अध्याय 03 निजी, सार्वजनिक एवं भूमंडलीय उपक्रम
कक्षा 11 की विद्यार्थी अनीता कुछ समाचार पत्रों को पढ़ रही थी। जो सुर्खियाँ उसके सामने थीं वे घोषणा कर रही थीं कि सरकार की कुछ कंपनियों में अपने अंशों को छोड़ने की योजना है। दूसरे दिन एक और समाचार था कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियाँ भारी घाटे में हैं तथा उन्हें बीमार इकाई मानकर बंद किया जा रहा है। इसके ठीक विपरीत उसने एक और समाचार पढ़ा कि कैसे रिलायंस के झंडे तले की कंपनियाँ काफी अच्छा परिणाम दे रही थीं। उसे यह जानने की उत्कंठा हुई कि सार्वजनिक क्षेत्र, विनिवेश, निजीकरण जैसे शब्दों का क्या अर्थ है।
उसने यह समझा की इस अध्याय में हम यह अध्ययन करेंगे कि किस प्रकार से अर्थव्यवस्था दो क्षेत्रों- निजी एवं सार्वजनिक में विभक्त है। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के प्रकार एवं उनकी भूमिका तथा वैश्विक उद्यम के बारे में भी अध्ययन करेंगे। हमारे देश में सभी प्रकार के व्यावसायिक संगठन हैं। छोटे एवं बड़े, औद्योगिक या व्यापारिक, निजी स्वामित्व के एवं सरकारी स्वामित्व वाले। ये संगठन हमारे दैनिक आर्थिक जीवन को प्रभावित करते हैं इसलिए ये हमारी अर्थन्यवस्था के अंग हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में निजी स्वामित्व एवं सरकारी स्वामित्व वाले दोनों व्यावसायिक उद्यम होते हैं इसीलिए इसे मिश्रित अर्थव्यवस्था कहते हैं। भारत सरकार ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को चुना जिसमें निजी क्षेत्र एवं सरकारी क्षेत्र दोनों क्षेत्रों के उद्यमों के परिचालन की छूट है। इसीलिए हमारी अर्थव्यवस्था को दो क्षेत्रों में वर्गीकृत किया जा सकता है। निजी क्षेत्र एवं सार्वजनिक क्षेत्र।
इस अध्याय में हम यह अध्ययन करेंगे कि किस प्रकार से अर्थव्यवस्थ, दो क्षेत्रों — निजी एवं सार्वजनिक में विभक्त है। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के प्रकार एवं उनकी भूमिका तथा वैश्विक उद्यम के बारे में भी अध्ययन करेंगे।
3.1 परिचय
आप अपने रोज़मर्रा के जीवन में सभी प्रकार के व्यावसायिक संगठनों को देखते हैं। आपके पड़ोस के बाज़ार में एकल स्वामित्व की दुकानें हैं। बड़े फुटकर व्यापार संगठन हैं, जिनका संचालन कोई कंपनी करती है। इसके साथ ही आपको कानूनी सेवा, स्वास्थ्य सेवा तथा अन्य सेवाएँ प्रदान करने वाली इकाइयाँ हैं जिनके स्वामी एक से अधिक व्यक्ति हैं, अर्थात् ये साझेदारी फर्में हैं। ये सभी निजी स्वामित्व के संगठन हैं। इसी प्रकार से अन्य कार्यालय अथवा व्यवसाय हैं, जिन पर सरकार का स्वामित्व है। इसके अलावा ऐसी अनेकों व्यावसायिक इकाइयाँ भी हैं जो एक से अधिक देशों में अपना व्यवसाय चला रही हैं। इन्हें भूमंडलीय उद्यम कहते हैं। अत: आपने देखा कि देश में सभी प्रकार के संगठन व्यवसाय कर रहे हैं, फिर चाहे वे निजी, सार्वजनिक अथवा भूमंडलीय हों।
जैसा कि आप पहले अध्याय में पढ़ चुके हैं, निजी क्षेत्र में व्यवसायों के स्वामी व्यक्ति होते हैं अथवा व्यक्तियों का समूह। इसमें संगठन के विभिन्न स्वरूप हैं- एकल स्वामित्व, साझेदारी, संयुक्त हिंदू परिवार, सहकारी समितियाँ एवं कंपनी।
सार्वजनिक क्षेत्र में जो संगठन होते हैं, उनकी स्वामी सरकार होती है और सरकार ही उनका प्रबंध करती है। इन संगठनों का स्वामित्व पूर्ण रूप से अथवा आंशिक रूप से राज्य सरकार अथवा केंद्रीय सरकार के पास होता है। ये संगठन किसी मंत्रालय के अधीन भी हो सकते हैं या फिर संसद द्वारा पारित विशेष अधिनियम द्वारा इनकी स्थापना हो सकती है। इन्हीं उद्यमों के माध्यम से सरकार देश की आर्थिक गतिविधियों में भाग लेती है।
सरकार समय-समय पर घोषित अपने आर्थिक नीति प्रस्तावों में उन कार्यक्षेत्रों को परिभाषित करती है जिनमें निजी क्षेत्र एवं सार्वजनिक क्षेत्र अपने कार्यकलापों का परिचालन कर सकते हैं। 1948 के औद्योगिक नीति प्रस्ताव में सरकार ने औद्योगिक क्षेत्र के विकास के प्रति अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट किया, निजी क्षेत्र एवं सार्वजनिक क्षेत्र दोनों की भूमिका को स्पष्ट शब्दों में परिभाषित किया तथा सरकार दोनों क्षेत्रों के कार्यकलापों पर विभिन्न अधिनियमों एवं नियमों के माध्यम से निगरानी रखती थी। 1956 के औद्योगिक नीति प्रस्ताव में सार्वजनिक क्षेत्र के लिए भी विकास एवं औद्योगिकीकरण की दर में तेज़ी लाने के उद्देश्य से कुछ लक्ष्य निर्धारित किए गए। सार्वजनिक क्षेत्र को यद्यपि काफी महत्व दिया गया, फिर भी निजी क्षेत्र एवं सार्वजनिक क्षेत्रों की एक-दूसरे पर निर्भरता पर अधिक ज़ोर दिया गया। 1991 की औद्योगिक नीति पिछली औद्योगिक नीतियों से भिन्न थी क्योंकि इसमें सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र में विनिवेश पर विचार किया एवं निजी क्षेत्र को और अधिक स्वतंत्रता दी गई। साथ ही भारत से बाहर के व्यावसायिक गृहों को भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए आमंत्रित किया गया। इस प्रकार से बहुराष्ट्रीय निगम एवं भूमंडलीय उद्यम जो अपना कारोबार एक से अधिक देशों में कर रहे थे, उनको भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रवेश मिला। अतः आज हमारे देश में सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयाँ, निजी क्षेत्र के उद्यम एवं वैश्विक उद्यम हैं जो भारतीय अर्थव्यवस्था में साथ-साथ कार्यरत हैं।
3.2 सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के संगठनों के स्वरूप
देश के व्यावसायिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में सरकार की भागीदारी के लिए संगठनात्मक ढाँचे की आवश्यकता होती है। आप निजी क्षेत्र के व्यवसाय संगठन के विभिन्न प्रकारों का अध्ययन कर चुके हैं। ये स्वरूप हैं- एकल स्वामित्व, साझेदारी, अविभाजित हिंदू परिवार, सहकारी समितियाँ एवं कंपनी।
सार्वजनिक क्षेत्र के संबंध में प्रश्न यह उठता है कि इसकी संगठन संरचना एवं स्वरूप क्या हो? सार्वजनिक क्षेत्र के निर्माण में सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लेकिन सरकार तो जनता, अपने कार्यालयों तथा अपने कर्मचारियों के माध्यम से कार्य करती है तथा वे ही सरकार की ओर से निर्णय लेते हैं। इसी उद्देश्य से सरकार ने देश की आर्थिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए सार्वजनिक उद्यमों की संरचना की। आज विश्व के इस उदारीकरण एवं प्रतिस्पर्धा के दौर में इनसे अपेक्षा की जाती है कि वे देश के आर्थिक विकास में योगदान करेंगे। इन सार्वजनिक उद्यमों की स्वामी जनता है तथा ये संसद के माध्यम से जनता के प्रति ही जवाबदेह हैं। सर्वजन का स्वामित्व, इनकी क्रियाओं के लिए जनता के कोष का प्रयोग तथा जनता के प्रति जवाबदेही इसकी विशेषताएँ हैं।
एक सार्वजनिक उपक्रम, संगठन के किसी भी स्वरूप को अपना सकता है लेकिन यह उसके कार्यों की प्रकृति एवं सरकार से उसके संबंधों पर निर्भर करता है। संगठन का कौन-सा स्वरूप उपयुक्त रहेगा, यह उपक्रम की आवश्यकताओं पर निर्भर करेगा। इसके साथ ही सामान्य सिद्धांत यह कहते हैं कि किसी भी सार्वजनिक उपक्रम को संगठनात्मक कार्यनिष्पादन, उत्पादकता एवं गुणवत्ता के मानकों को सुनिश्चित करना चाहिए।
सार्वजनिक उद्यमों के संगठन के निम्नलिखित स्वरूप हो सकते हैं-
(क) विभागीय उपक्रम।
(ख) वैधानिक निगम।
(ग) सरकारी कंपनी।
3.2.1 विभागीय उपक्रम
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का यह सबसे पुराना एवं परंपरागत स्वरूप है। इसमें उपक्रम को किसी मंत्रालय के एक विभाग के रूप में स्थापित किया जाता है एवं यह मंत्रालय का ही एक भाग या फिर उसका विस्तार माना जाता है। सरकार इन्हीं विभागों के माध्यम से कार्य करती है तथा ये सरकार की गतिविधियों के महत्वपूर्ण भाग होते हैं। इनका गठन स्वायत्त एवं स्वतंत्र संस्था के रूप में नहीं किया जाता एवं इसका स्वतंत्र वैधानिक अस्तित्व नहीं होता। ये सरकार के अधिकारियों के माध्यम से कार्य करते हैं तथा इनके कर्मचारी सरकारी कर्मचारी होते हैं। ये उपक्रम केंद्र अथवा राज्य सरकार के अधीन हो सकते हैं तथा इनमें केंद्रीय अथवा राज्य सरकारों के नियम लागू होते हैं। इन उपक्रमों के उदाहरण हैं- रेलवे तथा डाक एवं तार विभाग।
विशेषताएँ
इन उपक्रमों की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(क) इन उपक्रमों के लिए धन सरकारी खजाने से सीधे आता है तथा इसका नियोजन सरकार के बजट में किया जाता है। इनके द्वारा अर्जित राजस्व को सरकारी खजाने में जमा कराया जाता है;
(ख) अन्य सरकारी क्रियाओं के समान इन पर भी लेखांकन एवं अंकेक्षण नियंत्रण लागू होते हैं;
(ग) इन उपक्रमों के कर्मचारी सरकारी कर्मचारी कहलाते हैं तथा इनकी भर्ती एवं सेवा शर्तें वही होती हैं जो सरकार के सीधे तौर पर अधीन कर्मचारियों की हैं। इनके मुखिया आई.ए.एस. अधिकारी एवं नागरिक सेवा से होते हैं तथा इनका स्थानांतरण एक मंत्रालय से दूसरे मंत्रालय में हो सकता है;
(घ) यह सरकारी विभाग का प्रमुख उपमंडल माना जाता है तथा सीधे मंत्रालय के नियंत्रण में होता है; तथा
(ड) ये मंत्रालय के प्रति जवाबदेह होते हैं क्योंकि इनका प्रबंधन सीधे संबंधित मंत्रालय द्वारा किया जाता है।
लाभ
संगठन के इस स्वरूप के निम्नलिखित लाभ हैं-
(क) संसद के लिए इनका प्रभावी नियंत्रण सुगम होता है;
(ख) इसमें उच्च स्तर की सार्वजनिक जवाबदेही सुनिश्चित होती है;
(ग) इसमें उपक्रम की अर्जित आगम सीधे सरकारी खजाने में चली जाती है अत: यह सरकार की आय का स्त्रोत है; तथा
(घ) राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से यह सबसे अधिक उपयुक्त स्वरूप है क्योंकि यह मंत्रालय के सीधे नियंत्रण एवं निरीक्षण में होता है।
सीमाएँ
इस प्रकार के संगठन की कुछ गंभीर सीमाएँ हैं जो इस प्रकार हैं-
(क) इस प्रकार के संगठन में लचीलेपन की कमी होती है जबकि व्यवसाय को सुगमता से चलाने के लिए लचीलापन आवश्यक होता है;
(ख) कर्मचारी एवं विभागाध्यक्ष बिना संबंधित मंत्रालय के अनुमोदन के किसी भी मामले में स्वतंत्र निर्णय नहीं ले सकते। इस कारण उन्हें ऐसे निर्णय लेने में भी देरी हो जाती है जिनमें तुरंत निर्णय की आवश्यकता हो;
(ग) ये उपक्रम व्यावसायिक अवसरों का लाभ नहीं उठा पाते। सरकारी अधिकारियों द्वारा अनुमति प्रदान करने में अत्यधिक सतर्कता बरतने एवं रूढ़िवादिता के कारण ये उपक्रम जोखिम भरे कार्य नहीं करते;
(घ) दिन-प्रतिदिन के कार्यों में अत्यधिक लाल-फीताशाही है तथा उचित प्रक्रिया के पूरा होने पर ही कोई कार्यवाही प्रारंभ हो सकती है;
(ड) मंत्रालय के माध्यम से राजनीतिक हस्तक्षेप होता है; तथा
(च) ये संगठन उपभोक्ता की आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील नहीं होते तथा इनके द्वारा प्रदत्त सेवाएँ भी अपर्याप्त होती हैं।
3.2.2 वैधानिक निगम
वैधानिक निगम वे सार्वनिक उद्यम हैं जिनकी स्थापना संसद के विशेष अधिनियम के द्वारा की जाती है। ये अधिनियम ऐसे उद्यमों के अधिकार एवं कार्य, इनके कर्मचारियों से संबंधित नियम एवं कानून तथा सरकार के विभिन्न विभागों से इनके संबंधों को परिभाषित करते हैं।
ऐसा उद्यम निगमित संगठन है जिसकी स्थापना विधान मंडल द्वारा की जाती है। इसके कार्य एवं शक्तियाँ पूर्णत: परिभाषित होते हैं। यह वित्त मामलों में स्वतंत्र होता है तथा निर्धारित क्षेत्र पर व विशेष प्रकार की वाणिज्यिक क्रियाओं पर इसका स्पष्ट नियंत्रण होता है। वैधानिक निगमों के पास जहाँ एक ओर सरकारी अधिकार होते हैं, वहीं दूसरी ओर निजी उद्यम के समान परिचालन में पर्याप्त लचीलापन होता है।
विशेषताएँ
वैधानिक निगमों की कुछ विशिष्टताएँ इस प्रकार हैं-
(क) इनकी स्थापना संसद द्वारा पारित अधिनियम द्वारा होती है तथा इसी अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार इनका संचालन किया जाता है। अधिनियम इनके अधिकार, उद्देश्य एवं विशेषाधिकारों को परिभाषित करता है;
(ख) ये पूर्णतया सरकार के स्वामित्व में होते हैं। वित्त के संबंध में अंतिम उत्तरदायित्व सरकार का होता है तथा वही लाभों का विनियोजन भी करती है। यदि कोई हानि होती है तो उसे भी सरकार ही वहन करती है;
(ग) ये निगमित संगठन हैं, अत: इन पर मुकदमा किया जा सकता है तथा ये दूसरों पर मुकदमा कर सकते हैं। ये अनुबंध कर सकते हैं तथा अपने नाम पर संपत्ति खरीद सकते हैं;
(घ) साधारणतः अपनी वित्त की आवश्यकता को ये स्वयं पूरा करते हैं। ये सरकार से ऋण लेकर अथवा जनता से वस्तुओं एवं सेवाओं की बिक्री द्वारा आय अर्जन कर धन जुटाते हैं।
(ङ) सरकारी विभागों के लिए लेखांकन एवं अंकेक्षण की जो प्रक्रिया है, वह इन निगमों पर लागू नहीं होती। केंद्र सरकार के बजट से इसका कोई सरोकार नहीं होता; तथा
(च) इन उपक्रमों के कर्मचारी राज्य अथवा नागरिक सेवा के अधिकारी नहीं होते तथा ये सरकारी सेवा शर्तों, नियम एवं कानूनों से शासित नहीं होते। इनकी सेवा शर्तें अधिनियम में ही दी हुई होती हैं। कभी-कभी इन संगठनों के मुखिया के पद पर दूसरे विभागों से अधिकारी प्रतिनियोजित किये जाते हैं।
लाभ
इस प्रकार के संगठन के कुछ प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं-
(क) ये अपने कार्य संचालन के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र होते हैं तथा इनके कार्य परिचालन में उच्च स्तर का लचीलापन होता है। इन पर सरकार के अवांछित नियम एवं कानून भी लागू नहीं होते;
(ख) चूँकि इनके लिए धन की व्यवस्था केंद्रीय बजट में नहीं होती इसीलिए इनकी आय एवं प्राप्तियों पर सरकार का कोई अधिकार भी नहीं होता और इनके वित्तीय मामलों में सरकारी हस्तक्षेप नहीं होता है;
(ग) चूँकि ये स्वयत्त संगठन होते हैं इसीलिए अधिनियम द्वारा प्रदत्त अधिकारों की परिधि में रहकर ये स्वयं अपनी नीतियों एवं प्रक्रियाओं का निर्धारण करते हैं, तथापि अधिनियम में कुछ मुद्दोंविषयों के लिए मंत्रालय विशेष की पूर्व अनुमति के लिए प्रावधान है; तथा
(घ) वैधानिक निगम आर्थिक विकास का एक मूल्यवान उपकरण है। इसके पास सरकार के अधिकार एवं निजी उद्यम की पहल क्षमता होती है।
सीमाएँ
इस प्रकार के संगठन की भी कई सीमाएँ होती हैं जो निम्नलिखित हैं-
(क) वास्तव में इनके कार्य परिचालन में ऊपर वर्णित लचीलापन नहीं होता। इनके प्रत्येक कार्य नियम एवं कानून के अनुसार होते हैं;
(ख) इनके प्रत्येक महत्वपूर्ण निर्णयों एवं कार्यों में जिनमें भारी धन व्यय होता है, सदा सरकारी एवं राजनीतिक हस्तक्षेप होता है;
(ग) जहाँकहीं भी जनता से लेन-देन की आवश्यकता होती है, वहाँअनियंत्रित भ्रष्टाचार व्याप्त है; तथा
(घ) सरकार निगमों के बोर्ड में सलाहकार नियुक्त करती रही है। इस कारण अनुबंधों एवं अन्य निर्णयों में निगम की स्वतंत्रता सीमित हो जाती है। जब भी मतभेद होता है तो मामले को सरकार के पास अंतिम निर्णय के लिए भेज दिया जाता है। इससे कार्य में और विलंब हो जाता है।
3.2.3 सरकारी कंपनी
इन कंपनियों की स्थापना भारतीय कंपनी अधिनियम- 2013 के अंतर्गत की जाती है। ये सरकारी कंपनियाँ होती हैं लेकिन निजी क्षेत्र की कंपनियों के समान इसका भी पंजीकरण एवं संचालन कंपनी अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार होता है। इनकी स्थापना विशुद्ध रूप से व्यवसाय करने के लिए की जाती है तथा ये निजी क्षेत्र की कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा करती हैं।
कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 2(45) के अनुसार एक सरकारी कंपनी वह कंपनी है जिसकी कम से कम 51 प्रतिशत चुकता अंशपूँजी या तो केंद्र सरकार के पास है या फिर राज्य सरकारों के पास है या फिर कुछ केंद्र सरकार के पास और शेष एक या एक से अधिक राज्य सरकारों के पास है तथा उसमें वह कंपनी भी सम्मिलित है जो किसी सरकारी कंपनी की सहायक कंपनी है।
उपरोक्त परिभाषा से यह स्पष्ट है कि सरकार का ऐसी कंपनी की चुकता पूँजी पर नियंत्रण होता है। इस कंपनी के अंशों को भारत के राष्ट्रपति के नाम से क्रय किया जाता है। चूँकि सरकार ही बड़ी अंशधारक है तथा प्रबंध पर उसी का नियंत्रण है इसीलिए इसे सरकारी कंपनी कहा जाता है।
विशेषताएँ
सरकारी कंपनियों की कुछ विशेषताएँ हैं जो उनको संगठन के दूसरे स्वरूप से भिन्न करती हैं। ये निम्नलिखित हैं-
(क) यह भारतीय कंपनी अधिनियम- 1956 के तहत स्थापित संगठन है।
(ख) कंपनी किसी भी अन्य पक्ष के विरुद्ध न्यायालय में मुकदमा दायर कर सकती है तथा अन्य कोई पक्ष इस पर मुकदमा कर सकता है।
(ग) कंपनी अनुबंध कर सकती है तथा अपने नाम से संपत्ति क्रय कर सकती है।
(घ) अन्य किसी भी सार्वजनिक कंपनी के समान इसका प्रबंधन कंपनी अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार होता है।
(ड) कंपनी में कर्मचारियों की नियुक्ति कंपनी के उद्देश्य पत्र एवं अंतर्नियम में दिए गए नियमों के अनुसार होती है। कंपनी के उद्देश्य पत्र एवं अंतर्नियम इसके मुख्य प्रलेख होते हैं जिनमें कंपनी के उद्देश्य एवं नियम दिए होते हैं। ये न तो सरकारी व्यक्ति होते हैं और न ही नागरिक सेवा के व्यक्ति। केवल उच्च प्रबंधक जैसे कि चेयरमैन अथवा प्रबंध निदेशक ही सरकार से अथवा नागरिक सेवाओं से प्रतिनियोजन पर आए व्यक्ति हो सकते हैं।
(च) ये कंपनियाँ लेखांकन एवं अंकेक्षण नियमों से मुक्त रहती हैं। लेखा परीक्षक की नियुक्ति केंद्रीय सरकार करती है तथा वार्षिक अनुवेदन रिपोर्ट संसद या राज्य विधान मंडल में प्रस्तुत की जाती है।
(छ) सरकारी कंपनी अपने लिए वित्त की व्यवस्था सरकारी अंशधारी और प्राइवेट अंशधारी से करती है। वह पूँजी बाज़ार से भी वित्त की व्यवस्था कर सकती है।
लाभ
सरकारी कंपनी के कुछ लाभ निम्नलिखित हैं-
(क) एक सरकारी कंपनी की स्थापना भारतीय कंपनी अधिनियम की औपचारिकताओं को पूरा करने से होती है। इसके लिए संसद में अलग से किसी विशेष अधिनियम की आवश्यकता नहीं है;
(ख) इनका सरकार से पृथक कानूनी अस्तित्व होता है;
(ग) प्रबंधन संबंधी निर्णय लेने में इनको पूर्ण स्वतंत्रता मिली होती है तथा ये सभी कदम व्यावसायिक दूरदर्शिता के अनुसार उठाते हैं; तथा
(घ) उचित मूल्य पर वस्तुएँ एवं सेवाओं को उपलब्ध करा ये बाज़ार पर हावी हो जाती हैं तथा अस्वस्थ व्यावसायिक व्यवहार पर अंकुश लगाती हैं।
सीमाएँ
सरकारी कंपनियों की कुछ सीमाएँ हैं जो इस प्रकार हैं-
(क) चूँकि कुछ कंपनियों में सरकार ही अंशधारक है इसलिए कंपनी अधिनियम के प्रावधानों का कोई औचित्य नहीं रह जाता।
(ख) ये संवैधानिक उत्तरदायित्व से बचती हैं जबकि सरकारी वित्त वाली कंपनी होने के कारण इन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। ये सीधे संसद के प्रति जवाबदेह नहीं हैं।
(ग) एकमात्र अंशधारक सरकार होने के कारण इनका प्रबंध एवं प्रशासन दोनों ही सरकार के हाथ में होता है। इस प्रकार अन्य कंपनियों के समान पंजीकृत होने के बावजूद कंपनी होने का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है।
3.3 सार्वजनिक क्षेत्र की बदलती भूमिका
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय यह आशा की गई थी कि सार्वजनिक क्षेत्र उद्यम व्यवसाय में प्रत्यक्ष रूप में भाग लेकर अथवा एक उत्प्रेक के रूप में अर्थन्यवस्था के कुछ उद्देश्यों को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएँगे। उम्मीद यह थी कि सार्वजनिक क्षेत्र अर्थन्यवस्था के अन्य क्षेत्रों के लिए आधारभूत ढाँचा तैयार करेगा तथा मूलभूत क्षेत्रों में निवेश करेगा। जिन परियोजनाओं में भारी निवेश की आवश्यकता थी तथा फल प्राप्ति की अवधि लंबी थी, उनमें निजी क्षेत्र निवेश करने का इच्छुक नहीं था। इसीलिए सरकार ने मूलभूत ढाँचे के विकास एवं अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक वस्तुओं एवं सेवाओं को प्रदान करने का दायित्व अपने ऊपर लिया।
भारतीय अर्थव्यवस्था आज परिवर्तन के दौर से गुज़र रही है। विकास के प्रारंभिक दौर में पंचवर्षीय योजनाओं ने सार्वजनिक क्षेत्र को काफी महत्व दिया। 90 के दशक के उत्तरार्ध में नई आर्थिक नीतियों ने उदारीकरण, निजीकरण एवं भमंडलीकरण पर अधिक ज़ोर दिया। सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका की पुन: व्याख्या की गई। अब इसकी भूमिका उदासीनता की न होकर सक्रिय रूप से भाग लेने एवं उसी उद्योग की निजी क्षेत्र की कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा में रहने की निश्चित की गई। अब घाटे एवं निवेश पर प्रतिफल के लिए इन्हें उत्तरदायी ठहराया गया। यदि सार्वजनिक क्षेत्र का कोई उद्यम निरंतर घाटे में चलता तो उसे औद्योगिक वित्त एवं पुनर्निर्माण बोर्ड को प्रेषित कर दिया जाता ताकि या तो इसका कायापलट किया जाए अन्यथा इसे बंद कर दिया जाए। सार्वजनिक क्षेत्र की अकुशल इकाइयों के कार्यों की समीक्षा के लिए कई कमेटियों का गठन किया गया तथा उनसे इस पर रिपोर्ट माँगी गई कि उनकी प्रबंधकीय कुशलता एवं लाभप्रदता में सुधार कैसे किया जाए। अब सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका वैसी बिल्कुल भी नहीं रही जिसकी कल्पना 60 एवं 70 के दशकों में थी।
(क) मूलभूत ढाँचे का विकास
किसी भी देश में मूलभूत ढाँचे का विकास औद्योगिकीकरण की पूर्व-शर्त है। स्वतंत्रता के पूर्व आधारभूत ढाँचे का विकास नहीं किया गया था इसीलिए औद्योगिकीकरण की गति धीमी थी। औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया को बिना पर्याप्त परिवहन एवं संचार सुविधाओं, ईंधन एवं ऊर्जा तथा मूलभूत एवं भारी उद्योगों के जीवित नहीं रखा जा सकता। निजी क्षेत्र ने भारी उद्योगों में निवेश करने अथवा किसी भी रूप में इसका विकास करने में कोई पहल नहीं की। उनके पास न तो प्रशिक्षित कर्मचारी थे और न ही पर्याप्त धन जिससे वे तत्काल भारी उद्योगों की स्थापना करते जोकि अर्थव्यवस्था की माँग थी।
वो सरकार ही थी जो भारी पूँजी जुटा सकती थी, औद्योगिक निर्माण में समन्वय स्थापित कर सकती थी एवं तकनीशियनों तथा कर्मचारियों को प्रशिक्षित कर सकती थी। रेल, सड़क, समुद्र, वायु परिवहन सरकार का उत्तरदायित्व था। इनके विस्तार का औद्योगिकीकरण में भारी योगदान रहा है तथा इन्होंने भविष्य के आर्थिक विकास को सुनिश्चित किया। सार्वजनिक उद्यमों को कुछ ही क्षेत्रों में व्यवसाय करना था। जिन क्षेत्रों में उसे निवेश करना था, वे थे-
(i) मूल क्षेत्र के लिए आधारभूत ढाँचा तैयार करना जिसके लिए भारी पूँजी निवेश, जटिल एवं आधुनिक तकनीक, बड़े एवं प्रभावी संगठन ढाँचों जैसे कि स्टील संयंत्र, बिजली उत्पादन संयंत्र, नागरिक उड्डयन, रेल, पेट्रोलियम, राज्य व्यापार, कोयला आदि की आवश्यकता होती है;
(ii) उस मूल क्षेत्र में निवेश करना जहाँ निजी क्षेत्र के उद्यम अपेक्षित दिशा में कार्य नहीं कर रहे हों, जैसे— रासायनिक खाद, दवा उद्योग, पेट्रोरसायन, अखबारी कागज़, मध्यम एवं भारी अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग);
(iii) भावी निवेश को दिशा देना, जैसे— होटल, परियोजना प्रबंध, सलाहकार एजेंसी, वस्त्र उद्योग, ऑटोमोबाइल आदि।
(ख) क्षेत्रीय संतुलन
सभी क्षेत्रों एवं राज्यों का संतुलित विकास करना एवं क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करना सरकार का दायित्व है। स्वतंत्रता से पूर्व अधिकांश औद्योगिक विकास कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित था, जैसे कि बंदरगाही शहर। 1951 के पश्चात् सरकार ने अपनी पंचवर्षीय योजनाओं में यह निश्चित किया कि उन क्षेत्रों पर अधिक ध्यान दिया जाएगा जो पिछड़ रहे हैं तथा वहाँ सोची समझी योजना के अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम स्थापित किए गए। औद्योगिक विकास को गति प्रदान करने के लिए पिछड़े क्षेत्रों में स्टील के चार प्रमुख संयंत्र स्थापित किए गए। लोगों को रोज़गार दिलाने एवं सहायक उद्योगों को विकसित करने के लिए इन स्टील संयंत्रों की स्थापना की गई। इन उद्देश्यों को बहुत सीमा तक प्राप्त कर लिया गया लेकिन फिर भी करने को बहुत कुछ बाकी है। योजनाबद्ध विकास का एक प्रमुख उद्देश्य पिछड़े क्षेत्रों का विकास करना है ताकि देश में क्षेत्रीय संतुलन सुनिश्चित किया जा सके। इसके लिए सरकार को पिछड़े क्षेत्रों में नए उद्यमों की स्थापना करनी पड़ी तथा साथ-साथ पहले से ही उन्नत क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की कुकरमुत्ते की तरह हो रही वृद्धि को रोकना पड़ा।
(ग) बड़े पैमाने के लाभ
जिन क्षेत्रों में भारी पूँजी वाले बड़े पैमाने के उद्योगों की आवश्यकता होती है, वहाँ बड़े पैमाने के लाभों को प्राप्त करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र आगे आया। बिजली संयंत्र, प्राकृतिक गैस, पेट्रोलियम एवं टेलीफ़ोन उद्योग ऐसे कुछ उदाहरण हैं जिनमें सार्वजनिक क्षेत्र में बड़े पैमाने की इकाइयों की स्थापना की गई। इन इकाइयों के मितव्ययी परिचालन के लिए बड़े आधार की आवश्यकता थी जो सरकारी संसाधनों व बड़े पैमाने पर उत्पादन से ही संभव था।
(घ) आर्थिक शक्ति के केंद्रित होने पर रोक
सार्वजनिक क्षेत्र, निजी क्षेत्र पर नियंत्रण रखता है। निजी क्षेत्र में कुछछ ही औद्योगिक घराने होते हैं जो भारी उद्योगों में निवेश के इच्छुक होते हैं। इस कारण धन कुछ ही हाथों में केंद्रित हो जाता है जिससे एकाधिकार को बढ़ावा मिलता है। इससे आय की असमानता पैदा होती है जो समाज के लिए अहितकर होती है।
सार्वजनिक क्षेत्र बड़े-बड़े उद्योग-धंधों की स्थापना करते हैं जिनमें भारी निवेश की आवश्यकता होती है। लेकिन इसको जो लाभ होता है, उसमें बड़ी संख्या में कर्मचारी एवं श्रमिक भी हिस्सा बँटाते हैं। इससे निजी क्षेत्र के लोगों के हाथों में धन एवं आर्थिक शक्ति केंद्रित नहीं हो पाती।
(ङ) आयात की प्रतिस्थापना
दूसरी एवं तीसरी पंचवर्षीय योजनाओं के कार्यकाल में भारत का लक्ष्य कई क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होना था। विदेशी मुद्राप्राप्त करना एक समस्या थी तथा सुदृढ़, औद्योगिक आधार के लिए भारी मशीनों का आयात करना कठिन था। यह वो समय था जब सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों ने भारी इंजीनियरिंग उद्योगों की स्थापना की जिससे इनके आयात की आवश्यकता की पूर्ति हो सके। इसके साथ-साथ राज्य व्यापार निगम एवं धातु एवं व्यापार निगम जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों ने देश के विदेशी व्यापार के विस्तार में भी अहम भूमिका निभाई।
(च) 1991 से सरकार की सार्वजनिक क्षेत्र संबंधी नीति
1991 में अपनाई गई नई औद्योगिक नीति में सार्वजनिक क्षेत्र में चार प्रमुख सुधार किए गए। सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सरकार की नीति स्पष्ट एवं निश्चित है। इसके प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं-
- क्षमता की संभावनाओं वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (P.S.U.) को पुनर्गठित एवं पुनर्जीवित करना;
- जिन P.S.U. को पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता उन्हें बंद करना;
- यदि आवश्यकता हो तो गैर-महत्वपूर्ण P.S.U. में सरकार के समता अंशों को $26 %$ या उससे कम लाना; एवं
- कर्मचारियों के हितों को पूर्ण संरक्षण देना।
(i) सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योगों की संख्या को घटाकर 17 से 8 कर देना (तत्पश्चात् 3 कर देना)- 1956 के औद्योगिक नीति प्रस्ताव में सार्वजनिक क्षेत्र के लिए 17 उद्योग-धंधों को आरक्षित किया गया था। 1991 में केवल 8 उद्योगों को आरक्षित किया गया जो आणविक ऊर्जा, अस्त्र-शस्त्र, संत्रेषण, खनन, रेलवे तक सीमित थे। 2001 में केवल तीन उद्योगों को ही सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित किया गया। ये हैं-आणविकर्जा, अस्त्र-शस्त्र एवं रेलवे परिवहन। इसका अर्थ हुआ कि निजी क्षेत्र इन तीन को छोड़कर सभी में व्यवसाय कर सकता है तथा सार्वजनिक क्षेत्र को उनकी प्रतियोगिता में व्यवसाय करना होगा।
हमारी अर्थव्यवस्था के विकास में सार्वजनिक क्षेत्र की अहम भूमिका रही है लेकिन निजी क्षेत्र भी राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया में काफी योगदान देने में सक्षम है। इसलिए राष्ट्रीय क्षेत्र के लिए दोनों, अर्थात् सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र को एक-दूसरे का पूरक समझना चाहिए। निजी क्षेत्र की इकाइयों को जनता के प्रति अधिक उत्तरदायी बनना होगा तथा सार्वजनिक क्षेत्र को आज के अत्यधिक प्रतियोगी बाज़ार में अधिक उपलब्धियों पर ध्यान देना होगा।
(ii) सार्वजनिक क्षेत्र की चुनिंदा व्यावसायिक इकाइयों के अंशों का विनिवेश- विनिवेश में सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के समता अंशों को निजी क्षेत्र की इकाइयों एवं जनता को बेचा जाता है। इसका उद्देश्य इन इकाइयों के लिए संसाधन जुटाना एवं आम जनता एवं कर्मचारियों की भागीदारी को व्यापक बनाना है। सरकार ने औद्योगिक क्षेत्र से अपने आपको अलग करने एवं सभी उपक्रमों में से अपनी समता अंशपूँजी को कम करने का निर्णय लिया था। आशा थी कि इससे प्रबंध में सुधार होगा एवं वित्तीय अनुशासन आएगा। लेकिन इस मामले में अभी भी बहुत कुछ करने को बाकी है।
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के निजीकरण के प्राथमिक उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
- ऐसे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (PSEs) जिनका रणनीतिक महत्व नहीं हैं, उनमें अटकी सार्वजनिक पूँजी की बड़ी राशि को बाहर लाना ताकि उन्हें सामाजिक प्राथमिकता वाले क्षेत्रों, जैसे-मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं, परिवार कल्याण एवं प्राथमिक शिक्षा आदि के उपयोग में लाया जा सके;
- सार्वजनिक ऋण की भारी राशि एवं ब्याज के भार को कम करना;
- वाणिज्यिक जोखिम को निजी क्षेत्र को हस्तांतरित करना ताकि कोषों का अधिक उपयोगी परियोजना में निवेश किया जा सके;
- इन इकाइयों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करना तथा निगमित शासन में लाना; एवं
- जिन क्षेत्रों में अब तक सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार रहा था। उदाहरण के लिए, टेली संत्रेषण क्षेत्र, उनमें उपभोक्ताओं को अधिक चयन की सुविधा, कम मूल्य एवं और अधिक श्रेष्ठ गुणवत्ता वाले उत्पाद एवं सेवाओं का लाभ प्रदान करना।
(iii) बीमार इकाइयों एवं निजी क्षेत्र के लिए एक समान नीतियाँ- सभी सार्वजनिक क्षेत्र की बीमार इकाइयों को औद्योगिक एवं वित्तीय पुननिर्माण बोर्ड को यह निर्णय लेने के लिए सौंपा जाता है ताकि उनका पुनर्गठन किया जाए या फिर उन्हें बंद कर दिया जाए। बोर्ड ने कुछ मामलों में ऐसी इकाइयों को पुन: सक्रिय करने एवं पुर्नस्थापन की योजना का पुनरावलोकन किया है तथा कुछ को बंद करने का निर्णय लिया है। कर्मचारियों में इन इकाइयों के बंद करने के संबंध में भारी विरोध है। सरकार ने राष्ट्रीय नवीनीकरण कोष का गठन किया, जिसका उद्देश्य है सेवानिवृत्त औद्योगिक मजज़ूरों को सेवा में लगाए रखना, अथवा उन्हें दोबारा रख लेना तथा जो कर्मचारी स्वेच्छा से अवकाश ग्रहण करना चाहते हैं उन्हें क्षतिपूर्ति का भुगतान करना।
सार्वजनिक क्षेत्र के कई उपक्रम (PSUs) बीमार उपक्रम हैं तथा उनके खातों में इतनी हानि इकट्डा हो चुकी है कि उन्हें फिर से सक्रिय करना कठिन है। सार्वजनिक वित्त के भारी दवाब में होने के कारण केंद्रीय एवं राज्य सरकरों भी उन्हें अधिक दिन तक जीवित नहीं रख सकतीं। ऐसी स्थिति में सरकार के पास कर्मचारियों एवं श्रमिकों को सुरक्षा प्रदान करने के पश्चात् इन इकाइयों को बंद करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता। राष्ट्रीय नवीनीकरण कोष के पास स्वैच्छिक प्रथक्करण ग्रहण योजना अथवा स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना की लागत को पूरा करने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं।
(iv) समझौता विवरणिका (Memorandum of Understanding)- समझौता विवरणिका प्रणाली के माध्यम से निष्पादन में सुधार किया जा सकता है इसके अनुसार प्रबंधन को अधिक स्वायत्ता प्रदान की जा सकती है परंतु साथ ही उसे निर्धारित परिणामों के लिए उत्तरदायी भी ठहराया जाता है। इस प्रणाली के अंतर्गत सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के स्पष्ट लक्ष्य निर्धारित किए गए तथा इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए परिचालन की स्वायत्तता प्रदान की गई। यह ज्ञापन किसी सार्वजनिक क्षेत्र की विशेष इकाई एवं उसके प्रशासनिक मंत्रालय के बीच आपसी संबंधों एवं स्वायत्तता को परिभाषित करता है।
3.4 भूमंडलीय उपक्रम
कभी न कभी आपके सामने बहुराष्ट्रीय निगमों (MNC) द्वारा उत्पादित वस्तुएँ अवश्य आई होंगी। पिछले दो दशकों में एम.एन.सी. ने भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ दुनिया के अधिकांश विकासशील अर्थन्यवस्थाओं की सामान्य विशेषता बन चुकी हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ विशाल निगम हैं, जिनका कारोबार अनेकों देशों में फैला हुआ है। इनकी विशेषताएँ हैं उनका विशाल आकार, उत्पादों की बड़ी संख्या, उन्नत तकनीक, विपणन की रणनीतियाँ एवं पूरे विश्व में फैला व्यवसाय। इस प्रकार से भूमंडलीय उपक्रम वे विशाल औद्योगिक संगठन हैं जिनकी औद्योगिक एवं विपणन क्रियाएँ उनकी शाखाओं के तंत्र के माध्यम से अनेकों देशों में फैली हुई हैं।
ये संगठन अनेक क्षेत्रों में व्यवसाय करते हैं, अनेक वस्तुओं का उत्पादन करते हैं तथा इनका व्यवसाय अनेक देशों में फैला होता है। यह एक या दो उत्पादों से अधिकतम लाभ कमाने के स्थान पर अपनी शाखाओं का पूरे विश्व में विस्तार करते हैं।
विशेषताएँ
इन निगमों की कुछ विशिष्टताएँ होती हैं जो उन्हें अन्य निजी क्षेत्र की कंपनियों एवं सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों से अलग करती हैं। ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(क) विशाल पूँजीगत संसाधन- इन उपक्रमों की पहली विशेषता यह है कि इनके पास भारी मात्रा में पूँजी होती है तथा ये विभिन्न स्त्रोतों से वित्त जुटा सकते हैं। वे जनता को समता-अंश, ॠण-पत्र एवं बॉन्ड जारी कर सकते हैं। वित्तीय संस्थानों एवं अंतर्राष्ट्रीय बैंकों से ऋण लेने की स्थिति में होते हैं। पूँजी बाजार में इनकी साख है। मेज़बान देश के निवेशक एवं बैंक उनमें निवेश करना चाहते हैं। अपनी वित्तीय शक्ति के कारण वे हर परिस्थिति में सुरक्षित रहते हैं।
(ख) विदेशी सहयोग- बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ सामान्यत: तकनीकी के विक्रय, अंतिम उत्पादों के लिए ब्रांड के नाम का उपयोग तथा उत्पादन करने के लिए भारतीय कंपनियों से करार कर लेती हैं। ये बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ सार्वजनिक क्षेत्र एवं निजी क्षेत्र की कंपनियों के साथ सहयोग कर सकती हैं। इनके साथ करार में अकसर प्रतिबंधित वाक्यांश होते हैं, जिनका संबंध, तकनीकी के हस्तांतरण, मूल्य निर्धारण, लाभांश का भुगतान, विदेशी तकनीशियनों के नियंत्रण आदि से होता है। जो बड़े औद्योगिक घराने अपने व्यवसाय में विविधता लाना एवं विस्तार करना चाहते हैं उन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियों से पेटेंट, संसाधन, विदेशी विनिमय आदि में सहयोग के कारण बड़ा लाभ हुआ है लेकिन इस विदेशी सहयोग के कारण एकाधिकार को भी बढ़ावा मिला है तथा शक्ति कुछ हाथों में केंद्रित हुई है।
(ग) उन्नत तकनीकें- इन व्यावसायिक इकाइयों के पास उत्पादन की श्रेष्ठ तकनीकी है। अतः वे अंतर्राष्ट्रीय मानदंड एवं निर्धारित गुणवत्ता को प्राप्त कर सकते हैं। इससें उस देश का भी औद्योगिक विकास होता है, जिसमें ये व्यवसाय करते हैं, क्योंकि ये स्थानीय संसाधनों, साधनों एवं कच्चे माल का श्रेष्ठतम उपयोग कर सकते हैं। आज कंप्यूटर एवं अन्य क्षेत्रों में तमाम नए आविष्कार बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा उच्च स्तर की तकनीकी को उपलब्ध कराने के कारण संभव हुए हैं।
(घ) उत्पादन में नवीनता- इन उपक्रमों की एक और विशेषता है कि इनके उच्च आधुनिक अनुसंधान एवं विकास विभाग हैं जो नए उत्पादों के विकास एवं वर्तमान उत्पादों की बेहतर डिजाइइन बनाने के कार्य में जुटे हैं। गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान के लिए भारी निवेश की आवश्यकता होती है जिनसे केवल वैश्विक उपक्रम ही वहन कर सके हैं।
(ङ) विपणन रणनीतियाँ- इनकी विपणन की रणनीतियाँ अन्य कंपनियों की रणनीतियों की तुलना में अधिक प्रभावी होती हैं। थोड़ी अवधि में अपनी बिक्री को बढ़ाने के लिए ये आक्रामक विपणन रणनीति अपनाते हैं। इनके पास बाज़ार संबंधी अधिक विश्वसनीय एवं नवीनतम सूचना प्रणाली होती है। इनके विज्ञापन एवं बिक्री संवर्धन की तकनीक भी अधिक प्रभावी होती है। क्योंकि विश्व बाज़ार में ये अपना स्थान बना चुके होते हैं तथा इनके ब्रांड भी प्रसिद्ध हैं इसलिए इन्हें अपने उत्पादों की बिक्री में कठिनाई नहीं आती।
(च) बाज़ार क्षेत्र का विस्तार- इनकी व्यावसायिक क्रियाएँ इनके अपने देश की भौतिक सीमाओं के पार होती हैं। इसकी अंतर्राष्ट्रीय छवि का निर्माण होता है तथा इनकी विपणन सीमा में विस्तार होता है। इससे ये एक अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड बन जाते हैं। यह मेज़बान देशों में सहायक कंपनियों, शाखाओं एवं संबद्ध कंपनियों के जाल के माध्यम से कार्य करते हैं। अपने विशाल आकार के कारण ये बाजार में दूसरों पर हावी रहते हैं।
(छ) केंद्रीकृत नियंत्रण- इका मुख्यालय इनके अपने देश में होता है तथा ये सभी शाखाओं एवं सहायक इकाइयों पर नियंत्रण रखते हैं। लेकिन यह नियंत्रण जनक कंपनी के व्यापक नीतिगत ढाँचे तक सीमित रहता है और वे यह दिन-प्रतिदिन के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करते हैं।
3.5 सार्वजनिक निजी भागीदारी (पी.पी.पी.)
सार्वजनिक निजी भागीदारी प्रतिरूप सार्वजनिक तथा निजी भागीदारों के बीच सर्वोक्कृष्ट तरीके से कार्यों, दायित्वों तथा जोखिमों का बँटवारा करता है। पी.पी.पी. के अंतर्गत सार्वजनिक भागीदारों में होती हैं। सरकारी इकाइयाँ, जैसे— मंत्रालय, विभाग, नगर निगम अथवा सरकारी स्वामित्व वाले उपक्रम। निजी भागीदारों में तकनीकी अथवा वित्तीय विशेषजता वाले व्यवसायों अथवा निवेशकों सहित स्थानीय अथवा विदेशी (अंतर्राष्ट्रीय) भागीदार सम्मिलित हो सकते हैं। पी.पी.पी. के अंतर्गत गैर-सरकारी संगठन तथा/अथवा समुदाय-आधारित संगठन, जो परियोजना से प्रत्यक्षत: प्रभावित होने वाले हितधारी हों, सम्मिलित होते हैं। इसीलिए पी.पी.पी. को आधारभूत संरचना एवं अन्य सेवाओं के संदर्भ में सार्वजनिक तथा निजी इकाइयों के बीच एक संबंध के रूप में परिभाषित किया जाता है। पी.पी.पी. प्रतिरूप के अंतर्गत सार्वजनिक क्षेत्र एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है तथा यह सुनिश्चित करता है कि सामाजिक उत्तरदायित्व निभाए जा रहे हैं और क्षेत्र सुधार व सार्वजनिक निवेश सफलता से पूरे किए जा रहे हैं।
पी.पी.पी. में सरकार का योगदान, निवेश हेतु पूँजी तथा संपत्तियों के हस्तांतरण के रूप में होता है, जो सामाजिक उत्तरदायित्व, पर्यावरण जागरूकता और स्थानीय जानकारी के अतिरिक्त भागीदारी की सहायता करता है। भागीदारी में निजी क्षेत्र की भूमिकाओं में, प्रचालनों में अपनी विशेषज्ञात का प्रयोग करना, कार्यों का प्रबंधन तथा प्रभावी तरीके से व्यवसाय संचालन हेतु नवप्रवर्तन सम्मिलित हैं।
विश्व भर के जिन क्षेत्रों में पी.पी.पी. लागू की जा रही है, वे हैं- ऊर्जा उत्पादन एवं वितरण, जल एवं सफाई व्यवस्था, कचरा निस्तारण, पाइप लाइनें, अस्पताल, विद्यालय भवन व शिक्षण सुविधाएँ, स्टेडियम, हवाई यातायात नियंत्रण, जेलें, रेलवे, सड़कें, बिलिंग व अन्य सूचना प्रोद्योगिकी प्रणाली तथा आवास।
$$\text {पी.पी.पी. प्रतिरूप} $$
विशेषताएँ-
- लोक सुविधा के अभिकल्पन तथा निर्माण हेतु निजी पक्ष से अनुबंध।
- सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा सुविधा का वित्तपोषण एवं स्वामित्व।
- अभिकल्प एवं निर्माण जोखिम का हस्तांतरण मुख्य संचालक है।
उपयुक्तता-
- लघु प्रचालन आवश्यकता वाली पूँजी परियोजनाओं हेतु उपयुक्त।
- उन पूँजी परियोजनाओं हेतु उपयुक्त, जहाँ सार्वजनिक क्षेत्र प्रचालन उत्तरदायित्व अपने पास रखना चाहता है।
गुण-
- अभिकल्प तथा निर्माण जोखिम का हस्तांतरण।
- परियोजना तेज़ी से आगे बढ़ने की संभावना।
कमज़ोरियाँ-
- पक्षों के बीच पर्यावरणीय मुद्दों पर मतभेद उत्पन्न हो सकते हैं।
- निजी वित्त को सुगमता से आकर्षित नहीं करते।
उदाहरण-
- कुंडली मानेसर एक्सप्रेस-वे लिमिटेड। 135 किमी. के इस एक्सत्रैसवे में सरकार द्वारा भूमि उपलब्ध कराई गई है तथा कंपनी द्वारा सड़क बिछाई गई है।
मुख्य शब्दावली
सार्वजनिक क्षेत्र $\quad \quad \quad$ विभागीय उपक्रम $\quad \quad \quad \quad \quad$ निजीकरण
सार्वजनिक उपक्रम $\quad \quad$ सरकारी कंपनी $\quad \quad \quad \quad \quad$ भूमंडलीकरण
वैधानिक निगम $\quad \quad \quad$ विनिवेश $\quad \quad \quad \quad \quad \quad \quad \quad$ भूमंडलीय उपक्रम
संयुक्त उपक्रम $\quad \quad \quad$ सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रम $\quad \quad \quad$ सार्वजनिक निजी भागीदारी
सारांश
निजी क्षेत्र एवं सार्वजनिक क्षेत्र— हमारे देश में सभी प्रकार के व्यावसायिक संगठन हैं- छोटे या बड़े औद्योगिक या व्यापारिक, निजी स्वामित्व के या सरकारी स्वामित्व वाले। ये संगठन हमारे दैनिक आर्थिक जीवन को प्रभावित करते हैं, इसलिए ये हमारी अर्थन्यवस्था के अंग हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में निजी स्वामित्व एवं सरकारी स्वामित्व वाले दोनों व्यावसायिक उद्यम होते हैं इसीलिए इसे मिश्रित अर्थव्यवस्था कहते हैं। भारत सरकार ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को चुना, जिसमें निजी क्षेत्र एवं सरकारी क्षेत्र, दोनों क्षेत्रों के उद्यमों के परिचालन की छूट थी। इसीलिए हमारी अर्थव्यवस्था को दो क्षेत्रों में वर्गीकृत किया जा सकता है- निजी क्षेत्र एवं सार्वजनिक क्षेत्रा निजी क्षेत्र में जैसा कि तुम पहले अध्याय में पढ़ चुके हो, व्यवसायों के स्वामी व्यक्ति होते हैं अथवा व्यक्तियों का समूह। इसमें संगठन के विभिन्न स्वरूप हैं- एकल स्वामित्व, साझेदारी, संयुक्त हिंदू परिवार, सहकारी समितियाँ एवं कंपनी। सार्वजनिक क्षेत्र में जो संगठन होते हैं उनकी स्वामी सरकार होती है और सरकार ही उनका प्रबंध करती है। इन संगठनों का स्वामित्व पूर्ण रूप से अथवा आंशिक रूप से राज्य सरकार अथवा केंद्र सरकार के पास होता।
सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के संगठनों के स्वरूप— देश के व्यावसायिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में सरकार की भागीदारी के लिए किसी प्रकार के संगठनात्मक ढाँचे की आवश्यकता होती है। एक सार्वजनिक उपक्रम, व्यावसायिक संगठन के किसी भी स्वरूप को अपना सकता है लेकिन यह इसके कार्यों की प्रकृति एवं सरकार से इसके संबंधों पर निर्भर करता है। संगठन का कौन-सा स्वरूप इसके लिए उपयुक्त रहेगा यह इसकी आवश्यकताओं पर निर्भर करेगा। सार्वजनिक उद्यमों के विभिन्न स्वरूप निम्नलिखित हैं-
(i) विभागीय उपक्रम
(ii) वैधानिक निगम
(iii) सरकारी कंपनी
विभागीय उपक्रम— सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम की स्थापना मंत्रालय के एक विभाग के रूप में की जाती है एवं यह मंत्रालय का ही एक भाग या फिर उसका विस्तार माना जाता है। सरकार इन्हीं विभागों के माध्यम से कार्य करती है तथा यह सरकार की गतिविधियों के महत्वपूर्ण भाग होते हैं।
वैधानिक निगम— वैधानिक निगम वे सार्वजनिक उद्यम हैं, जिनकी स्थापना संसद के विशेष अधिनियम के द्वारा की जाती है। यह अधिनियम इनके अधिकार एवं कार्य, इसके कर्मचारियों को शासित करने से संबंधित नियम एवं कानून तथा सरकार के विभिन्न विभागों से इनके संबंधों को परिभाषित करता है। ये निगमित संगठन होते हैं जिनकी स्थापना विधान मंडल द्वारा की जाती है, इनके कार्य एवं शक्तियाँ पूर्ण परिभाषित होती हैं। ये वित्त मामलों में स्वतंत्र होते हैं तथा इसका निर्धारित क्षेत्र पर तथा विशेष प्रकार की वाणिज्यिक क्रियाओं पर स्पष्ट नियंत्रण होता है।
सरकारी कंपनी— एक सरकारी कंपनी वह कंपनी है, जिसकी कम से कम 51 प्रतिशत चुकता अंशपूँजी या तो केंद्र सरकार के पास है या फिर राज्य सरकारों के पास, या फिर कुछ केंद्र सरकार के पास और शेष एक या एक से अधिक राज्य सरकारों के पास हैं तथा उसमें वह कंपनी भी सम्मिलित है जो किसी सरकारी कंपनी की सहायक कंपनी है।
सार्वजनिक क्षेत्र की परिवर्तित भूमिका- स्वतंत्रता प्राप्ति के समय यह आशा की गई थी कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम व्यवसाय में प्रत्यक्ष रूप में भाग लेकर अथवा एक उत्र्रेरक के रूप में अर्थव्यवस्था के कुछ उद्देश्यों को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएँगे। भारतीय अर्थव्यवस्था आज परिवर्तन के दौर से गुज़र रही है। 90 के दशक के उत्तरार्ध में नई आर्थिक नीतियों ने उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमंडलीकरण पर अधिक जोर दिया। सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका की पुन: व्याख्या की गई।
मूलभूत ढाँचे का विकास- औद्योगीकरण की प्रक्रिया को बिना पर्याप्त परिवहन एवं संचार सुविधाओं, ईंधन एवं ऊर्जा तथा मूलभूत एवं भारी उद्योगों को जीवित नहीं रखा जा सकता। यह सरकार ही थी, जो भारी पूँजी जुटा सकती थी, औद्योगिक निर्माण में समन्वय स्थापित कर सकती थी एवं तकनीशियनों तथा कर्मचारियों को प्रशिक्षित कर सकती थी।
क्षेत्रीय संतुलन- सभी क्षेत्रों एवं राज्यों का संतुलित विकास करना एवं क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करना सरकार का दायित्व है। इसके लिए सरकार को पिछड़े क्षेत्रों में नए उद्यमों की स्थापना करनी पड़ी तथा साथ-साथ पहले से ही उन्नत क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की कुकरमुत्ते की तरह हो रही वृद्धि को रोकना पड़ा।
बड़े पैमाने के लाभ- जिन क्षेत्रों में भारी पूँजी वाले बड़े पैमाने के उद्योगों की आवश्यकता होती है वहाँ बड़े पैमाने के लाभों को प्राप्त करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र आगे आया।
आर्थिक शक्ति के केंद्रित होने पर रोक- सार्वजनिक क्षेत्र निजी क्षेत्र पर नियंत्रण रखता है। निजी क्षेत्र में कुछ ही औद्योगिक घराने होते हैं, जो भारी उद्योगों में निवेश के इच्छुक होते हैं।
आयात का पूरक- दूसरी एवं तीसरी पंचवर्षीय योजनाओं के कार्यकाल में भारत का लक्ष्य कई क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होना था। यह वह समय था जब सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों ने भारी इंजीनियरिंग उद्योगों की स्थापना की, जिससे इनके आयात का प्रतिस्थापन्न हो सके।
1991 से सरकार की सार्वजनिक क्षेत्र के विषय में नीति— इसके प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं-
-
क्षमता की संभावनाओं वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पी.एस.यू.) को पुनर्गठित एवं पुनर्जीवित करना;
-
ऐसे पी.एस.यू., जिनको पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता, को बंद करना; एवं
-
गैर महत्वपूर्ण पी.एस.यू. में, यदि आवश्यकता हो तो सरकार के समता अंश को $26 %$ या उससे कम लाना;
-
कर्मचारियों के हितों को पूर्ण संरक्षण देना।
-
अत: भारत सरकार ने निम्नोक्त कदम उठाए-
(क) सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योग-धंधों की संख्या को घटाकर 17 से 8 कर दिया (तत्पश्चात् 3 कर दिया)।
(ख) सार्वजनिक क्षेत्र की चुनिंदा व्यावसायिक इकाइयों के अंशों का विनिवेश— विनिवेश में सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के समता अंशों को निजी क्षेत्र की इकाइयों एवं जनता को बेचा जाता है। इसका उद्देश्य इन इकाइयों के लिए संसाधन जुटाना एवं आम जनता एवं कर्मचारियों की भागीदारी को व्यापक बनाना है। सरकार ने औद्योगिक क्षेत्र से अपने आपको अलग करने एवं सभी उपक्रमों में से अपनी समता अंश पूँजी को कम करने का निर्णय लिया था।
(ग) बीमार इकाइयों एवं निजी क्षेत्र के लिए एक समान नीतियाँ— सभी सार्वजनिक क्षेत्र की बीमार इकाइयों को औद्योगिक एवं वित्तीय पुननिर्माण बोर्ड को यह निर्णय लेने के लिए सौंपा जाता है कि एक बीमार इकाई का पुनर्गठन किया जाए या फिर उसे बंद कर दिया जाए।
समझौता विवरणिका— समझौता विवरणिका प्रणाली के माध्यम से निष्पादन में सुधार किया जा सकता है। प्रबंध को अधिक स्वायत्ता प्रदान की जाती है परंतु निर्धारित परिणामों के लिए उत्तरदायी भी ठहराया जाता है।
भूमंडलीय उपक्रम— पिछले दो दशकों में एम.एन.सी. ने भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इनकी विशेषताएँ हैं उनका विशाल आकार, उत्पादों की बड़ी संख्या, उन्नत तकनीक, विपणन की रणनीति एवं पूरे विश्व में फैला व्यवसाय तंत्र। इस प्रकार से भूमंडलीय उपक्रम वे विशाल औद्योगिक संगठन हैं, जिनकी औद्योगिक एवं विपणन क्रियाएँ उनकी शाखाओं के तंत्र के माध्यम से अनेकों देशों में फैली हुई हैं। इन निगमों की कुछ विशिष्टताएँ होती हैं, जो उन्हें अन्य निजी क्षेत्र की कंपनियों एवं सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों से अलग करती हैं। ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(क) विशाल पूँजीगत संसाधन (ख) विदेशी सहयोग (ग) उन्नत तकनीकें (घ) उत्पादन में नवीनता
(ड·) विपणन की रणनीति (च) बाज़ार क्षेत्र का विस्तार (छ) केंद्रीकृत नियंत्रण
अभ्यास
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र की अवधारणा की व्याख्या कीजिए।
2. निजी क्षेत्र के विभिन्न संगठनों के बारे में बताइए।
3. सार्वजनिक क्षेत्र में आने वाले संगठन कौन-कौन से है?
4. सार्वजनिक क्षेत्र के संगठनों के नाम बताओ तथा उनका वर्गीकरण करो।
5. सार्वजनिक क्षेत्र के अन्य विविध संगठनों की तुलना में सरकारी कंपनी संगठन को प्राथमिकता क्यों दी जाती है?
6. सरकार देश में क्षेत्रीय संतुलन कैसे बनाए रखती है?
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1. सार्वजनिक क्षेत्र की 1991 की औद्यौगिक नीति का वर्णन कीजिए।
2. 1991 से पहले सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका क्या थी?
3. क्या सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी लाभ तथा दक्षता की दृष्टि से निजी क्षेत्र से प्रतिस्पर्धा कर सकती है? अपने उत्तर के कारण बताएँ।
4. भूमंडलीय उपक्रम अन्य व्यवसाय संगठन से श्रेष्ठ क्यों माने जाते है?
5. संयुक्त उपक्रम और सार्वजनिक निजी भागीदारी में प्रवेश के क्या लाभ हैं?
परियोजना कार्य
1. उन भारतीय कंपनियों की लिस्ट बनाइए जिन्होंने विदेशी कंपनीयों के साथ संयुक्त उपक्रम में प्रवेश किया है। इस प्रकार के उपक्रमों के लाभों की व्याख्या कीजिए।