अध्याय 01 हुसैन की कहानी अपनी ज़बानी
बड़ौदा का बोर्डिंग स्कूल
मकबूल अब लड़का नहीं रहा क्योंकि उसके दादा चल बसे। लड़के के अब्बा ने सोचा क्यों न उसे बड़ौदा के बोर्डिंग स्कूल में दाखिल करा दिया जाए, वरना दिनभर अपने दादा के कमरे में बंद रहता है। सोता भी है तो दादा के बिस्तर पर और वही भूरी अचकन ओढ़े, जैसे दादा की बगल में सिमटकर सोया हो। घर में न किसी से बात न चीत, बस गुमसुम।
अब्बा ने फ़ौरन मकबूल को चाचा के हवाले किया और हुकुम दिया कि “इसे बड़ौदा छोड़ आओ, वहाँ लड़कों के साथ इसका दिल लग जाएगा। पढ़ाई के साथ मज़हबी तालीम, रोज़ा, नमाज़, अच्छे आचरण के चालीस सबक, पाकीज़गी के बारह तरीके सीख जाएगा।”
महाराजा सियाजीराव गायकवाड़ का साफ़-सुथरा शहर बड़ौदा। राजा मराठा प्रजा गुजराती। शहर में दाखिल होने पर ‘हिज़ हाइनेस’ की पाँच धातुओं से बनी मूर्ति, शानदार घोड़े पर सवार ‘दौलते बरतानिया’ के मेडेल लटकाए, सीना ताने दूर से ही दिखाई देती है।
दारुलतुलबा (छात्रावास) मदरसा हुसामिया, सिंह बाई माता रोड, गैडी गेट। तालाब किनारे सुलेमानी जमात का बोर्डिंग स्कूल। गुजरात की मशहूर ‘अरके तिहाल’ की ख्याति वाले जी.एम. हकीम अब्बास तैयबजी की देख-रेख में, जो नेशनल कांग्रेस और गांधी जी के अनुयायी, इसीलिए छात्रों के मुँड़े सिरों पर गांधी टोपी और बदन पर खादी का कुरता-पायजामा।
मौलवी अकबर धार्मिक विद्वान, कुरान और उर्दू साहित्य के उस्ताद। केशवलाल गुजराती ज़बान के क्लास टीचर। स्काउट मास्टर, मेजर अब्दुल्ला पठान। गुलज़मा खान बैंड मास्टर। बावर्ची गुलाम की रोटियाँ और बीवी नरगिस का सालन गोश्त।
मकबूल को इसी बोर्डिंग के अहाते में छोड़ा जाता है। यहाँ उसकी दोस्ती छह लड़कों से होती है, जो एक दूसरे के करीब हो जाते हैं। दो साल की नज़दीकी
तमाम उम्र कभी दिल की दूरी में बदल नहीं पाई। हालाँकि हर एक अलग-अलग दिशाओं में बँटे, छः हीले और बहाने हुए। एक डभोई का अत्तर व्यापारी बना तो दूसरा सियाजी रेडियो की आवाज़। एक बना कराची का नागरिक, तो दूसरा मोती की तलाश में कुवैत पहुँचा। एक पहुँचा बंबई और अपना कोट-पतलून और पीली धारी की टाई उतार फेंकी, अबा-कबा पहन मस्जिद का मेंबर बना। एक उड़ने वाले घोड़े पर, पैर रकाब में डाले बना कलाकार और दुनिया की लंबाई-चौड़ाई में चक्कर मार रहा है।
यह पाँच दोस्त-
मोहम्मद इब्राहीम गोहर अली-डभोई के अत्तार, छोटा कद ठहरी हुई नज़रें।
अंबर और मुश्क के अत्तर में डूबे, गुणों के भंडार। डाक्टर मनव्वरी का लड़का अरशद-हमेशा हँसता चेहरा। गाने और खाने का शौकीन। भरा लेकिन कसा पहलवानी जिस्म।
हामिद कंबर हुसैन-शौक, कुश्ती और दंड-बैठक, खुश-मिज़ाज, गप्पी, बात में बात मिलाने में उस्ताद।
चौथा दोस्त अब्बासजी अहमद-गठा जिस्म, खुला रंग, कुछ-कुछ जापानी खिंची सी आँखें, स्वभाव से बिज़नेसमैन, हँसने का अंदाज़ दिलकश।
पाँचवा अब्बास अली फ़िदा-बहुत नरम लहज़ा, चेहरे पर ऊँचा माथा, वक्त का पाबंद, खामोश तबियत, हाथों से किताब शायद ही कभी छूटी हो।
मदरसे का सालाना जलसा, मुगलवाड़े के मशहूर फ़ोटोग्राफ़र लुकमानी ट्राइपॉड पर रखे कैमरे पर काला कपड़ा ढँके जैसे उसके अंदर घुसे जा रहे हों। सिर्फ़ खास मेहमानों और उस्तादों का ‘ग्रुप फ़ोटोग्राफ़’ खींचा जा रहा है। दूर लड़कों की भीड़ में खड़ा मकबूल मौके की तलाश में है। जैसे ही लुकमानी ने फ़ोकस जमाया और कहा ‘रेडी’ मकबूल दौड़कर ग्रुप के कोने में खड़ा हो गया। इस तरह उस्तादों की बिना इजाज़त उसने अपनी कई तसवीरें खिंचवाईं।
मकबूल ने खेल-कूद में हिस्सा लिया, हाई जंप में पहला इनाम, दौड़ में फिसड्डी। जब ड्रॉइंग मास्टर मोहम्मद अतहर ने ब्लैकबोर्ड पर सफ़ेद चॉक से एक
बहुत बड़ी चिड़िया बनाई और लड़कों से कहा-“अपनी-अपनी स्लेट पर उसकी नकल करो,” तो मकबूल की स्लेट पर हूबहू वही चिड़िया ब्लैकबोर्ड से उड़कर आ बैठी। दस में से दस नंबर!
दो अक्तूबर, स्कूल गांधी जी की सालगिरह मना रहा है। क्लास शुरू होने से पहले मकबूल गांधी जी का पोट्रेट ब्लैकबोर्ड पर बना चुका है। अब्बास तैयबजी
देखकर बहुत खुश हुए। मदरसे के जलसे पर मौलवी अकबर ने मकबूल को ‘इलम’ (ज्ञान) पर दस मिनट का भाषण याद कराया, बाकायदा अभिनय के साथ।
मकबूल जिसने हुनर में कमाल हासिल किया, वह सारी दुनिया का चहेता। जिसके पास कोई हुनर का कमाल नहीं, वह कभी दिलों को जीत नहीं सकता। किसे मालूम, यह कस्बे कमाल हुनर का कमाल सारी दुनिया में फैलेगा!
रानीपुर बाज़ार
रानीपुर बाज़ार में चाचा मुरादअली को उनके बड़े भाई फ़िदा ने एक जनरल स्टोर की दुकान खुलवा दी। फ़िदा साहब तो सर करीमभाई की ‘मालवा टैक्सटाइल’ में टाइमकीपर थे ही मगर बिज़नेस में दिलचस्पी रखते। इस विषय पर कई मोटी-मोटी किताबें जमाकर रखी थीं। मकबूल को छुट्टी के दिन दुकान पर बैठने ज़रूर भेजा जाता, ताकि शुरू से बिज़नेस के गुण सीख ले। खुद तो नौकरी के जाल में ऐसे फँसे कि अट्वाइस साल की ‘कैद बामशक्कत’ भुगतनी पड़ी।
छोटे भाई मुरादअली से पहलवानी छुड़वाकर दुकानें लगवाईं। जनरल स्टोर न चला तो कपड़े की दुकान, वह भी नहीं चली तो तोपखाना रोड पर आलीशान रेस्तराँ। मकबूल उन दुकानों पर बैठा, मगर उसका सारा ध्यान ड्रॉइंग और पेंटिंग में। न चीज़ों की कीमतें याद, न कपड़ों की पहनाई का पता। हाँ, मुराद चाचा के होटल में घूमती हुई चाय की प्यालियों की गिनती और पहाड़े उसे ज़बानी याद रहते। गल्ले का हिसाब-किताब सही। शाम को हिसाब में दस रुपये लिखे तो किताब में बीस स्के किए।
जनरल स्टोर के सामने से अकसर घूँघट ताने गुज़रने वाली एक स्त्री का स्केच, गेहूँ की बोरी उठाए मज़दूर की पेंचवाली पगड़ी का स्केच, पठान की दाढ़ी और माथे पर सिज़दे के निशान, बुरका पहने औरत और बकरी का बच्चा। अकसर वह स्त्री कपड़े धोने के साबुन की टिकिया लेने आया करती। चाचा को देखकर घूँघट के पट खुल जाते और अकसर मकबूल की नाक पकड़कर खिलखिला उठती। मकबूल ने उसके कई स्केच बनाए। एक स्केच उसके हाथ लग गया जिसे उसने छिपा लिया। मकबूल ने पेपरमिंट की गोली हाथ में थमाई और स्केच निकलवाया।
एक दिन दुकान के सामने से फ़िल्मी इश्तिहार का ताँगा गुज़रा। (साइलेंट फ़िल्मों के ज़माने में शहर में चल रही फ़िल्म का इश्तिहार ताँगे में ब्रास बैंड के साथ शहर के गली-कूचों से गुज़रता। फ़िल्मी इश्तिहार रंगीन पतंग के कागज़ पर हीरो-हीरोइन की तसवीरों के साथ छपे, बाँटे जाते।) कोल्हापुर के शांताराम की फ़िल्म ‘सिंहगढ़’ का पोस्टर, रंगीन पतंग के कागज़ पर छपा, मराठा योद्धा, हाथ में खिंची तलवार और ढाल। मकबूल का जी चाहा कि उसकी ऑयल पेंटिंग बनाई जाए। आज तक ऑयल कलर इस्तेमाल ही नहीं किया था। वही रंगीन चॉक या वॉटर कलर। अब्बा तो बेटे को बिज़नेसमैन बनाने के सपने देख रहे थे, रंग-रोगन क्यों दिलाते! मगर इस
पोस्टर ने मकबूल को इस कदर भड़काया कि वह गया सीधा अलीहुसैन रंगवाले की दुकान पर और अपनी दो स्कूल की किताबें, शायद भूगोल और इतिहास, बेचकर ऑयल कलर की ट्यूबें खरीद डालीं और पहली ऑयल पेंटिंग चाचा की दुकान पर बैठकर बनाई। चाचा बहुत नाराज़, बड़े भाई तक शिकायत पहुँचाई। अब्बा ने पेंटिंग देखी और बेटे को गले लगा लिया।
एक और घटना, जब मकबूल इंदौर सर्राफ़ा बाज़ार के करीब तांबे पीतल की दुकानों की गली में लैंडस्केप बना रहा था, वहाँ बेंद्रे साहब भी ऑनस्पॉट पेंटिंग करते मिले। मकबूल को बेंद्रे साहब की टेकनीक बहुत पसंद आई। ‘टिंटेड पेपर’ पर ‘गोआश वॉटर कलर’। इस इत्तफ़ाकी मुलाकात के बाद मकबूल अकसर बेंद्रे के साथ ‘लैंडस्केप’ पेंट करने जाया करता।
1933 में बेंद्रे ने कैनवस पर एक बड़ी पेंटिंग घर में पेंट करना शुरू की, ‘वैगबांड’ था इस पेंटिंग का नाम। अपने छोटे भाई को एक नौजवान पठान के कपड़े पहनाकर मॉडल बनाया। सिर पर हरा रूमाल बाँधा, कंधे पर कंबल, हाथ में डंडा। ‘सूरा’ और ‘डेगा’, यानी फ्रेंच इंप्रेशन की झलक। रॉयल अकादमी का रूखा रियलिज़्म, उस पर एक्सप्रेशनिस्ट ब्रश स्ट्रोक का ढाँचा।
इस पेंटिंग पर बेंद्रे को बंबई आर्ट सोसाइटी ने चाँदी का मेडेल दिया। हिंदुस्तानी माडर्न आर्ट का यह शायद पहला क्रांतिकारी कदम था, हालाँकि इस कदम में ‘जोशो-अज़्म’ की सुर्खी कम और जवानी का गुलाबीपन ज़्यादा था। राजा रविवर्मा के पश्चिमी सैकेंड हैंड रियलिज्म के बाद एक हलकी सी हलचल
गगनेंद्रनाथ टैगोर के क्यूबिस्टिक तजुर्बे से शुरू हुई। बात आगे बढ़ी नहीं। बेंद्रे का गुलाबीपन भी कुछ ही अर्से तक तरोताज़ा रहा। बड़ौदा पहुँचकर वह ‘फैकल्टी ऑफ़ फ़ाइन आर्ट’ के हर दिल अज़ीज़ डीन बन गए।
मकबूल की पेंटिंग की शुरुआत और इंदौर जैसी जगह, सिवाए बेंद्रे के कोई नहीं। वह उनके पास जाता रहा और एक दिन उन्हें अपने घर ले आया। अब्बा से मिलाया। बेंद्रे ने मकबूल के काम पर बात की। दूसरे दिन अब्बा ने बंबई से ‘विनसर न्यूटन’ ऑयल ट्यूब और कैनवस मागवाने का आर्डर भेज दिया।
अब सोचा जाए तो ताज्जुब होता है कि उस ज़माने के इंदौर जैसे कपड़ा मिल माहौल में, काज़ी और मौलवियों के पड़ोस में एक बाप कैसे अपने बेटे को आर्ट की लाइन इख्तियार करने पर राज़ी हो गया, जबकि यह आर्ट का शगल राजे-महाराजों और अमीरों की अय्याश दीवारों की सिऱ् लटकन बना रहा, आधी सदी और ज़रूरत थी कि आर्ट महलों से उतरकर कारखानों की दीवारों तक पहुँचे।
मकबूल के अब्बा की रोशनखयाली न जाने कैसे पचास साल की दूरी नज़र हुसैन की अंदाज़ कर गई और बेंद्रे के मशवरे पर उसने अपने बेटे की तमाम रिवायती कहानी… बंदिशों को तोड़ फेंका और कहा-“बेटा जाओ, और ज़िदगी को रंगों से भर दो।”
प्रश्न-अभ्यास
1. लेखक ने अपने पाँच मित्रों के जो शब्द-चित्र प्रस्तुत किए हैं, उनसे उनके अलग-अलग व्यक्तित्व की झलक मिलती है। फिर भी वे घनिष्ठ मित्र हैं, कैसे?
2. ‘प्रतिभा छुपाये नहीं छुपती’ कथन के आधार पर मकबूल फिदा हुसैन के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालिए।
3. ‘लेखक जन्मजात कलाकार है।’-इस आत्मकथा में सबसे पहले यह कहाँ उद्घाटित होता है?
4. दुकान पर बैठे-बैठे भी मकबूल के भीतर का कलाकार उसके किन कार्यकलापों से अभिव्यक्त होता है?
5. प्रचार-प्रसार के पुराने तरीकों और वर्तमान तरीकों में क्या फ़र्क आया है? पाठ के आधार पर बताएँ।
6. कला के प्रति लोगों का नज़रिया पहले कैसा था? उसमें अब क्या बदलाव आया है?
7. मकबूल के पिता के व्यक्तित्व की तुलना अपने पिता के व्यक्तित्व से कीजिए?
शब्दार्थ और टिप्पणी
मज़हबी | - | धर्म विशेष से संबंध रखने वाली / वाला |
पाकीज़गी | - | शुद्धता, पवित्रता |
अरके तिहाल | - | यूनानी दवा का एक नाम |
सालन | - | शोरबादार तरकारी / रसेदार सब्ज़ी |
हीले | - | बहाने, टालमटोल |
अत्तर ( अतर ) | - | सुगंध, इत्र |
दिलकश | - | मन को लुभाने वाला, चित्ताकर्षक |
पोर्ट्रेट | - | हाथ की बनी तसवीर |
मेहतरानी | - | सफ़ाई का काम करने वाली स्त्री |
स्केच | - | चित्र |
सिजदा | - | माथा टेकना, खुदा के आगे सिर झुकाना |
टिंटेड पेपर | - | चित्रकला में प्रयुक्त होने वाला कागज़ |
रोशन खयाली | - | आज़ाद खयाली, खुले दिमाग का, अच्छे खयाल रखने वाले |
रिवायती | - | पारंपरिक |