अध्याय 02 स्वयं को समझना
2 क.1 परिचय
हमारे माता-पिता, भाई-बहन, अन्य संबंधियों, मित्रों तथा हमारे बीच अनेक बातें सामान्य हैं परंतु फिर भी हम में से प्रत्येक अलग व्यक्ति है, जो अन्य सभी से भिन्न है। इस अनोखेपन की यह अनुभूति हमें अपने होने का एहसास कराती है- ‘मै’ होने की अनुभूति, जो ‘आप’ ‘वे’ और ‘अन्य’ से अलग है। हम ‘स्वय’ की इस अनुभूति का विकास कैसे करते हैं? हम अपने बारे में क्या सोचते हैं और हम अपना वर्णन किस प्रकार करते हैं- क्या यह समय के साथ बदल जाता है? ‘स्वयं’ के कौन से तत्त्व हैं? हमें ‘स्वय’ के बारे में अध्ययन क्यों करना चाहिए? क्या हमारा ‘स्वय’ हमारे, लोगों से मेलजोल के ढंग को प्रभावित करता है? इस इकाई में हम इन्हीं तथ्यों और ‘स्वय’ के अन्य रोचक पक्षों का अध्ययन करेंगे।
स्वयं की संकल्पना से जुड़ी हुई दो अन्य संकल्पनाएँ हैं- पहचान और व्यक्तित्व। यद्यपि मनोवैज्ञानिक परिभाषाओं में इन तीन संकल्पनाओं में अंतर करते हैं फिर भी ये संकल्पनाएँ आपस में काफी मिलती-जुलती हैं। आमतौर पर सामान्य उपयोग में हम इन शब्दों का आपस में बदलाव भी कर देते हैं।
2 क.2 स्वयं क्या है?
वेबस्टर के तीसरे नए अंतराष्ट्रीय शब्दकोश में 500 प्रविष्टियाँ हैं जो “स्वयं” से शुरू होती हैं। ‘स्वय’ की अनुभूति का अर्थ है - यह अनुभव करना कि हम कौन हैं और कौन-सी बातें हमें अन्य लोगों से भिन्न बनाती हैं। किशोरावस्था - जीवन की वह अवधि जिससे आप इस समय गुज़र रहे हैं - के दौरान हम अपने बारे में सबसे अधिक सोचना शुरू कर देते हैं कि हम कौन हैं, " “मुझे” ‘अन्य’ से भिन्न कौन-सी बातें बनाती हैं। इस अवस्था में किसी अन्य अवस्था की तुलना में हम ‘स्वय’ को परिभाषित करने की अधिक कोशिश करते हैं। आप में से कुछ लोगों ने यह प्रश्न बहुत बार सोचा होगा, जबकि आप में से कुछ इस बात से अवगत नहीं होंगे कि वे इन पक्षों के बारे में सोचते रहे हैं।
क्रियाकलाप 1
मैं से शुरू होने वाले इन वाक्यों को पूरा करिए-
1. मैं……………………………………………………………………………………………………………..हूँ।
2. मैं……………………………………………………………………………………………………………..हूँ।
3. मैं……………………………………………………………………………………………………………..हूँ।
4. मैं……………………………………………………………………………………………………………..हूँ।
5. मैं……………………………………………………………………………………………………………..हूँ।
6. मैं……………………………………………………………………………………………………………..हूँ।
7. मैं……………………………………………………………………………………………………………..हूँ।
8. मैं……………………………………………………………………………………………………………..हूँ।
9. मैं……………………………………………………………………………………………………………..हूँ।
10. मैं……………………………………………………………………………………………………………..हूँ।
आपने अपने बारे में जो वक्तव्य लिखे, उनकी दोबारा जाँच करें - इनमें से कुछ आपके अपने भौतिक पक्षों को दर्शाते हैं, आपने अपने शरीर के बारे में वर्णन किया है; कुछ वक्तव्यों में आपने अपनी अनुभूतियों और भावनाओं को दर्शाया है; कुछ में आपने अपनी मानसिक क्षमताओं के संदर्भ में बताया है; कुछ वक्तव्यों में आपने अन्य व्यक्तियों के साथ अपने संबंध बताए हैं जो आपके द्वारा निभाई गई भूमिकाओं और प्रतिदिन के संबंधों के संदर्भ में हैं, जैसे - बेटा/बेटी, भाई/ बहन, छात्र/छात्रा आदि। अर्थात् आपने अपने परिवार और समुदाय में सामाजिक संदर्भों के संबंध में स्वयं को परिभाषित किया है। आप में से कुछ ने स्वयं को अपनी संभाव्यताओं या क्षमताओं के संदर्भ में तथा कुछ ने अपनी मान्यताओं के संदर्भ में दर्शाया है। कुछ बातों में आपने स्वयं को एक कर्ता के रूप में वर्णित किया है जो आप एक व्यक्ति के रूप में निष्पादित करते हैं, कुछ में एक अभिकारक के रूप में, जबकि अन्य में आपने ‘स्वय’ को एक विचारक के रूप में वर्णित किया है। इस प्रकार आप देख सकते हैं कि ‘स्वय’ के अनेक आयाम हैं। मुख्य रूप से हम यह कह सकते हैं कि व्यक्तिगत तथा सामाजिक रूप में यह ‘स्वयं के विभिन्न आयाम हैं। व्यक्तिगत ‘स्वय’ के वे पक्ष हैं जिनसे केवल आप जुड़े हैं जबकि सामाजिक ‘स्वय’ का अर्थ उन पक्षों से है जहाँ आप अन्य व्यक्तियों के साथ जुड़े हुए हैं। इनमें आपस में बाँटना, सहयोग, समर्थन, और एकता आदि शामिल हैं।
हम कह सकते हैं कि ‘स्वयं’ शब्द का अर्थ उनके अनुभवों, विचारों, सोच तथा अनुभूतियों का संपूर्ण रूप है जो स्वयं के विषय में है। यह एक विशिष्ट ढंग है, जिससे हम ‘स्वय’ को परिभाषित करते हैं। यह विचार कि हम ‘स्वयं’ हम हैं, यह ‘स्वय’ की धारणा की ही अभिव्यक्ति है।
आपने ‘स्वय’ संकल्पना और स्वाभिमान शब्दों को अपने तथा अन्य व्यक्तियों के संदर्भ में अवश्य सुना और उपयोग किया होगा। जब आप उनका उपयोग करते हैं तब आपका क्या आशय होता है? नीचे दिए गए खंड में अपने विचार लिखें तथा खंड के नीचे दी गई परिभाषा को पढ़ने के बाद इन पर चर्चा भी करें।
आपके विचारों के लिए…
स्व-संकल्पना तथा स्वाभिमान पहचान के तत्त्व हैं। स्व-संकल्पना एक व्यक्ति का विवरण है। यह “मैं कौन हूँ”?, प्रश्न का उत्तर देता है। हमारी इस बात की संकल्पना में हमारी विशेषताएँ, अनुभूतियाँ और विचार और हम क्या करने में सक्षम हैं, शामिल होते हैं।
स्व-संकल्पना का एक महत्वपूर्ण पक्ष स्वाभिमान है। उन मानकों, जिन्हें हमने स्वयं अपने लिए तय किया है के अनुसार हम स्वयं के बारे में क्या सोचते हैं, हमारा ‘स्वाभिमान’ कहलाता है। काफ़ी सीमा तक यह समाज से प्रभावित होता है। यह एक व्यक्ति का स्व-मूल्यांकन है।
2क.3 पहचान क्या होती है?
इस पृष्ठ पर दिए गए क्रियाकलाप के संदर्भ में, आप किस निष्कर्ष पर पहुँचे - “हाँ” आप वही व्यक्ति हैं या “नहीं” आप वही व्यक्ति नहीं है अथवा आप हाँ और नहीं दोनों उत्तर देते हैं! यह संभव है कि आपके उत्तर हाँ और नहों दोनों में हों। पिछले कुछ वर्षों से आपके शरीर में कई बदलाव हुए हैं। पहले के मुकाबले आज आप अधिक लोगों को जानते हैं तथा उनके साथ आपके संबंध हैं। अब आपकी बात को समझने तथा उस पर प्रतिक्रिया देने का तरीका संभवतया बदल गया है, आपने अपनी कुछ मान्यताओं और मूल्यों को भी बदल दिया है और शायद आपकी पसंद और नापसंद भी बदल गई है, तो आप वास्तव में वही व्यक्ति नहीं हैं, जो एक वर्ष पहले थे। फिर भी आप जितना भी पीछे को याद करें आपके अंदर वह व्यक्ति होने की एक त्रुटिहीन अनुभूति निहित है, हममें से अधिकांश व्यक्ति अपने पूरे जीवन में निरंतरता और एकरूपता का भाव बनाए रख सकते हैं चाहे उनके जीवन में दशकों से कितने भी बदलाव और निरंतरता में विघ्न आए हों। दूसरे शब्दों में हमारे अंदर पहचान की एक अनुभूति होती है, एक ऐसी अनुभूति जिसे हम पूरे जीवन साथ लेकर चलते हैं। ठीक वैसे ही जैसे स्वयं के मामले में हम व्यक्तिगत पहचान और सामाजिक पहचान के बारे में बात कर सकते हैं। व्यक्तिगत पहचान एक व्यक्ति की उन विशेषताओं को संदर्भित करती है जो उसे अन्य से भित्न बनाती है। सामाजिक पहचान का अर्थ एक व्यक्ति के वे पक्ष हैं जो उसे समूह से जोड़ते हैं जैसे व्यावसायिक, सामाजिक या सांस्कृतिक। इस प्रकार जब आप स्वयं को एक भारतीय के रूप में सोचते हैं तो आपने स्वयं को एक देश में रहने वाले लोगों के समूह के साथ जोड़ा है। जब आप अपने आप को एक गुजराती या मिज़ो के रूप में बताते हैं, तब आप कहते हैं कि आप उस राज्य में रहने वाले लोगों की कुछ विशेषताएँ रखते हैं और यह विशेषताएँ आपको भारत के अन्य राज्यों में रहने वाले लोगों से भिन्न बनाती हैं। इस प्रकार एक गुजराती होना आपकी सामाजिक पहचान का एक आयाम है ठीक उसी तरह जैसे एक हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई या एक शिक्षक, किसान या वकील होना।
क्रियाकलाप 2
क्या आप वही व्यक्ति हैं जो 5 साल पहले थे? इस विषय पर कुछ देर सोचें तथा नीचे दिए गए स्थान में अपने विचार तथा उन विचारों के कारण लिखें।
अतः ‘स्वयं’ प्रकृति में बहुआयामी होता है। व्यक्ति के शिशु से किशोरावस्था में विकसित होने के दौरान इस ‘स्वय’ में भी बदलाव आते हैं। अगले अध्याय में शैशवावस्था, बाल्यावस्था और किशोरावस्था की विशेषताएँ बताई गई हैं।
मुख्य शब्द
स्वयं, स्व-संकल्पना, स्वाभिमान, पहचान
समीक्षात्मक प्रश्न
1. “स्वयं” शब्द से आप क्या समझते हैं? समझाएँ। उदाहरण देकर इसके विभिन्न आयामों पर चर्चा करें।
2. ‘स्वयं’ को समझना महत्वपूर्ण क्यों है?
ख. स्वयं का विकास एवं विशेषताएँ
‘स्वय’ का अर्थ यह नहीं है, जो जन्म से व्यक्ति में विद्यमान होता है अपितु जैसे-जैसे व्यक्ति बड़ा होता है, उसके ‘स्वय’ का भी निर्माण तथा विकास होता जाता है। इस खंड में हम शैशवकाल, प्रारंभिक बाल्यावस्था, मध्यम बाल्यावस्था और किशोरावस्था में ‘स्वय’ के विकास और विशेषताओं के बारे में पढ़ेंगे।
2 ख.1 शैशवकाल के दौरान स्वयं
जन्म के समय हमें अपने विशिष्ट अस्तित्व की जानकारी नहीं होती। क्या आपको यह आश्चर्यजनक नहीं लगता? इसका अर्थ है कि शिशु यह महसूस नहीं कर पाता कि वह बाहर के संसार से अलग और भिन्न है - उसे अपने बारे में कोई जानकारी अथवा समझ और पहचान नहीं होती। इन सभी शब्दों से हमारा तात्पर्य ‘स्वयं’ के मानसिक निरूपण (मानसिक चित्र) से है। शिशु अपना हाथ अपने चेहरे के सामने लाता है लेकिन उसे यह पता नहीं होता कि वह उसका हाथ है और वह उन अन्य सभी लोगों और वस्तुओं जिन्हें वह अपने चारों ओर देखता है, से अलग है। ‘स्वय’ की भावना शैशवकाल के दौरान क्रमिक रूप से उत्पत्न होती है और लगभग 18 महीने की आयु तक स्वयं की छवि की पहचान होने लगती है। 14-24 महीने के आयु-वर्ग के शिशुओं पर एक रुचिकर प्रयोग किया गया जो नीचे दिया गया है। आप भी इसे कर के देख सकते हैं।
क्रियाकलाप 1
शिशु के गाल पर लाल लिपस्टिकरंग का बिंदु लगाएँ और फिर उसे शीशे के सामने लाएँ। यदि शिशु को स्वयं के बारे में जानकारी है तो वह स्वयं के गाल पर शीशे में लाल धब्बा देखकर गाल को छुएगा। यदि उसे स्वयं के बारे में जानकारी नहीं है तो वह शीशे में अपने प्रतिबिंब को छुएगा अथवा प्रतिबिंब के साथ खेलेगा जैसे कि वह कोई अन्य शिशु हो।
दूसरे वर्ष की दूसरी छःमाही में, शिशु व्यक्तिगत सर्वनामों-‘मैं’, ‘मुझे’ और ‘मेरा’ का उपयोग करने लगता है। वह किसी व्यक्ति अथवा वस्तु पर अधिकार जताने जैसे “मेरा खिलौना” अथवा “मेरी माँ” अपने बारे में अथवा जो कार्य वह कर रहा है उसे बताने अथवा अपने अनुभवों को बताने जैसे “मैं खाना खा रहा हूँ”, के लिए इनका उपयोग करते हैं। इस समय तक शिशु स्वयं को तस्वीर में भी पहचानना शुरू कर देता है।
2 ख. 2 प्रारंभिक बाल्यावस्था के दौरान स्वयं
चूँकि 3 वर्ष का होने तक बच्चे प्राय: धाराप्रवाह बोलने लगते हैं, हमें बच्चे के ‘स्वय’’ की समझ के बारे में जानने के लिए केवल ‘स्वय’ की पहचान पर आश्रित होने की आवश्यकता नहीं है। हम उन्हें ‘स्वय’ के बारे में बातचीत में शामिल कर शाब्दिक साधनों का उपयोग कर सकते हैं। शोधकर्ताओं ने पाया है कि बच्चों के ‘स्वय’ की समझ की निम्नलिखित पाँच मुख्य विशेषताएँ हैं-
1. वे ‘स्वय’ को अन्य लोगों से अलग बताने के लिए ‘स्वयं’ का अथवा अपनी वस्तुओं के बाह्य विवरण का उपयोग करते हैं - वे विवरणात्मक शब्दों जैसे “लंबा” अथवा “बड़ा” का उपयोग कर सकते हैं अथवा जो कपड़े वे पहनते हैं और जो खिलौने अथवा वस्तुएँ उनके पास हैं उनको संदर्भित कर सकते हैं। उनका ‘स्वयं’ संबंधी विवरण संपूर्ण अर्थों में होता है - इसका अर्थ है कि वे ‘स्वय’ की तुलना अन्य से नहीं करते। उदाहरण के लिए यह कहने के बजाय कि “मैं किरण से लंबा हूँ।” बच्चा कहेगा कि “मैं लंबा हूँ।”
2. वे जो कार्य कर सकते हैं उसके अनुसार ‘स्वयं’ का विवरण देते हैं। उदाहरण के लिए खेल संबंधी कार्यकलापों के बारे में वह कहेगा कि- “मैं साइकिल चला सकता हूँ”, “मैं घर बना सकता हूँ”, “मैं गिनती कर सकता हूँ” आदि। अर्थात् उनकी ‘स्वयं’ की समझ के अंतर्गत ‘स्वयं’ का विवरण सक्रियता से शामिल होता है।
3. उनका स्वयं विवरण निश्चित होता है- अर्थात् वे ‘स्वय’ को उन वस्तुओं के अनुसार परिभाषित करते हैं जो वे कर सकते हैं अथवा जो उन्हें दिखाई पड़ता है। जैसे; “मेरे पास टेलीविज़न है।”
4. वे अकसर स्वयं का आकलन वास्तविकता से अधिक करते हैं। जैसे; एक बच्चा कह सकता है- “मुझे कभी डर नहीं लगता” अथवा “मुझे सभी कविताएँ आती हैं”, लेकिन हो सकता है कि उसे पूरी तरह से याद न हो।
5. छोटे बच्चे यह पहचानने में भी असक्षम होते हैं कि उनमें भिन्न-भिन्न गुण हो सकते हैं - वे अलग-अलग समय में “अच्छे” व “बुरे”, ‘मतलबी’ व ‘आकर्षक’ हो सकते हैं।
नीचे एक वयस्क और 3 वर्ष 8 माह की बालिका राधा के बीच हुई संक्षिप्त वार्ता दी गई है जिससे पता चलता है कि बच्चा स्वयं के बारे में क्या समझता है। यह वार्ता पूछे गए प्रश्नों और बच्चे द्वारा दिए गए उत्तरों के रूप में प्रस्तुत की गई है-
वयस्क $\quad$ अपने बारे में कुछ बताओ।
Adult $\quad$ Tell me something about yourself.
राधा $\quad$ मैं खाना खाती हूँ, मैं गाजर भी खाती हूँ, रोटी भी खाती हूँ। मैं बैट-बॉल खेलती हूँ। तीन दिन बाद मेरा जन्मदिन होगा क्योंकि जनवरी में मेरा जन्मदिन है। मैं लाइन में खड़ी होती हूँ। मैं मम्मी के साथ पढ़ती हूँ।
Radha $\quad$ I eat food, I eat carrots as well, I eat chappati also. I play with bat and ball. After three days is my birthday because my birthday is in January; I stand in a line; I study with my mother.
वयस्क $\quad$ अगर कोई तुमसे पूछे कि राधा कैसी बच्ची है, तो तुम क्या कहोगी?
Adult $\quad$ If someone asks you ‘What is Radha like’, what would you say?
राधा $\quad$ मैं अच्छी हूँ क्योंकि मैं लिखती भी हूँ। (वयस्क ने और बताने को कहा पर बच्ची ने कुछ नहीं कहा।)
Radha $\quad$ I am good because I write as well. (The adult asked her to explain more but she did not respond.)
वयस्क $\quad$ तुम्हारे मम्मी-पापा को तुम्हारे बारे में क्या अच्छा लगता है?
Adult $\quad$ What do your mummy-papa like about you?
राधा $\quad$ मैं अच्छी-अच्छी बातें करती हूँ और अच्छी-अच्छी कहानी सुनाती हूँ।
Radha $\quad$ I talk about nice things - I tell good stories.
वयस्क $\quad$ तुम्हें अपने बारे में क्या अच्छा लगता है ?
Adult $\quad$ What do you like about yourself?
राधा $\quad$ मुझे मेरे गुलाबी जूते अच्छे लगते हैं, बेबी अच्छा लगता है, अपनी सहेलियाँ अच्छी लगती हैं…
Radha $\quad$ I like my pink shoes, I like baby, I like my friends…?
वयस्क $\quad$ और बताओ…?
Adult $\quad$ Tell me more…?
राधा $\quad$ मुझे समझ नहीं आ रहा… मुझे अपने बारे में कुछ नहीं पता…।
Radha $\quad$ I don’t understand… I don’t know anything about myself…
2 ख.3 मध्य बाल्यावस्था के दौरान स्वत्व
इस अवधि में बच्चे का स्वयं-मूल्यांकन अधिक जटिल हो जाता है। इस बढ़ती हुई जटिलता की विशेषता बताने वाले पाँच महत्वपूर्ण परिवर्तन हैं-
1. अब बच्चा अपनी आंतरिक विशेषताओं के संदर्भ में अपना विवरण देता है। अधिक संभव है कि बच्चा अपनी स्व-परिभाषा में अपनी मनोवैज्ञानिक विशेषताओं (जैसे प्राथमिकताएँ अथवा व्यक्तित्व संबंधी गुण) के बारे में अधिक बताए जैसे, नाम तथा शारीरिक विशेषताओं के बारे में न बताए। अतः बच्चा कह सकता है, “मैं मित्र बनाने में अच्छा हूँ”, “मैं मेहनत करके अपना कार्य समय पर समाप्त कर सकता हूँ”।
2. बच्चे के विवरण में सामाजिक विवरण और पहचान शामिल होती है - वे जिस वर्ग से संबंध रखते हैं उसके संदर्भ में स्वयं को परिभाषित कर सकते हैं जैसे “मैं स्कूल के संगीत समूह में हूँ”।
3. बच्चे सामाजिक तुलना करने लगते हैं वे स्वयं को वास्तविक रूप की बजाय अन्य लोगों से तुलनात्मक रूप से भिन्न बताते हैं। अतः वे यह सोचना आरंभ कर देते हैं कि वे अन्य की तुलना में क्या कर सकते हैं जैसे “मैं किरण से तेज़ दौड़ सकती हूँ”।।
4. वे वास्तविक स्वयं और आदर्श स्वयं में अंतर करने लगते हैं। अतः वे अपनी वास्तविक क्षमताओं, जो उनके पास हैं, और जो उनके पास होनी चाहिए अथवा जो वे समझते हैं कि अधिक महत्वपूर्ण हैं, में अंतर कर सकते हैं।
5. पूर्व विद्यालयी बच्चे की तुलना में इस उम्र के बच्चे का स्वयं का विवरण अधिक वास्तविक हो जाता है। वस्तुओं और स्थितियों को अन्य लोगों के नज़रिए से देखने की क्षमता के विकसित हो जाने के कारण ऐसा हो सकता है।
2.4 किशोरावस्था के दौरान ‘स्वयं’
किशोरावस्था में स्वयं की समझ अत्यधिक जटिल हो जाती है। ‘स्वय’ की पहचान के विकास हेतु किशोरावस्था को एक नाजुुक समय के रूप में देखा जाता है। इस अधिक जटिल ‘स्वय’ की समझ की क्या विशेषताएँ हैं? आइए हम आरंभ में दो पहलुओं पर चर्चा करते हैं और तत्पश्चात् हम किशोरावस्था के स्वयं पर चर्चा करेंगे।
क्रियाकलाप 2
5 वर्ष, 9 वर्ष और 13 वर्ष के बच्चों के साथ मित्रता करें। उन्हें स्वयं के बारे में बताने को कहें और उनके विवरणों को नोट करें। क्या आप यह पाते हैं कि जो उन्होंने स्वयं के बारे में बताया है तथा जो आपने इस खंड में पढ़ा है, परस्पर मेल खाते हैं?
पहचान के विकास हेतु किशोरावस्था महत्वपूर्ण क्यों है?
एक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एरिक एच. एरिक्सन के अनुसार शैशवावस्था से वृद्धावस्था तक, हमारे विकास के प्रत्येक स्तर पर हमें कुछ सफलता पानी होती है जिनसे हम विकास के अगले चरण पर पहुँचते हैं। उदाहरण के लिए पश्च शैशवकाल तथा प्रारंभिक बाल्यावस्था (2-4 वर्ष की आयु के बीच) का कार्य आंतों व मूत्राशय की क्रियाओं पर नियंत्रण पाना है। अन्यथा बच्चे के लिए अधिकांश सामाजिक और सामुदायिक कार्यकलापों में भाग लेना असंभव हो जाएगा। एरिक्सन के अनुसार पहचान की भावना का विकास करना अर्थात् किशोरावस्था के दौरान स्वयं को संतोषजनक रूप में दर्शाना एक मुख्य कार्य है।
किशोरावस्था पहचान के विकास हेतु महत्वपूर्ण अवस्था है क्योंकि इस समय स्वयं के विकास पर ध्यान अधिक केंद्रित रहता है। ऐसा माना गया है कि किशोरावस्था ‘स्वय’ की पहचान बनाने के संदर्भ में कठिन समय होता है। इसके तीन मुख्य कारण हैं-
1. किशोरावस्था से पहले कभी भी व्यक्ति ‘स्वय’’ को जानने में इतना तल्लीन नहीं रहा। अर्थात् अब वह स्वयं को समझने के लिए अत्यधिक चिंतित होता है।
2. किशोरावस्था के अंतिम वर्षों में व्यक्ति ‘स्वय’ और ‘पहचान’ की अपेक्षाकृत स्थाई भावना निर्मित कर लेता है और कह सकता है- “मैं यह हूँ।”
3. यही वह समय भी है जब व्यक्ति की पहचान पर तीव्र शारीरिक परिवर्तनों और बदल रही सामाजिक माँगों का प्रभाव पड़ता है।
आइए इसे और विस्तार से समझते हैं
किशोर से अब अपेक्षा की जाती है कि वह बड़ों की तरह व्यवहार करे तथा परिवार, कार्य अथवा विवाह संबंधित उत्तरदायित्वों को निभाना आरंभ करे। निर्भर बच्चे से आत्मनिर्भर बच्चे में परिवर्तन विभिन्न संस्कृतियों में भिन्न-भिन्न रूप से होता है। सामान्यतः पश्चिमी संस्कृति में माता-पिता से ‘अलग’ होने (शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से) की स्वतंत्रता पर ज़ोर दिया जाता है। दूसरी ओर, गैर-पश्चिमी संस्कृतियों में, जैसे भारतीय संस्कृति में परिवार में अंतर-निर्भरता पर अधिक ध्यान दिया जाता है। तथापि सभी संस्कृतियों में किशोरावस्था दुविधाओं और असहमतियों से भरी होती है। उदाहरण के लिए आमतौर पर देखा जाता है कि किशोर बच्चे की तरह समझे जाने पर विद्रोह कर उठता है लेकिन साथ ही अपने लिए वैसी ही सांत्वना भी पाना चाहता है जैसे कि एक बच्चा चाहता है। माता-पिता भी अकसर किशोर को ‘बड़ों की तरह व्यवहार करने’ के लिए कहते हैं लेकिन उनके अन्य क्रियाकलाप और व्यवहार किशोर को यह दर्शाते हैं कि वे नहीं समझते कि वह काफी बड़ा हो चुका है। यह व्यवहार, संस्कृति विशेष और परिवार की अपेक्षाओं के अनुसार लड़कों और लड़कियों के लिए भिन्न हो सकता है। अतः किशोर स्वयं परस्पर-विरोधी भावनाओं का अनुभव करता है और उसके चारों ओर संपर्क में आने वाले लोग भी उसे परस्पर विरोधी संदेश देते हैं और सामाजिक अपेक्षाएँ रखते हैं। आपने स्वयं भी अपने लिए ऐसा अनुभव किया होगा। उदाहरण के लिए परिवार के सदस्य आपसे चाहते हैं कि सामाजिक परिस्थितियों में जहाँ तक बातचीत करने या सजने-सँवरने का संबंध है, आप बड़ों की तरह व्यवहार करें लेकिन यह भी सोचते हैं कि परिवार के बजट पर चर्चा करने के लिए आप अभी काफी छोटे हैं।
चूँकि प्रत्येक व्यक्ति भिन्न होता है, इसलिए अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग ढंग से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। किशोरावस्था के दौरान पारिवारिक और सामाजिक स्रोतों की परस्पर विरोधी अपेक्षाएँ, व्यक्ति की स्वयं की बदलती हुई आवश्यकताएँ और परस्पर विरोधी संवेग, नए विकसित हो रहे स्वत्व के साथ एकीकरण में बाधा डाल सकते हैं। अतः किशोर अपनी ‘भूमिका संबंधी उलझन’ अथ ‘पहचान संबंधी उलझन’ का अनुभव कर सकता है। उनके व्यवहार में दिए गए कार्य पर ध्यान केंद्रित करने में अक्षम होना, कार्य को समय पर आरंभ करने अथवा समाप्त करने में कठिनाई महसूस करना, समय-सारणी के अनुसार चलने में कठिनाई होना आदि का प्रदर्शन हो सकता हो। इस बात पर बल देना महत्वपूर्ण है कि किशोर का पहचान बनाना विकास की प्रक्रिया का सामान्य हिस्सा है - इस अवधि में किशोर जिन विरोधाभासी भावनाओं और संवेगों को अनुभव करता है, उसमें कुछ गलत नहीं है। पहचान के संकट की भावना अथवा ‘भूमिका संबंधी उलझन’ तब पैदा होती है जब किशोर यह महसूस करता है कि पहले की तुलना में अब जिन कार्यों को करने की और जिस तरह का व्यवहार करने की उससे अपेक्षा की जाती है, उनमें बहुत अंतर है। तथापि कई किशोर विशेषकर जो पारिवारिक व्यवसायों में लगे हैं, उनमें यह अलगाव की भावना उतनी स्पष्ट नहीं होती और इससे अधिक संवेगात्मक उथल-पुथल भी नहीं होती। उदाहरण के लिए यदि गाँव में एक किशोर कृषि कार्य में अपने परिवार का सहयोग कर रहा है तो 12 वर्ष से 16 वर्ष की आयु का होने पर भी उसकी भूमिका में अधिक परिवर्तन नहीं आता, सिवाए इसके कि उसको और अधिक ज़िम्मेदारियाँ सौंप दी जाती हैं।
किशोरावस्था में स्वयं की भावना की निम्न विशेषताएँ हैं-
1. किशोरावस्था के दौरान स्वयं का विवरण संक्षिप्त एवं केवल विचार रूप में ही होता है। अब किशोर “लंबा” अथवा “बड़ा” जैसे बाह्य संदर्भों में स्वयं का विवरण देने पर अधिक बल नहीं देते। वे अपने व्यक्तित्व को संक्षिप्त रूप से बताने या अपने आंतरिक गुणों पर अधिक बल देते हैं। अतः वे स्वयं का विवरण शांत, संवेदनशील, शांत दिमाग, बहादुर, भावुक अथवा सच्चा होने के रूप में दे सकते हैं।
2. किशोरावस्था के दौरान स्वयं में कई विरोधाभास होते हैं। अतः किशोर स्वयं के बारे में इस प्रकार बता सकता है कि, “मैं शांत हूँ लेकिन सरलता से विचलित हो जाता हूँ” अथवा “मैं शांत हूँ और बातूनी भी”।
3. किशोर स्वयं की भावना में काफी उतार-चढ़ाव का अनुभव करता है। चूँकि किशोर भिन्न-भिन्न परिस्थितियों का अनुभव करते हैं और उन पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं, स्वयं के बारे में उनकी समझ स्थिति और समय के अनुसार बदलती रहती है।
4. किशोर के स्वयं में ‘आदर्श स्वय’ और ‘वास्तविक स्वयं’ होता है। अब आदर्श स्वयं अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। हममें से प्रत्येक को यह ज्ञान है कि हम आदर्श रूप में कैसा होना चाहते हैं? इसे ‘आदर्श स्वय’ कहा जा सकता है जो हम विकसित करना चाहते हैं। उदाहरण के लिए एक लड़की जो वास्तव में बहुत छोटी है, लंबा होने की इच्छा रख सकती है।
5. किशोर, बच्चों की अपेक्षा स्वयं के बारे में अधिक सचेत होते हैं और अपने में ही मग्न रहते हैं। इससे उन्हें हमेशा ‘मंच पर रहने’ का आभास होता रहता है - ऐसा आभास कि उन्हें हर वक्त नोटिस किया जा रहा है। यही कारण है कि अधिकांश किशोर अपने बाह्य रूप रंग के प्रति अत्यधिक परेशान रहते हैं।
अब हम जीवन की कुछ अवस्थाओं में स्वयं की विभिन्न विशेषताओं के बारे में जानते हैं। लेकिन हम सबसे पहले ‘स्वय’ की भावना का विकास कैसे करते हैं? किसी व्यक्ति की पहचान के विकास को क्या प्रभावित करता है? अगला अध्याय इसी पहलू पर केंद्रित है।
क्रियाकलाप 3
क्या आपको लगता है कि आप ऊपर दी गई किसी भी भावना अथवा विचार का अनुभव कर रहे हैं? क्या आपको लगता है कि आप इन भावनाओं को नियंत्रित कर सकते हैं अथवा आप इस संबंध में दुविधा में हैं? क्या आपने इन पहलुओं पर अपने मित्रों अथवा परिवार के सदस्यों से चर्चा की है? इस बारे में अपने मित्र से बात करें।
मुख्य शब्द
शैशवकाल, प्रारंभिक बाल्यावस्था, मध्य बाल्यावस्था, किशोरावस्था, पहचान का विकास, वास्तविक बनाम आदर्श स्वत्व।
समीक्षात्मक प्रश्न
1. उदाहरण देते हुए निम्नलिखित अवस्थाओं के दौरान ‘स्वयं’ की विशेषताएँ बताएँ?
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शैशवकाल के दौरान
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प्रारंभिक बाल्यावस्था के दौरान
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मध्य बाल्यावस्था के दौरान
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किशोरावस्था के दौरान
2. “किशोरावस्था ऐसा समय है जब सभी किशोर पहचान के संकट का अनुभव करते हैं”। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने उत्तर के पक्ष में कारण दें।
ग. पहचान पर प्रभाव स्व-बोध का विकास हम कैसे करते हैं?
आपने पढ़ा है कि हम आत्मत्व अथवा पहचान की भावना के साथ पैदा नहीं होते। फिर इसका विकास कैसे होता है? यह कैसे विकसित होती है और समय के साथ कैसे बदलती है? आप अपने अनुभवों से अपने बारे में जो सीखते हैं तथा अन्य लोग आपको आपके बारे में क्या बताते हैं, उसके परिणामस्वरूप ‘स्वय’ का विकास होता है। प्रत्येक व्यक्ति के चारों ओर संबंधों का एक जाल है - यह संबंध परिवार, विद्यालय, कार्यस्थल और समुदाय में होते हैं। आपके आस-पास के लोगों से बातचीत के परिणामस्वरूप और आपके कार्यों के माध्यम से स्व-बोध का विकास होता है। इस प्रकार बहुत से लोग आपके ‘स्वय’ के विकास में सहायक होते हैं और ‘स्वयं’ का निर्माण एक निरंतर गतिशील प्रक्रिया है। ‘निर्माण’ से तात्पर्य है कि ‘स्वयं का बोध जन्म से आप में नहीं होता लेकिन आप इसको सृजित करते हैं और जैसे-जैसे आपका विकास होता है इसका भी विकास होता जाता है।
क्रियाकलाप 1
अपना कोई विशिष्ट अनुभव याद करें। क्या अनुभव ने आपके अपने बारे में सोचने के तरीके को प्रभावित किया? नीचे दिए गए स्थान में अपनी टिप्पणियाँ लिखें।
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आओ अब हम यह देखते हैं कि स्व-बोध का विकास आरंभिक वर्षों से कैसे होता है। प्रारंभिक दिनों में माता-पिता बच्चों को विभिन्न परिस्थितियों में एक विशेष नाम अथवा नामों से बुलाते हैं बच्चा स्वयं से जुड़े नामों के साथ खुद को जोड़ना आरंभ कर देता है। इसके साथ-साथ वे शीशे अथवा तस्वीर में भी बच्चे को देखकर उसे उसी के नाम से बुलाते हैं। वे ‘तुम’ और
‘तुम्हारा’ सर्वनामों का उपयोग करते हैं और जब वे बोलना आरंभ करते हैं तो ‘मैं’ और ‘मेरा’ बोलने लगते हैं। बच्चा अब समझने लगता है कि ‘तुम’ और ‘तुम्हारा’ अन्य व्यक्ति के लिए होता है। माता-पिता बच्चे के शरीर के विभिन्न अंगों के नाम बताते हुए और चिह्नित करते हुए विभिन्न प्रकार के ‘शारीरिक खेल’ खेलते हैं उसके बाद बच्चे से शरीर के अंगों के बारे में बताने के लिए कहते हैं। यह सब बच्चे को धीरे-धीरे स्वयं को अन्य लोगों से भिन्न और अलग समझने में सहायता करता है।
दूसरे, शैशवकाल में जैसे-जैसे बच्चे का विकास होता है वह यह समझने लगता है कि उसके क्रियाकलापों का पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए जब वह खिलौने को छूता है तो वह हिलता है। ऐसे अनुभवों से उसमें अपने चारों ओर के लोगों और वस्तुओं से भिन्न होने की भावना विकसित होती है। यदि आपको पहले की चर्चा याद हो तो, आप समझ जाएँगे कि यही समय (लगभग 18 महीने) है जब बच्चा अपने चेहरे पर लगे लाल धब्बे को पहचानने में सक्षम होता है और शीशे में अपने प्रतिबिंब को कोई अन्य बच्चा नहीं समझता।
तीसरे, जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है और बोलने लगता है, माता-पिता बच्चे को स्वयं के बारे में बताने के लिए प्रोत्साहित करते हैं तथा कारण भी देने को कहते हैं। वे बच्चे से पूछते हैं"तुमने ऐसा क्यों किया?" अथवा “तुम्हें कैसा लग रहा है?” इन प्रश्नों से बच्चे को यह समझने में मदद मिलती है कि उसे कैसा अनुभव हो रहा है अथवा कुछ कार्यों को करने का क्या कारण है? इस तरीके से वे बच्चे को स्वयं को पारिभाषित करने में सहायता करते हैं।
चौथे, बच्चा दिन भर में कई बार अपने आस-पास के लोगों से मिलता है और वस्तुओं को भी देखता है जिससे उसे अपनी क्षमताओं को पहचानने में सहायता मिलती है। लोग बच्चे को उसके व्यवहार और उसकी क्षमताओं के बारे में फीडबैक देते हैं। छह वर्ष का बच्चा जो भोजन करने के पश्चात् खाने के स्थान को साफ करने में मदद करता है, तो पिता यह कहते हैं - “आपने अच्छा काम किया। आप एक अच्छे लड़के/लड़की हो”। यह सब बच्चे के स्वयं के बारे में जो धारणाएँ हैं उनमें जुड़ता चला जाता है। अतः बच्चा अपनी देखभाल करने वालों और अन्य लोगों के साथ मौखिक-सामाजिक वार्ता के माध्यम से आत्मत्व और पहचान की भावना को निर्मित और पुनः निर्मित करता है।
स्व-बोध और पहचान की भावना विकसित करना
हममें से प्रत्येक की पहचान भिन्न होती है क्योंकि-
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हम में से प्रत्येक में (समरूप जुड़वाँ को छोड़कर) जीन का ‘विशिष्ट समुच्चय’ अलग होता है।
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हम में से प्रत्येक के अनुभव भिन्न होते हैं।
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हमारे अनुभव समान भी हों तो हम इन पर भिन्न तरीकों से अनुक्रिया करते हैं।
इस खंड में हम पहचान के निर्माण पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करेंगे। इन्हें निम्नलिखित रूप से वर्गीकृत किया जा सकता है-
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जैविक और शारीरिक परिवर्तन
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पारिवारिक और मित्रवत् संबंधों में सामाजिक, सांस्कृतिक संदर्भ
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भावात्मक परिवर्तन
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संज्ञानात्मक परिवर्तन
2 ग.1 जैविक और शारीरिक परिवर्तन
किशोरावस्था के दौरान शरीर में कुछ सार्वभौमिक शारीरिक और जैविक परिवर्तन होते हैं जो एक विशेष क्रम में होते हैं। इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप यौन परिपक्वता आती है। यौन परिपक्वता की आयु को यौवनारम्भ (Puberty) कहा जाता है। अक्सर मासिक धर्म (पहला) को लड़कियों में यौन परिपक्वता का बिंदु माना जाता है। लड़कों के लिए यौवनारम्भ को चिह्नित करने वाली कोई विशिष्ट प्रक्रिया नहीं है। यद्यपि इसके लिए अक्सर जिस मानदंड का उपयोग किया जाता है वह है शुक्राणु (स्पर्मेटोज़ोआ) का उत्पादन। विभिन्न संस्कृतियों में यौवनारम्भ भिन्न-भिन्न औसत आयु में होता है। लड़कों व लड़कियों की लंबाई में एक वर्ष में होने वाली अधिकतम बढ़ोतरी को यौवनारम्भ का एक उपयोगी मानदंड माना गया है। लड़कियों में बढ़ोत्तरी मासिक धर्म से एकदम पहले अधिक तेज़ी से होती है और लड़कों में कुछ वयस्क विशेषताओं के विकास से पहले ऐसा होता है। वह अवधि जिसमें शारीरिक और जैविक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप यौवनारम्भ होता है उसे यौवनावस्था कहा जाता है। अधिकांश लड़कियों में यह अवधि 11 वर्ष से 13 वर्ष के बीच होती है और लड़कों में 13 वर्ष से 15 वर्ष के बीच। यौवनावस्था के दौरान लड़कियों और लड़कों में होने वाले परिवर्तन जो विकास के सामान्य क्रम को दर्शाते हैं, की सूची निम्नवत् है-
लड़कियाँ स्तनों के आकार में आरंभिक वृद्धि बगलों और जाघों में बालों का आना अधिकतम वृद्धि की आयु मासिक धर्म
लड़के अंडकोष (वृषण) का विकास होना बगलों और जाघों में बालों का आना आवाज़ में आरंभिक परिवर्तन वीर्य (सीमन) का पहली बार स्खलन अधिकतम वृद्धि की आयु आवाज़ में स्पष्ट परिवर्तन दाढ़ी का आना
यौवनारम्भ के आरंभ होने पर शरीर में होने वाले शारीरिक परिवर्तन सार्वभौमिक हैं लेकिन प्रत्येक व्यक्ति पर इन परिवर्तनों का मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभाव भिन्न-भिन्न संस्कृति के अनुसार भिन्न होता है। यही नहीं एक ही संस्कृति के लोगों में भी प्रत्येक व्यक्ति पर प्रभाव भिन्न रूप से पड़ता है। हम इन पहलुओं पर चर्चा अगले दो शीर्षकों, “सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ” तथा “भावनात्मक परिवर्तन”, के अंतर्गत करेंगे।
2 ग.2 सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ
जैसा कि पहले बताया गया है कि शरीर में होने वाले शारीरिक परिवर्तन तथा बदलती सामाजिक अपेक्षाएँ ऐसे दो प्रमुख पहलू हैं जो किशोरावस्था के दौरान पहचान निर्माण की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। लेकिन पहचान निर्माण की प्रक्रिया पर शारीरिक और सामाजिक परिवर्तनों का प्रभाव सांस्कृतिक, सामाजिक तथा पारिवारिक संदर्भों में भिन्न-भिन्न होता है। इस खंड में पहले हम यह देखंगे कि सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भ किशोरावस्था के विकास को कैसे प्रभावित करते हैं और तत्पश्चात् हम परिवार के प्रभाव के बारे में पढ़ेंगे।
किशोरावस्था के दौरान होने वाले शारीरिक परिवर्तनों के प्रति समाज के विभिन्न वर्गों की अलग-अलग अनुक्रिया हो सकती है। एक पारपरिक भारतीय समाज में यौवनारम्भ के साथ ही लड़कियों पर कई प्रतिबंध लग जाते हैं जबकि लड़के पहले की तरह ही स्वतंत्र होते हैं। मनोरंजन अथवा कार्य के कुछ क्षेत्र लड़कियों के लिए उचित नहीं माने जाते। पारंपरिक समुदाय की लड़की के ‘स्वयं’ और ‘पहचान’ के घटक शहरी क्षेत्रों में रहने वाली लड़की से एकदम अलग होंगे।
अब हम अपनी संस्कृति और पश्चिमी संस्कृति की तुलना करते हैं। अधिकांश पश्चिमी संस्कृतियों (जैसे अमेरिका और ब्रिटेन) में किशोरों से पूर्णतः आत्मनिर्भर होने की अपेक्षा की जाती है- कई मामलों में तो उनसे अपेक्षा की जाती है वे परिवार से अलग जाकर अपना घर बसाएँ। भारतीय संदर्भ में, अधिकांश किशोर अपने माता-पिता पर काफी हद तक निर्भर होते हैं जैसा कि उनसे अपेक्षा भी की जाती है और परिवार हमेशा उन पर नियंत्रण बनाए रखते हैं। भारत में जहाँ अधिकांश किशोर विशेषकर ग्रामीण और जनजातीय क्षेत्रों में, परिवार की आय में योगदान करना आरंभ कर देते हैं। इस प्रकार वे वयस्क की भूमिका निभाते हैं, पर फिर भी परिवार से अलग नहीं होते। बल्कि उनके धनार्जन के प्रयास का उद्देश्य अक्सर परिवार के सदस्यों के कल्याण से जुड़ा होता है। इन दोनों सांस्कृतिक परिवेशों में किशोर के ‘स्वय’ का विकास पूर्णतः भिन्न होगा। भारत में भी, विभिन्न समुदायों में किशोरावस्था के अनुभव अधिकांशतः भिन्न होंगे। पारंपरिक समुदायों और क्षेत्रों जहाँ अभी प्रौद्योगिकी का विकास नहीं हुआ है और जहाँ व्यावसायिक अवसर तथा वैकल्पिक जीवन शैली के विकल्प सीमित हैं, वहाँ पर बच्चों को पारंपरिक पारिवारिक व्यवसायों जैसे बुनाई आदि में किशोरावस्था तक प्रशिक्षित कर दिया जाता है। अतः ये किशोर वयस्क भूमिका हेतु तैयार होते हैं - अर्थात् इन किशोरों को वयस्कों के समान ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जाता है जो व्यवसाय आरंभ करने, विवाह करने और बच्चों का उत्तरदायित्व संभालने के लिए तैयार होते हैं। अतः इन समुदायों में किशोर की पहचान पारिवारिक स्रोतों से अधिक प्रभावित होगी। किशोर का बड़ों से मतभेद भी नहीं होता क्योंकि वह मुख्यतः वही कर रहा है जिसकी उससे अपेक्षा है। इसके परिणामस्वरूप ‘स्वय’ की भावना के विकास के दौरान भ्रम और संदेह होने की संभावना कम हो जाती है। दूसरी ओर ऐसे समुदायों और परिवारों में जहाँ पर किशोरों के लिए कई प्रकार के व्यावसायिक विकल्प होते हैं और व्यक्ति के पास प्रौद्योगिकी के कारण कई अनुभव और विकल्प उपलब्ध होते हैं, वहाँ किशोर को चयनित व्यवसाय हेतु स्वयं को तैयार करने के लिए लंबी प्रशिक्षण अवधि की आवश्यकता होती है। इस अवधि में किशोर अपने अभिभावकों पर ही निर्भर रहता है। इस प्रकार जब प्रशिक्षण की अवधि बढ़ जाती है किशोरावस्था का काल बढ़ जाता है और वयस्कता देरी से आती है। इसके साथ ही, विकल्पों में बढ़ोतरी और वैकल्पिक जीवनशैली के प्रभाव के कारण किशोर का अपने अभिभावकों तथा समाज के अन्य प्रमुख व्यक्तियों से विवाद हो सकता है।
पारंपरिक संस्कृति और पश्चिमी संस्कृति में ‘पहचान विकास’ के भिन्न होने की संभावना का एक कारण और भी है। पारंपरिक भारतीय समुदायों में किशोरों में स्वयं को स्वतंत्र तथा आत्मनिर्भर रूप से दर्शाना और अपने बारे में बात करने का विचार एक सामान्य क्रियाकलाप नहीं है। यही नहों इस प्रकार की प्रवृत्ति को अकसर न तो बढ़ावा ही दिया जाता है और न ही सहन किया जाता है। कई भारतीय स्वयं को मुख्यतः अपनी एक या दूसरी भूमिका जैसे- पुत्र/पुत्री, माता/पिता, बहन/भाई के रूप में परिभाषित करते हैं। अन्य शब्दों में, वे अक्सर स्वयं के बारे में अपने परिवार और समुदाय के संदर्भ में जैसे ‘मै’’ की बजाय ‘हम’ के रूप में बात करते हैं।
उदाहरण के लिए एक किशोर लड़की से विवाह के बारे में उसकी राय पूछने पर वह यह कहने कि, “मैं चाहूँगी कि मेरे माता-पिता मेरी शादी तय करे”" की बजाय यह कहेगी कि, “हमारे परिवार में माता-पिता शादी तय करते हैं।” अतः हम यह देख सकते हैं कि स्व-बोध के निर्माण में सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ कितना महत्वपूर्ण है। यद्यपि ये सांस्कृतिक प्रभाव भी प्रत्येक परिवार और प्रत्येक व्यक्ति के साथ भिन्न हो जाते हैं।
संस्कृति और समाज किशोर की पहचान के विकास को कैसे प्रभावित करते हैं, इस पर चर्चा करने के बाद आइए अब हम इस बारे में पढ़ते हैं कि परिवार पहचान-बोध के विकास को कैसे प्रभावित कर सकता है। किशोरों के पहचान निर्माण को उन पारिवारिक संबंधों से प्रोत्साहन मिलता है जहाँ स्वयं की राय बनाने हेतु प्रोत्साहित किया जाता है और जहाँ परिवार के सदस्यों में सुरक्षित संबंध होते हैं इसके कारण किशोर को अपने बढ़ते हुए सामाजिक दायरे को जानने के लिए एक सुरक्षित आधार मिलता है। यह भी पाया गया है कि सुदृढ़ और स्नेहमय पालन-पोषण से पहचान का स्वस्थ विकास होता है। ‘स्नेहमय’ पालन-पोषण का अर्थ है कि अभिभावक उत्साही, स्नेही और बच्चे के प्रयासों और उपलब्धियों का समर्थन करने वाले हों। वे अक्सर बच्चे की प्रशंसा करते हैं, उसके कार्यकलापों के प्रति उत्साह दिखाते हैं, उसकी भावनाओं के प्रति संवेदनपूर्ण ढंग से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं और उसके व्यक्तित्व और उसकी राय को समझते हैं। तथापि ऐसे माता-पिता दृढ़ अनुशासन वाले होते हैं। इस प्रकार के पालन-पोषण से बच्चों में स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता आती है।
किशोरावस्था वह अवधि है जिसमें बढ़ते हुए बालक को अपनी मित्रमंडली के सहयोग और स्वीकार्यता की अत्यधिक आवश्यकता होती है। कई बार ऐसा भी होता है कि माता-पिता और मित्रों के मूल्य एक-दूसरे से अलग हों। ऐसे में किशोर का अपने मित्रों की ओर अधिक झुकाव हो सकता है। इसके कारण माता-पिता और बच्चे के संबंधों में तालमेल नहीं रह पाता। मित्रों के दबाव के अनुकूल होना सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों ही हो सकता है। नकारात्मक प्रभाव तब दिखाई पड़ते हैं जब किशोर हानिकारक आचरण जैसे धूम्रपान करना, ड्रग या एल्कोहल लेना अथवा दूसरों को धमकाना इत्यादि में लिप्त हो जाता है। लेकिन, अक्सर मित्र और माता-पिता एक-दूसरे के पूरक कार्य करते हैं और किशोरों की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। यह देखा गया है कि किशोर की पहचान के विकास के लिए परिवार का ऐसा वातावरण होना महत्वपूर्ण है जो वैयक्तिकता और संबंधों को बनाना दोनों को बढ़ावा देता है। वैयक्तिकता से तात्पर्य है कि अपनी राय बनाने की क्षमता रखना तथा उसे व्यक्त करने के अवसर भी मिलना। संबंध बनाने का अर्थ है, अन्य लोगों की राय के प्रति संवेदनशील होना, उसका सम्मान करना और उसके प्रति उदार होना।
2 ग.3 भावात्मक परिवर्तन
किशोर विकास के दौरान कई भावात्मक परिवर्तनों का अनुभव करता है। इनमें से कई परिवर्तन किशोर में हो रहे जैविक और शारीरिक परिवर्तनों के कारण होते हैं। यह सच है कि किशोर अपने शारीरिक रूप को लेकर अधिक चिंतामग्न रहते हैं। उन्हें लगता है कि दूसरे लोग उनके शरीर और व्यवहार के प्रत्येक पहलू को देख रहे हैं। एक युवा जिसके चेहरे पर मुंहासे हैं, उसे लगता है कि सब लोग सबसे पहले उसी को देखते हैं फिर भी शारीरिक परिवर्तनों के प्रति सभी-किशोर अलग-अलग तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। एक लड़का जिसके चेहरे पर उसकी उम्र के अन्य लड़कों की तुलना में पर्याप्त बाल नहीं हैं, उसे यह अजीब-सा लग सकता है। तथापि चेहरे पर बाल न होना किसी अन्य लड़के को परेशान न करे, ऐसा भी हो सकता है। शारीरिक विकास के प्रति गर्व अथवा सहज भाव रखने से किशोरों के स्व-बोध पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। दूसरी ओर, यदि किशोर इस बात से कि वह कैसा दिखाई देता है, आवश्यकता से अधिक असंतुष्ट है तो वह अपने व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं, जैसे कार्य, पढ़ाई आदि पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता है। इससे विद्यालय में उसके कार्य निष्पादन में गिरावट आ सकती है और यह उसकी स्वयं के प्रति धारणा अथवा स्वाभिमान को कम करती है। अपने प्रति नकारात्मक धारणा रखने से व्यक्ति असुरक्षित महसूस करता है और उसमें शरीर के प्रति नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। संभव है कि शारीरिक अशक्तता वाला किशोर स्वयं को अन्य से कम समझे जबकि एक सुगठित किशोरवय लड़का चिंतित और अपूर्ण महसूस करे क्योंकि उसे लगता है कि उसका शरीर ‘अच्छा’ नहीं है।
किशोरों की मनःस्थिति भी बदलती रहती है। उदाहरणतः कभी परिवार के सदस्यों और मित्रों के साथ रहने की इच्छा रखना और कभी बिल्कुल अकेले रहना। कभी उसे अचानक बेहद तेज़ क्रोध भी आ सकता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि किशोर विभिन्न स्तरों पर स्वयं में हो रहे विभिन्न प्रकार के परिवर्तनों को जानने का और समझने का प्रयास कर रहा होता है।
2 ग.4 संज्ञानात्मक परिवर्तन
आप इकाई 3 - “बाल्यावस्था” में शैशवावस्था से किशोरावस्था तक सोच (बोध) में होने वाले परिवर्तनों के बारे में विस्तार से पढ़ेंगे। अभी हम उन संज्ञानात्मक परिवर्तनों का संक्षिप्त ब्यौरा दे रहे हैं जिनका स्व-बोध के विकास पर प्रभाव पड़ता है।
बाल्यावस्था के आरंभिक वर्षों में बच्चे का विकास एक ऐसे व्यक्ति जिसे अलग पहचान के बारे में पता नहीं होता अथवा जिसमें व्यक्तिगत भावना नहीं होती, से ऐसे व्यक्ति में होता है जो ‘स्वय’ की निश्चित और सही संदर्भों में व्याख्या कर सकता है। मध्य बाल्यावस्था में भी स्वयं-विवरण सही-सही होता है, अंतर यह होता है कि इस अवस्था में यह विवरण तुलनात्मक भी होता है। जब तक बच्चा 11 वर्ष का होता है, स्वयं-विवरण काफी वास्तविक हो जाता है और बच्चा ‘वास्तविक’ और ‘आदर्श’ स्वयं में अंतर करने में सक्षम हो जाता है।
किशोरावस्था के दौरान एक ज़बर्दस्त परिवर्तन यह होता है कि किशोर अमूर्त रूप से सोचने लगता है अर्थात् वे वर्तमान से तथा जो वह देखते और अनुभव करते हैं उससे अधिक आगे भी सोच सकते हैं। यही नहीं जैसे-जैसे सोच लचीली होती जाती है वे परिकल्पित स्थितियों के बारे में भी सोच सकते हैं। अन्य शब्दों में वे विभिन्न संभावनाओं और उनके परिणामों के बारे में सोच सकते हैं और इसके लिए यह आवश्यक भी नहीं कि वे उस स्थिति से होकर गुजरें अथवा किसी परिणाम को झेलें। पहचान निर्माण का आशय यह है कि किशोर कल्पनात्मक ढंग से अपने वर्तमान को अपने लिए चयनित कल्पित भविष्य के साथ जोड़ सकता है। उदाहरण के लिए किशोर उन संभावित जीविकाओं (कैरियर) के बारे में सोच सकता है जो वह वयस्क के रूप में अपना सकता है तथा जो उसकी स्थिति और मिजाज़ के अनुकूल हो। तद्नुसार वह अपने अध्ययन की वर्तमान दिशा निर्धारित कर सकता है।
अतः, किशोरावस्था, पहचान विकास का महत्वपूर्ण चरण है। सच तो यह है कि, किशोरावस्था विकास की वह महत्वपूर्ण अवधि है, जिसमें कई परिवर्तन होते हैं और कई अवसर आते हैं। यदि किशोर स्वस्थ है तो वह परिवर्तनों का सामना बेहतर ढंग से कर सकता है और अपनी पूर्ण क्षमता को महसूस कर सकता है। समुचित भोजन और पोषण अच्छे स्वास्थ्य के प्रमुख तत्त्व हैं। अगले अध्याय में किशोरावस्था के दौरान भोजन, पोषण स्वास्थ्य और स्वास्थ्य के रखरखाव के संबंध में चर्चा की गई है।
मुख्य शब्द
यौवनारंभ, यौवनावस्था, मासिक धर्म, व्यक्तित्व, मित्रमंडली दबाव।
समीक्षात्मक प्रश्न
1. यौवनारंभ और यौवनावस्था की संकल्पनाओं पर चर्चा करें। यौवनारंभ के दौरान लड़कियों और लड़कों में होने वाले प्रमुख शारीरिक और जैविक परिवर्तनों का विवरण दें।
2. एक किशोर के व्यक्तित्व को आकार देने में परिवार की क्या भूमिका है?
3. संस्कृति एक किशोर की पहचान को कितना प्रभावित करती है? उदाहरण सहित व्याख्या करें।
4. किशोरावस्था के दौरान होने वाले प्रमुख भावात्मक और संज्ञानात्मक परिवर्तन कौन से हैं?
प्रायोगिक कार्य 1
‘स्वय’ का विकास और विशेषताएँ
थीम व्यक्ति के शारीरिक ‘स्वयं’ का अध्ययन करना
कार्य
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लंबाई, वजन, कूल्हे का आकार, कमर की गोलाई, छाती के नाप को रिकॉर्ड करें।
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मासिक धर्म को (लड़कियों में) और दाढ़ी निकलने तथा आवाज़ में परिवर्तन आने की (लड़कों में) आयु को रिकॉर्ड करें।
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बालों तथा आँखों के रंग को रिकॉर्ड करें।
प्रयोग का उद्देश्य- आपने किशोरावस्था में शारीरिक वृद्धि और विकास के बारे में पढ़ा है। इस प्रयोग से आपको अपने शारीरिक ‘स्वयं’ को बेहतर ढंग से समझने में सहायता मिलेगी और जब आप अपने क्षेत्र के अन्य किशोरों से अपने आँकड़ों की तुलना करेंगे तो आपको अपने क्षेत्र में किशोरों की वृद्धि और विकास की औसत दर के बारे में जानने में सहायता भी मिलेगी। उपर्युक्त कार्य 1 में बताया गया मापन आपके लिए वस्त्रों का नाप जानने के लिए भी महत्वपूर्ण है।
क्रिया विधि- उपर्युक्त कार्य 1 में बताए अनुसार अपना स्वयं का माप लें। आप अपने मित्र का और वह आपका माप भी ले सकता है। निम्नलिखित माप बताए गए तरीके के अनुसार लिए जा सकते हैं-
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कूल्हे का आकार - कूल्हे के सबसे चौड़े भाग के चारों ओर माप-टेप घुमाएँ। शरीर और टेप के बीच दो अंगुल की दूरी रखते हुए टेप से मापें।
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छाती की गोलाई - छाती के सबसे उभरे हुए भाग पर टेप रखते हुए चारों ओर घुमाकर माप लें। टेप मज़बूती से पकड़ें, लेकिन कसकर नहीं।
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कमर की गोलाई - कमर के चारों और टेप रखें और यहाँ शरीर के सबसे कम चौड़े भाग पर इसे जाने दें (यह कमर है)। टेप और शरीर के बीच एक उँगली रखते हुए माप लें।
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गर्दन की गोलाई - स्थिर मापक को गर्दन पर रखें और इसे धीरे-धीरे नीचे ले जाएँ जब तक कि निचला सिरा गर्दन के निचले हिस्से पर बैठ नहीं जाता। यहाँ गर्दन का माप लिया जाता है।
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पृष्ठ भाग- यह कंधे की अंस फलक के पार्श्विक सिरों के बीच का माप है (अंस पटल)। कमर के माप से 10-12 सेमी. नीचे सबसे उभरे भाग का एक और माप लें। यह आपके पृष्ठ भाग का सबसे चौड़ा हिस्सा है।
निम्नलिखित सारणी में कार्य 1,2 , और 3 के अनुसार जानकारी नोट करें -
आपका नाम …………………..
जेंडर ………………………..
आँखों का रंग ………………….
दाढ़ी आने एवं/आवाज़ में ………………….
परिवर्तन होने पर आयु ………………………
लंबाई …………………………….
कूल्हे का माप ………………………
कमर की गोलाई ………………………….
आयु ………………………………
बालों का रंग ………………………
मासिक धर्म की प्रारंभ ……………………………
की आयु ………………………………
वजन …………………………….
छाती का माप ………………………..
गर्दन की गोलाई ……………………………….
पृष्ठ भाग के दो माप ……………………………
अब 10-10 बच्चों के समूह बनाएँ और सभी व्यक्तिगत आँकड़ों को एक साथ मिला दें।
1. नोट करें कि आपके समूह में शरीर के उक्त मापों में से प्रत्येक की परास उदाहरणत: क्या है। जैसे आपके समूह में वजन. ………………………. किग्रा. ………………. से. ……………… किग्रा. तक है।
2. मासिक धर्म की आयु, दाढ़ी उग आने और आवाज़ में परिवर्तन होने की आयु की परास भी नोट करें।
3. अपने वस्त्रों के माप के साथ अपने माप की तुलना करें। अपने द्वारा खरीदे गए रेडीमेड वस्त्रों के माप का अपने माप के साथ परस्पर संबंध बताएँ।
प्रयोग 2
थीम स्वयं द्वारा अनुभव किए गए मनोभाव (संवेग)
कार्य
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दिनभर में अपने द्वारा अनुभव किए गए मनोभावों को रिकॉर्ड करना।
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मनोभावों के कारण बताना।
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उन पर नियंत्रण के तरीके खोजना।
उद्देश्य- प्रत्येक दिन हमें अलग-अलग अनुभव होते हैं और यह स्थितियों के प्रति हमारी अनुक्रिया करने के तरीके को प्रभावित करते हैं। अपने मनोभावों के प्रति जागरूक होने और इन भावनाओं के होने के कारणों को जानने से हमें उन्हें नियंत्रित करने और स्थितियों के अनुकूल प्रतिक्रिया करने में सहायता मिल सकती है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर यह प्रयोग तैयार किया गया है।
क्रिया विधि- कोई एक दिन चुन लें और उस दिन सुबह से ही अनुभव किए गए अपने मनोभावों (संवेगों) को ध्यान में रखें। अपने साथ एक नोट पैड और पेन रखें और संवेग को नोट करें। अब संवेग की संदर्भित स्थिति तथा उसके कारण को समझने के तुरंत बाद ही नोट कर लें। इन सब को नोट करने के लिए आप निम्नवत् सारणी का उपयोग कर सकते हैं।
दिन का समय | ||||
संवेग | ||||
स्थिति/संदर्भ | ||||
संवेग अनुभव करने पर आपकी प्रतिक्रिया |
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विशेष टिप्पणी अथवा प्रेक्षण जो आप नोट करना चाहें |
4-5 छात्रों के समूह बनाएँ। अपने समूह में स्वयं द्वारा नोट की गई बातों की अन्य समूहों के छात्रों की बातों से तुलना करें। तथा निम्न पर चर्चा करें-
1. क्या समूह के अन्य सदस्यों द्वारा भी समान संवेगों को महसूस किया गया?
2. विभिन्न स्थितियों में समान विशेषताएँ जिनके कारण समूह के सदस्यों ने इन संवेगों को महसूस किया।
3. क्या प्रत्येक सदस्य ने संवेगों को समुचित ढंग से नियंत्रित किया?
4. क्या इन संवेगों को नियंत्रित करने के लिए अन्य विकल्प भी हो सकते थे?