अध्याय 02 भारतीय संविधान में अधिकार
परिचय
संविधान हमें केवल सरकार के विभिन्न अंगों की संरचना और उनके परस्पर अंतर्संबंधों के बारे में ही नहीं बताता। जैसा कि हमने पिछले अध्याय में पढ़ा, संविधान वह दस्तावेज़ है जो सरकार की शक्तियों पर अंकुश रख कर एक ऐसी प्रजातांत्रिक व्यवस्था की स्थापना करता है जिसमें सभी व्यक्तियों को कुछ अधिकार प्राप्त होते हैं। इस अध्याय में हम भारतीय संविधान में निहित मौलिक अधिकारों का अध्ययन करेंगे। संविधान के तीसरे भाग में मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है; उसमें प्रत्येक मौलिक अधिकार के प्रयोग की सीमा का भी उल्लेख है। बीते हुए छह दशकों में अधिकारों का स्वरूप परिवर्तित भी हुआ है और कुछ विस्तृत भी। इस अध्याय में आपको निम्न बातों का ज्ञान होगा:
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भारतीय संविधान कौन-कौन से मौलिक अधिकार प्रदान करता है;
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उन अधिकारों को कैसे सुरक्षित किया जाता है;
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उन अधिकारों की व्याख्या व सुरक्षा करने में न्यायपालिका की क्या भूमिका रही है; और
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मौलिक अधिकारों तथा राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों में क्या अंतर है।
अधिकारों का महत्त्व
1982 के एशियाई खेलों से पहले निर्माण कार्य के लिए सरकार ने कुछ ठंकेदारों की सेवाएँ ली। अनेक फ्लाईओवरों और स्टेडियमों का निर्माण करना था और इसके लिए ठेकेदारों ने देश के विभिन्न भागों से बड़ी संख्या में गरीब मिस्त्री और मज़दूरों की भर्ती की। लेकिन मज़दूरों से कामकाज की दयनीय दशा में काम लिया गया। उन्हें सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मज़दूरी से भी कम मज़दूरी दी गई। समाज वैज्ञानिकों की एक टीम ने उनकी स्थिति का अध्ययन कर सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की। उन्होंने दलील दी कि तय की गई न्यूनतम मज़दूरी से कम मज़दूरी देना ‘बेगार’ या ‘बंधुआ मज़दूरी’ जैसा है और नागरिकों को प्राप्त ‘शोषण के विरुद्ध’ मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। न्यायालय ने इस दलील को स्वीकार कर लिया और सरकार को निर्देश दिया कि वह इन हज़ारों मज़दूरों को उनके काम के लिए तयशुदा मज़दूरी दिलाए।
मचल लालुँग को जब गिरफ़्तार किया गया तब वह 23 वर्ष का था। लालुँग असम के मड़िगाँव जिले के चुबुरी गाँव का रहने वाला था। उस पर आरोप था कि उसने किसी को गंभीर चोट पहुँचाई। मुकदमें की सुनवाई के दौरान उसे मानसिक रूप से काफी अस्वस्थ पाया गया और चिकित्सा के लिए तेजपुर के ‘लोकप्रिय गोपीनाथ बोरदोलोई अस्पताल’ में एक कैदी के रूप में भर्ती करा दिया गया। वहाँ उसका सफलतापूर्वक इलाज किया गया। डॉक्टरों ने जेल अधिकारियों को दो बार (1967, 1996)चिट्ठी भेजी कि लालुँग स्वस्थ है और उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है। लेकिन किसी ने भी उस पर ध्यान नहीं दिया। लालुँग न्यायिक हिरासत में बना रहा। मचल लालुँग को जुलाई, 2005 में जेल से छोड़ा गया। उस समय वह 77 वर्ष का हो चुका था। इस प्रकार वह 54 वर्ष तक हिरासत में रहा और इस दौरान उसके मुकदमे की एक बार भी सुनवाई नहीं हुई। जब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा नियुक्त एक टीम ने राज्य में बंदियों का निरीक्षण किया तब जाकर लालुँग को स्वतंत्र होने का अवसर मिला।
अगर लालुँग धनी और ताकतवर होता तब क्या होता? यदि निर्माण करने वाले ठेकेदार के साथ काम करने वाले लोग इंजीनियर होते तो क्या होता? क्या उनके साथ भी अधिकारों का इसी तरह से हनन होता?
मचल का पूरा जीवन ही व्यर्थ बीत गया क्योंकि उसके मुकदमे की सुनवाई ही न हो सकी। हमारा संविधान सभी नागरिकों को ‘जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार’ देता है। इसका अर्थ है कि हर नागरिक को अपने मुकदमे की निष्पक्ष और त्वरित सुनवाई का अधिकार है। मचल लालुँग का मामला उस स्थिति का संकेत करता है जब संविधान द्वारा दिये गये अधिकार व्यवहार में प्राप्त नहीं होते।
इसी प्रकार पहले उदाहरण में भी संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन दिखाई देता है। लेकिन उसे न्यायालय में चुनौती दी गई। इससे मज़दूरों को उचित मज़दूरी मिली जिसके वे हकदार थे। ‘शोषण के विरुद्ध संवैधानिक अधिकार’ के कारण उन मज़दूरों को न्याय मिल सका।
अधिकारों का घोषणापत्र
उपर्युक्त दोनों उदाहरणों से अधिकारों और उन्हें लागू किये जाने का महत्त्व पता चलता है। इसलिये, अधिकतर लोकतांत्रिक देशों में नागरिकों के अधिकारों को संविधान में सूचीबद्ध कर दिया जाता है। प्रजातंत्र में यह सुनिश्चित होना चाहिए कि व्यक्तियों को कौन-कौन से अधिकार प्राप्त हैं जिन्हें सरकार सदैव मान्यता देगी। संविधान द्वारा प्रदान किये गये और संरक्षित अधिकारों की ऐसी सूची को ‘अधिकारों का घोषणापत्र’ कहते हैं। अतः अधिकारों का घोषणापत्र सरकार को नागरिकों के अधिकारों के विरुद्ध काम करने से रोकता है और उसका उल्लंघन हो जाने पर उपचार सुनिश्चित करता है।
मैं समझ गया! अधिकारों का घोषणापत्र उस ‘वारंटी कार्ड’ की तरह है जो हमें टी. वी. या पंखा खरीदने पर मिलता है। है न?
संविधान नागरिकों के अधिकारों को किससे संरक्षित करता है? नागरिक के अधिकारों को किसी अन्य व्यक्ति या निजी संगठन से खतरा हो सकता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति को सरकार द्वारा सुरक्षा प्रदान किये जाने की आवश्यकता होती है। यह ज़रूरी है कि सरकार व्यक्ति के अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध हो। इसके अतिरिक्त सरकार के विभिन्न अंग (विधायिका, कार्यपालिका, नौकरशाही या न्यायपालिका) अपने कार्यों के संपादन में व्यक्ति के अधिकारों का हनन कर सकते हैं।
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार
स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान, स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं ने इन अधिकारों का महत्त्व समझा था और माँग की थी कि अंग्रेज़ शासकों को जनता के अधिकारों का आदर करना चाहिये। 1928 में ही ‘मोतीलाल नेहरू समिति’ ने ‘अधिकारों के एक घोषणापत्र’ की माँग उठाई थी। अतः यह स्वाभाविक था कि स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्माण के दौरान संविधान में अधिकारों का समावेश करने व उन्हें सुरक्षित करने पर सभी की राय एक थी। संविधान में उन अधिकारों को सूचीबद्ध किया गया जिन्हें सुरक्षा देनी थी और उन्हें ‘मौलिक अधिकारों’ की संज्ञा दी गई।
जैसा कि नाम से स्पष्ट है ‘मौलिक अधिकार’ अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं और इसीलिए उन्हें संविधान में सूचीबद्ध किया गया है और उनकी सुरक्षा के लिए विशेष प्रावधान बनाये गये हैं। वे इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि संविधान स्वयं यह सुनिश्चित करता है कि सरकार भी उनका उल्लंघन न कर सके।
दक्षिण अफ्रीका के संविधान में अधिकारों का घोषणापत्र
दक्षिण अफ्रीका का संविधान दिसंबर 1996 में लागू हुआ। इसे तब बनाया और लागू किया गया जब रंगभेद वाली सरकार के हटने के बाद दक्षिण अफ्रीका गृहयुद्ध के खतरे से जूझ रहा था। दक्षिण अफ्रीका के संविधान के अनुसार “उसके अधिकारों का घोषणापत्र दक्षिण अफ्रीका में प्रजातंत्र की आधारशिला है।” यह नस्ल, लिंग, गर्भधारण, वैवाहिक स्थिति, जातीय या सामाजिक मूल, रंग, आयु, अपंगता, धर्म, अंतरात्मा, आस्था, संस्कृति, भाषा और जन्म के आधार पर भेदभाव वर्जित करता है। यह नागरिकों को संभवतः सबसे ज्यादा व्यापक अधिकार देता है। संवैधानिक अधिकारों को एक विशेष संवैधानिक न्यायालय लागू करता है।
दक्षिण अफ्रीका के संविधान में सम्मिलित कुछ प्रमुख अधिकार निम्न हैं -
गरिमा का अधिकार
निजता का अधिकार
श्रम-संबंधी समुचित व्यवहार का अधिकार
स्वस्थ पर्यावरण और पर्यावरण संरक्षण का अधिकार
समुचित आवास का अधिकार
स्वास्थ्य सुविधाएँ, भोजन, पानी और सामाजिक सुरक्षा का अधिकार
बाल-अधिकार
बुनियादी और उच्च शिक्षा का अधिकार
सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई समुदायों का अधिकार
सूचना प्राप्त करने का अधिकार
मौलिक अधिकार हमारे अन्य अधिकारों से भिन्न हैं। जहाँ साधारण कानूनी अधिकारों को सुरक्षा देने और लागू करने के लिए साधारण कानूनों का सहारा लिया जाता है, वहीं मौलिक अधिकारों की गारंटी और उनकी सुरक्षा स्वयं संविधान करता है। सामान्य अधिकारों को संसद कानून बना कर परिवर्तित कर सकती है लेकिन मौलिक अधिकारों में परिर्वतन के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ता है। इसके अलावा सरकार का कोई भी अंग मौलिक अधिकारों के विरुद्ध कोई कार्य नहीं कर सकता। इस अध्याय में हम आगे पढ़ेंगे कि सरकार के कार्यों से मौलिक अधिकारों के हनन को रोकने की शक्ति और इसका उत्तरदायित्व न्यायपालिका के पास है। विधायिका या कार्यपालिका के किसी कार्य या निर्णय से यदि मौलिक अधिकारों का हनन होता है या उन पर अनुचित प्रतिबंध लगाया जाता है तो न्यायपालिका उसे अवैध घोषित कर सकती है। लेकिन मौलिक अधिकार निरंकुश या असीमित अधिकार नहीं हैं। सरकार मौलिक अधिकारों के प्रयोग पर ‘औचित्यपूर्ण’ प्रतिबंध लगा सकती है।
कहाँ पहुँचे? क्या समझे?
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की तुलना दक्षिण अफ्रीका के संविधान में दिये गये अधिकारों के घोषणापत्र से करें। उन अधिकारों की एक सूची बनायें जो -
दोनों संविधानों में पाये जाते हों।
दक्षिण अफ्रीका में हों पर भारत में नहीं।
दक्षिण अफ्रीका के संविधान में स्पष्ट रूप से दिये गये हों पर भारतीय संविधान में निहित माने जाते हैं।
समता का अधिकार
निम्न दो स्थितियों पर विचार करें। ये काल्पनिक स्थितियाँ हैं। पर ऐसी बातें होती रहती हैं और आगे भी हो सकती हैं। क्या आपको उनमें मौलिक अधिकारों का उल्लंघन दिखाई देता है?
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स्वदेश कुमार अपने गाँव गया। उसके साथ उसका एक दोस्त भी था। गाँव के एक होटल में उन्हें चाय पीने की इच्छा हुई। दुकानदार स्वदेश कुमार को जानता था पर उसके मित्र की जाति जानने के लिए उसने उसका नाम पूछा। उसके बाद दुकानदार ने स्वदेश कुमार को तो एक सुंदर कप में चाय दी, लेकिन उसके दोस्त को कुल्हड़ में चाय दी क्योंकि वह दलित था।
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टेलीविजन के एक चैनल में समाचार पढ़ने वाले कुल दस सदस्यों में से केवल चार को यह आदेश दिया गया कि आगे वे समाचार न पढ़ें। वे सभी महिलायें थीं। इसका कारण यह बताया गया कि वे सभी 45 वर्ष की उम्र को पार कर चुकी हैं। लेकिन उस अवस्था को पार कर चुके दो पुरुषों पर यह प्रतिबंध नहीं लगाया गया।
भारत का संविधान (भाग III : मौलिक अधिकार)
समता का अधिकार
- कानून के समक्ष समानता
- कानूनों के समान संरक्षण
- धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध
- दुकानों, होटलों, कुओं, तालाबों, स्नानघाटों, सड़कों आदि में प्रवेश की समानता
- रोजगार में अवसर की समानता
- छूआछूत का अंत
- उपाधियों का अंत
स्वतंत्रता का अधिकार
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार
- भाषण और अभिव्यक्ति का
- शांतिपूर्ण ढंग से जमा होने और सभा करने का
- संगठित होने का
- भारत में कहीं भी आने-जाने का
- भारत के किसी भी हिस्से में बसने और रहने का
- कोई भी पेशा चुनने, व्यापार करने का
- अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण
- जीवन की रक्षा और दैहिक स्वतंग्रता का अधिकार
- शिक्षा का अधिकार
- अभियुक्तों और सजा पाए लोगों के अधिकार
शोषण के विरुद्ध अधिकार
- मानव के दुर्र्यापार और बंधुआ मज़ुदूरी पर रोक
- जोखिम वाले कामों में बच्चों से मज़ूरूरी कराने पर रोक
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
- आस्था और प्रार्थना की आज़ादी
- धार्मिक मामलों के प्रबंधन
- किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए कर अदायगी की स्वतंत्रता
- कुछ शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या उपासना में उपस्थित होने की स्वतंत्रता
सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार
- अल्पसंख्यकों की भाषा और संस्कृति के संरक्षण का अधिकार
- अल्पसंख्यकों को शैक्षिक संस्थाएँ स्थापित करने का अधिकार
संवैधानिक उपचारों का अधिकार
- मौलिक अधिकारों को लागू करवाने के लिए न्यायालय में जाने का अधिकार
ये भेदभाव के स्पष्ट उदाहरण हैं। एक में जाति व दूसरे में लिंग के आधार पर भेदभाव किया गया। आपकी राय में क्या ऐसा भेदभाव उचित है?
क्या ऐसी बातें हमारे देश में होती हैं? या ये सब केवल काल्पनिक हैं?
‘समता का अधिकार’ ऐसे और अन्य प्रकार के भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास करता है। यह सार्वजनिक स्थलों - जैसे दुकान, होटल, मनोरंजन-स्थल, कुआँ, स्नान-घाट और पूजा-स्थलों में समानता के आधार पर प्रवेश देता है। केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान या इनमें से किसी के आधार पर प्रवेश में कोई भेदभाव नहीं हो सकता। यह उपर्युक्त आधारों पर लोक सेवाओं में भी कोई भेदभाव वर्जित करता है। यह अधिकार बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि पहले हमारे समाज में समानता के आधार पर प्रवेश नहीं दिया जाता था।
छुआछूत की प्रथा असमानता का सबसे भद्दा रूप है। ‘समता के अधिकार’ के द्वारा इसे समाप्त कर दिया गया। उसी अधिकार के अंतर्गत यह भी व्यवस्था की गई है कि केवल उन लोगों को छोड़कर जिन्होंने सेना या शिक्षा के क्षेत्र में गौरवपूर्ण उपलब्धि प्राप्त की है राज्य किसी भी व्यक्ति को कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा। इस प्रकार समता का अधिकार भारत को एक सच्चे लोकतंत्र के रूप में स्थापित करने का प्रयास करता है जिसमें सभी नागरिकों को समान प्रतिष्ठा व गरिमा प्राप्त हो सके।
क्या आपने अपने संविधान की प्रस्तावना पढ़ी है? यह समानता को कैसे परिभाषित करती है? आप पाएँगे कि प्रस्तावना में समानता के बारे में दो बातों का उल्लेख है: प्रतिष्ठा की समानता और अवसर की समानता। अवसर की समानता का अर्थ है कि समाज के सभी वर्गों को समान अवसर मिले।
अनुच्छेद 16 (4) - “इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण का प्रावधान करने से नहीं रोकेगी”
लेकिन जब समाज में अनेक सामाजिक विषमताएँ व्याप्त हों, तो वहाँ समान अवसरों का क्या मतलब हो सकता है? संविधान स्पष्ट करता है कि सरकार बच्चों, महिलाओं तथा सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की बेहतरी के लिए विशेष योजनाएँ व निर्णय लागू कर सकती है। आपने नौकरियों और स्कूलों में प्रवेश के लिए ‘ आरक्षण’ के बारे में अवश्य सुना होगा। आपको संभवतया आश्चर्य भी हुआ होगा कि समानता के सिद्धांत का पालन करने के बावजूद यहाँ ‘आरक्षण’ क्यों है?
वास्तव में संविधान का अनुच्छेद 16 (4) साफ-साफ कहता है कि आरक्षण जैसी नीति को समानता के अधिकार के उल्लंघन के रूप में नहीं देखा जा सकता। यदि आप संविधान की भावना देखें तो आप पाएँगे कि ‘अवसर की समानता’ के अधिकार को पूरा करने के लिए यह ज़रूरी है।
आप एक न्यायाधीश हैं
आप को ओडिशा के पुरी जिले के ‘दलित समुदाय के एक सदस्य’ हादिबंधु से एक पोस्टकार्ड मिलता है। उसमें लिखा है कि उसके समुदाय के पुरुषों ने उस प्रथा का पालन करने से इंकार कर दिया जिसके अनुसार उन्हें उच्च जातियों के विवाहोत्सव में दूल्हे और सभी मेहमानों के पैर धोने पड़ते थे।
इसके बदले उस समुदाय की चार महिलाओं को पीटा गया और उन्हें निर्वस्त्र करके घुमाया गया। पोस्टकार्ड लिखने वाले के अनुसार, “हमारे बच्चे शिक्षित हैं और वे उच्च जातियों के पुरुषों के पैर धोने, विवाह में भोज के बाद जूठन हटाने और बर्तन माँजने का परंपरागत काम करने को तैयार नहीं हैं।” यह मानते हुए कि उपर्युक्त तथ्य सही है, आपको निर्णय करना है कि क्या इस घटना में मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है? आप इसमें सरकार को क्या करने का आदेश देंगे?
अनुच्छेद 21 - जीवन और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण “किसी व्यक्ति को, उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा अन्यथा नहीं।”
स्वतंत्रता का अधिकार
किसी भी लोकतंत्र में समता और स्वतंत्रता सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकार है। इनमें से एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती। स्वतंत्रता का अर्थ है चिंतन, अभिव्यक्ति और कार्य करने की स्वतंत्रता। लेकिन स्वतंत्रता का यह अर्थ नहीं है कि हम जैसा चाहें वैसा करने लगें। यदि ऐसा करने की इज़ाज़त दे दी जाय तो बहुत सारे लोग अपनी स्वतंत्रता का आनंद उठाने से वंचित हो जाएंगे। अतः स्वतंत्रता को इस प्रकार परिभाषित किया जाता है कि बिना किसी अन्य की स्वतंत्रता को नुकसान पहुँचाए और बिना कानून-व्यवस्था को ठेस पहुँचाए, प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी स्वतंत्रता का आनंद ले सके।
क्या इसका मतलब यह है कि कुछ ऐसे मामले भी हो सकते हैं जिनमें कानून एक आदमी की ज़िदंगी ले सकता है? यह तो अज़ीब बात है। क्या आपको कोई ऐसा मामला याद आता है?
जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार
स्वतंत्रता के सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकारों में “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार’ है। किसी भी नागरिक को कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन किये बिना उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता। इसका अर्थ यह है कि किसी भी व्यक्ति को बिना कारण बताये गिरफ़्तार नहीं किया जा सकता। गिरफ़्तार किये जाने पर उस व्यक्ति को अपने पसंदीदा वकील के माध्यम से अपना बचाव करने का अधिकार है। इसके अलावा, पुलिस के लिए यह आवश्यक है कि वह अभियुक्त को 24 घंटे के अंदर निकटतम न्यायाधीश के सामने पेश करे। न्यायाधीश ही इस बात का निर्णय करेगा कि गिरफ़्तार उचित है या नहीं।
इस अधिकार द्वारा किसी व्यक्ति के जीवन को मनमाने ढंग से समाप्त करने के विरुद्ध ही गारंटी नहीं मिलती बल्कि इसका दायरा और भी व्यापक है। सर्वोच्च न्यायालय के पिछले अनेक निर्णयों द्वारा इस अधिकार का दायरा बढ़ा है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार इसमें शोषण से मुक्त और मानवीय गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार अंतर्निहित है। न्यायालय ने माना कि ‘जीवन के अधिकार’ का अर्थ है कि व्यक्ति को आश्रय और आजीविका का भी अधिकार हो क्योंकि इसके बिना कोई व्यक्ति ज़िंदा नहीं रह सकता।
निवारक नज़रबंदी
सामान्यतः किसी व्यक्ति को तब गिर.फ्तार करते हैं जब उसने अपराध किया हो। पर इसके अपवाद भी हैं। कभी-कभी किसी व्यक्ति को इस आशंका पर भी गिरफफ्तार किया जा सकता है कि वह कोई गैर-कानूनी कार्य करने वाला है और फिर उसे वर्णित प्रक्रिया का पालन किये बिना ही कुछ समय के लिए जेल भेजा जा सकता है। इसे ही निवारक नज़रबंदी कहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि सरकार को लगे कि कोई व्यक्ति देश की कानून-व्यवस्था या शांति और सुरक्षा के लिए खतरा बन सकता है, तो वह उसे बंदी बना सकती है। लेकिन निवारक नज़रबंदी अधिकतम 3 महीने के लिए ही हो सकती है। तीन महीने के बाद ऐसे मामले समीक्षा के लिए एक सलाहकार बोर्ड के समक्ष लाए जाते हैं।
प्रत्यक्ष रूप से निवारक नज़बबंदी सरकार के हाथ में असामाजिक तत्वों और राष्ट्र विद्रोही तत्वों से निपटने का एक हथियार है। लेकिन सरकार ने प्राय: इसका दुरुपयोग किया है। अनेक लोग यह मानते हैं कि इस कानून में कुछ ऐसे सुरक्षात्मक उपाय किए जाने चाहिए जिससे सामान्य नागरिकों के विरुद्ध अन्य किसी कारण से इसके दुरुपयोग को रोका जा सके। वास्तव में जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकारों तथा निवारक नज़बबंदी के प्रावधानों में परस्पर विरोधाभास है।
अन्य स्वतंत्रताएँ
आप देख सकते हैं कि ‘स्वतंत्रता के अधिकार’ के अंतर्गत कुछ और अधिकार भी हैं। पर इनमें से कोई भी अधिकार निरंकुश नहीं है। इनमें से प्रत्येक के प्रयोग पर सरकार कुछ प्रतिबंध लगा सकती है।
उदाहरण के तौर पर ‘भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर कानून-व्यवस्था, शांति और नैतिकता के आधार पर प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं। सभा और सम्मेलन करने की स्वतंत्रता का प्रयोग करने पर यह शर्त है कि वह शांतिपूर्ण तथा बिना हथियारों के हो। सरकार किसी क्षेत्र में पाँच या पाँच से अधिक लोगों की सभा पर प्रतिबंध लगा सकती है। प्रशासन इस शक्ति का आसानी से दुरुपयोग कर सकता है। वह सरकार के किसी कार्य या नीति के विरुद्ध जनता को न्यायोचित विरोध-प्रदर्शन करने की अनुमति देने से मना कर सकता है। लेकिन जनता अपने अधिकारों के प्रति सजग और सतर्क हो और प्रशासन के ऐसे कार्यों का विरोध करे तो इसके दुरुपयोग की संभावना कम हो जाती है। संविधान सभा में भी कुछ सदस्यों ने अधिकारों को प्रतिबंधित करने पर अपना असंतोष जताया था।
मैं समझता हूँ कि इनमें से अनेक मौलिक अधिकारों को एक सिपाही के दृष्टिकोण से बनाया गया है। $\cdots$ आप देखेंगे कि काफी कम अधिकार दिए गए हैं और प्रत्येक अधिकार के बाद एक उपबंध जोड़ा गया है। लगभग प्रत्येक अनुच्छेद के बाद एक उपबंध है जो उन अधिकारों को पूरी तरह से वापस ले लेता है। $\cdots$ मौलिक अधिकारों की हमारी क्या अवधारणा होनी चाहिए? $\cdots$ हम उस प्रत्येक अधिकार को संविधान में पाना चाहते हैं जो हमारी जनता चाहती है।
सोमनाथ लाहिड़ी
संविधान सभा के वाद-विवाद, खंड III, पृष्ठ 404, 29 अप्रैल 1947
आरोपी या अभियुक्त के अधिकार
हमारा संविधान इसका भी प्रावधान करता है कि उन लोगों को भी पर्याप्त सुरक्षा मिले जिन पर विभिन्न अपराधों के आरोप हों। हम प्रायः ऐसा विश्वास कर लेते हैं कि जिस पर भी किसी अपराध का आरोप लगता है वह दोषी है। लेकिन जब तक न्यायालय किसी व्यक्ति को किसी अपराध का दोषी नहीं ठहराता तब तक उसे दोषी नहीं माना जा सकता। यह भी ज़रूरी है कि किसी अपराध के आरोपी को स्वयं को बचाने का समुचित अवसर मिलना चाहिये। न्यायालय में निष्पक्ष मुकदमे के लिए संविधान तीन अधिकारों की व्यवस्था करता है -
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किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से ज़्यादा सज़ा नहीं मिलेगी;
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कोई भी कानून किसी भी कार्य को पिछली तारीख से अपराध घोषित नहीं कर सकेगा; और
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किसी भी व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए नहीं कहा जा सकेगा।
कहाँ पहुँचे? क्या समझे?
क्या आप मानते हैं कि निम्न परिस्थितियाँ स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबंधों की माँग करती हैं? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दें-
(क) शहर में साप्रदायिक दंगों के बाद लोग शांति मार्च के लिए एकत्र हुए हैं।
(ख) दलितों को मंदिर में प्रवेश की मनाही है। मंदिर में जबर्दस्ती प्रवेश के लिए एक जलूस का आयोजन किया जा रहा है।
(ग) सैकड़ों आदिवासियों ने सड़क जाम कर दिया है। वे माँग कर रहे हैं कि कोई कारखाना बनाने के लिए ली गई उनकी जमीन वापस की जाए।
(घ) किसी जाति की पंचायत की बैठक यह तय करने के लिए बुलाई गई कि जाति से बाहर विवाह करने के लिए एक नवदंपति को क्या दंड दिया जाए।
शोषण के विरुद्ध अधिकार
अपने देश में करोड़ों लोग गरीब, दलित-शोषित और वंचित हैं या लोगों के द्वारा उनका शोषण हो सकता है। ऐसे शोषण को हम अपने देश में ‘बेगार’ या ‘बंधुआ-मज़ूरूरी’ के रूप में जानते हैं। इसी प्रकार के एक शोषण में लोगों को ‘दास’ के रूप में खरीदा और बेचा जाता था। इन दोनों प्रकार के शोषणों पर संविधान प्रतिबंध लगाता है। पुराने समय में ज़मींदारों, सूदखोरों और अन्य धनी लोग ‘बंधुआ मज़दूरी’ करवाते थे। देश में अभी भी, खासतौर से भट्ठे के काम में, बंधुआ मज़दूरी करवाई जाती है। अब इसे अपराध घोषित कर दिया गया है और वह कानून द्वारा दंडनीय है।
इस फोटो में आप को किस मौलिक अधिकार का उल्लंघन दिखाई देता है?
संविधान के अनुसार 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी कारखाने, खदान या अन्य किसी खतरनाक काम में नियोजित नहीं किया जाएगा। इस प्रकार बाल श्रम को अवैध बना कर और शिक्षा को बच्चों का मौलिक अधिकार बनाकर ‘शोषण के विरुद्ध संवैधानिक अधिकार’ को और अर्थपूर्ण बनाया गया है।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
अपने संविधान के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी पसंद के धर्म का पालन करने का अधिकार है। इस स्वतंत्रता को लोकतंत्र का प्रतीक माना जाता है। इतिहास गवाह है कि दुनिया के अनेक देशों के शासकों और राजाओं ने अपने-अपने देश की जनता को धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार नहीं दिया। शासकों से अलग धर्म को मानने वाले लोगों को या तो मार डाला गया या विवश किया गया कि वे शासकों द्वारा मान्य धर्म को स्वीकार कर लें। अतः लोकतंत्र में अपनी इच्छा के अनुसार धर्म पालन करने की स्वतंत्रता को हमेशा एक बुनियादी सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया गया है।
आस्था और प्रार्थना की स्वतंत्रता
भारत में प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म चुनने और उसका पालन करने का अधिकार है। धार्मिक स्वतंत्रता में अंतःकरण की स्वतंत्रता भी समाहित है। इसका अर्थ है कि कोई व्यक्ति किसी भी धर्म को चुन सकता है या यह निर्णय भी ले सकता है कि वह किसी भी धर्म का पालन नहीं करेगा। धार्मिक स्वतंत्रता का यह भी अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को अपने धर्म को अबाध रूप से मानने, उसके अनुसार आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा। लेकिन धार्मिक स्वतंत्रता पर कुछ प्रतिबंध भी हैं। लोक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के आधार पर सरकार धार्मिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा सकती है। धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार असीमित नहीं है। कुछ सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए सरकार धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कर सकती है। उदाहरण के तौर पर सरकार ने सती प्रथा, एक से अधिक विवाह और मानव-बलि जैसी कुप्रथाओं पर प्रतिबंध के लिए अनेक कदम उठाए हैं। ऐसे प्रतिबंधों को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में हस्तक्षेप नहीं माना जा सकता।
धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार पर नियंत्रण लगाने से विभिन्न धर्म के मानने वालों और सरकार के बीच अक्सर ही तनावपूर्ण स्थितियाँ पैदा होती हैं। जब भी किसी धार्मिक समुदाय के कुछ क्रियाकलापों पर सरकार नियंत्रण लगाती है, तो उस समुदाय के लोग यह महसूस करते हैं कि वह उनके धर्म में एक हस्तक्षेप है।
एक अन्य कारण से भी धार्मिक स्वतंत्रता राजनीतिक विवाद का विषय बन जाती है। संविधान ने सभी को अपने धर्म का प्रचार करने की स्वतंत्रता दी है। इसमें लोगों को एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तन के लिए मनाने का अधिकार भी शामिल है। लेकिन कुछ लोग धर्म परिवर्तन का विरोध करते हैं। उनका मानना है कि धर्मांररण भय या लालच के आधार पर कराए जाते हैं। संविधान भी जबरन धर्म-परिवर्तन की इज़ाज़त नहीं देता। वह हमें केवल अपने धर्म के बारे में सूचनाएँ प्रसारित करने का अधिकार देता है जिससे हम दूसरों को अपने धर्म की ओर आकर्षित कर सकें।
सभी धर्मों की समानता
विभिन्न धर्मावलंबियों का देश होने के कारण यह ज़रूरी है कि सरकार विभिन्न धर्मों के साथ समानता का बर्ताव करे। इसका अर्थ यह भी है कि सरकार किसी विशेष धर्म का पक्ष नहों लेगी। भारत का कोई राजकीय धर्म नहीं है। भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, न्यायाधीश या अन्य किसी सार्वजनिक पद पर कार्य करने के लिए हमें किसी धर्म-विशेष का सदस्य होना ज़रूरी नहीं है। ‘समानता के अधिकार’ के अंतर्गत भी हमने देखा कि सभी नागरिकों को इस बात की गारंटी दी गई है कि सरकारी नौकरियों में नियुक्ति के संबंध में सरकार धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करेगी। राज्य द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थाओं में न तो किसी धर्म का प्रचार किया जाएगा, न ही कोई धार्मिक शिक्षा दी जाएगी और न ही उसमें प्रवेश के लिए किसी धर्म को वरीयता दी जाएगी। इन प्रावधानों से धर्म निरपेक्षता को जीवन और बल मिलता है।
खुद करें — खुद सीखें
अपने गाँव या शहर में होने वाले सार्वजनिक धार्मिक गतिविधियों की सूची बनाएँ।
इनमें से कौन-कौन-सी गतिविधियाँ धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का प्रयोग दिखलाती हैं?
इस पर चर्चा करें कि यदि आपके क्षेत्र में लोगों को यह अधिकार नहीं होता, तो क्या होता ?
सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार
जब हम भारतीय समाज की बात करते हैं तो हमारे मन में विविधता की छवि उभरती है। भारतीय समाज कोई समरूप समाज नहीं है वरन् उसमें काफी विविधता है। ऐसे विविधता भरे समाज में कुछ समुदाय छोटे और कुछ बड़े हैं। क्या ऐसी स्थिति में अल्पसंख्यक समुदाय को बहुसंख्यक समुदाय की संस्कृति स्वीकार करनी पड़ेगी?
हमारा संविधान मानता है कि ‘विविधता’ हमारे समाज की मज़बूती है। अतः अल्पसंख्यकों का अपनी संस्कृति को बनाये रखने का अधिकार भी एक मौलिक अधिकार है।
बहुसख्यकों पर एक गंभीर उत्तरदायित्व है कि वे देखें कि अल्पसंख्यक सुरक्षित महसूस करें। $\cdots$ केवल एक धर्मनिरपेक्ष शासन में ही अल्संख्यक सुरक्षित रहेंगे। उनके लिए राष्ट्रवादी होना लाभकारी है। बहुसंख्यकों को अपने राष्ट्रीय दृष्टिकोण का दिखावा नहीं करना चाहिये। ‥ उन्हें स्वयं को अल्पसंख्यकों की स्थिति में रखकर उनकी आशंकाओं को समझना चाहिये। सुरक्षा की सभी माँगे उसी आशंका पर आधारित हैं, जो अल्पसंख्यकों के मन में अपनी भाषा, लिपि और नौकरियों के अवसर के संबंध में हैं।
सरदार हुकुम सिंह
संविधान सभा के वाद-विवाद, खंड VIII, पृष्ठ 322, 26 मई 1949
किसी समुदाय को केवल धर्म के आधार पर नहीं बल्कि भाषा और संस्कृति के आधार पर भी अल्पसंख्यक माना जाता है। अल्पसंख्यक वह समूह है जिनकी अपनी एक भाषा या धर्म होता है और देश के किसी एक भाग में या पूरे देश में संख्या के आधार पर वे किसी अन्य समूह से छोटा है, ऐसे अल्पसंख्यक समूहों को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को सुरक्षित रखने और उसे विकसित करने का अधिकार है।
भाषाई या धार्मिक अल्पसख्यक अपने शिक्षण संस्थान खोल सकते हैं। ऐसा करके वे अपनी संस्कृति को सुरक्षित और विकसित कर सकते हैं। शिक्षण संस्थाओं को वित्तीय अनुदान देने के मामले में सरकार इस आधार पर भेदभाव नहीं करेगी कि उस शिक्षण संस्थान का प्रबंध किसी अल्पसंख्यक समुदाय के हाथ में है।
संवैधानिक उपचारों का अधिकार
इस बात से हर-कोई सहमत होगा कि हमारे संविधान में मौलिक अधिकारों की सूची बड़ी आकर्षक है। लेकिन अधिकारों की विस्तृत सूची देना ही काफी नहीं। कोई ऐसा तरीका होना चाहिए जिससे उन्हें व्यवहार में लाया जा सके और उल्लंघन होने पर अधिकारों की रक्षा की जा सके।
‘संवैधानिक उपचारों का अधिकार’ वह साधन है जिसके द्वारा ऐसा किया जा सकता है। डॉ. अंबेडकर ने इस अधिकार को ‘संविधान का हृदय और आत्मा’ की संज्ञा दी। इसके अंतर्गत हर नागरिक को यह अधिकार प्राप्त है कि वह अपने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन किए जाने पर सीधे उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए सरकार को आदेश और निर्देश दे सकते हैं। न्यायालय कई प्रकार के विशेष आदेश जारी करते हैं जिन्हें प्रादेश या रिट कहते हैं।
- बंदी प्रत्यक्षीकरण - बंदी प्रत्यक्षीकरण के द्वारा न्यायालय किसी गिरफ्तार व्यक्ति को न्यायालय के सामने प्रस्तुत करने का आदेश देता है। यदि गिरफ्तारी का तरीका या कारण गैरकानूनी या असंतोषजनक हो, तो न्यायालय गिरफ्तार व्यक्ति को छोड़ने का आदेश दे सकता है।
मैं अपने मुहल्ले में तो अल्पसंख्यक हूँ पर शहर में बहुसंख्यक। भाषा के हिसाब से तो अल्पसंख्यक हूँ लेकिन धर्म के लिहाज से मैं बहुसंख्यक हूँ। क्या हम सभी अल्पसंख्यक नहीं हैं?
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परमादेश - यह आदेश तब ज़ारी किया जाता है जब न्यायालय को लगता है कि कोई सार्वजनिक पदाधिकारी अपने कानूनी और संवैधानिक दायित्वों का पालन नहीं कर रहा है और इससे किसी व्यक्ति का मौलिक अधिकार प्रभावित हो रहा है।
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निषेध आदेश - जब कोई निचली अदालत अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करके किसी मुकदमे की सुनवाई करती है तो ऊपर की अदालतें (उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय) उसे ऐसा करने से रोकने के लिए ‘निषेध आदेश’ ज़ारी करती है।
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अधिकार पृच्छा - जब न्यायालय को लगता है कि कोई व्यक्ति ऐसे पद पर नियुक्त हो गया है जिस पर उसका कोई कानूनी हक नहीं है तब न्यायालय ‘अधिकार पृच्छा आदेश’ के द्वारा उसे उस पद पर कार्य करने से रोक देता है।
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उत्प्रेषण रिट - जब कोई निचली अदालत या सरकारी अधिकारी बिना अधिकार के कोई कार्य करता है, तो न्यायालय उसके समक्ष विचाराधीन मामले को उससे लेकर उत्प्रेषण द्वारा उसे ऊपर की अदालत या अधिकारी को हस्तांतरित कर देता है।
बाद में इन अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायपालिका के अलावा कुछ और संरचनाओं का भी निर्माण किया गया। आपने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग आदि के बारे में सुना होगा। ये संस्थाएँ क्रमशः अल्पसंख्यकों, महिलाओं और दलितों के अधिकारों की रक्षा करती हैं। इसके अतिरिक्त, मौलिक अधिकारों और अन्य अधिकारों की रक्षा करने के लिए कानून द्वारा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का भी गठन किया गया है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग
किसी भी संविधान द्वारा प्रदान किए गए अधिकारों की असली पहचान तब होती है जब उन्हें लागू किया जाता है। समाज के गरीब, अशिक्षित और कमज़ोर तबके के लोगों को अपने अधिकारों को प्रयोग करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (पी.यू.सी.एल.) या पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पी.यू.डी.आर.) जैसी संस्थाएँ अधिकारों के हनन के विरुद्ध चौकसी करती हैं। इस परिप्रेक्ष्य में वर्ष 1993 में सरकार ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में सर्वोच्च न्यायालय का एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश, किसी उच्च न्यायालय का एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश तथा मानवाधिकारों के संबंध में ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव रखने वाले दो और सदस्य होते हैं।
मानवाधिकारों के उल्लंघन की शिकायतें मिलने पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग स्वयं अपनी पहल पर या किसी पीड़ित व्यक्ति की याचिका पर जाँच कर सकता है। जेलों में बंदियों की स्थिति का अध्ययन करने जा सकता है; मानवाधिकार के क्षेत्र में शोध कर सकता है या शोध को प्रोत्साहित कर सकता है।
आयोग को प्रतिवर्ष हजारों शिकायतें मिलती हैं। इनमें से अधिकतर हिरासत में मृत्यु, हिरासत के दौरान बलात्क्कार, लोगों के गायब होने, पुलिस की ज्यादतियों, कार्यवाही न किये जाने, महिलाओं के प्रति दुर्व्यवहार आदि से संबंधित होती हैं। मानवाधिकार आयोग का सबसे प्रभावी हस्तक्षेप पंजाब में युवकों के गायब होने तथा गुजरात दंगों के मामले में जाँच के रूप में रहा। आयोग को स्वयं मुकदमा सुनने का अधिकार नहीं है। यह सरकार या न्यायालय को अपनी जाँच के आधार पर मुकदमें चलाने की सिफारिश कर सकता है।
अधिक जानकारी के लिए, देखें www. nhrc.nic.in
राज्य के नीति-निर्देशक तत्व
संविधान निर्माताओं को पता था कि स्वतंत्र भारत को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इसमें सभी नागरिकों में समानता लाना और सबका कल्याण करना सबसे बड़ी चुनौती थी। उन लोगों ने यह भी सोचा कि इन समस्याओं को हल करने के लिए कुछ नीतिगत निर्देश ज़रूरी हैं। लेकिन इसके साथ ही वे इन नीतियों को भावी सरकारों के लिए बाध्यकारी भी नहीं बनाना चाहते थे।
संविधान में कुछ निर्देशक तत्वों का समावेश तो किया गया लेकिन उन्हें न्यायालय के माध्यम से लागू करवाने की व्यवस्था नहीं की गई। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि सरकार किसी निर्देश को लागू नहीं करती तो हम न्यायालय में जाकर यह माँग नहीं कर सकते कि उसे लागू कराने के लिए न्यायालय सरकार को आदेश दे। इसीलिए कहा जाता है कि नीति निर्देशक तत्व ‘वाद योग्य नहीं’ हैं। अर्थ यह है कि यह संविधान का एक हिस्सा है जिसे न्यायपालिका द्वारा लागू नहों कराया जा सकता। संविधान निर्माताओं का मानना था कि इन निर्देशक तत्वों के पीछे जो नैतिक शक्ति है वह सरकार को बाध्य करेगी कि सरकार नीति निर्देशक तत्वों को गंभीरता से ले। इसके अलावा वे ऐसा भी समझते थे कि जनता उन्हें लागू करने की ज़िम्मेदारी भावी सरकारों पर डालेगी। अतः संविधान में ऐसी नीतियों की एक निर्देशक सूची रखी गई है। निर्देशों की उसी सूची को राज्य के नीति-निर्देशक तत्व कहते हैं।
नीति-निर्देशक तत्व क्या हैं?
नीति-निर्देशक तत्वों की सूची में तीन प्रमुख बातें हैं -
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वे लक्ष्य और उद्देश्य जो एक समाज के रूप में हमें स्वीकार करने चाहिए;
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वे अधिकार जो नागरिकों को मौलिक अधिकारों के अलावा मिलने चाहिए, और
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वे नीतियाँ जिन्हें सरकार को स्वीकार करना चाहिए।
नीति-निर्देशक तत्वों को देखने से आपको संविधान निर्माताओं की ‘भारत की कल्पना’ का आभास होगा।
समय-समय पर सरकार ने कुछ नीति-निर्देशक तत्वों को लागू करने का प्रयास किया। अनेक ज़मींदारी उन्मूलन कानून, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, कई फैक्ट्री-अधिनियम, न्यूनतम मज़दूरी निर्धारण, कुटीर और लघु उद्योगों को प्रोत्साहन तथा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के उन्नयन के लिए आरक्षण आदि इन प्रयासों को दर्शाते हैं। नीति-निर्देशक तत्वों को लागू करने के प्रयास में शिक्षा का अधिकार, पूरे देश में पंचायती-राज व्यवस्था लागू करना, रोज़गार गारंटी योजना के अंतर्गत काम का सीमित अधिकार, स्कूली बच्चों के लिए दोपहर के भोजन की योजना आदि सम्मिलित हैं।
नागरिकों के मौलिक कर्त्तव्य
वर्ष 1976 में संविधान का 42 वाँ संशोधन किया गया। अन्य प्रावधानों के अलावा इस संशोधन से संविधान में नागरिकों के मौलिक कर्त्तव्यों की एक सूची का समावेश किया गया जिसमें कुल दस कर्त्तव्यों का उल्लेख किया गया। लेकिन इन्हें लागू करने के संबंध में संविधान मौन है।
नागरिक के रूप में हमें अपने संविधान का पालन करना चाहिए, देश की रक्षा करनी चाहिए, सभी नागरिकों में भाईचारा बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए तथा पर्यावरण की रक्षा करनी चाहिए।
परंतु यह ध्यान देने की बात है कि संविधान मौलिक कर्त्तव्यों के अनुपालन के आधार पर या उनकी शर्त पर हमें मौलिक अधिकार नहीं देता। इस दृष्टि से संविधान में मौलिक कर्त्तव्यों के समावेश से हमारे मौलिक अधिकारों पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ा।
कहाँ पहुँचे? क्या समझे?
ऐसा अनुमान है कि भारत में लगभग 30 लाख लोग शहरों में बेघर हैं। इनमें से पाँच प्रतिशत लोगों के लिए रात में सोने की जगह भी नहीं है। इनमें सैकड़ों बूढ़े और बीमार बेघर लोगों की जाड़े में शीतलहर से मृत्त्यु हो जाती है। उन्हें ‘निवास का प्रमाण’ न दे पाने के कारण राशन कार्ड या मतदाता पहचान पत्र नहीं मिल पाते। इसके अभाव में उन्हें ज़रूरतमंद मरीजों के रूप में सरकारी मदद भी नहीं मिल पाती। इनमें एक बड़ी संख्या में लोग दिहाड़ी मज़दूर हैं जिन्हें बहुत कम मज़दूरी मिलती है। वे मज़दूरी की तलाश में देश के विभिन्न हिस्सों से शहरों में आते हैं।
आप इन तथ्यों के आधार पर ‘संवैधानिक उपचारों के अधिकार’ के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय को एक याचिका भेंजे। आपकी याचिका में निम्न दो बातों का उल्लेख होना चाहिए -
(क) इन बेघर लोगों के कौन-से मौलिक अधिकार का उल्लंघन हो रहा है?
(ख) आप सर्वोच्च न्यायालय से किस प्रकार का आदेश देने की प्रार्थना करेंगे?
नीति-निर्देशक तत्वों और मौलिक अधिकारों में संबंध
मौलिक अधिकारों और नीति-निर्देशक तत्वों को एक-दूसरे के पूरक के रूप में देखा जा सकता है। जहाँ मौलिक अधिकार सरकार के कुछ कार्यों पर प्रतिबंध लगाते हैं वहीं नीति-निर्देशक तत्व उसे कुछ कार्यों को करने की प्रेरणा देते हैं।
नीति-निर्देशक तत्व
उद्देश्य
- लोगों का कल्याण; सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय
- जीवन स्तर ऊँचा उठाना; संसाधनों का समान वितरण
- अंतर्राष्ट्रीय शांति को बढ़ावा
ऐसे अधिकार जिनके लिए न्यायालय में दावा नहीं किया जा सकता
- पर्याप्त जीवन यापन;
- महिलाओं और पुरुषों को समान काम की समान मज़दूरी
- आर्थिक शोषण के विरुद्ध अधिकार
- काम का अधिकार
- छह वर्ष से कम आयु के बालकों के लिए प्रारंभिक बाल्यावस्था देख-रेख और शिक्षा
नीतियाँ
- समान नागरिक संहिता;
- मद्यपान निषेध;
- घरेलू उद्योगों को बढ़ावा;
- उपयोगी पशुओं को मारने पर रोक
- ग्राम पंचायतों को प्रोत्साहन
मुझे बताओ कि संविधान में अच्छी-अच्छी बातें कहने का क्या मतलब यदि उसे किसी न्यायालय में लागू ही नहीं किया जा सकता?
मौलिक अधिकार खास तौर से व्यक्ति के अधिकारों को संरक्षित करते हैं, पर नीति-निर्देशक तत्व पूरे समाज के हित की बात करते हैं। लेकिन कभी-कभी जब सरकार नीति-निर्देशक तत्वों को लागू करने का प्रयास करती है, तो वे नागरिकों के मौलिक अधिकारों से टकरा सकते हैं।
यह समस्या तब पैदा हुई जब सरकार ने ज़मींदारी उन्मूलन कानून बनाने का फ़ैसला किया। इसका विरोध इस आधार पर किया गया कि उससे संपत्ति के मौलिक अधिकार का हनन होता है। लेकिन यह सोचकर कि सामाजिक आवश्यकताएँ वैयक्तिक हित से ऊपर हैं, सरकार ने नीति-निर्देशक तत्वों को लागू करने के लिए संविधान का संशोधन किया।
इससे एक लंबी कानूनी लड़ाई शुरू हुई। कार्यपालिका और न्यायपालिका ने इस पर परस्पर विरोधी दृष्टिकोण अपनाया। सरकार की मान्यता थी कि नीति-निर्देशक तत्वों को लागू करने के लिए मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। इसके पीछे यह धारणा थी कि लोक कल्याण के मार्ग में अधिकार बाधक हैं। दूसरी ओर न्यायालय की यह मान्यता थी कि मौलिक अधिकार इतने महत्वपूर्ण और पावन हैं कि नीति-निर्देशक तत्वों को लागू करने के लिए भी उन्हें प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता।
संपत्ति का अधिकार
मौलिक अधिकारों और नीति-निर्देशक तत्वों के मध्य संबंधों पर उठे विवाद के पीछे एक महत्त्वपूर्ण कारण था मूल संविधान में संपत्ति अर्जन, स्वामित्व और संरक्षण का मौलिक अधिकार दिया गया था। लेकिन संविधान में स्पष्ट कहा गया था कि सरकार लोक-कल्याण के लिए संपत्ति का अधिग्रहण कर सकती है। 1950 से ही सरकार ने अनेक ऐसे कानून बनाए जिससे संपत्ति के अधिकार पर प्रतिबंध लगा। मौलिक अधिकारों और नीति-निर्देशक तत्वों के मध्य विवाद के केंद्र में यही अधिकार था। आखिरकार 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में ‘संपत्ति के अधिकार’ को ‘संविधान के मूल ढाँचे’ का तत्व नहीं माना और कहा कि संसद को संविधान का संशोधन करके इसे प्रतिबंधित करने का अधिकार है। 1978 में जनता पार्टी की सरकार ने 44वें संविधान संशोधन के द्वारा संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से निकाल दिया और संविधान के अनुच्छेद 300 (क) के अंतर्गत उसे एक सामान्य कानूनी अधिकार बना दिया।
आपकी राय में ‘संपत्ति के अधिकार’ को मौलिक अधिकार से कानूनी अधिकार बनाने से क्या फर्क पड़ता है?
इसने एक और भी जटिल वाद-विवाद को जन्म दिया। वह संविधान के संशोधन से संबंधित था। सरकार का मत था कि संसद संविधान के किसी भी अंश या प्रावधान में संशोधन कर सकती है। न्यायपालिका का कहना था कि संसद कोई ऐसा संशोधन नहीं कर सकती जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता हो। यह विवाद सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केशवानन्द भारती मुकदमे में दिए गए एक महत्वपूर्ण निर्णय से समाप्त हुआ। इसमें निर्णय देते हुए न्यायालय ने यह कहा कि संविधान की कुछ ‘मूल-ढाँचागत’ विशेषताएँ हैं और संसद उनमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकती। इसे हम नवें अध्याय ‘संविधान : एक जीवंत दस्तावेज़’ में विस्तार से पढ़ेंगे।
कहाँ पहुँचे? क्या समझे?
दक्षिण अफ्रीका के संविधान में अधिकारों के घोषणापत्र और भारतीय संविधान में दिए नीति-निर्देशक तत्वों को पढ़ें। दोनों सूचियों में आपको कौन-सी बातें एक समान लगती हैं?
दक्षिण अफ्रीका के संविधान ने इन्हें अधिकारों के घोषणापत्र में क्यों रखा?
यदि आपको एक नए राष्ट्र के लिए संविधान बनाना हो, तो उसके लिए आप क्या सुझाएँगे?
निष्कर्ष
महाराष्ट्र के एक क्रांतिकारी समाज सुधारक ज्योतिबा राव फुले (1827-1890) की रचनाओं में हमें सर्वप्रथम यह विचार प्राप्त होता है कि अधिकारों में स्वतंत्रता और समानता दोनों ही निहित हैं। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान यह विचार और स्पष्ट हुआ तथा इस संवैधानिक अधिकारों के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। हमारे संविधान में इस लंबी परंपरा को मौलिक अधिकारों की सूची के रूप में देखा जा सकता है। 1950 से न्यायपालिका ने अधिकारों के महत्त्वपूर्ण संरक्षक की भूमिका निभाई है।
न्यायिक व्याख्याओं ने अनेक अधिकारों का क्षेत्र विस्तृत कर दिया है। हमारी सरकार और प्रशासन इसी परिप्रेक्ष्य में काम करते हैं। अधिकार सरकार के कार्यों की सीमा तय करते हैं और देश में लोकतांत्रिक शासन सुनिश्चित करते हैं।
प्रश्नावली
1. निम्नलिखित प्रत्येक कथन के बारे में बताएँ कि वह सही है या गलत
(क) अधिकार-पत्र में किसी देश की जनता को हासिल अधिकारों का वर्णन रहता है।
(ख) अधिकार-पत्र व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है।
(ग) विश्व के हर देश में अधिकार-पत्र होता है।
2. निम्नलिखित में कौन मौलिक अधिकारों का सबसे सटीक वर्णन है?
(क) किसी व्यक्ति को प्राप्त समस्त अधिकार
(ख) कानून द्वारा नागरिक को प्रदत्त समस्त अधिकार
(ग) संविधान द्वारा प्रदत्त और सुरक्षित समस्त अधिकार
(घ) संविधान द्वारा प्रदत्त वे अधिकार जिन पर कभी प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता।
3. निम्नलिखित स्थितियों को पढ़ें। प्रत्येक स्थिति के बारे में बताएँ कि किस मौलिक अधिकार का उपयोग या उल्लंघन हो रहा है और कैसे?
(क) राष्ट्रीय एयरलाइन के चालक-परिचालक दल (Cabin-Crew) के ऐसे पुरुषों को जिनका वजन ज़्यादा है - नौकरी में तरक्की दी गई लेकिन उनकी ऐसी महिला सहकर्मियों को, दंडित किया गया जिनका वजन बढ़ गया था।
(ख) एक निर्देशक एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाता है जिसमें सरकारी नीतियों की आलोचना है।
(ग) एक बड़े बाँध के कारण विस्थापित हुए लोग अपने पुनर्वास की माँग करते हुए रैली निकालते हैं।
(घ) आंध्र-सोसायटी आंध्र प्रदेश के बाहर तेलुगु माध्यम के विद्यालय चलाती है।
4. निम्नलिखित में कौन सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों की सही व्याख्या है?
(क) शैक्षिक-संस्था खोलने वाले अल्पसंख्यक वर्ग के ही बच्चे इस संस्थान में पढ़ाई कर सकते हैं।
(ख) सरकारी विद्यालयों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अल्पसंख्यक-वर्ग के बच्चों को उनकी संस्कृति और धर्म-विश्वासों से परिचित कराया जाए।
(ग) भाषाई और धार्मिक-अल्पसंख्यक अपने बच्चों के लिए विद्यालय खोल सकते हैं और उनके लिए इन विद्यालयों को आरक्षित कर सकते हैं।
(घ) भाषाई और धार्मिक-अल्पसंख्यक यह माँग कर सकते हैं कि उनके बच्चे उनके द्वारा संचालित शैक्षणिक-संस्थाओं के अतिरिक्त किसी अन्य संस्थान में नहीं पढ़ेंगे।
5. इनमें कौन-मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और क्यों?
(क) न्यूनतम देय मज़दूरी नहीं देना।
(ख) किसी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाना।
(ग) 9 बजे रात के बाद लाऊड-स्पीकर बजाने पर रोक लगाना।
(घ) भाषण तैयार करना।
6. गरीबों के बीच काम कर रहे एक कार्यकर्त्ता का कहना है कि गरीबों को मौलिक अधिकारों की ज़रूरत नहीं है। उनके लिए ज़रूरी यह है कि नीति-निर्देशक सिद्धांतों को कानूनी तौर पर बाध्यकारी बना दिया जाए। क्या आप इससे सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण बताएँ।
7. अनेक रिपोर्टों से पता चलता है कि जो जातियाँ पहले झाड़ देने के काम में लगी थीं उन्हें अब भी मज़बूरन यही काम करना पड़ रहा है। जो लोग अधिकार-पद पर बैठे हैं वे इन्हें कोई और काम नहीं देते। इनके बच्चों को पढ़ाई-लिखाई करने पर हतोत्साहित किया जाता है। इस उदाहरण में किस मौलिक-अधिकार का उल्लंघन हो रहा है।
8. एक मानवाधिकार-समूह ने अपनी याचिका में अदालत का ध्यान देश में मौजूद भूखमरी की स्थिति की तरफ खींचा। भारतीय खाद्य-निगम के गोदामों में 5 करोड़ टन से ज़्यादा अनाज भरा हुआ था। शोध से पता चलता है कि अधिकांश राशन-कार्डधारी यह नहीं जानते कि उचित-मूल्य की दुकानों से कितनी मात्रा में वे अनाज खरीद सकते हैं। मानवाधिकार समूह ने अपनी याचिका में अदालत से निवेदन किया कि वह सरकार को सार्वजनिक-वितरण-प्रणाली में सुधार करने का आदेश दे।
(क) इस मामले में कौन-कौन से अधिकार शामिल हैं? ये अधिकार आपस में किस तरह जुड़े हैं?
(ख) क्या ये अधिकार जीवन के अधिकार का एक अंग हैं?
9. इस अध्याय में उद्धत सोमनाथ लाहिड़ी द्वारा संविधान-सभा में दिए गए वक्तव्य को पढ़ें। क्या आप उनके कथन से सहमत हैं? यदि हाँ तो इसकी पुष्टि में कुछ उदाहरण दें। यदि नहीं तो उनके कथन के विरुद्ध तर्क प्रस्तुत करें।
10. आपके अनुसार कौन-सा मौलिक अधिकार सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है? इसके प्रावधानों को संक्षेप में लिखें और तर्क देकर बताएँ कि यह क्यों महत्त्वपूर्ण है?