगिक विधि, समूह परीक्षण, परिकल्पना, अनाश्रित परिवर्त्य, वैयक्तिक परीक्षण, साक्षात्कार, ॠणात्मक सहसंबंध, मानक, वस्तुनिष्ठता, प्रेक्षण, निष्पादन परीक्षण, धनात्मक सहसंबंध, शक्ति परीक्षण, मनोवैज्ञानिक परीक्षण, गुणात्मक विधि, परिमाणात्मक विधि, प्रश्नावली, विश्वसनीयता, गति परीक्षण, संरंचित साक्षात्कार, सर्वेक्षण, असरंचंत साक्षात्कार, वैधता, परिवर्त्य

सारांश

  • मनोवैज्ञानिक अनुसंधान विवरण, पूर्वकथन, व्याख्या, व्यवहार-नियंत्रण तथा वस्तुनिष्ठ तरीके से उत्पादित ज्ञान के अनुप्योग के लिए किए जाते हैं। इसके चार चरण होते हैं: समस्या का संप्रत्ययन, प्रदत्त संग्रह, प्रदत्त विश्लेषण, तथा अनुसंधान निष्कर्ष निकालना और उसका पुनरीक्षण। मनोवैज्ञानिक अनुसंधान का एक ध्येय यह भी होता है कि किसी संदर्भ विशेष में घटित होने वाली घटनाओं और उनके अपने व्यवहार एवं अनुभव पर पड़ने वाले प्रभावों को आत्मपरक ढंग से खोजा एवं समझा जाए।
  • मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में विविध प्रकार के प्रदत्त; जैसे- जनांकिकीय, पर्यावरणीय, भौतिक, दैहिक तथा मनोवैज्ञानिक सूचनाएँ संगृहीत की जाती हैं। किंतु मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के प्रदत्त एक संदर्भ विशेष में स्थित होते हैं तथा वे प्रदत्त संग्रह करने वाले सिद्धांतों तथा विधियों से बंधे होते हैं।
  • सूचना संय्रह के लिए कई विधियों का उपयोग किया जाता है। प्रक्षण विधि का उपयोग व्यवहार का वर्णन करने के लिए किया जाता है। उसकी पहचान एक व्यवहार विशेष के चयन, उसके अभिलेखन एवं विश्लेषण से की जाती है। प्रक्षण प्राकृतिक दशा अथवा नियंत्रित प्रयोगशाला की दशा में किए जा सकते हैं। यह सहभागी अथवा असहभागी प्रकार का हो सकता है।
  • प्रायोगिक विधि कार्य-कारण संबंध को स्थापना में सहायता करती है। प्रायोगिक एवं नियंत्रित समूह का उपयोग करके अनाश्रित परिवर्त्य को उपस्थिति का प्रभाव आश्रित परिवर्त्य पर देखा जाता है।
  • सहसंबंधात्मक अनुसंधान का उद्देश्य परिवर्त्यों के मध्य के साहचर्य को खोज करना तथा पूर्वकथन करना है। दो परिव्र्यों के मध्य संबंध धनात्मक, शून्य अथवा ऋणात्मक हो सकता है तथा उनकी साहचर्य शक्ति का प्रसार +1.0 से 0.0 से लेकर -1.0 तक होता है।
  • सर्वेक्षण अनुसंधान का केंद्र विद्यमान वास्तविकता की सूचना देना है। सर्वेक्षण संरंचित तथा असंरंचित साक्षात्कार, डाक द्वारा भेजी गई प्रश्नावली तथा दूरभाष द्वारा संपन्न किए जाते हैं।
  • मनोवैज्ञानिक परीक्षण मानकीकृत एवं वस्तुनिष्ठ उपकरण होते हैं जो दूसरों की तुलना में किसी व्यक्ति की स्थिति जानने में सहायता करते हैं। परीक्षण वाचिक, अवाचिक और निष्पादन प्रकार के हो सकते हैं जो एक समय में एक व्यक्ति पर अथवा पूरे समूह पर किए जा सकते हैं।
  • व्यक्ति अध्ययन की विधि में किसी एक व्यक्ति के विषय में गहराई से सूचनाएँ प्राप्त की जाती हैं।
  • इन विधियों के उपयोग से संगृहीत प्रदत्तों का गुणात्मक तथा परिमाणात्मक विधियों द्वारा विश्लेषण किया जाता है। परिमाणात्मक विधियों में निष्कर्ष ज्ञात करने के लिए सांख्यिकीय प्रक्रियाओं का उपयोग किया जाता है। गुणात्मक अनुसंधन के अंर्गत विवरणात्मक विधि एवं विषय विश्लेषण विधि का उपयोग किया जाता है।
  • मनोवैज्ञानिक जाँच की निरपेक्ष शून्य बिंदु के अभाव, मनोवैज्ञानिक उपकरणों के सापेक्ष स्वरूप तथा गुणात्मक प्रदत्तों की आत्मपरक व्याख्या जैसी सीमाएँ हैं। प्रतिभागियों की स्वैच्छिक सहभागिता, उनकी सूचित सहमति तथा परिणामों के विषय में प्रतिभागियों से भागीदारी करने जैसे नैतिक सिद्धांतों को अनुसंधानकर्ता को ध्यान में रखना चाहिए।

समीक्षात्मक प्रश्न

1. वैज्ञानिक जाँच के लक्ष्य क्या होते हैं ?

2. वैज्ञानिक जाँच करने में अंतर्निहित विभिन्न चरणों का वर्णन कीजिए।

3. मनोवैज्ञानिक प्रदद्तों के स्वरूप की व्याख्या कीजिए।

4. प्रायोगिक तथा नियंत्रित समूह एक-दूसरे से कैसे भिन्न होते हैं? एक उदाहरण की सहायता से व्याख्या कीजिए।

5. एक अनुसंधानकर्ता साइकिल चलाने की गति एवं लोगों की उपस्थिति के मध्य संबंध का अध्ययन कर रहा है। एक उपयुक्त परिकल्पना का निर्माण कीजिए तथा अनाभ्रित एवं आश्रित परिवर्ग्यों की पहचान कीजिए।

6. जाँच की विधि के रूप में प्रायोगिक विधि के गुणों एवं अवगुणों की व्याख्या कीजिए।

7. डॉ. कृष्णन व्यवहार को बिना प्रभावित अथवा नियंत्रित किए एक नर्सरी विद्यालय में बच्चों के खेलकूद वाले व्यवहार का प्रेक्षण करने एवं अभिलेख तैयार करने जा रहे हैं। इसमें अनुसंधान की कौन-सी विधि प्रयुक्त हुई है? इसकी प्रक्रिया की व्याख्या कीजिए तथा इसके गुणों एवं अवगुणों का वर्णन कीजिए।

8. उन दो स्थितियों का उदाहरण दीजिए जहाँ सर्वेक्षण विधि का उपयोग किया जा सकता है। इस विधि की सीमाएँ क्या हैं?

9. साक्षात्कार एवं प्रश्नावली में अंतर कीजिए।

10. एक मानकीकृत परीक्षण की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

11. मनोवैज्ञानिक जाँच की सीमाओं का वर्णन कीजिए।

12. मनोवैज्ञानिक जाँच करते समय एक मनोवैज्ञानिक को किन नैतिक मार्गदर्शी सिद्धांतों का पालन करना चाहिए?

परियोजना विचार

1. कक्षा पाँच एवं नौ के अलग-अलग 10 छात्रों का एक प्रतिदर्श लेकर उनकी विद्यालय के बाद की गतिविधियों का सर्वेक्षण कीजिए। वे विभिन्न प्रकार की गतिविधियों को कितना समय देते हैं; जैसे- अध्ययन में, खेलकूद में, टेलीविजन देखने में तथा अन्य रुचियों में, उसका पता लगाइए। क्या आप कोई अंतर पाते हैं? आप क्या निष्कर्ष निकालते हैं और आप क्या सलाह देंगे?

2. आप अपने समूह में कविताओं के पाठ का उसके सीखने पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन कीजिए। छः वर्ष के 10 बच्चों को लीजिए तथा उन्हें दो समूहों में विभाजित कीजिए। एक समूह को एक नयी कविता याद करने को दीजिए तथा उन्हें उच्च स्वर में 15 मिनट तक पढ़ने का निर्देश दीजिए। दूसरे समूह को वही कविता याद करने को कहिए किंतु उन्हें निर्देश दीजिए कि वे उच्च स्वर में न पढ़ें। 15 मिनट बाद दोनों समूहों को कविता का पुनःस्मरण करने को कहिए। ध्यान रहे कि दोनों समूहों को अलग-अलग रखा जाए। कविता के पुनःस्मरण के बाद प्रेक्षण को नोट कीजिए।

आपके द्वारा प्रयुक्त अनुसंधान विधि, परिकल्पना, परिवर्त्य एवं प्रायोगिक अभिकल्प के प्रकार की पहचान कीजिए। दूसरे समूह से अपने प्रेक्षण की तुलना कीजिए एवं अपने परिणाम के विषय में कक्षा में अपने अध्यापक से विमर्श कीजिए।



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