अध्याय 06 रोजगार संवृद्धि, अनौपचारीकरण एवं अन्य मुद्दे

मेरी आपत्ति मशीन से नहीं, मशीन के प्रति सनक को लेकर है। इसी सनक का नाम श्रम का बचत करने वाली मशीनें हैं। हम उस सीमा तक श्रम की बचत करते जाएँगे, जब तक कि हजारों लोग बरोोजगार होकर भूखों मरने के लिए सड़कों पर नहीं फेंक दिए जाते।

महात्मा गाँधी

6.1 परिचय

लोग तरह-तरह के काम करते हैं। कुछ लोग खेतों, कारखानों, बैंकों, दुकानों आदि अनेक प्रकार के कार्यस्थलों पर काम करते हैं। कुछ व्यक्ति घर पर भी अन्य काम करते हैं। घर पर होने वाले काम अब बुनाई, फीते बनाना या हस्तकलाओं जैसे पारंपरिक कामों तक सीमित नहीं रह गए हैं, बल्कि इनमें सूचना-प्रौद्योगिकी उद्योग के प्रोग्राम बनाने जैसे आधुनिक काम भी शामिल हो चुके हैं। पहले कारखाने में काम करने का अर्थ किसी शहर में स्थित कर्मशाला में काम करना होता था, किंतु अब तो प्रौद्योगिकीय परिवर्तनों ने गाँव के घर में ही औद्योगिक उत्पादन संभव बना दिया है। कोविड-19 महामारी के दौरान, 2020-21 में, लाखों श्रमिकों ने घर से काम के माध्यम से अपने उत्पादों और सेवाओं को वितरित किया।

व्यक्ति कार्य क्यों करते हैं? कार्य की हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। लोग आजीविका के लिए कार्य करते हैं। कुछ लोगों को उत्तराधिकार के माध्यम से, कार्य किए बिना भी, धन मिल जाता है। किंतु, ऐसे धन से किसी को पूर्ण संतोष नहीं होता। किसी कार्य से जुड़ा रहना, हमें अपनी सार्थकता की अनुभूति प्रदान करता है - इसी के माध्यम से हम अन्य व्यक्तियों से सही अर्थों में संपर्क स्थापित करते हैं। प्रत्येक कार्यरत व्यक्ति सक्रिय रूप से राष्ट्रीय आय में योगदान

चित्र 6.1 बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ पंजाब के जालंधर शहर के एक घर में निर्मित फुटबाल को बिक्री करती हैं

करता है। इसी के माध्यम से वह विभिन्न आर्थिक क्रियाओं में भाग लेकर देश के आर्थिक विकास में हिस्सेदार बनता है। यही सही अर्थों में आजीविका उपार्जन है। हम केवल अपने लिए काम नहों करते; अपने ऊपर निर्भर व्यक्तियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कार्य करके भी उपलब्धि का अनुभव करते हैं। कार्य के इसी महत्त्व को समझ कर महात्मा गाँधी ने शिक्षा और हस्तकलाओं सहित विभिन्न प्रकार के कामों के माध्यम से प्रशिक्षण पर बल दिया था।

कार्य कर रहे व्यक्तियों के अध्ययन से हमें देश में रोजगार की प्रकृति और गुणवत्ता के विषय में एक गहरी अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है। इससे हमें अपने मानवीय संसाधनों को जानने और उनके उपयुक्त प्रयोग की योजनाएँ बनाने में भी सहायता मिलती है। इससे विभिन्न उद्योगों तथा क्षेत्रकों के राष्ट्रीय आय में योगदान का विश्लेषण करने में भी सहायता मिलती है। ये समाज के सीमांत-वर्गों, बाल-श्रमिकों आदि के शोषण की समस्याओं का निदान करने में भी सहायक सिद्ध होते हैं।

6.2 श्रमिक और रोजगार

रोजगार क्या है? श्रमिक कौन होता है? जब एक किसान खेतों में काम करता है तो वह खाद्यान्न और उद्योगों के लिए कच्चे माल का उत्पादन करता है। कपास ही कपड़े के कारखानों और विद्युतकरघों में कपड़े का रूप धारण कर लेता है। गाड़ियाँ सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाती हैं। हम जानते हैं कि किसी देश में एक वर्ष में उत्पादित सभी वस्तुओं और सेवाओं का कुल मौद्रिक मूल्य इसका ‘सकल घरेलू उत्पाद’ कहलाता है। हमें निर्यात के लिए मूल्य प्राप्त होता है और आयात का मूल्य चुकाना पड़ता है, इसमें हम देखते हैं कि देश का निवल अर्जन धनात्मक हो सकता है (यदि निर्यात का मूल्य आयात की अपेक्षा अधिक रहे) या ऋणात्मक हो सकता है (यदि आयात का मूल्य निर्यात की अपेक्षा अधिक रहे) या शून्य हो सकता है (यदि आयात और निर्यात के मूल्य समान हों)। हम प्राप्त अर्जनों का योग करते हैं (+ या -) तो हमें उस वर्ष के लिए देश का सकल घरेलू उत्पाद प्राप्त होता है।

सकल राष्ट्रीय उत्पाद में योगदान देने वाले सभी क्रियाकलापों को हम आर्थिक क्रियाएँ कहते हैं। वे सभी व्यक्ति जो आर्थिक क्रियाओं से संलग्न होते हैं, श्रमिक कहलाते हैं, चाहे वे उच्च या निम्न किसी भी स्तर पर कार्य कर रहे हैं। यदि इनमें से कुछ लोग बीमारी, ज़ख्म होने आदि शारीरिक कष्टों, खराब मौसम, त्यौहार या सामाजिक-धार्मिक उत्सवों के कारण अस्थायी रूप से काम पर नहीं आ पाते, तो भी उन्हें श्रमिक ही माना जाता है। इन कामों में लगे मुख्य श्रमिकों की सहायता करने वालों को भी हम श्रमिक ही मानते हैं। आमतौर पर हम ऐसा सोचते हैं कि जिन्हें काम के बदले नियोक्ता द्वारा कुछ भुगतान किया जाता है, उन्हें श्रमिक कहा जाता है। पर ऐसा नहीं है। जो व्यक्ति स्व-नियोजित होते हैं, वे भी श्रमिक ही होते हैं।

भारत में रोजगार की प्रकृति बहुमुखी है। कुछ लोगों को वर्ष भर रोजगार प्राप्त होता है, तो कुछ लोग वर्ष में कुछ महीने ही रोजगार पाते हैं। अधिकांश मजदूरों को अपने कार्य की उचित मजदूरी नहीं मिल पाती। वैसे श्रमिकों की संख्या का अनुमान लगाते समय जितने भी व्यक्ति

इन्हें कीजिए

  • आपके घर और पास-पड़ोस में कितनी ही महिलाएँ ऐसी होंगी, जिनके पास तकनीकी डिग्री तथा डिप्लोमा है। उनके पास काम करने के लिए समय भी है, पर वे कुछ नहीं करतीं। उनसे पूछ कर देखें कि वे काम क्यों नहीं कर रहीं। उन सभी कारणों की सूची बनाएँ और कक्षा में चर्चा करें कि क्या उन्हें काम पर जाना चाहिए। क्यों और कैसे उन्हें काम पर भेजा जा सकता है। कुछ समाजशास्त्रियों का तो आग्रह है कि घर सँभालने वाली गृहणियों का भी राष्ट्रीय आय में योगदान होता है, वे भी आर्थिक क्रियाओं में संलग्न रही हैं। भले ही उन्हें इसके लिए वेतन नहीं मिल रहा हो। अत: उन्हें भी श्रमबल का अंग माना जाना चाहिए। क्या आप इससे सहमत हैं?

आर्थिक कार्यों में लगे होते हैं, उन सबको रोजगार में लगे लोगों की श्रेणी में शामिल किया जाता है। आप विभिन्न आर्थिक क्रियाओं में लगे व्यक्तियों की संख्याएँ जानने को उत्सुक होंगे। वर्ष 2017-18 में भारत की कुल श्रम-शक्ति का आकार लगभग 471 मिलियन आँका गया था। क्योंकि देश के अधिकांश लोग ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते हैं, इसीलिए ग्रामीण श्रमबल का अनुपात भी शहरी श्रमबल से कहीं अधिक है। इन 471 मिलियन श्रमिकों में दो-तिहाई श्रमिक ग्रामीण हैं। भारत में श्रमशक्ति में पुरुषों की बहुलता है। श्रमबल में लगभग 70 प्रतिशत पुरुष तथा शेष (इसमें महिला तथा पुरुष बाल श्रमिकों को भी शामिल किया गया है) महिलाएँ हैं। ग्रामीण क्षेत्र में महिला श्रमिक कुल श्रमबल का एक तिहाई हैं, तो शहरों में केवल 20 प्रतिशत महिलाएँ ही श्रमबल में भागीदार पाई गई हैं। महिलाएँ खाना बनाने, पानी लाने, ईंधन बीनने के साथ-साथ खेतों में भी काम करती हैं। उन्हें नकद या अनाज के रूप में मजदूरी नहीं मिलती-कितने ही मामलों में तो कुछ भी भुगतान नहों किया जाता। इसी कारण इन महिलाओं को श्रमिक वर्ग में भी शामिल नहीं किया जाता। अर्थशास्त्रियों का आग्रह है कि इन महिलाओं को भी श्रमिक ही माना जाना चाहिए। आप क्या समझते हैं?

6.3 लोगों की रोजगार में भागीदारी

श्रमिक जनंसख्या अनुपात जिसका प्रयोग देश में रोजगार की स्थिति के विश्लेषण के लिए सूचक के रूप में किया जाता है, यह जानने में सहायक है कि जनसंख्या का कितना अनुपात वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में सक्रिय रूप से योगदान दे रहा है। यदि यह अनुपात अधिक है, तो इसका तात्पर्य है जनता की काम में भागीदारी अधिक होगी। यदि यह अनुपात मध्यम या कम हो, तो इसका अर्थ होगा कि देश की जनंसख्या का बहुत अधिक अनुपात प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक क्रियाओं में संलग्न नहीं है।

सारणी 6.1

भारत में कार्यकर्ता जनसंख्या अनुपात, 2017-2018

कार्यकर्ता जनसंख्या अनुपात
लिंग संपूर्ण ग्रामीण शहरी
पुरुष 52.1 51.7 53.0
स्त्री 16.5 17.5 14.2
संपूर्ण $\mathbf{3 4 . 7}$ $\mathbf{3 5 . 0}$ $\mathbf{3 3 . 9}$

स्रोत: भारत सरकार (2019)

आपने ‘जनसंख्या’ शब्द का अर्थ तो पिछली कक्षाओं में पढ़ लिया होगा। जनसंख्या शब्द का अभिप्राय किसी क्षेत्र विशेष में किसी समय विशेष पर रह रहे व्यक्तियों की कुल संख्या से है। यदि भारत के श्रमिक जनसंख्या अनुपात का आकलन करना चाहें, तो हमें भारत में कार्य कर रहे सभी श्रमिकों की संख्या को देश की जनसंख्या से भाग कर उसे 100 से गुणा करना होगा। इस प्रकार, हमें श्रमिक जनसंख्या अनुपात ज्ञात हो जायेगा ( 6.1 सारणी देखें)।

सारणी 6.1 भारत में विभिन्न आर्थिक क्रियाओं में लोगों की भागीदारी के विभिन्न स्तरों को स्पष्ट कर रही है। भारत में प्रत्येक 100 व्यक्तियों में से लगभग 35 श्रमिक हैं। शहरी क्षेत्रों में यह अनुपात लगभग 34 है, जबकि ग्रामीण भारत में यह अनुपात लगभग 35 है। ऐसा अंतर क्यों है? ग्रामीण क्षेत्रों में उच्च आय के अवसर सीमित हैं, इसी कारण रोजगार बाज़ार में उनकी भागीदारी अधिक है। अधिकांश व्यक्ति स्कूल, महाविद्यालय या किसी प्रशिक्षण संस्थान में नहीं जा पाते। यदि कुछ जाते भी हैं तो वे बीच में ही छोड़कर

इन्हें कीजिए

रोजगार संबंधी कोई भी अध्ययन श्रमिक जनसंख्या अनुपात से ही आरंभ होना चाहिए। क्यों?

आपने शायद देखा होगा कि कुछ समुदायों में यदि पुरुषों की आय पर्याप्त नहीं हो, तो भी वे अपने घर की महिलाओं को बाहर काम करने के लिए नहीं भेजते। ऐसा क्यों होता है?

श्रमशक्ति में शामिल हो जाते हैं। शहरी क्षेत्रों में एक बड़ा भाग विभिन्न शैक्षिक संस्थाओं में अध्ययन कर सकने में सक्षम है। शहरी जनसमुदाय को रोजगार के भी विविधतापूर्ण अवसर सुलभ हो जाते हैं। वे अपनी शिक्षा और योग्यता के अनुरूप रोजगार की तलाश में रहते हैं। किंतु ग्रामीण क्षेत्र के लोग घर पर नहीं बैठ सकते, क्योंकि उनकी आर्थिक दशा उन्हें ऐसा नहीं करने देती।

शहरी और ग्रामीण, दोनों ही वर्गों में पुरुषों की श्रमशक्ति भागीदारी महिलाओं की तुलना में अधिक है। शहरी क्षेत्रों में तो पुरुष और महिला भागीदारी का अंतर बहुत ही बड़ा है-केवल 15 प्रतिशत शहरी महिलाएँ ही किसी आर्थिक कार्य में व्यस्त दिखाई दे रही है। किंतु, ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं की रोजगार बाज़ार में भागीदारी 25 प्रतिशत आँकी गई। महिलाएँ सामान्य और विशेष रूप से शहरों में काम क्यों नहीं कर रही हैं? यह बात देखने में आई है कि जहाँ कहीं भी पुरुष पर्याप्त रूप से उच्च आय अर्जित करने में सफल रहते हैं, परिवार की महिलाओं को घर से बाहर रोजगार प्राप्त करने से प्रायः निरुत्साहित किया जाता है।

हमने पहले भी कहा है कि महिलाओं द्वारा की जाने वाली घरेलू गतिविधियों को आर्थिक या उत्पादन कार्य ही नहीं माना जाता। कार्य या रोजगार की यह संकीर्ण परिभाषा देश में महिला-वर्ग की श्रमबल में भागीदारी को नहीं मानती तथा इसलिए देश में महिला श्रमिकों की संख्या को कम आँका जाता है। जरा सोचकर देखिए, कि घर के भीतर और खेतों में महिलाएँ कितने ऐसे काम करती हैं, जिनका उन्हें कोई भुगतान नहीं किया जाता। चूँकि वे परिवार तथा खेतों के रख-रखाव में निश्चित रूप से योगदान देती हैं, क्या आपको नहीं लगता की उनकी संख्या भी महिला श्रमिकों में सम्मिलित की जानी चाहिए?

स्रोत: भारत सरकार (2019)

यह भी जान सकेंगे कि श्रमिक का अपने काम से कितना लगाव है और अपने सहकर्मियों तथा उद्यम के प्रति उसके अधिकार क्या हैं? आइए, निर्माण उद्योग के तीन कर्मियों की तुलना करें: एक सीमेंट की दुकान का स्वामी है, दूसरा निर्माण मजदूर है तो तीसरा निर्माण करने वाली कंपनी का एक सिविल इंजीनियर है। इन तीनों के पद अथवा प्रतिष्ठा में अंतर है, जिन्हें विभिन्न नामों से भी संबोधित किया जाता है। जो अपने उद्यम के स्वामी और संचालक हैं, उन्हें स्वनियोजित कहा जाता है। इस प्रकार सीमेंट की दुकान का स्वामी स्वनियोजित है।

6.4 स्वनियोजित तथा भाड़े के श्रमिक

क्या श्रमिक जनसंख्या अनुपात समाज में श्रमिकों की स्थिति और कार्य की दशाओं के विषय में भी कुछ जानकारी देता है? यदि किसी उद्यम में श्रमिक के स्तर या पद की जानकारी मिल सके, तो निश्चय ही देश में रोजगार के गुणवत्ता वेर आयामों की जानकारी प्राप्त करना संभव होगा। इससे हम

चित्र 6.2 ईंट निर्माण : अनियत कार्य का एक प्रकार

इन्हें कीजिए

आमतौर पर हम यह मान लेते हैं कि जो लोग नियमित या अस्थाई आधार पर कृषि श्रमिक, कारखाना मजदूर या किसी बैंक अथवा कार्यालय में सहायक लिपिक है, वही श्रमिक हैं। इस अध्याय की अब तक की चर्चा से आप समझ चुके होंगे कि स्वनियोजित जैसे, पटरी पर सब्जियाँ बेचने वाले, वकील, डॉक्टर, इंजीनीयर आदि सभी व्यक्ति श्रमिक या कामगार होते हैं। निम्न श्रेणियों के कामगारों का स्वनियोजन, नियमित वेतनभोगी कर्मचारी तथा आकस्मिक दिहाड़ी मजदूरों में वर्गीकरण को इंगित करने के लिए इनके सामने ‘क’ ख और ‘ग’ अंकित करें:

1. नाई की दुकान का मालिक।

2. चावल मिल का कर्मचारी, जो नियमित रूप से नियुक्त हो किंतु जिसे नियमित रूप से दैनिक मजदूरी मिलती हो।

3. भारतीय स्टेट बैंक का एक कोषपाल।

4. राज्य सरकार के कार्यालय का टाइपिस्ट जिसे दैनिक मजदूरी आधार पर रखा गया है, पर मासिक भुगतान किया जाता है।

5. हथकरघा बुनकर।

6. थोक सब्जी की दुकान पर माल ढोने वाला मजदूर।

7. शीतल पेय की दुकान का स्वामी जो पेप्सी, कोक, मिरिंडा आदि बेचता है।

8. किसी निजी अस्पताल में 5 वर्षों से नियमित कार्य कर रही नर्स, जिसे मासिक वेतन मिलता है।

अर्थशास्त्रियों का कहना है कि अनियत दिहाड़ी मजदूर की दशा तीनों वर्गों में सबसे अधिक असुरक्षित है। क्या आप जानते हैं कि ये मजदूर कौन हैं, इन्हें कहाँ पाया जाता है और क्यों?

क्या हम कह सकते हैं कि स्वनियोजित व्यक्ति दिहाड़ी मजदूरों और वेतनभोगियों से अधिक कमा लेते हैं? रोजगार की गुणवत्ता के कुछ अन्य सूचकों की भी पहचान करें।

भारत का लगभग आधा श्रमबल इसी श्रेणी में आता है। निर्माण मजदूर अनियत मजदूरी वाले श्रमिक कहलाते हैं। ये भारत की श्रमशक्ति का लगभग 25 प्रतिशत हैं। ऐसे ही मजदूर अन्य लोगों के खेतों में अनियत रूप से कार्य करते हैं और उसके बदले में पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं। निर्माण कंपनी के अभियंता के रूप में काम कर रहे व्यक्ति श्रमशक्ति का मात्र 23 प्रतिशत ही हैं। जब किसी श्रमिक को कोई व्यक्ति या उद्यम नियमित रूप से काम पर रख

स्रोत: भारत सरकार (2019)

उसे मजदूरी (वेतन) देता है, तो वह श्रमिक नियमित वेतन भोगी कर्मचारी कहलाता है। (सारणी 6.3 देखें)

चित्र 6.1 को ध्यान से देखिए। इससे पता चल रहा है कि भारत में पुरुष और महिला श्रमिकों के 50 प्रतिशत से अधिक तो स्वरोजगारी वर्ग में ही आते हैं। अतः स्वरोजगार ही देश की आजीविका का सबसे प्रमुख स्रोत है। अनियत मजदूरी कार्य पुरुषों और महिलाओं के लिए रोजगार का दूसरा प्रमुख स्रोत है। इस अनियत रोजगार में महिलाओं का अंश (24-27 प्रतिशत) पुरुषों से अधिक पाया गया है। नियमित वेतनभोगी रोजगारधारियों में पुरुष एवं महिलाएँ, दोनों अधिक अनुपात में लगे हुए हैं। देश के 23 प्रतिशत पुरुष नियमित वेतनभोगी हैं और इस वर्ग में 21 प्रतिशत महिलाएँ हैं। पुरुषों और महिलाओं के बीच का अंतर बहुत कम है।

चित्र 6.3 सिले-सिलाए वस्त्रों के कारीगरः महिलाओं को भविष्य में प्राप्त होने वाले रोजगार के केंद्र

यदि ग्रामीण और शहरी श्रमबल के वितरण की तुलना करें तो चार्ट 6.2 के अनुसार, हमें ज्ञात होता है कि अनियत मजदूरी पाने वाले श्रमिक स्वनियोजित तथा ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक हैं। शहरों में स्वनियोजित और नियमित वेतन वाले रोजगार की संख्या अधिक है। गाँवों में अधिकांश ग्रामीण अपनी जमीन के टुकड़ों पर निर्भर हैं जो स्वतंत्र रूप से खेती करते हैं, अतः स्वनियोजन में उनकी भागीदारी अधिक है। शहरी क्षेत्रों में काम का स्वरूप भी अलग होता है। हर व्यक्ति कारखाना, दुकान और कार्यालयों का संचालक नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त शहरी उद्यमों में नियमित रूप से श्रमिकों की आवश्यकता होती है।

6.5 फर्मों, कारखानों तथा कार्यालयों में रोजगार

देश के आर्थिक विकास क्रम में श्रमशक्ति का कृषि तथा अन्य संबंधित क्रियाकलापों से उद्योगों और सेवाओं की ओर प्रवाह होता है। इसी प्रक्रिया में मजदूर ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों में प्रवसन करते हैं। धीरे-धीरे उद्योग भी सकल रोजगार में अपना अंश खोने लगते हैं, क्योंकि सेवा क्षेत्रक में बहुत तीव्र दर पर प्रसार होने लगता है। श्रमशक्ति के कार्यानुसार या उद्योगवार वितरण से रोजगार स्वरूप के ये परिवर्तन सहज ही स्पष्ट हो जाते हैं। समान्यतया आर्थिक क्रियाओं को आठ विभिन्न औद्योगिक वर्गों में विभाजित करते हैं। ये हैं: (क) कृषि (ख) खनन और उत्बनन (ग) विनिर्माण (घ) विद्युत, गैस एवं

इन्हें कीजिए

सभी समाचार-पत्रों में रोजगार अवसरों से जुड़ा एक भाग होता है। कुछ तो प्रति सप्ताह (दैनिक भी) रोजगार पर एक विशेष परिशिष्ट भी निकालते हैं - चाहे द हिन्दू का ‘ऑपोर्चुनिटीज’ हो या द टाइम्स ऑफ इंडिया का ‘एसेंट’। अनेक कंपनियाँ अपनी रिक्तियों का विज्ञापन इनमें करती हैं। इन स्तंभों को काट लीजिए और एक सारणी बनाइए, जिसके चार स्तंभ हों: कंपनी, (सार्वजनिक या निजी), पद का नाम, रिक्तियाँ, क्षेत्रक, (प्राथमिक, द्वितीयक या तृतीयक) और आवश्यक योग्यताएँ। इस सारणी के आधार पर कक्षा में समाचार-पत्रों में विज्ञापित रोजगार अवसरों पर चर्चा करें।

जलापूर्ति (ङ) निर्माण कार्य (च) वाणिज्य (छ) परिवहन और भंडारण तथा (ज) सेवाएँ। सरलता के लिए सभी कार्ययुक्त व्यक्तियों को तीन प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। ये हैं: (1) प्राथमिक क्षेत्रक, जिसमें (क) तथा (ख) सम्मिलित है। (2) द्वितीयक क्षेत्रक जिसमें (ग) (घ) तथा (ङ) को शामिल किया जाता है। (3) इसे सेवा क्षेत्रक कहते हैं और इसमें शेष तीनों उपवर्ग (ग), (घ) तथा (ङ) को रखा जाता है। सारणी 6.2 में हम भारत में वर्ष 2017-18 में विभिन्न उद्योगों में कार्यरत श्रमिकों के विषय में जानकारी दे रहे हैं।

भारत में अधिकांश श्रमिकों के रोजगार का स्रोत प्राथमिक क्षेत्रक ही है। द्वितीयक क्षेत्रक केवल लगभग 24 प्रतिशत श्रमबल को नियोजित कर रहा है। लगभग 31 प्रतिशत श्रमिक सेवा क्षेत्रक में संलग्न हैं। सारणी 6.2 भी यह स्पष्ट कर रही है कि ग्रामीण भारत की लगभग 60 प्रतिशत श्रमशक्ति कृषि, वन और मत्स्य पर निर्भर है। लगभग 20 प्रतिशत ग्रामीण श्रमिक ही विनिर्माण उद्योगों, निर्माण और अन्य क्षेत्रों में लगे हुए हैं। केवल 20 प्रतिशत ग्रामीण श्रमिकों को सेवा क्षेत्र से ही रोजगार मिलता है। किंतु, शहरी क्षेत्रकों में कृषि और खनन रोजगार के

सारणी 6.2

उद्योग में कार्यबल का वितरण, 2017-18 (%)

औद्योगिक वर्ग निवास स्थान लिंग कुल
ग्रामीण शहरी पुरुष महिला
प्राथमिक क्षेत्रक 59.8 6.6 40.7 57.1 44.6
द्वितीयक क्षेत्रक 20.4 34.3 26.5 17.7 24.4
तृतीयक/सेवा क्षेत्रक 19.8 59.1 32.8 25.2 31.0
कुल $\mathbf{1 0 0}$ $\mathbf{1 0 0}$ $\mathbf{1 0 0}$ $\mathbf{1 0 0}$ $\mathbf{1 0 0}$

प्रमुख स्रोत नहीं हैं, जहाँ अधिकांश लोग सेवा क्षेत्रक में कार्यरत हैं। 60 प्रतिशत शहरी श्रमिक सेवा क्षेत्रक में हैं। लगभग एक-तिहाई शहरी श्रमिक द्वितीयक क्षेत्रक में नियोजित हैं।

यद्यपि प्राथमिक क्षेत्रक में पुरुष और महिला दोनों ही प्रकार के श्रमिक संकेंद्रित हैं, पर वहाँ महिलाओं का संकेंद्रण बहुत अधिक है। इस प्राथमिक क्षेत्रक में लगभग 57 प्रतिशत महिलाएँ कार्यरत हैं-जबकि इस क्षेत्र में काम कर रहे पुरुषों की संख्या आधे से कम है। पुरुषों को द्वितीयक और सेवा क्षेत्रक दोनों में ही रोजगार के अवसर प्राप्त हो जाते हैं।

6.6 संवृद्धि एवं परिवर्तनशील रोजगार संरचना

आपने अध्याय 02 और 3 में विस्तार से नियोजन-रणनीतियों के बारे में पढ़ा था। यहाँ हम केवल दो विकास सूचकों पर विचार करेंगे। ये हैं, रोजगार संवृद्धि और सकल घरेलू उत्पाद। लगभग सत्तर वर्षों से चल रहे योजनाबद्ध विकास का ध्येय राष्ट्रीय उत्पाद और रोजगार में वृद्धि के माध्यम से अर्थव्यवस्था का प्रसार रहा है।

1960-2010 की अवधि में भारत में सकल घरेलू उत्पाद में सकारात्मक वृद्धि हुई है और यह संवृद्धि दर रोजगार वृद्धि दर से अधिक रही है। किंतु, सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में कुछ उतार-चढ़ाव भी आते रहे हैं। पर इस अवधि में रोजगार की वृद्धि लगभग 2 प्रतिशत बनी रही।

स्रोत: की इंडिकेटर्स ऑफ एंप्लॉयमेंट एंड अनएंप्लॉयमेंट इन इंडिया, 2011-12, NSS 68 राउंड, नेशनल स्टेटिस्टिकल ऑरगेनाइजे़शन, नेशनल सेंपल सर्वे ऑफिस, मिनिस्ट्री ऑफ स्टेटिस्टिक्स एंड प्रोग्राम इंप्लीमेंेेशन, भारत सरकार, जनवरी 2014

सारणी 6.3

रोजगार पद्धत्ति की प्रवृत्तियाँ (क्षेत्रक और स्थिति), 19722018 (प्रतिशत में)

मद 197273 1983 199394 $2011-12$ $2017-18$
क्षेत्रक
प्राथमिक 74.3 68.6 64 48.9 44.6
द्वितीयक 10.9 11.5 16 24.3 24.4
सेवा 14.8 16.9 20 26.8 31.0
योग 100 $\mathbf{1 0 0}$ $\mathbf{1 0 0}$ $\mathbf{1 0 0}$ 100
स्थिति
स्वनियोजित 61.4 57.3 54.6 52.0 52.2
नियमित वेतनभोगी कर्मचारी 15.4 13.8 13.6 18.0 22.8
अनियत दिहाड़ी मजदूर 23.2 28.9 31.8 30.0 25.0
योग 100 100 100 $\mathbf{1 0 0}$ 100

चार्ट $6.3,1990$ के दशक के अंतिम वर्षों में एक अन्य चिताजनक घटनाक्रम की ओर भी इंगित कर रहा है: रोजगार वृद्धि दर कम होकर उसी स्तर पर पहुँच गई, जहाँ से योजनाकाल के प्रारंभिक चरणों में थी। इन्हीं वर्षों के दौरान हम सकल घरेलू उत्पाद और रोजगार की वृद्धि दरों के बीच काफी बड़ा अंतर पाते हैं। इसका अर्थ यह है कि हम भारतीय अर्थव्यवस्था में रोजगार सृजन के बिना ही अधिक वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करने में समक्ष रहे हैं। इस परिघटना को विद्वान ‘रोजगारहीन संवृद्धि’ का नाम दे रहे हैं। अभी तक हमने देखा कि रोजगार सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि की तुलना में किस तरह बढ़ा है। अब यह जानना भी आवश्यक है कि रोजगार और सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दरों के इन स्वरूपों ने विभिन्न वर्गों के श्रमबल पर किस प्रकार के प्रभाव डाले। इससे हम समझ पाएँगगे कि हमारे देश में किस प्रकार के रोजगार अवसरों का सृजन हो रहा है।

आइए, पिछले खंड में बताए गए दो सूचकों पर एक बार फिर से विचार करें। ये सूचक हैं, विभिन्न उद्योगों में लोगो को मिले रोजगार तथा उनकी स्थितियाँ। हम जानते हैं कि भारत कृषि प्रधान देश है। जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग ग्रामीण क्षेत्रों में बसा है और यह अपनी मुख्य आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है। भारत सहित अनेक देशों के विकास रणनीतियों का ध्येय कृषि पर निर्भर जनसंख्या के अनुपात को कम करना रहा है।

इन्हें कीजिए

  • क्या आप जानते हैं कि भारत जैसे देश में रोजगार वृद्धि की दर को 2 प्रतिशत स्तर पर बनाए रखना इतना आसान काम नहीं है? क्यों?

  • यदि अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त रोजगार के सृजन बिना ही अधिक वस्तुओं और सेवाओं का उत्पाद करने में सफलता मिल जाए, तो क्या होगा? यह रोजगारहीन संवृद्धि कैसे संभव हो पाती है?

  • अर्थशास्त्रियों का कहना है कि यदि श्रम के अनियतीकरण से जनता की आय में वृद्धि हो रही हो, तो इस प्रक्रिया का स्वागत होना चाहिए। कल्पना करें कि एक सीमांत किसान को पूर्णकालिक कृषि मजदूर बना दिया जाए। क्या आप सोचते हैं कि दिहाड़ी मजदूरी के इस कार्य से यदि उसकी आय में वृद्धि हो जाए, तो क्या वह अधिक प्रसन्न होगा? या, औषधि उद्योग के एक श्रमिक को दिहाड़ी मजदूर बना दिया और उसकी संपूर्ण आय भी बढ़ जाये, तो क्या वह प्रसन्न होगा? कक्षा में इन दोनों उदाहरणों के सभी पक्षों पर चर्चा करें।

औद्योगिक क्षेत्रकों के आधार पर श्रमबल का वितरण यह दिखाता है कि श्रमबल कृषि कार्यों से हटकर गैर कृषि कार्यों की ओर बड़े पैमाने पर बढ़ रहा है (सारणी 6.3 देखें)। जहाँ $1972-73$ में प्राथमिक क्षेत्रक में 74 प्रतिशत श्रम बल लगा था, वहीं 2011-12 में यह अनुपात घटकर 50 प्रतिशत रह गया है। द्वितीयक और सेवा क्षेत्रक भारत के श्रमबल के लिए आशावादी भविष्य का संकेत दे रहे हैं। आप देखेंगे कि इन क्षेत्रकों की हिस्सेदारी क्रमशः 11 से बढ़कर 24 और 15 से बढ़कर 27 प्रतिशत हो गई है।

विभिन्न स्थितियों में श्रमबल के वितरण को देखें तो पिछले पाँच दशकों (1972-2018) में लोग स्वरोजगार और नियमित वेतन-रोजगार से हटकर अनियत श्रम की ओर बढ़ रहे हैं। फिर भी स्वरोजगार, रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत बना हुआ है। सारणी 6.3 के अंतिम कॉलम को देखें। वर्ष 2011-18 के दौरान माध्यमिक क्षेत्र में स्थिरता और स्वरोजगार में मध्यम वृद्धि से क्या समझते हैं? कक्षा में चर्चा करें। विशेषज्ञ स्वरोजगार तथा नियमित वेतन से अनियत श्रम रोजगार की ओर जाने की प्रक्रिया को श्रम बल के अनियतीकरण का नाम देते हैं। इससे मजदूरों की दशा बहुत नाजुक हो जाती है। यह कैसे हो रहा है? बॉक्स 6.2 में वर्णित अहमदाबाद का विशेष अध्ययन देखें। आप इसी बीच में (2017-18) नियमित वेतनभोगी कर्मचारियों के हिस्से में मध्यम वृद्धि को भी देखिए। आप इस प्रक्रिया को कैसे समझाएँगे?

बॉक्स 6.1 औपचारिक क्षेत्रक में रोजगार

संघीय श्रम मंत्रालय देश के विभिन्न भागों में स्थित रोजगार कार्यालयों के माध्यम से औपचारिक क्षेत्र में रोजगार संबंधित जानकारियाँ एकत्र करता है। क्या आप जानते हैं कि औपचारिक क्षेत्रक में सबसे बड़ा रोजगारदाता कौन है? वर्ष 2012 में इस क्षेत्रक में कार्य कर रहे 30 मिलियन कर्मचारियों में से 1.8 करोड़ कर्मचारी सार्वजनिक क्षेत्रक में कार्यरत थे। यहाँ भी पुरुषों का ही वर्चस्व है - महिलाएँ औपचारिक क्षेत्र के कर्मचारियों की केवल $1 / 16$ अंश ही थीं। अर्थशास्त्रियों ने पाया है कि 1991 से आर्थिक सुधार प्रक्रिया ने औपचारिक क्षेत्र में कार्य कर रहे कर्मियों की संख्या को कम किया है। आपका क्या मत है?

6.7 भारतीय श्रमबल का अनौपचारीकरण

चित्र 6.4 सड़कों के किनारे दुकानदारी: अनौपचारिक क्षेत्रक में बढ़ती विविधता

पिछले खंड में हमने पाया कि श्रमबल में अनियत श्रमिकों का अनुपात निरंतर बढ़ रहा है। स्वतंत्रता के बाद से विकास योजनाओं का एक ध्येय जनसामान्य के लिए सम्मानपूर्ण आजीविका का प्रबंध सुनिश्चित करना भी बताया गया है। यह कहा गया था कि औद्योगीकरण की रणनीति कृषि से अतिरिक्त श्रमिकों को उद्योगों में आकर्षित कर उन्हें विकसित देशों की भाँति उच्च जीवन स्तर सुलभ कराएगी। किंतु, हम यह पिछले अनुभाग में देख ही चुके हैं कि योजनाबद्ध विकास के सत्तर वषों बाद भी देश वेरे श्रमबल वेरे आधे से अधिक सदस्यों के लिए कृषि ही रोजी-रोटी का प्रमुख साधन बनी हुई है।

अर्थशास्त्रियों का यह भी तर्क है कि अनेक वर्षों से रोजगार की गुणवत्ता में निरंतर ह्नास हो रहा है। आखिर $10-20$ वर्षों तक काम कर चुके न जाने कितने ही श्रमिक मातृत्व लाभ, भविष्यनिधि, ग्रेच्युटी और पेंशन आदि से वंचित क्यों रह जाते हैं? निजी क्षेत्रक में कार्य करने वाला व्यक्ति सार्वजनिक क्षेत्रक में उसी काम को करने वाले से कम वेतन क्यों पाता है?

आपको यह भी जानकारी होनी चाहिए कि भारत के सकल श्रमबल के बहुत छोटे से वर्ग को ही नियमित आय मिल पा रही है। सरकार श्रम कानूनों के द्वारा उन्हें अपने अधिकारों की रक्षा करने में समर्थ बनाती है। यही वर्ग अपने श्रमिक संघों को गठित कर रोजगारदाताओं से बेहतर मजदूरी और अन्य सामाजिक सुरक्षा उपायों के लिए सौदेबाजी भी करता है। ये कौन लोग हैं? इसी प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हम श्रमबल

बॉक्स 6.2 अहमदाबाद में अनौपचारीकरण

अहमदाबाद एक समृद्ध नगर है। यहाँ की समृद्धि का आधार 60 से अधिक कपड़े के कारखाने का उत्पाद है, जिनमें $1,50,000$ श्रमिक काम करते हैं। पिछली एक शताब्दी में इन श्रमिकों ने एक निश्चित सीमा में आय की सुरक्षा हासिल कर ली थी। इनके निश्चित रोजगार थे और इन्हें मिल रहे वेतन निर्वाह के लिए पर्याप्त थे। साथ ही इन्हें अनेक प्रकार के सामाजिक सुरक्षा लाभ भी मिलने लगे, जो उनकी स्वास्थ्य और वृद्धावस्था की सुरक्षा सुनिश्चित करते थे। उनका एक सशक्त श्रमिक संघ भी था जो न केवल श्रम विवादों में उनका प्रतिनिधित्व करता था, बल्कि श्रमिकों और उनके परिवारों के लिए अनेक जनहितकारी क्रियाओं का संचालन भी करता था। किंतु, 1980 दशक के प्रारंभ में संपूर्ण देश में कुछ कपड़ा मिले बंद होने लगीं। मुम्बई जैसी कुछ जगहों में मिलें तेजी से बंद हो गई। अहमदाबाद में मिल बंदी की यह प्रक्रिया कुछ धीमी रही और दस वर्षों तक खिंच गई। इस अवधि में, कम से कम 80,000 स्थायी तथा 50,000 गैर स्थायी कपड़ा मजदूरों का रोजगार छिन गया और वे अनौपचारिक क्षेत्र का सहारा लेने को विवश हो गए। इन्हीं परिस्थितियों में नगर में आर्थिक मंदी और जन आक्रोश के

एक घर में शक्ति संतुलन में परिवर्तन : एक बेरोजगार कारखाना श्रमिक घर में लहसुन छीलता हुआ, जबकि उसकी पत्नी को बीड़ी बनाने का एक काम मिल गया। साथ-साथ सांप्रदायिक दंगे भी भड़क उठे।

श्रमिकों के एक पूरे वर्ग को मध्ययवर्गीय सुरक्षित जीवन शैली से उखाड़ कर अनौपचारिक क्षेत्रक की निर्धनता झेलने के लिए छोड़ दिया गया। कितने ही कपड़ा श्रमिक शराब की लत के सहारे अपने कष्ट भुलाने के प्रयास करने लगे, कुछ ने शराब के माध्यम से आत्महत्या का रास्ता चुना और कितने ही परिवारों को बच्चों की शिक्षा अधूरी रोक कर उन्हें भी काम की तलाश के लिए भेजना पड़ा।

स्रोत: रेनाना झालवालों, रत्ना एम. सुदर्शन एंड जी मील उन्नी (एडि.) इंफोर्मल इकॉनामी एट सेंटर स्टेज; न्यू स्ट्रक्चर्स ऑफ एंपलायमेंट, सेज पब्लिकेशंस, नई दिल्ली 2003, पृष्ठ 2651

को औपचारिक तथा अनौपचारिक वर्गों में विभाजित कर रहे हैं। इन्हीं को संगठित और असंगठित क्षेत्रक भी कहा जाता है। सभी सार्वजनिक क्षेत्रक प्रतिष्ठान तथा 10 या अधिक कर्मचारियों को रोजगार देने वाले निजी क्षेत्रक प्रतिष्ठान संगठित क्षेत्रक माने जाते हैं। इन प्रतिष्ठानों में काम करने वालों को संगठित क्षेत्रक के कर्मचारी कहा जाता है। अन्य सभी उद्यम और उनमें कार्य कर रहे श्रमिक मिल कर अनौपचारिक क्षेत्रक की रचना करते हैं। इस प्रकार इस अनौपचारिक क्षेत्रक में करोड़ों किसान, कृषि श्रमिक, छोटे-छोटे काम-धंधे चलाने वाले और उनके

इन्हें कीजिए

इनमें से असंगठित क्षेत्रकों की क्रियाओं में लगे व्यक्तियों के सामने चिन्ह अंकित करें:

  • एक ऐसे होटल का कर्मचारी, जिसमें सात भाड़े के श्रमिक एवं तीन पारिवारिक सदस्य हैं।

  • एक ऐसे निजी विद्यालय का शिक्षक, जहाँ 25 शिक्षक कार्यरत हैं।

  • एक पुलिस सिपाही

  • सरकारी अस्पताल की एक नर्स

  • एक रिक्शाचालक

  • कपड़े की दुकान का मालिक, जिसके यहाँ नौ श्रमिक कार्यरत हैं।

  • एक ऐसी बस कंपनी का चालक, जिसमें 10 से अधिक बसें और 20 चालक, संवाहक तथा अन्य कर्मचारी हैं।

  • दस कर्मचारियों वाली निर्माण कंपनी का सिविल अभियंता

  • राज्य सरकारी कार्यालय में अस्थायी आधार पर नियुक्त कंप्यूटर ऑपरेटर

  • बिजली दफ्तर का एक क्लर्क

कर्मचारी तथा सभी स्वनियोजित व्यक्ति, जिनके पास भाड़े का श्रमिक नहीं है, सम्मिलित हैं। इसमें सभी गैर-कृषि दैनिक वेतनभोगी मजदूर जैसे विनिर्माण मजदूर तथा सिरपर बोझा ढोने वाले मजदूर जो एक से अधिक नियोक्ता के लिए कार्य करते हैं, उन्हें भी शामिल किया जाता है। आप देखेंगे की यह श्रमिकों को वर्गीकृत करने का एक तरीका है। हालाँकि, वर्गीकरण के अन्य तरीके भी हो सकते हैं, कक्षा में संभावित तरीकों पर चर्चा करें।

चित्र 6.5 बेरोजगार मिल श्रमिक, अनियत रोजगार की प्रतीक्षा में

सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था के लाभ संगठित क्षेत्रक के कर्मचारियों को मिलते हैं। इनकी कमाई भी असंगठित क्षेत्रक के कर्मचारियों से अधिक होती है। विकास योजनाओं में सैद्धांतिक रूप से यह माना गया था कि जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था विकसित होगी, अधिकाधिक श्रमिक औपचारिक क्षेत्रक में सम्मिलित होते जाएँगे और अनौपचारिक क्षेत्रक के श्रमिकों का अनुपात बहुत कम रह जाएगा। किंतु, वास्तव में भारत में क्या हुआ? पीछे दिये गये आरेख को देखें जिसमें संगठित तथा असंगठित क्षेत्रकों में श्रमबल का वितरण दर्शाया गया है।

सन् 2017-18 में 473 मिलियन श्रमिक थे। केवल 30 मिलियन श्रमिक ही औपचारिक क्षेत्रक में कार्य कर रहे थे। क्या आप इनका प्रतिशत अनुपात आकलित कर पाएँगे? ये मात्र 6 प्रतिशत हैं (30/473 100)। दूसरे शब्दों में, देश के 94 प्रतिशत श्रमिक

चित्र 6.6 गन्ने की कटाई करने वाले मजदूर; कृषि श्रमिकों में प्रछन्न बेरोजगारी आम होती है

अनौपचारिक क्षेत्रक में काम कर रहे हैं। 2011-12 में, जिस वर्ष के लिए लिंग-आधारित औपचारिक-अनौपचारिक क्षेत्र के रोज़गार का डेटा उपलब्ध है ( चार्ट 6.4), उसके अनुसार औपचारिक क्षेत्र का लगभग 20 प्रतिशत और अनौपचारिक क्षेत्र का लगभग 30 प्रतिशत महिलाएँ हैं।

1970 के दशक के अंत में भारत सहित अनेक विकासशील देशों ने पाया कि औपचारिक क्षेत्रक में रोजगार वृद्धि नहीं हो पा रही। इसीलिए उन्होंने अनौपचारिक क्षेत्रक पर ध्यान देना आरंभ किया। किंतु, अनौपचारिक क्षेत्रक के उद्यमों और उनके श्रमिकों की आय नियमित नहीं होती और उन्हें सरकार से भी किसी प्रकार का संरक्षण और नियमन नहीं मिल पाता। श्रमिकों को बिना क्षति पूर्ति के ही काम से निकाल दिया जाता है। अनौपचारिक क्षेत्रक उपक्रमों में प्रयुक्त प्रौद्योगिकी पुरानी हो चुकी है तथा ये किसी प्रकार के लेखा-खाते भी नहीं रखते हैं। इस क्षेत्रक के श्रमिक प्रायः गंदी बस्तियों में तथा झुग्गियों में रहते हैं। कुछ समय से अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के प्रयासों के फलस्वरूप भारत सरकार ने अनौपचारिक क्षेत्र के आधुनिकीकरण और इस क्षेत्रक के कर्मचारियों के लिए सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था का प्रावधान किया है।

6.8 बेरोजगारी

आपने समाचार-पत्रों में रोजगार की तलाश करते हुए व्यक्यिों को देखा होगा। कुछ लोग अपने मित्रों और सगे संबंधियों के माध्यम से रोजगार तलाशते हैं। कई शहरों में कुछ चुने हुए स्थानों पर ऐसे अनेक लोग खड़े दिखाई दे जाते हैं, जिन्हें उस दिन के लिए काम देने वाले की प्रतीक्षा रहती हैं। कुछ लोग दप्तरों-कारखानों में अपना जीवन-वृत्त सौंप कर वहाँ पता लगा रहे होते हैं कि क्या उनके योग्य कोई स्थान रिक्त है। कई लोग ग्रामीण क्षेत्रों में बाहर जाकर काम के बारे में पूछताछ नहीं करते हैं और घर पर ही बैठे रहते हैं, जब उन्हें कोई काम नहीं होता। कुछ व्यक्ति रोजगार कार्यालयों में उनके माध्यम से अनुसूचित रिक्तियों के लिए अपने नाम पंजीकृत कराते हैं। राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय (पहले इसे राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन के रूप में जाना जाता था) ने बेरोजगारी को इस प्रकार परिभाषित किया है कि यह वह अवस्था है, जिसमें व्यक्ति काम के अभाव के कारण बिना काम के रह जाते हैं। वे कार्यरत व्यक्ति नहीं हैं, परंतु रोजगार कार्यालयों, मध्यस्थों, मित्रों, संबंधियों आदि के माध्यम से या संभावित रोजगारदाताओं को आवेदन देकर या वर्तमान परिस्थितियों और प्रचलित मजदूरी दर पर काम करने की अपनी इच्छा प्रकट कर कार्य तलाशते हैं। किसी बेरोजगार व्यक्ति की पहचान विभिन्न तरीकों से की जाती है। अर्थशास्त्री उसे बेरोजगार कहते हैं, जो आधे दिन की अवधि में एक घंटे का रोजगार भी नहीं पा सकता।

भारत में बेरोजगारी के आँकड़ों के तीन स्रोत हैं; भारत की जनगणना रिपोर्ट, राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय की रोजगार और बेरोजगारी की अवस्था संबंधी रिपोर्ट PLFS की वार्षिक रिर्पोट तथा रोजगार और प्रशिक्षण महानिदेशालय के रोजगार कार्यालय में पंजीकृत आँकड़े। यद्यपि इन स्रोतों से बेरोजगारी के भिन्न-भिन्न अनुमान किए हैं, ये हमें बेरोजगारी के लक्षणों तथा देश में प्रचलित बेरोजगारी के प्रकारों के विषय में जानकारियाँ उपलब्ध कराते हैं।

क्या हमारी अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी भिन्न-भिन्न प्रकार की हैं? इस अनुच्छेद के प्रथम गद्यांश में वर्णित स्थिति को, खुली बेरोजगारी कहते हैं। भारत के कृषि में फैली बेरोजगारी को अर्थशास्त्री प्रच्छन्न बेरोजगारी कहते हैं। प्रच्छन्न बेरोजगारी क्या होती है? मान लीजिए कि किसी एक किसान के पास चार एकड़ का भूखंड है और उसे अपने खेत में विभिन्न प्रकार की क्रियाओं को निष्पादित करने में दो श्रमिकों की आवश्यकता है, किंतु यदि वह अपने परिवार के पाँच सदस्यों (पत्नी, बच्चों आदि) को कृषि कार्य में लगा ले तो यह स्थिति प्रच्छन्न बेरोजगारी के नाम से जानी जाती है। 1950 के दशक के अंत में किए गए एक अध्ययन के द्वारा भारत में एक तिहाई कृषि श्रमिकों को प्रच्छन्न रूप से बेरोजगार दिखाया गया था।

चित्र 6.7 बांध निर्माण कार्य में सरकार द्वारा प्रत्यक्ष रोजगार का सूजन होता है

आपने यह भी देखा होगा कि बड़ी संख्या में लोग शहरों की ओर प्रवसन करते हैं, वहाँ नौकरी करते हैं और सीमित अवधि तक वहाँ रहते हैं। पर, वर्षा ऋतु आरंभ होते ही वे अपने गाँव लौट आते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं? कारण यही है कि कृषि का कार्य मौसमी होता है - वर्ष भर गाँव में रोजगार के अवसर नहीं होते हैं। जब खेत में काम नहीं होता है तो लोग शहर की ओर जाते हैं और काम खोजते हैं। ऐसी बेरोजगारी की अवस्था को मौसमी बेरोजगारी कहते हैं। भारत में बेरोजगारी का ये प्रकार भी बहुत बड़े स्तर पर प्रचलित है।

यद्यपि हमने देखा है कि रोजगार संवृद्धि दर बहुत धीमी रही है - पर क्या आपने लोगों को बहुत लंबे समय तक रोजगार से वंचित देखा है? विद्वानों का कहना है कि भारत में व्यक्ति बहुत लंबे समय तक पूर्णतः बेरोजगार नहीं बैठे रह पाते, क्योंकि उनकी आर्थिक दशा इतनी निराशाजनक होती है कि कोई भी काम स्वीकार करना पड़ जाता है। आप उन्हें ऐसे काम भी करते हुए देख सकते हैं जिन्हें कोई अन्य व्यक्ति नहीं कर सकता। इनमें बहुत ही असुविधाजनक, अस्वास्थ्यकर, अस्वच्छ तथा जोखिम भरे कार्य भी होते हैं। केंद्र तथा राज्य सरकारों ने निम्न आय परिवारों के बेहतर रहन-सहन के लिए विभिन्न रोजगार सृजित किए हैं और इसके लिए पहल की है। इस विषय में अगले परिच्छेद में चर्चा की जायेगी।

6.9 सरकार और रोजगार सृजन

हाल ही में, भारत की संसद ने महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005 पारित किया है। यह देश के ग्रामीण परिवारों के सदस्यों को अकुशल श्रमिक के रूप में कार्य करने को 100 दिन का दिहाड़ी उपलब्ध कराने की गारंटी देता है। ग्रामीण क्षेत्रों में जिन्हें नौकरी की आवश्यकता है, उनके लिए रोजगार के अवसरों का सृजन करने के लिए यह सरकार द्वारा संचालित अनेक उपायों में से एक है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से संघीय और राज्य सरकारें रोजगार सृजन हेतु अवसरों की रचना करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती आ रही हैं। इनके प्रयासों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है: प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष। जैसा कि आपने पिछले अनुभाग में पढ़ा कि प्रथम श्रेणी में सरकार अपने विभिन्न विभागों में प्रशासकीय कार्यों के लिए नियुक्तियाँ करती है।

सरकार अनेक उद्योग, होटल, और परिवहन कंपनियाँ भी चला रही है। इन सबमें भी यह प्रत्यक्ष रूप से रोजगार प्रदान करती हैं। जब सरकारी उद्यमों में उत्पादन स्तर में वृद्धि होती है, तो उन उद्यमों को सामग्रियों की पूर्ति करने वाले निजी उद्यमों को भी अपना उत्पादन बढ़ाने का अवसर मिलता है। इससे भी अर्थव्यवस्था में नए रोजगार के अवसर पैदा होते हैं। उदाहरण के लिए, एक सरकारी इस्पात मिल में उत्पादन वृद्धि से उस सरकारी कंपनी में रोजगार में प्रत्यक्ष वृद्धि होती है। साथ ही, उस इस्पात मिल को उत्पादनों की पूर्ति करने वाली और उससे इस्पात खरीदने वाली निजी कंपनियों को भी अपने-अपने उत्पादन और रोजगार बढ़ाने का अवसर मिल जाता है। यह सरकार द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से अर्थव्यवस्था में रोजगार के अवसरों का सृजन है।

आपने ध्यान दिया होगा कि सरकारों द्वारा गरीबी निवारण के लिए चलाए जा रहे अनेक कार्यक्रमों का क्रियान्वयन भी रोजगार सृजन के माध्यम से ही होता है। उन्हें रोजगार सृजन कार्यक्रम भी कहा जाता है। इस तरह के कार्यक्रम केवल रोजगार ही उपलब्ध नहीं कराते, इनके सहारे प्राथमिक जनस्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा, ग्रामीण आवास, ग्रामीण जलापूर्ति, पोषण, लोगों की आय तथा रोजगार सृजन करने वाली परिसंपत्तियाँ खरीदने में सहायता, दिहाड़ी रोजगार के सृजन के माध्यम से सामुदायिक परिसपंत्तियों का विकास, गृह और स्वच्छता सुविधाओं का निर्माण, गृह-निर्माण के लिए सहायता, ग्रामीण सड़कों का निर्माण और बंजर भूमि आदि के विकास के कार्य पूरे किए जाते हैं।

6.10 निष्कर्ष

भारत की श्रमबल संरचना में परिवर्तन आ चुका है। सेवा क्षेत्रक में रोजगार के नये अवसरों का सृजन हो रहा है। सेवा क्षेत्रक का विस्तार तथा इसमें नयी प्रौद्योगिकी के प्रादुर्भाव का कारण अब निर्बाध रूप से लघु उद्योग तथा कुछ विशिष्ट उपक्रम तथा विशेषज्ञ श्रमिक ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों से प्रतिस्पर्धा में टिक सकते हैं। कार्य की आउटसोर्सिंग एक सामान्य बात हो गयी है। इसका तात्पर्य यह है कि एक बड़ी फर्म के लिए यह लाभप्रद है कि वह अपने विशिष्ट विभागों (जैसे, विधि, कंप्यूटर प्रोग्रामिंग या ग्राहक सेवा-अनुभाग) को बंद कर छोटे उद्यमियों को बड़े पैमाने पर छोटे-छोटे रोजगार उपलब्ध कराए, जो कि दूसरे देशों में भी स्थित हो सकता है। आधुनिक कारखाने की परंपरागत अवधारणा इस प्रकार बदल रही है कि घर ही कार्य-स्थलों में परिवर्तित हो रहे हैं। यह समस्त परिवर्तन व्यक्तिगत श्रमिक के पक्ष में नहीं हो रहा है। श्रमिकों को न्यूनतम सामाजिक सुरक्षा की उपलन्धता के कारण रोजगार का स्वरूप और अधिक अनौपचारिक हो गया है। इसके बावजूद, पिछले कुछ दशकों में सकल घरेलू उत्पाद में तीव्र वृद्धि हुई है। लेकिन, इसके साथ ही रोजगार के अवसरों का सृजन नहीं होने के कारण सरकार को विशेष, तौर से ग्रामीण क्षेत्रों में, रोजगार के अवसरों का सृजन करने के लिए बाध्य होना पड़ा है।

पुनरावर्तन

  • वैसे व्यक्ति जो आर्थिक क्रियाओं में संलग्न हैं और इस प्रकार सकल राष्ट्रीय उत्पदन में योगदान कर रहे हैं, उन्हें हम श्रमिक कहते हैं।

  • देश की जनसंख्या के पाँच में से दो व्यक्ति विभिन्न आर्थिक क्रियाओं में लगे हैं।

  • मुख्यत: ग्रामीण पुरुष, देश के श्रमबल का सबसे बड़ा वर्ग हैं।

  • भारत में अधिकांश श्रमिक स्वनियोजक हैं। अनियत दिहाड़ी मजदूर तथा नियमित वेतनभोगी कर्मचारी मिलकर भी भारत की समस्त श्रम शक्ति के अनुपात के आधे से भी कम ही रह जाते हैं।

  • भारत के कुल श्रमबल का लगभग पाँच में से तीन श्रमिक कृषि और संबद्ध कार्यों से ही अपनी आजीविका प्राप्त करता है।

  • हाल के कुछ वर्षों से रोजगार वृद्धि में शिथिलता आई है।

  • सुधारोपरांत भारत में सेवा क्षेत्रक में नए रोजगार के अवसरों का उदय हुआ है। ये नए रोजगार मुख्यतः अनौपचारिक क्षेत्र के ही अंतर्गत आते हैं तथा इनके कार्य की प्रकृति अधिकांशत: अनियत है।

  • सरकार देश में सबसे बड़ा औपचारिक क्षेत्रक नियोक्ता है।

  • प्रच्छन्न बेरोजगारी ग्रामीण बेरोजगारी का आम प्रकार है।

  • भारत की श्रमबल की संरचना में बड़ा परिवर्तन आया है।

  • अपनी विभिन्न योजनाओं और नीतियों द्वारा सरकार प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप में रोजगार सृजन के लिए प्रयास करती है।

अभ्यास

1. श्रमिक किसे कहते हैं?

2. श्रमिक-जनसंख्या अनुपात की परिभाषा दें।

3. क्या ये भी श्रमिक हैं: एक भिखारी, एक चोर, एक तस्कर, एक जुआरी? क्यों?

4. इस समूह में कौन असंगत प्रतीत होता है: (क) नाई की दुकान का मालिक (ख) एक मोची (ग) मदर डेयरी का कोषपाल या अपने क्षेत्र के दुग्ध सहकारी समिति (घ) ट्यूशन पढ़ाने वाला शिक्षक, (ङ) परिवहन कंपनी संचालक (च) निर्माण मजदूर।

5. नये उभरते रोजगार मुख्यतः*…………………..क्षेत्रक में ही मिल रहे हैं। (सेवा / विनिर्माण)

6. चार व्यक्तियों को मजदूरी पर काम देने वाले प्रतिष्ठान को ………………. क्षेत्रक कहा जाता है। (औपचारिक/अनौपचारिक)

7. राज स्कूल जाता है। पर जब वह स्कूल में नहीं होता, तो प्रायः अपने खेत में काम करता दिखाई देता है। क्या आप उसे श्रमिक मानेंगे? क्यों?

8. शहरी महिलाओं की अपेक्षा अधिक ग्रामीण महिलाएँ काम करती दिखाई देती हैं। क्यों?

9. मीना एक गृहिणी है। घर के कामों के साथ-साथ वह अपने पति की कपड़े की दुकान के काम में भी हाथ बँटाती है। क्या उसे एक श्रमिक माना जा सकता है? क्यों?

10. यहाँ किसे असंगत माना जाएगाः (क) किसी अन्य के अधीन रिक्शा चलाने वाला (ख) राजमिस्त्री (ग) किसी मेकेनिक की दुकान पर काम करने वाला श्रमिक (घ) जूते पालिश करने वाला लड़का।

11. निम्न सारणी में 1972-73 में भारत के श्रमबल का वितरण दिखाया गया है। इसे ध्यान से पढ़कर श्रमबल के वितरण के स्वरूप के कारण बताइए। ध्यान रहे कि ये आँकड़े लगभग 50 वर्ष से भी अधिक पुराने हैं।

श्रमबल (करोड़ में)
निवास स्थान पुरुष महिलाएँ कुल योग
ग्रामीण 12.5 6.9 419.5
शहरी 3.2 0.7 3.9

12. इस सारणी में 1999-2000 में भारत की जनसंख्या और श्रमिक जनानुपात दिखाया गया है। क्या आप भारत के (शहरी और सकल) श्रमबल का अनुमान लगा सकते हैं?

क्षेत्र अनुमानित जनसंख्या (करोड़ में) श्रमिक जनसंख्या अनुपात श्रमिकों की अनुमानित संख्या (करोड़ में)
ग्रामीण 71.88 41.9 $71.88 ~ 41.9 / 100=30.12$
शहरी 28.52 33.7 $?$
योग 100.40 39.5 $?$

13. शहरी क्षेत्रों में नियमित वेतनभोगी कर्मचारी ग्रामीण क्षेत्र से अधिक क्यों होते हैं?

14. नियमित वेतनभोगी कर्मचारियों में महिलाएँ कम क्यों हैं?

15. भारत में श्रमबल के क्षेत्रकवार वितरण की हाल की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करें।

16. 1970 से अब तक विभिन्न उद्योगों में श्रमबल के वितरण में शायद ही कोई परिवर्तन आया है। टिप्पणी करें।

17. क्या आपको लगता है कि 1950-2010 के दौरान भारत में रोजगार के सृजन में भी सकल घरेलू उत्पाद के अनुरूप वृद्धि हुई है? कैसे?

18. क्या औपचारिक क्षेत्रक में ही रोजगार का सृजन आवश्यक है? अनौपचारिक में नहीं? कारण बताइए।

19. विक्टर को दिन में केवल दो घंटे काम मिल पाता है। बाकी सारे समय वह काम की तलाश में रहता है। क्या वह बेराजगार है? क्यों? विक्टर जैसे लोग क्या काम करते होंगे?

20. क्या आप गाँव में रह रहे हैं? यदि आपको ग्राम-पंचायत को सलाह देने को कहा जाय तो आप गाँव की उन्नति के लिए किस प्रकार के क्रियाकलाप का सुझाव देंगे, जिससे रोजगार सृजन भी हो।

21. अनियत दिहाड़ी मजदूर कौन होते हैं?

22. आपको यह कैसे पता चलेगा कि कोई व्यक्ति अनौपचारिक क्षेत्रक में काम कर रहा है?

अतिरिक्त गतिविधियाँ

1. एक क्षेत्रक का चयन करें जैसे, गली या कॉलोनी और उसे तीन-चार उपक्षेत्रकों में बाँटें। एक सर्वेक्षण का आयोजन करें। उसमें प्रत्येक व्यक्ति की सभी क्रियाओं का ब्यौरा एकत्र कर लें। फिर सभी उपक्षेत्रकों के लिए अलग-अलग श्रमिक जनसंख्या अनुपात का आकलन करें। अपने परिणामों के आधार पर विभिन्न उपक्षेत्रकों में श्रमिक-जनसंख्या अनुपात में अंतरों की व्याख्या करें।

2. प्रदेश के अलग-अलग क्षेत्रों के अध्ययन का दायित्व छात्रों के तीन-चार समूहों को बाँट दें। एक क्षेत्र में मुख्यतः धान की खेती होती है। दूसरे में नारियल के बाग ही मुख्य कार्य हैं। तीसरे क्षेत्र में मछलियाँ पकड़ना मुख्य व्यवसाय है। चौथे क्षेत्र में नदी बहती है और वहाँ पशुपालन की बहुतायत है। छात्रों के समूहों को उन क्षेत्रों के अनुरूप रोजगार सृजन की आवश्यकता पर अपनी-अपनी रिपोर्टें तैयार करने के लिए कहें।

3. स्थानीय पुस्तकालय में जाकर भारत सरकार द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक रोजगार समाचार की मांग करें तथा पिछले दो महीनों के अंक देखें। ये सात अंक होंगे। इनमें 25 विज्ञापनों का चयन करें तथा निम्न सारणी को भरें (सारणी की आवश्यकता के अनुसार इसे बनायें)। उसके बाद, कक्षा में उपलब्ध रोजगारों की प्रकृति बारे में चर्चा करें।

मदें विज्ञापन संख्या 1 विज्ञापन संख्या 2
1. कार्यालय का नाम
2. विभाग/कपनी
3. निजी/सार्वजनिक/संयुक्त उपक्रम
4. पद का नाम
5. क्षेत्रक-प्राथमिक/द्वितीयक/ तृतीयक
6. पदों/रिक्तियों की संख्या
7. आवश्यक योग्यताएँ

4. आपने अपने घर के आस-पास सरकार द्वारा किए जा रहे कई काम देखे होंगे। ये सड़क निर्माण, तालाबों की सफाई, स्कूल भवनों का निर्माण, अस्पताल व अन्य सरकारी कार्यालय, जलरोधक बाँधों का निर्माण, गरीबों के लिए गृह निर्माण आदि के काम हो सकते हैं। किसी एक कार्य की समालोचनात्मक रिपोर्ट तैयार करें। इसमें इन विषयों पर चर्चा हो सकती है: (क) काम की पहचान किस प्रकार की गई (ख) कितनी धन राशि स्वीकृत हुई (ग) स्थानीय जनता का योगदान, यदि हो तो (घ) कार्य में लगे व्यक्तियों की संख्या, पुरुष और महिलाएँ (ङ) भुगतान की गई मजदूरी (च) क्या उस कार्य की उस क्षेत्र में वास्तव में आवश्यकता थी, जिस योजना के अंतर्गत यह कार्य हो रहा है, उस पर भी आलोचनात्मक टिप्पणी की जा सकती है।

5. हाल के वर्षों में आपने पहाड़ी और शुष्क क्षेत्रों में रोजगार सृजन की पहल करते हुए कई स्वयंसेवी संस्थाओं को देखा होगा। यदि आपके क्षेत्र में भी ऐसी कोई संस्था काम कर रही है, तो उसके प्रकल्प को देखने जाइए और उस पर अपनी रिपोर्ट तैयार कीजिए।



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