अध्याय 04 जलवायु

आप गर्मियों में ज्यादा पानी पीते हैं। आपके गर्मियों के वस्त्र सर्दियों के वस्त्रों से अलग होते हैं। उत्तरी भारत में आप गर्मियों में हल्के वस्त्र और सर्दियों में ऊनी वस्त्र क्यों पहनते हैं? दक्षिणी भारत में ऊनी वस्त्रों की ज़रूरत नहीं होती। उत्तर-पूर्वी राज्यों में पहाड़ियों को छोड़कर सर्दियाँ मृदु होती हैं। विभिन्न ऋतुओं में मौसम की दशाओं में भिन्नता पायी जाती है। यह भिन्नता मौसम के तत्त्वों (तापमान, वायुदाब, पवनों की दिशा एवं गति, आर्द्रता और वर्षण इत्यादि) में परिवर्तन से आती है।

मौसम वायुमंडल की क्षणिक अवस्था है, जबकि जलवायु का तात्पर्य अपेक्षाकृत लंबे समय की मौसमी दशाओं के औसत से होता है। मौसम जल्दी-जल्दी बदलता है, जैसे कि एक दिन में या एक सप्ताह में, परंतु जलवायु में बदलाव 50 अथवा इससे भी अधिक वर्षों में आता है।

अपनी पहले की कक्षाओं में आप मानसून के बारे में पढ़ चुके हैं। आपको ‘मानसून’ शब्द का अर्थ भी ज्ञात है। मानसून से अभिप्राय ऐसी जलवायु से है, जिसमें ऋतु के अनुसार पवनों की दिशा में उत्क्रमण हो जाता है। भारत की जलवायु उष्ण मानसूनी है, जो दक्षिणी एवं दक्षिणी-पूर्वी एशिया में पायी जाती है।

मानसून जलवायु में एकरूपता एवं विविधता

मानसून पवनों की व्यवस्था भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच एकता को बल प्रदान करती है। मानसून जलवायु की व्यापक एकता के इस दृष्टिकोण से किसी को भी जलवायु की प्रादेशिक भिन्नताओं की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। यही भिन्नता भारत के विभिन्न प्रदेशों के मौसम और जलवायु को एक-दूसरे से अलग करती है। उदाहरण के लिए दक्षिण में केरल तथा तमिलनाडु की जलवायु उत्तर में उत्तर प्रदेश तथा बिहार की जलवायु से अलग है। फिर भी इन सभी राज्यों की जलवायु मानसून प्रकार की है। भारत की जलवायु में अनेक प्रादेशिक भिन्नताएँ हैं जिन्हें पवनों के प्रतिरूप, तापक्रम और वर्षा, ऋतुओं की लय तथा आर्द्रता एवं शुष्कता की मात्रा में भिन्नता के रूप में देखा जा सकता है। इन प्रादेशिक विविधताओं का जलवायु के उपवर्गों के रूप में वर्णन किया जा सकता है। आइए! अब हम तापमान, पवनों तथा वर्षा की इन प्रादेशिक विविधताओं का ज़रा गौर से अवलोकन करें।

गर्मियों में पश्चिमी मरुस्थल में तापक्रम कई बार $55^{\circ}$ सेल्सियस को स्पर्श कर लेता है। जबकि सर्दियों में लेह के आसपास तापमान $-45^{\circ}$ सेल्सियस तक गिर जाता है। राजस्थान के चुरू जिले में जून के महीने के किसी एक दिन का तापमान $50^{\circ}$ सेल्सियस अथवा इससे अधिक हो जाता है, जबकि उसी दिन अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले में तापमान मुश्किल से $19^{\circ}$ सेल्सियस तक पहुँचता है। दिसंबर की किसी रात में लद्दाख के द्रास में रात का तापमान $-45^{\circ}$ सेल्सियस तक गिर जाता है, जबकि उसी रात को थिरुवनंथपुरम् अथवा चेन्नई में तापमान $20^{\circ}$ सेल्सियस या $22^{\circ}$ सेल्यिसस रहता है। उपर्युक्त उदाहरण पुष्टि करते हैं कि भारत में एक स्थान से दूसरे स्थान पर तथा एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र के तापमान में ॠतुवत् अंतर पाया जाता है। इतना ही नहीं, यदि हम किसी एक स्थान के 24 घंटों का तापमान दर्ज करें, तो उसमें भी विभिन्नताएँ कम प्रभावशाली प्रतीत नहीं होतीं। उदाहरणतः केरल और अंडमान द्वीप समूह में दिन और रात के तापमान में मुश्किल से $7^{\circ}$ या $8^{\circ}$ सेल्सियस का अंतर पाया जाता है, किंतु थार मरुस्थल में, यदि दिन का तापमान $50^{\circ}$ सेल्सियस हो जाता है, तो वहाँ रात का तापमान $15^{\circ}$ से $20^{\circ}$ सेल्सियस के बीच आ पहुँचता है।

आइए! अब हम वर्षण की प्रादेशिक विविधताओं को देखें। हिमालय में वर्षण मुख्यतः हिमपात के रूप में होता है, जबकि देश के अन्य भागों में वर्षण जल की बूँदों के रूप में होता है। इसी प्रकार केवल वर्षण के प्रकारों में ही अंतर नहीं है, बल्कि वर्षण की मात्रा में भी अंतर है। मेघालय की खासी पहाड़ियों में स्थित चेरापूँजी और मॉसिनराम में औसत वार्षिक वर्षा 1,080 से.मी. से ज़्यादा होता है। इसके विपरीत राजस्थान के जैसलमेर में औसत वार्षिक वर्षा शायद ही 9 से.मी. से अधिक होती हो।

मेघालय की गारो पहाड़ियों में स्थित तुरा में एक ही दिन में उतनी वर्षा होती है जितनी जैसलमेर में दस वर्षों में। उत्तरी-पश्चिमी हिमालय तथा पश्चिमी मरुस्थल में वार्षिक वर्षा 10 से.मी. से भी कम होती है, जबकि उत्तर-पूर्व में स्थित मेघालय में वार्षिक वर्षा 400 से.मी. से भी ज्यादा होती है।

जुलाई या अगस्त में, गंगा के डेल्टा तथा ओडिशा के तटीय भागों में हर तीसरे या पाँचवें दिन प्रचंड तूफान मूसलाधार वर्षा करते हैं। जबकि इन्हीं महीनों में मात्र एक हजार किलोमीटर दूर दक्षिण में स्थित तमिलनाडु का कोरोमंडल तट शांत एवं शुष्क रहता है। देश के अधिकांश भागों में, वर्षा जून और सितंबर के बीच होती है, किंतु तमिलनाडु के तटीय प्रदेशों में वर्षा शरद ऋतु अथवा जाड़ों के आरंभ में होती है।

इन सभी भिन्नताओं और विविधताओं के बावजूद भारत की जलवायु अपनी लय और विशिष्टता में मानसूनी है।

भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक

भारत की जलवायु को नियंत्रित करने वाले अनेक कारक हैं–

अक्षांश : आप भारत की मुख्य भूमि का अक्षांशीय एवं देशांतरीय विस्तार पहले से ही जानते हैं। आप यह भी जानते हैं कि कर्क रेखा पूर्व-पश्चिम दिशा में देश के मध्य भाग से गुज़रती है। इस प्रकार भारत का उत्तरी भाग शीतोष्ण कटिबंध में और कर्क रेखा के दक्षिण में स्थित भाग उष्ण कटिबंध में पड़ता है। उष्ण कटिबंध भूमध्य रेखा के अधिक निकट होने के कारण सारा साल ऊँचे तापमान तथा कम दैनिक और वार्षिक तापांतर का अनुभव करता है। कर्क रेखा से उत्तर में स्थित भाग में भूमध्य रेखा से दूर होने के कारण उच्च दैनिक तथा वार्षिक तापांतर के साथ विषम जलवायु पायी जाती है।

हिमालय पर्वतः उत्तर में ऊँचा हिमालय अपने सभी विस्तारों के साथ एक प्रभावी जलवायु विभाजक की भूमिका निभाता है। यह ऊँची पर्वत शृंखला उपमहाद्वीप को उत्तरी पवनों से अभेद्य सुरक्षा प्रदान करती है। जमा देने वाली ये ठंडी पवनें उत्तरी ध्रुव रेखा के निकट पैदा होती हैं और मध्य तथा पूर्वी एशिया में आर-पार बहती हैं। इसी प्रकार हिमालय पर्वत मानसून पवनों को रोककर उपमहाद्वीप में वर्षा का कारण बनता है।

जल और स्थल का वितरण : भारत के दक्षिण में तीन ओर हिंद महासागर व उत्तर की ओर ऊँची व अविच्छिन्न पर्वत श्रेणी है। स्थल की अपेक्षा जल देर से गर्म होता है और देर से ठंडा होता है। जल और स्थल के इस विभेदी तापन के कारण भारतीय उपमहाद्वीप में विभिन्न ऋतुओं में विभिन्न वायुदाब प्रदेश विकसित हो जाते हैं। वायुदाब में भिन्नता मानसून पवनों के उत्क्रमण का कारण बनती है।

समुद्र तट से दूरी: लंबी तटीय रेखा के कारण भारत के विस्तृत तटीय प्रदेशों में समकारी जलवायु पायी जाती है। भारत के अंदरूनी भाग समुद्र के समकारी प्रभाव से वंचित रह जाते हैं। ऐसे क्षेत्रों में विषम जलवायु पायी जाती है। यही कारण है कि मुंबई तथा कोंकण तट के

अंतःउष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (आई.टी.सी.जे़.ड.)

विषुवत वृत्त पर स्थित अंतः उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र एक निम्न वायुदाब वाला क्षेत्र है। इस क्षेत्र में व्यापारिक पवनें मिलती हैं। अतः इस क्षेत्र में वायु ऊपर उठने लगती है। जुलाई के महीने में आई.टी.सी.ज़ेड. $20^{\circ}$ से $25^{\circ}$ उ. अक्षांशों के आस-पास गंगा के मैदान में स्थित हो जाता है। इसे कभी-कभी मानसूनी गर्त भी कहते हैं। यह मानसूनी गर्त, उत्तर और उत्तर-पश्चिमी भारत पर तापीय निम्न वायुदाब के विकास को प्रोत्साहित करता है। आई.टी.सी.ज़ेड. के उत्तर की ओर खिसकने के कारण दक्षिणी गोलार्द्ध की व्यापारिक पवनें $40^{\circ}$ और $60^{\circ}$ पूर्वी देशांतरों के बीच विषुवत वृत्त को पार कर जाती हैं। कोरियोलिस बल के प्रभाव से विषुवत वृत्त को पार करने वाली इन व्यापारिक पवनों की दिशा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर हो जाती है। यही दक्षिण-पश्चिम मानसून है। शीत ऋतु में आई.टी.सी.ज़ेड. दक्षिण की ओर खिसक जाता है। इसी के अनुसार पवनों की दिशा दक्षिण-पश्चिम से बदलकर उत्तर-पूर्व हो जाती है, यही उत्तर-पूर्व मानसून है।

निवासी तापमान की विषमता और ऋतु परिवर्तन का अनुभव नहीं कर पाते। दूसरी ओर समुद्र तट से दूर देश के आंतरिक भागों में स्थित दिल्ली, कानपुर और अमृतसर में मौसमी परिवर्तन पूरे जीवन को प्रभावित करते हैं।

समुद्र तल से ऊँचाई : ऊँचाई के साथ तापमान घटता है। विरल वायु के कारण पर्वतीय प्रदेश मैदानों की तुलना में अधिक ठंडे होते हैं। उदाहरणतः आगरा और दार्जिलिंग एक ही अक्षांश पर स्थित हैं किंतु जनवरी में आगरा का तापमान $16^{\circ}$ सेल्सियस जबकि दार्जिलिंग में यह $4^{\circ}$ सेल्सियस होता है।

उच्चावच: भारत का भौतिक स्वरूप अथवा उच्चावच तापमान, वायुदाब, पवनों की गति एवं दिशा तथा ढाल की मात्रा और वितरण को प्रभावित करता है। उदाहरणतः जून और जुलाई के बीच पश्चिमी घाट तथा असम के पवनाभिमुखी ढाल अधिक वर्षा प्राप्त करते हैं जबकि इसी दौरान पश्चिमी घाट के साथ लगा दक्षिणी पठार पवनविमुखी स्थिति के कारण कम वर्षा प्राप्त करता है।

भारतीय मानसून की प्रकृति

मानसून एक सुपरिचित जलवायवी घटक है, परंतु उसके बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। सदियों से होते आ रहे प्रेक्षणों के बावजूद मानसून आज भी वैज्ञानिकों के लिए पहेली बनी हुई है। मानसून की सही-सही प्रकृति व उसके कारणों को जानने के अनेक प्रयास किए गए, किंतु अब तक कोई भी एक सिद्धांत इसे पूरी तरह से स्पष्ट नहीं कर पाया। पिछले कुछ दिनों में इसका ‘तोड़’ तब सामने आया जब मानसून का अध्ययन क्षेत्रीय स्तर की बजाय भूमंडलीय स्तर पर किया गया।

एल-निनो और भारतीय मानसून

एल-निनो एक जटिल मौसम तंत्र है, जो हर पाँच या दस साल बाद प्रकट होता रहता है। इस के कारण संसार के विभिन्न भागों में सूखा, बाढ़ और मौसम की चरम अवस्थाएँ आती हैं।

इस तंत्र में महासागरीय और वायुमंडलीय परिघटनाएँ शामिल होती हैं। पूर्वी प्रशांत महासागर में, यह पेरू के तट के निकट उष्ण समुद्री धारा के रूप में प्रकट होता है। इससे भारत सहित अनेक स्थानों का मौसम प्रभावित होता है। एल-निनो भूमध्यरेखीय उष्ण समुद्री धारा का विस्तार मात्र है, जो अस्थायी रूप से ठंडी पेरूवियन अथवा हम्बोल्ट धारा (अपनी एटलस में इन धाराओं की स्थिति ज्ञात कीजिए) पर प्रतिस्थापित हो जाती है। यह धारा पेरू तट के जल का तापमान $10^{\circ}$ सेल्सियस तक बढ़ा देती है। इसके निम्नलिखित परिणाम होते हैं।

(i) भूमध्यरेखीय वायुमंडलीय परिसंचरण में विकृति;
(ii) समुद्री जल के वाष्पन में अनियमितता;
(iii) प्लवक की मात्रा में कमी, जिससे समुद्र में मछलियों की संख्या का घट जाना।

एल-निनो का शाब्दिक अर्थ ‘बालक ईसा’ है, क्योंकि यह धारा दिसंबर के महीने में क्रिसमस के आस-पास नज़र आती है। पेरू (दक्षिणी गोलाद्ध) में दिसंबर गर्मी का महीना होता है।

भारत में मानसून की लंबी अवधि के पूर्वानुमान के लिए एल-निनो का उपयोग होता है। सन् 1990-1991 में एल-निनो का प्रचंड रूप देखने को मिला था। इस के कारण देश के अधिकतर भागों में मानसून के आगमन में 5 से 12 दिनों की देरी हो गई थी।

चित्र 4.1 : भारत : दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के पहुँचने की सामान्य तिधियाँ

दक्षिण एशियाई क्षेत्र में वर्षा के कारणों का व्यवस्थित अध्ययन मानसून के कारणों को समझने में सहायता करता है। इसके कुछ विशेष पक्ष इस प्रकार हैं।

(i) मानसून का आरंभ तथा उसका स्थल की ओर बढ़ना;
(ii) मानसून में विच्छेद।

मानसून का आरंभ

19 वों सदी के अंत में, यह व्याख्या की गई थी कि गर्मी के महीनों में स्थल और समुद्र का विभेदी तापन ही मानसून पवनों के उपमहाद्वीप की ओर चलने के लिए मंच तैयार करता है। अप्रैल और मई के महीनों में, जब सूर्य कर्क रेखा पर लम्बवत् चमकता है, तो हिंद महासागर के उत्तर में स्थित विशाल भूखंड अत्यधिक गर्म हो जाता है, इसके परिणामस्वरूप उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भाग पर एक गहन न्यून दाब क्षेत्र विकसित हो जाता है, क्योंकि भूखंड के दक्षिण में हिंद महासागर अपेक्षतया धीरे-धीरे गर्म होता है, निम्न वायुदाब केंद्र विषुवत रेखा के उस पार से दक्षिण-पूर्वी सन्मार्गी पवनों को आकर्षित कर लेता है। इन दशाओं में अंतःउष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र उत्तर की ओर स्थानांतरित हो जाता है। इस प्रकार दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी पवनों को दक्षिण-पूर्वी सन्मार्गी पवनों के विस्तार के रूप में देखा जा सकता है, जो भूमध्य रेखा को पार करके भारतीय उपमहाद्वीप की ओर विक्षेपित हो जाती हैं। ये पवनें भूमध्यरेखा को 40 पूर्वी तथा 60 पूर्वी देशांतर रेखाओं के बीच पार करती हैं।

अंतःउष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र की स्थिति में परिवर्तन का संबंध हिमालय के दक्षिण में उत्तरी मैदान के ऊपर से पश्चिमी जेट-प्रवाह द्वारा अपनी स्थिति के प्रत्यावर्तन से भी है, क्योंकि पश्चिमी जेट-प्रवाह के इस क्षेत्र से खिसकते ही दक्षिणी भारत में 15 उत्तर अक्षांश पर पूर्वी जेट-प्रवाह विकसित हो जाता है। इसी पूर्वी जेट प्रवाह को भारत में मानसून के प्रस्फोट (Burst) के लिए जिम्मेदार माना जाता है।

मानसून का भारत में प्रवेशः दक्षिण-पश्चिमी मानसून केरल तट पर 1 जून को पहुँचता है और शीघ्र ही 10 और 13 जून के बीच ये आर्द्र पवनें मुंबई व कोलकाता तक पहुँच जाती हैं। मध्य जुलाई तक संपूर्ण उपमहाद्वीप दक्षिण-पश्चिम मानसून के प्रभावाधीन हो जाता है (चित्र 4.1 )।

मानसून में विच्छेद

दक्षिण-पश्चिम मानसून काल में एक बार कुछ दिनों तक वर्षा होने के बाद यदि एक-दो या कई सप्ताह तक वर्षा न हो तो इसे मानसून विच्छेद कहा जाता है। ये विच्छेद विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न कारणों से होते हैं, जो निम्नलिखित हैं :

(i) उत्तरी भारत के विशाल मैदान में मानसून का विच्छेद उष्ण कटिबंधी चक्रवातों की संख्या कम हो जाने से और अंतःउष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र की स्थिति में बदलाव आने से होता है।

(ii) पश्चिमी तट पर मानसून विच्छेद तब होता है जब आर्द्र पवनें तट के समानांतर बहने लगें।

(iii) राजस्थान में मानसून विच्छेद तब होता है, जब वायुमंडल के निम्न स्तरों पर तापमान की विलोमता वर्षा करने वाली आर्द्र पवनों को ऊपर उठने से रोक देती है।

मानसून का निर्वतन

मानसून के पीछे हटने या लौट जाने को मानसून का निवर्तन कहा जाता है। सितंबर के आरंभ से उत्तर-पश्चिमी भारत से मानसून पीछे हटने लगती है और मध्य अक्तूबर तक यह दक्षिणी भारत को छोड़ शेष समस्त भारत से निवर्तित हो जाती है। लौटती हुई मानसून पवनें बंगाल की खाड़ी से जल-वाष्प ग्रहण करके उत्तर-पूर्वी मानसून के रूप में तमिलनाडु में वर्षा करती हैं।

ॠतुओं की लय

भारत की जलवायवी दशाओं को उसके वार्षिक ॠतु चक्र के माध्यम से सर्वश्रेष्ठ ढँग से व्यक्त किया जा सकता है। मौसम-वैज्ञानिक वर्ष को निम्नलिखित चार ॠतुओं में बाँटते हैं:

(i) शीत ॠतु

(ii) ग्रीष्म ऋतु

(iii) दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ॠतु और

(iv) मानसून के निवर्तन की ऋतु

शीत ऋतु

तापमान : आम तौर पर उत्तरी भारत में शीत ऋतु नवंबर के मध्य से आरंभ होती है। उत्तरी मैदान में जनवरी और फरवरी सर्वाधिक ठंडे महीने होते हैं। इस समय उत्तरी भारत के अधिकांश भागों में औसत दैनिक तापमान 21 सेल्सियस से कम रहता है। रात्रि का तापमान काफी कम हो जाता है, जो पंजाब और राजस्थान में हिमांक $\left(0^{\circ}\right.$ सेल्सियस) से भी नीचे चला जाता है।

इस ऋतु में, उत्तरी भारत में अधिक ठंड पड़ने के मुख्य रूप से तीन कारण हैं :

(i) पंजाब, हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्य समुद्र के समकारी प्रभाव से दूर स्थित होने के कारण महाद्वीपीय जलवायु का अनुभव करते हैं।

(ii) निकटवर्ती हिमालय की श्रेणियों में हिमपात के कारण शीत लहर की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और

(iii) फरवरी के आस-पास कैस्पियन सागर और तुर्कमेनिस्तान की ठंडी पवनें उत्तरी भारत में शीत लहर ला देती हैं। ऐसे अवसरों पर देश के उत्तर-पश्चिम भागों में पाला व कोहरा भी पड़ता है।

मानसून को समझना

मानसून का स्वभाव एवं रचना-तंत्र संसार के विभिन्न भागों में स्थल, महासागरों तथा ऊपरी वायुमंडल से एकत्रित मौसम संबंधी आँकड़ों के आधार पर समझा जाता है। पूर्वी प्रशांत महासागर में स्थित फ्रेंच पोलिनेशिया के ताहिती (लगभग 18 द. तथा 149 प.) तथा हिंद महासागर में आस्ट्रेलिया के पूर्वी भाग में स्थित पोर्ट डार्विन ( $1230^{\prime}$ द. तथा 131 पू.) के बीच पाए जाने वाले वायुदाब का अंतर मापकर मानसून की तीव्रता के बारे में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। भारत का मौसम विभाग 16 कारकों (मापदंडों) के आधार पर मानसून के संभावित व्यवहार के बारे में काफी समय का पूर्वानुमान लगाता है।

प्रायद्वीपीय भारत में कोई निश्चित शीत ऋतु नहीं होती। तटीय भागों में भी समुद्र के समकारी प्रभाव तथा भूमध्यरेखा की निकटता के कारण ऋतु के अनुसार तापमान के वितरण प्रतिरूप में शायद ही कोई बदलाव आता हो। उदाहणतः तिरूवनंतपुरम् में जनवरी का माध्य अधिकतम तापमान $31^{\circ}$ सेल्सियस तक रहता है, जबकि जून में यह $29.5^{\circ}$ सेल्सियस पाया जाता है। पश्चिमी घाट को पहाड़ियों पर तापमान अपेक्षाकृत कम पाया जाता है।

वायुदाब तथा पवनें: दिसंबर के अंत तक (22 दिसंबर) सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर रेखा पर सीधा चमकता है। इस ऋतु में मौसम की विशेषता उत्तरी मैदान में एक क्षीण उच्च वायुदाब का विकसित होना है। दक्षिणी भारत में वायुदाब उतना अधिक नहीं होता। 1,019 मिलीबार तथा 1,013 मिलीबार की समभार रेखाएँ उत्तर-पश्चिमी भारत तथा सुदूर दक्षिण से होकर गुजरती हैं।

परिणामस्वरूप उत्तर-पश्चिमी उच्च वायुदाब क्षेत्र से दक्षिण में हिंद महासागर पर स्थित निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर पवनें चलना आरंभ कर देती हैं।

कम दाब प्रवणता के कारण 3 से 5 कि.मी. प्रति घंटा की दर से मंद गति की पवनें चलने लगती हैं। मोटे तौर पर क्षेत्र की भू-आकृति भी पवनों की दिशा को प्रभावित करती है। गंगा घाटी में इनकी दिशा पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी होती है। गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा में इनकी दिशा उत्तरी हो जाती है। भूआकृति के प्रभाव से मुक्त इन पवनों की दिशा बंगाल की खाड़ी में स्पष्ट तौर पर उत्तर-पूर्वी होती है।

सर्दियों में भारत का मौसम सुहावना होता है। फिर भी यह सुहावना मौसम कभी-कभार हल्के चक्रवातीय अवदाबों से बाधित होता रहता है। पश्चिमी विक्षोभ कहे जाने वाले ये चक्रवात पूर्वी भूमध्यसागर पर उत्पन्न होते हैं और पूर्व की ओर चलते हुए पश्चिमी एशिया, ईरान-अफ़गानिस्तान तथा पाकिस्तान को पार करके भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों में पहुँचते हैं। मार्ग में उत्तर में कैस्पियन सागर तथा दक्षिण में ईरान की खाड़ी से गुजरते समय इन चक्रवातों की आर्द्रता में संवर्धन हो जाता है। पश्चिमी जेट-प्रवाह इन अवदाबों को भारत की ओर उन्मुख करने में क्या भूमिका निभाते हैं?

वर्षा: शीतकालीन मानसून पवनें स्थल से समुद्र की ओर चलने के कारण वर्षा नहीं करतीं, क्योंकि एक तो इनमें

नमी केवल नाममात्र की होती है, दूसरे, स्थल पर घर्षण के कारण इन पवनों का तापमान बढ़ जाता है, जिससे वर्षा होने की संभावना निरस्त हो जाती है। अतः शीत ऋतु में अधिकांश भारत में वर्षा नहीं होती। अपवादस्वरूप कुछ क्षेत्रों में शीत ऋतु में वर्षा होती है।

(i) उत्तर-पश्चिमी भारत में भूमध्य सागर से आने वाले कुछ क्षीण शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुछ वर्षा करते हैं। कम मात्रा में होते हुए भी यह शीतकालीन वर्षा भारत में रबी की फसल के लिए उपयोगी होती है। लघु हिमालय में वर्षा हिमपात के रूप में होती है। यह वही हिम है, जो गर्मियों के महीनों में हिमालय से निकलने वाली नदियों में जल के प्रवाह को निरंतर बनाए रखती है। वर्षा की मात्रा मैदानों में पश्चिम से पूर्व की ओर तथा पर्वतों में उत्तर से दक्षिण की ओर घटती जाती है। दिल्ली में सर्दियों की औसत वर्षा 53 मिलीमीटर होती है। पंजाब और बिहार के बीच में यह वर्षा 18 से 25 मिलीमीटर के बीच रहती है।

(ii) कभी-कभी देश के मध्य भागों एवं दक्षिणी प्रायद्वीप के उत्तरी भागों में भी कुछ शीतकालीन वर्षा हो जाती है।

(iii) जाड़े के महीनों में भारत के उत्तरी-पूर्वी भाग में स्थित अरुणाचल प्रदेश तथा असम में भी 25 से 50 मिलीमीटर तक वर्षा हो जाती है।

(iv) उत्तर-पूर्वी मानसून पवनें अक्तूबर से नवंबर के बीच बंगाल की खाड़ी को पार करते समय नमी ग्रहण कर लेती हैं और तमिलनाडु, दक्षिण आंध्र प्रदेश, दक्षिण-पूर्वी कर्नाटक तथा दक्षिण-पूर्वी केरल में झंझावाती वर्षा करती हैं।

ग्रीष्म ऋतु तापमान

तापमान: मार्च में सूर्य के कर्क रेखा की ओर आभासी बढ़त के साथ ही उत्तरी भारत में तापमान बढ़ने लगता है। अप्रैल, मई व जून में उत्तरी भारत में स्पष्ट रूप से ग्रीष्म ऋतु होती है। भारत के अधिकांश भागों में तापमान $30^{\circ}$ से $32^{\circ}$ सेल्सियस तक पाया जाता है। मार्च में दक्कन पठार पर दिन का अधिकतम तापमान $38^{\circ}$ सेल्सियस हो जाता है, जबकि अप्रैल में गुजरात और मध्य प्रदेश में यह तापमान $38^{\circ}$ से $43^{\circ}$ सेल्सियस के बीच पाया जाता है। मई में ताप की यह पेटी और अधिक उत्तर में खिसक जाती है। जिससे देश के उत्तर-पश्चिमी भागों में $48^{\circ}$ सेल्सियस के आसपास तापमान का होना असामान्य बात नहीं है।

दक्षिणी भारत में ग्रीष्म ऋतु मृदु होती है तथा उत्तरी भारत जैसी प्रखर नहीं होती। दक्षिणी भारत की प्रायद्वीपीय स्थिति समुद्र के समकारी प्रभाव के कारण यहाँ के तापमान को उत्तरी भारत में प्रचलित तापमानों से नीचे रखती है। अतः दक्षिण में तापमान $26^{\circ}$ से $32^{\circ}$ सेल्सियस के बीच रहता है। पश्चिमी घाट की पहाड़ियों के कुछ क्षेत्रों में ऊँचाई के कारण तापमान $25^{\circ}$ सेल्सियम से कम रहता है। तटीय भागों में समताप रेखाएँ तट के समानांतर उत्तर-दक्षिण दिशा में फैली हैं, जो प्रमाणित करती हैं कि तापमान उत्तरी भारत से दक्षिणी भारत की ओर न बढ़कर तटों से भीतर की ओर बढ़ता है। गर्मी के महीनों में औसत न्यूनतम दैनिक तापमान भी काफी ऊँचा रहता है और यह $26^{\circ}$ सेल्सियस से शायद ही कभी नीचे जाता हो।

वायुदाब और पवनें: देश के आधे उत्तरी भाग में ग्रीष्म ॠतु में अधिक गर्मी और गिरता हुआ वायुदाब पाया जाता है। उपमहाद्वीप के गर्म हो जाने के कारण जुलाई में अंतः उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र उत्तर की ओर खिसककर लगभग $25^{\circ}$ उत्तरी अक्षांश रेखा पर स्थित हो जाता है। मोटे तौर पर यह निम्न दाब की लंबायमान मानसून द्रोणी उत्तर-पश्चिम में थार मरुस्थल से पूर्व और दक्षिण-पूर्व में पटना और छत्तीसगढ़ पठार तक विस्तृत होती है। अंतः उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र को स्थिति पवनों के धरातलीय संचरण को आकर्षित करती है, जिनकी दिशा पश्चिमी तट, पश्चिम बंगाल के तट तथा बांग्लादेश के साथ दक्षिण-पश्चिमी होती है। उत्तरी बंगाल और बिहार में इन पवनों की दिशा पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी होती है। इस बात की चर्चा पहले की जा चुकी है कि दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ये धाराएँ वास्तव में विस्थापित भूमध्यरेखीय पुरवा पवनें हैं। मध्य जून तक इन पवनों का अंतः प्रवेश मौसम का वर्षा ऋतु की ओर बदलाव करता है।

उत्तर-पश्चिम में अंतःउष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र के केंद्र में दोपहर के बाद ‘लू’ के नाम से विख्यात शुष्क एवं तप्त हवाएँ चलती हैं, जो कई बार आधी रात तक चलती रहती हैं। मई में शाम के समय पंजाब, हरियाणा, पूर्वी राजस्थान और उत्तर प्रदेश में धूल भरी आँधियों का चलना एक आम बात है। ये अस्थायी तूफान पीड़ादायक गर्मी से कुछ राहत दिलाते हैं, क्योंकि ये अपने साथ हल्की बारिश और सुखद व शीतल हवाएँ लाते हैं। कई बार ये आर्द्रता भरी पवनें द्रोणी की परिधि की ओर आकर्षित होती हैं। शुष्क एवं आर्द्र वायुसंहतियों के अचानक संपर्क से स्थानीय स्तर पर तेज तूफान पैदा होते हैं। इन स्थानीय तूफानों के साथ तेज हवाएँ मूसलाधार वर्षा और यहाँ तक कि ओले भी आते हैं।

ग्रीष्म ऋतु में आने वाले कुछ प्रसिद्ध स्थानीय तूफान

(i) आम्र वर्षा: ग्रीष्म ऋतु के खत्म होते-होते पूर्व मानसून बौछारें पड़ती हैं, जो केरल व तटीय कर्नाटक में यह एक आम बात है। स्थानीय तौर पर इस तूफानी वर्षा को आम्र वर्षा कहा जाता है, क्योंकि यह आमों को जल्दी पकने में सहायता देती है।
(ii) फूलों वाली बौछार: इस वर्षा से केरल व निकटवर्ती कहवा उत्पादक क्षेत्रों में कहवा के फूल खिलने लगते हैं।
(iii) काल बैसाखी: असम और पश्चिम बंगाल में बैसाख के महीने में शाम को चलने वाली ये भयंकर व विनाशकारी वर्षायुक्त पवनें हैं। इनकी कुख्यात प्रकृति का अंदाज़ा इनके स्थानीय नाम काल बैसाखी से लगाया जा सकता है। जिसका अर्थ है- बैसाख के महीने में आने वाली तबाही। चाय, पटसन व चावल के लिए ये पवनें अच्छी हैं। असम में इन तूफानों को ‘बारदोली छीड़ा’ कहा जाता है।
(iv) लू: उत्तरी मैदान में पंजाब से बिहार तक चलने वाली ये शुष्क, गर्म व पीड़ादायक पवनें हैं। दिल्ली और पटना के बीच इनकी तीव्रता अधिक होती है।

दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ऋतु (वर्षा ऋतु)

मई के महीने में उत्तर-पश्चिमी मैदानों में तापमान के तेजी से बढ़ने के कारण निम्न वायुदाब की दशाएँ और अधिक गहराने लगती हैं। जून के आरंभ में ये दशाएँ इतनी शक्तिशाली हो जाती हैं कि वे हिंद महासागर से आने वाली दक्षिणी गोलार्द्ध की व्यापारिक पवनों को आकर्षित कर लेती हैं। ये दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनें भूमध्य रेखा को पार करके बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में प्रवेश कर जाती हैं, जहाँ ये भारत के ऊपर विद्यमान वायु परिसंचरण में मिल जाती हैं। भूमध्यरेखीय गर्म समुद्री धाराओं के ऊपर से गुजरने के कारण ये पवनें अपने साथ पर्याप्त मात्रा में आर्द्रता लाती हैं। भूमध्यरेखा को पार करके इनकी दिशा दक्षिण-पश्चिमी हो जाती है। इसी कारण इन्हें दक्षिण-पश्चिमी मानसून कहा जाता है।

दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ॠतु में वर्षा अचानक आरंभ हो जाती है। पहली बारिश का असर यह होता है कि तापमान में काफी गिरावट आ जाती है। प्रचंड गर्जन और बिजली की कड़क के साथ इन आर्द्रता भरी पवनों का अचानक चलना प्रायः मानसून का ‘प्रस्फोट’ कहलाता है। जून के पहले सप्ताह में केरल, कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र के तटीय भागों में मानसून फट पड़ता है, जबकि देश के आंतरिक भागों में यह जुलाई के पहले सप्ताह तक हो पाता है। मध्य जून से मध्य जुलाई के बीच दिन के तापमान में $5^{\circ}$ से $8^{\circ}$ सेल्सियस की गिरावट आ जाती है।

ज्यों ही, ये पवनें स्थल पर पहुँचती हैं उच्चावच और उत्तर-पश्चिमी भारत पर स्थित तापीय निम्न वायुदाब इनकी दक्षिण-पश्चिमी दिशा को संशोधित कर देते हैं। भूखंड पर मानसून दो शाखाओं में पहुँचती है।

(i) अरब सागर की शाखा और
(ii) बंगाल की खाड़ी की शाखा

अरब सागर की मानसून पवनें

अरब सागर से उत्पन्न होने वाली मानसून पवनें आगे तीन शाखाओं में बँटती हैं :

(i) इसकी एक शाखा को पश्चिमी घाट रोकते हैं। ये पवनें पश्चिमी घाट की ढलानों पर 900 से

चित्र 4.2 : भारत : वायुभार एवं धरातलीय पवनें (जून-सितंबर)

1200 मीटर की ऊँचाई तक चढ़ती हैं। अतः ये पवनें तत्काल ठंडी होकर सह्याद्रि की पवनाभिमुखी ढाल तथा पश्चिमी तटीय मैदान पर 250 से 400 सेंटीमीटर के बीच भारी वर्षा करती हैं। पश्चिमी घाट को पार करने के बाद ये पवनें नीचे उतरती हैं और गरम होने लगती हैं। इससे इन पवनों की आर्द्रता में कमी आ जाती है। परिणामस्वरूप पश्चिमी घाट के पूर्व में इन पवनों से नाममात्र की वर्षा होती है। कम वर्षा का यह क्षेत्र वृष्टि-छाया क्षेत्र कहलाता है। कोज़ीखोड, मंगलोर, पुणे और बंगलोर में होने वाली वर्षा की मात्रा और उनमें अंतर ज्ञात कीजिए (चित्र 4.2)।

(ii) अरब सागर से उठने वाली मानसून की दूसरी शाखा मुंबई के उत्तर में नर्मदा और तापी नदियों की घाटियों से होकर मध्य भारत में दूर तक वर्षा करती है। छोटा नागपुर पठार में इस शाखा से 15 सेंटीमीटर वर्षा होती है। यहाँ यह गंगा के मैदान में प्रवेश कर जाती है और बंगाल की खाड़ी से आने वाली मानसून की शाखा से मिल जाती है।

(iii) इस मानसून की तीसरी शाखा सौराष्ट्र प्रायद्वीप और कच्छ से टकराती है। वहाँ से यह अरावली के साथ-साथ पश्चिमी राजस्थान को लाँघती है और बहुत ही कम वर्षा करती है। पंजाब और हरियाणा में भी यह बंगाल की खाड़ी से आने वाली मानसून की शाखा से मिल जाती है। ये दोनों शाखाएँ एक दूसरे के सहारे प्रबलित होकर पश्चिमी हिमालय विशेष रूप से धर्मशाला में वर्षा करती हैं।

बंगाल की खाड़ी की मानसून पवनें

बंगाल की खाड़ी की मानसून पवनों की शाखा म्यांमार के तट तथा दक्षिण-पूर्वी बांग्लादेश के एक थोड़े से भाग से टकराती है। किंतु म्यांमार के तट पर स्थित अराकान पहाड़ियाँ इस शाखा के एक बड़े हिस्से को भारतीय उपमहाद्वीप की ओर विक्षेपित कर देती है। इस प्रकार मानसून पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में दक्षिण-पश्चिमी दिशा की अपेक्षा दक्षिणी व दक्षिण-पूर्वी दिशा से प्रवेश करती है। यहाँ से यह शाखा हिमालय पर्वत तथा भारत के उत्तर-पश्चिम में स्थित तापीय निम्नदाब के प्रभावाधीन दो भागों में बँट जाती है, इसकी एक शाखा गंगा के मैदान के साथ-साथ पश्चिम की ओर बढ़ती है और पंजाब के मैदान तक पहुँचती है। इसकी दूसरी शाखा उत्तर व उत्तर-पूर्व में ब्रह्मपुत्र घाटी में बढ़ती है। यह शाखा वहाँ विस्तृत क्षेत्रों में वर्षा करती है। इसकी एक उपशाखा मेघालय में स्थित गारो और खासी की पहाड़ियों से टकराती है। खासी पहाड़ियों के शिखर पर स्थित मॉँसिनराम विश्व की सर्वाधिक औसत वार्षिक वर्षा प्राप्त करता है।

यहाँ यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि तमिलनाडु तट वर्षा ऋतु में शुष्क क्यों रह जाता है? इसके लिए दो कारक उत्तरदायी हैं।

(i) तमिलनाडु तट बंगाल की खाड़ी की मानसून पवनों के समानांतर पड़ता है।
(ii) यह दक्षिण-पश्चिमी मानसून की अरब सागर शाखा के वृष्टि-क्षेत्र में स्थित है।

मानसून के निवर्तन की ऋतु

अक्तूबर और नवंबर के महीनों को मानसून के निवर्तन की ऋतु कहा जाता है। सितंबर के अंत में सूर्य के दक्षिणायन होने की स्थिति में गंगा के मैदान पर स्थित निम्न वायुदाब की द्रोणी भी दक्षिण की ओर खिसकना आरंभ कर देती है। इससे दक्षिण-पश्चिमी मानसून कमजोर पड़ने लगता है। मानसून सितंबर के पहले सप्ताह में पश्चिमी राजस्थान से लौटता है। इस महीने के अंत तक मानसून राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी गंगा मैदान तथा मध्यवर्ती उच्चभूमियों से लौट चुकी होती है। अक्तूबर के आरंभ में बंगाल की खाड़ी के उत्तरी भागों में स्थित हो जाता है तथा नवंबर के शुरू में यह कर्नाटक और तमिलनाडु की ओर बढ़ जाता है। दिसंबर के मध्य तक निम्न वायुदाब का केंद्र प्रायद्वीप से पूरी तरह से हट चुका होता है।

मानसून के निवर्तन की ऋतु में आकाश स्वच्छ हो जाता है और तापमान बढ़ने लगता है। जमीन में अभी भी नमी होती है। उच्च तापमान और आर्द्रता की दशाओं से मौसम कष्टकारी हो जाता है। आमतौर पर इसे ‘कार्तिक मास की ऊष्मा’ कहा जाता है। अक्तूबर माह के उत्तरार्ध

चित्र 4.3 : भारत : वार्षिक वर्षा

में तापमान तेजी से गिरने लगता है। तापमान में यह गिरावट उत्तरी भारत में विशेष तौर पर देखी जाती है। मानसून के निवर्तन की ऋतु में मौसम उत्तरी भारत में सूखा होता है, जबकि प्रायद्वीप के पूर्वी भागों में वर्षा होती है। यहाँ अक्तूबर और नवंबर वर्ष के सबसे अधिक वर्षा वाले महीने होते हैं।

इस ऋतु की व्यापक वर्षा का संबंध चक्रवातीय अवदाबों के मार्गों से है, जो अंडमान समुद्र में पैदा होते हैं और दक्षिणी प्रायद्वीप के पूर्वी तट को पार करते हैं। ये उष्ण कटिबंधीय चक्रवात अत्यंत विनाशकारी होते हैं। गोदावरी, कृष्णा और अन्य नदियों के घने बसे डेल्टाई प्रदेश इन तूफानों के शिकार बनते हैं। हर साल चक्रवातों से यहाँ आपदा आती है। कुछ चक्रवातीय तूफान पश्चिम बंगाल, बांग्लादेश और म्यांमार के तट से भी टकराते हैं। कोरोमंडल तट पर होने वाली अधिकांश वर्षा इन्हीं अवदाबों और चक्रवातों से प्राप्त होती है। ऐसे चक्रवातीय तूफान अरब सागर में कम उठते हैं।

भारत की परंपरागत ऋतुएँ

भारतीय परंपरा के अनुसार वर्ष को द्विमासिक छः ऋतुओं में बाँटा जाता है। उत्तरी और मध्य भारत में लोगों द्वारा अपनाए जाने वाले इस ऋतु चक्र का आधार उनका अपना अनुभव और मौसम के घटक का प्राचीन काल से चला आया ज्ञान है, लेकिन ऋतुओं की यह व्यवस्था दक्षिण भारत की ऋतुओं से मेल नहीं खाती, जहाँ ऋतुओं में थोड़ी भिन्नता पाई जाती है।

ॠतु भारतीय कैलेंडर के
अनुसार महीने
ग्रेगोरियन कैलेंडर
के अनुसार महीने
बसंत चैत्र-बैसाख मार्च-अप्रैल
ग्रीष्म ज्येष्ठ-आषाढ़ मई-जून
वर्षा श्रावण-भाद्र जुलाई-अगस्त
शरद आश्विन-कार्तिक सितंबर-अक्तूबर
हेमंत मार्गशीष-पौष नवंबर-दिसंबर
शिशिर माघ-फाल्गुन जनवरी-फरवरी

वर्षा का वितरण

भारत में औसत वार्षिक वर्षा लगभग 125 सेंटोमीटर है, लेकिन इसमें क्षेत्रीय विभिन्नताएँ पाई जाती हैं (चित्र 4.3)।

अधिक वर्षा वाले क्षेत्रः अधिक वर्षा पश्चिमी तट, पश्चिमी घाट, उत्तर-पूर्व के उप-हिमालयी क्षेत्र तथा मेघालय की पहाड़ियों पर होती है। यहाँ वर्षा 200 सेंटीमीटर से अधिक होती है। खासी और जयंतिया पहाड़ियों के कुछ भागों में वर्षा 100 सेंटीमीटर से भी अधिक होती है। ब्रह्मपुत्र घाटी तथा निकटवर्ती पहाड़ियों पर वर्षा 200 सेंटीमीटर से भी कम होती है।

मध्यम वर्षा के क्षेत्र: गुजरात के दक्षिणी भाग, पूर्वी तमिलनाडु, ओडिशा सहित उत्तर-पूर्वी प्रायद्वीप, झारखंड, बिहार, पूर्वी मध्य प्रदेश, उपहिमालय के साथ संलग्न गंगा का उत्तरी मैदान, कछार घाटी और मणिपुर में वर्षा 100 से 200 सेंटोमीटर के बीच होती है।

न्यून वर्षा के क्षेत्र: पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, जम्मू व कश्मीर, पूर्वी राजस्थान, गुजरात तथा दक्कन के पठार पर वर्षा 50 से 100 सेंटीमीटर के बीच होती है।

अपर्याप्त वर्षा के क्षेत्र: प्रायद्वीप के कुछ भागों विशेष रूप से आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में, लद्दाख और पश्चिमी राजस्थान के अधिकतर भागों में 50 सेंटीमीटर से कम वर्षा होती है।

हिमपात हिमालयी क्षेत्रों तक सीमित रहता है।

मानचित्र का अवलोकन करते हुए वर्षा के प्रारूप पहचानिए।

मानसून और भारत का आर्थिक जीवन

(i) मानसून वह धुरी है जिस पर समस्त भारत का जीवन-चक्र घूमता है, क्योंकि भारत की 64 प्रतिशत जनता भरण-पोषण के लिए खेती पर निर्भर करती है, जो मुख्यतः दक्षिण-पश्चिमी मानसून पर आधारित है।

(ii) हिमालयी प्रदेशों के अतिरिक्त शेष भारत में वर्ष भर यथेष्ट गर्मी रहती है, जिससे सारा साल खेती की जा सकती है।

(iii) मानसून जलवायु की क्षेत्रीय विभिन्नता नाना प्रकार की फसलों को उगाने में सहायक है।

(iv) वर्षा की परिवर्तनीयता देश के कुछ भागों में सूखा अथवा बाढ़ का कारण बनती है।

(v) भारत में कृषि की समृद्धि वर्षा के सही समय पर आने तथा उसके पर्याप्त वितरित होने पर निर्भर करती है। यदि वर्षा नहीं होती तो कृषि पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जहाँ सिंचाई के साधन विकसित नहीं हैं।

(vi) मानसून का अचानक प्रस्फोट देश के व्यापक क्षेत्रों में मृदा अपरदन की समस्या उत्पन्न कर देता है।

(vii) उत्तर भारत में शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों द्वारा होने वाली शीतकालीन वर्षा रबी की फसलों के लिए अत्यंत लाभकारी सिद्ध होती है।

(viii) भारत की जलवायु की क्षेत्रीय विभिन्नता भोजन, वस्त्र और आवासों की विविधता में उजागर होती है।

भूमंडलीय तापन

आप जानते हैं कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। भूतकाल में जलवायु में भी भूमंडलीय एवं स्थानीय स्तर पर परिवर्तन हुए हैं। जलवायु में परिवर्तन आज भी हो रहे हैं, किंतु ये परिवर्तन अगोचर हैं। अनेक भूवैज्ञानिक साक्ष्य बताते हैं कि एक समय पृथ्वी के विशाल भाग बर्फ से ढके थे। आपने भूमंडलीय तापन पर वाद-विवाद सुना अथवा पढ़ा होगा। प्राकृतिक कारकों के अतिरिक्त भूमंडलीय तापन के लिए बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण तथा वायुमंडल में प्रदूषणकारी गैसों की वृद्धि जैसी मानवी क्रियाएँ भी महत्त्वपूर्ण उत्तरदायी कारक हैं। भूमंडलीय तापन की चर्चा करते समय आपने ‘हरित-गृह प्रभाव’ के बारे में भी सुना होगा।

विश्व के तापमान में काफी वृद्धि हो रही है। मानवीय क्रियाओं द्वारा उत्पन्न कार्बन डाईऑक्साइड की वृद्धि चिंता का मुख्य कारण है। जीवाश्म ईंधनों के जलने से वायुमंडल में इस गैस की मात्रा क्रमशः बढ़ रही है। कुछ अन्य गैसें जैसेः मीथेन, क्लोरो-फ्लोरो-कार्बन, ओजोन और नाइट्रस ऑक्साइड वायुमंडल में अल्प मात्रा में विद्यमान हैं। इन्हें तथा कार्बन डाईऑक्साइड को हरितगृह गैसें कहते हैं। कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में अन्य चार गैसें दीर्घ तरंगी विकिरण का ज्यादा अच्छी तरह से अवशोषण करती हैं, इसीलिए हरितगृह प्रभाव को बढ़ाने में उनका अधिक योगदान है। इन्हों के प्रभाव से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है।

विगत 150 वर्षों में पृथ्वी की सतह का औसत वार्षिक तापमान बढ़ा है। ऐसा अनुमान है कि सन् 2100 में भूमंडलीय तापमान में लगभग $2^{\circ}$ सेल्सियस की वृद्धि हो जाएगी। तापमान की इस वृद्धि से कई अन्य परिवर्तन भी होंगे। इनमें से एक है गर्मी के कारण हिमानियों और समुद्री बर्फ के पिघलने से समुद्र तल का ऊँचा होना। प्रचलित पूर्वानुमान के अनुसार औसत समुद्र तल 21 वीं शताब्दी के अंत तक $48^{\circ}$ से.मी. ऊँचा हो जाएगा। इसके कारण प्राकृतिक बाढ़ों की संख्या बढ़ जाएगी। जलवायु परिवर्तन से मलेरिया जैसी कीटजन्य बीमारियाँ बढ़ जाएँगी। साथ ही वर्तमान जलवायु सीमाएँ भी बदल जाएँगी, जिसके कारण कुछ भाग कुछ अधिक जलसिक्त (Wet) और अधिक शुष्क हो जाएँगे। कृषि के प्रतिरूप बदल जाएँगे। जनसंख्या और पारितंत्र में भी परिवर्तन होंगे। जरा सोचिए, यदि आज का समुद्र तल 50 से.मी. ऊँचा हो जाए, तो भारत के तटवर्ती क्षेत्रों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

अभ्यास

1. नीचे दिए गए चार विकल्पों में से सही उत्तर चुनिए:

(i) जाड़े के आरंभ में तमिलनाडु के तटीय प्रदेशों में वर्षा किस कारण होती है?
(क) दक्षिण-पश्चिमी मानसून
(ख) उत्तर-पूर्वी मानसून
(ग) शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात
(घ) स्थानीय वायु परिसंचरण

(ii) भारत के कितने भू-भाग पर 75 सेंटीमीटर से कम औसत वार्षिक वर्षा होती है?
(क) आधा
(ख) दो-तिहाई
(ग) एक-तिहाई
(घ) तीन-चौथाई

(iii) दक्षिण भारत के संदर्भ में कौन-सा तथ्य ठीक नहीं है?
(क) यहाँ दैनिक तापांतर कम होता है।
(ख) यहाँ वार्षिक तापांतर कम होता है।
(ग) यहाँ तापमान सारा वर्ष ऊँचा रहता है।
(घ) यहाँ जलवायु विषम पाई जाती है।

(iv) जब सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर रेखा पर सीधा चमकता है, तब निम्नलिखित में से क्या होता है?
(क) उत्तरी-पश्चिमी भारत में तापमान कम होने के कारण उच्च वायुदाब विकसित हो जाता है।
(ख) उत्तरी-पश्चिमी भारत में तापमान बढ़ने के कारण निम्न वायुदाब विकसित हो जाता है।
(ग) उत्तरी-पश्चिमी भारत में तापमान और वायुदाब में कोई परिवर्तन नहीं आता।
(घ) उत्तरी-पश्चिमी भारत में झुलसा देने वाली तेज लू चलती है।

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए:

(i) अंतःउष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र क्या है?
(ii) मानसून प्रस्फोट से आपका क्या अभिप्राय है? भारत में सबसे अधिक वर्षा प्राप्त करने वाले स्थान का नाम लिखिए।
(iii) उत्तर-पश्चिमी भारत में रबी की फसलें बोने वाले किसानों को किस प्रकार के चक्रवातों से वर्षा प्राप्त होती है? वे चक्रवात कहाँ उत्पन्न होते हैं?

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 125 शब्दों में लिखिए।

(i) जलवायु में एक प्रकार का ऐक्य होते हुए भी, भारत की जलवायु में क्षेत्रीय विभिन्नताएँ पाई जाती हैं। उपयुक्त उदाहरण देते हुए इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
(ii) भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार भारत में कितने स्पष्ट मौसम पाए जाते हैं? किसी एक मौसम की दशाओं की सविस्तार व्याख्या कीजिए।

परियो जना/क्रियाकलाप

भारत के रेखा मानचित्र पर निम्नलिखित को दर्शाइए:
(i) शीतकालीन वर्षा के क्षेत्र
(ii) ग्रीष्म ॠतु में पवनों की दिशा
(iii) जनवरी माह में $15^{\circ}$ सेल्सियस से कम तापमान वाले क्षेत्र
(iv) भारत पर $100^{\circ}$ सेंटीमीटर की समवर्षा रेखा।



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