अध्याय 11 अंतर्राष्ट्रीय व्यापार

सुधीर मनचंदा मोटर वाहनों के कलपुर्जों का एक छोटा-सा विनिर्माता है। उसका कारखाना गुड़गाँव में स्थित है जिसमें 55 कर्मचारी काम करते हैं तथा इसमें संयंत्र एवं मशीनों में 92 लाख रु का निवेश किया गया है। घरेलू बाज़ार में मंदी के कारण अगले कुछ वर्षों तक बिक्री बढ़ने की कोई संभावना नहीं है। अब वह बाह्य बाज़ार में संभावनाओं को तलाश रहा है। उसके कई प्रतियोगी पहले से निर्यात व्यापार में लगे हुए हैं। इसी प्रकार के व्यवसाय उसके एक घनिष्ट मित्र से बातचीत में यह पता लगा कि मोटर वाहन के विभिन्न भाग एवं इससे जुड़े अन्य सामान की दक्षिण-पूर्व एशिया एवं मध्य-पूर्व के देशों में अच्छा खासा बाज़ार है। लेकिन उसने यह भी बताया कि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में व्यापार करना देश के भीतर व्यापार करने जैसा नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय अधिक जटिल है क्योंकि बाहर की विपणन परिस्थितियाँ देश की व्यवसाय संबंधी परिस्थितियों से भिन्न होती हैं।

श्री मनचंदा को यह ज्ञान नहीं है कि वह बाह्य व्यवसाय को कैसे जमाए। क्या उसे दूसरे देशों में बैठे ग्राहकों की पहचान कर उनसे संपर्क साधना चाहिए या उन्हें सीधे माल निर्यात कर देना चाहिए या फिर उसे अपना माल निर्यात ग्रहों के माध्यम से भेजना चाहिए जो कि दूसरे के निर्मित माल का निर्यात करने में विशिष्टता प्राप्त किये हुए हैं।

श्री मनचंदा का पुत्र, जो हाल ही में अमेरिका से एम.बी.ए. करने के पश्चात् लौटा है, ने सुझाव दिया कि उन्हें अपनी निजी फैक्टरी बैंकाक में लगानी चाहिए जिससे कि दक्षिण-पूर्व एशिया एवं मध्य-पूर्व के देशों के ग्राहकों को माल की आपूर्ति की जा सके। वहाँ कारखाना लगाने से भारत से माल भेजने पर परिवहन व्यय की बचत होगी। इससे उनकी विदेश में ग्राहकों से नजजदीकियाँ भी बढ़ेंगी।

श्री मनचंदा पशोपेश में है कि क्या करें जैसा उनके मित्र ने विदेशों से व्यापार करने में आने वाली कठिनाइयों के संबंध में बताया। वह सोच रहा है कि क्या वास्तव में वैश्विक बाज़ार में प्रवेश किया जाए। उन्हें यह भी नहीं पता है कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में प्रवेश के कौन-कौन से मार्ग हैं तथा उनमें से कौन-सा श्रेष्ठतम है।

11.1 परिचय

पूरे विश्व के विभिन्न देशों में वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन एवं उनके विक्रय के तरीकों में आधारभूत परिवर्तन आ रहे हैं। जो राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाएँ अभी तक आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को प्राप्त करने में लगी थीं। अब उन्हें विभिन्न वस्तुओं एवं सेवाओं के एकत्रीकरण एवं आपूर्ति के लिए अधिक से अधिक दूसरों पर आश्रित होना पड़ रहा है। अपने देश की सीमाओं के पार व्यापार एवं विनियोग के बढ़ने के कारण अब देश अकेले नहीं पड़ रहे हैं।

इस क्रांतिकारी परिवर्तन का मुख्य कारण संर्रेषण, तकनीक, आधारभूत ढाँचा आदि के क्षेत्र में विकास है। नये-नये संर्रेषण के माध्यम एवं परिवहन के तीव्र एवं अधिक सक्षम साधनों के विकास ने विभिन्न देशों को एक-दूसरे के नज़दीक ला दिया है। जो देश भौगोलिक दूरी एवं सामाजिक, आर्थिक अंतर के कारण एक-दूसरे से कटे हुए थे, वे अब एक-दूसरे से संवाद कर रहे हैं। विश्व व्यापार संघ (डब्ल्य..टी.ओ.) एवं विभिन्न देशों की सरकारों के द्वारा किये गये सुधारों का विभिन्न देशों के बीच संवाद एवं व्यावसायिक संबंध की वृद्धि में भारी योगदान रहा है।

आज हम जिस दुनिया में जी रहे हैं, उसमें वस्तु एवं व्यक्तियों की सीमा पार आवागमन में बाधाएँ बहुत कम हो गई हैं। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाएँ आज सीमारहित होती जा रही हैं तथा वैश्विक अर्थव्यवस्था में समाहित होती जा रही हैं। आश्चर्य नहीं कि आज पूरी दुनिया एक भूमंडलीय गाँव में बदल गई है। आज के युग में व्यवसाय किसी एक देश की सीमाओं तक सीमित नहीं रह गया है। अधिक से अधिक व्यावसायिक इकाइयाँ आज अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में प्रवेश कर रही हैं, जहाँ उन्हें विकास एवं अधिक लाभ के अवसर प्राप्त हो रहे हैं।

भारत सदियों से अन्य देशों से व्यापार करता रहा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इसने विश्व अर्थव्यवस्था में समाहित होने एवं अपने विदेशी व्यापार एवं निवेश में वृद्धि की प्रक्रिया को पर्याप्त गति प्रदान की है। (देखें बॉक्स 1 भारत वैश्वीकरण की राह पर)।

11.1.1 अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय/ व्यापार का अर्थ

जब व्यापारिक क्रियाएँ भौगोलिक सीमाओं की परिधि में होती हैं तो इसे घरेलू व्यापार अथवा राष्ट्रीय व्यापार कहते हैं। इसे आंतरिक व्यापार अथवा घरेलू व्यापार भी कहते हैं। कोई देश अपनी सीमाओं से बाहर विनिर्माण एवं व्यापार करता है तो उसे अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय कहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय अथवा बाह्य व्यवसाय को इस प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है— यह वह व्यावसायिक क्रिया है जो राष्ट्र की सीमाओं के पार की जाती है। इसमें न केवल वस्तु एवं सेवाओं का ही व्यापार सम्मिलित है बल्कि पूँजी, व्यक्ति, तकनीक, बौद्धिक संपत्ति,

भारत वैश्वीकरण की राह पर

सोवियत संघ में कम्यूनिस्ट सरकार के पतन एवं यूरोप तथा अन्यत्र में सुधार कार्यक्रमों के पश्चात् अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय ने उत्थान के नये युग में प्रवेश किया। भारत भी इस प्रगति में अलग-थलग नहीं रहा। उस समय भारत भारी ऋण के बोझ से दबा हुआ था। 1991 में भारत ने अपने भुगतान शेष के घाटे को पूरा करने के लिए, कोष जुटाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ़.) गुहार लगाई। आई.एम.एफ़. भारत को इस शर्त पर ऋण देने को तैयार हो गया कि भारत ढाँचागत परिवर्तन करेगा जिससे कि ऋण के भुगतान को सुनिश्चित किया जा सके। भारत के पास इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था। ये आई.एम.एफ़. द्वारा लगाई गई शर्तें ही थीं जिसके कारण भारत को कमोबेश अपनी आर्थिक नीतियों में उदारीकरण के लिए बाध्य होना पड़ा। तभी से आर्थिक क्षेत्र में काफी बड़ी मात्रा में उदारीकरण आया है।

यद्यपि सुधार प्रक्रिया थोड़ी धीमी हो गई है फिर भी भारत वैश्वीकरण एवं विश्व अर्थव्यवस्था से पूरी तरह जुड़ जाने के मार्ग पर अग्रसर है। एक ओर कई बहुराष्ट्रीय निगम (एम.एन.सी.) अपनी वस्तुओं एवं सेवाओं की बिक्री का भारतीय बाज़ार में साहस कर रही हैं, वहीं भारतीय कंपनियों ने भी विदेशों में उपभोक्ताओं को अपने उत्पाद एवं सेवाओं के विपणन हेतु अपने देश से बाहर कदम रखे हैं।

जैसे- पेटेंट्स, ट्रेडमार्क, ज्ञान एवं कॉपीराइट का आदान-र्रदान भी।

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि बहुत-से लोग अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का अर्थ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से लगाते हैं। लेकिन यह सत्य नहीं है। इसमें कोई शंका नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार अर्थात् वस्तुओं का आयात एवं निर्यात ऐतिहासिक रूप से अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का एक महत्वपूर्ण भाग रहा है। लेकिन पिछले कुछ समय से अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का क्षेत्र काफी विस्तृत हो गया है। सेवाओं का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, जैसे— अंतर्राष्ट्रीय यात्रा एवं पर्यटन, परिवहन, संप्रेषण, बैंकिंग, भंडारण, वितरण एवं विज्ञापन काफी अधिक बढ़ गया है। उतनी ही महत्वपूर्ण प्रगति विदेशी निवेश में वृद्धि एवं विदेशों में वस्तु एवं सेवाओं के उत्पादन में हुई है। अब कंपनियाँ दूसरे देशों में अधिक विनियोग तथा वस्तु एवं सेवाओं का उत्पादन करने लगी हैं जिससे कि वे विदेशी ग्राहकों के और समीप आ सकें तथा कम लागत पर और अधिक प्रभावी ढंग से उनकी सेवा कर सकें। ये सभी गतिविधियाँ अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का भाग हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय एक व्यापक शब्द है, जो विदेशों से व्यापार एवं वहाँ वस्तु एवं सेवाओं के उत्पादन से मिलकर बना है।

11.1.2 अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय के कारण

अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का आधारभूत कारण है कि देश अपनी आवश्यकता की वस्तुओं का भली प्रकार से एवं सस्ते मूल्य पर उत्पादन नहीं कर सकते। इसका कारण उनके बीच प्राकृतिक संसाधनों का असमान वितरण अथवा उनकी उत्पादकता में अंतर हो सकता है। उत्पादन के विभिन्न साधन, जैसे- श्रम, पूँजी एवं कच्चा माल, जिनकी विभिन्न वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन के लिए आवश्यकता होती है, संसाधनों की उपलब्धता अलग-अलग देशों में अलग-अलग होती है। वैसे विभिन्न राष्ट्रों में श्रम की उत्पादकता एवं उत्पादन लागत में भिन्नता विभिन्न सामाजिक-आर्थिक, भौगोलिक एवं राजनैतिक कारणों से होती है। इन्हीं कारणों से यह कोई असाधारण बात नहीं है कि कोई एक देश अन्य देशों की तुलना में श्रेष्ठ गुणवत्ता वाली वस्तुओं एवं कम लागत पर उत्पादन की स्थिति में हो। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि कुछ देश कुछ चुनिंदा वस्तुओं एवं सेवाओं के लाभ में उत्पादन करने की स्थिति में होते हैं जबकि इन्हीं को अन्य देश उतने ही प्रभावी एवं क्षमता से उत्पादन नहीं कर सकते। इसी कारण से प्रत्येक देश के लिए उन वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन अधिक लाभप्रद रहता है जिनका वह अधिक कुशलतापूर्वक उत्पादन कर सकते हैं तथा शेष वस्तुओं को वह व्यापार के माध्यम से उन देशों से ले सकते हैं जो उन वस्तुओं का उत्पादन कम लागत पर कर सकते हैं। संक्षेप में किसी एक देश का दूसरे देश से व्यापार का यही कारण है और इसी व्यापार को अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय कहते हैं।

आज का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार काफी हद तक ऊपर वर्णित भौगोलिक विशिष्टीकरण का परिणाम है। मूल रूप से किसी एक देश में इसके विभिन्न राज्यों एवं क्षेत्रों के बीच घरेलू व्यापार का कारण भी यही है। किसी एक देश के विभिन्न राज्य या फिर क्षेत्र उन्हीं वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन के विशेषज़ हो जाते हैं जिनके उत्पादन के लिए वह सर्वथा उपयुक्त हैं। उदाहरण के लिए, भारत में पश्चिम बंगाल यदि जूट से तैयार वस्तुओं के उत्पादन में विशिष्टता लिए हुए है, तो महाराष्ट्र में मुंबई एवं इसके आस-पास के क्षेत्र सूती वस्त्रों के उत्पादन में अधिक संलग्न हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी क्षेत्रीय श्रम विभाजन इसी सिद्धांत के आधार पर होता है। अधिकांश विकासशील देश जिनके पास श्रम शक्ति काफी अधिक है सिले/ सिलाए वस्त्रों के उत्पादन एवं निर्यात में विशिष्टता लिए हुए हैं। इन देशों के पास पूँजी एवं तकनीकी ज्ञान की कमी है। इसीलिए यह टैक्सटाइल मशीनें विकसित देशों से आयात करते हैं जो इन मशीनों का उत्पादन अधिक कुशलता से करने की स्थिति में हैं।

जो एक देश के लिए सत्य है, वह व्यावसायिक इकाइयों के लिए भी सत्य है। विभिन्न फर्म भी अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय से जुड़कर उन वस्तुओं का आयात करती हैं जिन्हें वह दूसरे देशों से कम मूल्य पर प्राप्त कर सकती हैं तथा दूसरे देशों को उन वस्तुओं का निर्यात करती हैं जहाँ उन्हें अपनी वस्तुओं का अधिक मूल्य प्राप्त हो सकता है। राष्ट्रों एवं फर्मों को अंतर्ताष्ट्रीय व्यवसाय से केवल मूल्य का ही लाभ नहीं मिलता है बल्कि और भी बहुत-से लाभ प्राप्त होते हैं। ये दूसरे लाभ भी राष्ट्रों एवं फर्मों को अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय करने के लिए प्रेरित करते हैं। इन लाभों का वर्णन हम बाद के एक अनुभाग में करेंगे।

11.1.3 अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय बनाम घरेलू व्यवसाय

अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का संचालन एवं प्रबंधन घरेलू व्यवसाय को चलाने से कहीं अधिक जटिल है। विदेशों की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक वातावरण की विविधताओं के कारण व्यावसायिक इकाइयों के लिए घरेलू व्यवसाय में अपनाई जाने वाली रणनीति को विदेशी बाजार में प्रयोग नहीं किया जा सकता। घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में विभिन्न पहलुओं पर अंतर नीचे दिये गये हैं-

(क) क्रेताओं एवं विक्रेताओं की राष्ट्रीयता- व्यावसायिक सौदों के मुख्य पक्षों (क्रेता एवं विक्रेता) की राष्ट्रीयता घरेलू व्यवसाय व अंतर्राष्ट्रीय व्यवसायों में अलग-अलग होती है। घरेलू व्यवसाय में क्रेता एवं विक्रेता दोनों एक ही देश के वासी होते हैं। इसीलिए दोनों पक्ष एक दूसरे को भलीभाँति समझते हैं तथा व्यावसायिक लेन-देन करते हैं। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में क्रेता एवं विक्रेता दो भिन्न देशों के होते हैं। भाषा, र्झान, सामाजिक रीतियाँ एवं व्यावसायिक उद्देश्य एवं व्यवहार में अंतर के कारण एक-दूसरे से संवाद एवं व्यावसायिक सौदों को अंतिम रूप देना अपेक्षाकृत अधिक कठिन होता है।

(ख) अन्य हितार्थियों की राष्ट्रीयता- घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में अन्य हितार्थी, जैसेकर्मचारी, आपूर्तिकर्ता, अंशधारक/साझीदार एवं सामान्य जनता जिनका व्यावसायिक इकाइयों से वास्ता पड़ता है, उनकी राष्ट्रीयता भी भिन्न होती है। घरेलू/आंतरिक व्यवसाय में यह सभी अदाकार एक ही देश के होते हैं इसलिए इनके मूल्यों एवं व्यवहार में अपेक्षाकृत अधिक अनुरूपता होती है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में इकाइयों को अलग देशों के हितार्थियों के मूल्यों एवं आकांक्षाओं को ध्यान में रखना होता है।

(ग) उत्पादन के साधनों में गतिशीलता- देश की सीमाओं की तुलना में अन्य देशों के बीच श्रम एवं पूँजी जैसे उत्पादन के साधनों की गतिशीलता कम होती है। ये साधन देश की सीमाओं के भीतर स्वतंत्रता से गतिमान रहते हैं जबकि एक देश से दूसरे देश के बीच इनके आवागमन पर कई प्रकार की रोक लगी होती हैं। इनमें कानूनी रोक तो होती है। इनके अतिरिक्त सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण, भौगोलिक प्रभाव एवं आर्थिक स्थिति में भिन्नता भी इनके स्वतंत्र परिगमन में बाधक होते हैं। यह श्रम के लिए विशेष रूप से सत्य है क्योंकि इनके लिए अपने आपको जलवायु, आर्थिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुकूल ढालना कठिन होता है जोकि हर देश की अलग-अलग होती हैं।

(घ) विदेशी बाज़ारों में ग्राहक- अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में क्रेता अलग-अलग देशों से आते हैं इसलिए उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भी भिन्न होती है। उनकी रुचि, फ़ैशन, भाषा, विश्वास एवं रीति-रिवाज़, रुझान एवं वस्तुओं को प्राथमिकता में अंतर के कारण न केवल वस्तु एवं सेवाओं की मांग में भिन्नता होती है बल्कि उनके संर्रेषण स्वरूप एवं क्रय व्यवहार में विविधता होती है। सामाजिक-सांस्कृतिक भिन्नता के कारण ही चीन के लोग जहाँ साइकिल पसंद करते हैं, वहीं इसके विपरीत जापानी मोटर-साइकिल की सवारी पसंद करते हैं। इसी प्रकार, जहाँ भारत के लोग दायीं ओर बैठकर कार चलाते हैं, वहीं अमेरिका के लोग उन कारों को बायीं ओर चलाते हैं जिनमें स्टीयरिंग, ब्रेक आदि बायीं ओर लगे होते हैं। अमेरिका में लोग अपने टेलीविजन, मोटर-साइकिल या अन्य उपभोग की स्थायी वस्तुओं को क्रय के पश्चात् दो से तीन वर्ष में बदल लेते हैं, वहीं भारत के लोग इनके स्थान पर दूसरी इकाई तब तक नहीं खरीदते जब तक कि वर्तमान इकाइयाँ पूरी तरह से घिस न जाएँ।

इन्हीं विभिन्नताओं के कारण दूसरे देशों के ग्राहकों को ध्यान में रखकर वस्तुओं को तैयार किया जाता है एवं रणनीति तैयार की जाती है। यद्यपि किसी एक देश के ग्राहकों की रुचि एवं पसंद में भी अंतर हो सकते हैं लेकिन विदेशों में अपेक्षाकृत अधिक होते हैं।

(ड·) व्यवसाय पद्धतियों एवं आचरण में अंतर- कई देशों को लें तो उनमें व्यवसाय पद्धतियों एवं आचरणों में बहुत अधिक अंतर पाएंगे जबकि एक ही देश के भीतर इतना अंतर नहीं होगा। दो देश सामाजिक-आर्थिक विकास, उपलब्धता, आर्थिक आधारभूत ढाँचा एवं बाज़ार समर्थित सेवाएँ एवं व्यवसाय संबंधी रीति एवं आचरण के क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक वातावरण एवं ऐतिहासिक अवसरों के कारण एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। अंतर के इन्हीं कारणों से अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रवेश की इच्छुक व्यावसायिक इकाइयाँ अपनी उत्पादन, वित्त, मानव संसाधन एवं विपणन योजनाओं को अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में व्याप्त परिस्थितियों के अनुसार ढालती हैं।

(च) राजनीतिक प्रणाली एवं जोखिमें- सरकार, राजनीतिक दल प्रणाली, राजनीतिक विचारधारा, राजनीतिक जोखिमें आदि, जैसे- राजनीतिक तत्व व्यवसाय प्रचालन को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं।

एक व्यवसायी अपने देश के राजनीतिक वातावरण से भलीभाँति परिचित होता है तथा इसे वह समझता है तथा व्यावसायिक गतिविधियों पर इसके प्रभाव का अनुमान लगा सकता है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में ऐसा नहीं है। अलग-अलग देशों का राजनीतिक वातावरण अलग-अलग होता है। राजनीतिक वातावरण की भिन्नता एवं व्यवसाय पर पड़ने वाले उनके प्रभाव को समझने के लिए विशेष प्रयत्न करना होता है। चूँकि राजनैतिक वातावरण बदलता रहता है इसलिए जिस देश से व्यापार करना है, उसमें समय-समय पर हो रहे राजनैतिक परिवर्तनों पर नजजर रखनी आवश्यक है तथा विभिन्न राजनैतिक जोखिमों का सामना करने के लिए रणनीति बनायी जाती है।

किसी अन्य बाहर के देश के राजनैतिक वातावरण की सबसे बड़ी समस्या है कि यह देश अपने ही देश के उत्पाद एवं सेवाओं को अन्य देशों की वस्तुओं एवं सेवाओं की अपेक्षा पसंद करते हैं। अपने ही देश में व्यवसाय कर रही फर्मों के लिए यह कोई समस्या नहीं है लेकिन जो फर्में दूसरे देशों को वस्तु एवं सेवाएँ निर्यात करना चाहती हैं या फिर दूसरे देश में अपने संयंत्र लगाना चाहती हैं, यह बहुत बड़ी कठिनाई पैदा करती है।

(छ) व्यवसाय के नियम एवं नीतियाँ- प्रत्येक देश अपने सामाजिक-आर्थिक वातावरण एवं राजनीतिक विचारधारा के अनुसार व्यवसाय के नियम एवं कानून बनाता है। ये नियम कानून एवं आर्थिक नीतियाँ देश की सीमाओं में लगभग समान रूप से लागू होती हैं लेकिन कई देशों को लेते हैं तो इनमें बहुत अधिक अंतर होता है। किसी एक देश के सीमा शुल्क एवं कर संबंधी नीतियाँ, आयात कोटा प्रणाली, आर्थिक सहायता एवं अन्य नियंत्रण, अन्य देशों के समान नहीं होते हैं तथा विदेशी वस्तुओं, सेवाओं एवं पूँजी के साथ भेदभाव बरतते हैं।

(ज) व्यावसायिक लेन- देनों के लिए प्रयुक्त मुद्रा— आंतरिक एवं बाह्य व्यवसाय में एक और महत्वपूर्ण अंतर है। बाह्य देशों की मुद्राएँ भिन्न-भिन्न होती हैं। विनिमय दर अर्थात् किसी एक देश की मुद्रा का मूल्य परिवर्तित होता रहता है। इससे अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में कार्यरत फर्म के लिए अपनी वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करना एवं विदेशी विनिमय के जोखिमों से सुरक्षा कठिन हो जाती है।

11.1.4 अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का क्षेत्र

जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से अधिक व्यापक होता है। इसमें न केवल अंतर्राष्ट्रीय व्यापार (वस्तु एवं सेवाओं का आयात एवं निर्यात) सम्मिलित है बल्कि और भी बहुत-से कार्य हैं जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कार्यरत हैं। अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय की प्रमुख क्रियाएँ निम्नलिखित हैं-

(क) वस्तुओं का आयात एवं निर्यात- व्यापार की वस्तुओं से अभिप्राय उन मूर्त वस्तुओं से है, अर्थात् जिन्हें हम देख सकते हैं एवं स्पर्श कर सकते हैं। जब हम इस संदर्भ में देखते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यापार वस्तुओं के निर्यात का अर्थ है— मूर्त वस्तुओं को अन्य देशों को भेजना तथा इनके आयात का अर्थ है- मूर्त वस्तुओं को बाह्य देश से अपने देश में लाना। व्यापारिक वस्तुओं के आयात-निर्यात, अर्थात् वस्तुओं के व्यापार में मूर्त वस्तुएँ ही सम्मिलित होती हैं तथा सेवाओं में व्यापार का भाग नहीं होता है।

(ख) सेवाओं का आयात एवं निर्यात- सेवाओं के आयात निर्यात में अमूर्त वस्तुओं का व्यापार होता है। इसी अमूर्त लक्षण के कारण सेवाओं में व्यापार को अदृश्य व्यापार भी कहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक सेवाओं का व्यापार होता है, जिनमें सम्मिलित हैं- पर्यटन एवं यात्रा, भोजनालय एवं विश्राम (होटल एवं जलपान गृह) मनोरंजन, परिवहन, पेशागत

सेवाएँ (जैसे— प्रशिक्षण, भर्ती, परामर्श देना एवं अनुसंधान), संप्रेषण (डाक, टेलीफ़ोन, फैक्स, कूरियर एवं अन्य शृव्य-दृश्य), निर्माण एवं इंजीनियरिंग, विपणन (थोक विक्रय, फुटकर विक्रय, विज्ञापन, विपणन अनुसंधान एवं भंडारण), शैक्षणिक एवं वित्तीय सेवाएँ (जैसे— बैंकिंग एवं बीमा)। इनमें से पर्यटन एवं परिवहन व्यावसायिक सेवाओं के विश्व व्यापार के प्रमुख अंग हैं।

(ग) लाइसेंस एवं फ्रैंचाइजी- अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश का एक और मार्ग है किसी दूसरे देश में वहीं के व्यवसासी को कुछ फीस के बदले आपके अपने ट्रेडमार्क, पेटेंट या कॉपीराइट के अंतर्गत वस्तुओं के उत्पादन एवं विक्रय की अनुमति देना। लाइसेंस प्रणाली के अंतर्गत ही विदेशों में स्थानीय पेप्सी एवं कोका-कोला उत्पादन एवं विक्रय करते हैं। फ्रैंचाइजी भी लाइसेंस प्रणाली के समान है लेकिन यह सेवाओं के संदर्भ में प्रयुक्त होती है। उदाहरणार्थ मैकडोनाल्ड्स फ्रैंचाइजी प्रणाली के द्वारा ही पूरे विश्व में त्वरित खाद्य जलपान गृह चलाते हैं।

(घ) विदेशी निवेश- विदेशों में निवेश करना अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का एक और महत्वपूर्ण प्रकार है। विदेशी निवेश में कुछ वित्तीय प्रतिफल के बदले विदेशों में धन का निवेश किया जाता है। विदेशी निवेश दो प्रकार के हो सकते हैं- प्रत्यक्ष एवं पेटिका निवेश।

तालिका 11.1 घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में कुछ प्रमुख अंतर

आधार घरेलू व्यवसाय अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय
1. क्रेता एवं
विक्रेताओं की
राष्ट्रीयता
घरेलू व्यावसायिक लेन-देन में एक
ही देश के व्यक्ति अथवा संगठन
भाग लेते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में विभिन्न देशों की
राष्ट्रीयता प्राप्त लोग एवं संगठन भाग
लेते हैं।
2. अन्य हितार्थियों
की राष्ट्रीयता
अनेकों दूसरे हितार्थी, जैसे-
आपूर्तिकर्ता, कर्मचारी, मध्यस्थ,
अंशधारक एवं साझेदार सामान्यत:
एक ही देश के नागरिक होते हैं।
अन्य दूसरे हितार्थी आपूर्तिकर्ता, कर्मचारी,
मध्यस्थ, अंशधारक एवं साझेदार
अलग-अलग देशों से होते हैं।
3. उत्पादन के साधनों
की गतिशीलता
एक देश की सीमाओं में उत्पादन के
साधन जैसे श्रम एवं पूँजी अपेक्षाकृत
अधिक गतिशील होते हैं।
विभिन्न देशों के बीच उत्पादन के साधन,
जैसे- श्रम एवं पूँजी अपेक्षाकृत कम
गतिशील होते हैं।
4. बाजाार में ग्राहकों के
स्वरूप में भिन्नता
घरेलू बाज़ार में अपेक्षाकृत अधिक
समरूपता पाई जाती है।
अंतर्राष्ट्रीय बाजजारों में भाषा प्राथमिकताओं
रीति-रिवाजों आदि की भिन्नता के कारण
समरूपता का अभाव रहता है।
5. व्यवसाय की
प्रणालियों एवं
व्यवहार में भिन्नता
एक देश की सीमाओं के भीतर
व्यवसाय की प्रणालियों एवं
व्यवहार में अधिक समरूपता पाई
जाती है।
विभिन्न देशों में व्यवसाय की पद्धतियाँ एवं
व्यवहार भी भिन्न होते हैं।
6. राजनैतिक प्रणालियाँ
एवं जोखिमें
घरेलू व्यवसाय को एक ही देश की
राजनैतिक प्रणाली एवं जोखिमों से
वास्ता पड़ता है।
अलग-अलग देशों की राजनैतिक
प्रणालियों के स्वरूप एवं जोखिमों की सीमा
अधिक होती है जो कभी-कभी अंतर्राष्ट्रीय
व. व्यवसाय में बाधक हो जाती है।
7. व्यवसाय संबंधित
नियम एवं नीतियाँ
प्रयु्त मुद्रा
घरेलू व्यवसाय में, एक ही देश के
नियम, कानून, नीतियाँ एवं कर
प्रणाली लागू होती हैं।
अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में लेन-देन पर बहुत
से देशों के नियम, कानून एवं नीतियाँ सीमा
शुल्क एवं कोटा आदि लागू होते हैं।
8. व्यवसाय में प्रयक्‍तु मुद्रा अपने देश की मुद्रा प्रयोग की
जाती है।
अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में लेन-देन एक से
अधिक देशों की मुद्रा में होता है।

प्रत्यक्ष निवेश में एक कंपनी किसी देश में वस्तु एवं सेवाओं के उत्पादन एवं विपणन के लिए वहाँ संयंत्र एवं मशीनों जैसी परिसंपत्तियों में प्रत्यक्ष निवेश करती है। प्रत्यक्ष निवेश निवेशक को विदेशी कंपनी में नियंत्रण का अधिकार देता है। इसे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश अर्थात् एफ़.डी.आई. कहते हैं। जब किसी एक या अधिक विदेशी व्यवसायी के साथ उत्पादन एवं विपणन में धन लगाया जाता है तो इस क्रिया को संयुक्त उपक्रम कहते हैं। यदि कोई कंपनी चाहती है तो वह विदेशी उपक्रम में 100 प्रतिशत निवेश कर पूर्ण रूप से अपने स्वामित्व में एक सहायक कंपनी की स्थापना कर सकती है। इस प्रकार से उस सहायक कंपनी के विदेशों में व्यवसाय पर इसका पूरा नियंत्रण होगा। दूसरी ओर, एक पेटिका निवेश एक कंपनी का दूसरी कंपनी में उसके शेयर खरीद या फिर ऋण के रूप में निवेश होता है। निवेशक कंपनी को लाभांश या ऋण पर ब्याज के रूप में आय होती है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के समान पेटिका निवेश में निवेशक उत्पादन एवं विपणन क्रियाओं में लिप्त नहीं होता है। इसमें विदेशों में शेयर, बाँड, बिल या नोट में निवेश कर या विदेशी व्यावसायिक फर्मों को ऋण देकर उनसे आय प्राप्त होती है।

11.1.5 अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय के लाभ

अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में अनेक जटिलताओं एवं जोखिमों के होते हुए भी यह राष्ट्रों एवं व्यावसायिक फर्मों के लिए महत्वपूर्ण है। इससे उन्हें अनेक लाभ हैं। पिछले वर्षों में प्राप्त इन लाभों के कारण ही विभिन्न राष्ट्रों के बीच व्यापार एवं निवेश का विस्तार हुआ है। परिणामस्वरूप वैश्वीकरण में आशातीत वृद्धि हुई है। अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय के विभिन्न देशों एवं फर्मों के लाभों का वर्णन नीचे किया गया है-

राष्ट्रों को लाभ

(क) विदेशी मुद्रा का अर्जन- अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय से एक देश को विदेशी मुद्रा के अर्जन में सहायता मिलती है जिसे वह पूँजीगत वस्तुओं एवं उर्वरक, फ़ार्मास्यूटिकल उत्पाद एवं अन्य बहुत-सी ऐसी उपभोक्ता वस्तुएँ जो अपने देश में उपलब्ध नहीं हैं, उनके आयात पर व्यय करता है।

(ख) संसाधनों का अधिक क्षमता से उपयोग- जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का संचालन एक सरल सिद्धांत पर किया जाता है— उन वस्तुओं का उत्पादन करें जिसे आपका देश अधिक क्षमता से कर सकता है तथा आधिक्य उत्पादन को दूसरे देशों के उन उत्पादों से विनिमय कर लें जिनका वे अधिक क्षमता से उत्पादन कर सकते हैं। जब राष्ट्र इस सिद्धांत पर व्यापार करते हैं तो वे यदि सभी वस्तु एवं सेवाओं का स्वयं ही उत्पादन करें, तो इससे अधिक उन वस्तुओं का उत्पादन कर सकेंगे जिनका वह भली-भाँति उत्पादन कर सकते हैं। इस प्रकार से सभी देशों की वस्तु एवं सेवाओं को एकत्रित कर उसे समानता के आधार पर उनमें वितरित कर दिया जाए तो इससे व्यापार कर रहे सभी देशों को लाभ होगा।

(ग) विकास की संभावनाओं एवं रोज़गार के अवसरों में सुधार- यदि उत्पादन केवल घरेलू उपभोग के लिए किया जाएगा तो इससे देश के विकास एवं रोज़गार की संभावनाओं में रुकावट पैदा होगी। अनेक देश, विशेषत: विकासशील देश बड़े पैमाने पर उत्पादन की अपनी योजनाओं को इसलिए कार्यान्वित नहीं कर सके क्योंकि घरेलू बाजार में आधिक्य उत्पादन की खपत नहीं थी इसीलिए वह रोज़गार के अवसर भी पैदा नहीं कर सके।

कुछ समय बाद कुछ देश, जैसेसिंगापुर, दक्षिण कोरिया एवं चीन ने विदेशों में अपने माल की बिक्री पर ध्यान दिया तथा निर्यात करो एवं फलो-फूलो की रणनीति अपनाई एवं शीघ्र ही संसार के नक्शे में चोटी के निष्पादक बन गये। इससे न केवल उनके विकास के अवसर बढ़े बल्कि इनके देशवासियों के लिए रोजगार के अवसर भी पैदा हुए।

(घ) जीवन स्तर में वृद्धि- यदि वस्तु एवं सेवाओं का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार नहीं होता तो विश्व समुदाय के लिए दूसरे देशों में उत्पादित वस्तुओं का उपभोग संभव नहीं होता। आज वह इनका उपभोग कर स्वयं भी उच्च जीवन स्तर का आनंद ले रहे हैं।

फर्मों को लाभ

(क) उच्च लाभ की संभावनाएँ- अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में घरेलू व्यवसाय की तुलना में अधिक लाभ प्राप्त होता है। जब घरेलू बाज़ार में मूल्य कम हो तो उन देशों में माल बेचकर लाभ कमाया जा सकता है जिनमें मूल्य अधिक है।

(ख) बढ़ी हुई क्षमता का उपयोग- कई इकाइयाँ घरेलू बाज़ार में उनकी वस्तुओं की मांग से कहीं अधिक क्षमता स्थापित कर लेती हैं। बाह्य विस्तार एवं अन्य देशों के ग्राहकों से आदेश प्राप्त करने की योजना के द्वारा वह अपनी अतिरिक्त उत्पादन क्षमता के उपयोग की सोच सकते हैं तथा व्यवसाय की लाभप्रदता को बढ़ा सकते हैं। बड़े पैमाने पर उत्पादन से अनेक लाभ प्राप्त होते हैं जिससे उत्पादन लागत में कमी आती है तथा प्रति इकाई लाभ में वृद्धि होती है।

(ग) विकास की संभावनाएँ- व्यावसायिक इकाइयों में उस समय निराशा व्याप्त हो जाती है, जब घरेलू बाज़ार में उनके उत्पादों की मांग में ठहराव आने लगता है। ऐसी इकाइयाँ विदेशी बाजार में प्रवेश कर अपने विकास के अवसर काफी हद तक बढ़ा सकती हैं। यही कारण है जिसने विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को विकासशील देशों के बाजार में प्रवेश के लिए प्रेरित किया है। जब उनके अपने देश में मांग लगभग परिपूर्णता पर पहुँच गयी, तभी विकसित देशों में उनकी वस्तुओं को बहुत पसंद किया जाने लगा तथा वहाँ इनकी मांग बड़ी तेज़ी से बढ़ी।

(घ) आंतरिक बाज़ार में घोर प्रतियोगिता से बचाव- जब आंतरिक बाज़ार में गहन प्रतियोगिता हो, तब पर्याप्त विकास के लिए अंतर्राष्ट्रीय व्यापार ही एकमात्र उपाय है। घरेलू बाजार में गहन प्रतियोगिता के कारण कई कंपनियाँ अपने उत्पादों के लिए बाज़ार की तलाश में विदेशों को पलायन करती हैं। अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय इस प्रकार से उन फर्मों के लिए विकास की सीढ़ी का काम करता है जिन्हें घरेलू बाज़ार में भारी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है।

(ङ) व्यावसायिक दृष्टिकोण— कई कंपनियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का विकास उनकी व्यावसायिक नीतियों अथवा रणनीतिगत प्रबंधन का एक भाग है। अंतर्राष्ट्रीय व्यवसायी बनने की आकांक्षा, विकास की तीव्र इच्छा, अधिक प्रतियोगी होने की आवश्यकता, विविधिकरण की आवश्यकता एवं अंतर्राष्ट्रीयकरण के लाभ प्राप्ति का परिणाम है।

11.2 अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश की विधियाँ

सरल शब्दों में विधि का अर्थ है- कैसे या किस मार्ग से। इसलिए ‘अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश की विधि’ वाक्य खंड का अर्थ है- अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश के विभिन्न तरीके। अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का अर्थ एवं क्षेत्र की परिचर्चा करते समय हमने अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश के कुछ मार्गों के संबंध में बताया। आगे के अनुभाग में हम अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश की कुछ महत्वपूर्ण प्रणालियों पर उनके लाभ एवं सीमाओं सहित परिचर्चा करेंगे। इस चर्चा से आप यह जान जाएँगे कि किन परिस्थितियों में कौन-सी प्रणाली अधिक उपयुक्त है।

11.2.1 आयात एवं निर्यात

निर्यात से अभिप्राय वस्तु एवं सेवाओं को अपने देश से दूसरे देश को भेजने से है। इसी प्रकार से आयात का अर्थ है विदेशों से माल का क्रयकर अपने देश में लाना। एक फर्म आयात और निर्यात दो तरीकों से कर सकती है प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष आयात/निर्यात। प्रत्यक्ष आयात/निर्यात में फर्म स्वयं विदेशी क्रेता/ आपूर्तिकर्ता तक पहुँचती है तथा आयात/निर्यात से संबंधित सभी औपचारिकताओं, जिनमें जहाज़ में लदान एवं वित्तीयन भी सम्मिलित है, को स्वयं ही पूरा करती है। दूसरी ओर अप्रत्यक्ष आयात/निर्यात वह है जिसमें फर्म की भागीदारी न्यूनतम होती है तथा वस्तुओं के आयात/निर्यात से संबंधित अधिकांश कार्य को कुछ मध्यस्थ करते हैं जैसे अपने ही देश में स्थित निर्यात गॄह या विदेशी ग्राहकों से क्रय करने वाले कार्यालय तथा आयात के लिए थोक आयातक। इस प्रकार की फर्में निर्यात की स्थिति में विदेशी ग्राहकों से एवं आयात में आपूर्तिकर्ताओं से सीधे व्यवहार नहीं करती हैं।

लाभ

निर्यात के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं-

(क) प्रवेश के अन्य माध्यमों की तुलना में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में प्रवेश की आयात/निर्यात सबसे सरल पद्धति है। यह संयुक्त उपक्रमों की स्थापना एवं प्रबंधन से या विदेशों में स्वयं के स्वामित्व वाली सहायक इकाइयों की तुलना में कम जटिल क्रिया है।

(ख) आयातनिर्यात में संबद्धता कम होती है अर्थात् इसमें व्यावसायिक इकाइयों को उतना धन एवं समय लगाने की आवश्यकता नहीं है जितना कि संयुक्त उपक्रम में सम्मिलित होने या फिर मेहमान देश में विनिर्माण संयंत्र एवं सुविधाओं को स्थापित करने में लगाया जाता है।

(ग) क्योंकि आयात/निर्यात में विदेशों में अधिक निवेश की आवश्यकता नहीं होती है इसीलिए विदेशों में निवेश की जोखिम शून्य होता है या फिर अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश के अन्य माध्यमों की तुलना में यह बहुत ही कम होता है।

आयात/निर्यात की सीमाएँ

अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश माध्यम के रूप में आयात/निर्यात की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं-

(क) आयात/निर्यात में वस्तुओं को भौतिक रूप से एक देश से दूसरे देश को लाया ले जाया जाता है। इसलिए इन पर पैकेजिंग, परिवहन एवं बीमा की अतिरिक्त लागत आती है। विशेष रूप से यदि वस्तुएँ भारी हैं तो परिवहन व्यय आयात/ निर्यात में बाधक होता है। दूसरे देश में पहुँचने पर इन पर सीमा शुल्क एवं अन्य कर लगते हैं एवं खर्चे होते हैं। इन सभी खर्चों के प्रभाव स्वरूप उत्पाद की लागत में काफी वृद्धि हो जाती है तो वह कम प्रतियोगी हो जाते हैं।

(ख) जब किसी देश में आयात पर प्रतिबंध लगा होता है तो वहाँ निर्यात नहीं किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में फर्मों के पास केवल अन्य माध्यमों का ही विकल्प रह जाता है जैसे लाइसेंसिंग/क्रेंचाइजिंग या फिर संयुक्त उपक्रम। इनके कारण दूसरे देशों में स्थानीय उत्पादन एवं विपणन के माध्यम से उत्पादों को उपलब्ध कराना संभव हो जाता है।

(ग) निर्यात इकाइयाँ मूलरूप से अपने गृह देश से प्रचालन करती हैं। वे अपने देश में उत्पादन कर उन्हें दूसरे देशों में भेजती हैं। निर्यात फर्मों के कार्यकारी अधिकारियों का अपनी वस्तुओं के प्रवर्तन के लिए अन्य देशों की गिनी-चुनी यात्रओं को छोड़कर इनका विदेशी बाज़ार से और अधिक संपर्क नहीं हो पाता। इससे निर्यात इकाइयाँ स्थानीय निकायों की तुलना में घाटे की स्थिति में रहती है क्योंकि स्थानीय निकाय ग्राहकों के काफी समीप होते हैं तथा उन्हें भलीभाँति समझते भी हैं।

उपरोक्त सीमाओं के होते हुए सभी जो फर्में अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय को प्रारंभ कर रहीं हैं उनके लिए आयात/निर्यात ही पहली पसंद है। जैसाकि साधारणत: होता है व्यावसायिक इकाइयाँ विदेशों से व्यापार पहले आयात/ निर्यात से ही प्रारंभ करते हैं और जब वह विदेशी बाजजार से परिचित हो जाते हैं तो अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय प्रचालन के अन्य स्वरूपों को अपनाने लगते हैं।

11.2.2 संविदा विनिर्माण

संविदा विनिर्माण अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का वह स्वरूप है जिसमें एक फर्म विदेशों में अपनी आवश्यकता के अनुसार घटक एवं वस्तुओं के उत्पादन के लिए स्थानीय विनिर्माता अथवा विनिर्माताओं से अनुबंध कर लेते हैं। ठेके पर विनिर्माण को बाह्यस्त्रोतीकरण भी कहते हैं। इसके तीन प्रमुख प्रकार होते हैं-

(क) कुछ घटकों का उत्पादन जैसे स्वचालित वाहनों का घटक या फिर जूतों के ऊपर के भाग। इन घटकों को बाद में कार एवं जूते बनाने में प्रयोग में लाया जाता है।

(ख) घटकों को समुच्चय कर अंतिम उत्पाद में परिवर्तित करना, जैसे— हार्डडिस्क, मदरबोर्ड, फ़्लॉपी डिस्क ड्राइव तथा मॉडम चित्त का समुच्चय कर कंप्यूटर बनाना।

(ग) कुछ वस्तुओं का पूर्ण रूप से उत्पादन, जैसेसिले-सिलाए वस्त्र।

वस्तुओं का उत्पादन अथवा संमुच्चयीकरण विदेशी कंपनियों द्वारा प्रदत्त तकनीक एवं प्रबंध दिशा-निर्देश के अनुसार स्थानीय उत्पादकों के द्वारा किया जाता है। इन उत्पादित अथवा समुच्चय की गई वस्तुओं को यह स्थानीय उत्पादक अंतर्राष्ट्रीय फर्मों को सौंप देते हैं जो इन्हें या तो अपने अंतिम उत्पादों के लिए प्रयोग में लाते हैं या फिर अपने गृह देश, मेहमान देश एवं अन्य देशों में अपने ब्रांड के नाम से विक्रय करते हैं। जितने भी प्रमुख ब्रांड हैं, जैसे— नाइक, रीबॉक, लीविस एवं रैंगलर यह सभी अपने उत्पाद अथवा घटकों का उत्पादन विकासशील देशों में ठेके पर ही कराते हैं।

लाभ

ठेके पर उत्पादन के अंतर्राष्ट्रीय कंपनी एवं विदेशों एवं स्थानीय उत्पादक दोनों को अनेक लाभ हैं। जो इस प्रकार हैं-

(क) इससे अंतर्राष्ट्रीय फर्में बिना उत्पादन सुविधाओं की स्थापना में पूँजी लगाए बड़े पैमाने पर वस्तुओं का उत्पादन करा लेती हैं। यह फर्में दूसरे देशों में पहले से ही उपलब्ध उत्पादन सुविधाओं का उपयोग करती हैं।

(ख) बाह्य देशों में इसकी कोई पूँजी नहीं लगी होती या फिर बहुत कम लगी होती है इसलिए बाह्य देशों में निवेश मे कोई जोखिम नहीं उठानी पड़ती।

(ग) ठेके पर उत्पादन का अंतर्राष्ट्रीय कंपनी को एक और लाभ कम लागत पर उत्पादन या एकत्रीकरण है विशेष रूप से यदि स्थानीय उत्पादनकर्ता ऐसे देशों के हैं जहाँ कच्चामाल एवं श्रम सस्ता है।

(घ) बाह्य देशों के स्थानीय उत्पादकों को भी ठेके पर उत्पादन का लाभ मिलता है। यदि उनकी उत्पादन क्षमता उपयोग में नहीं आ रही है तो ठेके पर उत्पादन का काम एक प्रकार से उन्हें उनके उत्पादों के लिए तैयार बाज़ार देता है तथा उनकी उत्पादन क्षमताओं के अधिक उपयोग को सुनिश्चित करता है। गोदरेज समूह भारत में ठेका उत्पादन से इसी प्रकार लाभांवित हो रहा है। यह अनुबंध के अधीन कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए नहाने के साबुन का उत्पादन कर रहा है जैसे रैकिट एंड कोलमैन के लिए डिटोल साबुन। इससे इसकी साबुन का उत्पादन के अतिरिक्त क्षमता को उपयोग करने में सहायता मिल रही है।

(ङ) स्थानीय उत्पादक को भी अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में सम्मिलित होने का अवसर मिलता है तथा यदि अंतर्राष्ट्रीय निकाय इन उत्पादित वस्तुओं की अपने देश को आपूर्ति करते हैं या फिर किसी अन्य देश को भेजते हैं तो निर्यात फर्मों को मिलने वाले प्रोत्साहन का लाभ भी मिलता है।

सीमाएँ

संविदा विनिर्माण की अंतर्राष्ट्रीय निकायों स्थानीय उत्पादकों को प्रमुख हानियाँ निम्नलिखित हैं-

(क) स्थानीय फर्में यदि उत्पादन डिज़ाइन एवं गुणवत्ता मान के अनुरूप कार्य नहीं करती हैं तो इससे अंतर्राष्ट्रीय फर्म को गुणवत्ता उत्पादन की कठिन समस्या पैदा हो सकती है।

(ख) बाह्य देश के स्थानीय उत्पादक का उत्पादन प्रक्रिया पर कोई नियंत्रण नहीं रहता क्योंकि वस्तुओं का उत्पादन अनुबंध में निर्धारित शर्तों एवं विशिष्ट वर्णन के अनुसार किया जाता है।

(ग) संविदा विनिर्माण के अंतर्गत उत्पादन करने वाली स्थानीय इकाई अपनी इच्छानुसार इस माल को नहीं बेच सकती। इसे अपने माल को अंतर्राष्ट्रीय कंपनी को पूर्व निर्धारित मूल्य पर ही बेचना होगा। खुले बाज़ार में इन वस्तुओं की मूल्य यदि अुनबंधित मूल्य से अधिक है तो स्थानीय फर्म को इससे कम लाभ प्राप्त होगा।

11.2.3 अनुज्त्ति लाइसैंस एवं मताधिकारी

लाइसैंस प्रदान करना एक ऐसी अनुबंधीय व्यवस्था है जिसमें एक फर्म बाह्य देश की दूसरी फर्म को फीस, जिसे रॉयल्टी कहते हैं, के बदले में अपने पेटेंट अधिकार, व्यापार के रहस्य या फिर तकनीक दे देता है। जो फर्म दूसरी फर्म को इस प्रकार का लाइसैंस प्रदान करती है वह लाइसैंस प्रदानकर्ता एवं बाह्यदेश की जो फर्म इस प्रकार के अधिकार प्राप्त करती है को केवल तकनीक का ही अुनज्ञाप्ति लाइसेंस नहीं दिया जाता बल्कि फैशन उद्योग में कई डिजाइन कर्ता अपने नाम के प्रयोग करने का लाइसेंस दे देते हैं। कभी-कभी दो इकाइयों के बीच तकनीक का आदान-प्रदान भी होता है। इसी प्रकार से दो फर्मों के बीच ज्ञान, तकनीक एवं पेटेंट अधिकार का पारस्परिक विनिमय होता है। इसे प्रति अनुज्ञप्ति लाइसैंस कहते हैं।

मताधिकारी अनुजुप्ति लाइसैंस से बहुत मिलता जुलता है। दोनों में एक प्रमुख अंतर है कि पहले का प्रयोग वस्तुओं उत्पादन एवं विनिमय के लिए होता है तो मताधिकारी का प्रयोग सेवाओं के संदर्भ में किया जाता है। दूसरा अंतर है कि विशेषाधिकार अनुज्ञप्ति से अधिक कठोर होता है। विशेषाधिकार प्रदानकर्ता साधारणतया विशेषाधिकार प्राप्तकर्ताओं अपने व्यवसाय का प्रचालन किस प्रकार से करना चाहिए। इस संबंध में सख्त नियम एवं शर्तें रखते हैं। इन दो अंतरों को छोड़कर विशेष अधिकार अनुज्ञप्ति के समान ही है। जैसा कि अुनज्ञात्ति में होता है विशेषाधिकार समझौते में भी एक पक्ष दूसरे पक्ष को तकनीक, टै‘डमार्क एवं पेटेन्ट को एक तय प्रतिफल के बदले निश्चित समय के लिए उपयोग

करने का अधिकार देता है। अविभावक कंपनी को विशेषाधिकार प्रदानकर्ता एवं समझौते के दूसरे पक्ष को विशेषाधिकार प्राप्तकर्ता कहते हैं। फ़्रैंचाइजर कोई भी सेवा प्रदान करने वाला, जैसे- एक जलपान गृह, होटल, यात्रा एजेंसी, बैंक, थोक विक्रेता या फिर फुटकर विक्रेता हो सकता है जिसने कि अपने नाम या ट्रैडमार्क के अधीन सेवाओं के निर्माण एवं विपणन के विशेष तकनीक का विकास किया हो। विशिष्ट तक्नीक के कारण ही क्रैंचाइजर अपने प्रतियोगियों से अधिक श्रेष्ठ हो जाता है तथा इससे संभावित सेवा प्रदानकर्ता विशेषाधिकार प्रणाली में सम्मिलित होने के लिए तैयार हो जाते हैं। मैक्डोनाल्ड, पीजाहट एवं वॉलमार्ट कुछ अग्रणी विशेषाधिकार प्रदानकर्ता (क्रैंचाइजर) हैं जो पूरे विश्व में प्रचालन कर रहे हैं।

लाभ

संयुक्त उपक्रम एवं पूर्णस्वामित्व सहायक इकाइयों की तुलना में अनुज्ञत्ति/क्रेंचाइजिंग विदेशी व्यापार में प्रवेश का सबसे सरल मार्ग है जिसमें परखा हुआ माल/तक्नीक होता है तथा जिसमें न अधिक जोखिम है और न ही अधिक निवेश की आवश्यकता। अनुज्ञप्ति के कुछ विशिष्ट लाभ निम्नलिखित हैं।

(क) अनुज्ञप्तिक्रिचाइजिंग प्रणाली में अनुज्त्तिदाता/ फ्रैंचाइजर व्यवसाय को स्थापित करता है एवं इसमें अपनी पूँजी लगाता है। अर्थात् अनुज्तिप्ताता/क्रैंचाइजर एक प्रकार से दूसरे देशों में निवेश करता है। इसीलिए इसे अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश का एक महंगा माध्यम माना गया है।

(ख) बहुत ही कम विदेशी निवेश के कारण अनुज्तिदाता/फैंचाइजर को विदेशी व्यापार से होने वाली हानि में कोई भागीदारी नहीं होती।

(ग) अनुज्ञप्तिधारक/क्रेंचाइजी से तब तक पूर्व निर्धारित फ़ीस का भुगतान मिलता रहेगा जब तक कि उसकी व्यावसायिक इकाई में उत्पादन अथवा विक्रय होता रहेगा।

(घ) बाह्य देश के व्यवसाय काप्रबंध अनुज्ञप्तिधारक/ फ्रैंचाइजी के द्वारा किया जाता है जो कि एक स्थानीय व्यक्ति होता है। इसीलिए सरकार द्वारा व्यवसाय के अधिग्रहण अथवा उसमें हस्तक्षेप का जोखिम कम होता है।

(ड·) अनुजुप्तिधारक/क़ैंचाइजी क्योंकि एक स्थानीय व्यक्ति होता है। उसे बाज़ार का अधिक ज्ञान होता है तथा उसके संपर्क सूत्र भी अधिक होते हैं। इसका लाभ अुनज्ञत्तिदात//क्रैंचाइजर को अपने विपणन कार्य को सफलतापूर्वक चलाने में मिलता है।

(च) अनुज़प्ति/क्रेंचाइजिंग के अनुबंध की शर्तों के अनुसार इस अनुबंधके पक्षों को ही अुनज्ताप्दाता/ फ्रैंचाइजर के कॉपीराइट, पेटेंटए एवं ब्रांड के नाम का बाह्य देशों में उपयोग करने का कानूनी अधिकार होता है। परिणामस्वरूप अन्य फर्मों, ट्रेडमार्क एवं पेटेंट्स का उपयोग नहीं कर सकती।

सीमाएँ

एक अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय के साधन के रूप में अनुजुप्ति/विशेषाधिकार (फ्रैंचाइजिंग) की कुछ कमियाँ हैं जो निम्नलिखित हैं-

(क) अनुज्ञप्तिधारक/फ्रैंचाइजी जब आधिकारित वस्तुओं के विनिर्माण एवं विपणन में निपुणता प्राप्त कर लेता है तो उसके द्वारा समान उत्पाद के थोड़े भिन्न ब्रांड के नाम में व्यापार करने का खतरा रहता है। इससे अनुजुप्तिदाता/फ्रैंचाइजर को भारी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ सकता है।

(ख) यदि व्यापार के रहस्यों को भली प्रकार से गुप्त नहीं रखा गया तो विदेशी बाज़ार में दूसरों को इसका ज्ञान हो जायेगा। अनुज्ञप्तिधारक/ फ्रैंइचाइजी की इस चूक के कारण अनुज़्तिदाता/ फ़्रैंचाइजर को भारी हानि हो सकती है।

(ग) कुछ अवधि के पश्चात् अनुज्त्तिदाता/ फ्रैंचाइजर एवं अनुज्ताप्तिारक/क्रैंचाइजी के बीच खातों के रखने, रॉयल्टी का भुगतान एवं गुणवत्ता उत्पादों के उत्पादन के संबंध में मानकों का पालन न करना जैसे मामलों पर मतभेद पैदा हो जाते हैं। इन मतभेदों के कारण मुकदमें शुरू हो जाते हैं जिससे दोनों पक्षों को हानि होती है।

11.2.4 संयुक्त उपक्रम

संयुक्त उपक्रम बाह्य बाज़ार में प्रवेश का एक सामान्य माध्यम है। संयुक्त उपक्रम का अर्थ होता है दो या दो से अधिक स्वतंत्र इकाइयों के संयुक्त स्वामित्व में एक फर्म की स्थापना। व्यापक अर्थो में यह भी संगठन का वह स्वरूप है जिसमें एक लंबी अवधि के लिए सहयोग की अपेक्षा की जाती है। एक संयुक्त स्वामित्व उपक्रम को तीन प्रकार से बनाया जा सकता है-

(क) विदेशी निवेशक द्वारा स्थानीय कंपनी में हिस्सेदारी का क्रय।

(ख) स्थानीय फर्म द्वारा पूर्व स्थापित विदेशी फर्म में हिस्सा प्राप्त कर लेना।

(ग) विदेशी एवं स्थानीय उद्यमी दोनों ही मिलकर एक न एक उद्यम की स्थापना कर लें।

लाभ

संयुक्त उपक्रम के कुछ प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं-

(क) इस प्रकार के उपक्रमों की समता पूँजी में स्थानीय साझी का भी योगदान होता है, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय फर्म पर विश्वव्यापी विस्तार में कम वित्तीय भार पड़ेगा।

(ख) संयुक्त उपक्रमों के कारण बड़ी पूँजी एवं श्रमशक्ति वाली बड़ी योजनाओं को कार्यान्वित करना संभव हो पाता है।

(ग) विदेशी व्यावसायिक इकाइयों को स्थानीय साझी के मेहमान देश की प्रतियोगी परिस्थितियों, संस्कृति, भाषा, राजनीतिक प्रणाली एवं व्यावसायिक पद्धतियों के संबंध में जानकारी का पूरा लाभ प्राप्त होता है।

(घ) कई मामलों में विदेशी व्यापार में प्रवेश करना खर्चीला एवं जोखिम भरा भी होता है। संयुक्त उपक्रम करार के द्वारा इस प्रकार की लागत एवं जोखिम को बाँटने के माध्यम से इनसे बचा जा सकता है।

सीमाएँ

संयुक्त उपक्रम की प्रमुख सीमाओं का वर्णन नीचे किया गया है-

(क) विदेशी फर्में जो संयुक्त उपक्रम में साझा करती हैं वह अपनी प्रौद्योगिकी एवं व्यापार के राज विदेशी स्थानीय फर्म के साथ बाँटती है इससे प्रौद्योगिकी एवं व्यापार के राज दूसरों को उजागर किये जाने का भय रहता है।

(ख) द्वि-स्वामित्व व्यवस्था में विरोधाभास की संभावना रहती है जिससे निवेशक इकाइयों के बीच नियंत्रण की लड़ाई हो सकती है।

11.2.5 संपूर्ण स्वामित्व वाली सहायक इकाइयाँ/कंपनियाँ

अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का यह माध्यम उन कंपनियों की पंसद होती है जो अपने विदेशों में परिचालन पर पूर्ण नियंत्रण चाहते हैं। जनक कंपनी अन्य देश में स्थापित कंपनी में 100 प्रतिशत पूँजी निवेश कर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लेती है। संपूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी की स्थापना दो प्रकार से की जा सकती है-

(क) विदेशों में परिचालन प्रारंभ के लिए एक बिलकुल ही नई कंपनी स्थापित करना। इसे ‘हरित क्षेत्र उपक्रम’ भी कहते हैं।

(ख) दूसरे देश में पहले से ही स्थापित संगठन का अधिग्रहण कर लेना तथा मेहमान देश में इसी इकाई के माध्यम से अपने उत्पादों का उत्पादन एवं संवर्धन करना।

लाभ

विदेश में एक संपूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी के कुछ प्रमुख लाभ नीचे दिए गए हैं-

(क) जनक कंपनी अपने विदेश की क्रियाओं पर पूरा नियंत्रण रख सकती है।

(ख) जनक कंपनी क्योंकि अपनी विदेशी सहायक कंपनी के प्रचलन पर नज़र रखती है इससे इसके प्रौद्योगिकी एवं व्यापार के राज दूसरों पर नहीं खुलते।

सीमाएँ

किसी अन्य देश में पूर्ण रूप से अपने स्वामित्व में सहायक कंपनी की स्थापना की सीमाएँ निम्नलिखित हैं-

(क) जनक कंपनी को विदेशी सहायक कंपनी की पूँजी में 100 प्रतिशत निवेश करना होगा। इस प्रकार का अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय छोटी एवं मध्य आकार की इकाइयों के लिए उपयुक्त नहीं हैं जिनके पास विदेशों में निवेश के लिए पर्याप्त धन नहीं है।

(ख) अब क्योंकि जनक कंपनी को ही विदेशी सहायक कंपनी की 100 प्रतिशत समता पूँजी में धन लगाया होता है इसीलिए यदि इसकी विदेशी व्यापारिक कार्य असफल रहते हैं तो उसकी पूरी हानि इसी को वहन करनी होगी।

(ग) कुछ देश अपने देश में अन्य देश के व्यक्तियों द्वारा शतप्रतिशत स्वामित्व वाली सहायक कंपनी की स्थापना के विरुद्ध होते हैं। इस प्रकार से विदेशों में व्यवसाय संचालन को बड़ा राजनीतिक जोखिम उठाना पड़ता है।

11.3 आयात-निर्यात प्रक्रिया

आंतरिक एवं बाह्य व्यवसाय परिचालन में प्रमुख अंतर बाह्य व्यवसाय की जटिलता है। वस्तुओं का आयात एवं निर्यात उतना सीधा एवं सरल नहीं है जितना कि घरेलू बाजार में क्रय एवं विक्रय, क्योंकि विदेशी व्यापार में माल देश की सीमा के पार भेजा जाता है तथा इसमें विदेशी मुद्रा का प्रयोग किया जाता है, इसलिए अपने देश की सीमा को पार करने तथा दूसरे देश की सीमा में प्रवेश करने से पूर्व कई औपचारिकताओं को पूरा करना होता है। आगे के अनुभागों में आयात-निर्यात सौदों को पूरा करने से संबंधित प्रमुख चरणों की चर्चा करेंगे।

11.3.1 निर्यात प्रक्रिया

अलग-अलग निर्यात लेन-देनों के विभिन्न चरणों की संख्या एवं जिस क्रम में यह चरण उठाए जाते हैं, अलग-अलग होते हैं। एक प्रारूपिक निर्यात लेन-देन के निम्नलिखित चरण होते हैं-

(क) पूछताछ प्राप्त करना एवं निर्ख भेजना- संभावित क्रेता विभिन्न निर्यातकों को पूछताछ का पत्र भेजता है जिसमें वह उनसे माल के मूल्य, गुणवत्ता एवं निर्यात से संबंधित शर्तों के संबंध में सूचना भेजने के लिए प्रार्थना करता है। आयातक इस प्रकार विज्ञापन की पूछताछ के संबंध में निर्यातकों को समाचार पत्रों में विज्ञापन के माध्यम से भी सूचित कर सकता है। निर्यातक इस पूछताछ का उत्तर निर्ख के रूप में भेजता है जिसे प्रारूप बीजक कहते हैं। प्रारूप बीजक में उस मूल्य के संबंध में सूचना होती है जिस पर निर्यातक माल को बेचने के लिए तैयार है। इसमें गुणवत्ता, श्रेणी, आकार, वजन, सुपर्दगी की प्रणाली, पैकेजिंग का प्रकार एवं भुगतान की शर्तों आदि की भी सूचना दी होती है।

(ख) आदेश अथवा इंडैंट की प्राप्ति- यदि संभावित क्रेता (अर्थात् आयातक फर्म) के लिए निर्यात का मूल्य एवं अन्य शर्तें स्वीकार्य हैं, तो वह वस्तुओं को भेजने का आदेश देगा। इस आदेश में जिसे इंडैंट भी कहते हैं, आदेशित वस्तुओं का विवरण, देय मूल्य, सुप्दर्दगी की शर्तें, पैकिंग एवं चिह्नांकन का ब्यौरा एवं सुपर्दगी संबंधी निर्देश होते हैं।

(ग) आयातक की साख का आँकलन एवं भुगतान की गारंटी प्राप्त करना- इंडैंट की प्राप्ति के पश्चात् निर्यातक, आयातक की साख के संबंध में आवश्यक पूछताछ करता है। इस पूछतााछ का उद्देश्य माल के आयात के गंतव्य स्थान पर पहुँचने पर आयातक द्वारा भुगतान न करने के जोखिम का आँकलन करता है। इस जोखिम को कम से कम करने के लिए अधिकांश निर्यातक, आयातक से साख पत्र की माँग करते हैं। साख पत्र आयातक के बैंक द्वारा जारी किया जाता है जिसमें वह निर्यातक के बैंकों को एक निश्चित राशि तक के निर्यात बिलों के भुगतान की गारंटी देता है। अंतर्राष्ट्रीय लेन-देनों के निपटान के लिए भुगतान की सर्वाधिक उपयुक्त एवं सुर्कित विधि है।

(घ) निर्यात लाइसेंस प्राप्त करना- भुगतान के संबंध में आश्वस्त हो जाने के पश्चात् निर्यातक फर्म निर्यात संबंधी नियमों के पालन की दिशा में कदम उठाती है। भारत में वस्तुओं के निर्यात पर सीमा नियम लागू होते हैं जिनके अनुसार निर्यातक फर्म को निर्यात करने से पहले निर्यात लाइसेंस प्राप्त कर लेना चाहिए। निर्यात लाइसेंस प्राप्त करने के पूर्व महत्वपूर्ण अपेक्षाएँ निम्नलिखित हैं-

  • भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा अधिकृत किसी भी बैंक में खाता खोलना एवं खाता संख्या प्राप्त करना।

  • विदेशी व्यापार महानिदेशालय (डी. जी.एफ़.टी.) अथवा क्षेत्रीय आयात-निर्यात लाइसेंसिग प्राधिकरण से आयात-निर्यात कोड (आई.ई.सी.) संख्या प्राप्त करना।

  • उपर्युक्त निर्यात संवर्धन परिषद् के यहाँ पंजीयन कराना।

  • निर्यात साख एवं गारंटी निगम (एक्सपोर्ट क्रेडिट एंड गारंटी काउंसिल, ई.सी. जी.सी.) भुगतान प्राप्त न होने के कारण होने वाले जोखिमों के विरुद्ध सुरक्षा हेतु पंजीकरण कराना।

एक निर्यातक फर्म को आयात-निर्यात कोड (आई.ई.सी.) संख्या अवश्य प्राप्त कर लेनी चाहिए क्योंकि इसे कई आयात/निर्यात विलेखों में लिखना होता है। आई.ई.सी. नंबर प्राप्त करने के लिए निर्यातक फर्म को महानिदेशक विदेशी व्यापार (डाइरेक्टर जनरल फ़ॉर फ़ारेन ट्रेड, डी.जी.एफ़.टी.) के पास आवेदन करना होता है जिसके साथ वह कुछ प्रलेख संलग्न करता है जो इस प्रकार हैंनिर्यात खाता, आपेक्षित फीस की बैंक रसीद, बैंक से एक फार्म पर प्रमाण पत्र, बैंक द्वारा अनुप्रमाणित फ़ोटोग्राफ़, गैर आवासी हित का विस्तृत ब्यौरा एवं जिन फर्मों से सावधान रहना हैं उनसे किसी प्रकार का संबंध नहीं है, इस आशय की घोषणा। प्रत्येक निर्यातक के लिए उपयुक्त निर्यात संवर्धन परिषद् के यहाँ पंजीयन कानूनी बाध्यता है। भारत सरकार द्वारा विभिन्न वर्गों के उत्पादों के संवर्धन एवं विकास के लिए कई निर्यात संवर्धन परिषदों की स्थापना की गई है, जैसे कि इंजीनियरिंग निर्यात संवर्धन परिषद् (ई.ई.पी.सी.) एवं अपैरल निर्यात संवर्धन परिषद् (ए.ई.पी.सी.) के संबंध में चर्चा आगे एक अनुभाग में की जाएगी। यहाँ यह बताना आवश्यक है कि किसी भी निर्यातक के लिए किसी उपयुक्त निर्यात संवर्धन परिषद् का सदस्य बनना एवं पंजीयन-सदस्यता प्रमाण पत्र (आर.सी.एम.सी.) प्राप्त करना ज़रूरी है, तभी वह सरकार से निर्यातक फर्मों को मिलने वाले लाभों को प्राप्त कर पाएगा।

विदेशों से भुगतान को राजनीतिक एवं वाणिज्यिक जोखिमों से संरक्षण के लिए ई.सी.जी.सी. के पास पंजीकरण कराना आवश्यक है। पंजीकरण करा लेने पर निर्यातक फर्मों को व्यापारिक बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थानों से वित्तीय सहयोग भी प्राप्त हो जाता है।

(ड·) माल प्रेषण से पूर्व वित्त करना- आदेश होने एवं साख-पत्र की प्राप्ति के पश्चात् निर्यातक माल के प्रेषण से पूर्व के वित्त हेतु अपने बैंक के पास जाता है जिससे कि वह निर्यात के लिए उत्पादन कर सके। प्रेषण-पूर्व वित्त वह राशि है जिसकी निर्यातक को कच्चा माल एवं अन्य संबंधित चीज़ों का क्रय करने, वस्तुओं के प्रक्रियन एवं अन्य संबंधित चीज़ों का क्रय करने, वस्तुओं के प्रक्रियन एवं पैकेजिंग तथा वस्तुओं के माल लदान बंदरगाह तक परिवहन के लिए आवश्यकता होती है।

(च) वस्तुओं का उत्पादन एवं अधिप्राप्ति- माल के लदान से पूर्व बैंक से वित्त की प्राप्ति हो जाने पर निर्यातक आयातक के विस्तृत वर्णन के अनुसार माल को तैयार करेगा। फर्म या तो इन वस्तुओं का स्वयं उत्पादन करेगी अथवा इन्हें बाज़ार से क्रय करेगी।

(छ) जहाज़ लदान निरीक्षण- भारत सरकार ने यह सुनिश्चित करने की दिशा में कई कदम उठाए हैं कि देश से केवल अच्छी गुणवत्ता वाली वस्तुओं का ही निर्यात हो। इनमें से एक कदम सरकार द्वारा मनोनीत सर्वथा योग्य एजेंसी द्वारा कुछ वस्तुओं का अनिवार्य निरीक्षण है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सरकार ने ‘निर्यात गुणवत्ता नियंत्रण एवं निरीक्षण अधिनियम-1963’ पारित किया। सरकार ने कुछ एजेंसियों को निरीक्षण एजेंसी के रूप में अधिकृत किया। यदि निर्यात किया जाने वाला माल इस वर्ग के अंतर्गत आता है तो उसे निर्यात निरीक्षण एजेंसी (ई.आई.ए.) अथवा अन्य मनोनीत की गई एजेंसी से संपर्क कर निरीक्षण प्रमाणपत्र प्राप्त करना होगा। इस निरीक्षण अनुवेदन को निर्यात के अवसर पर अन्य निर्यात प्रलेखों के साथ जमा कराया जाएगा। यदि माल का निर्यात सितारा निर्यात गृहों, निर्यात प्रक्रिया अंचल/विशेष आर्थिक अंचल (ई.पी.जेड./ एस.ई.जेड.) एवं शत् प्रतिशत निर्यात मूलक इकाइयों (ई.ओ.यू.) के द्वारा किया जा रहा है तो इस प्रकार का निरीक्षण अनिवार्य नहीं होगा। हम इन विशिष्ट प्रकार की निर्यात फर्म के संबंध में आगे के अनुभाग में चर्चा करेंगे।

(ज) उत्पाद शुल्क की निकासी- केंद्रीय उत्पादन शुल्क अधिनियम (सेंट्रल एक्साइज टैरिफ़ एक्ट) के अनुसार वस्तुओं के विनिर्माण में प्रयुक्त माल पर उत्पादन शुल्क का भुगतान करना होता है। निर्यातक को इसीलिए संबंधित क्षेत्रीय उत्पादन शुल्क कमिश्नर को आवेदन करना होता है। यदि कमिश्नर संतुष्ट हो जाता है तो वह उत्पादन शुल्क की छूट का प्रमाण पत्र दे देगा। लेकिन कुछ मामलों में यदि उत्पादित वस्तुएँ निर्यात के लिए होती हैं तो सरकार उत्पादन शुल्क से छूट प्रदान कर देती है अथवा इसे लौटा देती है। इस प्रकार की छूट अथवा वापसी का उद्देश्य निर्यातक को और अधिक निर्यात के लिए प्रोत्साहित करना एवं निर्यात उत्पादों को विश्व बाज़ार में और अधिक प्रतियोगी बनाना है। उत्पादन शुल्क की वापसी को शुल्क की वापसी कहते हैं। शुल्क फिरौती योजना को आजकल वित्त मंत्रलय के अधीनस्थ फिरौती/वापसी निदेशालय प्रशासित करता है। यही विभिन्न उत्पादों के फिरौती की दर को निश्चित करता है। वापसी का अनुमोदन एवं भुगतान बंदरगाह/हवाई अडडे/स्थल सीमा स्टेशन, जिससे माल का निर्यात किया गया है, उसके कस्टम, कमिश्नर अथवा केंद्रीय उत्पाद इंचार्ज के द्वारा किया जाता है।

(झ) उद्गम प्रमाण-पत्र प्राप्त करना- कुछ आयातक देश, किसी विशेष देश से आ रहे माल पर शुल्क की छूट अथवा अन्य कोई छूट देते हैं। इनका लाभ उठाने के लिए आयातक निर्यातक से उद्गम प्रमाण पत्र की माँग कर सकता है। यह प्रमाण पत्र इस बात को प्रमाणित करता है कि वस्तुओं का उत्पादन उसी देश में हुआ है जिस देश ने इसका निर्यात किया है। इस प्रमाण पत्र को निर्यातक के देश में स्थित वाणिज्य दूतावास अधिकारी से प्राप्त किया जा सकता है।

(ञ) जहाज़ में स्थान का आरक्षण- निर्यातक फर्म जहाज़ में स्थान के लिए प्रावधान हेतु जहाज़ी कंपनी को आवेदन करती है। इसे निर्यात के माल का प्रकार, जहाज़ में लदान की संभावित तिथि एवं गंतव्य बंदरगाह को घोषित करना होता है। जहाज़ पर लदान के आवेदन की स्वीकृति, के पश्चात् जहाज़ी कंपनी जहाज़ी आदेश पत्र जारी करती है। जहाज़ी आदेश-पत्र जहाज़ के कप्तान के नाम आदेश होता है कि वह निर्धारित वस्तुओं को नामित बंदरगाह पर सीमा शुल्क अधिकारियों द्वारा निकासी होने पर जहाज़ पर माल का लदान करा ले।

(ट) पैकिंग एवं माल को भेजना- माल की उचित ढंग से पैकिंग कर उन पर आवश्यक विवरण देंगें, जैसे— आयातक का नाम एवं पता, सकल एवं शुद्ध भार, भेजे जाने वाले एवं गंतव्य बंदरगाहों के नाम एवं उद्गम देश का नाम आदि। निर्यातक तत्पश्चात् माल को बंदरगाह तक ले जाने की व्यवस्था करता है। रेल के डिब्बे में माल का लदान कर लेने के पश्चात् रेल अधिकारी ‘रेलवे रसीद’ जारी करते हैं जो माल के मालिकाना अधिकार का काम करता है। निर्यातक इस रेलवे रसीद को अपने एजेंट के नाम को बेचान कर देता है जिससे कि वह बंदरगाह के शहर के स्टेशन पर माल की सुपुर्दगी ले सके।

(ठ) वस्तुओं का बीमा- वस्तुओं को मार्ग में समुद्री जोखिमों के कारण, माल के खो जाने अथवा टूट-फूट जाने के जोखिम से संरक्षण प्रदान करने के लिए निर्यातक बीमा कंपनी से वस्तुओं का बीमा करा लेता है।

(ड) कस्टम निकासी- जहाज़ में लदान से पहले वस्तुओं की कस्टम से निकासी अनिवार्य है। कस्टम से निकासी प्राप्त करने के लिए निर्यातक जहाज़ी बिल तैयार करता है। यह मुख्य प्रलेख होता है जिसके आधार पर कस्टम कार्यालय निर्यात की अनुमति प्रदान करता है। जहाज़ी बिल में निर्यात किये जाने वाले माल, जहाज़ का नाम, बंदरगाह जहाँ माल उतारना है, अंतिम गंतव्य देश, निर्यातक का नाम एवं पता आदि का विवरण दिया जाता है तत्पश्चात् जहाज़ी बिल की पाँच प्रति एवं नीचे दिये गए प्रलेख कस्टम घर में तैनात कस्टम मूल्यांकन अधिकारी के पास जमा करा दिए जाते हैं। ये प्रलेख हैं-

  • निर्यात अनुबंध अथवा निर्यात आदेश,

  • साख पत्र,

  • वाणिज्यिक बीजक,

  • उद्गम प्रमाण पत्र,

  • निरीक्षण प्रमाण पत्र, यदि आवश्यक है तो

  • समुद्री बीमा पॉलिसी, एवं

  • अधीक्षक|

इन प्रलेखों को जमा करने के पश्चात्, संबंधित बंदरगाह न्यास के पास माल को ढो ले जाने का आदेश प्राप्त करने के लिए जाया जाएगा। ढो ले जाने का आदेश बंदरगाह के प्रवेश द्वार पर तैनात कर्मचारियों के नाम, डॉक में माल के प्रवेश की अनुमति देने के लिए आदेश होता है। ढो ले जाने के आदेश की प्राप्ति माल को बंदरगाह क्षेत्र में ले जाकर उपयुक्त शैड में संगृहित कर दिया जाएगा। निर्यातक को इन सभी औपचारिकताओं की पूर्ति के लिए हर समय उपस्थिति संभव नहीं है, इसीलिए यह कार्य एक एजेंट को सौंप दिया जाता है जिसे निकासी एवं माल भेजने वाला एजेंट कहते हैं।

(ढ) जहाज़ के कप्तान की रसीद (मेट्स रिसीप्ट) प्राप्त करना- वस्तुओं का अब जहाज़ पर लदान किया जाएगा जिसके बदले जहाज़ का कारिंदा अथवा कप्तान/मेट्स रसीद/बंदरगाह अधीक्षक को जारी करेगा। मेट्स रसीद जहाज़ के नायक के कार्यालय द्वारा जहाज़ पर माल के लदान पर जारी की जाती है जिसमें जहाज़ का नाम, माल लदान की तिथि, पेटींबधन (पैकेज) का विवरण, चिह्न एवं संख्या, जहाज़ पर प्राप्ति के समय माल की दशा आदि की सूचना दी जाती है। बंदरगाह का अधीक्षक बंदरगाहीशुल्क की प्राप्ति के पश्चात् मेट्स रसीद को निकासी एवं प्रेषक एजेंट को सौंप देता है।

(ण) भाड़े का भुगतान एवं जहाज़ी बिल्टी का बीमा- भाड़े की गणना हेतु निकासी एवं प्रेषक एजेंट मेट्स रसीद को जहाज़ी कंपनी को सौंप देगा। भाड़े के भुगतान के पश्चात् जहाज़ी कंपनी जहाज़ी बिल्टी जारी करेगी जो इस बात का प्रमाण है कि जहाज़ी कंपनी ने माल को नामित गंतव्य स्थान तक ले जाने के लिए स्वीकार कर लिया है। यदि माल हवाई जहाज़ के द्वारा भेजा जा रहा है तो इस प्रलेख को एयर वे बिल कहेंगे।

(त) बीजक बनाना- माल को भेज देने के पश्चात, भेजे गए माल का बीजक तैयार किया जाएगा। बीजक भेजे गए माल की मात्रा एवं आयातक द्वारा भुगतान की जाने वाली राशि लिखी होती है। निकासी एवं प्रेषक एजेंट इसे कस्टम अधिकारी से सत्यापित कराएगा।

(थ) भुगतान प्राप्त करना- माल के जहाज़ से भेज देने के पश्चात् निर्यातक इसकी सूचना आयातक को देगा। माल के आयातक के देश में पहुँच जाने पर उसे माल पर अपने स्वामित्व के अधिकार का दावा करने के लिए एवं उनकी कस्टम से निकासी के लिए विभिन्न प्रलेखों की आवश्यकता होती है, ये प्रलेख हैं- बीजक की सत्यापित प्रति, जहाज़ी बिल्टी, पैकिंग सूची, बीमा पॉलिसी, उद्गम प्रमाण-पत्र एवं साख-पत्र। निर्यातक इन प्रलेखों को अपने बैंक के माध्यम से इन निर्देशों के साथ भेजता है कि इन प्रलेखों को आयातक को तभी सौंपा जाए जब वह विनिमय विपत्र को स्वीकार कर ले जिसे ऊपर लिखे प्रलेखों के साथ भेजा जाता है। प्रासंगिक प्रलेखों को बैंक को भुगतान प्राप्ति के उद्देश्य से सौंपना प्रलेखों का विनिमयन कहलाता है।

विनिमय विपत्र आयातक को एक निश्चित राशि का निश्चित व्यक्ति अथवा आदेशित व्यक्ति अथवा विलेख के धारक को भुगतान करने का आदेश होता है। यह दो प्रकार का हो सकता है- अधिकार पत्र प्राप्ति पर भुगतान (दर्श विपत्र) अथवा अधिकार प्राप्ति पर स्वीकृति (मुद्धती विपत्र)। दर्श विपत्र में अधिकार पत्रों को आयातक को भुगतान पर ही सौंपा जाता है। जैसे ही आयातक दर्श विपत्र पर हस्ताक्षर करने को तैयार हो जाता है, संबंधित प्रलेखों को उसे सौंप दिया जाता है। दूसरी ओर, मियादी विपत्र में आयातक द्वारा बिल को स्वीकार करने, जिसमें एक निश्चित अवधि जैसे कि तीन मास की समाप्ति पर भुगतान करना होता है, उसे अधिकार प्रलेख सौंपे जाते हैं। विनिमय विपत्र की प्राप्ति पर दर्श विपत्र

निर्यात लेन-देन में प्रयुक्त होने वाले प्रमुख प्रलेख

(क) वस्तुओं से संबंधित प्रलेख

निर्यात बीजक- निर्यात बीजक विक्रेता का विक्रय माल बिल होता है जिसमें बेचे गए माल के संबंध में सूचना दी होती है, जैसे — मात्रा, कुल मूल्य, पैकेजों की संख्या, पैकिंग पर चिह्,, गंतन्य बंदरगाह, जहाज़ का नाम, जहाजजी बिल्टी संख्या, सुपर्दगी संबंधित शर्ते एवं भुगतान आदि।

पैकिंग सूची- पैकिंग सूची, पेटियों अथवा गांठों की संख्या एवं इनमें रखे गए माल का विवरण है। इसमें निर्यात किए गए माल की प्रकृति एवं इनके स्वरूप का विवरण दिया होता है।

उद्गम का प्रमाण पत्र- यह वो प्रमाण पत्र है जो इस बात का निर्धारण करता है कि माल का उत्पादन किस देश में हुआ है। इस प्रमाण पत्र से आयातक को कुछ पूर्व निर्धारित देशों में उत्पादित वस्तुओं पर शुल्क पर छूट या फिर अन्य छूट, जैसे— कोटा प्रतिबंध का लागू न होना प्राप्त हो जाती है। जब कुछ चुनिंदा देशों से कुछ विशेष वस्तुओं के आयात पर प्रतिबंध हो, तब भी इस प्रमाण पत्र की आवश्यकता होती है क्योंकि वस्तुएँ यदि प्रतिबंधित देश में उत्पादित नहीं हैं, तभी उन्हें आयातक देश में आने दिया जाएगा।

निरीक्षण प्रमाण पत्र- उत्पादों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने कुछ उत्पादों का किसी अधिकृत एजेंसी द्वारा निरीक्षण अनिवार्य कर दिया है। भारतीय निर्यात निरीक्षण परिषद् (ई.आई.सी.आई.) एक ऐसी ही एजेंसी है जो इस प्रकार का निरीक्षण करती है एवं इस आशय का प्रमाण पत्र जारी करती है कि प्रेषित माल का ‘निर्यात गुणवत्ता नियंत्रण एवं निरीक्षण अधिनियम-1963’ के तहत निरीक्षण कर लिया गया है एवं यह इस पर लागू गुणवत्ता नियंत्रण एवं निरीक्षण शर्तों को पूरा करता है एवं यह निर्यात के सर्वथा योग्य है। प्रमाण पत्र को अपने देश में आयातित वस्तुओं के लिए अधिकृत रूप से अनिवार्य कर दिया गया है।

(ख) जहाज़ लदान से संबंधित प्रलेख

मेट्स रसीद- यह रसीद जहाज़ के नायक द्वारा जहाज़ पर माल के लदान के पश्चात् निर्यातक को दी जाती है। मेट्स रसीद में जहाज़ का नाम, बर्थ, माल भेजने की तिथि, पैकेजों का विवरण, चिह्न एवं संख्या, जहाज़ पर माल प्राप्ति के समय में माल की स्थिति आदि। जहाज़ी कंपनी तब तक जहाजी बिल्टी जारी नहीं करती जब तक की यह मेट्स रसीद प्राप्त नहीं कर लेती।

जहाज़ी बिल- यह मुख्य प्रलेख है। इसी के आधार पर कस्टम कार्यालय निर्यात की अनुमति प्रदान करता है। जहाज़ी बिल में निर्यात किए जा रहे माल का विवरण, जहाज़ का नाम, बंदरगाह जिस पर माल उतारा जाना है, अंतिम गंतव्य देश, निर्यातक का नाम, पता आदि होता है।

जहाज़ी बिल्टी- यह एक ऐसा प्रलेख है जो जहाज़ी कंपनी द्वारा जारी जहाज़ पर माल प्राप्ति की रसीद है तथा साथ ही गंतव्य बंदरगाह तक उन्हें ले जाने की शपथ भी। यह वस्तु और स्वामित्व का अधिकार प्रलेख है इसीलिए यह बेचान एवं सुपुर्दगी द्वारा स्वतंत्र रूप से हस्तांतरणीय है।

वायुमार्ग विपत्र- जहाजी बिल्टी के समान वायुमार्ग विपत्र भी एक प्रलेख है जो एयरलाइन कंपनी की हवाई जहाज़ पर माल की प्राप्ति की विधिवत् रसीद होती है तथा जिसमें वह गंतव्य हवाई अडड़्े तक उन्हें ले जाने का वचन देती है। यह भी माल पर मालिकाना हक का प्रलेख है एवं यह बेचान एवं सुपुर्दगी द्वारा स्वतंत्र रूप से हस्तांतरणीय है।

समुद्री बीमा पॉलिसी- यह एक बीमा अनुबंध का प्रमाण पत्र होता है जिसमें बीमा कंपनी बीमाकृत को प्रतिफल, जिसे प्रीमियम कहते हैं, के भुगतान के बदले किसी समुद्री जोखिम से हानि की क्षतिपूर्ति का वचन देता है।

गाड़ी टिकट- इसे गाड़ी चिट, वाहन अथवा गेट पास भी कहते हैं। इसे निर्यातक तैयार करता है तथा इसमें निर्यात सामान का विस्तृत विवरण होता है, जैसे कि माल भेजने वाले का नाम, पैकेजों की संख्या, जहाजजी बिल संख्या, गंतव्य बंदरगाह एवं माल ढोने वाले वाहन का नंबर।

(ग) भुगतान संबंधी प्रलेख

साख पत्र- साख पत्र आयातक के बैंक द्वारा दी जाने वाली गारंटी है जिसमें वह निर्यातक के बैंक को एक निश्चित राशि तक के निर्यात बिल के भुगतान की गारंटी देता है। यह अंतर्राष्ट्रीय सौदों के निपटान के लिए भुगतान का सबसे उपयुक्त एवं सुरक्षित साधन है।

विनिमय विपत्र- यह एक लिखित प्रपत्र है जिसमें इसको जारी करने वाला दूसरे पक्ष को एक निश्चित राशि, एक निश्चित व्यक्ति अथवा इसके धारक को भुगतान का आदेश देता है। आयात निर्यात लेन-देन के संदर्भ में विनिमय विपत्र निर्यातक द्वारा आयातक पर लिखा जाता है जिसमें वह आयातक को एक निश्चित व्यक्ति अथवा इसके धारक को एक निश्चित राशि के भुगतान के लिए कहता है। निर्यात किए माल पर मालिकाना अधिकार देने वाले प्रलेखों को आयातक को केवल उस दशा में ही सौंपा जाता हैं जबकि वह बिल में दिए गए आदेश को स्वीकार कर लेता है।

बैंक का भुगतान संबंधित प्रमाण पत्र- यह प्रमाण पत्र यह प्रमाणित करता है कि एक निश्चित निर्यात प्रेषण से संबंधित प्रलेखों (विनिमय विपत्र को सम्मिलित कर) का प्रक्रमण कर लिया गया है (आयात को भुगतान के लिए प्रस्तुत कर दिया गया है) एवं विनिमय नियंत्रण नियमों के अनुरूप भुगतान प्राप्त कर लिया गया है।


के होने पर आयातक भुगतान कर देता है और यदि मियादि विपत्र है तो वह विपत्र की भुगतान तिथि पर भुगतान के लिए इसे स्वीकार करता है। निर्यातक का बैंक आयातक के बैंक के माध्यम से भुगतान प्राप्त करता है, तत्पश्चात् उसे निर्यातक के खाते के जमा में लिख देता है।

निर्यातक को आयातक द्वारा भुगतान करने का इंतजार करने की आवश्यकता नहीं है। निर्यातक अपने बैंक को प्रलेख सौंपकर एवं क्षतिपूरक पत्र पर हस्ताक्षर कर तुरंत भुगतान कर सकता है। क्षतिपूरक पत्र पर हस्ताक्षर कर निर्यातक आयातक से भुगतान की प्राप्ति न होने की स्थिति में बैंक को यह राशि ब्याज सहित भुगतान करने का दायित्व लेता है।

निर्यात के बदले में भुगतान प्राप्त कर लेने पर निर्यातक को बैंक से भुगतान प्राप्ति का प्रमाण पत्र प्राप्त करना होगा। यह प्रमाण पत्र यह प्रमाणित करता है कि एक निश्चित निर्यात प्रेषण से संबंधित प्रलेखों (विनिमय विपत्र को सम्मिलित कर) का प्रक्रमण कर लिया गया है (आयातक को भुगतान के लिए प्रस्तुत कर दिया गया है) एवं विनिमय नियंत्रण नियमों के अनुरूप भुगतान प्राप्त कर लिया गया है।

11.3.2 आयात प्रक्रिया

आयात व्यापार से अभिप्राय बाह्य देश से माल के क्रय से है। आयात प्रक्रिया भिन्न-भिन्न देशों के संबंध में भिन्न-भिन्न होती है जो देश की आयात एवं कस्टम संबंधी नीतियों एवं अन्य वैधानिक आवश्यकताओं पर निर्भर करती है। आगे के परिच्छेदों में भारत की सीमाओं के भीतर माल लाने के लिए सामान्य आयात लेन-देनों के विभिन्न चरणों की विवेचना की गई है।

(क) व्यापारिक पूछताछ- सर्वप्रथम आयातक फर्मउन देशोंएवंफर्मों के संबंध में सूचना एकत्रित करेगी जो उत्पाद विशेष का निर्यात करते हैं। यह सूचना उसे व्यापार निर्देशिका अथवा व्यापार संघ एवं व्यापार संगठनों से प्राप्त हो सकती है। निर्यातक फर्मों एवं देशों की पहचान करने के पश्चात् आयातक फर्म निर्यातक फर्मों से उनके व्यापारिक पूछताछ के द्वारा निर्यात मूल्यों एवं निर्यात की शर्तों की सूचना प्राप्त करती है। व्यापारिक पूछताछ आयातक फर्म द्वारा निर्यातक फर्म के नाम लिखित प्रार्थना पत्र है जिसमें वह उस मूल्य एवं विभिन्न शर्तों की सूचना देने के लिए प्रार्थना करता है जिन पर निर्यातक माल का निर्यात करने के लिए तैयार है।

व्यापारिक पूछताछ का उत्तर आने के पश्चात् निर्यातक निर्ख तैयार करता है एवं इसे आयातक को भेज देता है। इस निर्ख को प्रारूप बीजक कहते हैं। प्रारूप बीजक एक ऐसा विलेख है जिसमें निर्यात की वस्तुओं की गुणवत्ता, श्रेणी, स्वरूप, आकार, वजजन एवं मूल्य तथा निर्यात की शर्तें लिखी होती हैं।

(ख) आयात लाइसेंस प्राप्त करना- कुछ वस्तुओं को स्वतंत्रतापूर्वक आयात किया जा सकता है जबकि अन्य के लिए लाइसेंस की आवश्यकता होती है। यह जानने के लिए कि जिन वस्तुओं का वह आयात करना चाहता है, उन पर आयात लाइसेंस लागू होता है अथवा नहीं, आयातक वर्तमान आयात निर्यात नीति (ई.एक्स.आई.एम.) को देखेगा। यदि उन वस्तुओं के आयात के लिए लाइसेंस की आवश्यकता है तो वह आयात लाइसेंस प्राप्त करेगा। भारत में प्रत्येक आयातक (निर्यातक के लिए भी) के लिए विदेशी व्यापार महानिदेशक अथवा क्षेत्रीय आयात-निर्यात लाइसेसिंग प्राधिकरण के पास पंजीयन कराना एवं आयात निर्यात कोड नंबर प्राप्त करना आवश्यक है। इस नंबर को अधिकांश आयात संबंधी प्रलेखों पर लिखना अनिवार्य होता है।

(ग) विदेशी मुद्रा का प्रबंध करना- आयात लेन-देन से संबंधित आपूर्तिकर्ता विदेश में रहता है, वह भुगतान विदेशी मुद्रा में करना चाहेगा। विदेशी मुद्रा में भुगतान के लिए भारतीय मुद्रा का विदेशी मुद्रा में विनिमय करना होगा। भारत में सभी विदेशी विनिमय संबंधित लेन-देनों का भारतीय रिज़र्व बैंक के विनिमय नियंत्रण विभाग द्वारा नियमन होता है। नियमों के अनुसार प्रत्येक आयातक के लिए विदेशी मुद्रा का अनुमोदन प्राप्त करना आवश्यक है। इस अनुमोदन को प्राप्त करने के लिए भारतीय रिज्ञर्व बैंक द्वारा अधिकृत बैंक के पास विदेशी मुद्रा जारी करने के लिए आवेदन करना होगा। यह आवेदन एक निर्धारित फार्म भरकर आयात लाइसेंस के साथ विनिमय नियंत्रण अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार करना होता है। आवेदन की भलीभाँति जाँच कर लेने के पश्चात् बैंक आयात सौदे के लिए आवश्यक विदेशी मुद्रा का अनुमोदन कर देता है।

(घ) आदेश अथवा इंडैंट भेजना- लाइसेंस प्राप्त होने के पश्चात् आयातक निर्धारित वस्तुओं की आपूर्ति हेतु निर्यातक के पास आयात आदेश अथवा इंडैंट भेजेगा। आयात आदेश में आदेशित वस्तुओं का मूल्य, मात्रा माप, श्रेणी एवं गुणवत्ता एवं पैकिंग, माल का लदान बंदरगाह, जहाँ से माल को ले जाया जाएगा एवं जहाँ ले जाया जायेगा की सूचना दी जाती है। आयात आदेश को ध्यान से तैयार करना चाहिए जिससे कि किसी प्रकार का संशय न रहे जिसके कारण आयातक एवं निर्यातक के बीच मतभेद पैदा हो सकते हैं।

(ड·) साख पत्र प्राप्त करना- आयातक एवं विदेशी आपूर्तिकर्ता के बीच भुगतान की शर्तों में साख पत्र तय किया गया है तो आयातक को अपने बैंक से साख पत्र प्राप्त करना होगा जिसे वह आगे आपूर्तिकर्ता को भेज देगा। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि साख पत्र आयातक के बैंक द्वारा जारी की जाने वाली गारंटी है जिसमें वह निर्यातक के बैंक को निश्चित राशि तक के निर्यात बिल के भुगतान की गारंटी देता है।

यह अंतर्राष्ट्रीय सौदों के निपटान के लिए भुगतान का सबसे उपयुक्त एवं सुरक्षित साधन है। निर्यातक को इस प्रपत्र की आवश्यकता यह सुनिश्चित करने के लिए होती है कि भुगतान न होने का कोई जोखिम नहीं है।

(च) वित्त की व्यवस्था करना- माल के बंदरगाह पर पहुँचने पर निर्यातक को भुगतान करने के लिए आयातक को इसकी अग्रिम व्यवस्था करनी चाहिए। भुगतान न किए जाने के कारण बंदरगाह से निकासी न होने की दशा में भारी विलंब शुल्क (अर्थात् जुर्माना) देना होता है। इससे बचने के लिए आयात के वित्तीयन के लिए अग्रिम योजना बनानी आवश्यक है।

(छ) जहाज़ से माल भेज दिए जाने की सूचना की प्राप्ति- जहाज़ में माल के लदान कर देने के पश्चात् विदेशी आपूर्तिकर्ता आयातक को माल भेजने की सूचना भेजता है। माल प्रेषण सूचना पत्र में जो सूचनाएँ दी होती हैं वे हैं- बीजक संख्या, जहाजी बिल्टी/वायु मार्ग बिल नंबर एवं तिथि, जहाज़ का नाम एवं तिथि, निर्यात बंदरगाह, माल का विवरण एवं मात्रा तथा जहाज़ के प्रस्थान की तिथि।

(ज) आयात प्रलेखों को छुड़ाना- माल रवानगी के पश्चात् विदेशी आपूर्तिकर्ता अनुबंध एवं साख पत्र की शर्तों को ध्यान में रखकर आवश्यक प्रलेखों का संग्रह तैयार करता है तथा उन्हें अपने बैंक को भेज देता है जो उन्हें आगे साख पत्र में निर्धारित रीति से भेजता है एवं प्रक्रमण करता है। इस संग्रह में सामान्यत: विनिमय विपत्र, वाणिज्यिक बीजक, जहाजी बिल्टी/वायुमार्ग बिल पैंकिग सूची उद्गम स्थान प्रमाणपत्र, समुद्री बीमा पॉलिसी आदि सम्मिलित होते हैं।

इन प्रलेखों के साथ जो विनिमय विपत्र भेजा जाता है, उसे प्रलेखीय विनिमय विपत्र कहते हैं। जैसा कि पहले ही निर्यात प्रक्रिया में बताया जा चुका है, प्रलेखीय विनिमय विपत्र दो प्रकार का हो सकता है- भुगतान के बदले प्रलेख (दर्श विपत्र) एवं स्वीकृति के बदले प्रलेख (मुद्तीी विपत्र)। दर्श विपत्र में लेखक आदेशक बैंक को भुगतान प्राप्त हो जाने पर ही आयातक को आवश्यक प्रलेखों को सौंपने का आदेश देता है। लेकिन मुद्दती विपत्र की दशा में वह बैंक को प्रलेखों को आयातक द्वारा विनिमय विपत्र के स्वीकार किए जाने पर ही सौंपने का आदेश देता है। प्रलेखों को प्राप्त करने के लिए विनिमय विपत्र की स्वीकृति को आयात प्रलेखों का भुगतान कहते हैं। भुगतान हो जाने के पश्चात् आयात संबंधी प्रलेखों को आयातक को सौंप देता है।

(झ) माल का आगमन- विदेशी आपूर्तिकर्ता माल को अनुबंध के अनुसार जहाज़ से भेजता है। वाहन (जहाज अथवा हवाई जहाज) का अभिरक्षक गोदी अथवा हवाई अडड़े पर तैनात देख-रेख अधिकारी को माल के आयातक देश में पहुँच जाने की सूचना देता है। वह उन्हें एक विलेख सौंपता है जिसे आयातित माल की सामान्य सूची कहते हैं। यह वह प्रलेख है जिसमें आयातित माल का विस्तृत विवरण दिया होता है। इसी विलेख के आधार पर ही माल को उतरवाया जाता है।

(ञ) सीमा शुल्क निकासी एवं माल को छुड़ाना- भारत में आयातित माल को भारत की सीमा में प्रवेश के पश्चात् सीमा शुल्क निकासी से गुज़रना होता है। सीमा शुल्क निकासी एक जटिल प्रक्रिया है तथा इसके लिए कई औपचारिकताओं को पूरा करना होता है। इसलिए उचित यही रहेगा कि आयातक निकासी एवं लदानें वाले एजेंट की नियुक्ति करें क्योंकि यह इन औपचारिकताओं से भलीभाँति परिचित होता है एवं सीमा शुल्क से माल की निकासी में इनकी अहम् भूमिका होती है।

सर्वप्रथम आयातक सुपुर्दगी आदेश पत्र प्राप्त करेगा जिसे सुपुर्दगी के लिए बेचान भी कहते हैं। सामान्यत: जब जहाज़ बंदराह पर पहुँचता है तो आयातक जहाजी बिल्टी के पृष्ठ भाग पर बेचान करा लेता है। यह बेचान संबंधित जहाजी कंपनी के द्वारा किया जाता है। कुछ मामलों में जहाज़ी कंपनी बिल का बेचान करने के स्थान पर एक आदेश पत्र जारी कर देती है। यह आदेश पत्र आयातक को माल की सुप्दुरी को लेने का अधिकार देता है। यह बात अलग है कि आयातक को माल के अपने अधिकार में लेने से पहले भाड़ा चुकाना होगा। (यदि इसका भुगतान निर्यातक ने नहीं किया है।)

आयातक को गोदी व्यय (डॉक व्यय) का भी भुगतान करना होगा जिसके बदले उसे बंदरगाह न्यास शुल्क की रसीद मिलेगी। इसके लिए आयातक अवतरण एवं जहाजजी शुल्क कार्यालय में एक फार्म को भरकर उसकी दो प्रति जमा करानी होती है। इसे आयात आवेदन कहते हैं। अवतरण एवं जहाज़ी शुल्क कार्यालय गोदी अधिकारियों की सेवाओं के बदले शुल्क लगाती है जिसे आयातक वहन करता है। डॉक व्यय को भुगतान कर देने पर आवेदन की एक प्रति, जो प्राप्ति की रसीद होती है, आयातक को लौटा दी जाती है। इस रसीद को बंदरगाह न्यास शुल्क रसीद कहते हैं। आयातक इसके पश्चात् आयात शुल्क निर्धारण हेतु प्रवेश बिल (बिल ऑफ़ एंट्री) फार्म भरेगा। एक मूल्यांकनकर्ता सभी विलेखों का ध्यान से अध्ययन कर निरीक्षण के लिए आदेश देगा। आयातक मूल्यांकनकर्ता के द्वारा तैयार विलेख को प्राप्त करेगा और यदि सीमा शुल्क देना है तो उसका भुगतान करेगा। आयात शुल्क का भुगतान कर देने के पश्चात् प्रवेश बिल को गोदी अधीक्षक के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा। अधीक्षक इसे चिह्नित करेगा तो निरीक्षक से आयातित माल का भौतिक रूप में निरीक्षण करने के लिए कहेगा। निरीक्षक प्रवेश बिल पर ही अपना अनुवेदन लिख देगा। आयातक अथवा उसका प्रतिनिधि इस प्रवेश बिल को बंदरगाह अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत करेगा। आवश्यक शुल्क ले लेने के पश्चात् वह अधिकारी माल की सुपुर्दगी का आदेश दे देगा।

आयात लेन-देनों में प्रयुक्त प्रमुख प्रलेख

व्यापारिक पूछताछ- यह आयातक की ओर से निर्यातक को एक लिखित आग्रह होता है, जिसमें वह निर्यातक द्वारा निर्यात की वस्तुओं के मूल्य एवं विभिन्न शर्तों की सूचना प्रदान करने के लिए कहता है।

प्रारूप बीजक- यह वह प्रलेख है जिसमें निर्यात के माल के मूल्य, गुणवत्ता, श्रेणी, डिजाइन, माप, भार तथा निर्यात की शर्तों का विस्तृत वर्णन होता है।

आयात आदेश अथवा इंडैंट- यह वह विलेख है जिसमें क्रेता (आयातक) आपूर्तिकर्ता (निर्यातक) को इसमें मांगी गई वस्तुओं की आपूर्ति का आदेश देता है। इस आदेश इंडेंट में आयात की वस्तुओं, मात्रा एवं गुणवत्ता, मूल्य, माल लदान की पद्धति, पैकिंग की प्रकृति भुगतान का माध्यम आदि के संबंध में सूचना दी जाती है।

साख पत्र- साख पत्र आयातक के बैंक द्वारा निर्यातक बैंक को एक निश्चित राशि के निर्यातक बिल के भुगतान की गारंटी है। इसे निर्यातक आयातक को वस्तुओं के निर्यात के बदले में जारी करता है।

माल प्रेषण की सूचना- यह निर्यातक द्वारा आयातक को भेजा जाने वाला प्रलेख है जिसमें वह सूचित करता है कि माल का लदान करा दिया गया है। माल लदान/प्रेषण सूचना-पत्र में बीजक नंबर, जहाज़ी बिल्टी/वायुमार्ग बिल संख्या एवं तिथि, जहाज़ का नाम एवं तिथि, निर्यातक बंदरगाह, माल का विवरण एवं मात्रा एवं जहाज़ की यात्रा प्रारंभ तिथि होती है।

जहाज़ी बिल्टी- यह जहाज़ के नायक द्वारा तैयार एवं हस्ताक्षरयुक्त विलेख होता है जिसमें वह माल के जहाज़ पर प्राप्ति को स्वीकार करता है। इसमें माल को निर्धारित बंदरगाह तक ले जाने से संबंधित शर्तें दी हुई होती हैं।

हवाई मार्ग बिल- जहाजी बिल्टी के समान वायु मार्ग विपत्र भी एक प्रलेख है जो एयरलाइन कंपनी की हवाई जहाज़ पर माल प्राप्ति की विधिवत् रसीद होती है तथा जिसमें वह माल को गंतव्य हवाई अडड्ते तक ले जाने का वचन देती हैं। यह भी माल पर मालिकाना हक का प्रलेख है एवं यह भी बेचान एवं सुपुर्दगी द्वारा स्वतंत्र रूप से हस्तांतरणीय है।

प्रवेश बिल- यह सीमा शुल्क कार्यालय द्वारा आयातक को दिया जाने वाला एक फॉर्म होता है जिसे आयातक माल की प्राप्ति पर भरता है। इसकी तीन प्रतियाँ होती हैं तथा इसे सीमा शुल्क कार्यालय में जमा कराया जाता है। इसमें जो सूचना दी हुई होती है, वह है— आयातक का नाम एवं पता, जहाज़ का नाम, पैकेजों की संख्या, पैकेज पर चिह्न, माल की मात्रा एवं मूल्य, निर्यातक का नाम एवं पता, गंतव्य बंदरगाह एवं देय सीमा शुल्क।

विनिमय विपत्र- यह एक लिखित प्रपत्र है जिसमें इसको जारी करने वाला दूसरे पक्ष को एक निश्चित राशि एक निश्चित व्यक्ति अथवा इसके धारक को भुगतान के लिए कहता है। आयात निर्यात लेन-देन के संदर्भ में यह निर्यातक द्वारा आयातक को लिखा जाता है जिसमें वह आयातक को एक निश्चित राशि एक निश्चित व्यक्ति अथवा इसके धारक को भुगतान करने का आदेश देता है। निर्यात किए गए माल पर मालिकाना अधिकार देने वाले प्रलेखों को आयातक को केवल उस दशा में ही सौंपा जाता है जब वह बिल में दिए गए आदेश को स्वीकृति प्रदान कर दे।

दर्श बिल- यह विनिमय विपत्र का वह प्रकार है जिसमें इसका लेखक बैंक को आयातक को संबंधित प्रलेख बिल का भुगतान कर देने पर ही देने का आदेश देता है।

मुद्दती बिल- यह विनिमय विपत्र का वह प्रकार है जिसमें इसका लेखक बैंक को आयातक को संबंधित प्रलेख मुद्दती बिल को स्वीकार कर देने पर ही सौंपने के आदेश देता है।

आयातित माल की सूची- यह वह प्रलेख है जिसमें आयातित माल का विस्तृत विवरण दिया होता है। इसी के आधार पर माल को जहाज़ से उतरवाया जाता है।

डॉक चालान- सीमा शुल्क संबंधी औपचारिकताओं की पूर्ति पर डॉक व्यय का भुगतान किया जाता है। डॉक/ गोदी व्यय का भुगतान करते समय आयातक अथवा उसका निकासी एजेंट डॉक व्यय की राशि एक चालान अथवा फार्म में दर्शाता है जिसे डॉक चालान कहते हैं।

सारांश

अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय/व्यापार का अर्थ— कोई देश अपनी सीमाओं से बाहर विनिर्माण एवं व्यापार करता है तो उसे अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय कहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय, अथवा बाह्य व्यवसाय को इस प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है। यह वह व्यावसायिक क्रियाएँ हैं जो राष्ट्र की सीमाओं के पार की जाती हैं। याँँ यह बताना आवश्यक है कि बहुत से लोग अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का अर्थ अंतरराष्ट्रीय व्यापार से लगाते हैं। अंतर्ताष्ट्रीय व्यवसाय एक व्यापक शब्द है, जो विदेशों से व्यापार एवं वहां वस्तु एवं सेवाओं के उत्पादन से मिलकर बना है।

अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय के कारण— अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का आधारभूत कारण है कि देश अपनी आवश्यकता की वस्तुओं का भली प्रकार से एवं सस्ते मूल्य पर उत्पादन नहीं कर सकते। इसका कारण उनके बीच प्राकृतिक संसाधानों का असमान वितरण अथवा उनकी उत्पादकता में अंतर हो सकता है। वैसे विभिन्न राष्ट्रों में श्रम की उत्पादकता एवं उत्पादन लागत में भिन्नता विभिन्न सामाजिक-आर्थिक, भौगोलिक एवं राजनैतिक कारणों से होती है। इन्हीं कारणों से यह कोई असाधारण बात नहीं है कि कोई एक देश अन्य देशों की तुलना में श्रेष्ठ गुणवत्ता वाली वस्तुओं एवं कम लागत पर उत्पादन की स्थिति में हो।

अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय बनाम घरेलू व्यवसाय— अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय का संचालन एवं प्रबंधन घरेलू व्यवसाय को चलाने से कहीं अधिक जटिल है। घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में विभिन्न पहलूओं पर अंतर नीचे दिये गये हैं। (क) क्रेता एवं विक्रेताओं की राष्ट्रीयता (ख) अन्य हितार्थियों की राष्ट्रीयता (ग) उत्पादन के साधनों में गतिशीलता (घ) जीवन स्तर में वृद्धि (ड·) व्यवसाय पद्धतियों एवं आचरण में अंतर (च) राजनीतिक प्रणाली एवं जोखिमें (छ) व्यवसाय के नियम एवं नीतियाँ (ज) व्यावसायिक लेन-देनों के लिए प्रयुक्त मुद्रा।

अभ्यास

लघु उत्तरीय प्रश्न

1. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में अंतर्भेद कीजिए।

2. अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय के किन्हीं तीन लाभों की व्याख्या कीजिए।

3. दो देशों की बीच व्यापार के प्रमुख कारण क्या हैं?

4. विदेशों में ठेका उत्पादन एवं संपूर्ण स्वामित्व वाली उत्पादन सहायक कंपनी के अंतर्भेद कीजिए।

5. एक निर्यात फर्म के लिए लदान-पूर्व निरीक्षण कराना क्यों आवश्यक है?

6. माल को उत्पादन शुल्क विभाग से अनुमति के लिए प्रक्रिया की संक्षेप में विवेचना कीजिए।

7. साख पत्र क्या है? निर्यातक को इस प्रलेख की क्या आवश्यकता है?

8. निर्यात का भुगतान प्राप्त करने की प्रक्रिया की विवेचना कीजिए।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1. अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से अधिक व्यापक है। विवेचना कीजिए।

2. अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय से व्यावसायिक इकाइयों को क्या लाभ हैं?

3. अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में प्रवेश हेतु निर्यात किस प्रकार से विदेशों में संपूर्ण स्वामित्व कंपनियों की स्थापना से श्रेष्ठतर माध्यम है?

4. रेखा गारमैंट्स को आस्ट्रेलिया में स्थित स्विफ़्ट इम्पोट्र्स लि. को 2000 पुरुष पैंट के निर्यात का आदेश प्राप्त हुआ है। इस निर्यात आदेश को क्रियान्वित करने में रेखा गारमेंट्स को किस प्रक्रिया से गुज़रना होगा? विवेचना कीजिए।

5. आपकी फर्म कनाडा से कपड़ा मशीनरी के आयात की योजना बना रही है। आयात प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।




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