अध्याय 01 व्यवसाय, व्यापार और वाणिज्य

इमरान, मनप्रीत, जोसेफ और प्रियंका दसवीं कक्षा में सहपाठी रहे हैं। अपनी परीक्षा समाप्त होने के बाद, वे सबकी साझी दोस्त रुचिता के घर पर मिलते हैं। जब वे परीक्षा के दिनों के अपने अनुभव साझा कर रहे थे, तभी रुचिता के पिता रघुराज चौधारी उनके पास आ कर उनका हालचाल पूछते हैं। उन्होंने उनके करियर की योजनाओं के बारे में भी पूछा। लेकिन उनमें से किसी के पास कोई निश्चित उत्तर नहीं था। रघुराज जो खुद एक सफल व्यवसायी हैं, उन्हें करियर के अवसर के रूप में व्यवसाय के बारे में बताते हैं। जोसेफ इस विचार से उत्साहित हो जाता है और कहता है “हाँ, व्यापार बहुत सारे पैसे बनाने के लिए वास्तव में अच्छा है’। रघुराज उन्हें बताता है कि ‘केवल धन के बजाय व्यापार में बहुत कुछ है।। उन्होंने कहा कि व्यावसायिक गतिविधियों से किसी भी देश की वृद्धि और विकास होता है। वह उन्हें आगे बताता है कि व्यावसायिक गतिविधियों की जड़ों का पता प्राचीन काल से लगाया जा सकता है और कैसे व्यापार भारतीय उपमहाद्वीप की समृद्धि में मदद करता है। प्रियंका ने कहा कि उन्होंने अपनी इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में सिल्क रूट के बारे में पढ़ा है। रघुराज फिर अपने दिन-प्रतिदिन के कामों में व्यस्त हो जाता है। परंतु चारों सहपाठियों ने सवाल उठाने शुरू कर दिए। चारों सहपाठियों की बातचीत इस बात पर केंद्रित थी कि प्राचीन काल में व्यापारिक गतिविधियाँ कैसे संचालित की जाती थीं। व्यापारिक गतिविधियों की जड़ों का पता कहाँ तक लगाया जा सकता है? भारतीय उपमहाद्वीप को भारत आने वाले तत्कालीन यात्रियों द्वारा ‘स्वर्ण भारत और स्वर्णद्वीप’ क्यों कहा गया था? भारत का पता लगाने के लिए कोलंबस और वास्को द गामा ने क्यों यात्रएँ कीं? उन्होंने व्यवसाय के विकास, प्रकृति और उद्देश्य के बारे में ऐसे कई सवालों के उत्तर जानने के लिए अपने स्कूल के वाणिज्य शिक्षक से मिलने का फैसला किया।

1.1 प्रस्तावना

सभीमनुष्यों को, वेजहाँभीहों, उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विभिन्न प्रकार की वस्तुओं और सेवाओं की आवश्यकता होती है। यदि हम चारों ओर देखें, तो हम पाते हैं कि लोगों को अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विभिन्न प्रकार के उत्पादों और सेवाओं की आवश्यकता होती है। वे उन्हें कैसे खरीदते हैं? वे स्वयं या इंटरनेट पर इलेक्ट्रॉनिक बाजार में जाते हैं, जहाँ वे आवश्यक वस्तुओं को पेश करने वाली विभिन्न प्रकार की दुकानों और विक्रेताओं को पाते हैं और सबसे अच्छा चुनते हैं जिसकी उन्हें आवश्यकता होती है। क्या आपने कभी सोचा है कि इन उत्पादों और सेवाओं को बाजार में कैसे उपलब्ध कराया जाता है। वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति की आवश्यकता विभिन्न आर्थिक गतिविधियों, जैसे — उत्पादन, विनिर्माण और वितरण तथा विनिमय में लगे लोगों के विभिन्न समूहों द्वारा की जाती है ताकि ग्राहकों की आवश्यकताओं और माँगों को पूरा किया जा सके। व्यवसाय एक प्रमुख आर्थिक गतिविधि है जो लोगों के लिए आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन और बिक्री से संबंधित है। व्यवसाय हमारे जीवन के लिए प्रमुख है। यद्यपि हमारा जीवन आधुनिक समाज में कई अन्य संस्थानों, जैसे — विद्यालय,

महाविद्यालय, अस्पताल, राजनीतिक दल और धार्मिक निकायों से भी प्रभावित होता है; व्यापार का हमारे दैनिक जीवन पर एक बड़ा प्रभाव है। इसलिए, यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम व्यवसाय की अवधारणा, प्रकृति और उद्देश्य को समझें।

व्यवसाय उत्पादन के साथ शुरू होता है और खपत के साथ समाप्त होता है। उपभोक्ता तक तैयार वस्तुओं को पहुँचाने के लिए चरणों की एक शृंखला शामिल होती है। वस्तुओं के उत्पादन का कार्य उद्योग के अंतर्गत आता है और शेष गतिविधियाँ वाणिज्य से संबंधित हैं। संक्षेप में, हम उन्हें ‘व्यवसाय’ कहते हैं जो एक व्यापक शब्द है और इसमें उद्योग, व्यापार और वाणिज्य शामिल हैं।

माल एवं सेवाओं का हस्तांतरण (मौद्रिक बनाम वस्तु-विनिमय)

1.1.1 अर्थण्यवस्था के विकास में व्यवसाय की भूमिका

व्यवसाय, जिसमें व्यापार और वाणिज्य शामिल हैं, ने आदि काल से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आपने अपनी पिछली कक्षाओं में पढ़ा है कि हमारे देश भारत का एक सुनहरा अतीत था और इसकी समृद्धि और उपलब्धियों में व्यापारिक गतिविधियों का महत्वपूर्ण योगदान था। पुरातात्विक साक्ष्यों से पता चला है कि व्यापारिक गतिविधियाँ प्राचीन काल में अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार थीं जो जल और थल दोनों मार्गों से होती थीं। व्यापारिक उद्देश्यों के लिए वस्तुओं और माल के परिवहन में रेशम मार्ग और समुद्री व्यापार काफ़ी महत्वपूर्ण थे। वस्तुओं का देश और विदेश दोनों जगह व्यापार किया जाता था, जिससे आवश्यकता से अधिक आय होती थी। परिणामस्वरूप, लोग विभिन्न आर्थिक गतिविधियों जैसे कि कृषि और पशुपालन, सूती कपड़ा बुनना, कपड़े रंगना, मिट्टी के बर्तन बनाना, अन्य प्रकार के बर्तन बनाना और हस्तशिल्प, मूर्तिकला, कुटीर उद्योग, राजगीरी आदि में लगे रहते थे। बड़ी मात्र में उत्पादन के लिए परिवार आधारित कारखाने आर्थिक जीवन के महत्वपूर्ण घटक थे। इस धन को आगे निवेश किया गया, और व्यापारिक गतिविधियों की अर्थन्यवस्था के लिए स्वदेशी बैंकिंग प्रणाली में प्रबल वृद्धि हुई।

इसका एक उदाहरण सदियों पुरानी हुंडी और चिट्ही (दक्षिणी क्षेत्र में इस्तेमाल) हैं। इनका उपयोग व्यापारिक गतिविधियों के लिए एक हाथ से दूसरे हाथ पैसे के हस्तांतरण की सुविधा के लिए दस्तावेजों के रूप में किया जाता था। विनिमय के साधन के रूप में इसमें एक अनुबंध शामिल होता था जो—

(i) धन के भुगतान, वायदे या आदेश का बिना शर्त अधिकार देता है

(ii) मान्य बातचीत द्वारा हस्तांतरण के माधयम से बदला जा सकता है।

पैसे के आदान-प्रदान का अमूर्त रूप बनाने की आवश्यकता क्यों थी। ऐसा इसलिए था क्योंकि

स्थलीय या समुद्री मार्ग से लंबी दूरी की यात्रा में चोरी और डकैती का खतरा होता था। हुंडी जिसका शाब्दिक अर्थ ‘इकठ्ठा करने के लिए’ है, को देशी भाषा में लिखा गया था और इसने पार्टियों के बीच धन के सुरक्षित हस्तांतरण की सुविधाप्रदान की और व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ावा देने में मदद की।

ऋण लेन-देन के प्रचलन में आने और ऋण तथा अग्रिम-राशियों की उपलब्धता ने वाणिज्यिक कार्यों को बढ़ाया। भारतीय उपमहाद्वीप ने व्यापार के अनुकूल संतुलन का लाभ प्राप्त किया, जहाँ निर्यात आयात से काफ़ी अधिक हो गया और स्वदेशी बैंकिंग प्रणाली ने निर्माताओं, व्यापारियों और विक्रेताओं को विस्तार और विकास के लिए अतिरिक्त धन राशियों के साथ लाभान्वित किया। बाद में व्यापार और वाणिज्य को वित्त देने के लिए वाणिज्यिक और औद्योगिक बैंक और किसानों को अल्पकालिक और दीर्घकालिक ऋण देने के लिए कृषि बैंक विकसित हुए।

प्राचीन काल में कई प्रमुख व्यापारिक केंद्र वस्तुओं के आयात और निर्यात के लिए विकसित किए गए थे, जिनमें से कुछ पाटलिपुत्र, पेशावर, तक्षशिला, इंप्रप्रस्थ, मिथिला, मदुरम, सूरत, उज्जैन और कांची थे। प्रमुख निर्यात वस्तुएँ - मसाले, गेहूँ, चीनी, नील, अफ़ीम, तिल का तेल, कपास, तोता, जीवित पशु और पशु उत्पाद आदि थे। प्रमुख आयात घोड़े, पशु उत्पाद, चीनी रेशम, लीनेन, शराब, सोना, चाँदी, ताँबा आदि थे। सभी प्रकार के शहर थे — बंदरगाह शहर, विनिर्माण शहर, व्यापारिक शहर, पवित्र केंद्र और तीर्थ शहर। उनका अस्तित्व व्यापारी समुदायों और व्यावसायिक वर्गों की समृद्धि का सूचकांक है।

व्यावसायिक गतिविधियों ने परिवहन, बैंकिंग, वित्त और संचार जैसे व्यापार में सहायक विभिन्न पहलुओं का विकास किया, जिससे व्यापारिक गतिविधियों की संभावना बढ़ गई। भारतीय व्यापारियों और अन्य व्यापारी समुदायों के सक्रिय योगदान के साथ, भारतीय उपमहाद्वीप को कई यात्रियों, जैसे -


धनी-जोग दर्शनी किसी भी व्यक्ति को देय- भुगतान प्राप्त करने वाले पर कोई दायित्व नहीं।
शाह-जोग दर्शनी किसी विशिष्ट किसी ‘सम्मानीय’ व्यक्ति को देय। भुगतान प्राप्त करने पर उत्तरायित्व।
फरमान-जोग दर्शनी हुंडी आदेशित व्यक्ति को देय।
देखन-हार दर्शनी प्रस्त्तकर्ता या धारक को देय।
धनी-जोग मुद्दती किसी भी व्यक्ति को देय— - भुगतान प्राप्त करने वाले पर कोई उत्तरदायित्व नहीं, लेकिन
एक निश्चित अवधि में भुगतान।
फरमान-जोग मुद्ती हुंडी एक निश्चित अवधि बाद आदेशित व्यक्ति को देय।
जोखमी मुद्धती प्रेषण माल पर आहरित। यदि माल रास्ते में खो जाता है, तो दराज या धारक लागत वहाँ करता है, और आहर्ती का कोई दायित्व नहीं होता।

चित्र 1.1 हुंडियाँ, जैसी भारतीय व्यापारिक समुदायों द्वारा काम में ली जाती थी


मेगास्थनीज, फ़ैक्सियन (फ़ाहियान), जुआनजैंग (ह्बेन त्सांग), अल बेर्नी ( 11 वीं शताब्दी), इब्नबतूता (11वीं शताब्दी), फ्रांसीसी फ्रैंकोइस (17वीं शताब्दी) और अन्य के लेखों में लोकप्रिय रूप से ‘स्वर्णभूमि और स्वर्ण दीप’ कहा जाता था। वे बार-बार देश की समृद्धि का उल्लेख करते हैं।

पहली और सातवीं शताब्दी के बीच, भारत में प्राचीन और मधययुगीन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का अनुमान है, जो विश्व की धन-संपत्ति के लगभग एक-तिहाई और एक-चौथाई को नियंत्रित करती है (अवधि-क्रम)।

स्र्रोत— एंगस मैडिसन (2001 और 2003), दी वर्ल्ड इकोनामी-द मिलेनियल परस्पेक्टिव, ओ.ई.सी.डी., पोरिस; एंगस मैडिसन, दी वर्ल्ड इकोनामी, हिस्टोरीकल स्टेटिस्टिक्स।

प्राचीनकाल में प्रमुख व्यापार केंद्र

1. पाटलिपुत्र— आज पटना के नाम से जाना जाता है। यह न केवल एक वाणिज्यिक शहर था, बल्कि पत्थरों के निर्यात का एक प्रमुख केंद्र भी था।

2. पेशावर- यह ऊन के निर्यात और घोड़ों के आयात के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र था। पहली सदी ए.डी. में भारत, चीन और रोम के बीच वाणिज्यिक लेन-देन में इसकी बड़ी भागीदारी थी।

3. तक्षशिला— यह भारत और मध्य एशिया के बीच महत्वपूर्ण भूमि मार्ग पर एक प्रमुख केंद्र के रूप में कार्य करता था। यह वित्तीय और वाणिज्यिक बैंकों का शहर भी था। इस शहर ने एक बौद्ध शिक्षा केंद्र के रूप में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया। प्रसिद्ध तक्षशिला विश्वविद्यालय यहाँ विकसित हुआ।

4. इंद्रप्रस्थ— यह शाही सड़क पर वाणिज्यिक जंक्शन था, जहाँ पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर की ओर जाते अधिकांश मार्ग मिलते थे।

5. मथुरा— यह व्यापार का एक वाणिज्य-केंद्र (एम्पोरियम) था और यहाँ के लोग वाणिज्य से अपना भरण-पोषण करते थे। दक्षिण भारत के कई मार्ग मथुरा और ब्रोच के पास से गुजरते थे।

6. वाराणसी— इसकी स्थिति बहुत अच्छी थी क्योंकि यह गंगा के मार्ग और उत्तर को पूर्व से जोड़ने वाले राजमार्ग, दोनों पर स्थित था। यह कपड़ा उद्योग के एक प्रमुख केंद्र के रूप में विकसित हुआ और सुंदर स्वर्ण रेशमी कपड़ों और चंदन पर कारीगरी के लिए प्रसिद्ध हुआ। इसका संबंध तक्षशिला और भरूच से था।

7. मिथिला— मिथिला के व्यापारियों ने बंगाल की खाड़ी से दक्षिण चीन सागर तक नौकाओं द्वारा समुद्र पार किए, और जावा, सुमात्रा और बोर्नियो के द्वीपों पर बंदरगाहों पर कारोबार किया। मिथिला ने दक्षिण चीन में विशेष रूप से युनान में व्यापारिक उपनिवेश स्थापित किए।

8. उज्जैन-उज्जैन से विभिन्न केंद्रों पर अगेट, कारनेलियन, मलमल और मैलो कपड़े के निर्यात किए जाते थे। इसका तक्षशिला और पेशावर के साथ भूमि मार्ग से व्यापारिक संबंध भी था।

9. सूरत— यह मुगल काल के दौरान पश्चिमी व्यापार का केंद्र था। सूरत के वस्त्र उद्योग अपनी सोने की जरी के लिए प्रसिद्ध थे। उल्लेखनीय है कि सुराथुंडी को मिस्र और ईरान के दूर-दूर के बाजारों में सम्मानित किया गया था।

10. कांची— आज कांचीपुरम के रूप में जाना जाता है, यहीं चीनी विदेशी जहाजों में मोती, काँच और दुर्लभ पत्थर खरीदने आते थे और बदले में वे सोना और रेशम बेचते थे।

11. मदुरा— यह पांड्यों की राजधानी थी, जिन्होंने मन्नार की खाड़ी की मोती मछलियों को नियंत्रित किया था। इसने विदेशी व्यापारियों, विशेष रूप से रोम के रहने वालों को समुद्र पार व्यापार करने के लिए आकर्षित किया।

12. ब्रोच— यह पश्चिमी भारत में वाणिज्य का सबसे बड़ा केंद्र था। यह नर्मदा नदी के तट पर स्थित था और सड़क मार्गों द्वारा सभी महत्वपूर्ण बाजारों से जुड़ा हुआ था।

13. कावेरीपट्ट- यह कावेरीपट्टनम के रूप में भी जाना जाता है, यह एक शहर के रूप में वैज्ञानिक बनावट वाला था और माल की ढुलाई, उतराई और व्यापार की प्रबल सुविधाएँ प्रदान करता था। इस शहर में विदेशी व्यापारियों के मुख्यालय थे। यह मलेशिया, इंडोनेशिया, चीन और सुदूर पूर्व के साथ व्यापार के लिए एक सुविधाजनक स्थान था। यह सुगंधों, सौंदर्य प्रसाधनों, इत्रें, रेशम, ऊन, कपास, मूँगा, मोतियों, सोने और कीमती पत्थरों तथा जहाज निर्माण के लिए भी व्यापार का केंद्र था।

14. ताम्रलिप्ति— यह पश्चिम और सुदूर पूर्व के साथ समुद्र और भूमि दोनों से जुड़ा सबसे बड़े बंदरगाहों में से एक था। यह सड़क मार्ग से बनारस और तक्षशिला से जुड़ा हुआ था।

भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ों के जमने के साथ, ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय कच्चे माल, मसाले और सामान खरीदने के लिए अपने शासन के तहत प्रांतों द्वारा उत्पन्न राजस्व का उपयोग किया। इसने भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति को संसाधित वस्तुओं के निर्यातक से कच्चे माल के निर्यातक और निर्मित वस्तुओं के खरीदार में बदल दिया।

स्वतंत्रता के बाद अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई और भारत समाज के आत्मनिर्भर समाजवादी स्वरूप को प्राप्त करने के उद्देश्य से योजनाबद्ध विकास की ओर अग्रसर हुआ। उसी की ओर बढ़ने के लिए किए गए उपायों को केंद्रीकृत आर्थिक योजना और बुनियादी तथा प्रमुख उद्योगों में सार्वजनिक निवेश पर जोर द्वारा अभिलक्षणित किया गया था।

आधुनिक उद्योगों, आधुनिक तकनीकी और वैज्ञानिक संस्थानों, अंतरिक्ष और परमाणु कार्यक्रमों की स्थापना को उचित महत्व दिया गया। लेकिन पूँजी निर्माण की कमी, जनसंख्या में वृद्धि, कमजोर वित्तीय प्रणाली, अपर्याप्त बुनियादी ढाँचा और रक्षा पर बहुत अधिक व्यय, उच्च राजकोषीय घाटे और भुगतान में निरंतर घाटे प्रत्यक्ष थे और भारत की अर्थव्यवस्था को प्रबंधित करने की उसकी क्षमता में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का विश्वास गंभीर रूप से प्रभावित हुआ था। भुगतान की स्थिति का संतुलन अनिश्चित था। परिणामस्वरूप, 1991 में भारत आर्थिक उदारीकरण के लिए सहमत हुआ।

भारतीय अर्थव्यवस्था के स्थिरीकरण, पुनर्गठन और वैश्वीकरण की तीन प्रमुख पद्धतियों को आर्थिक और व्यावसायिक परिदृश्य में परिवर्तन और वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ इसके एकीकरण के लिए अपनाया गया था। भारत सरकार ने अर्थव्यवस्था में विकास की गति को बहाल करने के उद्देश्य से प्रमुख आर्थिक सुधार पैकेजों की घोषणा की। वर्ष 1991 के बाद से राजकोषीय, मौद्रिक, व्यापार, उद्योग, कृषि, बुनियादी ढाँचा, विदेशी मुद्रा और विदेशी निवेश के संदर्भ में प्रमुख नीतिगत बदलाव लागू किए गए।

खण्ड-2

व्यवसाय की प्रकृति और अवधारणा

1.6 व्यवसाय की अवधारणा

व्यवसाय शब्द की व्युत्पत्ति व्यस्त रहने से हुई है। अत: व्यवसाय का अर्थ व्यस्त रहना है। तथापि विशेष संदर्भ में, व्यवसाय का अर्थ ऐसे किसी भी धंधे से है, जिसमें लाभार्जन हेतु व्यक्ति विभिन्न प्रकार की क्रियाओं में नियमित रूप में संलग्न रहते हैं। वे क्रियाएँ अन्य लोगों की आवश्यकताओं की संतुष्टि हेतु वस्तुओं के उत्पादन, क्रय-विक्रय या विनिमय और सेवाओं की आपूर्ति से संबंधित हो सकती हैं।

गतिविधि

वस्तू-विनियन प्रणाली वस्तुओं और/या सेवाओं के एक समूह के और वस्तुओं और/या सेवाओं के दूसरे समूह के साथ आदान-प्रदान का एक पुराना तरीका है। क्या वस्तु-विनिमय प्रणाली एक आर्थिक गतिविधि है? अपने उत्तर के लिए कारण दें।

प्रत्येक समाज में मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की संतुष्टि हेतु अनेकों प्रकार की क्रियाएँ करते हैं। ये क्रियाएँ विस्तृत रूप से दो समूहों में वर्गीकृत की जा सकती हैं- आर्थिक एवं अनार्थिका आर्थिक क्रियाएँ, वे क्रियाएँ हैं जिनके द्वारा हम अपने जीवन यापन के लिए धन कमाते हैं जबकि अनार्थिक क्रियाएँ प्रेमवश, सहानुभूति के लिए, भावुकतावश या देशभक्ति आदि के लिए की जाती हैं। उदाहरण के लिए, एक श्रमिक द्वारा फैक्टरी में काम करना, एक डॉक्टर द्वारा अपने क्लीनिक में कार्य करना, एक प्रबंधक द्वारा अपने कार्यालय में काम करना तथा एक शिक्षक का विद्यालय में अध्यापन कार्य करना आदि उदाहरणों में, सभी अपनी जीविका उपार्जन के लिए कार्य कर रहे हैं। अत: ये सभी आर्थिक क्रियाओं में संलग्न हैं। दूसरी ओर एक गृहणी द्वारा अपने परिवार के लिए भोजन पकाना या एक वृद्ध व्यक्ति को सड़क पार कराने में एक बालक द्वारा सहायता करना अनार्थिक क्रियाएँ हैं क्योंकि ये क्रियाएँ या तो प्रेमवश या सहानुभूतिवश की जा रही हैं।

आर्थिक क्रियाओं को भी आगे तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है, जैसे- व्यवसाय, धंधा या रोज़ार। अत: व्यवसाय को एक आर्थिक क्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसमें वस्तुओं का उत्पादन व विक्रय तथा सेवाओं को प्रदान करना सम्मिलित है। उपरोक्त क्रियाओं का मुख्य उद्देश्य समाज में मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति करके धन कमाना है।

1.6.1 व्यावसायिक क्रियाओं की विशेषताएँ

समाज में व्यावसायिक क्रियाएँ अन्य क्रियाओं से किस प्रकार भिन्न हैं, यह समझने के लिए व्यवसाय की प्रकृति अथवा इसके आधारभूत लक्षणों को इसकी अद्वितीय विशेषताओं के संदर्भ में स्पष्ट करना चाहिए, जो निम्नलिखित हैं-

(क) यह एक आर्थिक क्रिया है- व्यवसाय को एक आर्थिक क्रिया समझा जाता है क्योंकि यह लाभ कमाने के उद्देश्य से या जीवन यापन के लिए किया जाता है, न कि प्रेम के कारण अथवा मोह, सहानुभूति या किसी अन्य भावुकता के कारण।

स्वयं करके देखें

बताएँ कि निम्नलिखित में से प्रत्येक एक आर्थिक गतिविधि है या नहीं। अपने उत्तर के लिए कारण दें।

1. स्वास्थ्य-कर्मी द्वारा अपने मरीज का इलाज करना। $ \square$

2. स्टोर का मालिक एक ज़रूरतमंद बुज़ुर्ग व्यक्ति के साथ सहानुभूति दिखाते हुए उसे उसकी बीमारी के लिए दवाइयाँ देता है। $ \square$

3. फुटबॉल प्रशिक्षण द्वारा आगामी मैच के लिए अपनी बेटी को फुटबॉल का प्रशिक्षण देना। $ \square$

4. गृहिणी का घर पर घर के काम-काज करके सेवाएँ देना। $ \square$

5. कोविड-19 महामारी के दौरान समाज के वंचित लोगों और प्रवासी श्रमिकों को भोजन, दवाइयाँ प्रदान करने के लिए एक गैर-सरकारी संगठन द्वारा चलाए जा रहे सामुदायिक रसोईघर के लिए एक व्यापारिक घराने की ओर से दान देना। $ \square$


(ख) वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन अथवा उनकी प्राप्ति — वस्तुओं को उपभोक्ताओं के उपभोग के लिए सुलभ कराने से पूर्व व्यावसायिक इकाइयों द्वारा या तो इनका उत्पादन किया जाता है या फिर इनका क्रय किया जाता है। अतः प्रत्येक व्यावसायिक इकाई जिन वस्तुओं में व्यापार करती है, उनका या तो स्वयं उत्पादन करती है या आपूर्ति करने के लिए उत्पादकों से प्राप्त करती है। वस्तुएँ या तो उपभोक्ता वस्तुएँ हो सकती हैं, जो प्रतिदिन काम आती हैं, जैसे— चीनी, पेन, नोट बुक या पूँजीगत वस्तुएँ, जैसे- मशीन, फ़र्नीचर आदि। सेवाओं में यातायात, बैंक तथा विद्युत की आपूर्ति आदि को सम्मिलित किया जा सकता है, जो उपभोक्ताओं की सुविधाओं के रूप में सुलभ करायी जाती हैं।

(ग) मानवीय आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए वस्तुओं और सेवाओं का विक्रय या विनिमय - प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यवसाय में मूल्य के बदले वस्तुओं और सेवाओं का हस्तांतरण व विनिमय सम्मिलित है। यदि वस्तुओं का उत्पादन, उत्पादक द्वारा स्वयं के उपभोग के लिए किया जाता है, तो ऐसी क्रिया व्यावसायिक क्रिया नहीं कहलाती है। घर में परिवार के सदस्यों के लिए भोजन पकाना व्यवसाय नहीं हैं लेकिन किसी रेस्तराँ में अन्य व्यक्तियों को बेचने के लिए भोजन पकाना व्यवसाय है। इस प्रकार व्यवसाय की यह एक आवश्यक विशेषता है कि वस्तुओं या सेवाओं का क्रय-विक्रय या विनिमय होना चाहिए।

(घ) नियमित रूप से वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय- व्यवसाय की एक विशेषता यह है कि इसमें नियमित रूप से वस्तुओं और सेवाओं का लेन-देन होता है। एक बार का क्रय या विक्रय साधारणतया व्यवसाय नहीं कहलाता। उदाहरणार्थ, यदि कोई व्यक्ति अपना घरेलू रेडियो चाहे लाभ पर ही बेचे मगर यह व्यावसायिक क्रिया नहीं कहलाएगी, लेकिन यदि वह अपनी दुकान पर या घर से नियमित रूप से रेडियो बेचता है तो यह एक व्यावसायिक क्रिया कहलाएगी।

(ङ) लाभ अर्जन- प्रत्येक व्यावसायिक क्रिया लाभ के रूप में आय अर्जित करने के उद्देश्य से की जाती है। बिना लाभ कमाए कोई भी व्यवसाय लंबे समय तक कार्यरत नहीं रह सकता। इसीलिए व्यवसायकर्ता विक्रय की मात्रा बढ़ाकर या लागत कम करके अधिकतम लाभ कमाने का हरसंभव प्रयास करता है।

(च) प्रतिफल की अनिश्चितता- प्रतिफल की अनिश्चितता से तात्पर्य व्यावसायिक क्रियाओं के संचालन से एक निश्चित समय में होने वाले लाभ की अस्थिरता से है। प्रत्येक व्यवसाय में परिचालन हेतु कुछ धन (पूँजी) के विनियोग की आवश्यकता होती है। व्यवसाय में विनियोजित पूँजी पर लाभ पाने की आशा तो होती है, लेकिन यह निश्चित नहीं होता कि लाभ कितना होगा। बल्कि सतत प्रयासों के बावजूद भी हानि की आशंका सदैव बनी ही रहती है।

(छ) जोखिम के तत्व — जोखिम एक अनिश्चितता है, जो व्यावसायिक हानि की ओर इंगित करती है, जिनका कारण कुछ प्रतिकूल अथवा अवांछित घटक होते हैं। जोखिमों का संबंध कुछ व्यावसायिक घटनाओं से है, जैसेउपभोक्ताओं की पसंद या फैशन में परिवर्तन, उत्पादन विधियों में परिवर्तन, कार्यस्थल पर हड़ताल या तालेबंदी, बाज़ार-प्रतिस्पर्धा, आग, चोरी, दुर्घटनाएँ, प्राकृतिक आपदाएँ आदि। कोई भी व्यवसाय जोखिमों से अछूता नहीं रहता।

उद्यम स्तर पर व्यावसायिक कर्तव्य

व्यवसाय में निहित विभिन्न प्रकार के कार्यों को विभिन्न प्रकार के संगठनों द्वारा संपन्न किया जाता है, जिन्हें व्यावसायिक इकाई या फर्म कहा जाता है। व्यवसाय के संचालन हेतु उद्यम चार मुख्य प्रकार के काम करते हैं, ये हैं- वित्त व्यवस्था, उत्पादन, विपणन तथा मानव संसाधन प्रबंधन। वित्त व्यवस्था का संबंध, व्यवसाय के संचालन के लिए वित्त जुटाने तथा उसका सही उपयोग करने से है। उत्पादन का अर्थ कच्चे माल को निर्मित माल में परिवर्तित करने या सेवाओं को उत्पन्न करने से है। विपणन से तात्पर्य उन संपूर्ण क्रियाओं से है, जो वस्तुओं तथा सेवाओं के आदान-प्रदान में, उत्पादक से उन व्यक्तियों तक, उस स्थान व समय पर तथा उस कीमत पर उपलब्ध कराने से है जो वे चुकाने को तैयार हों एवं जिन्हें उनकी आवश्यकता हो। मानव संसाधन प्रबंधन उद्यम में विभिन्न प्रकार के कार्यों को पूरा करने का कौशल रखने वाले व्यक्तियों की उपलब्धता को सुनिश्चित करता है।


सारणी 1.1 व्यवसाय, पेशा तथा रोज़गार में तुलना

क्र.सं: $\quad$ धार व्यवसाय पेशा रोज़गार
1. स्थापना
की विधि
उद्यमी का निर्णय तथा अन्य
कानूनी औपचारिकताएँ, यदि
आवश्यक हों
किसी व्यावसायिक
संस्था की सदस्यता तथा
व्यावहारिक योग्यता का
प्रमाण-पत्र
नियुक्ति-पत्र तथा सेवा
समझौता
2. कार्य की
प्रकृति
जनता की वस्तुओं तथा
सेवाओं की सुलभता
व्यक्तिगत विशेषज सेवाएँ
प्रदान करना
सेवा समझौता या सेवा के
नियमों के अनुसार कार्य
करना
3. योग्यता किसी न्यूनतम योग्यता की
आवश्यकता नहीं
विशेष क्षेत्र में प्रशिक्षण
तथा विशेष योगता
(निपणपता) अति आवश्यक
नियोक्ता द्वारा निर्धारित
योग्यता एवं प्रशिक्षण
4. प्रतिफल अर्जित लाभ फीस वेतन या मज़दूरी
5. पूँजी
निवेश
व्यवसाय की प्रकृति एवं
आकार के अनुसार पूँजी निवेश
आवश्यक
स्थापना के लिए सीमित
पूँजी आवश्यक
पूँजी की आवश्यकता नहीं
6. जोखिम लाभ अनिश्चित तथा
अनियमित जोखिम सदैव
फीस नियमित एवं निश्चित,
कुछ जोखिम भी
निश्चित एवं नियमित
वेतन, कोई जोखिम नहीं
7. हित-
हस्तांतरण
कुछ औपचारिकताओं के साथ
हित-हस्तांतरण संभव
संभव नहीं संभव नहीं
8. आचार
संहिता
कोई आचार संहिता निर्धारित
नहीं
पेशेवर आचार संहिता का
पालन आवश्यक
व्यवहार के लिए नियोक्ता
द्वारा निर्धारित नियमों का
पालन आवश्यक

1.6.2 व्यवसाय, पेशा तथा रोजगार में तुलना

जैसे पहले बताया जा चुका है कि आर्थिक क्रियाओं को तीन मुख्य वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- व्यवसाय, पेशा, और रोज़ार। इन तीन वर्गों की भिन्नताओं को सारणी 1.1 में दर्शाया गया है।

1.7 व्यावसायिक क्रियाओं का वर्गीकरण

विभिन्न व्यावसायिक क्रियाओं को दो विस्तृत वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है- उद्योग एवं वाणिज्य। उद्योग से तात्पर्य वस्तुओं का उत्पादन अथवा प्रक्रिया है। वाणिज्य में वे सभी क्रियाएँ सम्मिलित की जाती हैं, जो वस्तुओं के आदान-प्रदान, संभरण तथा वितरण को संभव बनाती हैं। इन दो वर्गों के आधार पर हम व्यावसायिक फर्मों को औद्योगिक उद्यम तथा वाणिज्यिक उद्यम की श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं। अब हमें व्यावसायिक क्रियाओं का विस्तृत अध्ययन करना हैं।

1.7.1 उद्योग

उद्योग से अभिप्राय उन आर्थिक क्रियाओं से है, जिनका संबंध संसाधनों को उपयोगी वस्तुओं में परिवर्तित करना है। उद्योग शब्द का प्रयोग उन क्रियाओं के लिए किया जाता है, जिनमें यांत्रिक-उपकरण एवं तकनीकी कौशल का प्रयोग होता है। इनमें वस्तुओं का उत्पादन अथवा प्रक्रिया तथा पशुओं के प्रजनन एवं पालन से संबंधित क्रियाएँ सम्मिलित हैं। व्यापक अर्थों में उद्योग का अर्थ समान वस्तुओं अथवा संबंधित वस्तुओं के उत्पादन में लगी इकाइयों के समूह से है। उदाहरण के लिए, रुई अथवा कपास से सूती वस्त्र आदि बनाने वाली सभी इकाइयों को उद्योग कहते हैं। इन्हीं के समकक्ष बैंकिंग, बीमा आदि की सेवाएँ भी उद्योग कहलाती हैं, जैसे- बैंकिंग उद्योग, बीमा उद्योग आदि। उद्योगों को तीन व्यापक श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है- प्राथमिक उद्योग, द्वितीयक या माध्यमिक उद्योग एवं तृतीयक या सेवा उद्योग।

(क) प्राथमिक उद्योग— इन उद्योगों में, वे सभी क्रियाएँ सम्मिलित हैं जिनका संबंध प्राकृतिक संसाधनों के खनन एवं उत्पादन तथा पशु एवं वनस्पति के विकास से है। इन उद्योगों को पुन: इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है-

(i) निष्कर्षण उद्योग— ये उद्योग उत्पादों को प्राकृतिक स्त्रोतों से निष्कर्षित करते हैं। निष्कर्षण उद्योग आधारभूत कच्चे

माल की आपूर्ति करते हैं, जो प्राय: भूमि से प्राप्त किये जाते हैं। इन उद्योगों के उत्पादों को दूसरे विनिर्माणी उद्योगों द्वारा बहुत-सी उपयोगी वस्तुओं में परिवर्तित किया जाता है। मुख्य निष्कर्षण उद्योगों में खेती करना, उत्बनन, इमारती लकड़ी, शिकार तथा मछली पकड़ना आदि को सम्मिलित किया जाता है।

(ii) जननिक उद्योग- इन उद्योगों का मुख्य कार्य पशु-पक्षियों का प्रजनन एवं पालन तथा वनस्पति उगाना है, ताकि उनका उपयोग आगे विभिन्न उत्पादों के लिए किया जा सके। जननिक उद्योग, पौधों के प्रजनन के लिए ‘बीज तथा पौधा संवर्धन (नर्सरी) कंपनियाँ’ इसके विशेष उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त पशु प्रजनन फार्म, मुर्गी पालन, मछली पालन आदि जननिक उद्योगों के अन्य उदाहरण हैं।

(ख) द्वितीयक या माध्यमिक उद्योग- इन उद्योगों में खनन उद्योगों द्वारा निष्कर्षित माल को कच्चे माल के रूप में प्रयोग किया जाता है। इन उद्योगों द्वारा निर्मित माल या तो अंतिम उपभोग के लिए उपयोग में लाया जाता है या दूसरे उद्योगों में आगे की प्रक्रिया में उपयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ— कच्चा लोहा खनन, प्राथमिक उद्योग है, तो स्टील का निर्माण करना द्वितीयक या माध्यमिक उद्योग है। माध्यमिक उद्योगों को आगे निम्न श्रेणियों में विभक्त किया सकता जाता है।

(i) विनिर्माण उद्योग- इन उद्योगों द्वारा कच्चे माल को प्रक्रिया में लेकर उन्हें अधिक उपयोगी बनाया जाता है। इस प्रकार ये प्रारूप उपयोगिता का सृजन करते हैं। ये उद्योग कच्चे माल से तैयार माल बनाते हैं, जिनका हम उपयोग करते हैं। विनिर्माणी उद्योगों को उत्पादन प्रक्रिया के आधार पर निम्न चार श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-

  • विश्लेषणात्मक उद्योग— ये उद्योग एक ही उत्पाद के विश्लेषण एवं पृथकीकरण द्वारा तत्वों उत्पादित करते हैं, जैसे— तेल शोधक कारखाने।

  • कृत्रिम उद्योग—येउद्योग विभिन्न संघटकों को एकत्रित करके प्रक्रिया द्वारा एक नये उत्पाद का रूप देते हैं, जैसे — सीमेंट उद्योग।

  • प्रक्रियायी या प्रक्रमीय उद्योग— वे उद्योग जो पक्के माल के निर्माण के लिए विभिन्न क्रमिक चरणों से गुजरते हैं। उदाहरणार्थ— चीनी तथा कागज़ उद्योग।

  • सम्मेलित उद्योग— जो उद्योग एक नया उत्पाद तैयार करने के लिए विभिन्न पुर्जों को जोड़ते हैं। उदाहरणार्थ— टेलीविजजन, कार तथा कंप्यूटर आदि।

(ii) निर्माण उद्योग— ऐसे उद्योग, भवन, बांध, पुल, सड़क, सुरंग तथा नहरों जैसे निर्माण में संलग्न रहते हैं। इन उद्योगों में अभियांत्रिकी तथा वास्तुकलात्मक चातुर्य महत्वपूर्ण अंग होते हैं।

(ग) तृत्तीयक या सेवा उद्योग- इस प्रकार के उद्योग प्राथमिक तथा द्वितीयक उद्योगों को सहायक सेवाएँ सुलभ कराने में संलग्न होते हैं तथा व्यापारिक क्रियाकलापों को संपन्न कराते हैं। ये उद्योग सेवा-सुविधा सुलभ कराते हैं। व्यावसायिक क्रियाओं में, ये उद्योग वाणिज्य के सहायक अंग समझे जाते हैं क्योंकि ये उद्योग व्यापार की सहायता करते हैं। इस वर्ग में यातायात, बैंकिग, बीमा, माल-गोदाम, दूरसंचार, डिब्बा-बंदी तथा विज्ञापन आदि आते हैं।

1.7.2 वाणिज्य

वाणिज्य में दो प्रकार की क्रियाएँ सम्मिलित हैं, पहली वे जो माल की बिक्री अथवा विनिमय के लिए की जाती हैं, इन्हें व्यापार कहते हैं। दूसरी वे विभिन्न सेवाएँ जो व्यापार में सहायक होती हैं। इन्हें सेवाएँ अथवा व्यापार सहायक क्रियाएँ कहते हैं, जिनमें परिवहन, बैंकिंग, बीमा, दूरसंचार, विज्ञापन, पैकेजिंग एवं गोदाम व्यवस्था आदि सम्मिलित होती हैं। वाणिज्य, उत्पादक और उपभोक्ता के बीच की आवश्यक कड़ी का काम करता है। इसमें वे सभी क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं, जो वस्तु एवं सेवाओं के अबाध प्रवाह को बनाए रखने के लिए आवश्यक होती हैं। अतः वाणिज्य को इस प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है कि ये वे क्रियाएँ हैं, जो विनिमय में आने वाली बाधाओं को दूर करती हैं। विनिमय संबंधी बाधा को व्यापार दूर करता है, जो वस्तुओं को उत्पादक से लेकर उपभोक्ता तक पहुँचाता है। परिवहन स्थान संबंधी बाधा को दूर करता है, जो वस्तुओं को उत्पादन स्थल से बिक्री स्थल तक ले जाता है। संग्रहण एवं भंडारण, समय संबंधी रुकावट को दूर करते हैं। इसमें माल को गोदाम में बिक्री के समय तक रखा जाता है। गोदाम में रखे माल एवं स्थानांतरण के समय मार्ग में माल की चोरी, आग, दुर्घटना आदि जोखिमों से हानि हो सकती है। इन जोखिमों से माल का बीमा कर सुरक्षा प्रदान की जा सकती है। इन सभी क्रियाओं के लिए आवश्यक पूँजी, बैंक तथा अन्य वित्तीय संस्थानों से प्राप्त होती है। विज्ञापन के द्वारा उत्पादक एवं व्यापारी, उपभोक्ताओं को बाज़ार में उपलब्ध वस्तुओं एवं सेवाओं के संबंध में सूचना देते हैं। अत: वाणिज्य से अभिप्राय उन क्रियाओं से है जो वस्तु एवं सेवाओं के विनिमय में आने वाली व्यक्ति, स्थान, समय, वित्त एवं सूचना संबंधी बाधाओं को दूर करती हैं।

1.7 .3 व्यापार

व्यापार, वाणिज्य का अनिवार्य अंग है। इसका अर्थ-बिक्री, हस्तांतरण अथवा विनिमय से है। यह उत्पादित वस्तुओं को अंतिम उपभोक्ताओं को भौतिक अथवा अभौतिक रूप से उपलब्ध कराता है। आज के युग में, वस्तुओं का उत्पादन वृहद् पैमाने पर किया जाता है, लेकिन उत्पादकों के लिए अपनी वस्तुओं की बिक्री प्रत्येक उपभोक्ता को अलगअलग कर पाना दुष्कर है। व्यापारी मध्यस्थ के रूप में व्यापारिक क्रियाएँ करते हुए विभिन्न बाजजारों में उपभोक्ताओं को वस्तुएँ उपलब्ध कराते हैं। व्यापार व्यक्ति, अर्थात् उत्पादक तथा उपभोक्ता संबंधी बाधा को दूर करता है। व्यापार की अनुपस्थिति में बड़े पैमाने पर उत्पादन संभव नहीं हो सकता है।

व्यापार को दो बड़े वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- आंतरिक और बाह्य। आंतरिक अथवा देशी व्यापार में वस्तुओं और सेवाओं का आदान-प्रदान एक ही देश की भौगोलिक सीमाओं के अंदर किया जाता है। इसी को आगे थोक और फुटकर व्यापार में विभाजित किया जा सकता है। जब वस्तुओं का क्रय-विक्रय भारी मात्रा में किया जाता है, तो उसे थोक व्यापार तथा जब वस्तुओं का क्रयविक्रय अपेक्षाकृत कम मात्रा में किया जाता है, तो उसे फुटकर व्यापार कहा जाता है। बाह्य एवं विदेशी व्यापार में वस्तुओं एवं सेवाओं का आदान-प्रदान दो या दो से अधिक देशों के व्यक्तियों अथवा संगठनों के मध्य किया जाता है। यदि वस्तुओं का क्रय दूसरे देश से किया जाता है, तो उसे आयात व्यापार कहते हैं तथा जब वस्तुओं का विक्रय दूसरे देशों को किया जाता है, तो उसे निर्यात व्यापार कहते हैं। जब वस्तुओं का आयात किसी अन्य देश को निर्यात करने के लिए किया जाता है, तो उसे पुनर्निर्यात या आयात-निर्यात व्यापार कहते हैं।

1.7.4 व्यापार और व्यापार के सहायक

व्यापार में सहायक क्रियाओं को व्यापार का सहायक कहते हैं। इन क्रियाओं को सेवाएँ भी कहते हैं क्योंकि ये उद्योग एवं व्यापार में सहायक होती हैं। परिवहन, बैंकिंग, बीमा, भंडारण एवं विज्ञापन व्यापार के सहायक कार्य हैं, अर्थात् ये वे क्रियाएँ हैं जो सहायक की भूमिका निभाती हैं। वास्तव में, ये क्रियाएँ न केवल व्यापार में सहायक होती हैं, बल्कि उद्योग में भी सहायक होती हैं और इस प्रकार से पूरे व्यवसाय के लिए सहायक होती हैं। वास्तव में सहायक क्रियाएँ पूरे व्यवसाय का तथा विशेष रूप से वाणिज्य का अभिन्न अंग हैं। ये क्रियाएँ वस्तुओं के उत्पादन एवं वितरण में आने वाली बाधाओं को दूर करने में सहायक होती हैं। परिवहन, माल को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने में सहायक होता है। बैंकिंग, व्यापारियों को वित्तीय सहायता प्रदान करती है। बीमा, विभिन्न प्रकार के जोखिमों से सुरक्षा प्रदान करता है। भंडारण, संग्रहण व्यवस्था के द्वारा समय की उपयोगिता का सृजन करता है। विज्ञापन के माध्यम से सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। दूसरे शब्दों में, ये क्रियाएँ माल के स्थानांतरण, संग्रहण, वित्तीयन, जोखिम से सुरक्षा एवं माल की बिक्री, संवर्धन को सरल बनाती हैं। सहायक कार्यों का संक्षेप में वर्णन निम्न है-

(क) परिवहन एवं संत्रेषण — वस्तुओं का उत्पादन कुछ विशिष्ट जगहों पर होता है, उदाहरणार्थचाय असम में, रूई गुजरात तथा महाराष्ट्र में, जूट पश्चिम बंगाल और ओडिशा में, चीनी उत्तर प्रदेश, बिहार तथा महाराष्ट्र आदि में, लेकिन उपभोग के लिए इन वस्तुओं की आवश्यकता देश के सभी भागों में होती है। स्थान संबंधी बाधा को सड़क परिवहन, रेल परिवहन या तटीय जहाज़ानी द्वारा दूर किया जाता है। परिवहन के द्वारा कच्चा माल उत्पादन स्थल पर लाया जाता है तथा तैयार माल को कारखाने से उपभोग के स्थान तक ले जाया जाता है। परिवहन के साथ संप्रेषण माध्यमों की भी आवश्यकता होती है जिससे कि उत्पादक, व्यापारी एवं उपभोक्ता एक-दूसरे से सूचनाओं का आदान-प्रदान कर सकें। अत: डाक एवं टेलीफ़ोन सेवाएँ भी व्यावसायिक क्रियाओं की सहायक मानी जाती हैं।

(ख) बैंकिंग एवं वित्त — धन के बिना व्यवसाय का संचालन संभव नहीं, क्योंकि धन की आवश्यकता परिसंपत्तियों को क्रय करने तथा नित्य-प्रति के व्ययों को पूरा करने के लिए होती है। व्यवसायी आवश्यक धन राशि बैंक से प्राप्त कर सकते हैं। बैंक वित्त की समस्या का समाधान कर व्यवसाय की सहायता करते हैं वाणिज्यिक बैंक अधिविकर्ष एवं नकद साख, ऋण एवं अग्रिम के माध्यम से राशि उधार देते हैं। बैंक चैकों की वसूली धन अन्य स्थानों पर भेजने तथा व्यापारियों की ओर से बिलों को भुनाने का कार्य भी करते हैं। विदेशी व्यापार में, वाणिज्यिक बैंक आयातकों एवं निर्यातकों दोनों की ओर से भुगतान की व्यवस्था भी करते हैं। वाणिज्यिक बैंक जनसाधारण से पूँजी एकत्रित करने में भी कंपनी प्रवर्तकों की सहायता करते हैं।

(ग) बीमा — व्यवसाय में अनेकों प्रकार के जोखिम होते हैं। कारखाने की इमारत, मशीन, फ़र्नीचर आदि का आग, चोरी एवं अन्य जोखिमों से बचाव आवश्यक है। माल एवं अन्य वस्तुएँ चाहे गोदाम में हों या मार्ग में, उनके खोने अथवा क्षतिग्रस्त हो जाने का भय रहता है। कर्मचारियों की भी दुर्घटना अथवा व्यावसायिक जोखिमों से सुरक्षा आवश्यक है। बीमा इन सभी को सुरक्षा प्रदान करता है। एक साधारण से प्रीमियम की राशि का भुगतान कर बीमा कंपनी से हानि अथवा क्षति की राशि की एवं शारीरिक दुर्घटनावश चोट से होने वाली क्षति की पूर्ति कराई जा सकती है।

(घ) भंडारण - प्राय: वस्तुओं के उत्पादन के तुरंत पश्चात् ही उनका उपयोग या विक्रय नहीं होता। उन्हें आवश्यकता पड़ने पर सुलभ कराने के लिए गोदामों में सुरक्षित रखा जाता है। माल को क्षति से बचाने के लिए उसकी सुरक्षा आवश्यक होती है। इसलिए उसके सुरक्षित संग्रहण की विशेष व्यवस्था की जाती है। भंडारण व्यावसायिक इकाइयों को संग्रहण की कठिनाई को हल करने में सहायता प्रदान करता है तथा वस्तुओं को उस समय उपलब्ध कराता है, जब उनकी आवश्यकता होती है। वस्तुओं की लगातार आपूर्ति द्वारा मूल्यों को उचित स्तर पर रखा जा सकता है।

विज्ञापन और जनसंपर्क- एक पुरानी कहावत है “विज्ञापन वह है जिसका आप भुगतान करते हैं और जनसंपर्क वह है जिसके लिए आप प्रार्थना करते हैं। विज्ञापन और जनसंपर्क दोनों गतिविधियाँ वाणिज्य के लिए आपके संभावित ग्राहकों के लिए उत्पाद, सेवाओं को बढ़ावा देने के साधन हैं और आपके लक्षित ग्राहकों को आपकी उपलब्धियों को पहचानने के लिए प्रेरित करते हैं।

विज्ञापन और जनसंपर्क गतिविधियाँ उत्पादों और सेवाओं की बिक्री को बढ़ावा देने के सबसे महत्वपूर्ण तरीकों में से एक हैं। उत्पादकों और व्यापारियों के लिए प्रत्येक ग्राहक से संपर्क करना व्यावहारिक रूप से असंभव है। इसलिए बिक्री को बढ़ावा देने के लिए, विज्ञापनों और प्रचार साधनों के माध्यम से संभावित ग्राहकों को उत्पादों और सेवाओं की विशेषताओं, कीमत, आदि के बारे में जानकारी उपलब्ध कराई जाती है। इसके अलावा, वस्तुओं और सेवाओं आदि की उपयोगिता विशेषताओं, गुणवत्ता, मूल्य, प्रतिस्पर्धी जानकारी के बारे में संभावित ग्राहकों और खरीदारों को समझाने की आवश्यकता होती है। उत्पादों और सेवाओं के ऐसे गुणों का प्रचार, जन संपर्क बनाए रखने की विभिन्न तकनीकों का उपयोग करके किया जाता है।

एक लोकप्रिय जन संपर्क साधन प्रिंट और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म में प्रेस रिलीज़ का उपयोग है। विज्ञापन और जनसंपर्क गतिविधियाँ उपलब्ध वस्तुओं और सेवाओं के बारे में जानकारी प्रदान करने और ग्राहकों को विशेष वस्तुएँ खरीदने के लिए प्रेरित करने में मदद करते हैं। विज्ञापन हमेशा एक सवेतन गतिविधि होती है जहाँ व्यवसाय अपने उत्पाद या सेवा को बढ़ावा देने के लिए प्रिंट या गैर-प्रिंट मीडिया में जगह बनाता है। दूसरी ओर, जन संपर्क गतिविधियाँ, सामान्यता अवैतनिक होती हैं, जहाँ पारस्परिक रूप से लाभकारी संबंध बनाने के लिए व्यापार एक रणनीतिक संचार प्रारंभ करता है।

1.8 व्यवसाय के उद्देश्य

व्यवसाय का प्रारंभ बिंदु कोई उद्देश्य होता है। सभी व्यवसाय कुछ उद्देश्यों को प्राप्त करने के प्रति अभिमुख होते हैं। ये उद्देश्य उस ओर संकेत करते हैं कि व्यवसायी अपने कार्यों के बदले क्या प्राप्त करना चाहते हैं। साधारणतया यह समझा जाता है कि व्यवसाय का संचालन केवल लाभ कमाने के लिए होता है। व्यवसायी स्वयं भी यह दर्शाते हैं कि वस्तुओं अथवा सेवाओं के उत्पादन या वितरण करने में उनका मुख्य लक्ष्य लाभ कमाना ही है। प्रत्येक व्यवसायी का सामान्यत: यह प्रयास रहता है कि उसे नियोजित राशि से अधिक लाभ प्राप्त हो सके। दूसरे शब्दों में, व्यवसाय का उद्देश्य लाभ अर्जित करना है, जो लागत पर आगम का आधिक्य है। आज के युग में, यह सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया है कि व्यावसायिक इकाइयाँ समाज का एक अंग हैं और उनके कुछ उद्देश्य, सामाजिक उत्तरदायित्वों सहित होने चाहिए ताकि वे लंबे समय तक चल सके तथा प्रगति कर सकें। लाभ, अग्रणी उद्देश्य होता है, लेकिन एकमात्र नहीं।

यद्यपि लाभ कमाना ही व्यवसाय का एक उद्देश्य नहीं हो सकता, लेकिन इसके महत्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती। प्रत्येक व्यवसाय का प्रयत्न होता है कि जो कुछ भी उसने निवेश किया है उससे अधिक प्राप्त किया जाए। लागत से आगम का आधिक्य लाभ कहलाता है। लाभ को विभिन्न कारणों से व्यवसाय का एक आवश्यक उद्देश्य माना जा सकता है-

(i) यह व्यवसायी के लिए आय का स्त्रोत है,

(ii) यह व्यवसाय के विचार के लिए आवश्यक वित्त का स्त्रोत हो सकता है,

(iii) यह व्यवसाय की कुशल कार्यशैली का द्योतक होता है,

(iv) यह व्यवसाय का समाज के लिए उपयोगी होने की स्वीकारोक्ति भी हो सकता है, तथा

(v) यह एक व्यावसायिक इकाई की प्रतिष्ठा को बढ़ाता है।

फिर भी, एक अच्छे व्यवसाय के लिए केवल लाभ पर बल देना तथा दूसरे उद्देश्यों को भुला देना खतरनाक साबित हो सकता है। यदि व्यवसाय के प्रबंधक केवल लाभ के मनोग्रस्त हो जाएँ, तो वे ग्राहकों, कर्मचारियों, विनियोजकों तथा समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को भुला सकते हैं तथा तत्काल लाभ कमाने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों का शोषण भी कर सकते हैं। इसका नतीजा यह हो सकता है कि प्रभावित लोग उस व्यावसायिक इकाई के साथ असहयोग करें या उसके दुराचरण का विरोध करें। फलस्वरूप इकाई का धंधा चौपट हो सकता है। यही कारण है कि ऐसा व्यवसाय मुश्किल से ही मिलता है जिसका उद्देश्य केवल अधिक से अधिक लाभ कमाना हो। यह उसके अपने अस्तित्व और समृद्धि के लिए आवश्यक है। किसी उद्यम के लाभ में लगातार वृद्धि समाज को उपयोगी सेवाएँ प्रदान करने के कारण हो सकती है। वास्तव में उद्देश्य हर उस क्षेत्र में वांछनीय है जो प्रत्येक क्षेत्र में व्यवसाय को जीवित रखते हैं तथा समृद्धि को प्रभावित करते हैं। यदि किसी व्यवसाय को आवश्यकता तथा लक्ष्य में संतुलन रखना है तो उसे बहुमुखी उद्देश्यों को भी अपने सम्मुख रखना होगा। वह केवल एक लक्ष्य को सामने रखकर महारथ हासिल नहीं कर सकता। उद्देश्य प्रत्येक क्षेत्र में विशिष्ट तथा व्यवसाय के अनुरूप होने चाहिए। यह उद्देश्य इस प्रकार हैं-

(i) बाज़ार स्थिति— सफलता और समृद्धि के लिए व्यक्ति के व्यवसाय की ख्याति और प्रतिष्ठा सर्वोपरि है। यह बाजार में एक विशिष्ट पहचान बनाने में मदद करता है और इसे अपने प्रतिद्वंद्वियों के संबंधा में बाजार स्थिति के रूप में संदर्भित किया जाता है। एक व्यावसायिक उद्यम को अपने ग्राहकों को उचित मूल्य पर प्रतिस्पर्धी उत्पाद उपलब्ध कराने और उन्हें उनकी संतुष्टि की सेवा प्रदान करने के लिए मजबूत आधार पर खड़े होने पर लक्षित होना चाहिए।

(ii) नवाचार— नवाचार किसी भी व्यावसायिक उपक्रम की वृद्धि के लिए प्रमुख होता है। यह व्यवसाय को बाजार में उद्यम को बढ़ाने और प्रतिस्पर्धा में बढ़त देने में मदद करता है। नवाचार को नए विचारों या तरीकों की शुरुआत के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिस तरह से कुछ किया या बनाया जाता है। परंतु, इसका अर्थ यह नहीं है कि एक नए उत्पाद का निर्माण किया जाना है। इसके संचालन को बढ़ाने के लिए मौजूदा उत्पाद में कोई संशोधान भी नवप्रवर्तनशीलता को दर्शाता है। प्रत्येक व्यवसाय मेंदोप्रकार के नवाचार होते हैं, अर्थात्

(i) उत्पाद या सेवाओं में नवाचारय और
(ii) उत्पादों और सेवाओं की आपूर्ति के लिए आवश्यक विभिन्न कौशलों और गतिविधियों में नवाचार। नवाचार के बिना कोई भी व्यवसायिक उपकरण प्रतिस्पर्धी दुनिया में पनप नहीं सकता है। इसलिए, नवाचार एक महत्वपूर्ण उद्देश्य बन जाता है।

(iii) उत्पादकता- इनपुट के मूल्य के साथ आउटपुट के मूल्य की तुलना करके उत्पादकता का पता लगाया जाता है। इसका उपयोग दक्षता के माप के रूप में किया जाता है। निरंतर अस्तित्व और प्रगति को सुनिश्चित करने के लिए, प्रत्येक उद्यम को उपलब्ध संसाधनों के सर्वोत्तम उपयोग के माधयम से अधिक उत्पादकता का लक्ष्य रखना चाहिए।

(iv) भौतिक और वित्तीय संसाधान — किसी भी व्यवसाय के लिए भौतिक संसाधानों, जैसे- संयंत्रों, मशीनों, कार्यालयों आदि और वित्तीय संसाधानों अर्थात् अपने ग्राहकों की आपूर्ति के लिए वस्तुओं के उत्पादन और सेवाओं हेतु सक्षम होने के लिए धन की आवश्यकता होती है। व्यावसायिक उद्यम को अपनीआवश्यकताओंके अनुसार इनसंसाधनों को प्राप्त करने और उसका कुशलतापूर्वक उपयोग करने का लक्ष्य रखना चाहिए।

(v) लाभ कमाना— व्यवसाय का एक उद्देश्य लगाईगई पूँजी पर लाभ कमाना है। लाभकारिता का अर्थ पूँजी निवेश के संबंध में लाभ है। प्रत्येक व्यवसाय को एक उचित लाभ कमाना चाहिए जो उसके अस्तित्व और विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

(vi) सामाजिक उत्तरदायित्व- सामाजिक उत्तरदायित्व व्यावसायिक फ़र्मों के दायित्व से संबंध रखता है कि वे सामाजिक समस्याओं को हल करने के लिए संसाधनों का योगदान करें और सामाजिक रूप से वांछनीय तरीके से काम करें।

1.9 व्यावसायिक जोखिम

व्यावसायिक जोखिम से आशय अपर्याप्त लाभ या फिर हानि होने की उस संभावना से है जो नियंत्रण से बाहर अनिश्चितताओं या आकस्मिक घटनाओं के कारण होती है। उदाहरणार्थ— किसी वस्तु विशेष की माँग में कमी, उपभोक्ताओं की रुचि या प्राथमिकताओं में परिवर्तन या उसी प्रकार के उत्पाद बेचने वाली प्रतियोगी संस्थाओं में प्रतिस्पर्धा अधिक होने से लाभ में कमी, बाजार में कच्चे माल की कमी के कारण मूल्यों में वृद्धि आदि। जो फर्म ऐसे कच्चे माल को उपयोग में ला रही हैं, उन्हें इसे क्रय करने के लिए अधिक राशि का भुगतान करना पड़ता है। परिणामत: लागत मूल्य बढ़ जाता है जिस कारण लाभ में कमी आ सकती है। व्यवसायों को निश्चित रूप से दो प्रकार के जोखिमों का सामना करना पड़ता है- अनिश्चित जोखिम और शुद्ध जोखिम। अनिश्चित जोखिमों में दोनों संभावनाएँ विद्यमान होती हैं-लाभ की भी तथा हानि की भी। संदिध हानियाँ, बाजार की दशा जिसमें माँग व पूर्ति में उतार-चढ़ाव शामिल हैं तथा इस कारण मूल्यों में आए परिवर्तन से या ग्राहकों की रुचि या फैशन में परिवर्तन होने के कारण होती हैं। यदि बाज़ार की दशा व्यवसाय के पक्ष में है तो लाभ हो सकता है। दशा विपरीत होने की अवस्था में हानि की संभावना रहती है।

शुद्ध हानियों में या तो हानि होगी अथवा हानि नहीं होगी। आग लगना, चोरी होना या हड़ताल होना, शुद्ध हानियों के उदाहरण हैं। यदि ये घटनाएँ घटित होती हैं तो हानि होगी तथा इन घटनाओं के घटित न होने पर हानि नहीं होगी।

1.9.1 व्यावसायिक जोखिमों की प्रकृति

व्यावसायिक जोखिमों को समझने के लिए इनकी विशिष्ट विशेषताओं का ज्ञान आवश्यक है-

(क) व्यावसायिक जोखिम अनिश्चितताओं के कारण होते हैं- अनिश्चितता से तात्पर्य भविष्य में होने वाली घटनाओं की अनभिज्ञता से है। प्राकृतिक आपदाएँ, माँग और मूल्य में परिवर्तन, सरकारी नीति में परिवर्तन, तकनीक में सुधार आदि ऐसे उदाहरण हैं जिनसे अनिश्चितता बनी रहती है, ये परिवर्तन व्यवसाय के लिए जोखिम के कारण हो सकते हैं। इन कारणों का पहले से ज्ञान नहीं हो सकता है।

(ख) जोखिम प्रत्येक व्यवसाय का आवश्यक अंग होता है— प्रत्येक व्यवसाय में जोखिम होता है। कोई भी व्यवसाय इससे अछूता नहीं है। यद्यपि व्यवसाय में हानि की मात्रा भिन्न हो सकती है। जोखिम को कम किया जा सकता है, लेकिन समाप्त नहीं किया जा सकता।

(ग) जोखिम की मात्रा मुख्यत व्यवसाय की प्रकृति एवं आकार पर निर्भर करती है- व्यवसाय की प्रकृति (उत्पादित एवं विक्रित वस्तुओं और सेवाओं के प्रकार) तथा व्यवसाय का आकार (उत्पादन एवं विक्रय की मात्रा) मुख्य घटक हैं, जो व्यवसाय में जोखिम की मात्रा का निर्धारण करते हैं। उदाहरणार्थ— जो व्यवसाय फैशन की चीजों में लेन-देन करते हैं, उनमें जोखिम की मात्रा अधिक होती है। उसी प्रकार वृहद् स्तरीय व्यवसाय में लघु स्तरीय व्यवसाय की अपेक्षा जोखिम अधिक होता है।

(घ) जोखिम उठाने का प्रतिफल लाभ होता है— ‘जोखिम नहीं तो लाभ नहीं’ एक पुराना सिद्धांत है, जो सभी प्रकार के व्यवसायों में लागू होता है। किसी व्यवसाय में अधिक जोखिम होने पर लाभ अधिक होने का अवसर होता है। कोई भी उद्यमी भविष्य में अधिक लाभ पाने की लालसा में ही अधिक जोखिम उठाता है।

1.9.2 व्यावसायिक जोखिमों के कारण

व्यावसायिक जोखिमों के अनेकों कारण होते हैं, जिनको निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है-

(क) प्राकृतिक कारण— प्राकृतिक आपदाएँ, जैसे- बाढ़, भूचाल, बिजली गिरना, भारी वर्षा, अकाल आदि पर मनुष्य का लगभग नहीं के बराबर नियंत्रण है। व्यवसाय में इनसे संपत्ति एवं आय की भारी हानि हो सकती है।

(ख) मानवीय कारण— मानवीय कारणों में कर्मचारियों की बेईमानी, लापरवाही या अज्ञानता को सम्मिलित किया जा सकता है। बिजली फेल हो जाना, हड़ताल होना, प्रबंधकों की अकुशलता आदि भी मानवीय कारणों के उदाहरण हैं।

(ग) आर्थिक कारण— इन कारणों में माल की माँग में अनिश्चितता, प्रतिस्पर्धा, मूल्य, ग्राहकों से देय राशि, तकनीक में परिवर्तन या उत्पादन की विधि में परिवर्तन आदि को सम्मिलित किया जा सकता है। वित्तीय समस्याओं में ऋण पर ब्याज दर में वृद्धि, करों की भारी उगाही आदि भी इस प्रकार के कारणों की श्रेणी में आते हैं। परिणामत: व्यवसाय संचालन लागत (व्यय) असंभावित रूप से अधिक हो जाती है।

(घ) अन्य कारण— इनमें अदृश्य घटनाएँ, जैसेराजनैतिक उथल-पुथल, मशीनों में खराबी, बॉयलर का फट जाना, मुद्रा विनिमय दर में उतार-चढ़ाव आदि हैं जिनके कारण व्यवसाय में जोखिमों की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं।

1.10 व्यवसाय शुरू करना - मूल कारक

एक व्यावसायिक उपक्रम शुरू करना किसी भी अन्य मानव प्रयास के समान है जिसमें कुछ उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संसाधानों को नियोजित किया जाता है। अपने स्वयं के व्यवसाय को स्थापित करने की प्रक्रिया को उद्यमिता कहा जाता है। अपना व्यवसाय स्थापित करने वाला व्यक्ति उद्यमी कहलाता है। प्रक्रिया के आउटपुट, अर्थात, व्यावसायिक इकाई को व्यावसायिक उद्यम कहा जाता है। यह नोट करना रोचक है कि उद्यमी को स्वरोज़गार प्रदान करने के अलावा उद्यमिता अन्य दो आर्थिक गतिविधियों- रोज़गार और पेशे के लिए अवसरों के निर्माण और विस्तार के लिए भी बहुत हद तक उत्तरदायी है। और, इस प्रक्रिया में, व्यावसायिक उद्यमिता किसी राष्ट्र के समग्र आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण हो जाती है।

जब आप यह विकल्प लेते हैं, तो आप नौकरी तलाशने वाले के बजाय नौकरी देने वाले बन जाते हैं, इसके अलावा अन्य वित्तीय और मनोवैज्ञानिक लाभ देने वाले भी बन जाते हैं। अपना खुद का व्यवसाय शुरू करके उद्यमिता पाना उद्यमी बनने की आकांक्षा है। इसे व्यवसाय के साथ जुड़े जोखिमों और अनिश्चितताओं के अनुसार ग्राहकों को मूल्य पहुँचाने, निवेशकों के लिए प्रतिलाभ और अपने लाभों की दृष्टि से आवश्यकता की पहचान करने, संसाधानों को जुटाने और उत्पादन को सुव्यवस्थित करने की एक व्यवस्थित, उद्देश्यपूर्ण और रचनात्मक गतिविधि के रूप में परिभाषित किया गया है। यह परिभाषा उन कारकों की ओर इशारा करती है, जिन पर व्यवसाय शुरू करने के लिए विचार किया जाना चाहिए। अपने व्यवसाय को शुरू करना और प्रबंधित करना अनायास नहीं हो पाता है। बल्कि, यह एक व्यक्ति और व्यावसायिक वातावरण के बीच पारस्परिक क्रिया का परिणाम है। एक उद्यमी होने का विकल्प एक व्यक्ति के पास होता है। इस संबंध में, पर्यावरण में दोनों कारकों के साथ ही व्यक्तिगत वांछनीयता और व्यवहार्यता की धाारणा में कारकों को देखना अनिवार्य हो जाता है।

(क) व्यवसाय के स्वरूप का चयन— किसी भी उद्यमी को नए व्यवसाय को प्रारंभ करने से पूर्व उसकी प्रकृति तथा प्रकार पर ध्यान देना चाहिए। स्वत: ही वह उस प्रकार के उद्योग या सेवा को चुनना पसंद करेगा जिसमें अधिक लाभ अर्जित करने की आशा हो, लेकिन यह निर्णय बाज़ार में ग्राहकों की आवश्यकता तथा उद्यमी के तकनीकी ज्ञान एवं उत्पाद विशेष के निर्माण में उसकी रुचि से प्रभावित होगा।

(ख) फर्म का आकार— व्यवसाय आरंभ करते समय व्यवसाय का आकार या उसका विस्तार, ऐसा दसरा महत्वपूर्ण निर्णय है जिसका ध्यान रखा जाना चाहिए। कुछ घटक बड़े आकार के पक्ष में होते हैं, तो अन्य उसे सीमित रखने के पक्ष में। यदि उद्यमी को यह विश्वास हो कि उसके उत्पाद की माँग बाज़ार में अच्छी होगी तथा वह व्यवसाय के लिए आवश्यक पूँजी का प्रबंध कर सकता है तो वह बड़े पैमाने पर व्यवसाय प्रारंभ करेगा। यदि बाज़ार की दशा अनिश्चित है तथा जोखिम अत्यधिक है तो छोटे पैमाने का व्यवसाय ही बेहतर रहेगा।

(ग) स्वामित्व के स्वरूप का चुनाव— स्वामित्व के संबंध में संगठन का रूप एकाकी व्यापार, साझेदारी या संयुक्त पूँजी कंपनी का हो सकता है। उपयुक्त स्वामित्व स्वरूप का चुनाव पूँजी की आवश्यकता, स्वामियों के दायित्व, लाभ के विभाजन, विधिक औपचारिकताएँ, व्यवसाय की निरंतरता, हित-हस्तांतरण आदि पर निर्भर करेगा।

(घ) उद्यम का स्थान— व्यवसाय प्रारंभ करते समय ध्यान में रखने वाला एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटक है वह स्थान, जहाँ व्यावसायिक क्रियाओं का संचालन होगा। इसके संबंध में किसी भी त्रुटि का परिणाम ऊँची उत्पादन लागत, उचित प्रकार के उत्पादन निवेशों की प्राप्ति से असुविधा तथा ग्राहकों को अच्छी सेवा देने में कठिनाई के रूप में होगा। उद्यम के स्थान का चुनाव करने में कच्चे माल की उपलबिध, श्रम, बिजली आपूर्ति, बैंकिंग, यातायात, संग्रेषण, भंडारण आदि महत्वपूर्ण विचारणीय घटक हैं।

(ड) प्रस्थापन की वित्त व्यवस्था— वित्त व्यवस्था से अभिप्राय प्रस्तावित व्यवसाय को प्रारंभ करने तथा उसकी निरंतरता के लिए आवश्यक पूँजी की व्यवस्था करना है। पूँजी की आवश्यकता स्थायी संपत्तियों, जैसे— भूमि, भवन, मशीनरी तथा साजो-सामान तथा चालू संपत्तियों, जैसे— कच्चा माल, देनदार (पुस्तक ऋण), तैयार माल का स्टॉक आदि में निवेश करने के लिए पूँजी की आवश्यकता होती है। दैनिक व्ययों का भुगतान करने के लिए भी पूँजी की आवश्यकता होती है। समुचित वित्तीय योजना-(i) पूँजी की आवश्यकता; (ii) स्त्रोत, जहाँ से पूँजी प्राप्त हो सकेगी; तथा (iii) फर्म में पूँजी के सर्वोत्तम उपयोग की निश्चित रूपरेखा बनाई जानी चाहिए।

(च) भौतिक सुविधाएँ- व्यवसाय प्रारंभ करते समय भौतिक सुविधाओं की उपलब्धि का भी ध्यान रखना चाहिए, जिसमें मशीन तथा साजोसामान, भवन एवं सहायक सेवाएँ शामिल हैं। महत्वपूर्ण घटक का निर्णय व्यवसाय की प्रकृति एवं आकार-वित्त की उपलब्धता तथा उत्पादन प्रक्रिया पर निर्भर करेगा।

(छ) संयंत्र अभिन्यास (प्लांट लेआउट)— जब भौतिक सुविधाओं की आवश्यकताएँ निश्चित हो जाएँ, तो उद्यमी को संयंत्र का ऐसा नक्शा बनाना चाहिए, जिसमें सभी आवश्यक सुविधाएँ शामिल हों। अभिन्यास (नक्शा) से आशय प्रत्येक उस वस्तु की व्यवस्था करने से है, जो किसी उत्पाद के निर्माण के लिए आवश्यक हो, जैसे— मशीन, मानव, कच्चा माल तथा निर्मित माल की भौतिक व्यवस्था।

(ज) सक्षम एवं वचनबद्ध कामगार बल- प्रत्येक उद्यम को विभिन्न कार्यों को पूरा करने के लिए सक्षम एवं वचनबद्ध कामगार बल की आवश्यकता होती है ताकि भौतिक तथा वित्तीय संसाधनों को वांछित उत्पाद में परिवर्तित किया जा सके। कोई भी उद्यमी सभी कार्यों को स्वयं नहीं कर सकता, अत: उसे कुशल और अकुशल श्रमिकों तथा प्रबंधकीय कर्मचारियों की आवश्यकताओं को पहचानना चाहिए। कर्मचारी अपने कार्य श्रेष्ठ तरीके से कर सकें, इसके लिए प्रशिक्षण तथा उत्प्रेरण की समुचित व्यवस्था भी करनी होगी।

(झ) कर संबंधी योजना- आजकल कर संबंधी योजना एक आवश्यक कार्य बन गया है क्योंकि विविध कानून व्यवसाय की कार्यविधि के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करते हैं। व्यवसाय के प्रवर्तक को विभिन्न कर कानूनों के अंतर्गत कर दायित्व तथा व्यावसायिक निर्णयों पर उनके प्रभाव के संबंध में पहले से सोचकर चलना चाहिए।

(ञ) उद्यम प्रारंभ करना— उपर्युक्त कारकों से संबंधित निर्णय लिए जाने के बाद, उद्यमी उद्यम की वास्तविक शुरुआत के साथ आगे बढ़ सकता है, जिसका अर्थ होगा विभिन्न संसाधान जुटाना, आवश्यक कानूनी औपचारिकताओं को पूरा करना, उत्पादन प्रक्रिया शुरू करना और बिक्री प्रचार अभियान आरंभ करना। कोई व्यवसाय उद्यम एक एकमात्र मालिकाना फ़र्म, एक साझेदारी फ़र्म या एक कंपनी हो सकती है जिसके लिए

(i) पूँजी की आवश्यकता,

(ii) स्त्रोत जहाँ से पूँजी जुटाई जाएगी और

(iii) फर्म में पूँजी के उपयोग के सर्वोत्तम तरीकों का निर्धारण करने के लिए उचित वित्तीय नियोजन किया जाना चाहिए।

मुख्य शब्दावली
आर्थिक क्रियाएँ $\quad \quad \quad \quad$ उद्योग $\quad \quad \quad \quad$ जोखिम $\quad \quad \quad \quad$ व्यवसाय
व्यापार $\quad \quad \quad \quad$ पेशा $\quad \quad \quad \quad$ वाणिज्य $\quad \quad \quad \quad$ रोज़ार
लाभ

सारांश

व्यवसाय की अवधारणा तथा विशेषताएँ

व्यवसाय से आशय उन आर्थिक क्रियाओं से है, जिनमें समाज में मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए लाभ कमाने के उद्देश्य से वस्तुओं और सेवाओं का सृजन एवं विक्रय किया जाता है। इसकी विशिष्ट विशेषताएँ हैं

1. आर्थिक क्रिया;

2. वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन एवं प्राप्ति;

3. मानवीय आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए वस्तुओं और सेवाओं का विक्रय एवं विनिमय;

4. नियमित रूप से वस्तुओं और सेवाओं का लेन-देन;

5. लाभ अर्जन;

6. प्रतिफल की अनिश्चितता; एवं

7. जोखिम के तत्व।

व्यवसाय, पेशा तथा रोज़गार में तुलना

व्यवसाय का अभिप्राय उन आर्थिक क्रियाओं से है, जिनका संबंध लाभ कमाने के उद्देश्य से वस्तुओं का उत्पादन, या क्रय-विक्रय, या सेवाओं की पूर्ति से हो। पेशे में वे क्रियाएँ सम्मिलित हैं, जिनमें विशेष ज्ञान व दक्षता की आवश्यकता होती है और व्यक्ति इनका प्रयोग अपने धंधे में करता है। रोज़गार का अभिप्राय उन धंधों से है, जिनमें लोग नियमित रूप से दूसरों के लिए कार्य करते हैं और बदले में पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं। इन तीनों की तुलना स्थापना की विधि, कार्य की प्रकृति, आवश्यक योग्यता, पुरस्कार या प्रतिफल, पूँजी विनियोजन, जोखिम, हित हस्तांतरण तथा आचार संहिता के आधार पर किया जा सकता है।

व्यावसायिक क्रियाओं का वर्गीकरण

व्यावसायिक क्रियाओं को दो विस्तृत वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-उद्योग और वाणिज्य। उद्योग से तात्पर्य वस्तुओं एवं पदार्थों का उत्पादन अथवा संशोधित करना है। उद्योग प्राथमिक, द्वितीयक तथा तृतीयक सेवा उद्योग हो सकते हैं। प्राथमिक उद्योगों में वे सभी क्रियाएँ सम्मिलित हैं, जिनका संबंध प्राकृतिक संसाधनों के खनन एवं उत्पादन तथा पशु एवं वनस्पति के विकास से है। प्राथमिक उद्योग निष्कर्षण (जैसे- खनन) अथवा जननिक (जैसे— मुर्गी पालन) प्रकार के हैं। द्वितीयक या माध्यमिक उद्योगों में निष्कर्षण उद्योगों द्वारा निष्कर्षित माल को कच्चे माल के रूप में प्रयोग किया जाता है। ये उद्योग विनिर्माणी या रचनात्मक कहलाते हैं। विनिर्माणी उद्योगों को विश्लेषणात्मक, कृत्रिम प्रक्रिया तथा व्यवस्थित के रूप में विभाजित किया जा सकता है। तृतीयक या सेवा उद्योग प्राथमिक तथा द्वितीयक उद्योगों को सहायक सेवाएँ सुलभ कराने में संलग्न रहते हैं तथा व्यापार संबंधित कार्यों में भी सहायता करते हैं।

वाणिज्य से तात्पर्य व्यापार और व्यापार की सहायक क्रियाओं से है। व्यापार का संबंध वस्तुओं के विक्रय, हस्तांतरण अथवा विनिमय से है। उसको आंतरिक (देशीय) तथा बाह्य (विदेशी) व्यापार के रूप में विभाजित किया जाता है। आंतरिक व्यापार को पुन: थोक व्यापार या फुटकर व्यापार में विभाजित किया जाता है। एक अन्य विभाजन बाह्य व्यापार, आयात, निर्यात अथवा पुनर्निर्यात व्यापार के रूप में भी हो सकता है। व्यापार की सहायक क्रियाएँ वे हैं, जो व्यापार को सहायता प्रदान करती हैं। इनमें परिवहन तथा संचार, बैंकिंग एवं वित्त, बीमा, भंडारण तथा विज्ञापन सम्मिलित हैं।

व्यवसाय के उद्देश्य— यद्यपि केवल लाभ कमाना ही व्यवसाय का मुख्य उद्देश्य समझा जाता है। व्यवसाय के लिए उद्देश्यों की आवश्यकता प्रत्येक उस क्षेत्र में होती है, जो निष्पादन परिणाम व्यवसाय के जीवन और समृद्धि को प्रभावित करते हैं। उद्देश्यों में से कुछ हैं- क्षेत्र बाजजार स्थिति, नवप्रवर्तन, उत्पादकता, भौतिक एवं वित्तीय संसाधन, लाभार्जन, प्रबंध निष्पादन एवं विकास, कर्मचारी निष्पादन एवं अभिवृत्ति तथा सामाजिक उत्तरदायित्व।

व्यावसायिक जोखिम— व्यावसायिक जोखिमों से आशय अपर्याप्त लाभ या फिर हानि होने की संभावना से है, जो अनिश्चितताओं या असंभावित घटनाओं के कारण होती है। इनकी प्रकृति को इनकी विशिष्ट विशेषताओं की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है, जो निम्न हैं-

1. व्यावसायिक जोखिम अनिश्चितताओं के कारण होते हैं;

2. जोखिम प्रत्येक व्यवसाय का अंग होता है;

3. जोखिम की मात्र मुख्यत: व्यवसाय की प्रकृति एवं आकार पर निर्भर करती है; तथा

4. जोखिम उठाने का प्रतिफल लाभ होता है;

व्यावसायिक जोखिमों के अनेकों कारण होते हैं, जिनको निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है,

जैसे- प्राकृतिक, मानवीय, आर्थिक तथा अन्य कारण।

व्यवसाय का आरंभ— मूल घटक जिनका एक व्यवसायी को जो एक व्यवसाय प्रारंभ करने के पूर्व ध्यान में रखना चाहिए, वे व्यवसाय के स्वरूप का चयन, फर्म का आकार, स्वामित्व के रूप का चुनाव, उद्यम का स्थान, वित्त व्यवस्था प्रस्तावना, भौतिक सुविधाएँ, संयंत्र अभिन्यास तथा वचनबद्ध कामगार बल का आयोजन तथा उद्यम प्रवर्तन हो सकते हैं।

अभ्यास

लघु उत्तरीय प्रश्न

1. व्यवसाय को आर्थिक गतिविधि क्यों माना जाता है?

2. व्यवसाय किसी देश के आर्थिक विकास में कैसे योगदान देता है?

3. विभिन्न प्रकार की आर्थिक गतिविधियों का वर्णन करें।

4. व्यवसाय का अर्थ बताइए।

5. आप व्यावसायिक गतिविधियों को कैसे वर्गीकृत करेंगे?

6. विभिन्न प्रकार के उद्योग कौन से हैं?

7. किन्हीं भी दो व्यावसायिक गतिविधियों को समझाइए, जो व्यापार के लिए सहायक हैं।

8. व्यवसाय में लाभ की क्या भूमिका है?

9. व्यावसायिक जोखिम से क्या अभिप्राय है?

10. व्यवसाय में शामिल जोखिमों के कारण बताएँ।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1. भारतीय उपमहाद्वीप में स्वदेशी बैंकिंग प्रणाली के विकास पर चर्चा करें।

2. व्यवसाय को परिभाषित करें। इसकी महत्वपूर्ण विशेषताओं का वर्णन करें।

3. व्यवसाय की तुलना पेशे और रोज़गार से करें।

4. उद्योग को परिभाषित करें। उदाहरण देते हुए विभिन्न प्रकार के उद्योगों की व्याख्या कीजिए।

5. वाणिज्य से संबंधित गतिविधियों का वर्णन करें।

6. व्यवसाय के किन्हीं भी पाँच उद्देश्यों को समझाइए।

7. व्यावसायिक जोखिम की अवधारणा और उसके कारणों की व्याख्या करें।

8. किसी व्यवसाय को शुरू करते समय किन कारकों पर विचार किया जाना चाहिए? समझाइए।

परियोजना कार्य/क्रियाकलाप

1. क्या आपने कभी अपने इलाके में किसी दुकान या व्यवसाय को बंद होते देखा है? इसके बंद होने या नुकसान के कारणों का पता लगाने के लिए मालिक से बातचीत करें। किसी भी व्यवसाय को शुरू करने के लिए विचार किए जाने वाले कारकों पर एक परियोजना रिपोर्ट तैयार करें।

2. ‘मेक इन इंडिया’ भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय और साथ ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत में अपने उत्पादों के निर्माण के लिए प्रोत्साहित करने हेतु 25 सितंबर 2014 को शुरू की गई एक पहल है। ‘मेक इन इंडिया’ पहल के पीछे प्रमुख उद्देश्य अर्थव्यवस्था के 25 क्षेत्रों में रोज़गार सर्जन और कौशल वृद्धि है। अर्थव्यवस्था के ऐसे

पाँच क्षेत्र पर जानकारी एकत्रित करें, जिन पर मेक इन इंडिया का ध्यान केंद्रित हैं। पिछले दो वर्षों में इन क्षेत्रों में निवेश की मात्र ज्ञात कीजिए। इन क्षेत्रों में निवेशकों की रुचि के संभावित कारण क्या थे? नीचे दिए गए प्रारूप में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करें-

क्षेत्र वर्ष I में निवेश वर्ष II में निवेश वर्ष III में निवेश

3. खूबसूरत असम राज्य में कामरूप जिला बसा है। कामरूप में सुआलकुची नामक एक छोटा, प्रगाढ़ संबंधों से युक्त समुदाय वाला गाँव है। सुआलकुची अपने रेशम बुनकरों और रेशम बुनाई की जटिल कला के लिए जाना जाता है। रेशम की बुनाई का एक हिस्सा होता है जिसे बाना डालना या बूटा बुनाई कहा जाता है। इसके लिए पूरे ध्यान, समर्पण और बारीकी की आवश्यकता है। यह धीमी प्रक्रिया मानसिक और शारीरिक रूप से थकाने वाली होती है। यह उत्पादकता को धीमा करती है और इस कारण श्रमिक अतिरिक्त काम नहीं कर पाते हैं। शांत श्रमिकों के इस समुदाय में दीपक भराली रहते थे। एक साधारण परिवार में जन्मा, वह जानता था कि बुनाई व्यवसाय उसकी आजीविका होने जा रहा है। यह साधन-संपन्न युवक सफल होना चाहता था और कुछ बड़ा हासिल करना चाहता था। उसने रेशम बुनाई एक करघा खरीदा और इसके साथ एक व्यवसाय शुरू किया। यह साहसिक कार्य आगे बढ़ रहा था और आय काफी अच्छी थी। फिर भी, किसी बात ने दीपक को परेशान कर दिया। रेशम बुनाई के कारोबार का विस्तार करने के लिए, और करघे खरीदते रहने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। उसने निवेश और प्रगति के अन्य साधनों को खोजने की कोशिश की। सरल समझ वाले ग्रामीणों ने उन्हें करघे की संख्या बढ़ाने के लिए कहा। दीपक उनके जवाबों से निराश हो गया और खुद को इससे हटकर कुछ सोचने के लिए प्रेरित किया। उसने सोचा कि वह एक ऐसी मशीन बना सकता है, जो बाना डालने या बूटा बुनने की प्रक्रिया को स्वचालित कर देगी।

एक अच्छे दिन, दीपक और उसका भाई अपने बचपन को याद कर रहे थे। उनके बचपन का एक बड़ा हिस्सा साधारण वस्तुओं और विचारों से मज़ेदार खेल बनाने में बीता था। उसने अपने भाई को कुछ तारों और कीलों का उपयोग करके विद्युत-चुंबक बनाने की कोशिश करने की याद दिलाई। एक अन्य खेल में कागज़ पर एक सेफ़्टी पिन या कील रखना और कागज़ के नीचे चुंबक का उपयोग कर सेफ़्टी पिन या कील को चलाना शामिल था। किसी के दिमाग में चल रही कहावत के रोशनी के बल्ब की तरह, इस याद से दीपक का मस्तिष्क प्रेरित हो उठा।

वह जानता था कि उसकी दुविधा का हल निकालने के लिए इस प्रेरणा की आवश्यकता थी। अब जब उनके पास विचार था, तो उसे उपकरण बनाना था। एक उद्यमी वह होता है जो कई बार असफल होने के बावजूद सफल होता है। दिमाग को झकझोरने वाली 80 कोशिशों के बाद, उन्होंने आदर्श उपकरण ‘चनेकी’ विकसित किया।

‘चनेकी’ पुनरूचक्रण योग्य सामग्री से बना है, जो न केवल एक उपयोगी बल्कि एक पर्यावरण-हितैषी आविष्कार है। पहले के हाथ से बाना डालने की तुलना में उपकरण को 40 गुना तेज़ चलाने के लिए मशीन बनाई गई है। कई बुनकरों ने अब चनेकी में दक्षता प्राप्त कर ली है और उत्पादन को काफी बढ़ाया है। इस अंतर ने मालिकों और बुनकरों को प्रसन्न करते हुए उत्पादकता और गुणवत्ता को बढ़ने दिया।

सबके बताए रास्ते पर चलना हमेशा आसान होता है। जो अपने स्वयं के मार्ग को बनाते हैं और अज्ञात क्षेत्रों में झंडे गाड़ते हैं, वे वास्तविक में जोखिम लेने वाले और उद्यमी हैं। दीपक भारली अपनी उपलव्धियों के लिए प्रशंसा योग्य हैं। बड़े पैकेजों में छोटी चीजेें आती हैं और कभी-कभी जीवन के सबसे बड़े प्रश्नों का उत्तर सबसे सरल तरीकों से दिया जाता है।

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें-

1. उपरोक्त मामले में व्यापार के किस उद्देश्य पर चर्चा की गई है?

2. व्यवसाय के लिए पहचाने गए उद्देश्य ने व्यावसायिक इकाई के विकास में कैसे योगदान दिया है? कारण बताएँ।

3. व्यापार को अपने टिकाऊ विकास के लिए कई उद्देश्यों की आवश्यकता क्यों होती है?



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