अध्याय 03 पृथ्वी की आंतरिक संरचना

पथ्वी की प्रकृति के बारे में आप किस प्रकार का अनुमान लगाते हैं? क्या आपके अनुमान के अनुसार पृथ्वी क्रिकेट की गेंद की तरह एक ठोस गेंद है, या यह एक खोखली गेंद है, जिसपर चट्टानों की मोटी परत स्थलमंडल है। क्या आपने कभी टेलीविजन पर ज्वालामुखी उद्गार दिखाते हुए चित्रों को देखा है? क्या आपको ज्वालामुखी से निकलते हुए गर्म लावा, मिट्टी, धुआँ, आग तथा मैग्मा याद है? पृथ्वी के आंतरिक भाग को अप्रत्यक्ष प्रमाणों के आधार पर समझा जा सकता है, क्योंकि पृथ्वी के आंतरिक भाग में न तो कोई पहुँच सका है और न पहुँच सकता है।

पृथ्वी के धरातल का विन्यास मुख्यतः भूगर्भ में होने वाली प्रक्रियाओं का परिणाम है। बहिर्जात व अंतर्जात प्रक्रियाएँ लगातार भूदृश्य को आकार देती रहती हैं। अंतर्जात प्रक्रियाओं के प्रभाव को अनदेखा कर किसी भी क्षेत्र की भूआकृति की प्रकृति को समझना अधूरा होगा। (अर्थात् किसी भी प्रदेश की भूआकृति को समझने के लिए भूगर्भिक क्रियाओं के प्रभाव को जानना आवश्यक है।) मानव जीवन मुख्यतः अपनी क्षेत्रीय भूआकृति से प्रभावित होता है। इसलिए भूदृश्य के विकास को प्रभावित करने वाले सभी कारकों के विषय में जानना आवश्यक है। यह समझने के लिए कि पृथ्वी में कंपन क्यों होता है, या सुनामी लहरें कैसे पैदा होती हैं, यह ज़रूरी है कि हमें पृथ्वी की आंतरिक संरचना का विस्तृत ज्ञान हो। पिछले अध्याय में आपने पढ़ा कि पृथ्वी का निर्माण करने वाली, भू-पर्पटी (Crust) से क्रोड (Core) तक सभी पदार्थ परतों के रूप में विभाजित हैं। यह जानना भी अत्यंत रोचक है कि वैज्ञानिकों ने कैसे इन परतों के संबंध में जानकारी प्राप्त की और प्रत्येक परत की विशेषताओं के बारे में अनुमान लगाया। यह अध्याय इसी विषय से संबंधित है।

भूगर्भ की जानकारी के साधन

पृथ्वी की त्रिज्या 6,370 कि 0 मी 0 है। पृथ्वी की आंतरिक परिस्थितियों के कारण यह संभव नहीं है कि कोई पृथ्वी के केंद्र तक पहुँचकर उसका निरीक्षण कर सके या वहाँ के पदार्थ का कुछ नमूना प्राप्त कर सके। यह आश्चर्य की बात है कि ऐसी परिस्थितियों में भी वैज्ञानिक हमें यह बताने में सक्षम हुए कि भूगर्म की संरचना कैसी है और इतनी गहराई पर किस प्रकार के पदार्थ पाए जाते हैं? पृथ्वी की आंतरिक संरचना के विषय में हमारी अधिकतर जानकारी परोक्ष रूप से प्राप्त अनुमानों पर आधारित है। तथापि इस जानकारी का कुछ भाग प्रत्यक्ष प्रेक्षणों और पदार्थ के विश्लेषण पर भी आधारित है।

प्रत्यक्ष स्रोत

पृथ्वी से सबसे आसानी से उपलब्ध ठोस पदार्थ धरातलीय चट्टानें हैं, अथवा वे चट्टानें है, जो हम खनन क्षेत्रों से प्राप्त करते हैं। दक्षिणी अफ्रीका की सोने की खानें 3 से 4 कि 0 मी० तक गहरी हैं। इससे अधिक गहराई में जा पाना असंभव है, क्योंकि उतनी गहराई पर तापमान बहुत अधिक होता है। खनन के अतिरिक्त वैज्ञानिक, विभिन्न परियोजनाओं के अंतर्गत पृथ्वी की आंतरिक स्थिति को जानने के लिए पर्पटी में गहराई तक छानबीन कर रहे हैं। संसार भर के वैज्ञानिक दो मुख्य परियोजनाओं पर काम कर रहे हैं। ये हैं गहरे समुद्र में प्रवेधन परियोजना (Deep ocean drilling project) व समन्वित महासागरीय प्रवेधन परियोजना (Integrated ocean drilling project)। आज तक सबसे गहरा प्रवेधन (Drill) आर्कटिक महासागर में कोला (Kola) क्षेत्र में 12 कि 0 मी 0 की गहराई तक किया गया है। इन परियोजनाओं तथा बहुत सी अन्य गहरी खुदाई परियोजनाओं के अंतर्गत, विभिन्न गहराई से प्राप्त पदार्थों के विश्लेषण से हमें पृथ्वी की आंतरिक संरचना से संबंधित असाधारण जानकारी प्राप्त हुई है।

ज्वालामुखी उद्गार प्रत्यक्ष जानकारी का एक अन्य स्रोत है। जब कभी भी ज्वालामुखी उद्गार से लावा पृथ्वी के धरातल पर आता है, यह प्रयोगशाला अन्वेषण के लिए उपलब्ध होता है। यद्यपि इस बात का निश्चय कर पाना कठिन होता है कि यह मैग्मा कितनी गहराई से निकला है।

अप्रत्यक्ष स्रोत

पदार्थ के गुणधर्म के विश्लेषण से पृथ्वी के आंतरिक भाग की अप्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त होती है। खनन क्रिया से हमें पता चलता है कि पृथ्वी के धरातल में गहराई बढ़ने के साथ-साथ तापमान एवं दबाव में वृद्धि होती है। इतना ही नहीं, हमें यह भी पता चलता है कि गहराई बढ़ने के साथ-साथ पदार्थ का घनत्व भी बढ़ता है। तापमान, दबाव व घनत्व में इस परिवर्तन की दर को आँका जा सकता है। पृथ्वी की कुल मोटाई को ध्यान में रखते हुए, वैज्ञानिकों ने विभिन्न गहराइयों पर पदार्थ के तापमान, दबाव एवं घनत्व के मान को अनुमानित किया है। प्रत्येक परत के संदर्भ में इन लक्षणों का सविस्तार वर्णन इसी अध्याय में आगे किया गया है।

पृथ्वी की आंतरिक जानकारी का दूसरा अप्रत्यक्ष स्रोत उल्काएँ हैं, जो कभी-कभी धरती तक पहुँचती हैं। हाँलाकि, हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उल्काओं के विश्लेषण के लिए उपलब्ध पदार्थ पृथ्वी के आंतरिक भाग से प्राप्त नहीं होते हैं। परंतु उल्काओं से प्राप्त पदार्थ और उनकी संरचना पृथ्वी से मिलती-जुलती है। ये (उल्काएँ) वैसे ही पदार्थ के बने ठोस पिंड हैं, जिनसे हमारा ग्रह (पृथ्वी) बना है। अतः पृथ्वी की आंतरिक जानकारी के लिए उल्काओं का अध्ययन एक अन्य महत्वपूर्ण स्रोत है। अन्य अप्रत्यक्ष स्रोतों में गुरुत्वाकर्षण, चुंबकीय क्षेत्र, व भूकंप संबंधी क्रियाएँ शामिल हैं। पृथ्वी के धरातल पर भी विभिन्न अक्षांशों पर गुरुत्वाकर्षण बल एक समान नहीं होता है। यह (गुरुत्वाकर्षण बल) ध्रुवों पर अधिक एवं भूमध्यरेखा पर कम होता है। पृथ्वी के केंद्र से दूरी के कारण गुरुत्वाकर्षण बल ध्रुवों पर अधिक और भूमध्यरेखा पर कम होता है। गुरुत्व का मान पदार्थ के द्रव्यमान के अनुसार भी बदलता है। पृथ्वी के भीतर पदार्थों का असमान वितरण भी इस भिन्नता को प्रभावित करता है। अलग-अलग स्थानों पर गुरुत्वाकर्षण की भिन्नता अनेक अन्य कारकों से भी प्रभावित होती है। इस भिन्नता को गुरुत्व विसंगति (Gravity anomaly) कहा जाता है। गुरुत्व विसंगति हमें भूपर्पटी में पदार्थ के द्रव्यमान के वितरण की जानकारी देती है। चुंबकीय सर्वेक्षण भी भूपर्पटी में चुंबकीय पदार्थ के वितरण की जानकारी देते हैं। भूकंपीय गतिविधियाँ भी पृथ्वी की आंतरिक जानकारी का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। अतः हम कुछ विस्तार से इस पर चर्चा करेंगे।

भूकंप

भूकंपीय तरंगों का अध्ययन, पृथ्वी की आंतरिक परतों का संपूर्ण चित्र प्रस्तुत करता है। साधारण भाषा में भूकंप का अर्थ है- पृथ्वी का कंपन। यह एक प्राकृतिक घटना है। ऊर्जा के निकलने के कारण तरंगें उत्पन्न होती हैं, जो सभी दिशाओं में फैलकर भूकंप लाती हैं।

चित्र 3.1 : भूकंप-अभिलेख

पृथ्वी में कंपन क्यों होता है?

प्रायः भ्रंश के किनारे-किनारे ही ऊर्जा निकलती है। भूपर्पटी की शैलों में गहन दरारें ही भ्रंश होती हैं। भ्रंश के दोनों तरफ शैलें विपरीत दिशा में गति करती हैं। जहाँ ऊपर के शैलखंड दबाव डालते हैं, उनके आपस का घर्षण उन्हें परस्पर बाँधे रहता है। फिर भी, अलग होने की प्रवृत्ति के कारण एक समय पर घर्षण का प्रभाव कम हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप शैलखंड विकृत होकर अचानक एक दूसरे के विपरीत दिशा में सरक जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप ऊर्जा निकलती है और ऊर्जा तरंगे सभी दिशाओं में गतिमान होती हैं। वह स्थान जहाँ से ऊर्जा निकलती है, भूकंप का उद्गम केन्द्र (Focus) कहलाता है। इसे अवकेंद्र (Hypocentre) भी कहा जाता है। ऊर्जा तंरगें अलग-अलग दिशाओं में चलती हुई पृथ्वी की सतह तक पहुँचती हैं। भूतल पर वह बिंदु जो उद्गम केंद्र के समीपतम होता है, अधिकेंद्र (Epicentre) कहलाता है। अधिकेंद्र पर ही सबसे पहले तंरगों को महसूस किया जाता है। अधिकेंद्र उद्गम केंद्र के ठीक ऊपर ( 90 。 के कोण पर) होता है।

भूकंपीय तरंगें (Earthquake waves)

सभी प्राकृतिक भूकंप स्थलमंडल (Lithosphere) में ही आते हैं। इसी अध्याय में आगे आप पृथ्वी की विभिन्न परतों के बारे में पढ़ेंगे। अभी इतना समझ लेना पर्याप्त है कि स्थलमंडल पृथ्वी के धरातल से 200 कि 0 मी 0 तक की गहराई वाले भाग को कहते हैं। भूकंपमापी यंत्र (Seismograph) सतह पर पहुँचने वाली भूकंपतरंगों को अभिलेखित करता हैं। चित्र 3.1 भूकंपीय तंरगों का अभिलेखीय वक्र (Curve) दिखाता है। यह वक्र तीन अलग बनावट वाली तरंगों को प्रदर्शित करता है। बुनियादी तौर पर भूकंपीय तरंगें दो प्रकार की हैं - भूगर्भिक तरंगें (Body waves) व धरातलीय तरंगें (Surface waves)। भूगर्भिक तरंगें उद्गम केंद्र से ऊर्जा के मुक्त होने के दौरान पैदा होती हैं और पृथ्वी के अंदरूनी भाग से होकर सभी दिशाओं में आगे बढ़ती हैं। इसलिए इन्हें भूगर्भिक तरंगें कहा जाता है। भूगर्भिक तरंगों एवं धरातलीय शैलों के मध्य अन्योन्य क्रिया के कारण नई तरंगें उत्पन्न होती हैं जिन्हें धरातलीय तरंगें कहा जाता है। ये तरंगे धरातल के साथ-साथ चलती हैं। तंरगों का वेग अलग-अलग घनत्व वाले पदार्थों से गुजरने पर परिवर्तित हो जाता है। अधिक घनत्व वाले पदार्थों में तरंगों का वेग अधिक होता है। पदार्थों के घनत्व में भिन्नताएँ होने के कारण परावर्तन (Reflection) एवं आवर्तन (Refraction) होता है, जिससे इन तरंगों की दिशा भी बदलती है।

भूगर्भीय तरंगें भी दो प्रकार की होती हैं। इन्हें ’ $\mathrm{P}$ ' तरंगें व ’ $\mathrm{S}$ ’ तरंगें कहा जाता है। ’ $\mathrm{P}$ ’ तरंगें तीव्र गति से चलने वाली तरंगें हैं और धरातल पर सबसे पहले पहुँचती हैं। इन्हें ‘प्राथमिक तरंगें’ भी कहा जाता है। ’ $\mathrm{P}$ ’ तरंगें ध्वनि तरंगों जैसी होती हैं। ये गैस, तरल व ठोस-तीनों प्रकार के पदार्थों से गुजर सकती हैं। ‘S’ तरंगें धरातल पर कुछ समय अंतराल के बाद पहुँचती हैं। ये ‘द्वितीयक तरंगें’ कहलाती हैं। ’ $S$ ’ तरंगों के विषय में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ये केवल ठोस पदार्थों के ही माध्यम से चलती हैं। ’ $S$ ’ तरंगों की यह एक महत्वपूर्ण विशेषता है। इसी विशेषता ने वैज्ञानिकों को भूगर्भीय संरचना समझने में मदद की। परावर्तन (Reflection) से तरंगें प्रतिध्वनित होकर वापस लौट आती हैं, जबकि आवर्तन (Refrection) से तरंगें कई दिशाओं में चलती हैं। भूकंपलेखी पर बने आरेख से तरंगों की दिशा-भिन्नता का अनुमान लगाया जाता है। धरातलीय तरंगें भूकंपलेखी पर अंत में अभिलेखित होती हैं। ये तरंगें ज्यादा विनाशकारी होती हैं। इनसे शैल विस्थापित होती हैं और इमारतें गिर जाती हैं।

भूकंपीय तरंगों का संचरण

भिन्न-भिन्न प्रकार की भूकंपीय तरंगों के संचरित होने की प्रणाली भिन्न-भिन्न होती है। जैसे ही ये संचरित होती हैं तो शैलों में कंपन पैदा होती है। ’ $\mathrm{P}$ ’ तरंगों से कंपन की दिशा तरंगों की दिशा के समानांतर ही होती है। यह संचरण गति की दिशा में ही पदार्थ पर दबाव डालती है। इसके (दबाव) के फलस्वरूप पदार्थ के घनत्व में भिन्नता आती है और शैलों में संकुचन व फैलाव की प्रक्रिया पैदा होती है। अन्य तीन तरह की तरंगें संचरण गति के समकोण दिशा में कंपन पैदा करती हैं। ’ $S$ ’ तरंगें ऊर्ध्वाधर तल में, तरंगों की दिशा के समकोण पर कंपन पैदा करती हैं। अतः ये जिस पदार्थ से गुजरती हैं उसमें उभार व गर्त बनाती हैं। धरातलीय तरंगें सबसे अधिक विनाशकारी समझी जाती हैं।

छाया क्षेत्र का उद्भव

भूकंपलेखी यंत्र (Seismograph) पर दूरस्थ स्थानों से आने वाली भूकंपीय तरंगें अभिलेखित होती हैं। यद्यपि कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं जहाँ कोई भी भूकंपीय तरंग

चित्र 3.2 ( अ ) और ( ब) भूकंपीय छाया क्षेत्र (Earthquake shadow zones)

अभिलेखित नहीं होती। ऐसे क्षेत्र को भूकंपीय छाया क्षेत्र (Shadow zone) कहा जाता है। विभिन्न भूकंपीय घटनाओं के अध्ययन से पता चलता है कि एक भूकंप का छाया क्षेत्र दूसरे भूकंप के छाया क्षेत्र से सर्वथा भिन्न होता है। चित्र 3.2 अ और ब में ’ $\mathrm{P}$ ’ व ’ $\mathrm{S}$ ’ तरंगों का छाया क्षेत्र प्रदर्शित किया गया है। यह देखा जाता है कि भूकंपलेखी भूकंप अधिकेंद्र से $105^{\circ}$ के भीतर किसी भी दूरी पर ’ $\mathrm{P}$ ’ व ’ $\mathrm{S}$ ’ दोनों ही तरंगों का अभिलेखन करते हैं। भूकंपलेखी, अधिकेंद्र से $145^{\circ}$ से परे केवल ’ $\mathrm{P}$ ’ तरंगों के पहुँचने को ही दर्ज करते हैं और ’ $\mathrm{S}$ ’ तरंगों को अभिलेखित नहीं करते। अतः वैज्ञानिकों का मानना है कि भूकंप अधिकेंद्र से $105^{\circ}$ और $145^{\circ}$ के बीच का क्षेत्र (जहाँ कोई भी भूकंपीय तरंग अभिलेखित नहीं होती) दोनों प्रकार की तरगों के लिए छाया क्षेत्र (Shadow zone) हैं। $105^{\circ}$ के परे पूरे क्षेत्र में ’ $\mathrm{S}$ ’ तरंगें नहीं पहुँचतीं। ’ $\mathrm{S}$ ’ तरंगों का छाया क्षेत्र ’ $\mathrm{P}$ ’ तरंगों के छाया क्षेत्र से अधिक विस्तृत है। भूकंप अधिकेंद्र के $105^{\circ}$ से $145^{\circ}$ तक ’ $\mathrm{P}$ ’ तरंगों का छाया क्षेत्र एक पट्टी (Band) के रूप में पृथ्वी के चारों तरफ प्रतीत होता है। ’ $\mathrm{S}$ ’ तरंगों का छाया क्षेत्र न केवल विस्तार में बड़ा है, वरन् यह पृथ्वी के 40 प्रतिशत भाग से भी अधिक है। अगर आपको भूकंप अधिकेंद्र का पता हो तो आप किसी भी भूकंप का छाया क्षेत्र रेखांकित कर सकते हैं। (किसी भूकंप अधिकेंद्र को जानने का विवरण बॉक्स में पृष्ठ 28 में दिया गया है।)

भूकंप प्रकार

(i) सामान्यतः विवर्तनिक (Tectonic) भूकंप ही अधिक आते हैं। ये भूकंप भ्रंशतल के किनारे चट्टानों के सरक जाने के कारण उत्पन्न होते हैं।

(ii) एक विशिष्ट वर्ग के विवर्तनिक भूकंप को ही ज्वालामुखीजन्य (Volcanic) भूकंप समझा जाता है। ये भूकंप अधिकांशतः सक्रिय ज्वालामुखी क्षेत्रों तक ही सीमित रहते हैं।

(iii) खनन क्षेत्रों में कभी-कभी अत्यधिक खनन कार्य से भूमिगत खानों की छत ढह जाती है, जिससे हल्के झटके महसूस किए जाते हैं। इन्हें नियात (Collapse) भूकंप कहा जाता है।

(iv) कभी-कभी परमाणु व रासायनिक विस्फोट से भी भूमि में कंपन होती है। इस तरह के झटकों को विस्फोट (Explosion) भूकंप कहते हैं।

(v) जो भूकंप बड़े बाँघ वाले क्षेत्रों में आते हैं, उन्हें बाँध जनित (Reservoir induced) भूकंप कहा जाता है।

भूकंपों की माप

भूकंपीय घटनाओं का मापन भूकंपीय तीव्रता के आधार पर अथवा आघात की तीव्रता के आधार पर किया जाता है। भूकंपीय तीव्रता की मापनी ‘रिक्टर स्केल’ (Richter scale) के नाम से जानी जाती है। भूकंपीय तीव्रता भूकंप के दौरान ऊर्जा मुक्त होने से संबंधित है। इस

भूकंप द्वारा हुए नुकसान का एक दृश्य - उरी (LOC) में स्थित अमन सेतु (भारत)

मापनी के अनुसार भूकंप की तीव्रता 0 से 10 तक होती है। आघात की तीव्रता/गहनता (Intensity scale) को इटली के भूकंप वैज्ञानिक मरकैली (Mercalli) के नाम पर जाना जाता है। यह झटकों से हुई प्रत्यक्ष हानि द्वारा निर्धारित की जाती है। इसकी गहनता 1 से 12 तक होती है।

भूकंप के प्रभाव

भूकंप एक प्राकृतिक आपदा है। भूकंपीय आपदा से होने वाले प्रकोप निम्न हैं

(i) भूमि का हिलना

(ii) धरातलीय विसंगति

(iii) भू-स्खलन/पंकस्खलन

(iv) मृदा द्रवण (Soil liquefaction)

(v) धरातल का एक तरफ झुकना

(vi) हिमस्खलन

(vii) धरातलीय विस्थापन

(viii) बाँघ व तटबंघ के टूटने से बाढ़

(ix) आग लगना

(x) इमारतों का टूटना तथा ढाँचों का ध्वस्त होना

(xi) वस्तुओं का गिरना

(xii) सुनामी।

उपरोक्त सूचीबद्ध प्रभावों में से पहले छः का प्रभाव स्थलरूपों पर देखा जा सकता है जबकि अन्य को उस क्षेत्र में होने वाले जन व धन की हानि से समझा जा सकता है। ‘सुनामी’ का प्रभाव तभी पड़ेगा जब भूकंप का अधिकेंद्र समुद्री अधस्तल पर हो और भूकंप की तीव्रता बहुत अधिक हो। ‘सुनामी’ अपने आप में भूकंप नहीं है, ये वास्तव में लहरें हैं जो भूकंपीय तरंगों से उत्पन्न होती हैं। यद्यपि मूल रूप से कंपन की क्रिया कुछ सेकेंड ही रहती है, फिर भी यदि भूकंप की तीव्रता रिक्टर स्केल पर 5 से अधिक है तो इसके परिणाम अत्यधिक विनाशकारी होते हैं।

भूकंप की आवृत्ति

भूकंप एक प्राकृतिक आपदा है। तीव्र भूकंप के झटकों से जन व धन की अधिक हानि होती है। फिर भी ऐसा नहीं है कि विश्व के सभी भागों में तीव्र भूकंप ही आते हैं। केवल वही क्षेत्र जो भ्रंश के समीप हैं, ऐसे तीव्र झटके महसूस करते हैं। हम ज्वालामुखी व भूकंप के वितरण का वर्णन अगले अध्याय में पढ़ेंगे।

प्रायः यह देखा गया है कि रिक्टर स्केल पर 8 से अधिक तीव्रता वाले भूकंप के आने की संभावना बहुत ही कम होती है जो $1-2$ वर्षों में एक ही बार आते हैं। जबकि हल्के भूकंप लगभग हर मिनट पृथ्वी के किसी न किसी भाग में महसूस किए जाते हैं।

पृथ्वी की संरचना

भूपर्पटी (The Crust)

यह ठोस पृथ्वी का सबसे बाहरी भाग है। यह बहुत भंगुर (Brittle) भाग है जिसमें जल्दी टूट जाने की प्रवृत्ति पाई जाती है। भूपर्पटी की मोटाई महाद्वीपों व महासागरों के नीचे अलग-अलग है। महासागरों में भूपर्पटी की मोटाई महाद्वीपों की तुलना में कम है। महासागरों के नीचे इसकी औसत मोटाई 5 कि0 मी० है, जबकि महाद्वीपों के नीचे यह 30 कि 0 मी 0 तक है। मुख्य पर्वतीय शृंखलाओं के क्षेत्र में यह मोटाई और भी अधिक है। हिमालय पर्वत श्रेणियों के नीचे भूपर्पटी की मोटाई लगभग 70 कि0मी0 तक है।

6,378 कि०मी。

चित्र 3.3 : पृथ्वी का आंतरिक भाग

मैंटल (The Mantle)

भूगर्भ में पर्पटी के नीचे का भाग मैंटल कहलाता है। यह मोहो असांतत्य (Discontinuity) से आरंभ होकर 2,900 कि0 मी० की गहराई तक पाया जाता है। मैंटल का ऊपरी भाग दुर्बलतामंडल (Asthenosphere) कहा जाता है। ‘एस्थेनो’ (Astheno) शब्द का अर्थ दुर्बलता से है। इसका विस्तार 400 कि0मी0 तक आँका गया है। ज्वालामुखी उद्गार के दौरान जो लावा धरातल पर पहुँचता है, उसका मुख्य स्रोत यही है। भूपर्पटी एवं मैंटल का ऊपरी भाग मिलकर स्थलमंडल (Lithosphere) कहलाते हैं। इसकी मोटाई 10 से 200 कि० मी० के बीच पाई जाती है। निचले मैंटल का विस्तार दुर्बलतामंडल के समाप्त हो जाने के बाद तक है। यह ठोस अवस्था में है।

क्रोड (The Core)

जैसा कि पहले ही इंगित किया जा चुका है कि भूकंपीय तरंगों के वेग ने पृथ्वी के क्रोड को समझने में सहायता की है। क्रोड व मैंटल की सीमा 2,900 कि0मी० की गहराई पर है। बाहय क्रोड (Outer core) तरल अवस्था में है जबकि आंतरिक क्रोड (Inner core) ठोस अवस्था में है। क्रोड भारी पदार्थों मुख्यतः निकिल (Nickle) व लोहे (Ferrum) का बना है। इसे ‘निफे’ (Nife) परत के नाम से भी जाना जाता है।

ज्वालामुखी व ज्वालामुखी निर्मित स्थलरूप

आपने अनेक बार ज्वालामुखी के चित्र देखे होंगे। ज्वालामुखी वह स्थान है जहाँ से निकलकर गैसें, राख और तरल चट्टानी पदार्थ, लावा पृथ्वी के धरातल तक पहुँचता है। यदि यह पदार्थ कुछ समय पहले ही बाहर आया हो या अभी निकल रहा हो तो वह ज्वालामुखी सक्रिय ज्वालामुखी कहलाता है। तरल चट्टानी पदार्थ दुर्बलता मण्डल से निकल कर धरातल पर पहुँचता है। जब तक यह पदार्थ मैंटल के ऊपरी भाग में है, यह मैग्मा कहलाता है। जब यह भूपटल के ऊपर या ध रातल पर पहुँचता है तो लावा कहा जाता है। वह पदार्थ जो धरातल पर पहुँचता है, उसमें लावा प्रवाह, लावा के जमे हुए टुकड़ों का मलवा (ज्वलखण्डाश्मि), (Pyroclastic debris) ज्वालामुखी बम, राख, धूलकण व गैसें जैसे- नाइट्रोजन यौगिक, सल्फर यौगिक और कुछ मात्रा में क्लोरीन, हाइड्रोजन व आर्गन शामिल होते हैं।

ज्वालामुखी उद्गार की प्रवृत्ति और धरातल पर विकसित आकृतियों के आधार पर ज्वालामुखियों को वर्गीकृत किया जाता है। कुछ मुख्य ज्वालामुखी निम्न प्रकार से हैं:

शील्ड ज्वालामुखी (Shield volcanoes)

बेसाल्ट प्रवाह को छोड़कर, पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी ज्वालामुखियों में शील्ड ज्वालामुखी सबसे विशाल है। हवाई द्वीप के ज्वालामुखी इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। ये ज्वालामुखी मुख्यतः बेसाल्ट से निर्मित होते हैं जो तरल लावा के ठंडे होने से बनते हैं। यह लावा उद्गार के समय बहुत तरल होता है। इसी कारण इन ज्वालामुखियों का ढाल तीव्र नहीं होता। यदि किसी

शील्ड ज्वालामुखी

सिंडर शंकु

तरह निकास नालिका (Vent) से पानी भीतर चला जाए तो ये ज्वालामुखी विस्फोटक भी हो जाते हैं। अन्यथा कम विस्फोटक होना ही इनकी विशेषता है। इन ज्वालामुखियों से लावा फव्वारे के रूप में बाहर आता है और निकास पर एक शंकु (Cone) बनाता है, जो सिंडर शंकु (Cindar Cone) के रूप में विकसित होता है।

मिश्रित ज्वालामुखी (Composite volcanoes)

इन ज्वालामुखियों से बेसाल्ट की अपेक्षा अधिक ठंडे व श्यान (गाढ़ा या चिपचिपा) लावा उद्गार होते हैं। प्राय: ये ज्वालामुखी भीषण विस्फोटक होते हैं। इनसे लावा के साथ भारी मात्रा में ज्वलखण्डाश्मि (Pyroclastic) पदार्थ व राख भी धरातल पर पहुँचती हैं। यह पदार्थ निकास नली

मिश्रित ज्वालामुखी

के आस-पास परतों के रूप में जमा हो जाते हैं जिनके जमाव मिश्रित ज्वालामुखी के रूप में दिखते हैं।

ज्वालामुखी कुंड (Caldera)

ये पृथ्वी पर पाए जाने वाले सबसे अधिक विस्फोटक ज्वालामुखी हैं। आमतौर पर ये इतने विस्फोटक होते हैं कि जब इनमें विस्फोट होता है तब वे ऊँचा ढाँचा बनाने के बजाय स्वयं नीचे धँस जाते हैं। धँसे हुए विध्वंस गर्त (लावा के गिरने से जो गड्ढे बनते हैं) ही ज्वालामुखी कुंड (Caldera) कहलाते हैं। इनका यह विस्फोटक रूप बताता है कि इन्हें लावा प्रदान करने वाले मैग्मा के भंडार न केवल विशाल हैं, वरन् इनके बहुत पास स्थित हैं। इनके द्वारा निर्मित पहाड़ी मिश्रित ज्वालामुखी की तरह प्रतीत होती है।

बेसाल्ट प्रवाह क्षेत्र (Flood basalt provinces)

ये ज्वालामुखी अत्यधिक तरल लावा उगलते हैं जो बहुत दूर तक बह निकलता है। संसार के कुछ भाग हजारों वर्ग कि 0 मी 0 घने लावा प्रवाह से ढके हैं। इनमें लावा प्रवाह क्रमानुसार होता है और कुछ प्रवाह 50 मीटर से भी अधिक मोटे हो जाते हैं। कई बार अकेला प्रवाह सैकड़ों कि 0 मी 0 दूर तक फैल जाता है। भारत का दक्कन ट्रैप, जिस पर वर्तमान महाराष्ट्र पठार का ज्यादातर भाग पाया जाता है, वृहत् बेसाल्ट लावा प्रवाह क्षेत्र है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि आज की अपेक्षा, आरंभ में एक अधिक वृहत् क्षेत्र इस प्रवाह से ढका था।

मध्य-महासागरीय कटक ज्वालामुखी

इन ज्वालामुखियों का उद्गार महासागरों में होता है। मध्य महासागरीय कटक एक श्रृंखला है जो 70,000 कि0मी0 से अधिक लंबी है और जो सभी महासागरीय बेसिनों में फैली है। इस कटक के मध्यवर्ती भाग में लगातार उद्गार होता रहता है। अगले अध्याय में हम इसे विस्तारपूर्वक पढ़ेंगे।

ज्वालामुखी स्थलाकृतियाँ (Volcanic Landforms)

अंतर्वर्वी आकृतियाँ

ज्वालामुखी उद्गार से जो लावा निकलता है, उसके ठंडा होने से आग्नेय शैल बनती हैं। लावा का यह जमाव या तो धरातल पर पहुँच कर होता है या धरातल तक पहुँचने से पहले ही भूपटल के नीचे शैल परतों में ही हो जाता है। लावा के ठंडा होने के स्थान के आधार पर आग्नेय शैलों का वर्गीकरण किया जाता है 1. ज्वालामुखी शैलों (जब लावा धरातल पर पहुँच कर ठंडा होता है) और 2. पातालीय (Plutonic) शैल (जब लावा धरातल के नीचे ही ठंडा होकर जम जाता है)। जब लावा भूपटल के भीतर ही ठंडा हो जाता है तो कई आकृतियाँ बनती हैं। ये आकृतियाँ अंतर्वेधी आकृतियाँ (Intrusive forms) कहलाती हैं। इनमें से कुछ चित्र 3.4 में दिखाए गए हैं।

चित्र 3.4 : ज्वालामुखी स्थालाकृतियाँ

बैथोलिथ (Batholiths)

यदि मैग्मा का बड़ा पिंड भूपर्पटी में अधिक गहराई पर ठंडा हो जाए तो यह एक गुंबद के आकार में विकसित हो जाता है। अनाच्छादन प्रक्रियाओं के द्वारा ऊपरी पदार्थ के हट जाने पर ही यह धरातल पर प्रकट होते हैं। ये विशाल क्षेत्र में फैले होते हैं और कभी-कभी इनकी गहराई भी कई कि0मी0 तक होती है। ये ग्रेनाइट के बने पिंड हैं। इन्हें बैथोलिथ कहा जाता है जो मैग्मा भंडारों के जमे हुए भाग हैं।

लैकोलिथ (Lacoliths)

ये गुंबदनुमा विशाल अन्तर्वेधी चट्टानें हैं जिनका तल समतल व एक पाइपरूपी वाहक नली से नीचे से जुड़ा होता है। इनकी आकृति धरातल पर पाए जाने वाले मिश्रित ज्वालामुखी के गुंबद से मिलती है। अंतर केवल यह होता है कि लैकोलिथ गहराई में पाया जाता है। कर्नाटक के पठार में ग्रेनाइट चट्टानों की बनी ऐसी ही गुंबदनुमा पहाड़ियाँ हैं। इनमें से अधिकतर अब अपपत्रित (Exfoliated) हो चुकी हैं व धरातल पर देखी जा सकती हैं। ये लैकोलिथ व बैथोलिथ के अच्छे उदाहरण हैं।

लैपोलिथ, फैकोलिथ व सिल (Lapolith, phacolith and sills)

ऊपर उठते लावे का कुछ भाग क्षैतिज दिशा में पाए जाने वाले कमजोर धरातल में चला जाता है। यहाँ यह अलग-अलग आकृतियों में जम जाता है। यदि यह तश्तरी (Saucer) के आकार में जम जाए, तो यह लैपोलिथ कहलाता है। कई बार अन्तर्वेधी आग्नेय चट्टानों की मोड़दार अवस्था में अपनति (Anticline) के ऊपर व अभिनति (Syncline) के तल में लावा का जमाव पाया जाता है। ये परतनुमा/लहरदार चट्टानें एक निश्चित वाहक नली से मैग्मा भंडारों से जुड़ी होती हैं। (जो क्रमशः बैथोलिथ में विकसित होते हैं) यह ही फैकोलिथ कहलाते हैं।

अंतर्वेधी आग्नेय चट्टानों का क्षैतिज तल में एक चादर के रूप में ठंडा होना सिल या शीट कहलाता है। जमाव की मोटाई के आधार पर इन्हें विभाजित किया जाता है-कम मोटाई वाले जमाव को शीट व घने मोटाई वाले जमाव सिल कहलाते हैं।

डाइक

जब लावा का प्रवाह दरारों में धरातल के लगभग समकोण होता है और अगर यह इसी अवस्था में ठंडा हो जाए तो एक दीवार की भाँति संरचना बनाता है। यही संरचना डाइक कहलाती है। पश्चिम महाराष्ट्र क्षेत्र की अंतर्वेधी आग्नेय चट्टानों में यह आकृति बहुतायत में पाई जाती है। ज्वालामुखी उद्गार से बने दक्कन ट्रेप के विकास में डाइक उद्गार की वाहक समझी जाती हैं।

अभ्यास

1. बहुवैकल्पिक प्रश्न :

(i) निम्नलिखित में से कौन भूगर्भ की जानकारी का प्रत्यक्ष साधन है:
(क) भूकंपीय तरगें
(ख) गुरुत्वाकर्षण बल
(ग) ज्वालामुखी
(घ) पृथ्वी का चुंबकत्व

(ii) दक्कन ट्रैप की शैल समूह किस प्रकार के ज्वालामुखी उद्गार का परिणाम है:
(क) शील्ड
(ख) मिश्र
(ग) प्रवाह
(घ) कुंड

(iii) निम्नलिखित में से कौन सा स्थलमंडल को वर्णित करता है?
(क) ऊपरी व निचले मैंटल
(ख) भूपटल व क्रोड
(ग) भूपटल व ऊपरी मैंटल
(घ) मैंटल व क्रोड

(iv) निम्न में भूकम्प तरंगें चट्टानों में संकुचन व फैलाव लाती हैं :
(क) $\mathrm{P}$ ’ तरंगें
(ख) $\mathrm{S}$ ’ तरंगें
(ग) धरातलीय तरंगें
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए :

(i) भूगर्भीय तरंगें क्या हैं?

(ii) भूगर्भ की जानकारी के लिए प्रत्यक्ष साधनों के नाम बताइए।

(iii) भूकंपीय तरंगें छाया क्षेत्र कैसे बनाती हैं?

(iv) भूकंपीय गतिविधियों के अतिरिक्त भूगर्भ की जानकारी संबंधी अप्रत्यक्ष साधनों का संक्षेप में वर्णन करें।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए :

(i) भूकंपीय तरंगो के संचरण का उन चट्टानों पर प्रभाव बताएँ जिनसे होकर यह तरंगें गुजरती हैं।

(ii) अंतर्वेधी आकृतियों से आप क्या समझते हैं? विभिन्न अंतर्वेधी आकृतियों का संक्षेप में वर्णन करें।



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