अध्याय 02 व्यावसायिक संगठन के स्वरूप
नेहा एक मेधावी छात्रा है, जिसे अपने परीक्षा परिणाम की घोषणा की प्रतीक्षा थी। जब वह घर पर थी, तब उसने खाली समय का उपयोग करने का निर्णय लिया। उसे चित्रकारी में रुचि थी। उसने मिट्टी के बर्तनों एवं प्यालों पर चित्रकारी शुरू कर दी। नेहा के काम में उसके मित्रों एवं अन्य मिलने वालों ने रुचि दिखाई जिससे वह बहुत उत्साहित हुई। अब उसने व्यापार करना तय किया। इस व्यापार को वह अपने घर से चलाने लगी जिससे किराये की बचत हो गई। एक-दूसरे से चर्चा के कारण वह एकल स्वामित्व के रूप में काफी प्रसिद्ध हो गई। परिणामस्वरूप उसके उत्पादनों की बिक्री में बढ़ोतरी हुई। गर्मियों की समाप्ति तक उसे लगभग 2500 रु. का लाभ हुआ। इससे उत्साहित होकर उसने इस काम को पेशे के रूप में अपना लिया। अत: उसने अपना व्यवसाय स्थापित करने का निर्णय लिया। यद्यपि वह इस व्यवसाय को एकल स्वामित्व के रूप में चलाने में समर्थ है, लेकिन उसे व्यवसाय के विस्तार के लिए अधिक धन की आवश्यकता भी है। अत: उसके पिता ने साझेदारी फर्म का विकल्प सुझाया, जिससे उसे अधिक पूँजी प्राप्त करने में भी सुविधा हो तथा उत्तरदायित्व एवं जोखिम में भी भागीदारी हो सके। उनका यह भी मत था कि संभव है कि भविष्य में व्यवसाय का और अधिक विस्तार हो और कंपनी का निर्माण भी करना पड़े। नेहा फिलहाल इस असमंजस में है कि वह किस प्रकार के व्यावसायिक संगठन के स्वरूप को चुने।
2.1 परिचय
यदि कोई व्यक्ति एक व्यवसाय प्रारंभ करने की योजना बना रहा है या वर्तमान व्यवसाय का विस्तार करना चाहता है, तो उसे संगठन के स्वरूप के संबंध में एक महत्वपूर्ण निर्णय लेना होगा। सबसे उपयुक्त स्वरूप का निर्धारण करते समय व्यक्ति को अपने साधनों को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक स्वरूप के लाभ एवं हानियों को देखकर निर्णय करना होगा। व्यवसाय संगठन के विभिन्न स्वरूप निम्न हैं-
(क) एकल स्वामित्व;
(ख) संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय;
(ग) साझेदारी;
(घ) सहकारी समिति; तथा
(ड·) संयुक्त पूँजी कंपनी।
हम अपनी चर्चा को एकल व्यापार से प्रारंभ करते हैं जो व्यावसायिक संगठन का सरलतम स्वरूप है। उसके बाद अधिक जटिल संगठनों के रूपों का विश्लेषण करेंगे।
2.2 एकल स्वामित्व
आप कई बार सायंकाल अपने पास के छोटे स्टेशनरी स्टोर से रजिस्टर, पेन, चार्ट पेपर आदि खरीदने के लिए जाते होंगे। संभावना यही है कि आप इस सौदे के दौरान किसी एकल स्वामित्व के संपर्क में ही आते होंगे।
एकल व्यापार व्यावसायिक संगठन का एक प्रचलित रूप है तथा छोटे व्यवसाय के लिए अत्यंत उपयुक्त है, विशेषत: व्यवसाय के प्रारंभिक वर्षों में एकल स्वामित्व उस व्यवसाय को कहते हैं जिसका स्वामित्व, प्रबंधन एवं नियंत्रण एक ही व्यक्ति के हाथ में होता है तथा वही संपूर्ण लाभ पाने का अधिकारी तथा हानि के लिए उत्तरदायी होता है। जैसा एकल स्वामित्व शब्द से ही स्पष्ट है ‘एकल’ शब्द का अर्थ है एकमात्र एवं ‘प्रोप्राइटर’ का अर्थ है स्वामी, अर्थात् वह एकल व्यवसाय का एकमात्र स्वामी होता है।
व्यवसाय का यह स्वरूप विशेष रूप से उन क्षेत्रों में प्रचलन में है, जिनमें व्यक्तिगत सेवाएँ प्रदान की जाती हैं, जैसे- ब्यूटी पार्लर, नाई की दुकान एवं छोटे पैमाने के व्यापार, जैसे- किसी क्षेत्र में एक फुटकर व्यापार की दुकान चलाना।
लक्षण
संगठन के एकल स्वामित्व स्वरूप की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं-
(क) निर्माण एवं समापन- एकल स्वामित्व वाले व्यवसाय को प्रारंभ करने के लिए शायद ही किसी वैधानिक औपचारिकता की आवश्यकता होती है। हाँ, कुछ मामलों में लाइसेंस की आवश्यकता हो सकती है। एकल स्वामित्व के नियमन के लिए अलग से कोई कानून नहीं है, व्यवसाय को बंद भी सरलता से किया जा सकता है। इस प्रकार से व्यवसाय की स्थापना एवं उसका समापन दोनों ही सरल हैं।
(ख) दायित्व- एकल स्वामी का दायित्व असीमित होता है। इसका अर्थ हुआ कि यदि व्यवसाय की संपत्तियाँ सभी ऋणों के भुगतान के लिए पर्याप्त नहीं हैं तो स्वामी इन ऋणों के भुगतान के लिए व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होगा। ऐसी स्थिति में इसके लिए उसकी निजी वस्तुएँ, जैसे— उसकी अपनी कार तथा अन्य संपत्तियाँ बेची जा सकती हैं। उदाहरण के लिए, अगर व्यवसाय बंद करते समय एक ड्राईक्लीनर एकल स्वामित्व वाली इकाई की बाह्य देयताएँ ₹ 80,000 हैं, जबकि परिसंपत्तियाँ केवल ₹ 60,000 ही हैं, तो ऐसे में स्वामी को अपने निजी स्त्रोतों से ₹ 20,000 लाने होंगे। भले ही फर्म के ऋणों के भुगतान के लिए उसे अपनी निजी संपत्ति ही क्यों न बेचनी पड़े।
(ग) लाभप्राप्तकर्ता तथा जोखिम वहनकर्ता - व्यवसाय की विफलता से जोखिम को एकल स्वामी को अकेले ही वहन करना होगा। यदि व्यवसाय सफल रहता है तो सभी लाभ भी उसी को प्राप्त होंगे। वह सभी व्यावसायिक लाभों का अधिकारी होता है जो उसके जोखिम उठाने का सीधा प्रतिफल है।
‘एकल व्यापारी व्यवसाय एक ऐसी व्यावसायिक इकाई है जिसमें एक ही व्यक्ति पूँजी लगाता है, उद्यम का जोखिम उठाता है एवं प्रबंधन करता है।’
-जे.एल. हैन्सन‘एकल स्वामित्व व्यवसाय संगठन का वह स्वरूप है जिसका मुखिया एक ऐसा व्यक्ति है जो उत्तरदायित्व लिए हुए है; जो परिचालन का निदेशन करता है एवं जो हानि का जोखिम उठाता है।
-एल.एच. हेनी
(घ) नियंत्रण— व्यवसाय के संचालन एवं उसके संबंध में निर्णय लेने का पूरा अधिकार एकल स्वामी के पास होता है, वह बिना दूसरों के हस्तक्षेप के अपनी योजनाओं को कार्यान्वित कर सकता है।
(ङ) स्वतंत्र अस्तित्व नहीं- कानून की दृष्टि में एकल व्यापारी एवं उसके व्यवसाय में कोई अंतर नहीं है क्योंकि इसमें व्यवसाय का इसके स्वामी से अलग कोई अस्तित्व नहीं है। परिणामस्वरूप, व्यवसाय के सभी कार्यों के लिए स्वामी को ही उत्तरदायी ठहराया जाएगा।
(च) व्यावसायिक निरंतरता का अभाव - चूँकि व्यवसाय एवं उसके स्वामी का एक ही अस्तित्व है इसलिए एकल स्वामी की मृत्यु पर, पागल हो जाने पर, जेल में बंद होने पर, बीमारी अथवा दिवालिया होने पर सीधा एवं हानिकारक प्रभाव व्यवसाय पर पड़ेगा और हो सकता है कि व्यापार बंद भी करना पड़े।
गुण
एकल स्वामित्व के कई लाभ हैं। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण लाभ निम्न हैं-
(क) शीर्घ निर्णय- एकल स्वामी को व्यवसाय से संबंधित निर्णय लेने की बहुत अधिक स्वतंत्रता होती है क्योंकि उसे किसी दूसरे से सलाह की आवश्यकता नहीं है इसलिए वह तुरंत निर्णय ले सकता है। इसके कारण जब भी उसे कोई लाभ का अवसर प्राप्त होता है तो वह समय रहते उनका पूरा लाभ उठा सकता है।
स्फूर्तिदायक प्रारंभ— कोका-कोला प्रारंभ में एकल स्वामित्व का व्यवसाय था!
दुनियाभर को एक खास स्वाद से परिचित करवाने वाले कोका-कोला की शुरूआत 8 मई 1886 को एटलांटा, जॉर्जिया से हुई थी। डॉ. जॉन स्मिथ पैंबर्टन एक स्थानीय औषधि निर्माता थे। उन्होंने कोका-कोला के नाम से एक शर्बत बनाया। वे इस नए उत्पाद को एक पास में स्थित जैकब फार्मेसी में ले गए। वहाँ उसका नमूना चखा गया तथा उसे अद्भुत घोषित किया गया। एक सोडा पेय के रूप में वह पाँच सैंट प्रति गिलास बेचा जाने लगा। पैंबर्टन को अपने उत्पाद की निहित संभावनाओं का अहसास भी नहीं हुआ। उन्होंने धीरे-धीरे अपने व्यवसाय को टुकड़ों में अपने साझेदारों को बेच दिया और 1888 में अपनी मृत्यु के कुछ समय पहले ही कोका-कोला में अपने बचे-खुचे हितों को आसा जी. कैंडलर को बेच दिया। कैंडलर, व्यापारिक सूझ-बूझ वाला एटलांटावासी था। उसने व्यवसाय के अन्य हिस्से भी खरीद लिए तथा अंत में पूरे व्यवसाय को नियंत्रण में ले लिया।
1 मई, 1889 को आसा जी. कैंडलर ने ‘द एटलांटा’ पत्रिका में एक पूरे पृष्ठ का विज्ञापन दिया जिसमें उसने अपने दवाइयों के थोक एवं फुटकर व्यापार को कोका-कोला के एकमात्र स्वामी के रूप में घोषित किया। उसके विज्ञापन में कहा गया— “कोका-कोला स्वादिष्ट! ताज़गीदायक! स्फूर्तिदायक! शक्तिवर्धक! पेय!” कोका-कोला का एकल स्वामित्व कैंडलर को 1891 में जाकर प्राप्त हुआ जिसके लिए उसे 2300 डॉलर निवेश करने की आवश्यकता पड़ी। 1892 में जाकर कैंडलर ने ‘दि कोका-कोला कॉरपोरेशन’ के नाम से एक कंपनी का गठन किया।
(स्त्रोत— कोका-कोला कंपनी की वेबसाइट से।)
(ख) सूचना की गोपनीयता- एकल स्वामी अकेले ही निर्णय लेने का अधिकार रखता है इसलिए वह व्यापार संचालन के संबंधों में सूचना को गुप्त रख सकता है तथा गोपनीयता बनाए रख सकता है। वह किसी कानून के अंतर्गत अपने लेखे-जोखे को प्रकाशित करने के लिए बाध्य भी नहीं है।
(ग) प्रत्यक्ष प्रोत्साहन- एकल स्वामी संपूर्ण लाभ का ग्रहणकर्ता होने के कारण प्रत्यक्ष रूप से अपने प्रयत्नों के लाभ को प्राप्त करता है। चूँकि वह अकेला ही स्वामी होता है इसलिए उसे लाभ में किसी के साथ हिस्सा बाँटने की आवश्यकता नहीं है। इससे उसे कठिन परिश्रम करने के लिए अधिकतम प्रोत्साहन मिलता है।
(घ) उपलब्धि का अहसास- अपने स्वयं के लिए काम करने से व्यक्तिगत संतोष प्राप्त होता है। इस बात का अहसास कि वह स्वयं ही अपने व्यवसाय की सफलता के लिए उत्तरदायी है, न केवल उसे आत्मसंतोष प्रदान करता है बल्कि स्वयं की योग्यताओं में आस्था एवं विश्वास की भावना भी उत्पन्न करता है।
(ङ) स्थापित करने एवं बंद करने में सुगमता - व्यवसाय में प्रवेश के लिए न्यूनतम वैधानिक औपचारिकताओं की आवश्यकता होती है। यह एकल स्वामित्व का एक महत्वपूर्ण लाभ है। एकल स्वामित्व को शासित करने के लिए अलग से कोई कानून नहीं है। चूँकि इसका स्वरूप ऐसा है कि इसके कम से कम नियमन हैं इसलिए इसको स्थापित करना एवं इसे बंद करना सुगम है।
सीमाएँ
उपरोक्त लाभों के होते हुए भी एकल स्वामित्व की भी कुछ सीमाएँ हैं। इनमें से कुछ प्रमुख सीमाएँ इस प्रकार हैं-
(क) सीमित संसाधन- एक एकल स्वामी के संसाधन उसके व्यक्तिगत बचत एवं दूसरों से ऋण लेने तक ही सीमित हैं। बैंक एवं दूसरे ऋण देने वाले संस्थान एक एकल स्वामी को दीर्घ अवधि ऋण देने में संकोच करेंगे। व्यापार का आकार साधारणत: छोटा ही रहता है तथा उसके विस्तार की संभावना भी कम होती है। इसका एक बड़ा कारण संसाधनों की कमी या अभाव है।
(ख) व्यावसायिक इकाई का सीमित जीवनकाल- कानून की दृष्टि में स्वामी एवं स्वामित्व दोनों ही एक माने जाते हैं। स्वामी की मृत्यु, दिवालिया होना अथवा बीमारी से व्यवसाय प्रभावित होता है तथा इनसे वह बंद भी हो सकता है।
(ग) असीमित दायित्व- एकल स्वामित्व की एक बड़ी हानि है स्वामी का असीमित दायित्व। यदि व्यापार में असफलता रहती है तो लेनदार अपनी लेनदारी को न केवल व्यवसाय की परिसंपत्तियों बल्कि स्वामी की निजी संपत्तियों से भी वसूल कर सकते हैं। एक भी गलत निर्णय या फिर प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण स्वामी पर भारी वित्तीय भार पड़ सकता है। इसी कारण से एकल स्वामी परिवर्तन अथवा विस्तार का जोखिम उठाने के लिए कम ही तैयार होता है।
(घ) सीमित प्रबंध योग्यता— स्वामी पर प्रबंध संबंधित कई उत्तरदायित्व रहते हैं, जैसे—क्रय, विक्रय, वित्त आदि। शायद ही कोई व्यक्ति हो जो इन सभी क्षेत्रों में श्रेष्ठ हो। संसाधनों की कमी के कारण वह गुणी एवं महत्वाकांक्षी कर्मचारियों को न तो भर्ती कर सकते हैं और न ही उन्हें रोके रख सकते हैं।
सारांश यह है कि एकल स्वामित्व के दोषों के होते हुए भी अनेक उद्यमी इसी को अपनाते हैं क्योंकि यह उन व्यवसायों के लिए सर्वोत्तम है जिनका आकार छोटा है; जिन्हें कम पूँजी की आवश्यकता है तथा जहाँ ग्राहकों को व्यक्तिगत सेवाओं की आवश्यकता है।
2.3 संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय
संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय विशेष प्रकार का संगठन स्वरूप है जो केवल भारत में ही पाया जाता है। हमारे देश का यह सबसे पुराना स्वरूप है। इसका अभिप्राय उस व्यवसाय से है जिसका स्वामित्व एवं संचालन एक संयुक्त हिंदू परिवार के सदस्य करते हैं। इसका प्रशासन हिंदू कानून के द्वारा होता है। परिवार विशेष में जन्म लेने पर वह व्यक्ति व्यवसाय का सदस्य बन जाता है एवं तीन पीढ़ियों तक व्यवसाय का सदस्य रह सकता है।
व्यवसाय पर परिवार के मुखिया का नियंत्रण रहता है, जो परिवार का सबसे बड़ा सदस्य होता है एवं ‘कर्ता’ कहलाता है। सभी सदस्यों का पूर्वज की संपत्ति पर बराबर का स्वामित्व होता है तथा उन्हें सह-समांशी कहा जाता है।
लक्षण
निम्न बिन्दु संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय की आवश्यक विशेषताओं को उजागर करते हैं-
(क) निर्माण— संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय के लिए परिवार में कम से कम दो सदस्य एवं वह पैतृक संपत्ति जो उन्हें विरासत में मिली हो, उनका होना आवश्यक है। व्यवसाय के लिए किसी अनुबंध की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसमें सदस्यता जन्म के कारण मिलती है। यह हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 द्वारा शासित होता है।
(ख) दायित्व— कर्ता को छोड़कर अन्य सभी सदस्यों का दायित्व व्यवसाय की सह-समांशी संपत्ति में उनके अंश तक सीमित होता है।
(ग) नियंत्रण— परिवार के व्यवसाय पर कर्ता का नियंत्रण होता है। वही सभी निर्णय लेता है तथा वही व्यवसाय के प्रबंधन के लिए अधिकृत होता है। उसके निर्णयों से दूसरे सभी सदस्य बाध्य होते हैं।
(घ) निरंतरता— कर्ता की मृत्यु होने पर व्यवसाय चलता रहता है क्योंकि सबसे बड़ी आयु का अगला सदस्य कर्ता का स्थान ले लेता है, जिससे व्यवसाय में स्थिरता आती है। सभी सदस्यों की संयुक्त स्वीकृति से ही व्यवसाय को समाप्त किया जा सकता है।
(ङ) नाबालिग सदस्य— व्यवसाय में व्यक्ति का प्रवेश संयुक्त हिंदू परिवार में जन्म लेने के कारण होता है इसीलिए नाबालिग भी व्यवसाय के सदस्य हो सकते हैं।
गुण
संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय के लाभ निम्नलिखित हैं-
(क) प्रभावशाली नियंत्रण— कर्ता के पास निर्णय लेने के पूरे अधिकार होते हैं। इससे सदस्यों में पारस्परिक मतभेद नहीं होता क्योंकि उनमें से कोई भी उसके निर्णय लेने के अधिकार में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। इसके कारण निर्णय शीघ्र लिए जाते हैं तथा उनमें लचीलापन भी होता है।
(ख) स्थायित्व- कर्ता की मृत्यु से व्यवसाय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि अगला सबसे अधिक आयु का व्यक्ति उसका स्थान ले लेता है। परिणामस्वरूप, व्यवसाय का कार्य समाप्त नहीं होता तथा व्यवसाय की निरंतरता को किसी प्रकार का खतरा नहीं होता।
(ग) सदस्यों का सीमित दायित्व- कर्ता को छोड़कर अन्य सभी सह-समांशियों का दायित्व व्यवसाय में उनके अंश तक सीमित होता है इसीलिए उनके जोखिम स्पष्ट एवं निश्चित होते हैं।
(घ) निष्ठा एवं सहयोग में वृद्धि— क्योंकि व्यवसाय को एक परिवार के सदस्य मिलकर चलाते हैं, इसलिए एक-दूसरे के प्रति अधिक निष्ठावान होते हैं। व्यवसाय का विकास परिवार की उपलब्धि होती है, इसीलिए उसके लिए यह गर्व की बात होती है। इससे सभी सदस्यों का श्रेष्ठ सहयोग प्राप्त होता है।
सीमाएँ
संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय की कुछ सीमाएँ नीचे दी गई हैं-
(क) सीमित साधन— संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय मूल रूप से पैतृक संपत्ति पर आश्रित रहता है इसलिए इसके सामने सीमित पूँजी की समस्या रहती है। इससे व्यवसाय के विस्तार की संभावना कम हो जाती है।
संयुक्त हिंदू परिवार में लिंग समता — एक वास्तविकता
हिंदू (संशोधन) अधिनियम-2005 के अनुसार, संयुक्त हिंदू परिवार के सह-समांशी की पुत्री जन्म लेते ही एक सह-समांशी बन जाती है। संयुक्त हिंदू परिवार के बँटवारे के समय सह-समांशी संपत्तियाँ सभी सह-समांशियों में, उनके लिंग को ध्यान में रखे बिना, समान रूप से विभाजित की जाएँगी। संयुक्त हिंदू परिवार का सबसे बड़ा सदस्य (पुरुष अथवा स्त्री) कर्ता बनता है। संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति में विवाहित पुत्री को समान अधिकार हैं।
(ख) कर्ता का असीमित दायित्व— कर्ता पर न केवल निर्णय लेने एवं प्रबंध करने के उत्तरदायित्व का बोझ होता है बल्कि उस पर असीमित दायित्व का भी भार होता है। व्यवसाय के ऋणों को चुकाने के लिए उसकी निजी संपत्ति का भी उपयोग किया जा सकता है।
(ग) कर्ता का प्रभुत्व— कर्ता अकेला ही व्यवसाय का प्रबंध करता है जो कभी-कभी अन्य सदस्यों को स्वीकार्य नहीं होता। इससे उनमें टकराव हो जाता है, यहाँ तक कि पारिवारिक इकाई भंग भी हो सकती है।
(घ) सीमित प्रबंध कौशल- यह आवश्यक तो नहीं कि कर्ता सभी क्षेत्रों का विशेषज्ञ हो इसलिए व्यवसाय को उसके मूर्खतापूर्ण निर्णयों के परिणाम भुगतने होते हैं। यदि वह प्रभावी निर्णय नहीं ले पाता है तो उससे वित्त संबंधी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं, जैसे— कम लाभ होना या हानि होना।
अंत में हम कह सकते हैं कि संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय ढलान की ओर है क्योंकि देश में संयुक्त हिंदू परिवारों की संख्या कम होती जा रही है।
2.4 साझेदारी
एकल स्वामित्व के व्यापारिक विस्तार के वित्तीयन एवं प्रबंधन संबंधित निहित दोष के कारण एक जीवंत विकल्प के रूप में साझेदारी का मार्ग प्रशस्त हुआ है। साझेदारी भारी पूँजी निवेश, विभिन्न प्रकार के कौशल एवं जोखिम में भागीदारी की आवश्कताओं को पूरा करती है।
लक्षण
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर साझेदारी संगठन की विशेषताओं का वर्णन निम्न है-
(क) स्थापना— व्यावसायिक संगठन का साझेदारी स्वरूप भारतीय साझेदारी अधिनियम- 1932 द्वारा शासित है। साझेदारी कानूनी समझौते के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आती है जिसमें साझेदारों के मध्य संबंधों, लाभ एवं हानि को बाँटने एवं व्यवसाय के संचालन के तरीकों को निश्चित किया जाता है। विशिष्ट बात यह है कि व्यवसाय वैधानिक होना चाहिए एवं उसके संचालन का उद्देश्य लाभ कमाना होना चाहिए। अत: कोई दो व्यक्ति यदि धर्मार्थ सेवा के लिए एकजुट होते हैं तो यह साझेदारी नहीं होगी।
(ख) देयता— फर्म केसाझेदारों का दायित्व असीमित होता है। यदि व्यवसाय की परिसंपत्तियाँ अपर्याप्त हैं तो ऋणों को व्यक्तिगत संपत्तियों से चुकाया जाएगा। इसके अतिरिक्त, वे ऋणों को चुकता करने के लिए व्यक्तिगत रूप से एवं संयुक्त रूप से उत्तरदायी होंगे। संयुक्त रूप से प्रत्येक साझेदार ऋण भुगतान के लिए उत्तरदायी है तथा वह प्रत्येक व्यवसाय में अपने हिस्से के अनुपात में योगदान करेगा तथा उस सीमा तक देनदार होगा। व्यवसाय की देनदारी का भुगतान करने के लिए उस साझेदार को व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी ठहराया जा सकता है, लेकिन ऐसी स्थिति में वह साझेदार अन्य साझेदारों से उनके हिस्से की देनदारी के बराबर राशि वसूल सकता है।
(ग) जोखिम वहन करना- व्यवसाय को एक टीम के रूप में चलाने से उत्पन्न जोखिम को साझेदार वहन करते हैं। इसके प्रतिफल के रूप में उन्हें लाभ प्राप्त होता है जिसे वे आपस में एक तय अनुपात में बाँट लेते हैं लेकिन उसी अनुपात में वे हानि को भी बाँटते हैं।
(घ) निर्णय लेना एवं नियंत्रण— साझेदार आपस में मिलकर दिन-प्रतिदिन के कार्यों के संबंध में निर्णय लेने एवं नियंत्रण करने के उत्तरदायित्व को निभाते हैं। निर्णय उनकी आपसी राय से लिए जाते हैं। अत: साझेदारी फर्म के कार्यों के प्रबंधन में उन सभी का योगदान रहता है।
(ङ) निरंतरता— साझेदारी में व्यवसाय की निरंतरता की कमी रहती है क्योंकि किसी भी साझेदार की मृत्यु, अवकाश ग्रहण करने, दिवालिया होने या फिर पागल हो जाने से यह समाप्त हो सकती है। बाकी साझीदार नए समझौते के आधार पर व्यवसाय को चालू रख सकते हैं।
(च) सदस्यता- किसी साझेदारी को प्रारंभ करने हेतु न्यूनतम दो सदस्यों की आवश्यकता होती है। कंपनी अधिनियम-2013 की धारा 464 के अनुसार किसी साझेदारी फर्म में साझेदारों की अधिकतम संख्या 100 तक हो सकती है। कंपनी विविध नियम-2014 के नियम 10 के अनुसार वर्तमान में किसी साझेदारी संगठन में अधिकतम 50 सदस्य हो सकते हैं।
(छ) एजेंसी संबंध— साझेदारी की परिभाषा इस तथ्य को रेखांकित करती है कि इसमें व्यवसाय को सभी साझेदार मिलकर या फिर सभी की ओर से कोई एक साझेदार चला सकता है। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक साझेदार एजेंट भी है एवं स्वामी भी। चूँकि वह दूसरे साझेदारों का प्रतिनिधित्व करता है इसलिए वह उनका एजेंट होता है तथा उसके कार्यों से अन्य साझेदार आबद्ध हो जाते हैं। प्रत्येक साझेदार स्वामी भी होता है तथा दूसरे साझेदारों के कार्यों से आबद्ध हो जाता है।
गुण
साझेदारी फर्म के लाभ नीचे दिए गए हैं-
(क) स्थापना एवं समापन सरल- एक साझेदारी फर्म को संभावित साझेदारों के बीच समझौते के द्वारा सरलता से बनाया जा सकता है जिसके अनुसार वह व्यवसाय को चलाते हैं तथा जोखिम को बाँटते हैं। फर्म का पंजीकरण अनिवार्य नहीं होता एवं इसे बंद करना भी सरल होता है।
(ख) संतुलित निर्णय— साझेदार अपनी-अपनी विशिष्टता के अनुसार अलग-अलग कार्यों को देख सकते हैं। एक व्यक्ति विभिन्न कार्यों को करने के लिए बाध्य नहीं होता तथा इससे निर्णय लेने में गलतियाँ भी कम होती हैं। परिणामस्वरूप, निर्णय अधिक संतुलित होते हैं।
(ग) अधिक कोष- साझेदारी में पूँजी कई साझेदारों द्वारा लगाई जाती है। इससे एकल स्वामित्व की तुलना में अधिक धन जुटाया जा सकता है तथा आवश्यकता पड़ने पर अतिरिक्त व्यावसायिक कार्य भी किए जा सकते हैं।
(घ) जोखिम को बाँटना- साझेदारी फर्म को चलाने में निहित जोखिम को सभी साझेदार बाँट सकते हैं। इससे अकेले साझेदार पर पड़ने वाला बोझ, तनाव एवं दबाव कम हो जाता है।
(ङ) गोपनीयता- एक साझेदारी फर्म के लिए अपने खातों को प्रकाशित करना एवं ब्यौरा देना कानूनी रूप से आवश्यक नहीं है इसलिए यह अपने व्यावसायिक कार्यों के संबंध में सूचना को गुप्त रख सकते हैं।
सीमाएँ
साझेदारी फर्म की निम्न सीमाएँ हैं-
(क) असीमित दायित्व- यदि फर्म की देनदारी को चुकाने के लिए व्यवसाय की संपत्तियाँ पर्याप्त नहीं हैं तो साझेदारों को इसका भुगतान अपने निजी स्त्रोतों से करना होगा। साझेदारों के दायित्व संयुक्त एवं पृथक दोनों होते हैं इसलिए यह उन साझेदारों के लिए अनुचित होगा जिनके पास अधिक व्यक्तिगत धन है। यदि अन्य साझेदार ऋण का भुगतान करने में असमर्थ रहते हैं तो इसका भुगतान धनी साझेदारों को करना होगा।
(ख) सीमित साधन- साझेदारों की संख्या सीमित होती है इसलिए बड़े पैमाने के व्यावसायिक कार्यों के लिए उनके द्वारा लगाई गई पूँजी अपर्याप्त रहती है। परिणामस्वरूप, साझेदारी फर्म एक निश्चित आकार से अधिक विस्तार नहीं कर पाती।
(ग) परस्पर विरोध की संभावना- साझेदारी का संचालन व्यक्तियों का एक समूह करता है जिनमें निर्णय लेने के अधिकार को बाँटा जाता है। कुछ मामलों में यदि मतभेद है तो इससे साझेदारों के बीच विवाद पैदा हो सकता है। इसी प्रकार से एक साझेदार के निर्णय से दूसरे साझेदार आबद्ध हो जाते हैं। इस प्रकार से किसी एक का अनुचित निर्णय दूसरों के लिए वित्तीय बर्बादी का कारण बन सकता है। कोई साझेदार यदि फर्म को छोड़ना चाहता है तो उसे साझेदारी को समाप्त करना होगा क्योंकि वह स्वामित्व का हस्तांतरण नहीं कर सकता।
(घ) निरंतरता की कमी- किसी भी एक साझेदार की मृत्यु, अवकाश ग्रहण करने, दिवालिया होने अथवा पागल होने से साझेदारी
“साझेदारी उन लोगों के मध्य संबंध है जिन्होंने किसी व्यवसाय में अपनी संपत्ति, श्रम अथवा निपुणता को मिला लिया है तथा वे आपस में उससे होने वाले लाभ को बाँट रहे हैं।”
भारतीय प्रसंविदा अधिनियम 1872
समाप्त हो जाती है। इसे सभी की सहमति से कभी भी समाप्त किया जा सकता है इसलिए इसमें स्थायित्व एवं निरंतरता नहीं होती।
(ङ) जनसाधारण के विश्वास की कमी- साझेदारी फर्म के लिए इसकी वित्तीय सूचनाओं एवं अन्य संबंधित जानकारी का प्रकाशन अथवा उजागर करना कानूनी रूप से अनिवार्य नहीं है इसलिए जनसाधारण के लिए फर्म की वित्तीय स्थिति को जानना कठिन हो जाता है। इससे जनता का विश्वास भी कम होता है।
2.4.1 साझेदारों के प्रकार
साझेदारी फर्म में विभिन्न प्रकार के साझेदार हो सकते हैं जिनकी अलग-अलग भूमिकाएँ एवं दायित्व होते हैं। इनके अधिकारों एवं उत्तरदायित्वों को भली-भाँति समझने के लिए इनके प्रकारों को समझना महत्वपूर्ण है। इनका वर्णन नीचे किया गया है-
(क) सक्रिय साझेदार — एक सक्रिय साझेदार वह है जो पूँजी लगाता है। फर्म के लेनदारों के प्रति उसका दायित्व असीमित होता है। यह साझेदार अन्य साझेदारों की ओर से व्यवसाय संचालन में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं।
(ख) सुप्त अथवा निष्क्रिय साझेदार — जो साझेदार व्यवस्था के दिन-प्रतिदिन के कार्यों में भाग नहीं लेते हैं, उन्हें सुसुप्त साझेदार कहते हैं। एक निष्क्रिय साझेदार फर्म में पूँजी लगाता है, लाभ-हानि को बाँटता है तथा उसका असीमित दायित्व होता है।
(ग) गुप्त साझेदार — यह वह साझेदार होता है जिसके फर्म से संबंध को साधारण जनता नहीं जानती। इस विशिष्टता को छोड़कर बाकी मामलों में वह अन्य साझेदारों के समान होता है। वह पूँजी लगाता है, प्रबंध में भाग लेता है, लाभ हानि को बाँटता है तथा लेनदारों के प्रति उसका दायित्व असीमित होता है।
(घ) नाममात्र का साझेदार — यह वह साझेदार होता है, जिसके नाम का प्रयोग फर्म करती है लेकिन वह इसमें कोई पूँजी नहीं लगाती है। वह फर्म के प्रबंध में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेता है, न ही लाभ-हानि में भागीदार होता है लेकिन अन्य साझेदारों के समान फर्म के ऋणों के भुगतान के लिए तीसरे पक्षों के प्रति उत्तरदायी होता है।
(ङ) विबंधन साझेदार (एस्टॉपेल) — कोई व्यक्ति विबंधन साझेदार तब माना जाता है, जब वह अपनी पहल, आचरण अथवा व्यवहार से दूसरों को यह आभास कराता है कि वह किसी फर्म का साझेदार है। ऐसे साझेदार फर्म के ऋणों के भुगतान के लिए उत्तरदायी होते हैं क्योंकि अन्य पक्षों की दृष्टि में वे साझेदार होते हैं। भले ही वे इसमें पूँजी नहीं लगाते हैं और न ही इसके प्रबंध में भाग लेते हैं। उदाहरण के लिए, सीमा की एक मित्र है रानी, जोकि एक सॉफ़्टवेयर फर्म ‘सिम्पलैक्स सोल्यूशन’ में साझेदार है। रानी, सीमा के साथ ‘मोहन सॉफ़्टवेयर’ में व्यवसाय के सिलसिले में आयोजित एक बैठक में भाग लेने जाती है तथा
एक सौदे को तय करने की कार्यवाही में सक्रिय रूप से भाग लेती है। रानी ऐसा आभास दिलाती है कि मानो वह ‘सिम्पलैक्स सोल्यूशन’ में एक साझेदार है। यदि इस बातचीत के आधार पर ‘सिम्पलैक्स सोल्यूशन’ को उधार की सुविधा दी जाती है तो रानी भी इस देनदारी के भुगतान के लिए ठीक उसी प्रकार उत्तरदायी होगी जैसे वह भी फर्म में एक साझेदार हो।
(च) प्रतिनिधि साझेदार (होल्डिंग आउट) — यह वह व्यक्ति होता है जो जान-बूझकर फर्म में अपने नाम को प्रयोग करने देता है अथवा अपने आपको इसका प्रतिनिधि मानने देता है। ऐसा व्यक्ति किसी भी उस ऋण के लिए उत्तरदायी होगा जो उसके ऐसे प्रतिनिधित्व के कारण दिए गए हैं। यदि वह वास्तव में साझेदार नहीं है तथा इस उत्तरदायित्व से मुक्त होना चाहता है तो उसे तुरंत इसे नकारना होगा तथा उसे अपनी स्थिति स्पष्ट कर यह बताना होगा कि वह साझेदार नहीं है। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह इस आधार पर हुई किसी भी प्रकार की हानि के लिए तीसरे पक्ष के प्रति उत्तरदायी होगा।
2.4.2 साझेदारी के प्रकार
साझेदारी को दो घटकों के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है- अवधि एवं देयता।
अवधि के आधार पर साझेदारी दो प्रकार की हो सकती है-
(i) ऐच्छिक साझेदारी; एवं
(ii) विशिष्ट साझेदारी।
देयता के आधार पर भी साझेदारी दो प्रकार की होती है-
(i) सीमित दायित्व वाली; एवं
(ii) असीमित दायित्व वाली। इनका वर्णन आगे के खंडों में किया गया है।
अवधि के आधार पर वर्गीकरण
(क) ऐच्छिक साझेदारी — इस प्रकार की साझेदारी की रचना साझेदारों की इच्छा से होती है। यह उस समय तक चलती है जब तक कि अलग होने का नोटिस नहीं दिया जाता। किसी भी साझेदार द्वारा नोटिस देने पर यह समाप्त हो जाती है।
(ख) विशिष्ट साझेदारी — साझेदारी की रचना यदि किसी विशिष्ट परियोजनाएँ, जैसेकिसी भवन के निर्माण या कोई कार्य या फिर एक निश्चित अवधि के लिए की जाती है, तो इसे विशिष्ट साझेदारी कहते हैं। जिस उद्देश्य के लिए इसकी रचना की गई है उसके पूरा होने पर अथवा अवधि की समाप्ति पर यह समाप्त हो जाती है।
देयता के आधार पर वर्गीकरण
(क) सामान्य साझेदारी— सामान्य साझेदारी में साझेदारों का दायित्व असीमित एवं संयुक्त होता है। साझेदारों को प्रबंध में भाग लेने का अधिकार होता है तथा उनके कृत्यों से अन्य साझेदार तथा फर्म आबद्ध हो जाते हैं। ऐसे फर्म का पंजीयन ऐच्छिक होता है। फर्म का अस्तित्व साझेदारों की मृत्यु, पागलपन एवं अवकाश ग्रहण करने से प्रभावित होता है।
(ख) सीमित साझेदारी— सीमित साझेदारी में कम से कम एक साझेदार का दायित्व असीमित होता है तथा शेष साझेदारों का सीमित। ऐसी साझेदारी सीमित दायित्व वाले साझेदारों की मृत्यु, पागलपन अथवा दिवालिया होने से समाप्त नहीं होता है। सीमित दायित्व वाले साझेदार प्रबंध में भाग नहीं ले सकते तथा उनके कार्यों से न तो फर्म और न ही दूसरे साझेदार आबद्ध होते हैं। ऐसी साझेदारी का पंजीयन अनिवार्य है।
इस प्रकार की साझेदारी की पहले भारत में अनुमति नहीं थी। सीमित दायित्व वाले साझेदारी की अनुमति 1991 नवीन लघु उद्योग नीति लागू करने के पश्चात् दी गई। यह कदम छोटे पैमाने के उद्यमियों के मित्र एवं संबंधियों से समता पूँजी प्राप्त करने के लिए उठाया गया क्योंकि अन्यथा ये लोग साझेदारी फर्म में असीमित दायित्व की धारा के कारण सहायता करने से पीछे हटते थे।
2.4.3 साझेदारी संलेख
साझेदारी उन लोगों का ऐच्छिक संगठन है, जो समान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एकजुट होते हैं। साझेदारी बनाने के लिए सभी शर्तें एवं साझेदारों से संबंधित सभी पहलुओं के संबंध में स्पष्ट समझौता आवश्यक है। ताकि बाद में साझेदारों में किसी प्रकार की गलतफहमी नहीं हो। यह समझौता मौखिक अथवा लिखित हो सकता है। लिखित समझौते का होना आवश्यक नहीं है, लेकिन अच्छा यही रहता है कि समझौता लिखित ही हो, क्योंकि यह निर्धारित शर्तों का प्रमाण है। लिखित समझौता जो साझेदारी को शासित करने के लिए शर्तों व परिस्थितियों का उल्लेख करता है साझेदारी संलेख कहलाता है। साझेदारी संलेख में सामान्यत: निम्न पहलू शामिल होते हैं-
- फर्म का नाम;
- व्यवसाय की प्रकृति एवं स्थान जहाँ वह स्थित है
- व्यवसाय की अवधि;
- प्रत्येक साझेदार द्वारा किया गया निवेश;
- लाभ-हानि का बंटवारा;
- साझेदारों के कर्तव्य एवं दायित्व;
- साझेदारों का वेतन एवं आहरण;
- साझेदार के प्रवेश, अवकाश ग्रहण एवं हटाए जाने से संबंधित शर्तें;
- पूँजी एवं आहरण पर ब्याज;
- फर्म के समापन की प्रक्रिया;
- खातों को तैयार करना एवं उसका अंकेक्षण;
- विवादों के समाधान की पद्धति।
2.4.4 पंजीकरण
साझेदारी फर्म के पंजीकरण का अर्थ है फर्म के पंजीयन अधिकारी के पास रहने वाले फर्मों के रजिस्टर में फर्म का नाम तथा संबंधित विवरण की प्रविष्टि करना। यह फर्म की उपस्थिति का पक्का प्रमाण होता है।
सारणी 2.1 साझेदारों के प्रकार का तुलनात्मक विश्लेषण
प्रकार | पूँजी का योगदान | प्रबंध | लाभ/हानि में हिस्सा | देनदारी |
---|---|---|---|---|
सक्रिय साझेदार | पूँजी लगाता है | प्रबंध में भागीदार है | लाभ/हानि मे भागीदार है |
असीमित दायित्व है |
सुप्त अथवा निष्क्रिय साझेदार |
पूँजी लगाता है | प्रबंध में भाग लेता है |
लाभ/हानि को बाँटता है |
असीमित दायित्व है |
गुप्त साझेदार | पूँजी लगाता है | प्रबंध में भाग लेता है पर गुप्त रूप से |
लाभ-हानि बाँटता है | असीमित दायित्व है |
नाम मात्र का साझेदार |
पूँजी नहीं लगाता है | प्रबंध में भाग नहीं लेता है |
साधारणतया लाभ/ हानि में भागीदार नहीं होता है |
असीमित दायित्व है |
विबंधन साझेदार | पूँजी नहीं लगाता है | प्रबंध में भाग नहीं लेता है |
लाभ/हानि में भागीदार नहीं होता है |
असीमित दायित्व है |
प्रतिनिधि साझेदार |
पूँजी नहीं लगाता है | प्रबंध में भाग नहीं लेता है |
लाभ-हानि में भागीदार नहीं होता है |
असीमित दायित्व है |
फर्म को पंजीकृत कराना ऐच्छिक होता है। परंतु जिस फर्म का पंजीयन नहीं हुआ है, वह कई लाभों से वंचित रह जाती है। फर्म का पंजीयन न कराने के निम्नलिखित परिणाम हो सकते हैं-
(अ) एक अपंजीकृत फर्म का साझेदार अपने फर्म अथवा अन्य साझेदारों की विरुद्ध मुकदमा दायर नहीं कर सकता;
(ब) फर्म अन्य पक्षों के विरुद्ध मुकदमा नहीं चला सकती; तथा
(स) फर्म साझेदारों के विरुद्ध मुकदमा नहीं चला सकती।
अत: हम कह सकते हैं कि फर्म का पंजीयन यद्यपि अनिवार्य नहीं है फिर भी पंजीयन कराना ही उचित रहता है। भारतीय साझेदारी अधिनियम 1932 के अनुसार किसी फर्म की साझेदार फर्म को उस राज्य के रजिस्ट्रार के पास पंजीकरण करा सकती है जिस राज्य में वह स्थित है।
एकफर्म के पंजीयन की प्रक्रिया निम्नलिखित है-
(1) फर्मों के रजिस्ट्रार, के पास निर्धारित प्रपत्र (फॉर्म) के रूप में आवेदन करना। इस आवेदन में निम्न विवरण दिया जाता है-
- फर्म का नाम;
- वह स्थान जहाँफर्म स्थित है तथा वह स्थान जहाँ फर्म अपना व्यवसाय कर रही है;
- प्रत्येक साझेदार के फर्म में प्रवेश की तिथि;
- साझेदारों के नाम एवं पते; एवं
- साझेदारी की अवधि।
(2) इस आवेदन पर सभी साझेदारों के हस्ताक्षर होते हैं। फर्मों के रजिस्ट्रार के पास आवश्यक फीस जमा कराना।
(3) स्वीकृति के पश्चात् रजिस्ट्रार फर्मों के रजिस्टर में प्रविष्टि कर देगा तथा तत्पश्चात् पंजीयन प्रमाण पत्र जारी कर देगा।
2.5 सहकारी संगठन
सहकारी शब्द का अर्थ है किसी साझे उद्देश्य के लिए एक साथ मिलकर काम करना।
सहकारी समिति उन लोगों का स्वैच्छिक संगठन है, जो सदस्यों के कल्याण के लिए एकजुट हुए हैं। अधिक लाभ के लालची मध्यस्थों के हाथों संभावित शोषण को ध्यान में रखते हुए वे अपने आर्थिक हितों की रक्षा से प्रेरित होते हैं।
एक सहकारी समिति का सहकारी समिति अधिनियम 1912 के अंतर्गत पंजीकरण अनिवार्य है। इसकी प्रक्रिया सरल है एवं समिति का गठन करने के लिए कम से कम दस बालिग सदस्यों की स्वीकृति की आवश्यकता होती है। समिति की पूँजी को अंशों का निर्गमन कर इसके सदस्यों से जुटाया जाता है। पंजीकरण के पश्चात् समिति एक स्वतंत्र वैधानिक अस्तित्व प्राप्त कर लेती है।
लक्षण
सहकारी समिति की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(क) स्वैच्छिक सदस्यता - सहकारी समिति की सदस्यता ऐच्छिक होती है। कोई भी व्यक्ति किसी सहकारी समिति में स्वेच्छा से सम्मिलित हो सकता है अथवा उसे छोड़ सकता है। किसी समिति में सम्मिलित होने अथवा उसे छोड़ने के लिए वह बाध्य नहीं होता। यद्यपि छोड़ने से पहले उसे एक नोटिस देना पड़ता है, लेकिन सदस्य बने रहने के लिए वह बाध्य नहीं होता है। इसकी सदस्यता खुली होती है तथा किसी भी धर्म, जाति अथवा लिंग भेद का कोई भी व्यक्ति इसका सदस्य बन सकता है।
(ख) वैधानिक स्थिति - सहकारी समिति का पंजीकरण अनिवार्य है, इससे समिति को अपने सदस्यों से अलग पृथक अस्तित्व प्राप्त हो जाता है। समिति अनुबंध कर सकती है एवं अपने नाम में परिसंपत्ति रख सकती है। दूसरों पर मुकदमा कर सकती है तथा दूसरे इस पर मुकदमा कर सकते हैं। इसके पृथक वैधानिक अस्तित्व के कारण सदस्यों के इसमें प्रवेश अथवा इसको छोड़ कर जाने का इस पर प्रभाव नहीं पड़ता।
(ग) सीमित दायित्व - एक सहकारी समिति के सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा लगायी पूँजी की राशि तक सीमित रहता है। किसी भी सदस्य के लिए यहराशि अधिकतम जोखिम कीसीमा है।
(घ) नियंत्रण - किसी भी सहकारी समिति में निर्णय लेने की शक्ति उसकी निर्वाचित प्रबंध कमेटी के हाथों में होती है। सदस्यों के पास वोट का अधिकार होता है, जिससे उन्हें प्रबंध समिति के सदस्यों को चुनने का अवसर मिलता है तथा सहकारी समिति का स्वरूप प्रजातांत्रिक बनता है।
नाबालिग साझेदार
साझेदारी दो लोगों के बीच कानूनी अनुबंध पर आधारित होती है, जो उनके द्वारा संचालित व्यापार के लाभ-हानि को बाँटने का समझौता करते हैं, क्योंकि एक नाबालिग किसी के साथ अनुबंध नहीं कर सकता, इसलिए वह किसी फर्म में साझेदार नहीं बन सकता। फिर भी किसी नाबालिग को सभी अन्य साझेदारों की सहमति से फर्म के लाभों में भागीदार बनाया जा सकता है। ऐसे में उसका दायित्व फर्म में लगाई गई, उसकी पूँजी तक सीमित होगा। वह फर्म के प्रबंध में भाग नहीं ले सकेगा। अत: एक नाबालिग केवल लाभ में भागीदार होगा तथा वह हानि को वहन नहीं करेगा। हाँ, यदि वह चाहे तो फर्म के खातों को देख सकता है। नाबालिग की स्थिति उसके बालिग हो जाने पर बदल जाती है। वास्तव में बालिग हो जाने पर नाबालिग को यह निर्णय लेना होगा कि क्या वह फर्म में साझेदार बने रहना चाहता है। छः माह के अन्दर उसे अपने निर्णय का सार्वजनिक नोटिस देना होगा। यदि वह ऐसा करने मे असमर्थ रहता है, तो उसे पूर्णरूपेण साझेदार माना जाएगा तथा अन्य सक्रिय साझेदारों के समान ही फर्म की देनदारी के लिए उसका दायित्व भी असीमित होगा।
(ड·) सेवा भावना - सहकारी समिति के उद्देश्य पारस्परिक सहायता एवं कल्याण के मूल्यों पर अधिक ज़ोर देते हैं। इसलिए इसके कार्यों में सेवाभाव प्रधान रहता है। अगर सहकारी समिति को आधिक्य की प्राप्ति होती है, तो इसे समिति के उपनियमों के अनुरूप सदस्यों में लाभांश के रूप में बाँट दिया जाता है।
गुण
सहकारी समिति के सदस्यों को अनेक लाभ होते हैं। सहकारी समिति के कुछ लाभ नीचे दिए जा रहे हैं।
(क) वोट की समानता - सहकारी समिति एक व्यक्ति एक वोट के सिद्धांत से शासित होती है। सदस्यों द्वारा लगायी गयी पूँजी की राशि से प्रभावित हुए बिना प्रत्येक सदस्य को वोट का समान अधिकार प्राप्त है।
(ख) सीमित दायित्व - सहकारी समिति के सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा लगायी गयी पूँजी तक सीमित होता है। उनकी निजी संपत्तियों को व्यवसाय के ऋणों को चुकाने के लिए उपयोग में नहीं लाया जा सकता।
(ग) स्थायित्व - सदस्यों की मृत्यु, दिवालिया होना अथवा पागलपन सहकारी समिति की निरंतरता को प्रभावित नहीं करता है। समिति इसीलिए सदस्यता में आए परिवर्तन से प्रभावित हुए बिना कार्य करती रहती है।
(घ) मितव्ययी प्रचालन - सदस्य समिति को साधारणतया अवैतनिक सेवाएँ देते हैं। क्योंकि ध्यान मध्यस्थ की समाप्ति पर ही केंद्रित होता है, इससे लागत में कमी आती है। अधिकांश ग्राहक समिति के सदस्य ही होते हैं। इसलिए डूबते ऋणों का जोखिम बहुत कम होता है।
(ङ) सरकारी सहायता - सहकारी समिति लोकतंत्र एवं धर्मनिर्पेक्षता का उदाहरण है। इसलिए इनको कम टैक्स, अनुदान, नीची ब्याज की दर के ऋण के रूप में सरकार से सहायता मिलती है।
(च) सरल स्थापना - सहकारी समिति कम से कम दस सदस्यों से प्रारंभ की जा सकती है। इसके पंजीकरण की प्रक्रिया सरल है तथा इसमें कानूनी औपचारिकताएँ कम हैं। इसकी स्थापना सहकारी समिति अधिनियम 1912 में दी गई व्यवस्था के अनुसार होती है।
सीमाएँ
सहकारी संगठन की निम्न सीमाएँ हैं-
(क) सीमित संसाधन- सहकारी समिति के संसाधन सदस्यों की पूँजी से बनते हैं, जिनके साधन सीमित होते हैं। निवेश पर लाभांश की नीची दर के कारण भी अधिक सदस्य नहीं बन पाते।
(ख) अक्षम प्रबंधन- सहकारी समितियाँ ऊँचा वेतन नहीं दे पाती, इसलिए उसको कुशल प्रबंधक नहीं मिल पाते। जो सदस्य स्वेच्छा से अवैतनिक सेवाएँ देते हैं वे साधारणतया पेशेवर योग्यता प्राप्त नहीं होते हैं, अत: वे प्रभावी प्रबंधन नहीं कर पाते।
(ग) गोपनीयता की कमी- सदस्यों की सभा में खुलकर चर्चा होती है तथा समिति अधिनियम की धारा (7) के अनुसार प्रत्येक सहकारी समिति पर प्रगट करने का दायित्व है, इसीलिए समिति प्रचालन के संबंध में गोपनीयता बनाए रखना कठिन होता है।
(घ) सरकारी नियंत्रण- सहकारी समिति को सरकार सुविधाएँ देती है, लेकिन बदले में उसे खातों के अंकेक्षण, खाते जमा करना आदि से संबंधित कई नियमों का पालन करना होता है। सहकारी संगठन के कार्य संचालन पर नियंत्रण के बहाने राज्य सहकारी विभाग का हस्तक्षेप होता है। इससे समिति के प्रचालन की स्वतंत्रता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
(ङ) विचारों कीभिन्नता- परस्पर विरोधी विचारों के कारण आंतरिक कलह उत्पन्न हो सकती है, जिससे निर्णय लेने में कठिनाई उत्पन्न होती है। कल्याण के प्रयोजन पर व्यक्तिगत स्वार्थ हावी हो सकते हैं। यदि कुछ सदस्य व्यक्तिगत लाभ को प्राथमिकता दें, तो अन्य सदस्य का हित पीछे छूट सकता है।
प्राइस वॉटर हाउस कूपर्स पूर्व में एक साझेदारी फर्म थी
आज अनेक कंपनियों का उद्गम साझेदारी है। विश्व की शीर्ष लेखांकन फर्म। प्राइस वॉटर हाउस कूपर्स को 1998 में प्राइस वॉटर हाउस एवं कूपर्स एंड लैब्रेंड दो कंपनियों को मिलाकर बनाया गया था। प्रत्येक का इतिहास 150 वर्ष पुराना है तथा 1900 शताब्दी में ग्रेट ब्रिटेन से जुड़ा है। 1850 में सैमुअल लोवैल प्राइस ने लंदन में लेखांकन व्यवसाय स्थापित किया। 1865 में विलियम एच. होलीलैंड एवं एडविन वॉटरहाउस के साथ मिलकर उसने साझेदारी फर्म बनाई। जैसे-जैसे फर्म बढ़ी पेशेवर कर्मचारियों में से आवश्यक योग्यता प्राप्त लोगों को साझेदारी में सम्मिलित कर लिया गया। 1980 के अंत तक प्राइस वॉटर हाउस एक महत्वपूर्ण लेखांकन फर्म बन चुकी थी। (स्त्रोत— कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्राइस वॉटर हाउस कॉरपरेटर के अभिलेख)
2.5.1 सहकारी समितियों के प्रकार
प्रचालन की प्रकृति के आधार पर सहकारी समितियाँ कई प्रकार की होती हैं, जिनका वर्णन नीचे किया गया है-
(क) उपभोक्ता सहकारी समितियाँ- उपभोक्ता सहकारी समितियों का गठन उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए किया जाता है। इसके सदस्य वे उपभोक्ता होते हैं, जो बढ़िया गुणवत्ता वाली वस्तुएँ उचित मूल्य पर प्राप्त करना चाहते हैं। ऐसी समिति का उद्देश्य मध्यस्थ को समाप्त करना होता है ताकि प्रचालन मितव्ययी हो। समिति थोक विक्रेता से वस्तुओं को सीधे बड़ी मात्रा में क्रय करती है तथा उन्हें अपने सदस्यों को बेच देती है। इस प्रकार बिचौलिए खत्म हो जाते हैं। यदि कुछ लाभ होता है तो वह सदस्यों के द्वारा क्रय के आधार पर बाँट दिया जाता है।
(ख) उत्पादक सहकारी समितियाँ- इन समितियों की स्थापना छोटे उत्पादकों के हितों की रक्षा के लिए की जाती है। इसके सदस्य वे उत्पादक होते हैं, जो उपभोक्ताओं की माँग को पूरा करने के लिए वस्तुओं के उत्पादन हेतु आगत जुटाते हैं। समिति का उद्देश्य बड़े पूँजीपतियों के विरुद्ध खड़े होना तथा छोटे उत्पादकों की सौदा करने की शक्ति को बढ़ाना है। यह सदस्यों को कच्चा माल, उपकरण एवं अन्य आगतों की आपूर्ति करती हैं तथा बिक्री के लिए उनके उत्पादों को भी खरीदती हैं। प्रचालन की प्रकृति के अनुसार लाभ को सदस्यों में उनके द्वारा उत्पादित अथवा विक्रय किए गए माल के आधार पर बाँट दिया जाता है।
(ग) विपणन सहकारी समितियाँ- विपणन समितियों का गठन छोटे उत्पादकों को उनके उत्पादों को बेचने में सहायता के लिए किया जाता है। इसके सदस्य वे उत्पादक होते हैं, जो अपने उत्पादों के उचित मूल्य वसूलना चाहते हैं। समिति का लक्ष्य मध्यस्थों को समाप्त करना तथा उत्पादों के लिए अनुकूल बाजजार सुरक्षित कर सदस्यों की प्रतियोगी स्थिति में सुधार
“सहकारिता संगठन का वह स्वरूप है, जिनमें कुछ लोग मानवीयता एवं समानता के आधार पर अपने आर्थिक हितों के प्रोत्साहन हेतु स्वेच्छा से संगठित होते हैं।”,
ई. एच. कैलवर्ट“सहकारिता संगठन एक समिति है, जिसका उद्देश्य सहकारिता के सिद्धांतों के अनुसार अपने सदस्यों के आर्थिक हितों को प्रोतसाहित करना है।”,
भारतीय सहकारिता अधिनियम - 1912
करना है। समिति प्रत्येक सदस्य के उत्पाद को एकत्रित करती है तथा उन्हें सर्वोत्तम मूल्य पर बेचने के लिए परिवहन, भंडारण, पैकेजिंग आदि विपणन कार्यों को करती है। लाभ को उत्पाद संघ के सदस्यों को योगदान के अनुपात में बाँट दिया जाता है।
(घ) किसान सहकारी समितियाँ- इन समितियों का गठन किसानों को उचित मूल्य पर आगत उपलब्ध कराकर उनके हितों की रक्षा के लिए किया जाता है। इसके सदस्य वे किसान होते हैं, जो मिलकर कृषि कार्यों को करना चाहते हैं। समिति का उद्देश्य बड़े पैमाने पर कृषि का लाभ उठाना एवं उत्पादकता को बढ़ाना है। ऐसी समितियाँ, फसलों के उगाने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले बीज, खाद, मशीनरी एवं अन्य आधुनिक तकनीक उपलब्ध कराती हैं। इससे न केवल किसानों की पैदावार तथा आय बढ़ती है बल्कि इससे खंडित भू-जोतों से संबंधित समस्याओं को हल करने में सहायता मिलती है।
(ङ) सहकारी ऋण समितियाँ- सहकारी ऋण समितियों की स्थापना सदस्यों को आसान शर्तों पर सरलता से कर्ज़ उपलब्ध कराने के लिए की जाती है। इसके सदस्य वे व्यक्ति होते हैं, जो ऋणों के रूप में वित्तीय सहायता चाहते हैं। ऐसी समितियों का लक्ष्य सदस्यों को साहूकारों के शोषण से संरक्षण प्रदान करना है जो ऋणों पर ऊँची दर से ब्याज लेते हैं। ऐसी समितियाँ अपने सदस्यों को सदस्यों से एकत्रित की गई पूँजी एवं उनकी जमा में से नीची दर पर ऋण देते हैं।
(च) सहकारी आवास समितियाँ- सहकारी आवास समितियों की स्थापना सीमित आय के लोगों को उचित लागत पर मकान बनाने में सहायता के लिए की जाती है। इसके सदस्य वे व्यक्ति होते हैं जो उचित मूल्य पर रहने का स्थान प्राप्त करने के इच्छुक हैं। इसका उद्देश्य सदस्यों की आवासीय समस्याओं का समाधान करना है। इसके लिए वह मकान बनाती है तथा किश्तों में भुगतान की सुविधा भी देती है। ये समितियाँ फ्लैट बनाती हैं या फिर सदस्यों को प्लॉट/जमीन देती हैं जिस पर वे स्वंय अपनी पसंद से भवन बना सकते हैं।
2.6 संयुक्त पूँजी कंपनी
कंपनी कुछ लोगों का एक ऐसा संघ है, जिसका गठन किसी व्यवसाय को चलाने के लिए किया गया हो तथा जिसका अपने सदस्यों से हटकर वैधानिक अस्तित्व हो| कंपनी संगठन कंपनी अधिनियम 1956 द्वारा शासित होते हैं। कंपनी एक कृत्रिम व्यक्तित्व वाली संस्था है, जिसका अलग से एक वैधानिक अस्तित्व, शाश्वत उत्तराधिकार एवं सार्वमुद्रण है। कंपनी संगठन ‘कंपनी अधिनियम 2013’ द्वारा शासित होते हैं। कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 2(20) के अंतर्गत दी गई परिभाषा के अनुसार कंपनी से आशय उन कंपनियों से है जिनका समामेलन कंपनी अधिनियम 2013 में या इससे पूर्व किसी कंपनी अधिनियम के अंतर्गत हुआ है।
अंशधारक कंपनी के स्वामी होते हैं, जबकि निदेशक मंडल प्रमुख प्रबंधकर्ता जिन्हें अंशधारक चुनते हैं। साधारणतया कंपनी के स्वामियों का व्यवसाय पर परोक्ष रूप से नियंत्रण होता है। कंपनी की पूँजी छोटे-छोटे भागों में विभक्त होती है। जिन्हें अंश/शेयर कहते हैं जिन्हें एक अंशधारक किसी दूसरे व्यक्ति को स्वतंत्रता पूर्वक हस्तांतरित कर सकता है (निजी कंपनी में नहीं)।
लक्षण
संयुक्त पूँजी कंपनी की परिभाषा उसके लक्षण स्पष्ट कर देती है। ये हैं-
(क) कृत्रिम व्यक्ति— कंपनी की रचना कानून द्वारा होती है तथा इसका अपने सदस्यों से अलग स्वतंत्र अस्तित्व होता है। एक प्राकृतिक व्यक्ति के समान कंपनी अपनी संपत्ति रख सकती है, ऋण ले सकती है, उधार ले सकती है, अनुबंध कर सकती है, दूसरों पर मुकदमा कर सकती है; दूसरे इस पर मुकदमा कर सकते हैं; लेकिन व्यक्तियों के समान यह सांस नहीं ले सकती, खा नहीं सकती, दौड़ नहीं सकती, बात नहीं कर सकती, इसलिए इसे कृत्रिम व्यक्ति कहा जाता है।
(ख) पृथक वैधानिक अस्तित्व- समामेलन के दिन से ही कंपनी को एक अलग पहचान मिल जाती है, जो इसके सदस्यों से पृथक होती है। इसकी परिसंपत्तियाँ एवं इसकी देयताएं इसके स्वामियों की परिसंपत्तियों एवं देयताओं से पृथक होती हैं। कानून, व्यवसाय एवं इसके स्वामियों को एक नहीं मानता।
(ग) स्थापना- कंपनी की स्थापना अधिक समय लेने वाली, खर्चीली एवं जटिल प्रक्रिया है। इसके कार्य प्रारंभ से पहले कई प्रलेख तैयार करना तथा कई कानूनी आवश्यकताओं का पालन करना होता है। कंपनियों का समामेलन कंपनी अधिनियम 2013 अथवा किसी पूर्व
सारणी 2.2 फॉर्च्यून ग्लोबल संगठनों के संघ में शामिल भारतीय कंपनियाँ
भारत में वरीयता कंपनी |
भूमंडलीय श्रेणीक्रम |
भारत में श्रेणीक्रम |
आगम (करोड़ में) |
वेबसाइट |
---|---|---|---|---|
रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड |
106 | 1 | 580553 | $\text{www.ril.com}$ |
इंडियन ऑयल कॉपोरेशन लिमिटेड |
117 | 2 | 535793.18 | $\text{www.iocl.com}$ |
ONGC | 160 | 3 | 446057.04 | $\text{www.bharatpetroleum.com}$ |
भारतीय स्टेट बैंक | 236 | 4 | 330687.36 | $\text{www.sbi.co.in}$ |
टाटा मोटर्स लिमिटेड | 265 | 5 | 303227.41 | $\text{www.tatamotors.com}$ |
कंपनी अधिनियम में होना अनिवार्य है। वे सभी कंपनियाँ जिनका समामेलन कंपनी अधिनियम, 1956 अथवा उससे पूर्व के कंपनी अधिनियम के अंतर्गत हुआ है, उन्हें किसी भी कंपनियों की सूची में सम्मिलित किया जाएगा।
(घ) शाश्वत उत्तराधिकार- कंपनी की रचना कानून द्वारा होती है तथा कानून ही इसका अंत कर सकता है। इसके अस्तित्व का अंत केवल तभी होगा जबकि इसको बंद करने की प्रक्रिया जिसे समापन कहते हैं, पूरी हो जाएगी। सदस्य आते रहेंगें और जाते रहेंगें लेकिन इसका अस्तित्व बना रहेगा।
(ङ) नियंत्रण- कंपनी के मामलों का प्रबंध एवं नियंत्रण निदेशक मंडल करता है, जो कंपनी के व्यवसाय को चलाने के लिए उच्च प्रबंध अधिकारियों की नियुक्ति करता है। निदेशकों की स्थिति अत्यधिक महत्व की होती है, क्योंकि कंपनी के कार्यों के लिए वे अंशधारकों के प्रति सीधे उत्तरदायी होते हैं। वैसे अंशधारियों को व्यवसाय के दिन-प्रतिदिन के संचालन में भाग लेने का अधिकार नहीं है।
(च) दायित्व- हानि होने की स्थिति में सदस्यों का दायित्व कंपनी में उनके द्वारा लगाई पूँजी तक सीमित होता है। लेनदार अपने दावों का निवारण करने के लिए केवल कंपनी की परिसंपत्तियों का ही उपयोग कर सकते हैं, क्योंकि ऋण का भार कंपनी पर है न कि इसके सदस्यों पर। सदस्यों से हानि में योगदान के लिए उनके हिस्से की अदत्त राशि तक के ही लिया जा सकता है उदाहरण के लिए अक्षय किसी कंपनी का अंशधारी है। उसके पास 10 रु. के 2,000 अंश है जिनपर उसने 7 रु. का भुगतान कर दिया है। यदि कंपनी को हानि होती है तो उसकी देनदारी 6,000 रु. की होगी जो कि 2,000 अंशों पर 3 रु. प्रति अंश से अदत्त राशि है। कंपनी की इससे और अधिक हानि के लिए वह उत्तरदायी नहीं होगा।
(छ) सार्वमुद्रण- कंपनी कृत्रिम व्यक्ति होने के कारण अपने नाम के हस्ताक्षर नहीं कर सकती। इसलिए प्रत्येक कंपनी को एक सर्वमुद्रा का प्रयोग आवश्यक है जो कि अधिकारित रूप से कंपनी के लिए हस्ताक्षर करती है। कोई दस्तावेज़ यदि उस पर कंपनी की सर्वमुद्रा नहीं है तो कंपनी उसके लिए बाध्य नहीं होगी।
(ज) जोखिम उठाना - कंपनी में हानि के जोखिम को सभी अंशधारक वहन करते हैं न कि एक या कुछ व्यक्ति जैसा एकल स्वामित्व अथवा साझेदारी में होता है। वित्तीय कठिनाई के समय सभी अंशधारकों को कंपनी की पूँजी में अपने-अपने हिस्से की सीमा तक ऋण में योगदान देना होता है। अत: हानि की जोखिम को बड़ी संख्या में अंश धारकों में बाँट दिया जाता है।
गुण
कंपनी के अनेक लाभ हैं जिनमें से कुछ की चर्चा नीचे की गई है-
(क) सीमित दायित्व- अंशधारक अपने अंशों की अदत्त राशि की सीमा तक उत्तरदायी होते हैं तथा ऋणों के निपटान के लिए कंपनी की परिसंपत्तियों का ही उपयोग किया जा सकता है। स्वामी की निजी संपत्ति हर प्रकार के प्रभार से मुक्त रहती है। इससे निवेशक का जोखिम कम हो जाता है।
(ख) हितों का हस्तांतरण- स्वामित्व के हस्तांतरण में सरलता कंपनी में निवेश का अतिरिक्त लाभ है, क्योंकि एक सार्वजनिक कंपनी के अंशों को बाज़ार में बेचा जा सकता है तथा आवश्यकता पड़ने पर इन्हें आसानी से रोकड़ में बदला जा सकता है। इससे निवेश में बाधा नहीं आती तथा निवेश की दृष्टि से कंपनी एक आकर्षक माध्यम बन जाता है।
(ग) स्थायी अस्तित्व- कंपनी का अपने सदस्यों से पृथक अस्तित्व होता है तथा इस पर उनकी मृत्यु, अवकाश ग्रहण, त्याग-पत्र, दिवालिया होना एवं पागलपन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कंपनी के सभी सदस्यों की मृत्यु पर भी कंपनी
अमूल का अद्भुत सहकारिता उपक्रम
अमूल प्रतिदिन 3.6 लाख किसानों से (जिनमें अनेकों अनपढ़ हैं) $4,00,000$ से $5,00,000$ लीटर दूध इकट्टा करता है।
इसकी शुरूआत दिसंबर 1946 में किसानों के समूह द्वारा की गई जो स्वयं को मध्यस्थों के चंगुल से मुक्त कराना चाहते थे, बाजार में सीधी पहुँच द्वारा अपने परिश्रम का पूरा लाभ सुनिश्चित करना चाहते थे। आनंद नामक गाँव में स्थित केयरा जिला दूध सहकारिता संघ (जो अब अमूल के नाम से प्रसिद्ध है) ने चमत्कारिक विस्तार किया। इसने अन्य दूध सहकारी समितियों को मिलाया तथा गुजरात में फैला इनका जाल, अब 21.2 लाख किसान, 10,411 ग्राम स्तर के दूध एकत्रण केंद्र, 14 जिलास्तर के संयंत्रों को गुजरात सहकारी दुाध उत्पादन संघ की देखरेख में संचालित कर रहा है। अमूल विभिन्न संघों द्वारा उत्पादित विभिन्न प्रकार के दुाध उत्पादों का एक साझा ब्रांड हैं। ये उत्पाद हैं — तरल दूध, पाउडर, मक्खन, घी, पनीर, कोको उत्पाद, मिठाइयाँ, आइसक्रीम एवं गाढ़ा किया गया दूध। अमूल सिर्फ एक ““्रांड” नहीं है, बल्कि किसानों की आर्थिक स्वतंत्रता से जुड़ी एक मुहिम है। (स्त्रोत: पंकज चन्द्रा के लेख पर आधारित। “Rediff.com”, बिजनेस स्पेशल, सितंबर, 2005)
‘पूर्व कंपनी अधिनियम’ से आशय निम्न में से किसी भी एक अधिनियम से है-
1. भारतीय कंपनी अधिनियम, 1866 (1866 का 10) से पूर्व कंपनियों से संबंधित लागू अधिनियम।
2. भारतीय कंपनी अधिनियम, 1866 (1866 का 10)
3. भारतीय कंपनी अधिनियम, 1882 (1882 का 6 )
4. भारतीय कंपनी अधिनियम, 1913 (1913 का 6$)$
5. स्थानांतरित कंपनियाँ पंजीकरण अध्यादेश, 1942 (1942 का अध्यादेश 42)
6. कंपनी अधिनियम, 1956
अस्तित्व में रहती है। इसका समापन कंपनी अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार ही हो सकता है।
(घ) विस्तार की संभावना - संगठन के एकल स्वामित्व और साझेदारी में तुलना करने पर एक कंपनी के पास वित्त के अधिक स्त्रोत हैं। एक कंपनी जनता से धन की व्यवस्था के साथ-साथ बैंक और वित्तिय संस्थानों से ऋण भी ले सकती है। इसमें विस्तार की व्यापक संभावना है। निवेशक का शेयर में पूँजी लगाने की ओर झुकाव रहता है, क्योंकि इसमें सीमित दायित्व, स्वामित्व का हस्तांतरण और अधिक लाभ प्राप्ति की संभावना होती है।
(ङ) पेशेवर प्रबंध - कंपनी, विशेषजों एवं पेशेवर लोगों को ऊँचा वेतन देने में सक्षम होती है इसलिए वह विभिन्न क्षेत्रों में निपुण लोगों को नियुक्त कर सकती है। उसके प्रचालन के पैमाने के विस्तृत होने के कारण कार्य विभाजन भी संभव हो पाता है। प्रत्येक विभाग एक कार्य विशेष को करता है तथा उसका मुखिया एक निपुण प्रबंधक होता है। इससे कंपनी के निर्णय संतुलित होते हैं एवं उसका प्रचालन अधिक कुशल होता है।
सीमाएँ
कंपनी की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं-
(क) निर्माण में जटिल - कंपनी के निर्माण के लिए अधिक समय, प्रयत्न एवं कानूनी आवश्यकताओं एवं निर्माण प्रक्रिया के विस्तृत ज्ञान की आवश्यकता होती है। अतः एकल व्यापारी एवं साझेदारी की तुलना में कंपनी का निर्माण अधिक जटिल होता है।
(ख) गोपनीयता की कमी - कंपनी अधिनियम के अनुसार एक सार्वजनिक कंपनी को समय-समय पर कंपनी रजिस्ट्रार के कार्यालय में अनेकों सूचनाएँ देनी होती हैं। ये समस्त सूचनाएँ जनसाधारण को उपलब्ध होती हैं। इसीलिए कंपनी प्रचालन के संबंध में पूरी गोपनीयता रखना कठिन होता है।
(ग) अवैयक्तिक कार्य वातावरण - स्वामित्व एवं प्रबंध में पृथकता से एक ऐसा वातावरण बन जाता है जिसमें कंपनी के अधिकारीगण न तो प्रयत्न करते हैं और न ही व्यक्तिगत रूप से रुचि लेते हैं। कंपनी के बड़े आकार के कारण स्वामी एवं उच्च प्रबंधकों के लिए कर्मचारी, ग्राहक एवं लेनदारों से व्यक्तिगत संपर्क रखना कठिन हो जाता है।
(घ) अनेकानेक नियम - कंपनी के कार्य संचालन के संबंध में कई कानूनी प्रावधान एवं बाध्यताएँ हैं। कंपनी पर अंकेक्षण, वोट देने, विवरण जमा करने एवं प्रलेख तैयार करने के संबंध में अनेकों प्रतिबंध होते हैं तथा इसे रजिस्ट्रार, सेबी, कंपनी लॉ बोर्ड जैसी अनेकों संस्थाओं से विभिन्न प्रमाण पत्र लेने होते हैं। इससे कंपनी की प्रचालन संबंधी स्वतंत्रता कम हो जाती है तथा इन औपचारिकताओं में काफी समय, प्रयत्न एवं पैसा लगता है।
(ङ) निर्णय में देरी - कंपनी का प्रबंधलोकतांत्रिक ढंग से निदेशक मंडल के माध्यम से होता है, जिसके बाद प्रबंधन के विभिन्न स्तर उच्च, मध्य एवं निम्न स्तर के प्रबंध आते हैं। विभिन्न प्रस्तावों के संग्रेषण एवं अनुमोदन की प्रक्रिया के कारण न केवल निर्णय लेने में बल्कि उन्हें क्रियान्वित करने में देरी होती है।
(च) अल्पतंत्रीय प्रबंधन - सिद्धांतत: कंपनी एक लोकतांत्रिक संस्था है, जिसमें निदेशक मंडल स्वामियों यानि कि अंशधारकों के प्रतिनिधि होते हैं परंतु व्यवहार में अधिकांश बड़े आकार के संगठनों में, जिनमें बड़ी संख्या में अंशधारी होते हैं, स्वामियों का कंपनी के नियंत्रण एवं उसके संचालन में बहुत कम हाथ होता है। क्योंकि अशंधारी पूरे देश में फैले होते हैं तथा उनका बहुत कम प्रतिशत साधारण सभा में उपस्थित होता है। परिणामस्वरूप निदेशक मंडल को अपने अधिकारों को प्रयोग करने की पूरी आज़ादी मिल जाती है तथा कभी-कभी वह अंशधारकों के हितों के विरुद्ध भी इसका उपयोग करते हैं। साधारणतया एक अंशधारक जो प्रबंध से संतुष्ट नहीं हैं के समक्ष अपने अंशों को बेच देने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता, क्योंकि निदेशकों को सभी प्रमुख निर्णयों को लेने का अधिकार होता है इसलिए कंपनी का शासन कुछ लोगों के हाथ में ही होता है।
(छ) हितों का टकराव - कंपनी के विभिन्न अंशधारकों के हितों में टकराव हो सकता है। उदाहरण के लिए कर्मचारियों की रुचि ऊँचे वेतन में होगी, तो उपभोक्ता कम कीमत पर अच्छी गुणवत्ता वाली वस्तु एवं सेवाएँ चाहेंगे, वहीं अंशधारी चाहेंगें कि उन्हें ऊँची दर से लाभांश मिले एवं उनके अंशों का वास्तविक मूल्य बढ़े। इन परस्पर विरोधी हितों को संतुष्ट करना कंपनी के प्रबंधन में अकसर समस्याओं को जन्म देता है।
2.6.1 कंपनियों के प्रकार
कंपनी दो प्रकार की हो सकती है निजी कंपनी एवं सार्वजनिक कंपनी। इनका विस्तार से वर्णन नीचे दिया गया है-
निजी कंपनी
निजी कंपनी से अभिप्राय उस कंपनी से है-
(क) जो अपने सदस्यों पर अंशों के हस्तांतरण पर रोक लगाती है;
(ख) जिसमें वर्तमान एवं भूतपूर्व कर्मचारियों को छोड़ कर न्यूनतम 2 एवं अधिकतम 200 सदस्य होते हैं; और
(ग) जो अंश पूँजी लगाने के लिए जनता को आमंत्रित नहीं करती हैं।
यदि कोई निजी कंपनी ऊपर दिए प्रावधानों में से किसी एक का भी उल्लघंन करती है तो यह निजी कंपनी नहीं रहेगी तथा इसको प्राप्त सभी छूटें एवं सुविधाओं से वंचित हो जाएगी। निजी कंपनी को प्राप्त विशेषाधिकारों से कुछ निम्नलिखित हैं-
(क) एक निजी कंपनी के निर्माण के लिए केवल दो सदस्यों की आवश्यकता होती है, जबकि
सारणी 2.3 निजी कंपनी और सार्वजनिक कंपनी में अंतर
क्र. सं. | आधार | सार्वजनिक कंपनी | निजी कंपनी |
---|---|---|---|
1. | सदस्य | न्यूनतम 7, अधिकतम कोई सीमा नहीं | न्यूनतम 2, अधिकतम 200 |
2. | निदेशकों की न्यूनतम संख्या |
3 | 2 |
3. | सदस्यों की अनुक्रमणिका | अनिवार्य है। | अनिवार्य नहीं है। |
4. | अंशों का हस्तांतरण | हस्तांतरण पर कोई प्रतिबंध नहीं है। | हस्तांतरण पर प्रतिबंध होता है। |
5. | अंशों के क्रय हेतु जनता को आमंत्रण |
अंशों एवं ऋणपत्रों के क्रय हेतु जनता को आमंत्रित कर सकती है। |
अंशों एवं ऋणपत्रों के क्रय के लिए जनता को आमंत्रित नहीं कर सकती। |
सार्वजनिक कंपनी के निर्माण के लिए 7 व्यक्तियों की।
(ख) प्रविवरण पत्र जारी करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि निजी कंपनी के अंशों के अभिदान के लिए जनता को आमंत्रित नहीं किया जाता है।
(ग) न्यूनतम अभिदान की राशि प्राप्त किए बिना भी अंशों का आवंटन किया जा सकता है।
(घ) एक निजी कंपनी समामेलन प्रमाण-पत्र प्राप्त होते ही व्यवसाय प्रारंभ कर सकती है। जबकि सार्वजनिक को व्यवसाय प्रारंभ करने के लिए व्यापार प्रारंभ प्रमाण-पत्र की प्राप्ति तक रुकना होता है।
(ङ) एक निजी कंपनी में दो निदेशक होने चाहिए, जबकि सार्वजनिक कंपनी में कम से कम तीन निदेशकों की आवश्यकता होती है।
(च) निजी कंपनी को सदस्यों की अनुक्रमणिका रखने की आवश्यकता नहीं होती है जबकि सार्वजनिक कंपनी के लिए यह आवश्यक है।
(छ) एक निजी कंपनी में निदेशकों को ऋण देने पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं है। ऋण की स्वीकृति बिना सरकारी अनुमति के दी जा सकती है, जबकि सार्वजनिक कंपनी में इसके लिए सरकार की अनुमति आवश्यक है।
एक निजी कंपनी के लिए अपने नाम के ‘पीछे प्राइवेट लिमिटेड’ शब्द लगाना अनिवार्य है।
सार्वजनिक कंपनी
एक सावर्जनिक कंपनी वह कंपनी है जो निजी कंपनी नहीं है। भारतीय कंपनी अधिनियम के अनुसार एक सार्वजनिक कंपनी वह है-
(अ) जिसमें कम से कम 7 सदस्य हों तथा अधिकतम संख्या की कोई सीमा नहीं है;
(ब) जिसमें अंशों के हस्तांतरण पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
भारत हैवी इलैक्ट्रीक्लस लि. — एक सार्वजनिक कंपनी की गुणवत्ता यात्रा
बी.एच.ई.एल. (भारत हैवी इलैक्ट्रीक्लस लि.) आज भारत की ऊर्जा आधारभूत ढाँचा संबंधी क्षेत्र का सबसे बड़ा इंजीनियरिंग एवं विनिर्माण उद्यम है। बी.एच.ई.एल. की स्थापना 40 वर्ष से अधिक पहले की गई थी। इसकी स्थापना के साथ भारत में देसी भारी विद्युत उपकरण उद्योग ने प्रवेश किया। बी.एच.ई.एल. ने न केवल हमारे स्वप्न को पूरा किया बल्कि उससे कहीं आगे निकला। यह कंपनी 1971-72 से लगातार लाभ कमा रही है तथा 1976-77 से लाभांश दे रही है। बी.एच.ई.एल. 30 मुख्य उत्पाद समूहों के 180 से अधिक उत्पादों का उत्पादन कर रही है तथा भारतीय अर्थव्यवस्था के मूल क्षेत्र, जैसे— बिजली उत्पादन एवं संचारण, उद्योग, परिवहन, दूरसंचार, नवीनीकरण योग्य ऊर्जा आदि की आवश्यकताओं को पूरा कर रही है।
बी.एच.ई.एल. गुणवत्ता प्रबंधन प्रणाली (ISO-9001), पर्यावरण प्रबंध प्रणाली (ISO-14001) एवं पेशेवर स्वास्थ्य एवं सुरक्षा प्रबंध प्रणाली (OHSAS-18001) से प्रमाणित है तथा पूर्ण गुणवत्ता प्रबंध की दिशा में अग्रसर है।
बी.एच.ई.एल. की मुख्य उपलब्धियाँ निम्न हैं-
1. बी.एच.ई.एल. ने सुविधाएँ एवं औद्योगिक उपयोगकर्ताओं के लिए 90,000 से भी अधिक मैगावॉट बिजली के उत्पादन के लिए उपकरण लगाए हैं।
2. 400 कि.वाट (ए.सी. व डी.सी.) तक के संचारण एवं वितरण के जाल में प्रचालन के लिए $2,25,000$ मैगावाट के संचारण क्षमता एवं अन्य उपकरणों की आपूर्ति की।
3. बिजली परियोजनाओं, पैट्रोकैमीकल्स, रिफाइनरीज, इस्पात, अल्यूमीनियम, रासायनिक खाद, सीमेंट, सीमेंट संयंत्र आदि को 25000 से ऊपर ड्राइव नियंत्रण प्रणाली वाली मोटरों की आपूर्ति की है।
4. 12000 कि.मी. से भी अधिक रेलवे लाइन के जाल को विद्युत ट्रैक्शन एवं एसी/डीसी लोको की आपूर्ति की है।
5. पावरसंयंत्र एवं अन्य उद्योगों को 10 लाख वाल्वों की आपूर्ति की।
बी.एच.ई.एल. का दिव्य स्वप्न एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर का इंजीनियरिंग उद्यम बनने का है, जिससे उसकी भागीदारी में बढ़ोतरी होगी। कंपनी अपनी इन आकांक्षाओं को मूर्तरूप देने एवं देश की वैश्विक स्तर पर कार्य करने की आशा को पूरा करने के लिए प्रयत्नशील है। बी.एच.ई.एल. की प्रमुख शक्ति उसके कुशल और समर्पित 43,500 कर्मचारी हैं। सभी कर्मचारी को अपने विकास और भविष्य को उज्जवल बनाने का समान अवसर दिया जाता है। लगातार प्रशिक्षण और पुन:प्रशिक्षण, भविष्य की योजना, अनुकूल कार्य संस्कृति और प्रबंध की भागीदारी इन सभी से प्रतिबद्ध और प्रेरित कार्यबल को स्थापित करके उत्पादकता, गुणवत्ता और जवाबदेही के मानक हैं।
स्त्रोत— बी.एच.ई.एल. की वेबसाइट
(स) जो अपनी अंश पूँजी के अभिदान के लिए जनता को आमंत्रित कर सकती है तथा जन साधारण इसकी सार्वजनिक जमा में रुपया जमा करा सकते हैं।
यदि एक निजी कंपनी सार्वजनिक कंपनी की सहायक कंपनी है तो वह भी सार्वजनिक कंपनी के समान मानी जाएगी।
2.7 व्यावसायिक संगठन के स्वरूप का चयन
व्यावसायिक संगठनों के विभिन्न स्वरूपों का अध्ययन करने के पश्चात् यह स्पष्ट ही है कि प्रत्येक स्वरूप के कुछ लाभ एवं कुछ हानियाँ हैं। उचित स्वरूप का चयन कई महत्वपूर्ण घटकों पर निर्भर करता है। इसीलिए यह आवश्यक हो जाता है कि उपयुक्त स्वरूप का चयन करते समय कुछ आधारभूत घटकों को ध्यान में रखा जाए। संगठन के चयन के महत्वपूर्ण निर्धारक घटकों को तालिका 2.4 में दर्शाया गया है तथा उनकी चर्चा नीचे की गई है-
(क) प्रारंभिक लागत- जहाँ तक व्यवसाय की प्रारंभिक लागत का संबंध है, एकल स्वामित्व सबसे कम खर्चीला सिद्ध होता है। तथापि इसकी कानूनी औपचारिकताएँ न्यूनतम होती हैं एवं कार्यकलापों का पैमाना छोटा। साझेदारी में भी सीमित पैमाने पर उद्यम के कारण कम कानूनी औपचारिकताओं एवं कम लागत का लाभ मिलता है। सहकारी समितियों एवं कंपनियों का पंजीयन अनिवार्य है। कंपनी के निर्माण की कानूनी प्रक्रिया लंबी एवं खर्चीली होती है। जहाँ तक प्रारंभिक लागत का संबंध है एकल स्वामित्व पहली पसंद है, क्योंकि इस पर न्यूनतम व्यय आता है। इसके विपरीत कंपनी संगठन के निर्माण की प्रक्रिया जटिल है तथा इस पर अधिक व्यय होता है।
(ख) दायित्व- एकल स्वामित्व एवं साझेदारी में स्वामी का दायित्व असीमित होता है। अत: आवश्यकता पड़ने पर ऋणों का भुगतान स्वामियों की निजी परिसंपत्तियों से किया जाता है। संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय में केवल कर्ता का ही दायित्व असीमित होता है। सहकारी समितियों एवं कंपनियों में दायित्व सीमित होता है तथा लेनदारों को अपने दावों के भुगतान के लिए कंपनी की परिसंपत्तियों पर ही संतोष करना पड़ता है। निवेशकों के लिए कंपनी संगठन अधिक उचित है, क्योंकि इसमें जोखिम बंट जाता है।
(ग) निरंतरता- एकल स्वामित्व एवं साझेदारी फर्मों में इनके स्वामियों की मृत्यु, दिवालिया होने या पागल हो जाने जैसी घटनाओं से उनकी निरंतरता प्रभावित होती है। संयुक्त हिंदू व्यवसायों, सहकारी समितियों एवं कंपनियों की निरंतरता पर ऊपर वर्णित घटनाओं का प्रभाव नहीं पड़ता है। यदि व्यवसाय को स्थायी ढाँचे की आवश्यकता है तो कंपनी अधिक उपयुक्त रहती है जबकि थोड़ी अवधि के उपक्रमों के लिए एकल स्वामित्व अथवा साझेदारी को प्राथमिकता दी जाती है।
(घ) प्रबंधन की योग्यता- एक एकल स्वामी के लिए प्रचालन के सभी क्षेत्रों में विशेषज्ञों की सेवाएँ प्राप्त करना कठिन होता है। जबकि अन्य प्रकार के संगठन, जैसे— साझेदारी एवं कंपनी में इसकी संभावना अधिक है। श्रम विभाजन के कारण प्रबंधक कुछ क्षेत्र विशेषों में विशिष्टता प्राप्त कर लेते हैं, जिससे निर्णयों की श्रेष्ठता बढ़ जाती है। लेकिन लोगों में विचार भिन्नता के कारण टकराव की स्थिति भी पैदा हो सकती है। इसके अतिरिक्त यदि संगठन के कार्यों की प्रकृति जटिल है तथा जिनके लिए पेशेवर प्रबंध की आवश्यकता हो तो कंपनी को पसंद किया जाएगा। दूसरी ओर, जहाँ प्रचालन सरल है वहाँ एकल स्वामित्व अथवा साझेदारी अधिक उपयुक्त रहेगी, क्योंकि सीमित कौशल रखने वाले व्यक्ति भी ऐसे व्यवसायों को चला सकते हैं। अतः व्यवसाय के कार्यों की प्रकृति एवं पेशेवर प्रबंध की आवश्यकता संगठन के स्वरूप के चयन को प्रभावित करेंगे।
(ङ) पूँजी की आवश्यकता- बड़ी मात्र में पूँजी जुटाने के लिए कंपनी अधिक श्रेष्ठ स्थिति में होती है क्योंकि इसके लिए यह बड़ी संख्या में विनियोगकर्ताओं को अंशों का निर्गमन कर सकती है। साझेदारी फर्म को भी सभी साझेदारों के इकट्टा संसाधनों का लाभ मिल जाता है। लेकिन एक एकल स्वामी के साधन सीमित होते हैं। इसीलिए यदि प्रचालन बड़े पैमाने पर है तो कंपनी अधिक उपयुक्त रहेगी जबकि मध्य एवं छोटे आकार के व्यवसायों के लिए साझेदारी या एकल स्वामित्व अधिक उपयुक्त रहेंगे। विस्तार के लिए कंपनी अधिक उचित रहेगी क्योंकि इसे बड़ी मात्रा में वित्त उपलब्ध हो जाता है।
तालिका 2.4 संगठन के स्वरूप के चुनाव को प्रभावित करने वाले कारक
चयन | अधिकतम लाभ | न्यूनतम लाभ |
---|---|---|
पूँजी की उपलब्धता | कंपनी | एकल स्वामित्व |
स्थापना की लागत | एकल स्वामित्व | कंपनी |
स्थापना आसान | एकल स्वामित्व | कंपनी |
स्वामित्व का स्थांतरण | कंपनी | एकल स्वामित्व |
प्रबंधन की योग्यता | कंपनी | एकल स्वामित्व |
अंतर्नियम | एकल स्वामित्व | कंपनी |
लचीलापन | एकल स्वामित्व | कंपनी |
निरंतरता | कंपनी | एकल स्वामित्व |
दायित्व | कंपनी | एकल स्वामित्व |
तालिका 2.5 सगठनों के स्वरूपक का तुलनात्मक विश्लेषण
तुलना के आधार |
एकल स्वामित्व |
साझेदारी | संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय |
सहकारी समिति | कंपनी |
---|---|---|---|---|---|
निर्माण/ स्थापना |
न्यूनतम विधिक औपचारिकताएँ, सरल स्थापना |
पंजीयन ऐच्छिक, स्थापना सरल |
विधियक औपचारिक्ताएँ कम, पंजीयन की आवश्यकता नहीं, स्थापना सरल |
पंजीयन अनिवार्य विधियक औपचारिक्ताएँ अधिक |
पंजीयन अनिवार्य, निर्माण प्रक्रिया लंबी एवं खर्चीली |
सदस्य | केवल स्वामी | न्यनतमम-2 अधिकतम-50 |
परिवार की संपत्ति के विभाजन के लिए कम से कम दो सदस्य, कोई अधिकतम सीमा नहीं |
कम से कम 10 बालिग सदस्य कोई अधिकतम सीमा नहीं |
निजी कंपनी न्यूनतम-2 सार्वजनिक कंपनी-7 निजी कंपनी अधिकतम-50 सार्वजनिक कंपनी-कोई सीमा नहीं |
पूँजी | सीमित वित्त | सीमित, परंतु एकल स्वामित्व से अधिक |
पूर्वजों की संपत्ति | सीमित | बड़ी मात्र में वित्तीय संसाधन |
दायित्व | असीमित | असीमित एवं संयुक्त | असीमित (कर्ता) सीमित (अन्य सदस्य) |
सीमित | सीमित |
प्रबंध एवं नियंत्रण |
स्वामी ही सभी निर्णय लेता है शीघ्र निर्णय |
साझेदार निर्णय लेते हैं, सभी साझेदारों की स्वीकृति आवश्यक |
कर्ता निर्णय लेता है | चुने गए प्रतिनिधि, अर्थात प्रबंध समिति निर्णय लेती है |
स्वामी एवं प्रबंध पृथक |
निरंतरता | व्यवसाय में अनिश्चितता व्यवसाय एवं स्वामी एक ही व्यक्ति |
अधिक स्थायित्व लेकिन साझेदारों की स्थिति से प्रभावित |
कर्ता की मृत्यु पर भी स्थायित्व आगे व्यवसाय चलता रहता है |
पृथक वैधानिक अस्तित्व के कारण स्थायित्व |
पृथक वैधानिक अस्तित्व के कारण स्थायित्व |
(च) नियंत्रण- व्यवसाय प्रचालन पर सीधे नियंत्रण एवं निर्णय लेने का पूर्ण अधिकार चाहिए तो एकल स्वामित्व को पसंद किया जाएगा। लेकिन यदि स्वामियों को नियंत्रण एवं निर्णय लेने में भागीदारी से परहेज नहीं है तो साझेदारी अथवा कंपनी को अपनाया जा सकता है। कंपनी में स्वामी एवं प्रबंधक पृथक-पृथक होते हैं।
(छ) व्यवसाय की प्रकृति- जहाँ ग्राहकों से सीधे संपर्क की आवश्यकता है जैसे कि परचून की दुकान वहाँ एकल स्वामित्व अधिक उपयुक्त रहेगा। बड़ी विनिर्माण इकाइयों के लिए जहाँ ग्राहक से सीधे व्यक्तिगत संपर्क की आवश्यकता नहीं है, कंपनी स्वरूप को अपनाया जा सकता है। इसी प्रकार से जहाँ पेशेवर सेवाओं की आवश्यकता होती है वहाँ साझेदारी अधिक उपयुक्त रहती है।
अंत में कह सकते हैं कि ऊपर जितने घटकों की चर्चा की गई है वे सब एक दूसरे से संबंधित है। पूँजी का योगदान एवं जोखिम, व्यवसाय के आकार एवं प्रकृति के अनुसार बदलते हैं। अतः व्यवसाय संगठन का जो स्वरूप दायित्व की दृष्टि से छोटे पैमाने पर व्यवसाय चलाने पर उपयुक्त हों वही बड़े पैमाने पर व्यवसाय चलाने के लिए अनुपयुक्त सिद्ध होगा। इसलिए उपयुक्त संगठन स्वरूप चुनने के पहले सभी प्रासंगिक घटकों को ध्यान में रखना चाहिए।
मुख्य शब्दावली | |||||
---|---|---|---|---|---|
एकल स्वामित्व | साझेदारी | संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय | |||
सहकारी संगठन | संयुक्त पूँजी कंपनी |
सारांश
व्यवसाय संगठन के विभिन्न स्वरूप निम्न हैं-
1. एकल स्वामित्व
2. संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय
3. साझेदारी
4. सहकारी समिति तथा
5. संयुक्त पूँजी कंपनी
एकल स्वामित्व
एकल स्वामित्व उस व्यवसाय को कहते हैं, जिसका स्वामित्व, प्रबंधन एवं नियंत्रण एक ही व्यक्ति के हाथ में होता है तथा वही संपूर्ण लाभ पाने का अधिकारी तथा हानि के लिए उत्तरदायी होता है। एकल स्वामित्व के कई लाभ हैं। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण लाभ निम्न हैं-
1. शीर्घ निर्णय
2. सूचना की गोपनीयता
3. प्रत्यक्ष प्रोत्साहन
4. उपलब्धि का अहसास
5. स्थापित करने एवं बंद करने में सुगमता।
उपरोक्त लाभों के होते हुए भी एकल स्वामित्व की भी कुछ सीमाएँ हैं। इनमें से कुछ प्रमुख सीमाएँ इस प्रकार हैं-
1. सीमित संसाधन
2. व्यावसायिक इकाई का सीमित जीवनकाल *
3. असीमित दायित्व
4. सीमित प्रबंध योग्यता।
संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय
इसका अभिप्राय उस व्यवसाय से है जिसका स्वामित्व एवं संचालन एक संयुक्त हिंदू परिवार के सदस्य करते हैं। इसका प्रशासन हिंदू कानून के द्वारा होता है। व्यवसाय पर परिवार के मुखिया का नियंत्रण रहता है। वह परिवार सबसे बड़ी आयु का व्यक्ति होता है एवं ‘कर्ता’ कहलाता है। संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय के लाभ निम्नलिखित हैं
1. प्रभावशाली नियंत्रण
2. स्थायित्व
3. सदस्यों का सीमित दायित्व
4. निष्ठा एवं सहयोग में वृद्धि।
संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय की कुछ सीमाएँ नीचे दी गई हैं-
1. सीमित साधन
2. कर्ता का असीमित दायित्व
3. कर्ता का प्रभुत्व
4. सीमित प्रबंध कौशल।
साझेदारी
साझेदारी भारी पूँजी निवेश, विभिन्न प्रकार के कौशल एवं जोखिम में भागीदारी की आवश्कताओं को पूरा करती है। साझेदारी फर्म के लाभ निम्न हैं-
1. स्थापना एवं समापन सरल
2. संतुलित निर्णय
3. अधिक कोष
4. जोखिम को बाँटना
5. गोपनीयता।
साझेदारी फर्म की निम्न सीमाएँ हैं-
1. असीमित दायित्व
2. सीमित साधन
3. परस्पर विरोध की संभावना
4. निरंतरता की कमी
5. जनसाधारण के विश्वास की कमी।
साझेदारी फर्म में विभिन्न प्रकार के साझेदार हो सकते है-
1. सक्रिय साझेदार
2. सुप्त अथवा निष्क्रिय साझेदार
3. गुप्त साझेदार
4. नाममात्र का साझेदार
5. विबन्धन साझेदार (इसटॉपेल)
6. प्रतिनिधी साझेदार (होल्डिंग आऊट)।
अवधि के आधार पर साझेदारी दो प्रकार की हो सकती है-
1. ऐच्छिक साझेदारी
2. विशिष्ट साझेदारी।
देयता के आधार पर भी साझेदारी के दो प्रकार हैं-
1. सीमित दायित्व वाली एवं
2. असीमित दायित्व वाली।
सहकारी संगठन
सहकारी समिति उन लोगों का स्वैच्छिक संगठन है जो सदस्यों के कल्याण के लिए एकजुट हुए हैं। सहकारी समिति के सदस्यों को अनेक लाभ होते हैं-
1. वोट की समानता
2. सीमित दायित्व
3. स्थायित्व
4. मितव्ययी प्रचालन
5. सरकारी सहायता
6. सरल स्थापना।
सहकारी संगठन की निम्न सीमाएँ हैं-
1. सीमित संसाधन
2. अक्षम प्रबंधन
3. गोपनीयता की कमी
4. सरकारी नियंत्रण
5. विचारों की भिन्नता। प्
रचालन की प्रकृति के आधार पर सहकारी समितियाँ कई प्रकार की होती हैं जिनका वर्णन नीचे किया गया है-
1. उपभोक्ता सहकारी समितियाँ
2. उत्पादक सहकारी समितियाँ
3. विपणन सहकारी समितियाँ
4. किसान सहकारी समितियाँ
5. सहकारी ऋण समितियाँ
6. सहकारी आवास समितियाँ।
कंपनी
कंपनी एक कृत्रिम व्यक्तित्व वाली संस्था है, जिसका अलग से एक वैधानिक अस्तित्व, शाश्वत उत्तराधिकार एवं सार्वमुद्रण है। कंपनी के अनेक लाभ हैं जिनमें से कुछ की चर्चा नीचे की गई है-
1. सीमित दायित्व
2. हितों का हस्तांतरण
3. स्थायी अस्तित्व
4. विस्तार की संभावना
5. पेशेवर प्रबंध।
कंपनी की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं-
1. निर्माण में जटिल
2. गोपनीयता की कमी
3. वैयक्तिक कार्य वातावरण
4. अनेकानेक नियम
5. निर्णय में देरी
6. अल्पतंत्रीय प्रबंधन
7. हितों का टकराव।
कंपनी दो प्रकार की हो सकती है। निजी कंपनी एवं सार्वजनिक कंपनी। निजी कंपनी से अभिप्राय उस कंपनी से है, जो अपने सदस्यों पर अंशों के हस्तांतरण पर रोक लगाती है। जो अंश पूँजी लगाने के लिए जनता को आमंत्रित नहीं करती हैं। एक सार्वजनिक कंपनी वह कंपनी है जो निजी कंपनी नहीं है। जो अपनी अंश पूँजी के अभिदान के लिए जनता को आमंत्रित कर सकती है तथा जन साधारण इसकी सार्वजनिक जमा में रुपया जमा करा सकते हैं। जिसमें अंशों के हस्तांतरण पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
व्यावसायिक संगठन के स्वरूप का चयन
उचित स्वरूप का चयन कई महत्वपूर्ण घटकों पर निर्भर करता है। उपयुक्त स्वरूप का चयन करते समय कुछ आधारभूत घटकों को ध्यान में रखा जाए-
1. प्रारंभिक लागत
2. दायित्व
3. निरंरतता
4. प्रबंधन की योग्यता
5. पूँजी की आवश्यकता
5. पूँजी की आवश्यकता
6. नियंत्रण
7. व्यवसाय की प्रकृति।
अभ्यास
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय में नाबालिग की स्थिति की साझेदारी फर्म में उसकी स्थिति से तुलना कीजिए।
2. यदि पंजीयन ऐच्छिक है तो साझेदारी फर्म स्वयं को पंजीकृत कराने के लिए वैधानिक औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए क्यों इच्छुक रहती हैं? समझाइए।
3. एक निजी कंपनी को उपलब्ध महत्वपूर्ण सुविधाओं को बताइए।
4. सहकारी समिति किस प्रकार जनतांत्रिक एवं धर्म-निरपेक्षता का आदर्श प्रस्तुत करती है?
5. ‘प्रदर्शन द्वारा साझेदार’ का क्या अर्थ है? समझाइए।
6. 50 शब्दों में संक्षिप्त टिप्पणी करें।
(क) कर्ता
(ख) सार्वमुद्रा
(ग) कृत्रिम व्यक्ति
(घ) शाश्वत उत्तराधिकार
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1. एकल स्वामित्व फर्म से आप क्या समझते हैं? इसके गुणों एवं सीमाओं को समझाइए।
2. साझेदारी के विभिन्न प्रकारों में व्यावसायिक स्वामित्व तुलनात्मक रूप से लोकत्रिय क्यों नहीं है? इसके गुणों एवं सीमाओं को समझाइए।
3. एक उपयुक्त संगठन का स्वरूप चुनना क्यों महत्वपूर्ण है? उन घटकों का विवेचन कीजिए जो संगठन के किसी खास स्वरूप के चुनाव में सहायक होते हैं।
4. सहकारी संगठन स्वरूप के लक्षण, गुण एवं सीमाओं का विवेचन कीजिए। विभिन्न प्रकार की सहकारी समितियों को भी संक्षेप में समझाइए।
5. एक संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय एवं साझेदारी में अंतर कीजिए।
6. आकार एवं संसाधनों की सीमाओं के होते हुए भी लोग एकल व्यवसाय को अन्य संगठनों की तुलना में प्राथमिकता क्यों देते हैं?
व्यावहारिक प्रश्न
1. किस संगठन स्वरूप में एक स्वामी के व्यापारिक करार अन्य स्वामियों को भी बाध्य कर देते हैं। उत्तर के समर्थन में कारण बताइए।
2. एक संगठन की व्यावसायिक परिसंपत्तियों की राशि 50,000 रुपए है लेकिन अदत्त देय राशि 80,000 रुपए है। लेनदार निम्न स्थितियों में क्या कार्यवाही कर सकते हैं-
(क) यदि संगठन एक एकल स्वामित्व इकाई है।
(ख) यदि एक संगठन साझेदारी फर्म है जिसमें एन्थोनी और अकबर साझेदार हैं लेनदार इन दो में से किस साझेदार के पास अपनी लेनदारी के भुगतान हेतु संपर्क साध सकते हैं। कारण सहित समझाइए।
3. किरन एक एकल व्यवसायी है। पिछले दशक में उसका व्यवसाय पड़ोस के एक कोने की दुकान से, जिसमें वह नकली आभूषण, बैग, बालों की क्लिप, नेलपॉलिश आदि बेचती थी, से बढ़ कर तीन शाखाओं वाली फुटकर शृंखला में बदल गया है। यद्यपि वह सभी शाखाओं के विभिन्न कार्यों को स्वयं देखती हैं परंतु अब सोच रही है कि व्यवसाय के बेहतर प्रबंधन के लिए उसे एक कंपनी का निर्माण करना चाहिए या नहीं। उसकी योजना देश के अन्य भागों में शाखाएँ खोलने की भी है।
(क) एकल स्वामी बने रहने के दो लाभों को समझाइए।
(ख) संयुक्त पूँजी कंपनी में परिवर्तित करने के दो लाभ बताइए।
(ग) राष्ट्रीय स्तर पर व्यवसाय करने के निर्णय पर संगठन के स्वरूप के चुनाव में उसकी भूमिका क्या होगी?
(घ) कंपनी को रूप व्यवसाय करने के लिए उसे किन-किन कानूनी औपचारिकताओं को पूरा करना होगा?
परियोजना कार्य
कक्षा में विद्यार्थियों को कई टीमों में विभक्त कर निम्न पर कार्य करने लिए बाँट दीजिए-
(क) पड़ोस की किन्ही पाँच परचून/स्टेशनरी की दुकानों के अध्ययन हेतु;
(ख) संयुक्त हिंदू परिवार व्यवसाय के कार्य संचालन के अध्ययन हेतु;
(ग) किन्हीं पाँच साझेदारी फर्मों के अध्ययन हेतु;
(घ) अपने क्षेत्र की सहकारी समितियों की विचारधारा एवं कार्य संचालन के अध्ययन हेतु;
(ड$\cdot$) किन्हीं पाँच कंपनियों (जिसमें निजी एवं सार्वजनिक दोनों प्रकार की कंपनियाँ शामिल हों) के अध्ययन हेतु।
असाइनमेंट
1. सोनम ओर समीर ने हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा में एक खाद्य प्रसंस्करण व्यवसाय शुरू करने का फैसला किया। भविष्य में किसी भी विवाद से बचने के लिए साझेदारी को विकसित करने में उनकी मदद करें। एम्बेडेड क्यूआर कोड में ई-संसाधन के रूप में गहरी साझेदारी की साझेदारी उपलब्ध है।
टिप्पणियाँ
1. निम्न में से कुछ पक्षों के उपर्युक्त अध्ययनों हेतु विद्यार्थियों को कार्य सौंपा जा सकता है-
व्यवसाय की प्रकृति, निवेशित पूँजी के आधार पर मापा गया व्यवसाय का आकार, कार्यरत व्यक्तियों की संख्या अथवा विक्रय आवर्तन, समस्याएँ, प्रोत्साहन, एकल स्वरूप विशेष के चयन का कारण, निर्णय लेने का ढंग, विस्तार की इच्छा एवं आवश्यक ध्यान रखने योग्य बातें, स्वरूप की उपयोगिता इत्यादि।
2. विद्यार्थियों की विभिन्न टीमों को प्रोत्साहित करें कि वह अपने अध्ययन के परिणामों एवं निष्कर्षों को परियोजना प्रतिवेदन एवं मल्टीमीडिया के रूप में प्रस्तुत करें।