अध्याय 07 विविध संदर्भों में सरोकार और आवश्यकताएँ
क. पोषण, स्वास्थ्य और स्वास्थ्य विज्ञान
7 क.1 परिचय
हर व्यक्ति स्वस्थ बने रहने का अनुभव और अच्छी ज़िंदगी जीना चाहता है। वर्ष 1948 में मानव अधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा में कहा गया है - “हर व्यक्ति को अपने और अपने परिवार के लिए आहार की पर्याप्तता के साथ-साथ उनके स्वास्थ्य तथा कल्याण के लिए अच्छा जीवन स्तर पाने का अधिकार है”। फिर भी, अनेक पर्यावरणीय परिस्थितियाँ और हमारी अपनी जीवन शैली हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं और कई बार हानिकारक प्रभाव डालती हैं। हम पहले “स्वास्थ्य” को परिभाषित करें। स्वास्थ्य से संबंधित विश्व का प्रमुख संगठन अर्थात् विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) ने स्वास्थ्य की परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत की है - “वह स्थिति जिसमें मनुष्य मानसिक, शारीरिक तथा सामाजिक रूप से पूर्णतः स्वस्थ रहता है। मनुष्य में रोगों का अभाव होने का मतलब उसका स्वस्थ होना नहीं है।” रोग का अर्थ है - शारीरिक स्वास्थ्य की क्षति, शरीर के किसी भाग या अंग के कार्य में परिवर्तन/विघटन/विक्षिप्तता, जो सामान्य कार्य करने में बाधा डाले और पूर्ण रूप से स्वस्थ न रहने दे। स्वास्थ्य एक मौलिक मानव अधिकार है। सभी लोगों को, चाहे उनकी आयु, जेंडर, जाति, पंथ/धर्म, निवास (शहरी, ग्रामीण, आदिवासी) तथा राष्ट्रीयता कोई भी हो, जीवन भर पूर्ण स्वस्थ रहने का अवसर मिलना चाहिए।
हर स्वास्थ्य-व्यवसायी (स्वास्थ्य के विभिन्न पहलुओं से संबंधित व्यक्ति) का उद्देश्य उत्तम स्वास्थ्य को बढ़ावा देना है अर्थात् दूसरे शब्दों में तंदुर्स्ती और जीवन की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित करना है।
7 क.2 स्वास्थ्य और इसके आयाम
आपने ध्यान दिया होगा कि स्वास्थ्य की परिभाषा विभिन्न शारीरिक, सामाजिक तथा मानसिक आयामों को समाहित करती है। आइए शारीरिक स्वास्थ्य पर विस्तार से चर्चा करने से पहले हम इन तीनों आयामों पर संक्षिप्त चर्चा करें।
सामाजिक स्वास्थ्य - इसका आशय व्यक्तियों और समाज के स्वास्थ्य से है। जब हम किसी समाज से जुड़ते हैं तो इसका आशय उस समाज से होता है जिसमें सभी नागरिकों को अच्छे स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य वस्तुओं तथा सेवाओं को उपलब्ध करने के समान अवसर और पहुँच प्राप्त हो। जब हम व्यक्तियों का उल्लेख करते हैं, तब हमारा आशय हर व्यक्ति की कुशलता से होता है - वह व्यक्ति दूसरे लोगों और सामाजिक संस्थाओं के साथ कितनी अच्छी तरह व्यवहार करता है। इसमें हमारे सामाजिक कौशल और समाज के सदस्य के रूप में काम करने की क्षमता शामिल है। जब हमें समस्याओं और तनाव का सामना करना पड़ता है, तब सामाजिक सहयोग उन समस्याओं से निपटने और उन्हें हल करने में हमारी मदद करता है। सामाजिक सहयोग देने वाले उपाय बच्चों तथा वयस्कों में सकारात्मक समायोजन (तालमेल) करने में योगदान देते हैं और व्यक्तिगत विकास को प्रोत्साहित करते हैं। आजकल सामाजिक स्वास्थ्य पर बल देने का महत्त्व बढ़ रहा है क्योंकि वैज्ञानिक अध्ययन दर्शाते हैं कि जो लोग सामाजिक रूप से अच्छी तरह तालमेल बनाए रखते हैं वे लंबे समय तक जीते हैं और बीमारी से भी जल्दी राहत पा लेते हैं। स्वास्थ्य से जुड़े कुछ सामाजिक निर्धारक हैं - रोज़गार की स्थिति
- कार्यस्थलों में सुरक्षा
- स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच
- सांस्कृतिक/धार्मिक आस्थाएँ, वर्जित कर्म और मूल्य-प्रणाली
- सामाजिक आर्थिक और पर्यावरण संबंधी परिस्थितियाँ
मानसिक स्वास्थ्य - इसका आशय भावात्मक तथा मनोवैज्ञानिक स्वस्थता से है। जिस व्यक्ति ने स्वस्थता की अनुभूति को अनुभव किया है, वह अपनी संज्ञानात्मक तथा भावात्मक क्षमताओं का उपयोग कर सकता है, समाज में सुचारू रूप से कार्य कर सकता है और दैनिक सामान्य ज़रूरतों को पूरा कर सकता है। नीचे बॉक्स में मानसिक स्वास्थ्य के सूचकों को दर्शाया गया है।
जिस व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य अच्छा होता है -
- वह स्वयं को समर्थ और सक्षम महसूस करता है।
- वह दैनिक जीवन में सामने आने वाले सामान्य स्तर के तनावों से निबट सकता है।
- उसके संबंध संतोषप्रद होते हैं।
- वह स्वतंत्र जीवन बिता सकता है।
- यदि किसी मानसिक या भावात्मक तनाव की परिस्थितियों का सामना करना पड़े तो वह उनका मुकाबला कर सकता है और उनसे सहज रूप से उबर सकता है।
- वह किन्हीं बातों से डरता नहीं है।
- जीवन में आने वाली छोटी-मोटी कठिनाइयों/समस्याओं से सामना करते हुए अनावश्यक रूप से लंबी अवधि तक परास्त या अवसाद महसूस नहीं करता है।
शारीरिक स्वास्थ्य - स्वास्थ्य के इस पहलू में शारीरिक तंदुरुस्ती और शरीर की क्रियाएँ एवं क्षमताएँ शामिल हैं। शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति सामान्य गतिविधियाँ कर सकता है, असाधारण रूप से थकान महसूस नहीं करता तथा उसमें संक्रमण और रोग के प्रति पर्याप्त प्रतिरोधक शक्ति होती है।
7 क.3 स्वास्थ्य देखभाल
हर व्यक्ति स्वयं अपने स्वास्थ्य के लिए उत्तरदायी होता है, परंतु यह एक प्रमुख सार्वजनिक सरोकार भी है। इसलिए सरकार यह महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी निभाती है और वह देश के नागरिकों को विभिन्न स्तरों पर स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराती है। यह इसलिए, क्योंकि अच्छा स्वास्थ्य व्यक्ति तथा परिवार के गुणवत्तापूर्ण जीवन और अच्छे जीवन स्तर की बुनियाद होता है और किसी समुदाय तथा राष्ट्र के सामाजिक, आर्थिक एवं मानव विकास को सुनिश्चित करने का मूल आधार होता है।
स्वास्थ्य की देखभाल में वे सभी विभिन्न सेवाएँ शामिल हैं जो स्वास्थ्य को संवर्द्धित करने, बनाए रखने, मॉनीटरिंग करने या पुनःस्थापित करने के उद्देश्य से स्वास्थ्य सेवाओं के एजेंटों या व्यवसायियों द्वारा व्यक्तियों अथवा समुदायों को उपलब्ध कराई जाती हैं। इस प्रकार स्वास्थ्य की देखभाल में निवारक, संवर्द्धक तथा चिकित्सीय देखभाल शामिल हैं। स्वास्थ्य देखभाल सेवाएँ तीन स्तरों पर उपलब्ध कराई जाती हैं - प्राथमिक देखभाल, द्वितीयक देखभाल और तृतीयक देखभाल स्तर। एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाएगी। किसी गाँव में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र प्राथमिक देखभाल उपलब्ध कराता है, जबकि जिला अस्पताल द्वितीयक देखभाल उपलब्ध कराएगा। दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (ए.आई.आई.एम.एस.) जैसा अस्पताल तृतीयक देखभाल उपलब्ध कराता है और द्वितीयक देखभाल करने वाले अस्पतालों द्वारा भेजे गए रोगियों का इलाज करता है।
7 क.4 स्वास्थ्य के सूचक
स्वास्थ्य के अनेक आयाम हैं और हर आयाम कई कारकों द्वारा प्रभावित होता है। इसलिए स्वास्थ्य के आकलन के लिए कई सूचकों का प्रयोग किया जाता है। इनके अंतर्गत मृत्यु-दर, रुग्णता (बीमारी/रोग), अशक्तता दर, पोषण स्तर, स्वास्थ्य देखभाल वितरण, उपयोग, परिवेश, स्वास्थ्य नीति, जीवन की गुणवत्ता आदि के सूचक शामिल हैं।
7 क.5 पोषण और स्वास्थ्य
पोषण और स्वास्थ्य के बीच घनिष्ठ पारस्परिक संबंध है। ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ के विश्वव्यापी अभियान में, पोषण को बढ़ावा देना एक प्रमुख घटक है। पोषण का संबंध शरीर के अंगों तथा ऊतकों की संरचना एवं कार्य के रखरखाव के साथ है। यह शरीर की वृद्धि और विकास से भी संबंधित है। अच्छा पोषण व्यक्ति को इस योग्य बनाता है कि वह अच्छे स्वास्थ्य का आनंद ले सके, संक्रमण का प्रतिरोध कर सके, उसमें ऊर्जा का पर्याप्त स्तर हो और उसे दैनिक कामकाज करते हुए थकान महसूस न हो। बच्चों तथा किशोरों के लिए पोषण उनकी वृद्धि, मानसिक विकास और अपनी सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। वयस्कों के लिए, सामाजिक तथा आर्थिक दृष्टि से सफल एवं स्वस्थ जीवन जीने के लिए समुचित पोषण अनिवार्य है। किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य की स्थिति उसकी पोषक तत्वों की आवश्यकताओं और आहार ग्रहण को निर्धारित करती हैं। बीमारी के दौरान पोषक तत्वों की आवश्यकता बढ़ जाती है और पोषकों का ब्रेकडाउन अधिक होता है। इसलिए, बीमारी तथा रोग पोषक तत्वों की स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। इसलिए पोषण मानव जीवन, स्वास्थ्य तथा विकास का ‘मूलभूत स्तंभ’ है।
7 क.6 पोषक तत्व
भोजन में 50 से अधिक पोषक तत्व होते हैं। मानव शरीर के लिए अपेक्षित मात्राओं के आधार पर पोषक तत्वों को मोटे तौर पर वृहत् पोषक (अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में अपेक्षित) और सूक्ष्म पोषक (कम मात्रा में अपेक्षित) में वर्गीकृत किया गया है। वृहत् पोषक तत्वों में सामान्यतः वसा, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट तथा रेशे (फाइबर) आते हैं। सूक्ष्मपोषक तत्वों में खनिज जैसे लौह तत्व, जिंक, सिलेनियम और विभिन्न विटामिन वसा-विलेय तथा जल-विलेय शामिल हैं और ये सभी महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। उनमें से कुछ शरीर में होने वाली विभिन्न उपापचयी प्रतिक्रियाओं में सह-कारक तथा सह-एन्जाइम के रूप में काम करते हैं। पोषक तत्व जीन-अभिव्यक्ति तथा प्रतिलेखन को भी प्रभावित कर सकते हैं। विभिन्न अंग तथा तंत्र, पोषक तत्वों के पाचन, अवशोषण, उपापचय, भंडारण एवं उत्सर्जन में तथा इनके चयापचय के अंतिम उत्पादों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वस्तुतः, शरीर के सभी भागों की प्रत्येक कोशिका को पोषक तत्व की ज़रूरत होती है। सामान्य स्वस्थ अवस्था में पोषक तत्वों की आवश्यकता आयु, लिंग तथा शरीर-क्रियात्मक अवस्था के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है, जैसे विकास की अवस्था यानी शैशव, बाल्यावस्था, किशोरावस्था और महिलाओं की गर्भावस्था तथा स्तन्यकाल में। शारीरिक सक्रियता का स्तर भी ऊर्जा, और ऊर्जा के उपापचय में सम्मिलित पोषक तत्वों की ज़रूरतों को निर्धारित करता है, उदाहरणतः थायामीन तथा राइब्नोफ्लेविन जैसे विटामिन।
पोषक तत्वों, उनके उपापचय एवं स्रोतों तथा कार्यों के बारे में जानकारी होना महत्वपूर्ण है। हमें ऐसा संतुलित आहार लेना चाहिए जिससे सभी ज़रूरी पोषक तत्व अपेक्षित मात्रा में उपलब्ध हो सकें।
चित्र $1-$ संतुलित आहार
पोषण विज्ञान जीवन, वृद्धि, विकास तथा तंदुरुस्ती के लिए भोजन एवं पोषक तत्वों तक पहुँच, उसकी उपलब्धता और उपयोग से संबंधित है। पोषणविद् (इस क्षेत्र के काम करने वाले पेशेवर) असंख्य पहलुओं पर ध्यान देते हैं जिसमें वे जैविक और उपापचयी पहलू से लेकर रोग की अवस्था में क्या होता है और शरीर का पोषण कैसे होता है (क्लीनिकल पोषण) तक आते हैं।
पोषण एक विषय के रूप में लोगों की पोषण संबंधी आवश्यकताओं और पोषक तत्वों (जनस्वास्थ्य पोषण), उनकी पोषण संबंधी समस्याओं का अध्ययन करता है, जिसमें पोषक तत्वों की कमी से पैदा होने वाली स्वास्थ्य समस्याएँ, जैसे - हृदय रोग, मधुमेह, कैंसर, उच्च रक्त दाब आदि और इन रोगों का निवारण भी शामिल है। हम सब जानते हैं कि जब कोई बीमार होता है, तब उसकी खाने की इच्छा नहीं होती। कोई व्यक्ति क्या और कितना खाता है, यह केवल रुचि या स्वाद पर ही नहीं बल्कि भोजन की उपलब्धता (भोजन सुरक्षा) पर भी निर्भर करता है और यह उपलब्धता क्रय क्षमता (आर्थिक कारक), परिवेश (जल तथा सिंचाई) और राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तरों की नीतियों से प्रभावित होती है। संस्कृति, धर्म, सामाजिक स्थिति, आस्था और वर्जित कर्म भी हमारे भोजन के विकल्पों, भोजन अंतर्ग्रहण, तथा पोषण की स्थिति को प्रभावित करते हैं।
अच्छा स्वास्थ्य और पोषण कैसे सहायक तथा लाभप्रद होता है? अपने इर्द-गिर्द देखें। आप देखेंगे कि अच्छे स्वास्थ्य वाले लोग प्राय: अधिक प्रसन्नचित्त होते हैं और दूसरों से अधिक कार्य कर सकते हैं। स्वस्थ माता-पिता अपने बच्चों की अच्छी देखभाल कर पाते हैं, और स्वस्थ बच्चे प्राय: खुश रहते हैं तथा पढ़ाई में अच्छा परिणाम देते हैं। इस प्रकार, जब कोई स्वस्थ होता है, तब वह अपने लिए अधिक रचनाशील होता है और समुदाय स्तर पर गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग ले सकता है। अतः, यह स्पष्ट है कि यदि व्यक्ति भूख और कुपोषण का शिकार है तो उसका स्वास्थ्य अच्छा नहीं हो सकता और वह समाज का उत्पादक, मिलनसार एवं सहयोगी सदस्य नहीं बन सकता।
सारणी — इष्टतम पोषणात्मक स्तर महत्वपूर्ण है क्योंकि यह | |
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- शरीर का वज़न बनाए रखता है। | - संक्रमण से बचने के लिए प्रतिरोध क्षमता प्रदान करता है। |
- पेशी की सुदृढ़ता बनाए रखता है। | - शारीरिक और मानसिक तनाव से निपटने में मदद करता है। |
- अशक्तता के जोखिम को कम करता है। | - उत्पादकता को बेहतर बनाता है। |
चित्र 1 - उत्पादकता के लिए अपेक्षित स्वास्थ्य और पोषणात्मक योगदान
चित्र 2 - बच्चों की शिक्षा के लिए अच्छी पोषणात्मक स्थिति के लाभों का सारांश दर्शाता है।
चित्र 2 - बच्चों की शिक्षा के लिए अच्छी पोषणात्मक स्थिति के लाभ
कुपोषण क्या है? सामान्य पोषण में किसी भी प्रकार का बदलाव कुपोषण कहलाता है। जब पोषक तत्वों का अंतर्ग्रहण शरीर द्वारा अपेक्षित मात्रा से कम हो, या अपेक्षा से अधिक हो, तो उसका परिणाम कुपोषण होता है। कुपोषण अतिपोषण का रूप भी ले सकता है और अल्पपोषण का भी। पोषक तत्वों के अधिक अंतर्ग्रहण (सेवन) से अतिपोषण होता है, अपर्याप्त मात्रा में पोषक तत्वों के अंतर्ग्रहण (सेवन) से अल्पपोषण होता है। किशोरों में कुपोषण का अत्यंत महत्वपूर्ण कारण आहार के गलत विकल्प के प्रति अभिरुचि या संयोजन हो सकते हैं।
7 क.7 पोषणात्मक स्वस्थता को प्रभावित करने वाले कारक
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चार मुख्य कारक बताए हैं (आरेख देखिए) जो पोषणात्मक स्वस्थता के लिए महत्वपूर्ण हैं।
आहार और पोषक तत्वों की सुरक्षा का अर्थ है कि एक स्वस्थ जीवन जीने के लिए प्रत्येक व्यक्ति की (आयु कुछ भी हो) अपनी आवश्यकताओं के अनुसार, पर्याप्त आहार तथा पोषक तत्वों को वर्ष भर पाने की पहुँच हो और वह उन्हें प्राप्त कर सके।
संवेदनशील लोगों की देखभाल का अर्थ है कि प्रत्येक को स्नेहपूर्ण देखभाल तथा ध्यान की ज़रूरत है जो देखभाल करने के व्यवहार से झलकती हो। शिशुओं के मामले में इसका अर्थ है कि क्या शिशु को सही प्रकार का आहार सही मात्रा में मिलता है और साथ-साथ देखभाल भी। गर्भवती महिलाओं के मामले में इसका आशय है कि क्या उन्हें परिवार तथा समुदाय की ओर से यदि वह कामकाजी हैं तो नियोक्ताओं की ओर से उन्हें वह देखभाल तथा सहायता मिल रही है जिसकी उन्हें ज़रूरत है। इसी प्रकार, जो व्यक्ति बीमार है और किसी रोग से पीड़ित है तो उसे आहार, पोषण, उपचार आदि सहित कई तरह की देखभाल तथा सहायता की ज़रूरत होती है।
सर्वे सन्तु निरामया ( सब स्वस्थ रहें ) में रोग का निवारण और रोग हो जाने पर उसका इलाज शामिल है। संक्रामक रोगों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि इससे शरीर में पोषक तत्वों की कमी हो सकती है, जिससे स्वास्थ्य तथा पोषण स्थिति पर बुरा असर पड़ सकता है। हर नागरिक को एक स्वास्थ्य की थोड़ी-बहुत देखभाल मिलनी ही चाहिए। स्वास्थ्य एक आधारभूत मानव अधिकार है। कुछ रोग, जो भारत में विशेषतः छोटे बच्चों की मृत्यु का कारण बनते हैं, वे हैं - अतिसार, श्वास का संक्रमण, खसरा, मलेरिया, तपेदिक आदि।
सुरक्षित पर्यावरण यह भौतिक, जैविक तथा रसायनिक पदार्थों सहित पर्यावरण के उन सभी पहलुओं पर केंद्रित होता है, जो स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं। इसमें स्वच्छ पेय जल, स्वच्छ भोजन और पर्यावरणीय प्रदूषण तथा निम्नीकरण की रोकथाम शामिल है। स्वास्थ्य के लिए परिवेश के महत्त्व पर स्वास्थ्य के सिद्धांत और स्वास्थ्य के खंड में चर्चा की जाएगी।
7 क.8 पोषण संबंधी समस्याएँ और उनके परिणाम
हमारे देश की जनता में अनेक पोषण-संबंधी समस्याएँ पायी जाती हैं। अल्पपोषण उनमें से एक प्रमुख समस्या है। बहुत बड़ी संख्या में गर्भवती महिलाएँ इस समस्या की शिकार हैं और इसी कारण वे कम वज़न वाले बच्चों को जन्म देती हैं; और उनके छोटे बच्चे 3 वर्ष से कम आयु के भी, जो कम वज़न के और अविकसित होते हैं वस्तुतः वे इसी अल्पपोषण की समस्या से ग्रस्त होते हैं। भारत में पैदा होने वाले एक तिहाई बच्चे जन्म के समय कम वज़न के होते हैं, अर्थात् 2500 ग्राम से कम वज़न के। इसी प्रकार, काफी प्रतिशत महिलाएँ भी कम वज़न वाली होती हैं। पोषण से संबंधित अन्य कमियाँ भी हैं जैसे लौह तत्व की कमी से खून की कमी का होना, विटामिन ए की कमी से अंधापन का शिकार हो जाना और आयोडीन की कमी से घेंघा रोग का होना। अल्पपोषण से व्यक्ति पर अनेक नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं।
अल्पपोषण से न केवल शरीर का वज़न कम हो जाता है, बल्कि बच्चों के मानसिक विकास, प्रतिरक्षा पर भी इसके विनाशकारी प्रभाव पड़ते हैं और इसके फलस्वरूप बच्चे अशक्त भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए विटामिन ए की कमी के कारण अंधापन। आयोडीन की कमी स्वास्थ्य एवं विकास के लिए एक खतरा है, विशेषतः छोटे बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए क्योंकि इसके फलस्वरूप महिलाओं में गलगंड, मृत प्रसव तथा गर्भपात हो सकता है और बच्चों में गूँगापन-बहरापन, मानसिक मंदता तथा क्रेटीनता यानी बौनापन हो सकता है।
लौह तत्व की कमी का भी स्वास्थ्य तथा स्वस्थता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। शिशुओं तथा छोटे बच्चों में इसकी कमी मनोगत्यात्मक तथा संज्ञातात्मक विकास को क्षति पहुँचाती है और इस प्रकार शैक्षिक क्षमता पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है। इससे सक्रियता भी कम हो जाती है। गर्भावस्था के दौरान लौह तत्व की कमी भ्रूण के विकास को प्रभावित करती है और माता के लिए रुगणता तथा मृत्यु के खतरे को बढ़ाती है।
परंतु अतिपोषण भी अच्छा नहीं होता। अपेक्षा से अधिक भोजन करने से स्वास्थ्य की अनेक समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। कुछ पोषक तत्वों के मामले में इससे विषाक्तता हो सकती है और व्यक्ति का वज़न भी बढ़ सकता है तथा मोटापा भी हो सकता है। मोटापे से कई रोगों का खतरा बढ़ जाता है, जैसे - मधुमेह, हृदय रोग और उच्च रक्तदाब। भारत में हम पोषण के दोनों सिरों पर समस्याओं का सामना करते हैं, अर्थात् अल्पपोषण (पोषणात्मक कमियाँ) और अतिपोषण (आहार से संबंधित दीर्घकालिक असंक्रामक रोग)। इसे “कुपोषण का दोहरा बोझ” कहा गया है। हमारे देश में किया गया चौथा राष्ट्रीय और पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण दर्शाता है कि शहरी क्षेत्रों से 26.6 प्रतिशत पुरुषों और 31.3 प्रतिशत महिलाओं का वज़न अधिक है या उन्हें मोटापा है, परंतु ग्रामीण पुरुषों ( 15.0 प्रतिशत) और महिलाओं ( 14.3 प्रतिशत) में यह प्रतिशत अपेक्षाकृत काफी कम है। पोषण और संक्रमण - पोषण की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त भोजन दे देना ही काफ़ी नहीं है। पर्यावरण का प्रभाव भी महत्वपूर्ण है। पोषणात्मक स्थिति केवल भोजन तथा पोषक तत्वों की पर्याप्त आपूर्ति पर ही निर्भर नहों करती, बल्कि काफी हद तक व्यक्ति के स्वास्थ्य की स्थिति पर भी निर्भर करती है। पोषण और संक्रमण का घनिष्ठ पारस्परिक संबंध है। खराब पोषण की स्थिति प्रतिरोधक शक्ति तथा प्रतिरक्षा को कम करती है, और इस प्रकार संक्रमण होने का खतरा बढ़ जाता है। दूसरी ओर, संक्रमण के दौरान शरीर में पोषक तत्वों के आरक्षित भंडार की काफी क्षति होती है (वमन तथा अतिसार द्वारा), जबकि पोषक तत्वों की ज़रूरतें वस्तुतः बढ़ जाती हैं। यदि भूख न लगने या खाने में असमर्थता के कारण (यदि मिचली और/या वमन हो) पोषण का अंतर्ग्रहण आवश्यकता की तुलना में कम हो तो संक्रमण पोषण स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव डालेंगे। इस प्रकार दूसरे संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है और सभी व्यक्तियों के लिए, विशेषतः बच्चों, बुजुर्गों तथा अल्पपोषितों के लिए और संक्रमणों/रोगों का खतरा पैदा हो जाता है।
विकासशील देशों में, आहार-जनित रोग जैसे अतिसार और पेचिश प्रमुख समस्याएँ हैं, क्योंकि उनसे निर्जलीकरण होता है तथा मृत्यु तक हो सकती है। अनेक संक्रामक तथा संचारी रोग खराब पर्यावरणीय सफाई, खराब घरेलू हालत-निजी एवं खाद्य अस्वच्छता के कारण होते हैं। अतः यह देखना महत्वपूर्ण है कि इन रोगों से कैसे बचाव किया जाए।
7 क.9 स्वास्थ्य विज्ञान और स्वच्छता
रोग की रोकथाम तथा नियंत्रण के लिए आंतरिक और बाह्य दोनों कारकों पर ध्यान दिया जाना चाहिए जो विभिन्न रोगों के साथ जुड़े हुए हैं। नीचे बॉक्स में इन कारकों का उल्लेख किया गया है -
सारणी-2 विभिन्न रोगों से संबंधित आंतरिक और बाह्य घटक | |
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अंतःस्थ/परपोषी कारक | बाह्य/पर्यावरणीय कारक |
आयु, जेंडर, मानवजातीयता, जाति | भौतिक पर्यावरण - वायु, जल, मृदा, आवास, जलवायु, भौगोलिक स्थिति, गर्मी, प्रकाश, शोर, विकिरण |
जैविक कारक यथा आनुवांशिकता, रुधिर वर्ग, एंजाइम, रक्त में विभिन्न पदार्थों का स्तर जैसे कोलेस्ट्रॉल, विभिन्न अंगों तथा तंत्रों की कार्य क्षमता | जैविक पर्यावरण में शामिल हैं - मानव, अन्य सभी सजीव यथा जानवर, कृंतक, कीट, पादप, विषाणु, सूक्ष्म जीव। इनमें से कुछ रोगजनक एजेंटों के रूप में काम करते हैं, कुछ संक्रमण के भंडार, कुछ मध्यस्थ वाहक और रोग वाहकों के रूप में काम करते हैं। |
सामाजिक तथा आर्थिक विशेषताएँ, जैसे व्यवसाय, वैवाहिक स्थिति, आवास | मनोवैज्ञानिक कारक - भावात्मक कुशलता, सांस्कृतिक मूल्य, रीति-रिवाज़, आदतें, आस्थाएँ, मनोवृत्तियाँ, धर्म, जीवन शैली, स्वास्थ्य सेवाएँ आदि। |
जीवन शैली संबंधी कारक यथा पोषण, आहार, शारीरिक सक्रियता, रहन-सहन की आदतें, व्यसनी पदार्थों का सेवन यथा मादक द्रव्य, मदिरा आदि। |
इन कारकों में स्वास्थ्य विज्ञान तथा स्वच्छता, पोषण तथा प्रतिरक्षण प्रमुख हैं। जब हम स्वास्थ्य विज्ञान की बात करते हैं, तब हम प्रमुखतः दो पहलुओं से संबंधित होते हैं - निजी और पर्यावरणी। आगे चित्रों में दिखाया गया है कि हर पहलू में क्या शामिल है। स्वास्थ्य भोजन सहित मुख्यत: सामाजिक परिवेश, जीवन शैली तथा व्यवहार पर निर्भर करता है। स्वच्छता के साथ भी वह घनिष्ठ रूप से संबद्ध है। स्वास्थ्य के सिद्धांतों का समुचित रूप से पालन न करने के कारण अनेक संक्रमण तथा कृमिग्रसन हो सकते हैं।
पर्यावरणी संबंधी स्वास्थ्य विज्ञान में घरेलू स्वास्थ्य विज्ञान और सामुदायिक स्तरों पर जैव और अजैव दोनों बाह्य पदार्थ शामिल हैं। इसके अतिरिक्त जल, वायु, आवास, विकिरण, जैसे भौतिक कारक भी शामिल हैं। इसी के साथ-साथ इसमें जैविक तत्व जैसे पौधों, जीवाणु, विषाणु, कीट, कृंतक प्राणी तथा जानवर भी आते हैं।
चित्र 4 - स्वास्थ्य विज्ञान के पर्यावरण संबंधी पहलू
पर्यावरणी स्वास्थ्य पर ध्यान देने की ज़रूरत है ताकि ऐसी पारिस्थितिक परिस्थितियों का सृजन किया जाए और बनाए रखा जा सके जो स्वास्थ्य को बढ़ावा देने वाली और बीमारी की रोकथाम करने वाली हों। इनमें सुरक्षित पेय जल और स्वच्छता, विशेषतः मल का निपटान अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इसी प्रकार वायु तथा जल का प्रदूषण भी चिंता का विषय है। जल की गुणवत्ता महत्वपूर्ण है क्योंकि संदूषित जल अनेक रोगों का कारण है, जैसे - अतिसार, कृमिग्रसनों, त्वचा तथा नेत्र संक्रमण, गिनी कृमि संक्रमण आदि।
आहार संबंधी स्वास्थ्य विज्ञान - आहार जनित बीमारियाँ तब होती हैं जब हम ऐसा भोजन खाते हैं जिसमें रोगजनक सूक्ष्मजीव विद्यमान हों। आहार जन्य बीमारियाँ अनेक कारकों के कारण हो सकती हैं-
- खाए गए भोजन में जीव या विषैले पदार्थ का मौजूद होना।
- रोगजनक सूक्ष्म जीवों का काफी संख्या में होना।
- संदूषित आहार का सेवन काफी मात्रा में किया जाना।
इनसे होने वाले रोग हैं - अतिसार, पेचिश, अमीबिएसिस, संक्रामक हेपेटाइटिस, टाइफॉइड, लिस्टेरिओसिस, बॉटुलिज्म, हैज़ा, आंत्रशोथ। इनमें से अधिकांश का कारण व्यक्तिगत अस्वच्छता या भोजन बनाने/खाने के खराब तरीके हैं, जैसे -
- दूषित/संक्रमित/असुरक्षित खाद्य पदार्थों का प्रयोग जिनमें जल, मसाले, खाना स्वादिष्ट बनाने वाले पदार्थ (छौंक), मिश्रण शामिल होते हैं।
- अनुचित भंडारण का ढंग जिससे रोगजनक सूक्ष्मजीव पनपते हैं।
- कीट और कृमि नियंत्रण न करना।
- संदूषित उपकरणों, बर्तनों, प्लेटों, चमचों, गिलासों का प्रयोग।
- भोजन का अपर्याप्त रूप से पका होना।
- खाद्य पदार्थों का ऐसे तापमान पर भंडारण जो सूक्ष्मजीवों की वृद्धि के लिए अनुकूल हो $(4$ से 600 से.)।
- अनुचित ढंग से ठंडा करना।
- पके हुए/बचे हुए भोजन को अनुचित/अपर्याप्त रूप से गर्म करना, पुनः गरम करना।
- परस्पर संदूषण।
- भोजन को बिना ढके खुला छोड़ देना।
- भोजन की सजावट के लिए संदूषित पदार्थों का प्रयोग।
- भोजन पकाने वाले लोगों द्वारा स्वास्थ्य विज्ञानों तथा स्वच्छता का ध्यान न रखना जैसे मैले कपड़े प्रयोग में लाना, हाथ न धोना, गंदे नाखून आदि।
आप घर में या घर से बाहर जो भी काम करते हैं, उसको उत्पादक बनाने के लिए पोषण, स्वास्थ्य तथा स्वास्थ्य विज्ञान से संबंधित प्रभावी रीतियाँ अनिवार्य हैं। अगले अध्याय में कार्य, कार्यकर्त्ता और कार्य-स्थल के बीच संबंधों पर चर्चा की गई है।
मुख्य शब्द
स्वास्थ्य की देखभाल, पोषक तत्व, कुपोषण, स्वास्थ्य विज्ञान और स्वच्छता, आहार संबंधी स्वास्थ्य विज्ञान
अभ्यास
1. निम्नलिखित वेबसाइटें देखें और कक्षा में उनके बारे में चर्चा करें -
-
विश्व के बच्चों की स्थिति पर यूनिसेफ़ की रिपोर्ट
(http:/www.unicef.org/sowc08/) -
मानव विकास सूचंकाक
(http:/hdr.undp.org/en/statistics/) -
विश्व स्वास्थ्य संगठन की विश्व स्वास्थ्य रिपोर्ट
(http:/www.who.int/ whr/en/)
2. कम से कम 5-6 प्रमुख सूचकों की पहचान करें जिन्हें आप स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण समझते हैं और देखें कि विश्व में विभिन्न देशों में भारत किस दर्ज़े पर है।
$$ \text { अथवा } $$
ग्रामीण छात्रों के लिए विकल्प - अपने गाँव में छोटे बच्चों की दो माताओं से साक्षात्कार करें। हर माता से पूछें कि पिछले एक वर्ष में उसके बच्चे को कितनी बार अतिसार हुआ है। माताओं द्वारा बताए गए कारणों पर अपनी टिप्पणी लिखें।
3. स्वास्थ्य के बहुत से आयाम हैं। स्वास्थ्य समस्याओं की रोकथाम, अच्छे स्वास्थ्य के संवर्द्धन और चिकित्सीय सेवाओं सहित इस तरह के विभिन्न व्यवसायों में संलग्न लोगों की सूची बनाएँ जो स्वास्थ्य तथा पोषण के लिए सेवाएँ उपलब्ध कराते हैं।
समीक्षात्मक प्रश्न
1. “पोषण से उत्पादकता, आय और जीवन की गुणवत्ता प्रभावित होती है”। इस कथन के बारे में अपनी राय लिखिए।
2. पोषण मानसिक तथा दृष्टि संबंधी अशक्तता और जीवन की गुणवत्ता से कैसे जुड़ा हुआ है?
3. कक्षा को समूहों में बाँटें। हर समूह किसी खाद्य पदार्थ विक्रेताओं के प्रतिष्ठानों में जाएँ जैसे कैंटीन/कैफ़ेटेरिया, रेस्तरां, सड़क पर खाा्य पदार्थ विक्रेता। (क) आहार संबंधी स्वास्थ्य विज्ञान और (ख) निजी स्वास्थ्य विज्ञान से संबंधित खराब स्वास्थ्य विज्ञान की रीतियों को पहचानें।
4. कक्षा में चर्चा करें कि स्वास्थ्य विज्ञान का समुचित प्रयोग कैसे किया जा सकता है और आहार को कैसे अधिक सुरक्षित कैसे बनाया जा सकता है?
$$ \text { अथवा } $$
बच्चों को तीन समूहों में बाँटें। एक समूह ‘आहार’ पहलू का अध्ययन करेगा, दूसरा ‘लोगों’ का अध्ययन करेगा, और तीसरा ‘यूनिट, सुविधाओं तथा उपकरणों’ का आकलन करेगा। बीमारी के खतरे को बढ़ाने वाले विभिन्न पहलुओं/भागोंगतिविधियों की सूची बनाने के बाद समूहों की एक प्रस्तुति करने के लिए कहा जा सकता है, और इसके बाद फिर सुधारात्मक उपायों पर चर्चा करें।
अध्यापकों के लिए टिप्पणी
अध्यापक विद्यालय के बच्चों, माता-पिता और समुदाय के सदस्सों के लिए स्वास्थ्य, पोषण तथा स्वास्थ्य विज्ञान पर एक प्रदर्शनी आयोजित करने में छात्रों का मार्गदर्शन करें।
विद्यार्थियों के लिए टिप्पणी
(क) अपने विद्यालय और (ख) अपने घर के आस-पास पर्यावरण संबंधी स्वास्थ्य विज्ञान से संबंधित कम से कम तीन कारक देखें और उन्हें बहुत अच्छा, अच्छा, साधारण, ख़राब तथा बहुत ख़ार के रूप में श्रेणीबद्ध करें।
प्रयोग 10
क. पोषण, स्वास्थ्य और स्वास्थ्य विज्ञान
आगे दी गई खाद्य पदार्थों के संघटकों की सारणियों का प्रयोग करके भोजन के 150 ग्रा. खाद्य भाग की ऊर्जा, प्रोटीन, कैल्शियम तथा लौह तत्व की मात्रा की तुलना करें-
(क) अनाज
अनाज का नाम | ऊर्जा की मात्रा ( किलोकैलोरी प्रति 150 ग्रा. ) | प्रोटीन की मात्रा (ग्रा. प्रति 150 ग्रा. ) | कैल्शियम की मात्रा ( मि.ग्रा. प्रति 150 ग्रा. ) | लौह तत्व की मात्रा ( मि.ग्रा. प्रति 150 ग्रा. ) |
---|---|---|---|---|
1. बाजरा | ||||
2. चावल (अपरिष्कृत, पालिश किया हुआ) | ||||
3. मक्का (सूखा) | ||||
4. गेहूँ (साबुत) |
( ख) दालें
दाल/फली का नाम | ऊर्जा की मात्रा ( क्रोटीन की मात्रा प्रति 150 ग्रा.) | कैल्शियम की (ग्रा. प्रति 150 ग्रा.) | लौह तत्व की ( मि.ग्रा. प्रति 150 ग्रा.) $)$ | मात्रा (मि.ग्रा. प्रति 150 ग्रा.) |
---|---|---|---|---|
1. चने की दाल | ||||
2. उड़द साबुत | ||||
3. मसूर | ||||
4. सोयाबीन |
( ग ) सब्जियाँ
सब्जी का नाम | ऊर्जा की मात्रा ( किलोकैलोरी प्रति 150 ग्रा. ) | प्रोटीन की मात्रा (ग्रा. प्रति 150 ग्रा. ) | कैल्शियम की मात्रा ( मि.ग्रा. प्रति 150 ग्रा. ) | लौह तत्व की मात्रा ( मि.ग्रा. प्रति 150 ग्रा. ) |
---|---|---|---|---|
1. पालक | ||||
2. बैंगन | ||||
3. फूल गोभी | ||||
4. गाजर |
(घ) फल
फल का नाम | ऊर्जा की मात्रा ( किलोकैलोरी प्रति 150 ग्रा.) | (ग्रा. की मात्रा (ग्रा. ) | कैल्शियम की मात्रा ( मि.ग्रा. प्रति 150 ग्रा.) | लौह तत्व की मात्रा ( मि.ग्रा. 150 ग्रा.) |
---|---|---|---|---|
1. आम (पका हुआ) | ||||
2. संतरा | ||||
3. अमरूद (देसी) | ||||
4. पपीता (पका हुआ) |
( ख ) अपने परिवार के आहार में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, विटामिन ए, लौह तत्व तथा कैल्सियम की प्रचुरता वाले स्रोतों की पहचान करें। क्या आप इनमें सुधार के लिए सुझाव दे सकते हैं? अपना उत्तर दर्ज करने के लिए निम्नलिखित फॉर्मेट का प्रयोग करें।
कार्बोहाइड्रेटों के स्रोत | प्रोटीनों के स्रोत | वसाओं के स्रोत | विटामिन ए के स्रोत | लौह तत्व के स्रोत | कैल्शियम के स्रोत |
---|---|---|---|---|---|
आहार पद्धतियाँ जिनमें सुधार को ज़रूरत है। | सुझाव |
---|---|
अध्यापकों के लिए टिप्पणी
अध्यापक छात्रों को प्रोत्साहित कर सकते हैं कि वे अपने प्रदेश में खाद्यों के पोषक मान की गणना करें (जो उपलब्ध कराई गई सारणी में सूचीबद्ध न हों)। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् (आई.सी.एम.आर.) द्वारा प्रकाशित एक उपयोगी संदर्भ आगे दिया जा रहा है।
खाद्य पदार्थों के संघटकों की सारणियाँ
(पोषक मान प्रति 100 ग्राम खाद्य पदार्थ)
अन्न
नाम | ऊर्जा ( किलो कैलोरो ) | प्रोटीन (ग्रा.) | कैल्शियम (मि.ग्रा.) | लौह तत्व ( मि.ग्रा.) |
---|---|---|---|---|
1. बाजरा | 361 | 11.6 | 42 | 8.0 |
2. चावल (अपरिष्कृत, पालिश किया हुआ) | 345 | 6.8 | 10 | 0.7 |
3. मक्का (सूखा) | 342 | 11.1 | 10 | 2.3 |
4. गेहूँ (साबुत) | 346 | 11.8 | 41 | 5.3 |
दालें
नाम | ऊर्जा ( किलो कैलोरो ) | प्रोटीन (ग्रा.) | कैल्शियम (मि.ग्रा.) | लौह तत्व (म.ग्रा.) |
---|---|---|---|---|
1. चने की दाल | 360 | 17.1 | 56 | 5.3 |
2. उड़द साबुत | 347 | 24.0 | 154 | 3.8 |
3. मसूर | 343 | 25.1 | 69 | 7.58 |
4. सोयाबीन | 432 | 43.2 | 240 | 10.4 |
सब्ज़याँ
नाम | ऊर्जा ( किलो कैलोरो ) | प्रोटीन ( ग्रा. ) | कैल्शियम ( मि.ग्रा.) | लौह तत्व (म..ग्रा.) |
---|---|---|---|---|
1. पालक | 26 | 2.0 | 73 | 17.4 |
2. बैंगन | 24 | 1.4 | 18 | 0.38 |
3. फूल गोभी | 30 | 2.6 | 33 | 1.23 |
4. गाजर | 48 | 0.9 | 80 | 1.03 |
फल
नाम | ऊर्जा ( किलो कैलोरी ) |
प्रोटीन (ग्रा.) | कैल्शियम (मि.ग्रा.) |
लौह तत्व ( मि.ग्रा.) |
---|---|---|---|---|
1. आम (पका हुआ) | 74 | 0.6 | 14 | 1.3 |
2. संतरा | 48 | 0.7 | 26 | 0.32 |
3. अमरूद (देसी) | 51 | 0.9 | 10 | 0.27 |
4. पपीता (पका हुआ) | 32 | 0.6 | 17 | 0.5 |
स्रोत - भारतीय खाद्यों का पोषण मान (1985), लेखक सी. गोपालन, बी. वी. राम शास्त्री और एस. सी. बाल सुत्रमण्यम, संशोधित और अद्ततन संस्करण (1989), बी.एस. नरसिंह राव, वाई. जी. देवस्थले और के. सी. पंत द्वारा (पुनर्मुद्रित 2007)।
ख. संसाधन उपलब्धता और प्रबंधन
जैसा कि आपने पिछले अध्याय में पढ़ा, संसाधन वे संपत्ति, द्रव्य या निधियाँ होती हैं, जिनका उपयोग लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है। आपने यह भी पढ़ा कि धन, समय, स्थान और ऊर्जा संसाधनों के कुछ उदाहरण हैं। ये संसाधन किसी व्यक्ति के लिए संपत्तियाँ होती हैं। उनकी प्रचुर मात्रा में आपूर्ति बिरले ही हो पाती है। और, ये हर किसी को समान रूप से उपलब्ध भी नहीं होते। अतः अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ज़रूरी है कि सभी उपलब्ध संसाधनों का समुचित प्रबंधन किया जाए। यानी इन संसाधनों को बेकार गँवा देने या उचित रूप से प्रयोग न करने से हम अपने लक्ष्यों तक पहुँचने में पिछड़ सकते हैं।
संसाधनों का सामयिक और कुशल प्रबंधन उनके इष्टतम उपयोग को बढ़ाता है। इस अध्याय में आप समय और स्थान प्रबंधन के बारे में पढ़ेंगे। एक संसाधन के रूप में धन और उसके प्रबंधन पर इकाई IV में चर्चा की जाएगी।
7 ख.1 समय प्रबंधन
समय सीमित है और उसे दोबारा से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। समय को वर्षों, महीनों, दिनों, घंटों, मिनटों और सेकेंडों में मापा जाता है। हमें हर रोज़ 24 घंटे का समय मिलता है जिसका प्रयोग हम अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि हम उस समय का उपयोग कैसे करते हैं। समय का सही प्रबंधन न किया जाए तो लाख नियंत्रण के बावजूद वह हाथ से निकलता जाता है। व्यक्ति कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, वह समय को नहीं रोक सकता, न ही इसकी गति को तेज़, या धीमा कर सकता है। बीता हुआ समय कभी वापस नहीं आता।
तेज़ी से बदलती हुई आज की जीवन शैली में, घर, स्कूल, और काम में हमारी अपेक्षाएँ और जिम्मेदारियाँ बढ़ गई हैं। इसलिए समय का प्रबंधन महत्वपूर्ण हो गया है। सफल होने के लिए समय प्रबंधन कौशल विकसित करना ज़रूरी है। जो लोग इन तकनीकों का उपयोग करते हैं, वे कृषि से लेकर व्यापार, खेल, सार्वजनिक सेवा, अन्य सभी व्यवसायों और निजी जीवन तक जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करते हैं। समय प्रबंधन आपको कार्य के साथ-साथ समुचित विश्राम और मनोरंजन के अवसर भी प्रदान करता है।
समय प्रबंधन का सिद्धांत है - व्यस्त होने की बजाय परिणामों पर ध्यान देना। लोग प्रायः अध रे काम के बारे में चितिंत हो कर दिन बिता देते हैं, जिससे उपलब्धि बहुत कम होती है, क्योंकि वे सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात - समय की ओर ध्यान नहीं देते। जैसे कुछ छात्र परीक्षाओं के लिए पढ़ने की बजाए परीक्षा के बारे में चिंता करने में अपना समय बिता देते हैं।
समय प्रबंधन की शुरुआत व्यवस्थित नियोजन से होती है। इसके लिए एक व्यवस्थित समय योजना ज़रूरी है। तय अवधि में निष्पादित की जाने वाली गतिविधियों की अग्रिम सूची तैयार करने की प्रक्रिया को समय योजना कहते हैं।
आपका समय-प्रबंधन कितना अच्छा है?
समय और गतिविधि नियोजन के संबंध में अधिक जानने से पहले यह जान लेना अनिवार्य है कि आपका अपना समय प्रबंधन कितना प्रभावी है। आप योजनाबद्ध काम को कितनी बार पूरा कर पाने में सफल रहे? क्या आप अपने साप्ताहिक, दैनिक या हर घंटे के कार्य को कुशलतापूर्वक पूरा कर लेते हैं? ऐसा लगता है कि हममें से अधिकांश के पास अपनी सभी गतिविधियाँ पूरी करने के लिए दिन में कभी पर्याप्त समय नहीं होता।
क्रियाविधि 1
नीचे दी गई क्रियाविधि आपको अपने समय प्रबंधन की कौशलों के पहचान करने में मदद करेगी।
निर्देश - नीचे दिए गए प्रश्नों के अंक लिखें और निर्धारित करें कि ये कथन आपका कितना सही वर्णन करते हैं। आपके उत्तरों का संनिर्धारण इस प्रकार है -
बिल्कुल नहीं $=1$
विरले ही $=2$
कभी-कभी $=3$
प्राय: $=4$
सदा $=5$उदाहरण - यदि पहले प्रश्न के लिए आपके उत्तर का विकल्प ‘प्राय:’ है तो संबंधित बॉक्स में अंक ’ 4 ‘, ‘बिरले ही’ है तो ’ 2 ’ और इसी तरह अन्य के बारे में भी लिखें।
सभी प्रश्नों का उत्तर देने के बाद सभी अंकों का योगफल निकालें।
क्र. प्रश्न बिल्कुल नहीं विरले ही कभी - कभी प्राय: सदा 1. क्या आप दिन में अपने उच्चतम प्राथमिकता वाले काम पूरे कर लेते हैं? 2. क्या आप अपने सभी कामों को उनकी प्राथमिकता के अनुसार क्रमबद्ध कर लेते हैं? 3. क्या आप अपने काम निर्धारित अवधि में पूरा कर लेते हैं? 4. क्या आप योजना तथा सूची बनाने के लिए अलग समय रखते हैं? 5. क्या आप जो काम करते हैं उन पर बिताए गए समय का लोखा-जोखा रखते हैं? 6 6. आप कितनी बार बिना ध्यान भंग के और बिना रुकावट के काम कर लेते हैं? 7. क्या आप किए जाने वाले विभिन्न कार्यों के निर्णय के लिए लक्ष्य निर्धारित करते हैं। 8. क्या आप ‘अनहोनी’ से निपटने के लिए अपनी सूची में अतिरिक्त समय की गुंजाइश रखते हैं? 9. क्या आप सौंपे गए किसी नए काम को प्राथमिकता देते हैं? 10. क्या आप निर्धारित समय सीमा तथा प्रतिबद्धताओं के दबाव में आए बिना अपने काम को पूरा कर लेते हैं? 11. क्या आप ध्यान भंग होने पर भी महत्वपूर्ण काम पर प्रभावी ढंग से कार्य कर लेते हैं? 12. क्या आप अपना काम घर ले जाने की बजाय उसे कार्यस्थल पर ही पूरा कर लेते हैं? 13. क्या आप काम शुरू करने से पहले कार्यों की अथवा कार्य योजना की सूची बनाते हैं? 14. क्या आप किसी निर्दिष्ट कार्य के लिए प्राथमिकता तय करने से पहले अनुभवी व्यक्तियों से परामर्श करते हैं? 15. क्या आप अपना काम शुरू करने से पहले यह विचार करते हैं कि इस कार्य पर समय लगाना उपयोगी होगा योग $=$
प्राप्तांकों की व्याख्या
प्राप्तांक $ \qquad $ टिप्पणी
46-75 $ \qquad $ आप अपने समय का प्रबंधन बहुत प्रभावी ढंग से कर रहे हैं। इसे और बेहतर बनाने के लिए अनुभाग 10.1 .2 की जाँच करें।
31-45 $ \qquad $ कुछ पहलुओं में आप अच्छे हैं किंतु अन्यत्र में सुधार की गुंजाइश है। अनुभाग 16.1 .2 में दिए गए मूल मुद्दों पर ध्यान दें। पूरी संभावना है कि आपको कार्य कम तनावपूर्ण लगेगा।
15-30 $ \qquad $ आपके लिए अच्छी बात यह है कि दीर्घकालीन सफलता के लिए कार्य में अपने प्रभाव को सुधारने के लिए आपके पास बड़ा अवसर है। परंतु, इसे प्राप्त करने के लिए आपको समय प्रबंधन कौशलों को सुधारना होगा।
समय और गतिविधि योजना के विविध चरण
(क) अपना कार्य यथाशीघ्र शुरू कर दें। काम को टालने या उससे बचाव के उपाय करने में समय नष्ट न करें। विद्यार्थी को घर पहुँचकर, थोड़ी देर विश्राम कर, भोजन करना चाहिए और फिर स्कूल का काम शुरू कर देना चाहिए, उसे दिन के समाप्त होने तक टालना नहीं चाहिए।
(ख) नियमित दिनचर्या से कार्य करें। हर काम निष्पादित करने के लिए समय तय करें, और फिर तदनुकूल उसे निभाएँ। जैसे स्कूल का काम पूरा करना, घर का कामकाज करना और फिर अन्य कार्य करना। छात्रों को प्रतिदिन का नियम बना लेना चाहिए कि बिना विलंब किए समय से काम पूरा करना है।
(ग) अपने कामों की प्राथमिकता तय करें। कोई भी नया काम हाथ में लेते समय सुनिश्चित कर लें कि वह पहले से चल रहे कार्यों पर प्रभाव तो नहीं डालेगा। एक ही समय में बहुत अधिक गतिविधियाँ शुरू न करें। समय कम हो और कार्य अधिक हो तो ऐच्छिक कामों को बाद में करें, अनिवार्य गतिविधियाँ पहले पूरी करें। जैसे, यदि किसी छात्र की कक्षा की परीक्षा होनी हो, तो उसे पहले परीक्षा के लिए पढ़ना चाहिए, फिर स्कूल का काम करना चाहिए और बाद में अन्य गतिविधियों में लगना चाहिए।
(घ) अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण या कम प्राथमिकता वाले कामों की ज़िम्मेदारी न लें। ‘नहीं’ कहना सीखें। समय कम हो और हाथ में काम ज्यादा हो, तो कम महत्त्व वाले कामों के लिए ‘ना’ कहने योग्य अपने को बनाएँ। उदाहरण के लिए यदि छात्र को अगले दिन के लिए कोई काम पूरा करना हो, तो वह टेलीविज़न देखना टाल सकता है।
(ङ) बड़े कामों को सुविधाजनक गतिविधियों की एक शृंखला में छोटा-छोटा कर विभाजित कर लें। दिन भर के स्कूल के कार्य (बड़े काम) को विषयों के अनुसार छोटे छोटे कामों में बाँटा जा सकता है।
(च) उन कामों पर ऊर्जा तथा समय नष्ट न करें जिन पर बहुत ध्यान देने की ज़रूरत न हो।
(छ) एक समय में एक काम देखें। जब तक वह पूरा न हो जाए, उसे बीच में न छोड़ें।
(ज) गतिविधियों की सूची में ‘आरंभ’ और ‘अंत’ का समय निर्धारण करें। बिना अधिक समय लगाए हर विषय के लिए उपयुक्त समय निर्धारित करें।
( झ) अपनी गतिविधियों और कामों की एक सूची बनाएँ। यह आपको हर काम के लिए समय प्रबंधन में सहायक होगा। पूरे दिन के लिए उपयुक्त समय सारणी बनाएँ, जिसमें फुरसत के समय को भी सदा शामिल करें।
चित्र 1 - समय सारणी के प्रकार
क्रियाविधि 2
स्कूल के निकट एक छोटे कस्बे में रहने वाले बारहवों कक्षा के एक शिक्षार्थी की ‘समय और क्रियाविधि योजना’ का एक उदाहरण नीचे दिया गया है। साथ वाले कॉलम में आप अपनी समय और गतिविधि योजना लिखें।
शिक्षार्थी की समय योजना आपकी समय योजना $5: 00$ पूर्वाह्न जागना (सुबह सोकर उठना) $5: 00$ पूर्वाह्न - $6: 00$ पूर्वाह्न निजी दैनिक गतिविधियाँ $6: 00$ पूर्वाह्न - $7: 00$ पूर्वाह्न पढ़ाई/रसोई के काम में मदद
करना$7: 00$ पूर्वाह्न - $7: 30$ पूर्वाह्न स्नान और स्कूल के लिए तैयार
होना$7: 30$ पूर्वाह्न - $7: 50$ पूर्वाह्न नाश्ता करना और समाचार-पत्र
पढ़ना$7: 50$ पूर्वाह्न - $8: 00$ पूर्वाह्न स्कूल पहुँचना $8: 00$ पूर्वाह्न - $2: 00$ अपराह्न स्कूल में $2: 00$ अपराह्न - $2: 10$ अपराह्न घर पहुँचना $2: 10$ अपराह्न - $3: 00$ अपराह्न कपड़े बदलना, मुँह हाथ धोना,
दोपहर का भोजन करना, आदि$3: 00$ अपराह्न - $4: 00$ अपराह्न विश्राम करना/सोना $4: 00$ अपराह्न - $6: 00$ अपराह्न पढ़ना और स्कूल से संबंधित
कार्य पूरा करना$6: 00$ अपराह्न - $8: 30$ अपराह्न बाहर खेलना, फुरसत का
समय, टीवी देखना, माता-पिता,
भाई-बहन, मित्र आदि के साथ
समय बिताना$8: 30$ अपराह्न - $9: 00$ अपराह्न रात्रि भोजन करना $9: 00$ अपराह्न - $10: 00$ अपराह्न पढ़ना और अगले दिन का स्कूल
बैग सहेजना$10: 00$ अपराह्न - $5: 00$ पूर्वाह्न सोना
समय योजना व्यक्ति की निजी ज़रूरतों के अनुसार बनाई जाती है। हर व्यक्ति के लक्ष्य तथा अपेक्षाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं, नित्य कर्म भी तदनुसार ही होते हैं। उदाहरणतः, किसी छात्र की समय योजना उस व्यक्ति से बहुत भिन्न होगी जो काम करने के लिए बाहर जाता है।
क्रियाविधि 3
एक ग्रामीण महिला की समय
योजनाआपकी माता की समय योजना 4:00 पूर्वान्न सुबह सोकर उठना 4.00 पूर्वाह्न - 5.00 पूर्वाह्न गाय को चारा देना और दुहना 5:00 पूर्वाह्न - 5:30 पूर्वाह्न स्नान करना और पूजा करना 5:30 पूर्वाह्न - 7:00 पूर्वाह्न खाना पकाना और परिवार को
खिलाना7:00 पूर्वाह्न - 9:00 पूर्वाह्न खेतों में काम करना $9: 00$ पूर्वान्न - $10: 30$ पूर्वाल्न घर के अन्य अनिवार्य काम यथा
घर की सफाई, बर्तन और कपड़े
धोना10:30 पूर्वाह्न - $12: 30$ अपराह्न विश्राम का समय, बुनाई करना,
परिवार के सदस्यों तथा पड़ोसियों
से गप-शप, टी.वी. देखना12:30 अपराह्न - $1: 30$ अपराह्न परिवार को भोजन परोसना, स्वयं
खाना$1: 30$ अपराह्न - $3: 00$ अपराह्न दोपहर का विश्राम $3: 00$ अपराह्न - $4: 30$ अपराह्न भोजन पकाने और पीने के लिए
पानी लाना4:30 अपराह्न - 6:00 अपराह्न घर के अन्य अनिवार्य कार्य 6:00 अपराह्न - 7:30 अपराह्न रात्रि का भोजन तैयार करना 7:30 अपराह्न - 8:30 अपराह्न परिवार को खाना खिलाना, खुद
भी खाना$8: 30$ अपराह्न - $9: 30$ अपराह्न घर के बचे हुए काम समाप्त
करना9:30 अपराह्न - $10: 00$ अपराह्न टीवी देखना, सो जाना
कारगर समय-प्रबंधन के लिए सुझाव
1. “किए जाने योग्य कार्यों” की सरल सूची बनाएँ
इससे आपको गतिविधियों के करने के कारणों और उन्हें पूरा करने के समय-सीमा की पहचान करने में मदद मिलेगी।
क्र. सं. | गतिविधि | पूरा करने का दिन/तिथि | गतिविधि करने के लिए कारण |
---|---|---|---|
2. दैनिक/साप्ताहिक योजना सारणी
3. दीर्घावधि योजना-सारणी
एक मासिक चार्ट का प्रयोग करें ताकि आप आगे की योजना बना सकें। दीर्घावधि योजना सारणी आपके लिए समय की रचनात्मक योजना बनाने हेतु याद दिलाने के लिए भी काम करेगा।
जनवरी | |
फरवरी | |
मार्च | |
अप्रैल | |
मई | |
जून | |
जुलाई | |
अगस्त | |
सितंबर | |
अक्तूबर | |
नवंबर | |
दिसंबर |
समय प्रबंधन की स्थितियाँ
निम्नलिखित स्थितियाँ समय के प्रभावी प्रबंधन में मदद करती हैं -
(i) चरम भार अवधि - किसी निर्दिष्ट अवधि में काम के अधिकतम बोझ को चरम भार अवधि कहते हैं। जैसे, प्रातःकाल का समय या रात्रि के भोजन का समय।
समय
(ii) कार्य वक्र - समयानुसार कार्य देखने का एक साधन
यहाँ $\mathrm{a}$ से $\mathrm{b}$ कार्य के लिए स्फूर्ति पैदा करने की अवधि है, $\mathrm{c}$ काम करने की अधिकतम क्षमता की स्थिरता की स्थिति है और $\mathrm{d}$ थकान के कारण अधिकतम गिरावट है।
(iii) विश्राम/अंतराल की अवधि - काम करने के समय के दौरान कई अनुत्पादक रुकावटें आती हैं, जिन्हें अंतराल की अवधि कहते हैं। इसकी आवृत्ति तथा मियाद बहुत महत्वपूर्ण होती है। यह न तो बहुत लंबी होनी चाहिए,
क्रियाविधि 4
अपने दैनिक चरम भार तथा विश्राम की अवधियों की पहचान करें। न बहुत छोटी।
(iv) कार्य का सरलीकरण - कार्य करने की सबसे सरल, आसान और अतिशीघ्र विधि से करने की चेतन कोशिश कार्य का सरलीकरण कहा जाता है। इसका आशय दो महत्वपूर्ण संसाधनों अर्थात् समय और मानव ऊर्जा के सही मिश्रण एवं प्रबंधन से है, इसका उद्देश्य होता है समय तथा ऊर्जा की निर्दिष्ट मात्रा में अधिक-से-अधिक काम निष्पादित करना या निर्धारित काम को पूरा करने के लिए समय या ऊर्जा या दोनों की मात्रा घटाना-बढ़ाना। कार्य-पद्धति में परिवर्तन लाने और उसे सरल बनाने के लिए, परिवर्तन के निम्नलिखित तीन स्तर महत्वपूर्ण हैं
- हाथ और शरीर की गति में परिवर्तन - इसका आशय कार्य के उपकरणों और उत्पदों को यथावत् रखते हुए, हाथ और शरीर की गति में परिवर्तन लाना है।
(i) कुछ प्रक्रियाओं को छाँट कर और कुछ को जोड़कर, अनेक काम हैं, जो कम प्रयास से पूरे किए जा सकते हैं, जैसे -
- बर्तनों को रैक पर सूखने देने से उन्हें पोंछ कर सुखाने की ज़रूरत नहों रहती।
- बाज़ार से अपेक्षित सामान अलग-अलग खरीदने के बजाय सूची बनाकर एक साथ खरीदना
(ii) कार्य के क्रम में सुधार लाकर कार्य का परिणाम सुधारा जा सकता है, जैसे
- एक जैसे कामों को एक-साथ करना जैसे, घर की सफ़ाई करते समय, झाड़ने, बुहारने तथा पोंछा लगाने की सभी क्रियाएँ सभी कमरों में एक-साथ निरंतरता में की जाएँ, न कि हर कमरे में अलग-अलग। इससे क्रम बनाए रखने में भी मदद मिलती है।
(iii) कार्य में कुशलता विकसित करके, काम को अच्छी तरह जानने और सीख लेने से समय और गति निरर्थक नहीं जाती, समय तथा ऊर्जा दोनों की बचत होती है।
(iv) शरीर की मुद्रा सुधार कर - शरीर की सही और उत्तम मुद्रा बनाए रखकर (नीचे चित्र 2 देखें), पेशियों का प्रभावी प्रयोग कर, शरीर के अंगों को एक सीध में रखकर, अधिकतम भार अस्थियों के ढाँचे पर डालकर पेशियों को सभी तनावों से मुक्त राा जा सकता है और बेहतर कार्यक्रम प्राप्त किया जा सकता है। जैसे, झुक कर झाड़ू लगाने की बजाय लंबे हैंडल वाले झाड़ू का प्रयोग करने से स्थिर मुद्रा बनी रहती है और देर तक काम किया जा सकता है। (नीचे चित्र 3 देखें)
खड़े होने की उत्तम मुद्रा - खड़े होने की उत्तम मुद्रा वह होती है जिसमें सिर, गर्दन, वक्ष तथा उदर एक-दूसरे के ऊपर संतुलित हों ताकि बोझ मुख्यत: अस्थियों के ढाँचे द्वारा उठाया जाए और पेशियों तथा स्नायुओं पर न्यूनतम तनाव पड़े। इसी प्रकार काम करने के लिए बैठने की उत्तम मुद्रा एक संतुलित सधी हुई स्थिति है। शारीरिक भार कंकाल की अस्थियों के समर्थन द्वारा वहन किया जाता है और पेशियाँ तथा तंत्रिकाएँ तनाव से पूरी तरह मुक्त रहती हैं। इस प्रकार संतुलन का उतना ही समायोजन किया जाता है जितना काम के लिए ज़रूरी हो।
चित्र 2 - सही मुद्रा दिखाने वाला चित्र
चित्र 3
- कार्य, भंडारण स्थान और प्रयुक्त उपकरणों में परिवर्तन - इस कार्य के लिए निम्नलिखित बातें अपेक्षित हैं - भंडारण स्थानों की व्यवस्था, रसोई के उपस्करों को पुनर्य्यवस्थित करना, कार्य स्लैब की ऊँचाई तथा चौड़ाई उपयोगकर्ता के अनुसार सही बनाना, श्रम बचाने वाले साधनों यथा प्रेशर कुकर, वाशिंग मशीन, माइक्रोवेव ओवन आदि का प्रयोग, जिससे समय तो बचेगा ही, साथ ही हाथ को इधर-उधर हिलाना-डुलाना भी कम पड़ेगा।
- अंतिम उत्पाद में परिवर्तन - निम्नलिखित कारणों से ये परिवर्तन आ सकते हैं -
- भिन्न-भिन्न कच्ची सामग्री - साबुत मसालों की जगह पिसे हुए तैयार मसालों का प्रयोग, उत्पाद पैदा करने के लिए ऑर्गोनिक बीजों का प्रयोग करना आदि इसके अंतर्गत आता है।
- उसी कच्ची सामग्री से भिन्न-भिन्न उत्पाद तैयार करना - जैसे, आइसक्रीम की जगह कुल्फ़ी बनाना, रसदार कोफ़्ता की जगह लौकी के पराठे बनाना, आदि। - कच्ची सामग्री और तैयार उत्पाद दोनों में परिवर्तन - जैसे स्याही वाली कलम की जगह बॉल पेन से लिखना आदि।
7 ख.2 स्थान प्रबंधन
घर पर, घर से बाहर, और कार्यस्थल पर विभिन्न गतिविधियाँ चलाने के लिए लोग स्थान का उपयोग करते हैं। आपने देखा होगा कि उत्तम डिज़ाइन वाला कमरा खुलेपन का एहसास दिलाता है, जबकि वैसे ही आयामों वाला कमरा सुव्यवस्थित न हो, तो देखने में छोटा और अस्त-व्यस्त प्रतीत होता है। स्थान प्रबंधन में शामिल है स्थान का नियोजन, योजनानुसार उसकी व्यवस्था, उसके उपयोग के अनुसार योजना का क्रियान्वयन और कार्यकारिता तथा सौंदर्यबोध की दृष्टि से उसका मूल्यांकन। सुप्रबंधित स्थान न केवल काम करते समय आराम देता है, बल्कि आकर्षक भी दिखता है।
स्थान और घर
बैठना, सोना, पढ़ना, पकाना, नहाना, धोना, मनोरंजन आदि घर में की जाने वाली प्रमुख गतिविधियाँ हैं। इनमें से प्रत्येक गतिविधि और उनसे संबंधित क्रियाओं को चलाने के लिए घर में प्राय: विशिष्ट क्षेत्र निर्धारित किए जाते हैं। जहाँ भी स्थान उपलब्ध हो, इन गतिविधियों को चलाने के लिए विशिष्ट कमरों का निर्माण किया जाता है। अधिकांश शहरी मध्यवर्गीय घरों में एक बैठक, एक या उससे अधिक शयनकक्ष, रसोईघर, भंडारघर, स्नानागार, शौचालय और बरामदा/ आँगन (ऐच्छिक) होते हैं।
इसके अलावा, कुछ घरों में अतिरिक्त कमरे भी हो सकते हैं जैसे - भोजन कक्ष, अध्ययन कक्ष, मनोरंजन कक्ष, शृंगार कक्ष, अतिथि कक्ष, बाल कक्ष, गैराज (स्कूटर या कार के लिए), सीढ़ियाँ, गलियारे, पूजा घर, बगीचा, बालकनी आदि। आइए, समझें कि स्थानों की योजना कैसे बनाई जाए।
गतिविधि 5
अपने घर में विभिन्न कमरों/क्षेत्रों और उनमें से प्रत्येक में चलाई जाने वाली गतिविधियों की सूची बनाइए। उदाहरणत: -
कमरा गतिविधि रसोई खाना पकाना
स्थान नियोजन के सिद्धांत
स्थान के इष्टतम उपयोग के लिए उसकी योजना बनाना ज़रूरी है। घर में कार्य क्षेत्र की डिज़ाइन तैयार करने के समय ध्यान में रखे जाने वाले सिद्धांत निम्नलिखित हैं -
विविध संदर्भों में सरोकार और आवश्यकताएँ
(i) स्वरूप - ‘स्वरूप’ भवन की बाहरी दीवारों में दरवाज़ों तथा खिड़कियों की व्यवस्था का द्योतक है, जिनसे उसमें रहने वाले प्राकृतिक देन - धूप, हवा तथा दृश्य आदि का आनंद उठा सकें।
(ii) प्रभाव - ‘प्रभाव’ सही अर्थ में वह छाप है जो घर को बाहर से देखने वाले व्यक्ति पर पड़ सकता है। इसमें प्राकृतिक सौंदर्य का सही इस्तेमाल दरवाज़ों तथा खिड़कियों की सही स्थिति और अप्रिय दृश्यों को ढँक कर मनोहर आकृति प्राप्त करने का उद्यम शामिल है।
(iii) एकांतता - स्थान नियोजन का एक अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत है एकांतता। एकांतता के दो पहलुओं पर विचार करना होता है -
- भीतरी एकांतता - एक कमरे से दूसरे कमरे के एकांतता को भीतरी एकांतता कहते हैं। घर में कमरों की स्थिति, दरवाज़ों की स्थिति, छोटे गलियारे या लॉबी की व्यवस्था आदि के सुविचारित नियोजन द्वारा यह स्थिति बनाई जाती है। स्क्रीन तथा परदे लगा कर भी भीतरी एकांतता बनाई जा सकती है। बड़े परिवार वाले घरों में स्त्रियों की एकांतता को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से उनके लिए बैठने का अलग क्षेत्र उपलब्ध कराया जाता है।
- बाहरी एकांतता - इसका अर्थ पड़ोसी के घरों, सार्वजनिक सड़कों तथा उप-मार्गों से घर के सभी भागों की एकांतता है। इसके लिए सुविचारित नियोजन द्वारा प्रवेश द्वार बनाया जाता है, या कोई शेड हो सकता है, जिसे पेड़ या लताओं से ढँक दिया जाता है।
बाहरी एकांतता - बाड़ और झाड़ियों द्वारा सुरक्षित घर
क्रियाविधि 6
अपने परिवार के अलग-अलग आयु वर्ग के सदस्यों से बात करें और उनसे पूछें कि एकांतता से वे क्या समझते हैं?
(iv) कमरे की स्थिति- इसका आशय कमरों के एक-दूसरे के साथ भीतरी संबंध से है। जैसे किसी भवन में भोजन क्षेत्र, रसोई के निकट होना चाहिए और शौचालय रसोई से दूर होना चाहिए।
गृहयोजना
(v) खुलापन - यह रहने वालों को कमरे के खुलेपन का आभास देता है। उपलब्ध स्थान का उपयोग पूरी तरह करना चाहिए। जैसे, आप दीवारों में बनाई गई अलमारियाँ, शेल्फ़ तथा भंडारण क्षेत्र बना सकते हैं, ताकि कमरे का फ़र्श विभिन्न गतिविधियों के लिए खाली रहे। इसके अतिरिक्त, कमरे के आकार तथा आकृति, फ़र्नीचर की व्यवस्था और प्रयुक्त रंग योजना का भी उसके खुलेपन पर प्रभाव पड़ता है। सही अनुपात वाला आयताकार कमरा उसी आयाम के वर्गाकार कमरे की अपेक्षा अधिक खुला दिखाई देता है। गहरे रंगों की अपेक्षा हल्के रंगों के प्रयोग से भी कमरा बड़ा और खुला होने का आभास देता है।
(vi) फ़र्नीचर की आवश्यकताएँ - कमरों की योजना बनाते समय वहाँ रखे जाने वाले फर्नीचर पर यथोचित विचार किया जाए। भवन में हर कमरे का उद्देश्य अच्छी तरह पूरा होना चाहिए। ध्यान रहे कि केवल अपेक्षित फर्नीचर ही रखा जाए। फ़र्नीचर इस प्रकार व्यवस्थित किया जाए कि चलने-फिरने के लिए खुली जगह उपलब्ध रहे।
बिना फ़र्नीचर का कमरा जिसे बाद में ज़रूरी फ़र्नीचर की सभी आवश्यकताओं से सुसज्जित कर दिया गया है
(vii) स्वच्छता - स्वच्छता का आशय है मकान में भरपूर रोशनी, हवादारी, और सफ़ाई तथा स्वच्छता की सुविधाएँ, ये इस तरह हैं -
(क) रोशनी - रोशनी का दोहरा महत्त्व है। एक, यह प्रकाश देती है और स्वस्थ वातावरण बनाए रखने में मदद भी करती है। किसी भवन में रोशनी प्राकृतिक या कृत्रिम स्रोतों से उपलब्ध करायी जा सकती है। खिड़कियाँ, बल्ब, ट्यूबलाइट रोशनी के कुछ महत्वपूर्ण साधन हैं।
(ख) वायु-संचार - इससे भवन में सारा कुछ खुशनुमा लगता है। कमरे में आरामदायक वातावरण को प्रभावित करने का यह एक महत्वपूर्ण कारक है। सामान्यतः इसके लिए खिड़कियों, दरवाज़ों तथा रोशनदानों को इस प्रकार बनवाया जाता है कि अधिक से अधिक हवा का आवागमन हो सके। खिड़कियाँ यदि एक-दूसरे के सामने हों तो हवा का आवागमन अच्छा होता है। भवन में स्वच्छ वायु की कमी से सिर दर्द, अनिद्रा, ध्यान केंद्रित करने में असमर्थता आदि हो सकती है। हवा का आवागमन प्राकृतिक भी हो सकता है, या यांत्रिक (एक्जोस्ट पंखे का प्रयोग करके) भी।
(ग) सफ़ाई और स्वच्छता सुविधाएँ - भवन की सामान्य सफ़ाई और रखरखाव उसमें रहने वालों का उत्तरदायित्व होता है, फिर भी योजना में सफ़ाई की सुविधा और धूल को रोकने के प्रावधान ज़रूरी हैं। भवन में स्नानागारों तथा शौचालयों का प्रावधान भी स्वच्छता सुविधाओं में शामिल है। ग्रामीण घरों में शौचालय तथा स्नानागार अलग यूनिट के रूप में बनाए जाते हैं, जो प्रायः घर के पिछवाड़े या आगे, अन्य कमरों से दूर जाते हैं, ताकि सफ़ाई बनी रहे।
(viii) वायु का परिसंचरण - कमरा-दर-कमरा भी वायु परिसंचरण संभव होना चाहिए। उत्तम परिसंचरण का अर्थ है कि घर के प्रत्येक कमरे का स्वतंत्र प्रवेश द्वार हो। इससे सदस्यों की एकांतता भी बनी रहती है।
विद्यालय भवन
विविध संदर्भों में सरोकार और आवश्यकताएँ
(ix) व्यावहारिक बातें - स्थानों की योजना बनाते समय कुछ व्यावहारिक बातों का ध्यान रखना चाहिए। संरचना की मजबूती तथा स्थिरता, परिवार के लिए सुविधा और आराम, सरलता, सौंदर्य और भविष्य में विस्तार का प्रावधान। किफ़ायत के लिए कमज़ोर संरचना नहीं बनानी चाहिए।
(x) रमणीयता - योजना के सामान्य विन्यास द्वारा रमणीयता पैदा की जाती है। मितव्ययिता पर समझौता किए बिना, स्थान की योजना सुरुचिपूर्ण होनी चाहिए।
उपर्युक्त सिद्धांतों पर यदि विचार किया जाए तो वे स्थान के नियोजन और प्रबंधन में सहायता करते हैं।
इस अध्याय में हमने दो बहुत महत्वपूर्ण सिद्धांतों के बारे में पढ़ा है - समय, स्थान, और उनके प्रयोग करने के कुशल तरीके। अगले अध्याय में हम एक अन्य महत्वपूर्ण संसाधन के बारे में पढ़ेंगे। ज्ञान, और उसे प्राप्त करने के तरीके। ज्ञान प्राप्ति के लिए सीखने की मनोदशा, शिक्षा तथा विस्तार की कुछ प्रक्रियाएँ आधारभूत हैं।
मुख्य शब्द
समय-प्रबंधन, स्थान-प्रबंधन, समय-योजना, कार्यविधि-योजना, कार्य का सरलीकरण
समीक्षात्मक प्रश्न
1. समय-संसाधनों और स्थान-संसाधनों का वर्णन करें।
2. समय-प्रबंधन क्यों ज़रूरी है?
3. समय और कार्यविधि-योजना के विभिन्न चरणों पर चर्चा करें।
4. समय-प्रबंधन के साधन कौन-से हैं?
5. स्थान-प्रबंधन की परिभाषा दें। घर के भीतर स्थान-नियोजन के सिद्धांतों पर चर्चा करें।
ग. भारत की वस्त्र परंपराएँ
7 ग.1 परिचय
इससे पहले के अध्याय ‘हमारे इर्द-गिर्द कपड़े’ में आप वस्त्र उत्पादों की विविधता और उनके प्रयोग से परिचित हो चुके हैं। आपने कभी सोचा है कि ये कपड़े अस्तित्व में कैसे आए, और उन्हें भारत में एक महत्वपूर्ण विरासत क्यों माना जाता है? यदि आप कभी किसी संग्रहालय में गए हो तो आपने एक अनुभाग अवश्य देखा होगा जहाँ कपड़े और परिधान प्रदर्शित किए जाते हैं। आपने यह भी महसूस किया होगा कि उस अनुभाग में प्रदर्शित वस्तुएँ अपेक्षाकृत कम हैं, और वे उतनी पुरानी भी नहीं हैं जितनी अन्य वस्तुएँ। इसका कारण यह है कि अस्थि, पत्थर या धातु की तुलना में कपड़े बहुत जल्दी क्षीण हो जाते हैं। तथापि, दीवार पर बने अथवा मूर्तियों पर कपड़े पहने हुए मानव चित्र दर्शाने वाले पुरातत्वीय अभिलेखों से पता चलता है कि मानव 20,000 वर्ष पूर्व भी वस्त्र बनाने की कला जानता था। प्राचीन साहित्य के संदर्भों में गुफ़ाओं तथा भवनों में दीवारों पर चित्रकारी से भी हमें उनके बारे में जानकारी मिलती है।
वस्त्र सामग्रियों ने प्राचीन काल से मानवों को मोहित किया है, ये सभ्यता का अनिवार्य अंग रही हैं। सभी प्राचीन सभ्यताओं के लोगों ने अपने प्रदेश में उपलब्ध कच्ची सामग्री के उपयोग के लिए तकनीकें/प्रौद्योगिकियाँ विकसित की थीं। उन्होंने स्वयं अपने विशिष्ट डिज़ाइनों की भी रचना की और अलंकृत डिज़ाइनों वाले उत्पाद पैदा किए।
7 ग.2 भारत में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
भारत में परिष्कृत वस्त्रों का उत्पादन उतना ही प्राचीन है, जितनी भारतीय सभ्यता। ऋग्वेद तथा उपनिषदों में विश्व की सृष्टि का वर्णन करते हुए कपड़े का प्रयोग एक प्रतीक के रूप में किया गया है। इन ग्रंथों में विश्व को ‘देवताओं द्वारा बुना गया कपड़ा’ कहा गया है। पृथ्वी पर प्रकाश और अंधकार वाले दिन और रात की तुलना जुलाहे के करघे में शटल की गति से की गई है।
बुनाई सबसे पुरानी कला है और महीन कपड़े के उत्पाद बहुत पुराने समय से बनाए जाते रहे हैं। कपड़े के टुकड़े और टैरा-कोटा तकले तथा कांस्य की सूइयाँ भी, जो मोहनजोदाड़ो में खुदाई के स्थल पर मिली हैं, इस बात का प्रमाण हैं कि भारत में सूत की कताई, बुनाई, रंगाई और कशीदाकारी की परंपराएँ कम से कम 5000 वर्ष पुरानी हैं। रंग का पता लगाने और वस्त्र सामग्री पर, विशेषतः सूती सामग्री पर उसके प्रयोग की तकनीक में निपुणता हासिल करने वाला, प्राचीन सभ्यताओं में पहला भारत ही था। रंगाई और छपाई वाले सूती कपड़ों का निर्यात अन्य राष्ट्रों को किया जाता था, वे अपने पक्के रंगों के लिए प्रसिद्ध थे। प्राचीन साहित्य (ग्रीक और लैटिन) में उनका उल्लेख मिलता है, जैसे ‘भारतीय कपड़ों पर रंग उतना ही चिर स्थायी है, जितनी कि बुद्धिमानी।’
ज्ञात इतिहास की पूरी अवधि के दौरान सूत, रेशम तथा ऊन से बनाए गए भारतीय कपड़ों की उत्कृष्टता की प्रशंसा के उल्लेख मिलते हैं। वे अपने कपड़े की विशिष्टताओं के लिए और बुनाई, पक्की रंगाई, छपाई तथा कशीदाकारी द्वारा उन पर बनाए गए डिज़ाइनों के लिए भी प्रसिद्ध थे। शीघ्र ही भारतीय कपड़े व्यापार जगत् में लोकप्रिय हो गए, उन्होंने राजनीतिक संपर्कों में मदद की और अन्य देशों में ऐसे उद्योगों की स्थापना को प्रेरित किया। लगभग 15 वीं शताब्दी से ही भारत वस्त्रों का सबसे बड़ा निर्यातक था। यूरोपीय राष्ट्रों द्वारा विभिन्न ईस्ट इंडिया कंपनियों की स्थापना भारत में वस्त्र व्यापार के साथ संबंधित थी।
7 ग.3 तीन मुख्य रेशे
पारंपरिक रूप से भारतीय कपड़े का उत्पादन तीन मुख्य प्राकृतिक रेशों के साथ जुड़ा हुआ है कपास, रेशम और ऊन। अब हम उनके महत्त्व पर चर्चा करते हैं -
कपास
भारत कपास का घर है। कपास की खेती, और बुनाई में उसका प्रयोग प्रागैतिहासिक काल से विदित है। यहाँ विकसित कताई और बुनाई की तकनीकों से ऐसे कपड़े बनाए गए जो अत्यंत बारीक और अलंकृत होने के कारण प्रसिद्ध हो गए। कपास का चलन भारत से सारे संसार में फैल गया। कपास का व्यापार होता था, इस बात की जानकारी, बैबिलोन के प्राचीन देश में पुरातत्त्विक खुदाई से मिली हड़प्पा की मोहरों से मिली। जब रोमन और ग्रीक लोगों ने कपास को पहली बार देखा, उन्होंने इसे पेड़ों पर उगने वाली ऊन समझा।
कपास की कताई के साथ अनेक किस्से जुड़े हुए हैं। ढाका में (अब बांग्लादेश में) सबसे बारीक कपड़ा - मलमल खास या शाही मस्लिन बनाया गया। वह इतनी बारीक थी कि आसानी से आंखों से दिखाई ही नहीं पड़ती थी और उसे काव्यात्मक नाम दिए गए थे - बत हवा (बुनी हुई वायु), आबे रवाँ (बहता हुआ पानी), शबनम (शाम की ओस)। जामदानी या बंगाल तथा उत्तर भारत के भागों के कपास के उपयोग से पारंपरिक रूप से बुनी जाने वाली अलंकृत मलमल भारतीय बुनाई का सर्वोत्तम ब्रोकेड उत्पाद है।
नियमित बुनाई में, ‘बाने’ का धागा एक विशिष्ट अनुक्रम में ‘ताने’ के धागे के ऊपर और नीचे चलता है। परंतु जब रेशमी, सूती या सोने/चाँदी के धागों से ब्रोकेड डिज़ाइनों की बुनाई करनी हो, तो इन धागों को नियमित बुनाई के बीच में जड़ दिया जाता है। पैटर्न बनाने के लिए प्रयुक्त फ़ाइबर के द्रव्य के आधार पर सूती ब्रोकेड, रेशमी ब्रोकेड या जरी (धात्विक धागा) ब्रोकेड हो सकते हैं।
सूती कपड़ा बनाने में निपुणता के अतिरिक्त, भारत की सर्वोच्च वस्त्र उपलब्धि चटकीले पक्के रंगों के साथ सूती कपड़े में पैटर्न बनाने की थी। 17 वों शताब्दी तक, केवल भारतीय ही सूत को रंगने की जटिल प्रक्रिया में पारंगत थे, जो केवल सतह पर रंजकों का लगाना नहीं था, बल्कि वे पक्के और स्थायी रंग बनाते थे। यूरोपीय फ़ैशन तथा बाज़ार में भारतीय छींट (छपाई और चित्रकारी वाला सूती कपड़ा) ने क्रांति ला दी थी। भारतीय शिल्पकार संसार के सर्वोत्तम रंगरेज़ थे।
सूत की बुनाई सारे भारत में होती है। अनेक स्थानों पर अब भी बहुत बारीक धागा काता जाता है, लेकिन थोक उत्पादन मोटे धागे का ही होता है। विविध उत्पाद अलग-अलग डिज़ाइनों तथा रंगों में बनाया जाता है और देश के विभिन्न भागों में उसका विशिष्ट प्रयोग होता है।
रेशम
भारत में रेशम के कपड़े प्राचीन काल से बनाए जाते हैं। पहले के एक अध्याय में हम पढ़ चुके हैं कि रेशम का मूल चीन में था। परंतु, कुछ रेशम का प्रयोग भारत में भी किया गया होगा। रेशम की बुनाई का उल्लेख ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में मिलता है। भारतीय तथा चीनी रेशम में भेद किया गया है। रेशम के बुनाई केंद्र राज्यों की राजधानियों, तीर्थ स्थलों और व्यापार केंद्रों के निकट विकसित हुए। बुनकरों के प्रवास से अनेक नए केंद्र विकसित और स्थापित हुए। हमारे देश के विभिन्न प्रदेशों में रेशम की बुनाई की विशिष्ट शैलियाँ हैं। कुछ महत्वपूर्ण केंद्र निम्नलिखित हैं -
उत्तर प्रदेश में वाराणसी की विशेष शैलियों में बुनाई की एक प्राचीन परंपरा है। उसका अत्यंत लोकप्रिय उत्पाद ब्रोकेड या किनख्वाब है। इसकी शोभा एवं लालित्य और कपड़े की भारी कीमत ने इसे किनख्वाब नाम दिया है, जिसका अर्थ है - ऐसी वस्तु जिसका आदमी सपना भी नहीं देख सकता या ऐसा कपड़ा जो प्रायः सपने में भी दिखाई नहीं देता या स्वर्णिम (किनख्वाब)।
पश्चिम बंगाल अपनी रेशम की बुनाई के लिए पारंपरिक रूप से प्रसिद्ध है। पश्चिम बंगाल के बुनकर जामदानी बुनकर जैसे करघे का प्रयोग कर रेशमी ब्रोकेड वाली साड़ी बुनते हैं, जिसे बालुचर बूटेदार कहते हैं। यह शैली मुर्शिदाबाद जिले में बालुचर नामक स्थान से शुरू हुई थी। अब वाराणसी में भी इसे सफलतापूर्वक बनाया जा रहा है। यहाँ, प्लेन बुने हुए कपड़े को रेशम के बिना बटे धागे से ब्रोकेड किया जाता है। इन साड़ियों की सबसे बड़ी विशेषता उनका पल्लू है। उसमें अनोखे डिज़ाइन होते हैं, जो वीर कथाओं, शाही दरबार, घरेलू दृश्य या यात्रा के दृश्य में सवारों तथा पालकियों के साथ दिखाए जाते हैं। किनारी तथा पल्लू में आम के मोटिफ़ का बहुत प्रयोग किया जाता है।
गुजरात ने किनख्वाब को अपनी शैली विकसित की है। भड़ौच और खंबात में बहुत बारीक वस्त्र बनाए गए थे, जो भारतीय शासकों के दरबारों में लोकप्रिय थे। अहमदाबाद की अशावली साड़ियाँ अपनी सुंदर ब्रोकेड किनारियों और पल्लुओं के लिए प्रसिद्ध हैं। उनमें भव्य सोने या चाँदी की धात्विक पृष्ठभूमि होती है जिस पर रंगीन धागे से पैटर्न बुने जाते हैं और कपड़े पर मीनाकारी जैसी छवि आ जाती है। पैटर्न में मानवों, पशुओं तथा पक्षियों के मोटिफ प्राय: बना दिए जाते हैं क्योंकि वे गुजराती लोक परंपरा के अभिन्न अंग हैं।
तमिलनाडु में कांचीपुर प्राचीन काल से दक्षिण भारत में ब्रोकेड बुनाई का एक प्रसिद्ध केंद्र है। पारंपरिक साड़ियों में ब्रोकेड वाले भव्य पल्लू के साथ पक्षियों और पशुओं के मोटिफ़ होते हैं। दक्षिण भारतीय कपड़ों में गहरे रंग, जैसे - लाल, बैंगनी, नारंगी, पीला, हरा, और नीला प्रमुख होते हैं।
महाराष्ट्र में औरंगाबाद के निकट गोदावरी नदी के किनारे स्थित पैठन दक्कन प्रदेश का एक प्राचीनतम नगर है। यह किनारियों तथा मोटिफ़ों के लिए सोने की जड़ाऊ बुनाई वाली रेशम की विशेष साड़ियों के लिए प्रसिद्ध है। पैठन में प्रयुक्त टेपेस्ट्री बुनाई सजावटी बुनाई की प्राचीनतम तकनीक है। यह घनी बुनाई वाले अपने सुनहरी कपड़े के लिए जानी जाती है। झिलमिलाती सुनहरी पृष्ठभूमि में लाल, हरे, गुलाबी तथा बैंगनी रंग में बनाए गए विभिन्न पैटर्न (बूटे, जीवन-वृक्ष, विशिष्ट कलियाँ और फूलों की किनारियाँ) मणियों की तरह चमकते हैं।
टेपस्ट्री बुनाई असमतल बाने के सिद्धांत का प्रयोग करती है, अत: बहुरंगी धागों का इस्तेमाल किया जा सकता है। फलस्वरूप, कपड़ा दोनों ओर से एक-जैसा दिखाई देता है।
सूरत, अहमदाबाद, आगरा, दिल्ली, बुरहानपुर, तिरुचिरापल्ली और तंजावुर ज़री ब्रोकेड बुनाई के पारंपरिक रूप से प्रसिद्ध अन्य केंद्र हैं।
ऊन
ऊन का विकास शीतल प्रदेशों के साथ जुड़ा हुआ है। लद्दाख की पहाड़ियाँ, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल की पहाड़ियाँ, कुछ उत्तर-पूर्वी राज्य, पंजाब, राजस्थान और मध्य तथा पश्चिम भारत के कुछ स्थान। भारत में विशेषतः बालों का प्रयोग किया गया है, अर्थात् भेड़ तथा अन्य जानवरों (पहाड़ी बकरियों, खरगोशों तथा ऊँटों) के बाल। ऊन के सबसे पुराने संदर्भ में पहाड़ी बकरियों और कुछ हिरण जैसे जानवरों से प्राप्त बहुत बारीक बाल का उल्लेख है।
11 वीं सदी का कश्मीरी साहित्य उस अवधि के बहुरंगी ऊनी कपड़ों की बुनाई की पुष्टि करता है। 14 वों शताब्दी से फारसी प्रभाव के कारण शालों का उत्पादन होने लगा। उसने विविध रंगों तथा पेचीदा पैटर्नों में अत्यंत जटिल टेपस्ट्री बुनाई का उपयोग किया। सर्वोत्तम शालें पश्मीना और शाहतूस-पहाड़ी बकरियों के बालों से बनाई गईं। इस कला को प्रोत्साहित करने का श्रेय मुगल सम्राटों को जाता है। इस तरह कश्मीर की शालें विश्व-विख्यात हो गईं। छपाई वाले सूती कपड़ों की तरह, 18 वीं शताब्दी से यह निर्यात की प्रमुख मद बन गई। बाद में, शालों पर कशीदाकारी भी की जाने लगी। शालों के डिज़ाइन कश्मीर के प्राकृतिक सौंदर्य को चित्रित करते हैं। आम का मोटिफ़, जिसे पेसली भी कहते हैं, असंख्य रूपों तथा वर्ण-संयोजनों में दिखाई देता है।
कहा जाता है कि जामावार शालों की शैली अकबर ने शुरू की थी। ये लंबी शालें इस प्रकार डिज़ाइन की गई थीं कि वे पोशाक बनाने के लिए भी उपयुक्त हों (जामा अर्थात् लबादा, और वार अर्थात् लंबाई)। आपने संग्रहालयों में चित्रकारी और पुस्तकों के चित्रों में देखा होगा कि मुगल शासक प्राय: पेचीदा डिज़ाइनों में चौड़े कंधों वाले परिधान पहनते थे।
हिमाचल प्रदेश की शालें अधिकांशतः सीधी क्षैतिज पंक्तियों, बैंडों तथा धारियों में, जिन में एक-दो खड़ी धारियाँ भी होती हैं, समूहित कोणीय ज्यामितीय मोटिफ़ों में बुनी जाती हैं। कुल्लू घाटी, विशिष्ट रूप से शालों और अन्य अनेक ऊनी वस्त्रों की बुनाई-पट्टू और दोहरू (पुरुषों के लिए लबादे) के लिए प्रसिद्ध है।
हाल के वर्षों में अन्य स्थानों पर भी शाल की बुनाई को महत्त्व दिया जाने लगा है। पंजाब में अमृतसर तथा लुधियाना, उत्तराखंड और गुजरात का विशेष उल्लेख किया जा सकता है।
7 ग.4 रंगाई
हम पहले ही जान चुके हैं कि भारत में रंगाई का इतिहास बहुत पुराना है। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से पहले रंग केवल प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त किए जाते थे। प्रयोग किए जाने वाले अधिकांश रंग पादपों की जड़, छाल, पत्ते, फूल और बीज आदि से लिए जाते थे। कुछ कीटों तथा खनिजों से भी रंग मिलता था। पुराने नमूनों के विश्लेषण से प्रमाणित होता है कि भारतीयों को रंगों के रसायन, और पक्के रंग की विशिष्टता के लिए विख्यात वस्त्रों के उत्पादन में रंग के अनुप्रयोग की तकनीकों का गहरा ज्ञान था।
रंगरोधी रंगाई वाले वस्त्र
रंग के साथ डिज़ाइन बनाने का सबसे पुराना रूप रंगरोधी रंगाई है। रंगाई की कला में निपुण होने के बाद यह पता चला होगा कि यदि कपड़े के कुछ हिस्सों को रंग सोखने से रोक दिया जाए, तो वे अपना मूल रंग बनाए रखेंगे और इस प्रकार डिज़ाइन वाले दिखाई देंगे। रोध की सामग्री धागा, कपड़े के टुकड़े, या मृदा तथा मोम जैसे पदार्थ हो सकते हैं, जो भौतिक प्रतिरोध करते हैं। रोध की सबसे अधिक प्रचलित विधि धागे से बाँधने की है। भारत में बनाए जाने वाले टाई एंड डाई कपड़ों की दो विधियाँ हैं - फेब्रिक टाई एंड डाई, और धागा टाई एंड डाई। दोनों ही मामलों में जिस भाग पर डिज़ाइन बनाना हो, उसके चारों ओर कस कर धागा लपेटकर बाँध देते हैं और रंगते हैं। रंगाई की प्रक्रिया के दौरान, बंधा हुआ अंश अपना मूल रंग बनाए रखता है। सूखने पर, बँँधे हुए कुछ भाग खोल दिए जाते हैं तथा कुछ अन्य भाग बाँध दिए जाते हैं, इसके बाद फिर रंगा जाता है। प्रक्रिया को और अधिक रंगों के दोहराया जा सकता है, लेकिन उत्तरोत्तर हल्के से गहरे रंगों की ओर अग्रसर होते हैं।
टाई एंड डाई का एक आनुष्ठानिक महत्त्व है। हिंदुओं में किसी भी धार्मिक अनुष्ठान से पहले कलाई पर बाँधा जाने वाला धागा टाई एंड डाई से सफेद, पीला और लाल रंगा होता है। विवाह समारोहों में टाई एंड डाई वाले कपड़ों को शुभ माना जाता है, दुल्हन की पोशाक और पुरुषों की पगड़ी प्रायः इन कपड़ों की बनी होती है।
(i) कपड़ा टाई एंड डाई - बंधनी, चुनरी, लहरिया कुछ इस डिज़ाइन वाले वस्त्रों के नाम हैं जिनमें कपड़े के बुनने के बाद टाई-डाई द्वारा पैटर्न बनाए जाते हैं। टाई एंड डाई का एक विशिष्ट डिज़ाइन ‘बंधेज’ है, जिसमें पैटर्न में असंख्य बिंदु होते हैं; एक अन्य लहरिया प्रकार का होता है, जहाँ पैटर्न तिरछी धारियों के रूप में होता है। गुजरात और राजस्थान इस प्रकार के कपड़ों के घर हैं।
(ii) धागा टाई एंड डाई - धागा टाई एंड डाई डिज़ाइन वाले कपड़े बनाने की एक जटिल प्रक्रिया है। इन्हें इकात कपड़े कहते हैं। ये कपड़े एक तकनीक द्वारा बनाए जाते हैं, जिसमें ताने के धागों को या बाने के धागों को या दोनों को बुनाई से पहले टाई एंड डाई कर लिया जाता है। इस प्रकार जब कपड़े को बुना जाता है, तब धागे के रंगे हुए स्थानों के आधार पर एक विशिष्ट पैटर्न बन जाता है। यदि केवल एक ही धागे, अर्थात् केवल ताने या बाने के धागे की टाई-रंगाई की गई हो तो उसे एकल इकत कहते हैं; यदि दोनों धागों को इस प्रकार रंगा गया हो तो यह संयुक्त इकत कहलाता है (इसमें दोनों धागे अलग-अलग पैटर्न बनाते हैं) या दोहरा इकत (इसमें एकीकृत पैटर्न बनता है)।
इकत का कारीगर केवल रंगाई की कला में ही निपुण नहीं होता, बल्कि उसे बुनाई का तकनीकी ज्ञान भी होता है। इस प्रक्रिया में बनाए जाने वाले वस्त्र के लिए अपेक्षित ताने और बाने के धागे की मात्रा की गणना करनी होती है। धागे को बाँधने और रंगाई के बाद उसकी बुनाई के लिए प्रवीणता की आवश्यकता होती है, ताकि डिज़ाइन, बनाने के लिए ताने और बाने के धागों का मेल बैठे।
इकत कपड़े
इकत कपड़े
गुजरात में इकत बुनाई की सबसे समृद्ध पंरपरा है। पटोला रेशम में बनाई गई दोहरे इकत की रंग-बिरंगी साड़ी है। इसका निर्माण मेहसाना जिले में पाटन में केंद्रित है। स्थानीय वास्तुकला से प्रेरित ज्यामितीय डिज़ाइन पैटर्नों के अलावा, अन्य डिज़ाइन भी हैं - फूल, पक्षी, पशु और नाच रही गुड़िया। अधिकतर प्रयोग किए जाने वाले रंग - लाल, पीला, हरा, काला और सफेद हैं। वे रूपरेखा की सीमाओं से कठोरता के बिना एक-दूसरे में घुल-मिल जाते हैं।
उड़ीसा एक अन्य प्रदेश है जहाँ सूत तथा रेशम की इकत साड़ियाँ और कपड़े बनाए जाते हैं। यहाँ इस प्रक्रिया को बंध कहते हैं जो एकल या संयुक्त इकत हो सकती है। पटोला की तुलना में यहाँ के डिज़ाइन कोमल और वक्र-रेखीय होते हैं। उनमें छोटे प्रतीकात्मक डिज़ाइनों में बुना गया बाने का अतिरिक्त धागा भी डाला जाता है।
आंध्र प्रदेश में पोचमपल्ली और किराला में सूती इकत कपड़े बनाने की परंपरा है, जिन्हें तेलिया रुमाल कहते हैं। ये प्रायः जोड़े के रूप में बुने गए कपड़े के 75-90 सेमी. वर्ग टुकड़ों में डिज़ाइन किए जाते थे। मोटे कपड़ों का प्रयोग मछुआ समुदायों द्वारा लुंगियों, साफ़े या लंगोट के रूप में किया जाता था और बारीक कपड़ों का दुपट्टों या बुरकों के रूप में।
7 ग.5 कशीदाकारी
सूई या सूई जैसे औज़ारों का प्रयोग करके रेशम, सूत, स्वर्ण या चाँदी के धागों से कपड़ों की सतह को अलंकृत करने की कला कशीदाकारी है। एक प्राचीन कला रूप, कशीदाकारी का उल्लेख सूई द्वारा चित्रकारी के रूप में मिलता है, यह संसार के अनेक भागों में की जाती थी। भारत में भी यह बहुत पहले से की जा रही है, इस बात का प्रमाण है कि कशीदाकारी सारे देश में प्रचलित थी -
- सभी सामाजिक-आर्थिक स्तरों पर - खानाबदोश पशुपालकों से लेकर शाही घरानों के सदस्यों तक
- सभी प्रकार के कपड़ों पर - मोटे सूती कपड़े तथा ऊँट की ऊन से बने वस्त्रों से लेकर अत्यंत महीन रेशम तथा पशमीने तक।
- सभी वस्तुओं और धागों (सूत, ऊन, रेशम या ज़री) के साथ कौड़ियों, सीपियों, दर्पण तथा काँच के टुकड़ों, मनकों, मणियों तथा सिक्कों द्वारा
- विविध वस्तुएँ बनाने में प्रयुक्त-निजी वस्त्र, घरेलू प्रयोग, घर की सजावट, धार्मिक स्थानों के लिए भेंट, और उनके जानवरों तथा पशुओं के लिए अलंकरण की वस्तुएँ।
कशीदाकारी को सामान्यतः एक घरेलू हस्तशिल्प माना जाता है, यह एक ऐसा व्यवसाय है जिसे महिलाएँ अपने खाली समय के दौरान मुख्यतः परिधान या घरेलू प्रयोग की वस्तुओं को अलंकृत करने या सजाने के लिए करती हैं। फिर भी, कुछ कशीदाकारियाँ देश के भीतर और संसार के विभिन्न भागों में भी व्यापार की वस्तुएँ बन गईं। अब हम कुछ ऐसी शैलियों पर नज़र डालते हैं जो आज वाणिज्यिक स्तर पर बनाई जा रही हैं।
फुलकारी
फुलकारी पंजाब की दस्तकारी की कला है। इस शब्द का प्रयोग दस्तकारी के लिए भी किया जाता है और इस प्रकार की दस्तकारी से बनाई गई चद्दर या शाल के लिए भी। फुलकारी का अर्थ है ‘पुष्प कार्य’ या फूलों की क्यारी। दूसरे शब्द बाग (अक्षरशः उद्यान) का भी यही आशय है। फुलकारी मुख्यतः एक घरेलू शिल्प था जो घर की लड़कियों तथा महिलाओं द्वारा और कई बार उनके निर्देशन में सेविकाओं द्वारा किया जाता था। कशीदाकारी मोटे सूती (खद्दर) कपड़े पर बिना बटे रेशमी लॉस से की जाती है जिसे पाट कहते हैं। बाग की भारी कशीदाकारी वाले कपड़ों में, कशीदाकारी कपड़े को पूरी तरह ढक लेती है, कपड़े का मूल रंग केवल पिछली ओर ही देखा जा सकता है। पारंपरिक रूप से यह कशीदाकारी विवाह उत्सवों से जुड़ी हुई थी और ‘बाग’ नानी द्वारा अपनी नातिन के लिए या दादी द्वारा अपने पोते की पत्नी के लिए बनाए जाते थे।
कसूती
कसूती शब्द का प्रयोग कर्नाटक की कशीदाकारी के लिए किया जाता है। कसूती शब्द कशीदा से बना है, जो एक फारसी शब्द है। फुलकारी की तरह, यह भी एक घरेलू शिल्प है और मुख्यतः स्त्रियों द्वारा किया जाता है। यह कशीदाकारी का अत्यंत सूक्ष्म रूप है, जिसमें कशीदे के धागे कपड़े की बुनाई के पैटर्न को अपनाते हैं। ये रेशमी कपड़े पर रेशमी धागे की बारीक लड़ियों से की जाती है। यहाँ तक कि पृष्ठभूमि के कपड़े के साथ प्रयुक्त रंग भी मिल जाते हैं। प्रतीत होता है कि मुख्य डिज़ाइन उस क्षेत्र के मंदिरों के वास्तुशिल्प से प्रेरित हैं।
कान्था
बंगाल का कान्था पुरानी सूती साड़ियों या धोतियों की 3-4 परतों पर तैयार किया जाता है। यह कशीदा रज़ाई की तरह है - छोटे सीधे टांके आधार कपड़े की सभी परतों के बीच में से जाते हैं। इस प्रकार बनने वाले वस्त्र को भी कान्था कहते हैं। इस कशीदे का मूल घिसे हुए क्षेत्र को मजबूत करने के लिए रफू में हो सकता है, किंतु अब टाँकों से उस पर बनी आकृतियों को भरा जाता है। सामान्यतः इसका आधार सफेद होता है और बहु-रंगी धागों से कशीदा काढ़ा जाता है, जो पहले पुरानी साड़ियों की किनारियों से खींचे गए थे। बनाई गई वस्तुएँ छोटे कंघी-दान और थैले से लेकर विभिन्न आकारों की शालों तक हो सकते हैं। कान्था भी आनुष्ठानिक महत्त्व वाले होते हैं, जो धार्मिक स्थानों पर भेंट करने के लिए या विशेष अवसरों पर उपयोग के लिए बनाए जाते हैं।
बंधन और रंजन कपड़े
फुलकारी कढ़ाई ( कशीदाकारी)
कशीदा
कशीदा एक सामान्य शब्द है, जिसका प्रयोग कश्मीर में कशीदाकारी के लिए किया जाता है। दो सबसे महत्वपूर्ण कशीदे सुजनी और जलकदोज़ी हैं। कश्मीर ऊन की भूमि है, अतः कशीदा ऊनी कपड़ों पर किया जाता है - अत्यंत महीन शालों से लेकर मध्यम मोटाई के लबादों (जैसे किरन) और मोटे नमदों पर, तक जिनका प्रयोग फ़र्श पर बिछाने के लिए किया जाता है।
शालों और महीन ऊनी कपड़ों पर कशीदाकारी को आरंभ का मूल शायद उन दोषों की मरम्मत से हुआ है जो बुनाई के दौरान बन जाते थे। बाद में, बुनाई के बहुरंगी पैटरों की नकल की गई, जिसमें चीनी कशीदाकारी को शैलियाँ भी मिला ली गईं, यथा साटिन स्टिच और लंबा तथा छोटा स्टिच। सुजनी कशीदे में सभी स्टिच शामिल हैं, जो सतह पर सपाट होते हैं, और कपड़े के दोनों ओर समरूपता दिखाते हैं। यह कशीदा रेशम के धागों से विविध रंगों और शेडों में किया जाता है, ताकि डिज़ाइन प्राकृतिक दिखाई दे।
बुनाई के लिए प्रयुक्त ट्विल टेपस्ट्री तकनीक में अक्सर छोटे-मोटे सुधारों तथा परिवर्तनों की ज़रूरत पड़ती है। इसे बुनाई के पैटर्न को दोहरा कर कशीदे की तरह किया जाता था, इसलिए इसे रफ़ू कहते थे। कश्मीर में कशीदाकारों को अब भी रफ़ूगर कहा जाता है।
जलकदोज़ी चेन स्टिच को कशीदाकारी है जो आरी द्वारा किया जाता है - आरी एक ऐसा हुक है जो मोचियों द्वारा प्रयोग किया जाता है। शुरू में यह मुख्यतः नमदों पर किया जाता था, परंतु अब शाल सहित हर तरह के कपड़े पर किया जाने लगा है। अब तक चर्चा किए गए कशीदों से भिन्न, कश्मीर का कशीदा एक वाणिज्यिक गतिविधि है, जो पुरुषों द्वारा की जाती है और इस कारण क्रेताओं की माँग को पूरा करती है।
चिकनकारी
उत्तर प्रदेश की चिकनकारी वह कशीदा है, जिसका वाणिज्यीकरण बहुत आरंभिक अवस्था में हो गया था। यह काम मुख्यतः महिलाओं द्वारा किया जाता है, परंतु मास्टर शिल्पकार और व्यापार के आयोजक अधिकतम पुरुष होते हैं। लखनऊ को इसका मुख्य केंद्र माना जाता है। शुरू में यह सफ़ेद कपड़े पर सफ़ेद धागे से किया जाता था। इसमें पैदा होने वाले मुख्य प्रभाव हैं - कपड़े की उल्टी ओर से किए गए कशीदे का कार्य, कशीदे के द्वारा कपड़े के धागों को कस कर जाल की तरह बनाई गई जमीन, और चावल या बाजरे के दानों से मिलते-जुलते गाँठ वाले स्टिच द्वारा कपड़े की सीधे ओर उभरे हुए पैटर्न। पिछले कुछ वर्षों से डिज़ाइनों में ज़री के धागों, छोटे मनकों और चमकीले सितारों का भी समावेश किया जाने लगा है। क्योंकि यह एक वाणिज्यिक गतिविधि है, अतः फ़ैशन के साथ डिज़ाइनों तथा शैलियों में परिवर्तन होता रहता है।
गुजरात के कशीदे की बहुत समृद्ध परंपरा है
यह मूलतः खानाबदोश जनजातियों का प्रदेश रहा है, जो विभिन्न संस्कृतियों के डिज़ाइनों तथा तकनीकों के सम्मिश्रण के लिए प्रख्यात है। यहाँ कशीदे का प्रयोग जीवन के सभी पहलुओं के लिए किया जाता है; तोरण या पच्चीपट्टीयों के साथ द्वारों की सजावट और चकलों या चंदोवों के साथ दीवारों की तथा गणेश स्थापना (खानाबदोश जीवन शैली में ये सभी महत्वपूर्ण हैं), विभिन्न जनजातियों की विशिष्ट शैलियों में पुरुषों, महिलाओं तथा बच्चों की पोशाक, पशुओं, घोड़ों, हाथियों के लिए आवरण भी बनाए जाते हैं। अनेक कशीदों को जनजातियों के नाम से जाना जाता है महाजन, राबरी, मोचीभारत, कन्बीभारत, और सिंधी। प्रयोग किए जाने वाले अधिकांश रंग चटकीले और शोख होते हैं।
गुजरात में ऐप्लीक काम की अपनी ही शैली है। यह एक पैच वर्क है, जिसमें विभिन्न डिज़ाइनों वाले कपड़ों के टुकड़े अलग-अलग आकारों तथा आकृतियों में काटे जाते हैं और प्लेन पृष्ठभूमि पर सिल दिए जाते हैं। इसका प्रयोग अधिकतर घरेलू वस्तुओं के लिए किया जाता है।
सौराष्ट्र और कच्छ का मनके का काम भी एक महत्वपूर्ण कला है। यह कशीदा नहीं है, बल्कि बर्तनों, लटकनों, बटुओं आदि के लिए आवरण बनाने हेतु धागों के एक जाल के द्वारा भिन्न-भिन्न रंगों के मनकों का अंतर्ग्रथन है।
गुजरात तथा राजस्थान की सीमा में निकटता है। राजस्थान में भी जनजातीय आबादी है। अतः उनका कशीदा समान शैली का है। प्रयुक्त रंगों तथा मोटिफों में भिन्नता जनजातियों के बीच के फर्क और उन अवसरों के अनुसार होता है, जिनके लिए उन्हें बनाया गया है।
‘चंबा रुमाल’
हिमाचल प्रदेश में चंबा के पूर्व पहाड़ी राज्य के ‘चंबा रुमाल’ मुख्यतः उपहारों की ट्रे को ढकने के लिए बनाए जाते थे, जब वे प्रतिष्ठित व्यक्तियों या विशेष अतिथियों को प्रस्तुत किए जाते थे। उन पर पहाड़ी चित्रकारी जैसे पौराणिक दृश्य होते थे; बहिर्रेखा में रनिंग स्टिच का प्रयोग किया जाता था और भराई में डार्न स्टिच का। उत्तम रूप से, कपड़े के दोनों ओर वही दृश्य दिखाई देते थे।
7 ग.6 निष्कर्ष
भारत में सुंदर-सुंदर वस्त्र मिलते हैं, जिन्हें उनके सौंदर्य तथा दस्तकारी के लिए विश्व भर में मान्यता मिली है। बार-बार और लगातार हमलों, प्रवसन, राजनीतिक उथल-पुथल और अन्य उतार-चढ़ाव के फलस्वरूप संश्लेषण हुआ, जिसने भारत के वस्त्र शिल्प को समृद्ध किया। भारत में प्रचालित कला के समसामयिक रूप की समृद्धि और विविधता का श्रेय बहुत हद तक इसकी मिट्टी पर असंख्य सांस्कृतिक वंशों के सह-अस्तित्व को जाता है।
भारत में विशिष्ट भौगोलिक प्रदेशों की, कपड़ा उत्पादन के साथ जुड़ी हुई युगों पुरानी परंपराएँ हैं। यह विभिन्न रेशा-वर्गों के रूप में है - सूत, रेशम, ऊन और विभिन्न निर्माण प्रक्रियाओं के रूप में - कताई, बुनाई, रंगाई तथा छपाई और पृष्ठ अलंकरण प्रमुख हैं। बदलते हुए समय के साथ, उत्पादन केंद्रों ने रंग, डिज़ाइन तथा अलंकरण और विशिष्ट उत्पादों के लिए उनके उपयोग की दृष्टि से स्वयं अपने सिद्धांत बना लिए हैं। ऐसे अनेक केंद्र सामाजिक और आर्थिक जीवन में महत्वपूर्ण बने हुए हैं, न केवल धार्मिक एवं सामाजिक रीति-रिवाजों से संबंधित वस्तुओं के उत्पादन के लिए, बल्कि ऐसा वक्तव्य देने के उनके प्रयास के लिए भी जो समसामयिक प्रयोग में सही बैठता है। इस प्रकार वे उत्पाद विविधीकरण और पारंपरिक वस्त्रों के वैकल्पिक प्रयोग की ओर जाने का एक प्रयास कर रहे हैं। धीरे-धीरे ज़ोर भी ग्राहक-आधारित उत्पादों से हटकर थोक उत्पादन की ओर जा रहा है।
भारतीय वस्त्रों की लगभग सभी परंपराएँ बनी हुई हैं। नए डिज़ाइनों के विकास ने युगों पुरानी परंपराओं को केवल समृद्ध किया है। असंख्य सरकारी तथा गैर-सरकारी संगठन और अनेक शैक्षिक संस्थाएँ मिल कर वस्त्र परंपराओं को संरक्षित तथा पुनरुज्जीवित कर रही हैं और समसामयिक बना रही हैं।
मुख्य शब्द
ब्रोकेड, मलमल, जामदानी, किनख्वाब, शाल, टेपस्ट्री, टाई एंड डाई, इकत, पटोला, कशीदाकारी, फुलकारी, कशीदा, चिकनकारी।
समीक्षात्मक प्रश्न
1. भारतीय वस्त्र कला की प्राचीनता के बारे में जानकारी किन ऐतिहासिक स्रोतों से मिल सकती है?
2. सूत उत्पादन के वे दो पहलू कौन-से हैं जिन्होंने भारतीय कपड़ों को विश्वविख्यात बना दिया?
3. रेशम ब्रोकेड बुनाई से संबंधित कुछ क्षेत्रों के नाम बताइए। प्रत्येक के विशेष लक्षण क्या हैं?
4. भारतीयों को ‘संसार का सर्वोत्तम रंगरेज़’ क्यों कहा जाता था?
5. निम्नलिखित शब्दों के साथ आप किसको जोड़ते हैं - फुलकारी, कसूती, कशीदा, कान्था और चिकनकारी।