अध्याय 03 टार्च बेचनेवाले
हरिशंकर परसाई
( सन् 1922-1995 )
हरिशंकर परसाई का जन्म जमानी गाँव, ज़िला होशंगाबाद, मध्य प्रदेश में हुआ था। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. किया। कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य करने के पश्चात सन् 1947 से वे स्वतंत्र लेखन में जुट गए। उन्होंने जबलपुर से वसुधा नामक साहित्यिक पत्रिका निकाली।
परसाई ने व्यंग्य विधा को साहित्यिक प्रतिष्ठा प्रदान की। उनके व्यंग्य-लेखों की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि वे समाज में आई विसंगतियों, विडंबनाओं पर करारी चोट करते हुए चिंतन और कर्म की प्रेरणा देते हैं। उनके व्यंग्य गुदगुदाते हुए पाठक को झकझोर देने में सक्षम हैं।
भाषा-प्रयोग में परसाई को असाधारण कुशलता प्राप्त है। वे प्राय: बोलचाल के शब्दों का प्रयोग सतर्कता से करते हैं। कौन सा शब्द कब और कैसा प्रभाव पैदा करेगा इसे वे बखूबी जानते थे।
परसाई ने दो दर्जन से अधिक पुस्तकों की रचना की है, जिनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं - हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे (कहानी-संग्रह); रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज (उपन्यास); तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बेईमानी की परत, पगडंडियों का ज़माना, सदाचार की तावीज़, शिकायत मुझे भी है, और अंत में (निबंध-संग्रह); वैष्णव की फिसलन, तिरछी रेखाएँ, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, विकलांग श्रद्धा का दौर (व्यंग्य-लेख संग्रह)। उनका समग्र साहित्य परसाई रचनावली के रूप में छह भागों में प्रकाशित है।
यहाँ संकलित रचना टार्च बेचनेवाले में टॉर्च के प्रतीक के माध्यम से परसाई ने आस्थाओं के बाज़ारीकरण और धार्मिक पाखंड पर प्रहार किया है।
टार्च बेचनेवाले
वह पहले चौराहों पर बिजली के टार्च बेचा करता था। बीच में कुछ दिन वह नहीं दिखा। कल फिर दिखा। मगर इस बार उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी और लंबा कुरता पहन राा था।
मैंने पूछा, “कहाँ रहे? और यह दाढ़ी क्यों बढ़ा रखी है?”
उसने जवाब दिया, “बाहर गया था।”
दाढ़ीवाले सवाल का उसने जवाब यह दिया कि दाढ़ी पर हाथ फेरने लगा। मैंने कहा, “आज तुम टार्च नहीं बेच रहे हो?”
उसने कहा, “वह काम बंद कर दिया। अब तो आत्मा के भीतर टार्च जल उठा है। ये ‘सूरजछाप’ टार्च अब व्यर्थ मालूम होते हैं।”
मैंने कहा, “तुम शायद संन्यास ले रहे हो। जिसकी आत्मा में प्रकाश फैल जाता है, वह इसी तरह हरामखोरी पर उतर आता है। किससे दीक्षा ले आए?”
मेरी बात से उसे पीड़ा हुई। उसने कहा, “ऐसे कठोर वचन मत बोलिए। आत्मा सबकी एक है। मेरी आत्मा को चोट पहुँचाकर आप अपनी ही आत्मा को घायल कर रहे हैं।”
मैंने कहा, “यह सब तो ठीक है। मगर यह बताओ कि तुम एकाएक ऐसे कैसे हो गए? क्या बीवी ने तुम्हें त्याग दिया? क्या उधार मिलना बंद हो गया? क्या साहूकारों ने ज़्यादा तंग करना शुरू कर दिया? क्या चोरी के मामले में फँस गए हो? आखिर बाहर का टार्च भीतर आत्मा में कैसे घुस गया?”
उसने कहा, “आपके सब अंदाज़ गलत हैं। ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक घटना हो गई है, जिसने जीवन बदल दिया। उसे मैं गुप्त रखना चाहता हूँ। पर क्योंकि मैं आज ही यहाँ से दूर जा रहा हूँ, इसलिए आपको सारा किस्सा सुना देता हूँ।”
उसने बयान शुरू किया -
पाँच साल पहले की बात है। मैं अपने एक दोस्त के साथ हताश एक जगह बैठा था। हमारे सामने आसमान को छूता हुआ एक सवाल खड़ा था। वह सवाल था ‘पैसा कैसे पैदा करें?’ हम दोनों ने उस सवाल की एक-एक टाँग पकड़ी और उसे हटाने की कोशिश करने लगे। हमें पसीना आ गया, पर सवाल हिला भी नहीं। दोस्त ने कहा - “यार, इस सवाल के पाँव ज़मीन में गहरे गड़े हैं। यह उखड़ेगा नहीं। इसे टाल जाएँ।”
हमने दूसरी तरफ़ मुँह कर लिया। पर वह सवाल फिर हमारे सामने आकर खड़ा हो गया। तब मैंने कहा - “यार, यह सवाल टलेगा नहीं। चलो, इसे हल ही कर दें। पैसा पैदा करने के लिए कुछ काम-धंधा करें। हम इसी वक्त अलग-अलग दिशाओं में अपनी-अपनी किस्मत आज़माने निकल पड़ें। पाँच साल बाद ठीक इसी तारीख को इसी वक्त हम यहाँ मिलें।”
दोस्त ने कहा - “यार, साथ ही क्यों न चलें?”
मैंने कहा - “नहीं। किस्मत आज़मानेवालों की जितनी पुरानी कथाएँ मैंने पढ़ी हैं, सबमें वे अलग-अलग दिशा में जाते हैं। साथ जाने में किस्मतों के टकराकर टूटने का डर रहता है।”
तो साहब, हम अलग-अलग चल पड़े। मैंने टार्च बेचने का धंधा शुरू कर दिया। चौराहे पर या मैदान में लोगों को इकट्ठा कर लेता और बहुत नाटकीय ढंग से कहता “आजकल सब जगह अँधेरा छाया रहता है। रातें बेहद काली होती हैं। अपना ही हाथ नहीं सूझता। आदमी को रास्ता नहीं दिखता। वह भटक जाता है। उसके पाँव काँटों से बिंध जाते हैं, वह गिरता है और उसके घुटने लहूलुहान हो जाते हैं। उसके आसपास भयानक अँधेरा है। शेर और चीते चारों तरफ़ घूम रहे हैं, साँप ज़मीन पर रेंग रहे हैं। अँधेरा सबको निगल रहा है। अँधेरा घर में भी है। आदमी रात को पेशाब करने उठता है और साँप पर उसका पाँव पड़ जाता है। साँप उसे डँस लेता है और वह मर जाता है।”
आपने तो देखा ही है साहब, कि लोग मेरी बातें सुनकर कैसे डर जाते थे। भर-दोपहर में वे अँधेरे के डर से काँपने लगते थे। आदमी को डराना कितना आसान है!
लोग डर जाते, तब मैं कहता - “भाइयों, यह सही है कि अँधेरा है, मगर प्रकाश भी है। वही प्रकाश मैं आपको देने आया हूँ। हमारी ‘सूरज छाप’ टार्च में वह प्रकाश है, जो अंधकार को दूर भगा देता है। इसी वक्त ‘सूरज छाप’ टार्च खरीदो और अँधेरे को दूर करो। जिन भाइयों को चाहिए, हाथ ऊँचा करें।”
साहब, मेरे टार्च बिक जाते और मैं मज़े में ज़िदगी गुज़ारने लगा।
वायदे के मुताबिक ठीक पाँच साल बाद मैं उस जगह पहुँचा, जहाँ मुझे दोस्त से मिलना था। वहाँ दिन-भर मैंने उसकी राह देखी, वह नहीं आया। क्या हुआ? क्या वह भूल गया? या अब वह इस असार संसार में ही नहीं है?
मैं उसे ढूँढ़ने निकल पड़ा।
एक शाम जब मैं एक शहर की सड़क पर चला जा रहा था, मैंने देखा कि पास के मैदान में खूब रोशनी है और एक तरफ़ मंच सजा है। लाउडस्पीकर लगे हैं। मैदान में हज़ारों नर-नारी श्रद्धा से झुके बैठे हैं। मंच पर सुंदर रेशमी वस्त्रों से सजे एक भव्य पुरुष बैठे हैं। वे खूब पुष्ट हैं, सँवारी हुई लंबी दाढ़ी है और पीठ पर लहराते लंबे केश हैं।
मैं भीड़ के एक कोने में जाकर बैठ गया।
भव्य पुरुष फ़िल्मों के संत लग रहे थे। उन्होंने गुरु-गंभीर वाणी में प्रवचन शुरू किया। वे इस तरह बोल रहे थे जैसे आकाश के किसी कोने से कोई रहस्यमय संदेश उनके कान में सुनाई पड़ रहा है जिसे वे भाषण दे रहे हैं।
वे कह रहे थे - “मैं आज मनुष्य को एक घने अंधकार में देख रहा हूँ। उसके भीतर कुछ बुझ गया है। यह युग ही अंधकारमय है। यह सर्वग्राही अंधकार संपूर्ण विश्व को अपने उदर में छिपाए है। आज मनुष्य इस अंधकार से घबरा उठा है। वह
पथभ्रष्ट हो गया है। आज आत्मा में भी अंधकार है। अंतर की आँखें ज्योतिहीन हो गई हैं। वे उसे भेद नहीं पातीं। मानव-आत्मा अंधकार में घुटती है। मैं देख रहा हूँ, मनुष्य की आत्मा भय और पीड़ा से त्रस्त है।”
इसी तरह वे बोलते गए और लोग स्तब्ध सुनते गए।
मुझे हँसी छूट रही थी। एक-दो बार दबाते-दबाते भी हँसी फूट गई और पास के श्रोताओं ने मुझे डाँटा।
भव्य पुरुष प्रवचन के अंत पर पहुँचते हुए कहने लगे - “भाइयों और बहनों, डरो मत। जहाँ अंधकार है, वहीं प्रकाश है। अंधकार में प्रकाश की किरण है, जैसे प्रकाश में अंधकार की किंचित कालिमा है। प्रकाश भी है। प्रकाश बाहर नहीं है, उसे अंतर में खोजो। अंतर में बुझी उस ज्योति को जगाओ। मैं तुम सबका उस ज्योति को जगाने के लिए आह्बान करता हूँ। मैं तुम्हारे भीतर वही शाश्वत ज्योति को जगाना चाहता हूँ। हमारे ‘साधना मंदिर’ में आकर उस ज्योति को अपने भीतर जगाओ।”
साहब, अब तो मैं खिलखिलाकर हँस पड़ा। पास के लोगों ने मुझे धक्का देकर भगा दिया। मैं मंच के पास जाकर खड़ा हो गया।
भव्य पुरुष मंच से उतरकर कार पर चढ़ रहे थे। मैंने उन्हें ध्यान से पास से देखा। उनकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी, इसलिए मैं थोड़ा झिझका। पर मेरी तो दाढ़ी नहीं थी। मैं तो उसी मौलिक रूप में था। उन्होंने मुझे पहचान लिया। बोले - “अरे तुम!” मैं पहचानकर बोलने ही वाला था कि उन्होंने मुझे हाथ पकड़कर कार में बिठा लिया। मैं फिर कुछ बोलने लगा तो उन्होंने कहा - “बँगले तक कोई बातचीत नहीं होगी। वहीं ज्ञान-चर्चा होगी।”
मुझे याद आ गया कि वहाँ ड्राइवर है।
बँगले पर पहुँचकर मैंने उसका ठाठ देखा। उस वैभव को देखकर मैं थोड़ा झिझका, पर तुरंत ही मैंने अपने उस दोस्त से खुलकर बातें शुरू कर दीं।
मैंने कहा - “यार, तू तो बिलकुल बदल गया।”
उसने गंभीरता से कहा - “परिवर्तन जीवन का अनंत क्रम है।”
मैंने कहा - “साले, फिलासफ़ी मत बघार यह बता कि तूने इतनी दौलत कैसे कमा ली पाँच सालों में?”
उसने पूछा - “तुम इन सालों में क्या करते रहे?”
मैंने कहा - “मैं तो घूम-घूमकर टार्च बेचता रहा। सच बता, क्या तू भी टार्च का व्यापारी है?”
उसने कहा - “तुझे क्या ऐसा ही लगता है? क्यों लगता है?”
मैंने उसे बताया कि जो बातें मैं कहता हूँ; वही तू कह रहा था मैं सीधे ढंग से कहता हूँ, तू उन्हीं बातों को रहस्यमय ढंग से कहता है। अँधेरे का डर दिखाकर लोगों को टार्च बेचता हूँ। तू भी अभी लोगों को अँधेरे का डर दिखा रहा था, तू भी ज़रूर टार्च बेचता है।
उसने कहा - “तुम मुझे नहीं जानते, मैं टार्च क्यों बेचूगा! मैं साधु, दार्शनिक और संत कहलाता हूँ।”
मैंने कहा - “तुम कुछ भी कहलाओ, बेचते तुम टार्च हो। तुम्हारे और मेरे प्रवचन एक जैसे हैं। चाहे कोई दार्शनिक बने, संत बने या साधु बने, अगर वह लोगों को अँधेरे का डर दिखाता है, तो ज़रूर अपनी कंपनी का टार्च बेचना चाहता है। तुम जैसे लोगों के लिए हमेशा ही अंधकार छाया रहता है। बताओ, तुम्हारे जैसे किसी आदमी ने हज़ारों में कभी भी यह कहा है कि आज दुनिया में प्रकाश फैला है? कभी नहीं कहा। क्यों? इसलिए कि उन्हें अपनी कंपनी का टार्च बेचना है। मैं खुद भर-दोपहर में लोगों से कहता हूँ कि अंधकार छाया है। बता किस कंपनी का टार्च बेचता है?”
मेरी बातों ने उसे ठिकाने पर ला दिया था। उसने सहज ढंग से कहा - “तेरी बात ठीक ही है। मेरी कंपनी नयी नहीं है, सनातन है।”
मैंने पूछा - “कहाँ है तेरी दुकान? नमूने के लिए एकाध टार्च तो दिखा। ‘सूरज छाप’ टार्च से बहुत ज़्यादा बिक्री है उसकी।”
उसने कहा - “उस टार्च की कोई दुकान बाज़ार में नहीं है। वह बहुत सूक्ष्म है। मगर कीमत उसकी बहुत मिल जाती है। तू एक-दो दिन रह, तो मैं तुझे सब समझा देता हूँ।”
“तो साहब मैं दो दिन उसके पास रहा। तीसरे दिन ‘सूरज छाप’ टार्च की पेटी को नदी में फेंककर नया काम शुरू कर दिया।”
वह अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरने लगा। बोला - “बस, एक महीने की देर और है।” मैंने पूछा -“तो अब कौन-सा धंधा करोगे?”
उसने कहा - “धंधा वही करूँगा, यानी टार्च बेचूँगा। बस कंपनी बदल रहा हूँ।”
प्रश्न-अभ्यास
1. लेखक ने टार्च बेचनेवाली कंपनी का नाम ‘सूरज छाप’ ही क्यों रखा?
2. पाँच साल बाद दोनों दोस्तों की मुलाकात किन परिस्थितियों में और कहाँ होती है?
3. पहला दोस्त मंच पर किस रूप में था और वह किस अँधेरे को दूर करने के लिए टार्च बेच रहा था?
4. भव्य पुरुष ने कहा - ‘जहाँ अंधकार है वहीं प्रकाश है’। इसका क्या तात्पर्य है?
5. भीतर के अँधेरे की टार्च बेचने और ‘सूरज छाप’ टार्च बेचने के धंधे में क्या फ़र्क है? पाठ के आधार पर बताइए।
6. ‘सवाल के पाँव ज़मीन में गहरे गड़े हैं। यह उखड़ेगा नहीं।’ इस कथन में मुनष्य की किस प्रवृत्ति की ओर संकेत है और क्यों?
7. ‘व्यंग्य विधा में भाषा सबसे धारदार है।’ परसाई जी की इस रचना को आधार बनाकर इस कथन के पक्ष में अपने विचार प्रकट कीजिए।
8. आशय स्पष्ट कीजिए-
(क) क्या पैसा कमाने के लिए मनुष्य कुछ भी कर सकता है?
(ख) प्रकाश बाहर नहीं है, उसे अंतर में खोजो। अंतर में बुझी उस ज्योति को जगाओ।
(ग) धंधा वही करूँगा, यानी टार्च बेचूँगा। बस कंपनी बदल रहा हूँ।
9. लेखक ने ‘सूरज छाप’ टार्च की पेटी को नदी में क्यों फेंक दिया? क्या आप भी वही करते?
10. टार्च बेचने वाले किस प्रकार की स्किल का प्रयोग करते हैं? क्या इसका ‘स्किल इंडिया’ प्रोग्राम से कोई संबंध है?
योग्यता-विस्तार
1. ‘पैसा कमाने की लिप्सा ने आध्यात्मिकता को भी एक व्यापार बना दिया है।’ इस विषय पर कक्षा में परिचर्चा कीजिए।
2. समाज में फैले अंधविश्वासों का उल्लेख करते हुए एक लेख लिखिए।
3. एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा हरिशंकर परसाई पर बनाई गई फ़िल्म देखिए।
शब्दार्थ और टिप्पणी
गुरु गंभीर वाणी - विचारों से पुष्ट वाणी
सर्वग्राही - सबको ग्रहण करनेवाला, सबको समाहित करनेवाला
स्तब्ध - हैरान
आह्वान - पुकारना, बुलाना
शाश्वत - चिंतनन, हमेशा रहनेवाली
सनातन - सदैव रहनेवाला