अध्याय 05 अधिकार

परिचय

अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में हम अक्सर अधिकारों की चर्चा करते हैं। लोकतांत्रिक देश के सदस्य होने के नाते हम वोट देने, राजनीतिक पार्टियाँ बनाने और चुनाव लड़ने जैसे अधिकारों की बात करते हैं। लोग अधिकारों के लिए नई-नई माँग भी कर रहे हैं। आम तौर पर स्वीकृत नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के अलावा सूचना के अधिकार, स्वच्छ वायु के अधिकार तथा सुरक्षित पेयजल के अधिकार का भी दावा जताया जा रहा है। जहाँ हम प्राय: अपने राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन से जुड़े अधिकारों का दावा करते हैं, वहों हम सामाजिक और वैयक्तिक संबंधों में भी अधिकार की भाषा का प्रयोग करते हैं। मसलन, हम अपना कॅरियर चुनने और देश में बेरोकटोक घूमने के अधिकारों की बात करते हैं। और तो और, न केवल वयस्क मनुष्यों के लिए बल्कि बच्चों, गर्भस्थ भ्रूणों और पशुओं के लिए भी अधिकारों का दावा किया जाता है। इस प्रकार विभिन्न लोग विविध तरीकों से अधिकार की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं। इस अध्याय में हम इस अवधारणा से जुड़े सवालों की पड़ताल करेंगे।

  • जब हम अधिकारों की बात करते हैं तो हमारा आशय क्या है?

  • अधिकारों के हमारे दावों की बुनियाद क्या है?

  • अधिकारों से किन उद्देश्यों की पूर्ति होती है और वे इतने महत्त्वपूर्ण क्यों हैं?

5.1 अधिकार क्या हैं?

अधिकार मूल रूप से हकदारी अथवा ऐसा दावा है जिसका औचित्य सिद्ध हो। यह बताता है कि नागरिक, व्यक्ति और मनुष्य होने के नाते हम किसके हकदार हैं। यह ऐसी चीज़ है जिसको हम अपना प्राप्य समझते हैं; ऐसी चीज़ जिसे शेष समाज ऐसे वैध दावे के रूप में स्वीकार करे जिसका अनुमोदन अनिवार्य हो। इसका यह मतलब नहीं है कि हर वह चीज़, जिसे मैं ज़रूरी और वांछनीय समझूँ, अधिकार है। मेरी इच्छा हो सकती है कि स्कूल के लिए निर्धारित पोशाक की बजाय अपनी पसंद के कपड़े पहनूँ। मैं देर रात तक घर से बाहर रहना चाह सकता हूँ, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मुझे स्कूल के लिए अपनी इच्छानुसार जो चाूूँ वह पहनने अथवा जब चाहूँ तब घर लौटने का अधिकार है। मैं जो चाहता हूँ और जिसके लिए मैं स्वयं को हकदार समझता हूँ तथा जिनका बतौर अधिकार उल्लेख किया जा सकता है, के बीच फर्क होता है।

अधिकार उन बातों का द्योतक है, जिन्हें मैं और अन्य लोग सम्मान और गरिमा का जीवन बसर करने के लिए महत्त्वपूर्ण और आवश्यक समझते हैं। उदाहरण के लिए, आजीविका का अधिकार सम्मानजनक जीवन जीने के लिए ज़रूरी है। लाभकर रोज़गार में नियोजित होना व्यक्ति को आर्थिक स्वतंत्रता देता है, इसीलिए यह उसकी गरिमा के लिए प्रमुख है। अपनी बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति हमें अपनी प्रतिभा और रुचियों की ओर प्रवृत्त होने की स्वतंत्रता प्रदान करती है यहाँ हम स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अधिकार का उदाहरण ले सकते हैं। यह अधिकार हमें सृजनात्मक और मौलिक होने का मौका देता है - चाहे यह लेखन के क्षेत्र में हो अथवा नृत्य, संगीत या किसी अन्य रचनात्मक क्रियाकलाप में। लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक सरकार के लिए भी महत्त्वपूर्ण होती है, क्योंकि यह विश्वासों और मतों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति की अनुमति देती है। आजीविका का अधिकार या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे अधिकार समाज में रहने वाले तमाम लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। इसी वजह से उनकी प्रकृति विश्वजनीन कही जाती हैं।

अधिकारों की दावेदारी का दूसरा आधार यह है कि वे हमारी बेहतरी के लिए आवश्यक हैं। ये लोगों को उनकी दक्षता और प्रतिभा विकसित करने में सहयोग देते हैं। उदाहरणार्थ, शिक्षा का अधिकार हमारी तर्क-शक्ति विकसित करने में मदद करता है, हमें उपयोगी कौशल प्रदान करता है और जीवन में सूझ-बूझ के साथ चयन करने में सक्षम बनाता है। व्यक्ति के कल्याण के लिए इस हद तक शिक्षा को अनिवार्य समझा जाता है कि उसे सार्वभौम अधिकार माना गया है। बहरहाल, अगर कोई कार्यकलाप हमारे स्वास्थ्य और कल्याण के लिए नुकसानदेह है, तो उसे अधिकार नहीं माना जा सकता। उदाहरण के लिए, डॉक्टरी शोध ने यह प्रमाणित किया है कि नशीली दवाएँ स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं और चूँकि ये अन्यों के साथ हमारे रिश्तों पर दुष्प्रभाव डालती हैं, इसलिए हम यह दावा नहीं कर सकते कि हमें नशीले पदार्थों के सेवन करने या सुई लगाने या धूम्रपान का अधिकार होना चाहिए। धूम्रपान के मामले में तो यह उन लोगों के स्वास्थ्य के लिए भी नुकसानदेह है, जो धूम्रपान करने वालों के आस-पास होते हैं। नशीले पदार्थ न केवल हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाते हैं, बल्कि वे कभी-कभी हमारे आचरण के रंग-ढंग को बदल देते हैं और हमें अन्य लोगों के लिए खतरा करार देते हैं। अधिकारों की हमारी परिभाषा के अंतर्गत धूम्रपान अथवा प्रतिबंधित दवाओं के सेवन को अधिकार के रूप में मान्य नहीं किया जा सकता।

आओ कुछ करके सीखे

पिछले कुछ महीनों के अखबारों को बाँचिए और उन जन आंदोलनों और संगठनों की सूची बनाइये जिन्होंने नए किस्म के अधिकारों की माँग की है।

5.2 अधिकार कहाँ से आते हैं?

सतरहवीं और अठारहवीं शताब्दी में राजनीतिक सिद्धांतकार तर्क देते थे कि हमारे लिए अधिकार प्रकृति या ईश्वर प्रदत्त हैं। हमें जन्म से वे अधिकार प्राप्त हैं। परिणामतः कोई व्यक्ति या शासक उन्हें हमसे छीन नहीं सकता। उन्होंने मनुष्य के तीन प्राकृतिक अधिकार चिन्हित किये थे- जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार और संपत्ति का अधिकार। अन्य तमाम अधिकार इन बुनियादी अधिकारों से ही निकले हैं। हम इन अधिकारों का दावा करें या न करें, व्यक्ति होने के नाते हमें ये प्राप्त हैं। यह विचार कि हमें जन्म से ही कुछ खास अधिकार प्राप्त हैं, काफी शक्तिशाली अवधारणा है। क्योंकि इसका अर्थ यह है ‘जो ईश्वर प्रदत्त है’ और उन्हें कोई मानव शासक या राज्य हमसे छीन नहीं सकता। प्राकृतिक अधिकारों के विचार का इस्तेमाल राज्यों अथवा सरकारों के द्वारा स्वेच्छाचारी शाक्ति के प्रयोग का विरोध करने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए किया जाता था।

हाल के वर्षों में प्राकृतिक अधिकार शब्द से ज़्यादा मानवाधिकार शब्द का प्रयोग हो रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि उनके प्राकृतिक होने का विचार आज अस्वीकार्य लगता है। ऐसा मानना भी मुश्किल होता जा रहा है कि कुछ नियम-आदर्श ऐसे हैं जिन्हें प्रकृति या ईश्वर ने रचा है। अधिकारों को ऐसी गारंटियों के रूप में देखने की प्रवृत्ति बढ़ी है जिन्हें मनुष्य ने एक अच्छा जीवन जीने के लिए स्वयं ही खोजा या पाया है।

मानव अधिकारों के पीछे मूल मान्यता यह है कि सभी लोग, मनुष्य होने मात्र से कुछ चीज़ों को पाने के अधिकारी हैं। एक मानव के रूप में हर आदमी विशिष्ट और समान महत्त्व का है। इसका अर्थ यह है कि एक आंतरिक दृष्टि से सभी मनुष्य समान हैं और कोई भी व्यक्ति दूसरों का नौकर होने के लिए पैदा नहीं हुआ है। सभी मनुष्य एक आन्तरिक मूल्य से संपन्न होते हैं और उन्हें स्वतंत्र रहने तथा अपनी पूरी संभावना को साकार करने का समान अवसर मिलना चाहिए। इस विचार का इस्तेमाल नस्ल, जाति, धर्म और लिंग पर आधारित मौजूदा असमानताओं को चुनौती देने के लिए किया जाता रहा है।

अधिकारों की इसी समझदारी पर संयुक्त राष्ट्र के मानव अधिकारों का सार्वभौम घोषणा-पत्र बना है। यह उन दावों को मान्यता देने का प्रयास करता है, जिन्हें विश्व समुदाय सामूहिक रूप से गरिमा और आत्मसम्मान से परिपूर्ण जिंदगी जीने के लिए आवश्यक मानता है।

मानवीय गरिमा के बारे में कांट

“…हर चीज़ की या तो कीमत होती है या गरिमा। जिसकी कीमत होती है, उसकी जगह उसके समतुल्य कोई दूसरी चीज़ भी रखी जा सकती है। इसके विपरीत, जो तमाम कीमतों से ऊपर हो और जिसका कोई समतुल्य न हो, उसकी गरिमा होती है।”

अन्य प्राणियों से अलग मनुष्य की एक गरिमा होती है। इस कारण से वे अपने आप में बहुमूल्य हैं। 18 वीं सदी के जर्मन दार्शानिक इमैनुएल कांट के लिए इस साधारण विचार का गहरा अर्थ था। उनके लिए इसका मतलब था कि हर मनुष्य की गरिमा है और मनुष्य होने के नाते उसके साथ इसी के अनुकूल बर्ताव किया जाना चाहिए। मनुष्य अशिक्षित हो सकता है, गरीब या शक्तिहीन हो सकता है। वह बेईमान अथवा अनैतिक भी हो सकता है। फिर भी वह एक मनुष्य है और न्यूनतम ही सही, प्रतिष्ठा पाने का हकदार है। कांट के लिए, लोगों के साथ गरिमामय बर्ताव करने का अर्थ था उनके साथ नैतिकता से पेश आना। यह विचार उन लोगों के लिए एक संबल था जो लोग सामाजिक ऊँच-नीच के खिलाफ और मानवाधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे थे।

कांट के विचार ने अधिकार की एक नैतिक अवधारणा प्रस्तुत की। पहला, हमें दूसरों के साथ वैसा ही आचरण करना चाहिए, जैसा हम अपने लिए दूसरों से अपेक्षा करते हैं। दूसरे, हमें यह निश्चित करना चाहिए कि हम दूसरों को अपनी स्वार्थसिद्धि का साधन नहीं बनायेंगे। हमें लोगों के साथ उस तरह का बर्ताव नहीं करना चाहिए जैसा कि हम कलम, कार या घोड़ा के साथ करते हैं। हमें लोगों का सम्मान करना चाहिए, इसलिए नहीं कि वे हमारे लिए उपयोगी हैं, बर्कि इसलिए कि वे, आखिरकार, मनुष्य हैं।

पूरी दुनिया के उत्पीड़ित जन सार्वभौम मानवाधिकार की अवधारणा का इस्तेमाल उन कानूनों को चुनौती देने के लिए कर रहे हैं, जो उन्हें पृथक करने वाले और समान अवसरों तथा अधिकारों से वंचित करते हैं। वे मानवता की अवधारणा की पुनर्व्याख्या के लिए संघर्ष कर रहे हैं, ताकि वे खुद को इसमें शामिल कर सकें।

कुछ संघर्ष सफल भी हुए हैं, जैसे दास प्रथा का उन्मूलन हुआ; लेकिन कुछ अन्य संघर्षों में अभी तक सीमित सफलता ही मिल पाई है। लेकिन आज भी अनेक ऐसे समुदाय हैं, जो मानवता को इस प्रकार परिभाषित करने के संघर्ष में लगे हैं, जो उनको भी शामिल करे।

विविध समाजों में ज्यों-ज्यों नए खतरे और चुनौतियाँ उभरती आयी हैं, त्यों-त्यों उन मानवाधिकारों की सूची लगातार बढ़ती गई है, जिनका लोगों ने दावा किया है। मसलन, हम आज प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा की ज़रूरत के प्रति काफी सचेत हैं और इसने स्वच्छ हवा, शुद्ध जल, टिकाऊ विकास जैसे अधिकारों की माँगें पैदा की हैं। युद्ध या प्राकृतिक संकट के दौरान अनेक लोग, खास कर महिलाएँ, बच्चे या बीमार जिन बदलावों को झेलते हैं, उनके बारे में नई जागरूकता ने आजीविका के अधिकार, बच्चों के अधिकार और ऐसे अन्य अधिकारों की माँग भी पैदा की है। ऐसे दावे मानव गरिमा के अतिक्रमण के प्रति नैतिक आक्रोश का भाव व्यक्त करते हैं और वे समस्त मानव समुदाय हेतु अधिकारों के प्रयोग और विस्तार के लिए लोगों से एकजुट होने का आह्वान करते हैं। हमें इन दावों के विस्तार तथा प्रभाव को कम करके नहीं आँकना चाहिए। उन्हें अक्सर व्यापक समर्थन हासिल होता है। आपने शायद पॉप स्टार बॉब गेल्डॉफ की ओर से अफ्रीका में गरीबी खत्म करने के लिए पश्चिमी मुल्कों की सरकारों से की गई हाल की अपील के बारे में सुना होगा और टीवी में देखा भी होगा कि उसे आम जनता का कितना प्रबल समर्थन हासिल हुआ।

5.3 कानूनी अधिकार और राज्यसत्ता

मानवाधिकारों के दावों की नैतिक अपील चाहे जितनी हो, उनकी सफलता की डिग्री कुछ कारकों पर निर्भर है। इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है-सरकारों और कानून का समर्थन। यही कारण है कि अधिकारों की कानूनी मान्यता को इतनी अहमियत दी जाती है।

अनेक देशों में अधिकारों के विधेयक वहाँ के संविधान में प्रतिष्ठित रहते हैं। संविधान देशों के सर्वोच्च कानून के द्योतक होते हैं, इसलिए कुछ खास अधिकारों की संवैधानिक मान्यता उन्हें बुनियादी महत्त्व प्रदान करती है। अपने देश में इन्हें हम मौलिक अधिकार कहते हैं। अन्य कानूनों और नीतियों से इन संवैधानिक अधिकारों के सम्मान की अपेक्षा की जाती है। संविधान में उन अधिकारों का उल्लेख रहता है, जो बुनियादी महत्त्व के माने जाते हैं। कुछ अन्य ऐसे अधिकारों का भी उल्लेख संभव है, जो किसी देश के विशिष्ट इतिहास और रीति-रिवाज़ों के चलते महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, भारत में अस्पृश्यता पर प्रतिबंध का प्रावधान है, जो देश की परंपरागत सामाजिक कुप्रथा का ध्यान दिलाता है।

हमारे दावों को मिलने वाली कानूनी और संवैधानिक मान्यता इतनी महत्त्वपूर्ण होती है कि बहुत से सिद्धांतकार अधिकार को ऐसे दावों के रूप में परिभाषित करते हैं, जिन्हें राज्य ने मान्य किया हो। कानूनी मान्यता से यकीनन हमारे अधिकारों को समाज में एक खास दर्जा मिलता है, लेकिन कानूनी मान्यता के आधार पर किसी अधिकार का दावा नहीं किया जा सकता। जैसी कि पहले चर्चा की जा चुकी है। अधिकारों का धीरे-धीरे विस्तार और पुनर्व्याख्या हो रही है। ऐसा अभी तक अलग रहे समूहों को शामिल करने और गरिमापूर्ण एवं सम्मानजनक जीवन की हमारी नई समझदारी के उद्देश्य से हो रहा है।

अधिकतर मामलों में अधिकार राज्य से किए जाने वाले दावे हैं। अधिकारों के माध्यम से हम राज्यसत्ता से कुछ माँग करते हैं। जब हम शिक्षा के अधिकार पर जोर देते हैं, तो हम राज्य से बुनियादी शिक्षा के लिए प्रावधान करने की माँग करते होते हैं। समाज भी शिक्षा के महत्त्व को स्वीकार कर सकता है और अपनी तरफ से इसमें सहयोग कर सकता है। विभिन्न समूह विद्यालय खोल सकते हैं और छात्रवृत्तियों के लिए निधि जमा कर सकते हैं ताकि तमाम वर्गों के बच्चे शिक्षा का लाभ प्राप्त कर सकें। लेकिन मुख्यतः यह जिम्मेवारी राज्य की बनती है। राज्य को ही आवश्यक उपायों का प्रवर्तन करना होता है, जिससे हमारे शिक्षा के अधिकार की पूर्ति सुनिश्चित हो।

इस प्रकार, अधिकार राज्य को कुछ खास तरीकों से कार्य करने के लिए वैधानिक दायित्व सौंपते हैं। प्रत्येक अधिकार निर्देशित करता है कि राज्य के लिए क्या करने योग्य है और क्या नहीं। उदाहरण के लिए, मेरा जीवन जीने का अधिकार राज्य को ऐसे कानून बनाने के लिए बाध्य करता है, जो दूसरों के द्वारा क्षति पहुँचाने से मुझे बचा सके। यह अधिकार राज्य से माँग करता है कि वह मुझे चोट या नुकसान पहुँचाने वालों को दंडित करे। यदि कोई समाज महसूस करता है कि जीने के अधिकार का मतलब अच्छे स्तर के जीवन का अधिकार है, तो वह राजसत्ता से ऐसी नीतियों के अनुपालन की अपेक्षा करता है, जो स्वस्थ जीवन के लिए स्वच्छ पर्यावरण और अन्य आवश्यक निर्धारकों का प्रावधान करें। दूसरे शब्दों में, मेरा अधिकार यहाँ राजसत्ता को खास तरीके से काम करने के कुछ वैधानिक दायित्व सौंपता है।

अधिकार सिर्फ यह ही नहीं बताते कि राज्य को क्या करना है, वे यह भी बताते हैं कि राज्य को क्या कुछ नहीं करना है। मसलन, किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार कहता है कि राजसत्ता महज अपनी मर्जी से उसे गिरफ्तार नहीं कर सकती। अगर वह किसी को सलाखों के पीछे करना चाहती है, तो उसे इस कार्रवाई को जायज ठहराना पड़ेगा, उसे किसी न्यायालय के समक्ष इस व्यक्ति की स्वतंत्रता में कटौती करने का कारण बताना होगा। इसीलिए, मुझे पकड़ने के पहले गिरफ्तारी का वारंट दिखाना पुलिस के लिए आवश्यक होता है। इस प्रकार मेरे अधिकार राजसत्ता पर कुछ अंकुश भी लगाते हैं।

दूसरे तरीके से कहा जाए, तो हमारे अधिकार यह सुनिश्चित करते हैं कि राज्य की सत्ता वैयक्तिक जीवन और स्वतंत्रता की मर्यादा का उल्लंघन किये बगैर काम करे। राज्य संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न सत्ता हो सकता है, उसके द्वारा निर्मित कानून बलपूर्वक लागू किए जा सकते हैं लेकिन संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न राज्य का अस्तित्व अपने लिए नहीं, बल्कि व्यक्ति के हित के लिए होता है। इसमें जनता का ही अधिक महत्त्व है और सत्तारूढ़ सरकार को उसके ही कल्याण के लिए काम करना होता है। शासक अपनी कार्यवाहियों के लिए जवाबदेह है और उसे हरगिज नहीं भूलना चाहिए कि कानून लोगों की भलाई सुनिश्चित करने के लिए ही होते हैं।

आओ कुछ करके सीखे

पिछले कुछ दिनो के अखबारों को देखिए और अधिकारों के उल्लंघन के मामलों की तलाश कीजिए। सरकार और समाज के लोगों को अधिकारों के उल्लंघन को रोकने के लिए क्या करना चाहिए?

5.4 अधिकारों के प्रकार

अधिकतर लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ राजनीतिक अधिकारों का घोषणापत्र बनाने से अपनी शुरुआत करती हैं। राजनीतिक अधिकार नागरिकों को कानून के समक्ष बराबरी तथा राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी का हक देते हैं। इनमें वोट देने और प्रतिनिधि चुनने, चुनाव लड़ने, राजनीतिक पार्टियाँ बनाने या उनमें शामिल होने जैसे अधिकार शामिल हैं। राजनीतिक अधिकार नागरिक स्वतंत्रताओं से जुड़े होते हैं। नागरिक स्वतंत्रता का अर्थ है-स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायिक जाँच का अधिकार, विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार, प्रतिवाद करने तथा असहमति प्रकट करने का नागरिक स्वतंत्रता और राजनीतिक अधिकार मिलकर किसी सरकार की लोकतांत्रिक प्रणाली की बुनियाद का निर्माण करते हैं। लेकिन जैसा कि पहले बताया गया है, अधिकारों का उद्देश्य लोगों के कल्याण की हिफाजत करना होता है। सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह बनाकर, शासकों की अपेक्षा लोगों के सरोकार को अधिक महत्त्व देकर और तमाम लोगों के लिए सरकार के निर्णयों को प्रभावित करने का मौका सुनिश्चित कर राजनीतिक अधिकार इसमें सहयोग करते हैं।

राजनीतिक भागीदारी का अपना अधिकार पूरी तरह से हम तभी अमल में ला सकते हैं जब भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य जैसी हमारी बुनियादी ज़रूरतें पूरी हों। फुटपाथ पर रहने और इन बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए संघर्ष करने वालों के लिए अपने-आप में राजनीतिक अधिकार का कोई मूल्य नहीं है। उन्हें पहले तो अपनी बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति हेतु पर्याप्त मज़दूरी और मेहनत की उचित परिस्थितियों जैसी कतिपय सुविधाएँ चाहिएँ। इसीलिए लोकतांत्रिक समाज इन दायित्वों को स्वीकार कर रहे हैं और आर्थिक अधिकार मुहैया कर रहे हैं। कुछ देशों में नागरिक, खासकर निम्न आय वाले नागरिक, आवास और चिकित्सा जैसी सुविधाएँ राज्य से प्राप्त करते हैं। कुछ अन्य देशों में बेरोजगार व्यक्ति कुछ न्यूनतम भत्रा पाते हैं, ताकि वे अपनी बुनियादी ज़रूरतें पूरी कर सकें। भारत में, सरकार ने ग्रामीण और शहरी गरीबों की मदद के लिए अन्य कार्यवाहियों के साथ हाल में ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की शुरुआत की है।

वाद-विवाद-संवाद

संस्कृति के अधिकार का मतलब है कि किसी को भी ऐसी फिल्म बनाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए जो किसी को धार्मिक या सांस्कृतिक आस्थाओं को चोट पहुँचाए।

आजकल, अधिकाधिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों के साथ नागरिकों के सांस्कृतिक दावों को भी मान्यता दे रही हैं। अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा पाने का अधिकार, अपनी भाषा और संस्कृति के शिक्षण के लिए संस्थाएँ बनाने के अधिकार को बेहतर जिंदगी जीने के लिए आवश्यक माना जा रहा है।

चिंतन-मंथन

समूह या समुदाय विशेष को दिए गए निम्न अधिकारों में से कौन-से न्यायोचित हैं? चर्चा कीजिए-

  • एक शहर में जैन समुदाय के लोगों ने अपना विद्यालय खोला और उसमें केवल अपने समुदाय के छात्र-छात्राओं को ही प्रवेश दिया।

  • हिमाचल प्रदेश में वहाँ के स्थायी निवासियों के अलावा बाकी लोग जमीन या अन्य अचल संपत्ति नहीं खरीद सकते।

  • एक सह शिक्षा विद्यालय के प्रधानाध्यापक ने एक सर्कुलर जारी किया कि कोई भी छात्रा किसी भी प्रकार का पश्चिमी परिधान नहीं पहनेगी।

  • हरियाणा की एक पंचायत ने निर्णय दिया कि अलग-अलग जातियों के जिस लड़के और लड़की ने शादी कर ली थी, वे अब गाँव में नहीं रहेंगे।

इस प्रकार लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में अधिकारों की सूची लगातार बढ़ती गई है। कुछ अधिकार जैसेजीने का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, समान व्यवहार का अधिकार और राजनीतिक भागीदारी का अधिकार, ऐसे बुनियादी अधिकार के रूप में मान्य हैं, जिन्हें प्राथमिकता देनी ही है। शालीन जीवनयापन के लिए आवश्यक अन्य स्थितियाँ भी न्यायोचित दावों अथवा अधिकारों के रूप में मान्य की जा रही हैं।

5.5 अधिकार और जिम्मेदारियाँ

अधिकार न केवल राज्य पर जिम्मेदारी डालते हैं कि वह खास तरीके से काम करे बल्कि हम सब पर भी जिम्मेदारी आयद करते हैं। उदाहरण के लिए टिकाऊ विकास का मामला लें। हमारे अधिकार हमें याद दिलाते हैं कि इसके लिए न केवल राज्य को कुछ कदम उठाने हैं, बल्कि हमें भी इस दिशा में प्रयास करने हैं। अधिकार हमें बाध्य करते हैं कि हम अपनी निजी ज़रूरतों और हितों की ही न सोचें, कुछ ऐसी चीज़ों की भी रक्षा करें, जो हम सब के लिए हितकर हैं। ओजोन परत की हिफाजत करना, वायु और जल प्रदूषण कम से कम करना, नए वृक्ष लगाकर और जंगलों की कटाई रोक कर हरियाली बरकरार रखना, पारिस्थितिकीय संतुलन कायम रखना आदि ऐसी चीज़े हैं, जो हम सब के लिए अनिवार्य हैं। ये आम भलाई की बातें हैं, जिनका पालन हमें अपनी और भावी पीढ़ियों की हिफाजत के लिए भी अवश्य करना चाहिए। आने वाली पीढ़ियों को भी सुरक्षित और स्वच्छ दुनिया पाने का हक है, इसके बिना वे बेहतर जीवन नहीं जी सकतीं।

दूसरे, अधिकार यह अपेक्षा करते हैं कि मैं अन्य लोगों के अधिकारों का सम्मान करूँ। अगर मैं कहता हूँ कि मुझे अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का अधिकार मिलना ही चाहिए तो मुझे दूसरों को भी यही अधिकार देना होगा। अगर मैं अपनी पसंद के कपड़े पहनने में, संगीत सुनने में दूसरों का हस्तक्षेप नहीं चाहता, तो मुझे भी दूसरों की पसंदगी में दखलदांजी से बचना होगा। मुझे उन्हें भी उनकी पसंद के कपड़े या संगीत चुनने की स्वतंत्रता देनी होगी। मैं स्वतंत्र भाषण देने के अधिकार का इस्तेमाल अपने पड़ोसी की हत्या के लिए भीड़ को उकसाने के लिए नहीं कर सकता। अपने अधिकारों का प्रयोग करने के लिए मैं दूसरों को उनके अधिकारों से वंचित नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में, मेरे अधिकार सब के लिए बराबर और एक ही अधिकार के सिद्धांत से सीमाबद्ध हैं।

तीसरे, टकराव की स्थिति में हमें अपने अधिकारों को संतुलित करना होता है। मसलन, अभिव्यक्ति की आजादी का मेरा अधिकार मुझे तस्वीर लेने की अनुमति देता है, लेकिन अगर मैं अपने घर में नहाते हुए किसी व्यक्ति की उसकी इजाजत के बिना तस्वीर ले लूँ और उसे इंटरनेट में डाल दूँ, तो यह उसके गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन होगा।

चौथे, नागरिकों को अपने अधिकारों पर लगाए जाने वाले नियंत्रणों के बारे में चौकस रहना होगा। आजकल एक विषय जिस पर बहुत अधिक चर्चा हो रही है। यह बढ़ते प्रतिबंधों से संबंधित है। ये प्रतिबंध कई सरकारें राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर लोगों की नागरिक स्वतंत्रताओं पर लगा रही हैं। नागरिकों के अधिकारों और भलाई की रक्षा के लिए ज़रूरी मान कर राष्ट्रीय सुरक्षा की हिफ़ाजत का समर्थन किया जा सकता है। लेकिन किसी बिंदु पर सुरक्षा के लिए आवश्यक मान कर थोपे गये प्रतिबंध अपने-आप में लोगों के अधिकारों के लिए खतरा बन जायें तो? क्या आतंकी बमबारी की धमकी का सामना करते राष्ट्र को अपने नागरिकों की आजादी छीन लेने की इज़ाज़त दी जा सकती है? क्या उसे महज संदेह के आधार पर किसी को गिरफ्तार करने की अनुमति मिलनी चाहिए? क्या उसे लोगों की चिट्ठियाँ देखने या फोन टेप करने की छूट दी जा सकती है? क्या सच कबूल करवाने के लिए उसे यातना का सहारा लेने दिया जाना चाहिए? ऐसी स्थितियों में यह सवाल उठता ही है कि संबद्ध व्यक्ति समाज के लिए खतरा तो नहीं पैदा कर रहा है? गिरफ्तार लोगों को भी कानूनी सलाह की इज़ाज़त और दंडाधिकारी या न्यायालय के सामने अपना पक्ष पेश करने का अवसर मिलना चाहिए। लोगों की नागरिक स्वतंत्रता में कटौती करते वक्त हमें अत्यंत सावधान होने की ज़रूरत है क्योंकि इनका आसानी से दुरुपयोग किया जा सकता है। सरकारें निरंकुश हो सकती हैं और वे उन उद्देश्यों की ही जड़ खोद सकती हैं जिनके लिए सरकारें बनती हैं - यानी लोगों के कल्याण की। इसलिए यह मानते हुए भी कि अधिकार कभी संपूर्ण-सर्वोच्च नहीं हो सकते, हमें अपने और दूसरों के अधिकारों की रक्षा करने में चौकस रहने की ज़रूरत है क्योंकि ये लोकतांत्रिक समाज की बुनियाद का निर्माण करते हैं।

वाद-विवाद-संवाद

किसी व्यक्ति के अधिकार वहाँ खत्म हो जाते हैं, जहाँ दूसरे व्यक्ति की नाक शुरू होती है।

10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को स्वीकार और लागू किया। इस घोषणा की प्रस्तावना का पाठ नीचे दिया गया है। इस ऐतिहासिक कृत्य को आगे बढ़ाते हुए सामान्य सभा ने सभी सदस्य देशों से मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के पाठ को प्रचारित करने का आवाहन किया। सामान्य सभा ने देश या क्षेत्र की राजनीतिक स्थिति पर ध्यान न देते हुए इसे विशेष तौर से विद्यालयों और अन्य शैक्षिक संस्थानों में प्रसारित और प्रदर्शित करने एवं पढ़ने और पढ़वाने का आवाहन किया।

मानव अधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा की प्रस्तावना

चूँकि, मानव परिवार के सभी सदस्यों की स्वाभाविक अंतर्निहित गरिमा तथा उनके समान एवं अत्याज्य अधिकारों की प्रतिष्ठा विश्व में स्वतंत्रता, न्याय तथा शांति की आधारशिला है।

चूँकि, मानव अधिकारों के उपहास तथा अवमानना के कारण मानवीय-चेतना को भयभीत करने वाले क्रूरतापूर्ण कृत्य प्रतिफलित हुए हैं, इसलिए यह अनिवार्य है कि एक ऐसे विश्व की स्थापना हो जिसमें सभी मनुष्य भाषण तथा विश्वास की स्वतंत्रता हासिल तथा भय तथा अभाव से मुक्ति प्राप्त कर सकें, जो मानव समुदाय की सबसे महत्त्वपूर्ण अभिलाषा है।

चूँकि, यह आवश्यक है कि मनुष्य को अत्याचार तथा दमन के विरुद्ध अंतिम अस्त्र के रूप में विद्रोह न करना पड़े, इसलिए विधि के शासन के द्वारा मानवाधिकारों की रक्षा हो।

चूँकि, राष्ट्रों के मध्य मित्रतापूर्ण संबंधों की स्थापना को प्रोत्साहित करना आवश्यक है।

चूँकि, संयुक्त राष्ट्रसंघ के देशों ने घोषणा पत्र में मूलभूत मानवाधिकारों, मनुष्य की गरिमा तथा महत्त्व तथा पुरुषों तथा महिलाओं के समान अधिकारों के प्रति अपना विश्वास पुन: व्यक्त किया तथा व्यापक स्वतंत्रता की उपलब्धि हेतु उत्तम जीवन स्तर तथा सामाजिक विकास को प्रोत्साहित करने का संकल्प लिया है,

चूँकि, सदस्य देशों ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के सहयोग से मानव अधिकारों तथा मूल स्वतंत्रताओं के विश्व स्तर पर सम्मान तथा अनुपालन को प्रोत्साहित करने का संकल्प लिया है,

चूँकि, उक्त संकल्पों की पूर्ण उपलब्धि हेतु इन अधिकारों और स्वतंत्रताओं की सार्वदेशिक अवधारणा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।

अतः आज संयुक्त राष्ट्रसंघ महासभा, मानवाधिकारों के विश्वजनीन घोषणा पत्र को सभी सभ्यताओं तथा देशों के लिए उपलब्धि के सर्वमान्य मानदंड के रूप में एतदर्थ घोषित करती है कि प्रत्येक व्यक्ति तथा समाज का प्रत्येक अंग इस घोषणा पत्र का सदा विचार रखते हुए इन अधिकारों तथा स्वतंत्रता, स्वतंत्रताओं की मर्यादा को अध्यापन तथा शिक्षा के माध्यमों द्वारा प्रोत्साहित करेगा तथा विकासोन्मुख राष्ट्रीय - अंतर्राष्ट्रीय साधनों द्वारा इनकी सर्वदेशिक तथा सशक्त स्वीकृति एवं अनुपालन को आपस में, सदस्य देशों की जनता के बीच तथा उनके क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आनेवाले प्रदेशों की जनता के बीच स्थापित करेगा।

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प्रश्नावली

1. अधिकार क्या हैं और वे महत्त्वपूर्ण क्यों हैं? अधिकारों का दावा करने के लिए उपयुक्त आधार क्या हो सकते हैं?

2. किन आधारों पर यह अधिकार अपनी प्रकृति में सार्वभौमिक माने जाते हैं?

3. संक्षेप में उन नए अधिकारों की चर्चा कीजिए, जो हमारे देश में सामने रखे जा रहे हैं। उदाहरण के लिए आदिवासियों के अपने रहवास और जीने के तरीके को संरक्षित रखने तथा बच्चों के बँध्रुआ मज़दूरी के खिलाफ अधिकार जैसे नए अधिकारों को लिया जा सकता है।

4. राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों में अंतर बताइये। हर प्रकार के अधिकार के उदाहरण भी दीजिए।

5. अधिकार राज्य की सत्ता पर कुछ सीमाएँ लगाते हैं। उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।



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