अध्याय 06 व्यवसाय का सामाजिक उत्तरदायित्व एवं व्यावसायिक नैतिकता

मणि एक युवा समाचार-पत्र संवाददाता है जो विगत छ: माह से व्यावसायिक इकाइयों में व्याप्त कुरीतियों, जैसेभ्रामक विज्ञापन, मिलावटी सामान की पूर्ति, श्रमिकों की दयनीय कार्य-स्थितियाँ, पर्यावरण प्रदूषण, सरकारी कर्मचारियों को घूस देना आदि के विषय में लिख रहा है। अब उसे विश्वास हो गया है कि व्यापारी धन कमाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। वह रमन झुनझुनवाला, जो एक अनुकरणीय ट्रक निर्माता कंपनी का चेयरमैन है, का साक्षात्कार लेता है। यह कंपनी अपने ग्राहकों, कर्मचारियों, विनियोजकों तथा अन्य सामाजिक समुदायों से सद्व्यवहार के लिए विख्यात कंपनी है। इस साक्षात्कार से मणि की समझ में आने लगता है कि एक व्यावसायिक इकाई समाज के प्रति उत्तरदायी भी हो सकती है, वह नैतिक रूप से सच्ची भी हो सकती है तथा एक उच्च कोटि का लाभ देने वाली भी हो सकती है। इसके उपरांत वह व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व तथा व्यावसायिक नैतिकता विषय के गहन अध्ययन में जुट जाता है।

6.1 परिचय

नैतिकता का सिद्धांत है कि व्यावसायिक इकाइयों को सामाजिक आकांक्षाओं का ध्यान रखते हुए व्यावसायिक क्रियाएँ करनी चाहिए तथा लाभ अर्जित करना चाहिए। समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के कुछ सामाजिक उत्तरदायित्व हैं। उसे सामाजिक मूल्यों का आदर करना चाहिए तथा व्यवहार कुशल होना चाहिए। प्रत्येक व्यावसायिक इकाई को लाभ अर्जित करने के लिए औद्योगिक तथा वाणिज्यिक क्रियाएँ करने का अधिकार समाज से प्राप्त है। लेकिन यह भी आवश्यक है कि वह ऐसी कोई भी कार्यवाही न करे जो समाज के दृष्टिकोण से अवांछनीय हो। कुछ ऐसी कार्यवाहियाँ हैं जो लाभ तो अधिक प्रदान करती हैं लेकिन समाज पर उनका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है; उदाहरणार्थ— माल उत्पादन एवं विक्रय में मिलावट, भ्रामक विज्ञापन, करों का भुगतान न करना, वातावरण को प्रदूषित करना तथा ग्राहकों का शोषण। कुछ अन्य ऐसे क्रियाकलाप हैं जो उद्यम की छवि को भी सुधारते हैं तथा लाभार्जन में वृद्धि भी करते हैं, जैसे- उच्च कोटि के माल की पूर्ति करना, स्वस्थ कार्यस्थल वातावरण बनाना, देय करों का समय पर भुगतान करना, कारखाने में प्रदूषण रोकने के लिए उपयुक्त उपकरण लगवाना तथा ग्राहकों की शिकायतों को सुनना तथा उन पर उचित कार्रवाई करना है। वास्तव में यह सत्य है कि सामाजिक उत्तरदायित्व तथा सच्चा नैतिकतापूर्ण व्यवहार ही किसी व्यावसायिक उद्यम को दीर्घकालीन सफलता प्रदान करता है।

6.2 सामाजिक उत्तरदायित्व की अवधारणा

व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व का अर्थ उन नीतियों का अनुसरण करना, उन निर्णयों को लेना अथवा उन कार्यों को करना है जो समाज के लक्ष्यों एवं मूल्यों की दृष्टि से वांछनीय हैं। वास्तविक अर्थ में सामाजिक दायित्वों के अंगीकरण से तात्पर्य समाज की आकांक्षाओं को समझना एवं मान्यता देना, इसकी सफलता के लिए योगदान देने का निश्चय करना तथा साथ ही अपने लाभ कमाने के हित को भी ध्यान में रखना है।

यह विचारधारा, सर्वसाधारण की उस विचारधारा से विपरीत है जिसमें यह माना जाता है कि व्यवसायों का एकमात्र उद्देश्य है पूँजीपति के लिए अधिक से अधिक लाभ कमाना तथा जनता-जनार्दन के हित में सोचना इससे असंबंधित है। यह कहा जा सकता है कि दायित्वपूर्ण व्यवसायों को, बल्कि कहें तो प्रत्येक ज़िम्मेदार नागरिक को अपने समाज के लिए प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष और सामाजिक उत्तरदायित्व निभाने चाहिए।

यदि देखा जाए तो एक व्यवसाय के कानूनी उत्तरदायित्वों की अपेक्षा सामाजिक उत्तरदायित्व अधिक विस्तृत होते हैं। कानूनी उत्तरदायित्वों को तो केवल कानूनी बातों का पालन करके ही पूरा किया जा सकता है जबकि सामाजिक उत्तरदायित्व उससे कहीं परे होता है। यह स्पष्ट है कि सामाजिक उत्तरदायित्वों को केवल कानून का पालन करके पूरा नहीं किया जा सकता। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सामाजिक उत्तरदायित्व में समाज के हितार्थ वे तत्व निहित हैं जिन्हें व्यवसायी स्वेच्छा से करते हैं।

6.3 सामाजिक उत्तरदायित्व की आवश्यकता

जब चर्चा सामाजिक उत्तरदायित्व की हो तो कौन-सा कार्य उचित है? क्या व्यावसायिक संगठन का संचालन केवल स्वामियों के आशानुकूल अधिकतम लाभ कमाने के लिए किया जाए अथवा उन लोगों के हितार्थ किया जाए जो समाज में ग्राहक, कर्मचारी, आपूर्तिकर्ता, सरकार और समुदाय के रूप में रहते हैं?

दरअसल, सामाजिक उत्तरदायित्व का प्रश्न ही नैतिकता का है क्योंकि इसमें व्यवसाय के उत्तरदायित्व के संबंध में उचित तथा अनुचित का सवाल उठता है। सामाजिक दायित्व में स्वैच्छिकता निहित है। व्यवसायी मान सकते हैं कि इन दायित्वों को निभाने के लिए कुछ करने या न करने के लिए वे स्वतंत्र हैं। वे इसके लिए भी स्वच्छंद हैं कि समाज के विभिन्न वर्गों की सेवा करने के लिए उन्हें किस सीमा तक जाना है। वास्तविकता यह है कि सभी व्यवसायी समाज के प्रति समान रूप से स्वयं का उत्तरदायित्व नहीं समझते हैं। बहुत लंबे समय से यह वाद-विवाद का विषय रहा है कि व्यवसाय का सामाजिक उत्तरदायित्व होना चाहिए अथवा नहीं। कुछ लोग निश्चित रूप से यह मानते हैं कि एक फर्म केवल अपने स्वामी के प्रति उत्तरदायी है। दसरी ओर कुछ लोग जो इससे भिन्न विचारधारा वाले हैं, मानते हैं कि व्यवसायों को समाज के उन वर्गों के प्रति भी उत्तरदायी होना चाहिए जो उनके निर्णयों एवं क्रियाकलापों से प्रभावित होते हैं। सामाजिक उत्तरदायित्वों की अवधारणा को समझने के लिए व्यावसायिक इकाइयों को इसके पक्ष एवं विपक्ष में दिए गए तर्कों को समझना होगा।

6.3.1 सामाजिक उत्तरदायित्व के पक्ष में तर्क

(क) अस्तित्व एवं विकास के लिए औचित्य- व्यवसाय का अस्तित्व वस्तुओं एवं सेवाओं को मानव जाति की संतुष्टि के लिए उपलब्ध कराने पर निर्भर करता है जबकि व्यावसायिक क्रियाओं द्वारा लाभ कमाना भी एक महत्वपूर्ण औचित्य है। यह मनुष्यों को प्रदान की हुई सेवाओं का परिणाम ही समझना चाहिए। वास्तव में, व्यवसाय की उन्नति एवं विकास तभी संभव है जब समाज को वस्तुएँ एवं सेवाएँ लगातार उपलब्ध होती रहें। अत: एक व्यावसायिक इकाई द्वारा सामाजिक उत्तरदायित्व की अभिधारणा ही उसके अस्तित्व एवं विकास के लिए औचित्य प्रदान करती है।

(ख) फर्म का दीर्घकालीन हित- एक फर्म दीर्घकाल तक अधिकतम लाभ तभी कमा सकती है जब उसका सर्वोच्च लक्ष्य समाज सेवा करना हो। यदि समाज के बहुत से लोग जिनमें कर्मचारी, उपभोक्ता, अंशधारी, सरकारी अधिकारीगण आदि सम्मिलित हैं, यदि इन्हें यह विश्वास हो जाता है कि अमुक व्यवसाय समाज के हित में ऐसा कुछ नहीं कर रहा जो उसे करना चाहिए, तो वे उस व्यवसाय से अपने सहयोग के हाथ को वापस खींच लेते हैं। सामाजिक उत्तरदायित्व की पूर्ति करना उस संस्था के अपने हित में है। यदि कोई फर्म सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायता करती है तो जनता की धारणा भी उसके पक्ष में विकसित होती है।

(ग) सरकारी विनियम से बचाव- व्यवसायी के दृष्टिकोण से सरकारी विनियमों का पालन करना अवांछित है क्योंकि वे स्वतंत्रता को सीमित करते हैं। अत: यह माना जाता है कि व्यवसायी वर्ग स्वेच्छा से सामाजिक उत्तरदायित्व को ग्रहण करके सरकारी विनियम की समस्या से बच सकते हैं तथा नये कानून बनाने की आवश्यकता में कमी करने में सहायता कर सकते हैं।

निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व

निगमित उत्तरदायित्व का अभिप्राय कंपनियों की भूमिका से है जो निरंतर विकास की कार्यसूची तथा आर्थिक प्रगति, सामाजिक प्रगति व पर्यावरण संरक्षण की संतुलित धारणा को अपरिहार्य बनाकर निभा सकती हैं।

निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व की कोई सार्वभौमिक स्वीकृत परिभाषा नहीं है। वर्तमान में अस्तित्व में प्रत्येक परिभाषा व्यवसायों के समाज पर प्रभाव तथा उनसे समाज की अपेक्षाओं का आधार बताती है।

1. निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व को यूरोपीय संघ ने इस प्रकार परिभाषित किया है- “समाज पर उनके प्रभाव हेतु उपक्रमों के उत्तरदायित्वा”

2. ‘निरतरर विकास हेतु विश्व व्यवसाय परिषद्’ ने निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व को इस प्रकार परिभाषित किया है- “व्यवसाय द्वारा कर्मचारियों तथा उनके परिवारों व समाज के जीवन स्तर को सुधारने के साथ-साथ आर्थिक विकास हेतु निंतर वचनबद्धता|”

3. संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन ने परिभाषित किया है- “निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व एक प्रबंध अवधारणा है जिसके द्वारा कंपनियाँ सामाजिक तथा पर्यावरणीय सरोकारों को व्यवसाय प्रचालनों से एकीकृत करती हैं तथा उनके हितधारियों से बातचीत करती हैं। निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व को ऐसे माध्यम के रूप में सामान्यत: समझा जाता है जिसके द्वारा कंपनी आर्थिक, पर्यावरणीय तथा

सामाजिक आवश्यकताओं के बीच संतुलन स्थापित करती है तथा साथ ही अंशधारकों एवं हितधारकों की अपेक्षाओं का पता लगाती है। इस संदर्भ में, यह महत्वपूर्ण है कि निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व, जो कूटनीतिक व्यवसाय प्रबंधन अवधारणा हो सकती है, तथा दान, प्रायोजन एवं परोपकार के बीच अंतर स्पष्ट हों। यद्यपि बाद में बताई गई सभी क्रियाएँ गरीबी घटाने में महत्वपूर्ण योगदान करती हैं, तथा कंपनी की कीर्ति को प्रत्यक्षत: बढ़ाती हैं और उसके ब्रांड को मजबूत करती हैं; तथापि निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व की अवधारणा स्पष्टत: इससे आगे है।”

भारत में निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व की अवधारणा कंपनी अधिनियम, 2013 के वाक्यांश 135 द्वारा शासित होती है, जिसे संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया और 23 अगस्त, 2013 को भारत के राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त की गई।

अधिनियम में दिए गए निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रावधान उन कंपनियों पर लागू होते हैं, जिनका वार्षिक टर्नओवर 10,000 करोड़ रु. या अधिक है अथवा शुद्ध मूल्य 500 करोड़ रु. या अधिक है अथवा शुद्ध लाभ 5 करोड़ रु. या अधिक है।

1. नए नियमों, जो वित्तीय वर्ष $2014-15$ से लागू हैं, के अनुसार कंपनियों के लिए यह आवश्यक है कि वे अपने मंडल सदस्यों की एक सी.एस.आर. समिति बनाएँ, जिसमें न्यूनतम एक स्वतंत्र निदेशक हो।

2. अधिनियम कंपनियों को प्रोत्साहित करता है कि वे पिछले तीन वर्षों के अपने औसत शुद्ध लाभ का $2 %$ निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व पर व्यय करें।

3. निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व के अंतर्गत की जाने वाली सांकेतिक क्रियाएँ अधिनियम की अनुसूची VII में दी गई हैं।

4. केवल भारत में की जाने वाली निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व क्रियाएँ ही मान्य होंगी।

5. ऐसी क्रियाएँ जो केवल कर्मचारियों तथा उनके परिवारों के लिए की गई हों, निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व के अंतर्गत योग्य नहीं होगी।


(घ) समाज का रखरखाव— यहाँ यह तर्क दिया जा सकता है कि कानून हर परिस्थिति के लिए नहीं बनाए जा सकते। वे व्यक्ति जो यह सोचते हैं कि उन्हें वह सब कुछ व्यवसाय से नहीं मिल रहा जो वास्तव में मिलना चाहिए। वे दूसरी असामाजिक गतिविधियों का आश्रय ले सकते हैं जो निश्चित रूप से सरकारी कानून में नहीं आती। इससे व्यवसाय के हितों को ठेस लग सकती है। अत: यह अत्यंत आवश्यक है कि व्यावसायिक संगठन सामाजिक उत्तरदायित्वों की ओर जागरूक हों तथा उन्हें ग्रहण करें।

(ङ) व्यवसाय में संसाधनों की उपलब्धता- यह तर्क सार्थक है कि व्यावसायिक संस्थाओं के बहुमूल्य वित्तीय एवं मानवीय संसाधन होते हैं, जिनका उपयोग प्रभावशाली ढंग से समस्याओं के समाधान में किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, व्यवसाय में पूँजी रूपी संसाधन एवं प्रतिभावान प्रबंधकों का निकाय होता है जो वर्षों के अनुभव के आधार पर सभी समस्याओं को आसानी से सुलझा सकते हैं। अत: समाज के पास यह एक अच्छा अवसर है कि वह खोज करें कि ये संसाधन किस प्रकार सहायक हो सकते हैं।

(च) समस्याओं का लाभकारी अवसरों में रूपांतरण- पिछले तर्कों से संबंधित यह तर्क भी है कि व्यवसाय अपने गौरवपूर्ण इतिहास से जोखिम भरी परिस्थितियों को लाभकारी सौदों में बदलने से केवल समस्याओं को ही नहीं सुलझाते, बल्कि प्रभावपूर्ण ढंग से चुनौतियों को स्वीकार करते हैं।

(छ) व्यापारिक गतिविधियों के लिए बेहतर वातावरण- यदि व्यवसाय का संचालन ऐसे समाज में होना है, जहाँ जटिल एवं विविध प्रकार की समस्याएँ विद्यमान हैं, तब वहाँ सफलता की किरण काफी मद्धिम होती है। दूसरी ओर, श्रेष्ठ समाज ऐसा वातावरण तैयार करता है जो व्यावसायिक कार्यों के लिए अधिक उचित हो। जो इकाई लोगों के जीवन की गुणवत्ता के प्रति सर्वाधिक संवेदनशील है, उसे अपना व्यवसाय चलाने के लिए परिणामस्वरूप अच्छा समाज मिलेगा।

(ज) सामाजिक समस्याओं के लिए व्यवसाय उत्तरदायी- नैतिक रूप से यह तर्क दिया जाता है कि व्यवसायों ने स्वयं कुछ सामाजिक समस्याओं को या तो पैदा किया है या उन्हें स्थायी बनाया है। उदाहरणस्वरूप, पर्यावरण, प्रदूषण, असुरक्षित कार्यस्थल, सरकारी संस्थानों में भ्रष्टाचार तथा विभेदात्मक रोज़गार प्रवृत्ति, ऐसे ही उदाहरण हैं। अतः व्यवसाय का यह नैतिक कर्तव्य है कि वे समाज को नकारात्मक रूप से प्रभावित करने वाले तत्वों का सामना करें, न कि उन्हें समाधान के लिए अन्य व्यक्तियों पर छोड़ दें।

6.3.2 सामाजिक उत्तरदायित्व के विपक्ष में मुख्य तर्क

(क) अधिकतम लाभ उद्देश्य पर अतिक्रमण- इस तर्क के अनुसार व्यवसाय का मुख्य उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना होता है। अत: सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करने की बात इस सिद्धांत के विपरीत है। वास्तव में, सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह व्यवसायी तभी कर सकते हैं, जब लाभ अधिकतम हो। यह सब तभी किया जा सकता है, जब लागत मूल्य कम हो तथा कार्यकुशलता बढ़ी हुई हो।

(ख) उपभोक्ताओं पर भार- यह भी तर्क दिया जाता है कि प्रदूषण नियंत्रण तथा वातावरण संरक्षण अत्यंत खर्चीले उपाय हैं जिन्हें अपनाने में भारी आर्थिक बोझ उठाना पड़ता है। ऐसी दशा में व्यवसायी इस तरह के बोझ को मूल्यों में वृद्धि करके उपभोक्ताओं पर ही डालने का प्रयत्न करते हैं, बजाय इसके कि वे इसे स्वयं वहन करें। अतः सामाजिक उत्तरदायित्व के नाम पर उपभोक्ता से अधिक मूल्य वसूल करना सर्वथा अनुचित ही है।

(ग) सामाजिक दक्षता की कमी- सभी सामाजिक समस्याओं का निराकरण उसी प्रकार से नहीं किया जा सकता जिस प्रकार व्यावसायिक समस्याओं का किया जाता है। वास्तविकता यह है कि व्यवसायियों को सामाजिक समस्याओं को सुलझाने की न तो कोई समझ होती है और न ही उन्हें कोई प्रशिक्षण दिया जाता है। अत: यह तर्क दिया जाता है कि सामाजिक समस्याओं का निदान अन्य विशेषज्ञ एजेंसियों द्वारा कराया जाना चाहिए।

(घ) विशाल जन-समर्थन का अभाव- प्राय: यह देखने में आया है कि सामान्य रूप से जनता सामाजिक कार्यक्रमों में उलझना पसंद नहीं करती। इस तर्क के अनुसार, कोई भी व्यावसायिक इकाई जनता के विश्वास के अभाव एवं सहयोग के बिना सामाजिक समस्याओं को सुलझाने में सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर सकती।

6.3.3 सामाजिक उत्तरदायित्व की यथार्थवादिता

सामाजिक उत्तरदायित्व के पक्ष एवं विपक्ष में दिए गए उपरोक्त तर्कों के आधार पर कोई भी व्यक्ति यह विचार कर सकता है कि वास्तव में व्यवसायियों को क्या करना चाहिए? क्या उन्हें अधिक से अधिक लाभ कमाने के विषय में ही अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए अथवा सामाजिक उत्तरदायित्वों के विषय में भी सोचना चाहिए। यदि यथार्थवादिता की ओर देखा जाये तो आज के परिवर्तनशील युग में व्यवसायी यह अहसास करने लगे हैं कि हमारा अस्तित्व तभी बना रह सकेगा, हम लाभकारी गतिविधियों के साथ-साथ सामाजिक बंधनों का भी निर्वाह करते रहें। यदि देखा जाए तो इस अहसास का एक भाग वास्तविक प्रतीत नहीं होता क्योंकि यह केवल कहने भर की बात है। निजी उद्यमों को चालू रखने में यह धारणा आश्वस्त नहीं कर पाती है। यह भी कटु सत्य है कि निजी कंपनियाँ भी प्रजातांत्रिक समाज की चुनौतियों को स्वीकार करती हैं, जहाँ सभी लोगों को कुछ मानवीय अधिकार प्राप्त हैं तथा वे व्यवसाय से अच्छे व्यवहार की माँग कर सकते हैं सामाजिक उत्तरदायित्व की अवधारणा मूलत: नीतिशास्त्र संबंधी अवधारणा है। इसमें मानवीय कल्याण की बदलती धारणा सम्मिलित है तथा यह उन व्यावसायिक क्रियाओं के सामाजिक पहलुओं की चिंता पर ज्ञोर देती है जिसका सीधा संबंध सामाजिक जीवन की गुणवत्ता से है। यह अवधारणा व्यवसाय को इन सामाजिक पहलुओं का ध्यान रखने एवं अपने सामाजिक प्रभावों की ओर ध्यान देने का मार्ग दिखलाती है। उत्तरदायित्व से अभिप्राय है कि सामाजिक संगठनों का उस समाज के प्रति एक प्रकार का कर्तन्य है, जिसमें रहकर वे कार्य करते हैं। उन्हें सामाजिक समस्याओं का समाधान करना है तथा आर्थिक वस्तु एवं सेवाओं के अतिरिक्त भी योगदान देना है। यहाँ पर उन ताकतों की ओर ध्यान देना आवश्यक होगा जिन्होंने व्यवसायियों को सामाजिक उत्तरदायित्व की ओर ध्यान देने के लिए बाध्य किया है। उनमें से कुछ अधिक महत्वपूर्ण निम्न हैं-

(क) सार्वजनिक नियमन की आशंका- प्रजातांत्रिक ढंग से चुनी हुई आधुनिक सरकारों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे समाज के सभी वर्गों की समान रूप से सुरक्षा करेंगी। जब व्यावसायिक संगठन सामाजिक उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से कार्य करते हैं तो जनता की सुरक्षा हेतु सार्वजनिक विनियमों को लागू किए जाने की कार्यवाही की जाती है। यही सार्वजनिक नियमन आशंका ही महत्वपूर्ण है जिसके कारण व्यावसायिक उद्यम सामाजिक उत्तरदायित्व को अपनाते हैं।

(ख) श्रम आंदोलनों का दबाव- विगत शताब्दी में श्रमिक अधिक शिक्षित एवं संगठित हुए हैं। अत: श्रम संगठन संपूर्ण विश्व में श्रमिकों के लिए अधिक फलदायी सिद्ध हो रहे हैं। इस धारणा ने उन उद्योगपतियों को ‘रखो और निकालो’ की धारणा से बदलकर उनके हितार्थ कार्य करने के लिए बाध्य किया है।

(ग) उपभोक्ता जागरण का प्रभाव- जन संपर्क साधनों तथा शिक्षा के विकास एवं बाज़ार में बढ़ती हुई प्रतियोगिता ने आज उपभोक्ता को अपने अधिकारों के प्रति अधिक जागरूक एवं अधिक सशक्त बना दिया है जिसके कारण ‘क्रेता सावधान’ के सिद्धांत को ‘क्रेता बादशाह’ में परिवर्तित कर दिया है। अत: व्यवसायियों ने ग्राहक उन्मुख नीतियों का पालन करना प्रारंभ कर दिया है।

(घ) व्यावसायियों के लिए सामाजिक मानकों का विकास- आज कोई भी व्यावसायिक इकाई अपने मनमाने ढंग या मनमाने मूल्य पर वस्तुओं का विक्रय नहीं कर सकती। नवीनतम सामाजिक मानकों के विकसित हो जाने से विधिसंगत नियमों का पालन करते हुए व्यवसायी सामाजिक आवश्यकता की वस्तुओं की पूर्ति करते हैं। कोई भी व्यवसाय समाज से पृथक नहीं हो सकता, केवल समाज ही व्यवसाय को स्थायी बनाता है तथा वही ही उसे उन्नतशील बनाता है। यह केवल सामाजिक मानकों के आधार पर ही व्यावसायिक क्रियाकलापों का निर्णय होता है।

(ङ) व्यावसायिक शिक्षा का विकास- व्यावसायिक शिक्षा के विकास ने समाज को सामाजिक उद्देश्यों के प्रति और अधिक जागरूक बना दिया है। आज शिक्षा के प्रसार ने समाज के विभिन्न अंगों, जैसे— उपभोक्ता, विनियोजक कर्मचारी अथवा स्वामी, सभी को अधिक समझदार बना दिया है। पहले की अपेक्षा, जब शिक्षा का अभाव था, आज सभी वर्ग अपने हितों को अच्छी तरह पहचानते हैं।

(च) सामाजिक हित तथा व्यावसायिक हितों में संबंध- आज व्यावसायिक उपक्रमों ने यह सोचना आरंभ कर दिया है कि सामाजिक हित तथा व्यावसायिक हित एक-दूसरे के विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। यह धारणा कि व्यवसाय का विकास केवल समाज का शोषण करने से ही संभव है, आज पुरानी हो चुकी है। इसका स्थान इस मत ने लिया है कि व्यवसाय दीर्घकाल तक तभी चल सकते हैं, जब वे समाज की सेवा भली-भाँति करें।

(छ) पेशेवर एवं प्रबंधकीय वर्ग का विकास- विश्वविद्यालयों तथा विशिष्ट प्रबंधन संस्थानों ने पेशेवर एवं प्रबंधकीय शिक्षा प्रदान कर एक विशिष्ट वर्ग को जन्म दिया है जिसका सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति पृथक मत है जो सर्वथा पूर्वकालीन मालिक/्रबंधकों के वर्ग से भिन्न है। पेशेवर प्रबंधक व्यवसाय के सफलतापूर्वक संचालन के लिए केवल लाभ अर्जित करने की अपेक्षा समाज के विविध हितों में अधिक रुचि लेते हैं।

उपरोक्त एवं कुछ अन्य सामाजिक एवं आर्थिक बल आपस में मिलकर व्यवसाय को एक सामाजिक-आर्थिक क्रिया का रूप देते हैं। अब व्यवसाय मात्र धंधा नहीं रह गया है बल्कि एक ऐसा आर्थिक संस्थान है जो लघुकालीन एवं दीर्घकालीन आर्थिक हितों की आवश्यकताओं का मिलान करता है, उस समाज की जहाँ वह कार्यरत होता है। तत्वत: यह वो है जो व्यावसायिक सामान्य एवं विशिष्ट सामाजिक उत्तरदायित्वों का उत्थान करता है। इस बात में कोई मतभेद नहीं है कि व्यवसाय एक आर्थिक क्रिया है और वह उसे प्रमाणित भी करता है। यह भी सत्य है कि व्यवसाय समाज का एक अंग है तथा उस कर्तन्य को वह समाज की आवश्यकताओं को निरंतर पूरा करके निभाता है।

6.4 सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रकार

व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्वों को विस्तृत रूप से चार भागों में विभाजित किया जा सकता है, जो इस प्रकार से हैं-

(क) आर्थिक उत्तरदायित्व- मूल रूप से व्यावसायिक उपक्रम एक आर्थिक इकाई है तथा इसका सबसे पहला उत्तरदायित्व उपभोक्ता वस्तुओं एवं सेवाओं को समाज को उपलब्ध कर तथा लाभ पर विक्रय करके सुलभ कराना है, जिसकी समाज को आवश्यकता है। इस उत्तरदायित्व को निभाने में थोड़े विवेक की आवश्यकता होती है।

(ख) कानूनी उत्तरदायित्व- प्रत्येक व्यवसाय का यह उत्तरदायित्व है कि वह देश के कानून का पालन करे क्योंकि ये कानून समाज के हित के लिए होते हैं। कानून का पालन करने वाला उद्यम सामाजिक उत्तरदायित्व का पालन करने वाला उद्यम होता है।

(ग) नैतिक उत्तरदायित्व— इसमें वह व्यवहार सम्मिलित है जिसकी समाज को व्यवसाय से अपेक्षा होती है लेकिन कानून से आबद्ध नहीं होता। उदाहरणार्थ, किसी भी उत्पाद का विज्ञापन करते समय मनुष्यों की धार्मिक भावनाओं का आदर करना। इस उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए स्वेच्छापूर्वक कार्य करने की भावना अपनानी होती है।

(घ) विवेकशील उत्तरदायित्व— यह पूर्णरूपेण स्वैच्छिक एवं बाध्यपूर्ण उत्तरदायित्व है जिसे व्यवसाय अपनाते हैं। उदाहरणार्थ, शिक्षण संस्थाओं के लिए दान देना अथवा बाढ़ या भूकंप पीड़ितों की सहायता करना|प्रबंधकों का यह कर्तव्य होता है कि पूँजीगत विनियोजन को सुरक्षित रखने के लिए सट्टेबाजी संबंधी सौदों से बचाकर स्वस्थ व्यावसायिक क्रियाओं में संलग्न रहें ताकि विनियोजन पर उचित लाभ मिलता रहे।

6.5 व्यवसाय का विभिन्न संबंधित वर्गों के प्रति उत्तरदायित्व

व्यवसाय के सामाजिक उद्देश्यों की पहचान कर लेने के उपरांत यह निश्चित करना अत्यंत आवश्यक है कि एक व्यवसाय किसके प्रति कितना उत्तरदायी है। निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि व्यवसाय स्वयं यह तय करे कि उन्हें किस क्षेत्र में कार्य करना है। उनमें से कुछ प्रकार निम्न हैं-

(क) व्यवसाय का अंशधारियों अथवा स्वामियों के प्रति उत्तरदायित्व- एक व्यवसाय का यह उत्तरदायित्व है कि वह स्वामियों अथवा अंशधारियों को उनके द्वारा विनियोजित पूँजी पर उचित प्रतिफल दे तथा इसका विश्वास दिलाए कि उनकी विनियोजित पूँजी व्यवसाय में सुरक्षित है। एक निगमित निकाय के रूप में एक कंपनी का यह भी कर्तव्य है कि वह अंशधारियों को कंपनी की कार्यशैली तथा भविष्य में विकास की योजना के विषय में नियमित एवं सही सूचना दे।

(ख) कर्मचारियों के प्रति उत्तरदायित्व- एक उद्यम के प्रबंधकों का यह भी उत्तरदायित्व है कि वे कर्मचारियों को अर्थपूर्ण कार्य के सुअवसर प्रदान करें। प्रबंधकों को कर्मचारियों का सहयोग प्राप्त करने के लिए सही ढंग की कार्य दशाओं का सृजन करना चाहिए। व्यवसाय को चाहिए कि वह कर्मचारियों को श्रम संगठन बनाने में प्रजातांत्रिक अधिकारों का उपयोग करने के लिए हाथ बढ़ाए। श्रमिकों को उचित वेतन तथा उचित व्यवहार का प्रबंधकों से भरोसा मिलना चाहिए।

(ग) उपभोक्ताओं के प्रति उत्तरदायित्व- उपभोक्ताओं को उत्तम किस्म की वस्तु/सेवाएँ उचित मूल्य पर, उचित समय तथा उचित मात्रा में उपलब्ध कराने का व्यवसाय का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व है। व्यवसाय को मिलावट करने के विरुद्ध सतर्कता बरतने, निम्न स्तर के माल की पूर्ति न होने देने, आवश्यक सेवाओं की पूर्ति में कमी न होने देने तथा ग्राहकों से शिष्टाचार का बर्ताव करने एवं धोखापूर्ण तथा अविश्वसनीय विज्ञापन पर रोक लगाने आदि कार्यों के संपादन का भी उत्तरदायित्व है। उपभोक्ताओं को उत्पाद से संबंधित सूचनाएँ पाने का अधिकार है तथा उन्हें कंपनी के क्रय आदि कार्यों से संबंधित सूचनाएँ भी अवश्य मिलनी चाहिए।

(घ) सरकार तथा समाज के प्रति उत्तरदायित्व- देश के कानूनों का पालन करना तथा करों का सरकार को समयानुसार ईमानदारी से भुगतान करने का भी व्यवसाय का उत्तरदायित्व है। उन्हें देश के एक अच्छे नागरिक की तरह व्यवहार करना चाहिए तथा सामाजिक रीति-रिवाजों के पालन हेतु उचित कदम उठाने चाहिए। कारखानों की चिमनियों से निकलने वाला धुआँ तथा उनके गंदे पानी से वायु तथा पानी को प्रदूषित होने से बचाना चाहिए जिससे स्थानीय निवासियों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।

6.6 व्यवसाय तथा पर्यावरण संरक्षण

पर्यावरण संरक्षण एक विषम समस्या है जो व्यावसायिक प्रबंधकों तथा निर्णायकों को साहस के साथ सामना करने के लिए प्रेरित करती है। पर्यावरण की परिभाषा में मनुष्य के आस-पास के प्राकृतिक तथा मानव-निर्मित दोनों ही वातावरण को सम्मिलित किया जाता है। ये वातावरण प्राकृतिक संसाधनों में भी है और जो मानव-जीवन के लिए उपयोगी हैं। इन संसाधनों को प्राकृतिक संसाधन भी कहा जा सकता है, जिसमें- भूमि, जल, हवा, वनस्पति तथा कच्चा माल इत्यादि सम्मिलित हैं। मानव-निर्मित संसाधन, जैसे- सांस्कृतिक विरासत, सामाजिक-आर्थिक संस्थान तथा मनुष्य इत्यादि। पर्यावरण, जिसमेंभूमि, जल, वायु, मनुष्य, पेड़-पौधे तथा पशु-पक्षी सभी को सम्मिलित किया जाता है, को पतन से बचाते हुए इनका संरक्षण करना आवश्यक होता है ताकि वातावरण के संतुलन को बनाये रखा जा सके। एक प्राकृतिक संसाधन, जिसमें- भूमि, जल तथा वायु, कच्चा माल आदि आते हैं तो दूसरा मनुष्यों के प्रयासों से रचित सांस्कृतिक विरासत, सामाजिक एवं आर्थिक संस्थान तथा मनुष्य की गणना की जाती है। यह सर्वविदित है कि शुद्ध वातावरण का तीव्र गति से ह्रास हो रहा है जिसका कारण विशेषत: औद्योगिक गतिविधियों में वृद्धि है। सामान्यत: देश के महानगरों, जैसे— कानपुर, जयपुर, दिल्ली, पानीपत, कोलकाता तथा अन्य नगरों में यह आम दृश्य है। इन महानगरों के कारखानों से निकले उत्सर्जन मनुष्य जाति के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालते हैं। यद्यपि कुछ अवशेषों का उपयोग कच्चे माल तथा ऊर्जा के रूप में, अपरिहार्य है लेकिन उत्पादकों के लिए इसके प्रयोग से कुप्रभावों को कम करना एक बड़ी समस्या है। पर्यावरण संरक्षण हम सभी के लिए उपयोगी है।

प्रदूषण भौतिक, रासायनिक तथा जैविक लक्षणों, जैसे- हवा, भूमि तथा जल में बदलाव लाता है। प्रदूषण मानव जीवन के लिए हानिकारक तथा अन्य वर्गों के जीवन को नष्ट करने वाला है। यह जीवन स्तर को गिराता है तथा सांस्कृतिक विरासतों को भी हानि पहुँचाता है। पर्यावरण केवल सीमित प्रदूषण को ही समाप्त कर पाता है। अत: यह बढ़ता ही जाता है। वायु प्रदूषण मुख्यतः रासायनिक क्षय तथा कूड़े-कचरे को नदियों में प्रवाहित करने से होता है। दुर्णंधमय क्षय तथा भारी प्रदूषित सामग्री एकत्रित होने से भूमि क्षतिग्रस्त होती है। प्रदूषण के कारण वातावरणीय ह्रास होता है तथा मानव स्वास्थ्य एवं प्राकृतिक एवं बनावटी संसाधनों को हानि पहुँचती है। वातावरण की सुरक्षा का प्रत्यक्ष संबंध प्रदूषण नियंत्रण से है।

पर्यावरण समस्याएँ

संयुक्त राष्ट्र ने प्राकृतिक पर्यावरण को हानि पहुँचाने वाली आठ समस्याओं की पहचान की है-

(क) ओज़ोन क्षय

(ख) भूमंडलीय ऊष्मीकरण/ऊष्णता

(ग) अनवरत खतरनाक अवशेष

(घ) जल प्रदूषण

(ङ) ताजे जल की मात्रा एवं गुणवत्ता

(च) वनोन्मूलन

(छ) भूमि निम्नीकरण (क्षय)

(ज) जैविक परिवर्तनों का भय

6.6.1 प्रदूषण के कारण

आज के युग में, चाहे वह सरकारी क्षेत्र हो या निजी, जिनमें उद्योग, सरकार, कृषि, खनन, ऊर्जा, यातायात, निर्णायक उद्योग तथा उपभोक्ता सम्मिलित हैं, सभी गंदगी फैलाते हैं तथा कूड़ा-करकट फैलाते हैं। इन प्रदूषित करने वाली वस्तुओं में उत्पादन के समय छाँटकर अलग निकाली गयी वस्तुएँ या उपभोक्ताओं द्वारा परित्यक्त वस्तुएँ होती हैं। इन्हीं वस्तुओं के द्वारा प्रदूषण उत्पन्न होता है। अन्य प्रदूषण के कारणों में उद्योग सर्वोपरि है। व्यावसायिक क्रियाओं में उत्पादन-वितरण, यातायात, गोदाम, वस्तुओं का उपभोग तथा सेवाएँ भी मुख्य स्थान रखती हैं। बहुत-सी व्यावसायिक इकाइयाँ- (क) हवा; (ख) जल; (ग) भूमि; एवं (घ) ध्वनि प्रदूषण के लिए उत्तरदायी पाई गई हैं।

इस प्रकार के प्रदूषण के कारणों को नीचे समझाया गया है-

(क) वायु प्रदूषण- वायु प्रदूषण वह है जब बहुत से तत्व मिलकर वायु की गुणवत्ता को कम कर देते हैं। मोटर वाहनों द्वारा छोड़ा गया कार्बन मोनो ऑक्साइड वायु प्रदूषण फैलाता है। कारखानों से निकला हुआ धुआँ प्रदूषण फैलाता है।

(ख) जल प्रदूषण- पानी मुख्यत: रसायन एवं कचरा के ढलाव से प्रदूषित हो जाता है। वर्षों से व्यवसायों एवं शहरों का कचरा नदियों एवं झीलों में बिना परिणाम की परवाह किए फेंका जाता रहा है। जल प्रदूषण के कारण प्रति वर्ष हजारों पशुओं की मृत्यु हो जाती है और यह मानव जीवन के लिए गंभीर चेतावनी है।

(ग) भूमि प्रदूषण- इस प्रदूषण का कारण कचरे को भूमि के अंदर दबा देने से होता है। इसके कारण भूमि की गुणवत्ता तो नष्ट होती ही है, भूमि की उर्वरा शक्ति भी कम हो जाती है। भूमि की जो गुणवत्ता पहले ही नष्ट हो चुकी है, वह मानव जाति के लिए आज के समय में बहुत बड़ी चुनौती बन गई है।

(घ) ध्वनि प्रदूषण- फैक्ट्रियों तथा मोटर गाड़ियों से निकलती ध्वनि केवल खीझ का स्त्रोत ही नहीं है, बल्कि स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए चेतावनी है। ध्वनि प्रदूषण के कारण बहुत-सी बीमारियाँ हो सकती हैं, जैसे- कम सुनना, दिल की बीमारी लगना तथा मानसिक असंतुलन इत्यादि।

6.6.2 प्रदूषण नियंत्रण की आवश्यकता

मानव जाति तथा अन्य जीव-धारियों के लिए वायु, जल तथा हवा अत्यंत आवश्यक तत्व हैं या यह कहा जाए कि इनके बिना जीवन असंभव है तो यह कहना भी गलत नहीं होगा। इन जीवनदायी तत्वों को कितनी क्षति पहुँची है यह इस बात पर निर्भर करता है कि प्रदूषण किस प्रकार का है। प्रदूषण फैलाने वाले तत्वों को कितनी मात्र में नष्ट कर दिया गया है तथा हमारे माध्यम प्रदूषण स्त्रोत से कितनी दूरी पर हैं। इस प्रकार की क्षति पर्यावरण गुणवत्ता में परिवर्तन कर देती है तथा जीवन को दुष्कर बना देती है। इस प्रकार से वायु मनुष्य के लिए सांस लेने में हानिकारक हो सकती है। पानी पीने के योग्य नहीं रहता तथा भूमि धरती माता न रहकर विषैले पदार्थ उगलने वाली बन जाती है। अत: यह आवश्यक हो जाता है कि प्रदूषण रोकने के लिए कुछ आवश्यक कदम उठाये जाएँ ताकि मानव जीवन सुखी एवं संपन्न रह सके। प्रदूषण को नियंत्रित करने के कुछ मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

(क) स्वास्थ्य संबंधी आशंकाओं को कम करना— कैंसर, हृदय एवं फेफड़ों से संबंधित बीमारियाँ हमारे समाज में मृत्यु के प्रमुख कारण हैं तथा ये बीमारियाँ वातावरण में दूषित तत्वों के कारण हैं। प्रदूषण नियंत्रण उपाय ऐसी बीमारियों की भंयकरता को ही नहीं रोकते, बल्कि मानव-जीवन को सुखी बनाने में भी सहायक होते हैं तथा स्वास्थ्य जीवन जीने का सुअवसर प्रदान करते हैं।

(ख) दायित्वों के जोखिम को कम करना- यह संभावना हो सकती है कि व्यावसायिक इकाइयों को विषाक्त गैस आदि से पीड़ित कर्मचारियों को क्षतिपूर्ति करने के लिए उत्तरदायी बना दिया जाए जिन्होंने प्रदूषण फैलाया है। अत: यह आवश्यक है कि दायित्वों के जोखिमों को कम करने के लिए फैक्ट्री में तथा भवनों के अन्य भागों में प्रदूषण नियंत्रण उपकरण स्थापित किए जाएँ।

(ग) लागत में बचत- एक प्रभावी प्रदूषण नियंत्रण कार्यक्रम उत्पादन लागत को कम करने के लिए भी आवश्यक है। यह उस समय अधिक आवश्यक है, जब उत्पादन इकाई, उत्पादन क्रिया में अधिक कचरा छोड़ रही हो। ऐसी अवस्था में कचरे तथा मशीन की सफाई में अधिक धन व्यय करना पड़ेगा, जिसे सही प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों द्वारा बचाया जा सकता है।

(घ) सार्वजनिक छवि में सुधार- आज जनता वातावरण की गुणवत्ता के बारे में अधिक जागरूक है। कचरे के नियंत्रण संबंधी अच्छी नीतियों के विषय में जानकर जनता और अधिक प्रभावित होती है। जब एक व्यावसायिक संस्था वातावरण को अच्छा बनाने का उत्तरदायित्व स्वयं ग्रहण कर लेती है तो उस संस्था की सार्वजनिक प्रतिष्ठा एक सार्वजनिक कर्तव्यनिष्ठ उद्यम के रूप में उभरती है।

(ङ) अन्य सामाजिक हित/लाभ- प्रदूषण नियंत्रण के अन्य भी बहुत से हित/लाभ प्राप्त होते हैं, उदाहरणार्थ— स्पष्ट दृश्यता, स्वच्छ इमारतें, उच्च कोटि का जीवन स्तर तथा प्राकृतिक उत्पादों की शुद्ध रूप में उपलब्धता।

6.6.3 पर्यावरण संरक्षण में व्यवसाय की भूमिका

पर्यावरण का स्वरूप हम सभी के लिए महत्वपूर्ण है। इसको नष्ट होने से बचाने का उत्तरदायित्व हम सभी का है। चाहे वह स्वयं सरकार हो, व्यावसायिक उद्यम हों, उपभोक्ता हों, कर्मचारी हों या समाज के अन्य सदस्य, सभी को इसे प्रदूषित होने से बचाने के लिए कुछ न कुछ अवश्य करना चाहिए। खतरनाक प्रदूषण उत्पादों पर रोक लगाने के लिए सरकार अधिनियम बना सकती है। उपभोक्ता, कर्मचारी तथा समाज के सदस्य ऐसे उत्पादों के उपभोग को बंद कर सकते हैं जो पर्यावरण के लिए घातक हैं। पर्यावरण संबंधी समस्याओं को सुलझाने के लिए व्यावसायिक इकाइयों को स्वयं आगे आना चाहिए। व्यावसायिक इकाइयों की यह भी सामाजिक ज़िम्मेदारी है कि वे केवल प्रदूषण जनित बातों पर ही ध्यान केंद्रित न करें बल्कि पर्यावरण संसाधनों की सुर्षा का भी उत्तरदायित्व अपने ऊपर लें। व्यावसायिक इकाइयाँ धन की सृजनकर्ता, रोज़गारदाता तथा भौतिक एवं मानवीय संसाधनों को संभालने वाली संस्थाएँ हैं। वे यह भी समझती हैं कि प्रदूषण नियंत्रण से संबंधित समस्याओं को कैसे सुलझाया जा सकता है जिसमें उत्पादन प्रक्रिया में परिवर्तन करके, संयंत्रों के रूप में बदलाव करके, घटिया किस्म के कच्चे माल के प्रयोग के स्थान पर उच्च कोटि के कच्चे माल का प्रयोग करके, प्रदूषण को नियंत्रित करने में सहायता प्रदान कर सकती हैं। प्रदूषण नियंत्रण के कुछ उपाय निम्नलिखित हैं-

(क) उच्च स्तरीय प्रबंधकों द्वारा पर्यावरण सुरक्षा तथा प्रदूषण नियंत्रण के लिए वचनबद्ध होकर कार्य करना।

(ख) इस बात का विश्वास दिलाना कि उद्यम की प्रत्येक इकाई पर्यावरण सुरक्षा तथा प्रदूषण नियंत्रण के लिए वचनबद्ध है।

(ग) अच्छे किस्म के कच्चे माल के क्रय के लिए नियम बनाना, उच्च कोटि की तकनीक अपनाना, कचरे के निष्पादन के लिए वैज्ञानिक तकनीक अपनाना ताकि प्रदूषण का नियंत्रण हो।

(घ) प्रदूषण नियंत्रण से संबंधित सरकार द्वारा बनाये गए नियमों का पालन करना।

(ङ) जोखिम भरे द्रव्य पदार्थों का उचित व्यवस्था हेतु सरकारी कार्यक्रमों में सहयोग करना। इनमें प्रदूषित नदियों की सफाई, वृक्षारोपण तथा वनों की कटाई को रोकना आदि हो सकते हैं।

(च) समय-समय पर प्रदूषण नियंत्रण कार्यक्रम की लागत एवं प्रतिफल का मूल्यांकन करना ताकि पर्यावरण सुरक्षा हेतु प्रगतिशील कार्यवाही की जा सके।

(छ) प्रदषषण नियंत्रण कार्यक्रम के सफल क्रियान्वयन हेतु आपूर्तिकर्ता, डीलर्स तथा क्रेताओं के तकनीकी ज्ञान तथा अनुभवों का लाभ प्राप्त करने हेतु समय पर कार्यशालाओं का आयोजन करना।

6.7 व्यावसायिक नैतिकता

सामाजिक दृष्टिकोण से व्यवसाय का मुख्य कार्य समाज को आवश्यक वस्तुएँ एवं सेवाएँ उपलब्ध कराना है। व्यक्तिगत दृष्टिकोण से व्यावसायिक इकाइयों का मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना है। यह भी कहा जा सकता है कि व्यावसायिक इकाई के मुख्य उद्देश्य तथा सामाजिक उद्देश्यों में टकराव नहीं होना चाहिए। यद्यपि व्यावसायिक इकाइयों के संचालनकर्ताओं के निर्णय एवं क्रियाकलाप सदैव जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप होंगे, यह सदैव सही नहीं है। एक उद्यम आर्थिक कार्यों (जैसेआय, लागत तथा लाभ) में बहुत उच्च कोटि का हो सकता है, लेकिन सामाजिक कार्य पालन में उतना अच्छा नहीं हो, जैसे - उत्पाद की पूर्ति उचित मात्रा में उचित मूल्य पर करना। इससे यह प्रश्न सामने खड़ा हो जाता है कि सामाजिक दृष्टिकोण से क्या उचित है तथा क्या अनुचित। इस प्रश्न का उत्तर इसलिए और भी आवश्यक है कि व्यावसायिक उद्यमों का जन्म समाज से होता है तथा वे समाज से ही प्रभावित होते हैं। अत: उन्हें अपने आप को स्थापित करने तथा अपने बारे में व्याख्या करने के लिए सामाजिक मूल्यों को प्राथमिकता देनी चाहिए। व्यावसायिक नैतिकता व्यक्तिगत हितों तथा सामाजिक हितों में सामंजस्य स्थापित करने की एक विधि है।

6.7.1 व्यावसायिक नैतिकता की अवधारणा

नैतिकता शब्द का मूल ग्रीक शब्द ‘एथिक्स’ है जिसका अर्थ चरित्र मानक, आदर्श या नैतिकता से है, जो एक समाज में प्रचलित होते हैं। यदि हम एक कार्य, निर्णय या व्यवहार को नैतिक मानें जो समाज की मान्यताओं या सिद्धांतों के अनुरूप है तो यह नैतिक ही होगा। इससे इस बात को बल मिलेगा कि क्या यह अपने आप में पूर्ण सिद्धांत अपने आप में पूर्ण नैतिक मूल्य हैं। दूसरी ओर बहुतों का यह मानना है कि हमारे समाज में विगत कुछ वर्षों में व्यवहारिक मूल्यों में परिवर्तन आया है। यद्यपि कुछ परिपूर्ण मूल्यों पर हम सहमत हो सकते हैं। जो सिद्धांत व्यवसाय के लिए अधिक कठोर हुए हैं उनके उदाहरण हैं-लोगों से कैसे व्यवहार किया जाए, पर्यावरण संरक्षण कार्यस्थल पर सुरक्षा एवं कर्मचारियों के अधिकार आदि। इन सब में कुछ समय से परिवर्तन आया है, यह हम स्पष्ट देख सकते हैं।

व्यावसायिक नैतिकता का सीधा संबंध व्यावसायिक उद्देश्य, चलन तथा तकनीक से है, जो समाज के साथ-साथ चलन में रहते हैं। एक व्यावसायिक इकाई को चाहिए कि वह सही मूल्य वसूल करे, सही तोल कर दे, ग्राहकों से सद्भावनापूर्ण व्यवहार करे। नैतिकता में मानवीय कार्यों का यह निश्चित करने के लिए आलोचनात्मक विश्लेषण किया जाता है कि वे सत्य एवं न्याय जैसे दो महत्वपूर्ण मानदंडों के आधार पर सही हैं या गलत।

विश्व में यह धारणा प्रबल हो चुकी है कि समाज के विकास के लिए व्यावसायिक इकाइयों द्वारा नैतिक मूल्यों का पालन अति आवश्यक है। नैतिकतापूर्ण व्यवसाय एक अच्छा व्यवसाय होता है। यह जनता में विश्वास पैदा करता है तथा अपनी साख में वृद्धि भी करता है। लोगों में विश्वास जगाकर अधिक लाभ अर्जित करता है। नैतिकता का पालन हमारे जीवन स्तर को ऊपर उठाने में सहायक है तथा जो कार्य हम करते हैं, उसे सराहना भी मिलती है।

6.7.2 व्यावसायिक नैतिकता के तत्व

नैतिकतापूर्ण व्यावसायिक व्यवहार व्यावसायिक उद्यमों तथा समाज दोनों के हित में है, इससे इस भावना को प्रोत्साहन मिलता है कि उद्यम अपने दैनिक क्रियाकलापों में किस प्रकार इन्हें अपना सकते हैं। एक संचालित व्यावसायिक उद्यम के व्यावसायिक नैतिकता के मूल तत्व निम्नांकित हैं-

(क) उच्च स्तरीय प्रबंध की प्रतिबद्धता- उच्च स्तरीय प्रबंध की नैतिकता के व्यवहार के विषय में संगठन में समझाने की भूमिका बड़ी निर्णायक होती है। परिणामों को प्राप्त करने के लिए मुख्य कार्यकारी अधिकारी तथा अन्य उच्च स्तरीय प्रबंधकों को निश्चित रूप से तथा दृढ़तापूर्वक नैतिकता के व्यवहार के लिए वचनबद्ध होना चाहिए। उन्हें संगठन के मूल्यों के विकास तथा अनुर्क्षण के लिए सदैव अपना नेतृत्व अवरुद्ध गति से प्रदान करते रहना चाहिए।

(ख) सामान्य कोड का प्रकाशन- ये वे उद्यम हैं जिनके पास प्रभावी नैतिक कार्यक्रम हैं, वे सभी संगठनों के लिए नैतिक सिद्धांतों को लिखित प्रलेखों के रूप में परिभाषित करते हैं, जिन्हें ‘कोड’ कहा जाता है। कुछ नैतिक मूल्यों, जैसे- आधारभूत ईमानदारी एवं कानून पालन, उत्पादन सुरक्षा एवं गुणवत्ता, कार्यस्थल पर सुरक्षा, हितों का टकराव, नियोजन विधियाँ, बाज़ार की उचित विक्रय प्रणाली तथा वित्तीय प्रतिवेदन आदि के विषय में कानूनी प्रकाशन होने इत्यादि को सम्मिलित करते हैं।

(ग) अनुपालन तंत्र की स्थापना- यह निश्चित करने के लिए कि वास्तविक निर्णय तथा कार्यों का निरूपण फर्म के नैतिक स्तरों के अनुसार किया जाता है, उचित यंत्र निर्माण कला की स्थापना करनी चाहिए। इसके कुछ उदाहरण हैं, भर्ती तथा भाड़े पर श्रम लेने के लिए नैतिक मूल्यों की ओर ध्यान देना। प्रशिक्षण के समय नैतिकतापूर्ण व्यवहार करना तथा अनैतिक कार्यों के विषय में कर्मचारियों को सूचित करना।

(घ) हर स्तर पर कर्मचारियों को सम्मिलित करना- व्यवसाय को नैतिकता का वास्तविक रूप देने के लिए कर्मचारियों को हर स्तर पर सम्मिलित किया जाना चाहिए ताकि उनकी संबद्धता नैतिक कार्यक्रमों में भी हो सके। फर्म की नैतिक नीतियों के निर्धारण में कर्मचारियों के छोटे गुटों को सम्मिलित किया जाना चाहिए तथा उनके रुझान का मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए।

(ड·) परिणामों का मापन- यद्यपि यह बहुत ही कठिन कार्य है कि नैतिक कार्यक्रमों की माप की जाए लेकिन फिर भी फर्में कुछ मानक स्थापित करके ऐसा कर सकती हैं। भविष्य की कार्यवाही में विषय में उच्च-स्तरीय प्रबंधक तथा कर्मचारियों की टीम इस विषय में वाद-विवाद कर सकते हैं।

मुख्य शब्दावली
सामाजिक उत्तरदायित्व कानूनी उत्तरदायित्व ध्वनि प्रदूषण
वातावरण प्रदूण नैतिकता
वातावरण संरक्षण वायु प्रदूषण व्यावसायिक नैतिकता
जल प्रदूषण भूमि प्रदूषण नैतिकता की आचार संहिता

सारांश

सामाजिक उत्तरदायित्व की अवधारणा- व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व का अर्थ उन नीतियों का अनुसरण करना, उन निर्णयों को लेना अथवा उन कार्यों को करना है जो समाज के लक्ष्यों एवं मूल्यों की दृष्टि से वांछनीय हैं।

सामाजिक उत्तरदायित्व की आवश्यकता- व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व की आवश्यकता का आविर्भाव फर्म के हित तथा समाज के हित के कारण होता है।

सामाजिक उत्तरदायित्व के पक्ष में तर्क- मुख्य तर्क हैं-

(क) अस्तित्व एवं विकास के लिए औचित्य,

(ख) दीर्घकालीन हित तथा फर्म की छवि,

(ग) सरकारी विनियम से बचाव,

(घ) समाज का रखरखाव,

(ड·) व्यवसाय के संसाधनों की उपलब्धता,

(च) समस्याओं का लाभकारी अवसरों में रूपांतरण,

(छ) व्यापारिक गतिविधियों के लिए बेहतर वातावरण, और

(ज) सामाजिक समस्याओं के लिए व्यवसाय उत्तरदायी।

सामाजिक उत्तरदायित्व के विपक्ष में तर्क- सामाजिक उत्तरदायित्व के विपक्ष में मुख्य तर्क हैं-

(क) अधिकतम लाभ उद्देश्य पर अतिक्रमण,

(ख) उपभोक्ताओं पर भार,

(ग) सामाजिक दक्षता की कमी, एवं

(घ) विशाल जन समर्थन का अभाव।

सामाजिक उत्तरदायित्व की यथार्थवादिता- सामाजिक उत्तरदायित्व की वास्तविकता यह है कि सामाजिक उत्तरदायित्व से संबंधित अलग-अलग तर्कों के होते हुए भी व्यावसायिक उद्यम कुछ बाह्य ताकतों के प्रभाव के कारण, सामाजिक उत्तरदायी होने के लिए बाध्य हैं। ये ताकतें हैं-

(क) सार्वजनिक नियमन की आशंका,

(ख) श्रम आंदोलन का दबाव,

(ग) उपभोक्ता जागरण का प्रभाव,

(घ) व्यवसायियों के लिए सामाजिक मानकों का विकास,

(ड·) व्यावसायिक शिक्षा का विकास,

(च) सामाजिक हित तथा व्यावसायिक हितों में संबंध, एवं

(छ) पेशेवर एवं प्रबंधकीय वर्ग का विकास।

व्यवसाय का विभिन्न संबंधित वर्गों के प्रति उत्तरदायित्व व्यावसायिक उद्यमों का निम्न के प्रति उत्तरदायित्व होता है-

(क) अंशधारी अथवा स्वामी

(ख) कर्मचारी

(ग) उपभोक्ता

(घ) सरकार तथा

(ड.) समाज

अंशधारियों को उनके द्वारा विनियोजित पूँजी पर उचित प्रतिफल, विनियोजित पूँजी की सुरक्षा; कर्मचारियों को अर्थपूर्ण कार्य के सुअवसर प्रदान करके उपभोक्ताओं को उत्तम किस्म की वस्तुएँ/सेवाएँ उचित मूल्य पर, उचित समय तथा उचित मात्र में उपलब्ध कराना; सरकार को समयानुसार करों का भुगतान तथा वातावरण संरक्षण इत्यादि, व्यवसाय के कुछ सामाजिक उत्तदायित्व हैं।

व्यवसाय तथा पर्यावरण संरक्षण- पर्यावरण संरक्षण एक विषम समस्या है, जो व्यावसायिक प्रबंधकों तथा निर्णायकों को साहस के साथ सामना करने के लिए प्रेरित करती है। पर्यावरण की परिभाषा में मनुष्य के आस-पास के प्राकृतिक तथा मानव -निर्मित दोनों ही वातावरण को सम्मिलित किया जाता है। प्रदूषण - वातावरण में हानिकारक तत्वों का मिलना, विस्तृत रूप से, वास्तव में औद्यौगिक उत्पादन का ही परिणाम है। प्रदूषण मानव - जीवन के लिए हानिकारक तथा अन्य वर्गों के जीवन को भी नष्ट करने वाला है।

प्रदूषण के कारण- अन्य प्रदूषण के कारणों में उद्योग सर्वोपरि है; मात्र एवं विषाक्तता के परिप्रेक्ष्य में उद्योग अपशिष्ट पदार्थों का एक मुख्य उत्सर्जक है। ऐसे बहुत-से व्यावसायिक उद्यम हैं, जो वायु, जल, भूमि तथा ध्वनि प्रदूषण के लिए ज़िम्मेवार हैं।

प्रदूषण-नियंत्रण की आवश्यकता- प्रदूषण को नियंत्रित करने के कुछ मुख्य कारण हैं-

(क) स्वास्थ्य संबंधी आशंकाओं को कम करना,

(ख) दायित्वों के जोखिम को कम करना,

(ग) लागत में बचत, तथा

(घ) अन्य सामाजिक हित/लाभ।

पर्यावरण संरक्षण में व्यवसाय की भूमिका- समाज का प्रत्येक व्यक्ति पर्यावरण के संरक्षण के लिए कुछ न कुछ कर सकता है। पर्यावरण संबंधी समस्याओं को सुलझाने के लिए व्यावसायिक इकाइयों को स्वयं पहल करनी चाहिए। कुछ कदम जो वे उठा सकते हैं, वे हैं- उच्च स्तरीय प्रबंध की प्रतिबद्धता, स्पष्ट नीतियाँ एवं कार्यक्रम, सरकारी नियमों का पालन करना, सरकारी कार्यक्रमों में भागीदारी, समय-समय पर पर्यावरण-नियंत्रण, कार्यक्रम का मूल्यांकन तथा संबंधित व्यक्तियों की समुचित शिक्षा तथा प्रशिक्षण।

व्यावसायिक नैतिकता की अवधारणा- नैतिकता का संबंध समाज द्वारा निर्धारित व्यवहार के मानकों के आधार पर यह निर्णय लेने से है कि कौन-सा मानवीय व्यवहार उचित या अनुचित है।

व्यावसायिक नैतिकता के तत्व- कुछ मूल व्यावसायिक नैतिकता के तत्वों को अपनाकर कोई भी उद्यम, कार्यस्थल पर व्यावसायिक नैतिकता को प्रोत्साहित कर सकता है, जैसे-

(क) उच्च स्तरीय प्रबंध की प्रतिबद्धता,

(ख) कोड का प्रकाशन,

(ग) अनुपालन तंत्र की स्थापना,

(घ) हर स्तर पर कर्मचारियों को सम्मिलित करना, तथा

(ड·) परिणामों का मापन।

अभ्यास

लघु उत्तरीय प्रश्न

1. व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व से क्या तात्पर्य है? यह कानूनी उत्तरदायित्व से किस प्रकार भिन्न है?

2. वातावरण क्या है? वातावरण-प्रदूषण क्या है?

3. व्यावसायिक नैतिकता क्या है? व्यावसायिक नैतिकता के आधारभूत तत्वों को बताइए।

4. संक्षेप में समझाइए-

(क) वायु प्रदूषण,

(ख) जल प्रदूषण, तथा

(ग) भूमि प्रदूषण।

5. व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व के मुख्य क्षेत्र क्या हैं?

6. कंपनी अधिनियम- 2013 के अनुसार निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व को परिभाषित करें।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1. सामाजिक उत्तरदायित्व के पक्ष तथा विपक्ष में तर्क दीजिए।

2. उन शक्तियों का वर्णन कीजिए जो व्यावसायिक उद्यमों की सामाजिक ज़िम्मेदारियों को बढ़ाने के लिए उत्तरदायी हैं।

3. “व्यवसाय निश्चित रूप से एक सामाजिक संस्था है, न कि केवल लाभ कमाने की क्रिया।” व्याख्या कीजिए।

4. व्यावसायिक इकाइयों को प्रदूषण नियंत्रण उपायों को अपनाने की क्यों आवश्यकता है?

5. वातावरण को प्रदूषित होने के खतरों से बचाने के लिए एक उद्यम क्या-क्या उपाय कर सकता है?

6. व्यावसायिक नैतिकता के विभिन्न तत्वों की व्याख्या कीजिए।

7. कंपनी अधिनियम- 2013 के अनुसार निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व रूपरेखा की व्याख्या करें।

परियोजना कार्य/कार्यकलाप

1. कक्षा में उपयोग के लिए एक नैतिकता कोड विकसित कीजिए तथा लिखिए। आपके प्रलेख में विद्यार्थियों, शिक्षकों तथा प्रधानाचार्य के लिए दिशा-निर्देश होने चाहिए।

2. समाचार पत्र, पत्रिकाएँ तथा अन्य व्यावसायिक सूचनाओं का प्रयोग करते हुए कोई ऐसी तीन कंपनियाँ बताइए जो सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करती हैं तथा किन्हीं तीन के नाम बताइए जो सामाजिक उत्तरदायी हैं।

3. अपनी पसंद की किसी कंपनी का चुनाव करें और उसके द्वारा लिए गए निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व पर रिपोर्ट तैयार करें।

[ संकेत— स्वच्छ भारत अभियान, नवोदित कलाकारों को प्रोत्साहन, स्टार्ट-अप इंडिया, महिला एवं अन्य अल्पसंख्यक समूह। ]



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