अध्याय 03 नात्सीवाद और हिटलर का उदय
1945 के वसंत में हेलमुट नामक 11 वर्षीय जर्मन लड़का बिस्तर में लेटे कुछ सोच रहा था। तभी उसे अपने माता-पिता की दबी-दबी सी आवाज़ें सुनाई दीं। हेलमुट कान लगा कर उनकी बातचीत सुनने की कोशिश करने लगा। वे गंभीर स्वर में किसी मुद्दे पर बहस कर रहे थे। हेलमुट के पिता एक जाने-माने चिकित्सक थे। उस वक्त वे अपनी पत्नी से इस बारे में बात कर रहे थे कि क्या उन्हें पूरे परिवार को खत्म कर देना चाहिए या अकेले आत्महत्या कर लेनी चाहिए। उन्हें अपना भविष्य सुरक्षित दिखाई नहीं दे रहा था। वे घबराहट भरे स्वर में कह रहे थे, “अब मित्र राष्ट्र भी हमारे साथ वैसा ही बर्ताव करेंगे जैसा हमने अपाहिजों और यहूदियों के साथ किया था।” अगले दिन वे हेलमुट को लेकर बाग में घूमने गए। यह आखिरी मौका था जब हेलमुट अपने पिता के साथ बाग में गया। दोनों ने बच्चों के पुराने गीत गाए और खूब सारा वक्त खेलते-कूदते बिताया। कुछ समय बाद हेलमुट के पिता ने अपने दफ़्तर में खुद को गोली मार ली। हेलमुट की यादों में वह क्षण अभी भी ज़िंदा है जब उसके पिता की खून में सनी वर्दी को घर के अलाव में ही जला दिया गया था। हेलमुट ने जो कुछ सुना था और जो कुछ हुआ, उससे उसके दिलोदिमाग पर इतना गहरा सदमा पहुँचा कि अगले नौ साल तक वह घर में एक कौर भी नहीं खा पाया। उसे यही डर सताता रहा कि कहीं उसकी माँ उसे भी ज़हर न दे दे।
हेलमुट को शायद समझ में न आया हो लेकिन हकीकत यह है कि उसके पिता ‘नात्सी’ थे। वे एडॉल्फ़ हिटलर के कट्टर समर्थक थे। आप में से कई बच्चे नात्सियों और उनके नेता हिटलर के बारे में जानते होंगे। आपको शायद पता होगा कि हिटलर जर्मनी को दुनिया का सबसे ताकतवर देश बनाने को कटिबद्ध था। वह पूरे यूरोप को जीत लेना चाहता था। आपने यह भी सुना होगा कि उसने यहूदियों को मरवाया था। लेकिन नात्सीवाद सिर्फ़ इन इक्का-दुक्का घटनाओं का नाम नहीं है। यह दुनिया और राजनीति के बारे में एक संपूर्ण व्यवस्था, विचारों की एक पूरी संरचना का नाम है। आइए, समझने की कोशिश करें कि नात्सीवाद का मतलब क्या था। इस सिलसिले में सबसे पहले हम यह देखेंगे कि हेलमुट के पिता ने आत्महत्या क्यों की थी; वे किस चीज़ से डरे हुए थे।
चित्र 1 - हिटलर (मध्य) और ग्योबल्स ( बाएँ) सरकारी बैठक के बाद बाहर निकलते हुए, 1932.
नए शब्द
मित्र राष्ट्र : मित्र राष्ट्रों का नेतृत्व शुरू में ब्रिटेन और फ्रांस के हाथों में था। 1941 में सोवियत संघ और अमेरिका भी इस गठबंधन में शामिल हो गए। उन्होंने धुरी शक्तियों यानी जर्मनी, इटली और जापान का मिल कर सामना किया।
मई 1945 में जर्मनी ने मित्र राष्ट्रों के सामने समर्पण कर दिया। हिटलर को अंदाज़ा हो चुका था कि अब उसकी लड़ाई का क्या हश्र होने वाला है। इस, हिटलर और उसके प्रचार मंत्री ग्योबल्स ने बर्लिन के एक बंकर में पूरे परिवार के साथ अप्रैल में ही आत्महत्या कर ली थी। युद्ध खत्म होने के बाद न्यूरेम्बर्ग में एक अंतर्राष्ट्रीय सैनिक अदालत स्थापित की गई। इस अदालत को शांति के विरुद्ध किए गए अपराधों, मानवता के खिलाफ़ किए गए अपराधों और युद्ध अपराधों के नात्सी युद्धबंदियों पर मुकदमा चलाने का ज़िम्मा सौंपा गया था। युद्ध के दौरान जर्मनी के व्यवहार, खासतौर से इंसानियत के खिलाफ़ किए गए उसके अपराधों की वजह से कई गंभीर नैतिक सवाल खड़े हुए और उसके कृत्यों की दुनिया भर में निंदा की गई। ये कृत्य क्या थे?
नात्सी शब्द जर्मन भाषा के शब्द ‘नात्सियोणाल’ के प्रारंभिक अक्षरों को लेकर बनाया गया है। ‘नात्सियोणाल’ शब्द हिटलर की पार्टी के नाम का पहला शब्द था इस इस पार्टी के लोगों को नात्सी कहा जाता था।
दूसरे विश्वयुद्ध के साए में जर्मनी ने जनसंहार शुरू कर दिया जिसके तहत यूरोप में रहने वाले कुछ खास नस्ल के लोगों को सामूहिक रूप से मारा जाने लगा। इस युद्ध में मारे गए लोगों में 60 लाख यहूदी, 2 लाख जिप्सी और 10 लाख पोलैंड के नागरिक थे। साथ ही मानसिक व शारीरिक रूप से अपंग घोषित किए गए 70,000 जर्मन नागरिक भी मार डाले गए। इनके अलावा न जाने कितने ही राजनीतिक विरोधियों को भी मौत की नींद सुला दिया गया। इतनी बड़ी तादाद में लोगों को मारने के औषवित्स जैसे कत्लखाने बनाए गए जहाँ ज़हरीली गैस से हज़ारों लोगों को एक साथ मौत के घाट उतार दिया जाता था। न्यूरेम्बर्ग अदालत ने केवल 11 मुख्य नात्सियों को ही मौत की सज़ा दी। बाकी आरोपियों में से बहुतों को उम्र कैद की सज़ा सुनाई गई। सज़ा तो मिली लेकिन नात्सियों को जो सज़ा दी गई वह उनकी बर्बरता और उनके ज़ुल्मों के मुकाबले बहुत छोटी थी। असल में, मित्र राष्ट्र पराजित जर्मनी पर इस बार वैसा कठोर दंड नहीं थोपना चाहते थे जिस तरह का दंड पहले विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी पर थोपा गया था।
बहुत सारे लोगों का मानना था कि पहले विश्वयुद्ध के आखिर में जर्मनी के लोग जिस तरह के अनुभव से गुज़रे उसने भी नात्सी जर्मनी के उदय में योगदान दिया था।
यह अनुभव क्या था?
1 वाइमर गणराज्य का जन्म
बीसवीं शताब्दी के शुरुआती सालों में जर्मनी एक ताकतवर साम्राज्य था। उसने ऑस्ट्रियाई साम्राज्य के साथ मिलकर मित्र राष्ट्रों (इंग्लैंड, फ़्रांस और रूस) के खिलाफ़ पहला विश्वयुद्ध (1914-1918) लड़ा था। दुनिया की सभी बड़ी शक्तियाँ यह सोच कर इस युद्ध में कूद पड़ी थीं कि उन्हें जल्दी ही विजय मिल जाएगी। सभी को किसी-न-किसी फ़ायदे की उम्मीद थी। उन्हें अंदाज़ा नहीं था कि यह युद्ध इतना लंबा खिंच जाएगा और पूरे यूरोप को आर्थिक दृष्टि से निचोड़ कर रख देगा। फ्रांस और बेल्जियम पर क़ब्ज़ा करके जर्मनी ने शुरुआत में सफलताएँ हासिल कों लेकिन 1917 में जब अमेरिका भी मित्र राष्ट्रों में शामिल हो गया तो इस खेमे को काफ़ी ताकत मिली और आखिरकार, नवंबर 1918 में उन्होंने केंद्रीय शक्तियों को हराने के बाद जर्मनी को भी घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।
साम्राज्यवादी जर्मनी की पराजय और सम्राट के पदत्याग ने वहाँ की संसदीय पार्टियों को जर्मन राजनीतिक व्यवस्था को एक नए साँचे में ढालने का अच्छा मौका उपलब्ध कराया। इसी सिलसिले में वाइमर में एक राष्ट्रीय सभा की बैठक बुलाई गई और संघीय आधार पर एक लोकतांत्रिक संविधान पारित किया गया। नई व्यवस्था में जर्मन संसद यानी राइख़स्टाग के जनप्रतिनिधियों का चुनाव किया जाने लगा। प्रतिनिधियों के निर्वाचन के औरतों सहित सभी वयस्क नागरिकों को समान और सार्वभौमिक मताधिकार प्रदान किया गया।
चित्र 2 - वर्साय की संधि के बाद जर्मनी.
इस नक्शे में आप उन इलाकों को देख सकते हैं जो संधि के बाद जर्मनी के हाथ से निकल गए थे।
लेकिन यह नया गणराज्य खुद जर्मनी के ही बहुत सारे लोगों को रास नहीं आ रहा था। इसकी एक वजह तो यही थी कि पहले विश्वयुद्ध में जर्मनी की पराजय के बाद विजयी देशों ने उस पर बहुत कठोर शर्तें थोप दी थीं। मित्र राष्ट्रों के साथ वर्साय (Versailles) में हुई शांति-संधि जर्मनी की जनता के बहुत कठोर और अपमानजनक थी। इस संधि की वजह से जर्मनी को अपने सारे उपनिवेश, तकरीबन 10 प्रतिशत आबादी, 13 प्रतिशत भूभाग, 75 प्रतिशत लौह भंडार और 26 प्रतिशत कोयला भंडार फ़्रांस, पोलैंड, डेनमार्क और लिथुआनिया के हवाले करने पड़े। जर्मनी की रही-सही ताकत खत्म करने के मित्र राष्ट्रों ने उसकी सेना भी भंग कर दी। युद्ध अपराधबोध अनुच्छेद (War Guilt Clause) के तहत युद्ध के कारण हुई सारी तबाही के जर्मनी को ज़िम्मेदार ठहराया गया। इसके एवज़ में उस पर छः अरब पौंड का जुर्माना लगाया गया। खानज संसाधनों वाले राईनलैंड पर भी बीस के दशक में ज़्यादातर मित्र राष्ट्रों का ही क़ब्ज़ा रहा। बहुत सारे जर्मनों ने न केवल इस हार के बल्कि वर्साय में हुए इस अपमान के भी वाइमर गणराज्य को ही ज़िम्मेदार ठहराया।
1.1 युद्ध का असर
इस युद्ध ने पूरे महाद्वीप को मनोवैज्ञानिक और आर्थिक, दोनों ही स्तरों पर तोड़ कर रख दिया। यूरोप कल तक कर्ज़ देने वालों का महाद्वीप कहलाता था जो युद्ध खत्म होते-होते कर्ज़दारों का महाद्वीप बन गया। विडंबना यह थी कि पुराने साम्राज्य द्वारा किए गए अपराधों का हर्जाना नवजात वाइमर गणराज्य से वसूल किया जा रहा था। इस गणराज्य को युद्ध में पराजय के अपराधबोध और राष्ट्रीय अपमान का बोझ तो ढोना ही पड़ा, हर्जाना चुकाने की वजह से आर्थिक स्तर पर भी वह अपंग हो चुका था। वाइमर गणराज्य के हिमायतियों में मुख्य रूप से समाजवादी, कैथलिक और डेमोक्रैट खेमे के लोग थे। रूढ़िवादी/पुरातनपंथी राष्ट्रवादी मिथकों की आड़ में उन्हें तरह-तरह के हमलों का निशाना बनाया जाने लगा। ‘नवंबर के अपराधी’ कहकर उनका खुलेआम मज़ाक उड़ाया गया। इस मनोदशा का तीस के दशक के शुरुआती राजनीतिक घटनाक्रम पर गहरा असर पड़ा।
पहले महायुद्ध ने यूरोपीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था पर अपनी गहरी छाप छोड़ दी थी। सिपाहियों को आम नागरिकों के मुकाबले ज़्यादा सम्मान दिया जाने लगा। राजनेता और प्रचारक इस बात पर ज़ोर देने लगे कि पुरुषों को आक्रामक, ताकतवर और मर्दाना गुणों वाला होना चाहिए। मीडिया में खंदकों की ज़िंदगी का महिमामंडन किया जा रहा था। लेकिन सच्चाई यह थी कि सिपाही इन खंदकों में बड़ी दयनीय ज़िंदगी जी रहे थे। वे लाशों को खाने वाले चूहों से घिरे रहते। वे ज़हरीली गैस और दुश्मनों की गोलाबारी का बहादुरी से सामना करते हुए भी अपने साथियों को पल-पल मरते देखते थे। सार्वजनिक जीवन में आक्रामक फ़ौजी प्रचार और राष्ट्रीय सम्मान व प्रतिष्ठा की चाह के सामने बाकी सारी चीज़ें गौण हो गईं जबकि हाल ही में सत्ता में आए रूढ़िवादी तानाशाहों को व्यापक जनसमर्थन मिलने लगा। उस वक्त लोकतंत्र एक नया और बहुत नाज़ुक विचार था जो दोनों महायुद्धों के बीच पूरे यूरोप में फैली अस्थिरता का सामना नहीं कर सकता था।
नए शब्द
हर्जाना : किसी गलती के बदले दण्ड के रूप में नुकसान की भरपाई करना।
खंदक : युद्ध के मोर्चे पर सैनिकों के छिपने के खोदे गए गड्ढे।
1.2 राजनीतिक रैडिकलवाद (आमूल परिवर्तनवाद) और आर्थिक संकट
चित्र 3 - स्पार्टकिस्ट लीग नामक रैडिकल संगठन द्वारा आयोजित की गई रैली का दृश्य.
प्रशियन चेंबर ऑफ़ डेप्पूटीज़, बर्लिन के सामने आयोजित रैली। 1918-1919 के जाड़ों में बर्लिन की सड़कों पर आम लोगों का ही कब्ज़ा था। राजनीतिक प्रदर्शन रोज़ाना की घटना बन गया था।
जिस समय वाइमर गणराज्य की स्थापना हुई उसी समय रूस में हुई बोल्शेविक क्रांति की तर्ज़ पर जर्मनी में भी स्पार्टकिस्ट लीग अपने क्रांतिकारी विद्रोह की योजनाओं को अंजाम देने लगी। बहुत सारे शहरों में मज़दूरों और नाविकों की सोवियतें बनाई गईं। बर्लिन के राजनीतिक माहौल में सोवियत किस्म की शासन व्यवस्था की हिमायत के नारे गूँज रहे थे। इसी समाजवादियों, डेमोक्रैट्स और कैथलिक गुटों ने वाइमर में इकट्ठा होकर इस प्रकार की शासन व्यवस्था के विरोध में एक लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना का फ़ैसला लिया। और आखिरकार वाइमर गणराज्य ने पुराने सैनिकों के फ़ी कोर नामक संगठन की मदद से इस विद्रोह को कुचल दिया। इस पूरे घटनाक्रम के बाद स्पार्टकस्टों ने जर्मनी में कम्युनिस्ट पार्टी की नींव डाली। इसके बाद कम्युनिस्ट (साम्यवादी) और समाजवादी एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन हो गए और हिटलर के खिलाफ़ कभी भी साझा मोर्चा नहीं खोल सके। क्रांतिकारी और उग्र राष्ट्रवादी, दोनों ही खेमे रैडिकल समाधानों के आवाज़ें उठाने लगे।
चित्र 4 - वेतन भुगतान के बर्लिन में टोकरियों और ठेलों में कागज़ के नोट लादे जा रहे हैं, 1923. जर्मन मार्क की कीमत इतनी कम रह गई थी कि मामूली भुगतान के भी बहुत सारे नोटों की ज़रूरत पड़ती थी।
राजनीतिक रैडिकलवादी विचारों को 1923 के आर्थिक संकट से और बल मिला। जर्मनी ने पहला विश्वयुद्ध मोटे तौर पर कर्ज़ लेकर लड़ा था। और युद्ध के बाद तो उसे स्वर्ण मुद्रा में हर्जाना भी भरना पड़ा। इस दोहरे बोझ से जर्मनी के स्वर्ण भंडार लगभग समाप्त होने की स्थिति में पहुँच गए थे। आखिरकार 1923 में जर्मनी ने कर्ज़ और हर्जाना चुकाने से इनकार कर दिया। इसके जवाब में फ़्रांसीसियों ने जर्मनी के मुख्य औद्योगिक इलाके रूर पर कब्ज़ा कर लिया। यह जर्मनी के विशाल कोयला भंडारों वाला इलाका था। जर्मनी ने फ़ांस के विरुद्ध निष्क्रिय प्रतिरोध के रूप में बड़े पैमाने पर कागज़ी मुद्रा छापना शुरू कर दिया। जर्मन सरकार ने इतने बड़े पैमाने पर मुद्रा छाप दी कि उसकी मुद्रा मार्क का मूल्य तेज़ी से गिरने लगा। अप्रैल में एक अमेरिकी डॉलर की कीमत 24,000 मार्क के बराबर थी जो जुलाई में $3,53,000$ मार्क, अगस्त में $46,21,000$ मार्क तथा दिसंबर में $9,88,60,000$ मार्क हो गई। इस तरह एक डॉलर में खरबों मार्क मिलने लगे। जैसे-जैसे मार्क की कीमत गिरती गई, ज़रूरी चीज़ों की कीमतें आसमान छूने लगीं। रेखाचित्रों में जर्मन नागरिकों को पावरोटी खरीदने के बैलगाड़ी में नोट भरकर ले जाते हुए दिखाया जाने लगा। जर्मन समाज दुनिया भर में हमदर्दी का पात्र बन कर रह गया। इस संकट को बाद में अति-मुर्रास्फीति का नाम दिया गया। जब कीमतें बेहिसाब बढ़ जाती हैं तो उस स्थिति को अति-मुद्रास्फीति का नाम दिया जाता है।
जर्मनी को इस संकट से निकालने के अमेरिकी सरकार ने हस्तक्षेप किया। इसके अमेरिका ने डॉस्स योजना बनाई। इस योजना में जर्मनी के आर्थिक संकट को दूर करने के हर्जाने की शर्तां को दोबारा तय किया गया।
चित्र 5 - रात को सोने के कतार में खड़े बेघर लोग, 1923.
1.3 मंदी के साल
सन् 1924 से 1928 तक जर्मनी में कुछ स्थिरता रही। लेकिन यह स्थिरता मानो रेत के ढेर पर खड़ी थी। जर्मन निवेश और औद्योगिक गतिविधियों में सुधार मुख्यतः अमेरिका से गए अल्पकालिक कर्जों पर आश्रित था। जब 1929 में वॉल स्ट्रीट एक्सचेंज (शेयर बाज़ार) धराशायी हो गया तो जर्मनी को मिल रही यह मदद भी रातो-रात बंद हो गई। कीमतों में गिरावट की आशंका को देखते हुए लोग धड़ाधड़ अपने शेयर बेचने लगे। 24 अभ्तूबर को केवल एक दिन में 1.3 करोड़ शेयर बेच दिए गए। यह आर्थिक महामंदी की शुरुआत थी। 1929 से 1932 तक के अगले तीन सालों में अमेरिका की राष्ट्रीय आय केवल आधी रह गई। फ़ैक्ट्रियाँ बंद हो गई थीं, निर्यात गिरता जा रहा था, किसानों की हालत खराब थी और सट्टेवाज बाज़ार से पैसा खींचते जा रहे थे। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आई इस मंदो का असर दुनिया भर में महसूस किया गया।
नए शब्द
वॉल स्ट्रीट एक्सचेंज : अमेरिका में स्थित दुनिया का सबसे बड़ा शेयर बाज़ार।
चित्र 6 - लाइन पर सोते लोग। महामंदी के दिनों में बेरोज़गारों को न तो वेतन की उम्मीद रहती थी न ही ठौर-ठिकाने की। जाड़ों में जब उन्हें सिर छिपाने की जगह चाहिए होती थी तो इसके भी उन्हें पैसा देना पड़ता था।
इस मंदी का सबसे बुरा प्रभाव जर्मन अर्थव्यवस्था पर पड़ा। 1932 में जर्मनी का औद्योगिक उत्पादन 1929 के मुकाबले केवल 40 प्रतिशत रह गया था। मज़दूर या तो बेरोज़गार होते जा रहे थे या उनके वेतन काफ़ी गिर चुके थे। बेरोज़गारों की संख्या 60 लाख तक जा पहुँची। जर्मनी की सड़कों पर ऐसे लोग बड़ी तादाद में दिखाई देने लगे जो -‘मैं कोई भी काम करने को तैयार हूँ’-लिखी तख्ती गले में लटकाये खड़े रहते थे। बेरोज़गार नौजवान या तो ताश खेलते पाए जाते थे, नुक्कड़ों पर झुंड लगाए रहते थे या फिर रोज़गगार दफ़्तरों के बाहर लंबी-लंबी कतार में खड़े पाए जाते थे। जैसे-जैसे रोज़गार खत्म हो रहे थे, युवा वर्ग आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होता जा रहा था। चारों तरफ़ गहरी हताशा का माहौल था।
आर्थिक संकट ने लोगों में गहरी बेचैनी और डर पैदा कर दिया था। जैसे-जैसे मुद्रा का अवमूल्यन होता जा रहा था; मध्यवर्ग, खासतौर से वेतनभोगी कर्मचारी और पेंशनधारियों की बचत भी सिकुड़ती जा रही थी। कारोबार ठप्प हो जाने से छोटे-मोटे व्यवसायी, स्वरोज़गार में लगे लोग और खुदरा व्यापारियों की हालत भी खराब होती जा रही थी। समाज के इन तबकों को सर्वहाराकरण का भय सता रहा था। उन्हें डर था कि अगर यही ढर्रा रहा तो वे भी एक दिन मज़दूर बनकर रह जाएँगे या हो सकता है कि उनके पास कोई रोज़गार ही न रह जाए। अब सिर्फ़ संगठित मज़दूर ही थे जिनकी हिम्मत टूटी नहीं थी। लेकिन बेरोज़गारों की बढ़ती फ़ौज उनकी मोल-भाव क्षमता को भी चोट पहुँचा रही थी। बड़े व्यवसाय संकट में थे। किसानों का एक बहुत बड़ा वर्ग कृषि उत्पादों की कीमतों में बेहिसाब गिरावट की वजह से परेशान था। युवाओं को अपना भविष्य अंधकारमय दिखाई दे रहा था। अपने बच्चों का पेट भर पाने में असफल औरतों के दिल भी डूब रहे थे।
राजनीतिक स्तर पर वाइमर गणराज्य एक नाज़ुक दौर से गुज़र रहा था। वाइमर संविधान में कुछ ऐसी कमियाँ थीं जिनकी वजह से गणराज्य कभी भी अस्थिरता और तानाशाही का शिकार बन सकता था। इनमें से एक कमी आनुपातिक प्रतिनिधित्व से संबंधित थी। इस प्रावधान की वजह से किसी एक पार्टी को बहुमत मिलना लगभग नामुमकिन बन गया था। हर बार गठबंधन सरकार सत्ता में आ रही थी। दूसरी समस्या अनुच्छेद 48 की वजह से थी जिसमें राष्ट्रपति को आपातकाल लागू करने, नागरिक अधिकार रद्द करने और अध्यादेशों के ज़रिए शासन चलाने का अधिकार दिया गया था। अपने छोटे से जीवन काल में वाइमर गणराज्य का शासन 20 मंत्रिमंडलों के हाथों में रहा और उनकी औसत अवधि 239 दिन से ज़्यादा नहीं रही। इस दौरान अनुच्छेद 48 का भी जमकर इस्तेमाल किया गया। पर इन सारे नुस्खों के बावजूद संकट दूर नहीं हो पाया। लोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था में लोगों का विश्वास खत्म होने लगा क्योंकि वह उनके कोई समाधान नहीं खोज पा रही थी।
नए शब्द
सर्वहाराकरण : गरीब होते-होते मज़दूर वर्ग की आर्थिक स्थिति में पहुँच जाना।
2 हिटलर का उदय
अर्थव्यवस्था, राजनीति और समाज में गहराते जा रहे इस संकट ने हिटलर के सत्ता में पहुँचने का रास्ता साफ़ कर दिया। 1889 में ऑस्ट्रिया में जन्मे हिटलर की युवावस्था बेहद गरीबी में गुज़री थी। रोज़ी-रोटी का कोई ज़रिया न होने के कारण पहले विश्वयुद्ध की शुरुआत में उसने भी अपना नाम फ़ौजी भर्ती के लिखवा दिया था। भर्ती के बाद उसने अग्रिम मोर्च पर संदेशवाहक का काम किया, कॉर्पोरल बना और बहादुरी के उसने कुछ तमगे भी हासिल किए। जर्मन सेना की पराजय ने तो उसे हिला दिया था, लेकिन वर्साय की संधि ने तो उसे आग-बबूला ही कर दिया। 1919 में उसने जर्मन वर्कर्स पार्टी नामक एक छोटे-से समूह की सदस्यता ले ली। धीरे-धीरे उसने इस संगठन पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया और उसे नैशनल सोशलिस्ट पार्टी का नया नाम दिया। इसी पार्टी को बाद में नात्सी पार्टी के नाम से जाना गया।
1923 में ही हिटलर ने बवेरिया पर कब्ज़ा करने, बर्लिन पर चढ़ाई करने और सत्ता पर कब्ज़ा करने की योजना बना ली थी। इन दुस्साहसिक योजनाओं में वह असफल रहा। उसे गिरफ़्तार कर लिया गया। उस पर देशद्रोह का मुकदमा भी चला लेकिन कुछ समय बाद उसे रिहा कर दिया गया। नात्सी राजनीतिक खेमा 1930 के दशक के शुरुआती सालों तक जनता को बड़े पैमाने पर अपनी तरफ़ आकर्षित नहीं कर पाया। लेकिन महामंदी के दौरान नात्सीवाद ने एक जन आंदोलन का रूप ग्रहण कर लिया। जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, 1929 के बाद बैंक दिवालिया हो चुके थे, काम-धंधे बंद होते जा रहे थे, मज़दूर बेरोज़गार हो रहे थे और मध्यवर्ग को लाचारी और भुखमरी का डर सता रहा था। नात्सी प्रोपेगैंडा में लोगों को एक बेहतर भविष्य की उम्मीद दिखाई देती थी।
चित्र 7 - न्यूरेम्बर्ग पार्टी कांग्रेस में हिटलर का स्वागत, 1938.
नए शब्द
प्रोपेगैंडा : जनमत को प्रभावित करने के लिए किया जाने वाला एक खास तरह का प्रचार (पोस्टरों, फ़िल्मों और भाषणों आदि के माध्यम से)।
1929 में नात्सी पार्टी को जर्मन संसद-राइख़स्टाग-के लिए हुए चुनावों में महज़ 2.6 फ़ीसदी वोट मिले थे।
चित्र 8 - न्यूरेम्बर्ग रैली, 1936.
इस तरह को रैलियाँ हर साल आयोजित की जाती थीं। नात्सी सत्ता का प्रदर्शन इन रैलियों का एक महत्त्वपूर्ण आयाम होता था। विभिन्न संगठन हिटलर के सामने से परेड करते हुए निकलते थे, उसके प्रति निष्ठा की शपथ लेते थे और उसके भाषण सुनते थे। 1932 तक आते-आते यह देश की सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी थी और उसे 37 फ़ीसदी वोट मिले।
हिटलर ज़बर्दस्त वक्ता था। उसका जोश और उसके शब्द लोगों को हिलाकर रख देते थे। वह अपने भाषणों में एक शक्तिशाली राष्ट्र की स्थापना, वर्साय संधि में हुई नाइंसाफ़ी के प्रतिशोध और जर्मन समाज को खोई हुई प्रतिष्ठा वापस दिलाने का आश्वासन देता था। उसका वादा था कि वह बेरोज़गारों को रोज़गार और नौजवानों को एक सुरक्षित भविष्य देगा। उसने आश्वासन दिया कि वह देश को विदेशी प्रभाव से मुक्त कराएगा और तमाम विदेशी ‘साज़िशों’ का मुँहतोड़ जवाब देगा।
चित्र 9 - हिटलर द्वारा एसए और एसएस कतारों के सामने भाषण.
यहाँ लंबी और सीधी कतारों को देखिए। इस तरह के चित्रों के माध्यम से नात्सी सत्ता की भव्यता और ताकत को दर्शाने की कोशिश की जाती थी।
हिटलर ने राजनीति की एक नई शैली रची थी। वह लोगों को गोलबंद करने के आडंबर और प्रदर्शन की अहमियत समझता था। हिटलर के प्रति भारी समर्थन दर्शाने और लोगों में परस्पर एकता का भाव पैदा करने के नात्सियों ने बड़ी-बड़ी रैलियाँ और जनसभाएँ आयोजित कीं। स्वस्तिक छपे लाल झंडे, नात्सी सैल्यूट और भाषणों के बाद खास अंदाज़ में तालियों की गड़गड़ाहट-ये सारी चीज़ें शक्ति प्रदर्शन का हिस्सा थीं।
नात्सियों ने अपने धूआँधार प्रचार के ज़रिए हिटलर को एक मसीहा, एक रक्षक, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश किया, जिसने मानो जनता को तबाही से उबारने के ही अवतार लिया था। एक ऐसे समाज को यह छवि बेहद आकर्षक दिखाई देती थी जिसकी प्रतिष्ठा और गर्व का अहसास चकनाचूर हो चुका था और जो एक भीषण आर्थिक एवं राजनीतिक संकट से गुज़र रहा था।
2.1 लोकतंत्र का ध्वंस
30 जनवरी 1933 को राष्ट्रपति हिंडनबर्ग ने हिटलर को चांसलर का पद-भार संभालने का न्यौता दिया। यह मंत्रिमंडल में सबसे शक्तिशाली पद था। तब तक नात्सी पार्टी रूढ़िवादियों को भी अपने उद्देश्यों से जोड़ चुकी थी। सत्ता हासिल करने के बाद हिटलर ने लोकतांत्रिक शासन की संरचना और संस्थानों को भंग करना शुरू कर दिया। फरवरी माह में जर्मन संसद भवन में हुए रहस्यमय अग्निकांड से उसका रास्ता और आसान हो गया। 28 फरवरी 1933 को जारी किए गए अग्नि अध्यादेश (फ़ायर डिक्री) के ज़रिए अभिव्यक्ति, प्रेस एवं सभा करने की आज़ादी जैसे नागरिक अधिकारों को अनिश्चितकाल के निलंबित कर दिया गया। वाइमर संविधान में इन अधिकारों को काफ़ी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। इसके बाद हिटलर ने अपने कट्टर शत्रु-कम्युनिस्टों-पर निशाना साधा। ज़्यादातर कम्युनिस्टों को रातों-रात कंसन्ट्रेशन कैंपों में बंद कर दिया गया। कम्युनिस्टों का बर्बर दमन किया गया। लगभग पाँच लाख की आबादी वाले ड्युस्सलडॉर्फ़ शहर में गिरफ़्तार किए गए लोगों की बची-खुची 6,808 फ़ाइलों में से 1,440 सिर्फ़ कम्युनिस्टों की थीं। नात्सियों ने सिर्फ़ कम्युनिस्टों का ही सफ़ाया नहीं किया। नात्सी शासन ने कुल 52 किस्म के लोगों को अपने दमन का निशाना बनाया था।
3 मार्च 1933 को प्रसिद्ध विशेषाधिकार अधिनियम (इनेबलिंग ऐक्ट) पारित किया गया। इस कानून के ज़रिए जर्मनी में बाकायदा तानाशाही स्थापित कर दी गई। इस कानून ने हिटलर को संसद को हाशिए पर धकेलने और केवल अध्यादेशों के ज़रिए शासन चलाने का निरंकुश अधिकार प्रदान कर दिया। नात्सी पार्टी और उससे जुड़े संगठनों के अलावा सभी राजनीतिक पार्टियों और ट्रेड यूनियनों पर पाबंदी लगा दी गई। अर्थव्यवस्था, मीडिया, सेना और न्यायपालिका पर राज्य का पूरा नियंत्रण स्थापित हो गया।
नए शब्द
कंसन्ट्रेशन कैंप : ऐसे स्थान जहाँ बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के लोगों को कैद रखा जाता था। ये कंसन्ट्रेशन कैंप बिजली का करंट दौड़ते कँटीले तारों से घिरे रहते थे।
पूरे समाज को नात्सियों के हिसाब से नियंत्रित और व्यवस्थित करने के विशेष निगरानी और सुरक्षा दस्ते गठित किए गए। पहले से मौजूद हरी वर्दीधारी पुलिस और स्टॉर्म ट्रूपर्स (एसए) के अलावा गेस्तापो (गुप्तचर राज्य पुलिस), एसएस (अपराध नियंत्रण पुलिस) और सुरक्षा सेवा (एसडी) का भी गठन किया गया। इन नवगठित दस्तों को बेहिसाब असंवैधानिक अधिकार दिए गए और इन्हीं की वजह से नात्सी राज्य को एक खूंखार आपराधिक राज्य की छवि प्राप्त हुई। गेस्तापो के यंत्रणा गृहों में किसी को भी बंद किया जा सकता था। ये नए दस्ते किसी को भी यातना गृहों में भेज सकते थे, किसी को भी बिना कानूनी कार्रवाई के देश निकाला दिया जा सकता था या गिरफ़्तार किया जा सकता था। दंड की आशंका से मुक्त पुलिस बलों ने निरंकुश और निरपेक्ष शासन का अधिकार प्राप्त कर लिया था।
2.2 पुनर्निर्माण
हिटलर ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की जि़म्मेदारी अर्थशास्त्री ह्यालमार शाख़्त को सौंपी। शाख़्त ने सबसे पहले सरकारी पैसे से चलाए जाने वाले रोज़गार संवर्धन कार्यक्रम के ज़ारिए सौ फ़ीसदी उत्पादन और सौ फ़ीसदी रोज़गार उपलब्ध कराने का लक्ष्य तय किया। मशहूर जर्मन सुपर हाइवे और जनता की कार-फ़ॉक्सवैगन-इस परियोजना की देन थी।
चित्र 10 - पोस्टर से घोषणा : ‘आपकी फ़ॉक्सवागन’.
इन पोस्टरों के ज़रिए यह एहसास कराने को कोशिश की जाती थी कि अब आम मज़दूर भी कार खरीद सकता है।
विदेश नीति के मोर्चे पर भी हिटलर को फ़ौरन कामयाबियाँ मिलीं। 1933 में उसने ‘लीग ऑफ़ नेशंस’ से पल्ला झाड़ लिया। 1936 में राईनलैंड पर दोबारा क़ब्ज़ा किया और एक जन, एक साम्राज्य, एक नेता के नारे की आड़ में 1938 में ऑस्ट्रिया को जर्मनी में मिला लिया। इसके बाद उसने चेकोस्लोवाकिया के क़ब्ज़े वाले जर्मनभाषी सुडेंटनलैंड प्रांत पर कब्ज़ा किया और फिर पूरे चेकोस्लोवाकिया को हड़प लिया। इस दौरान उसे इंग्लैंड का भी खामोश समर्थन मिल रहा था क्योंकि इंग्लैंड की नज़र में वर्साय की संधि के नाम पर जर्मनी के साथ बड़ी नाइंसाफ़ी हुई थी। घरेलू और विदेशी मोर्चे पर जल्दी-जल्दी मिली इन कामयाबियों से ऐसा लगा कि देश की नियति अब पलटने वाली है।
चित्र 11 - नात्सी सत्ता का विस्तार : यूरोप 1942.
लेकिन हिटलर यहीं नहीं रुका। शाख़्त ने हिटलर को सलाह दी थी कि सेना और हथियारों पर ज़्यादा पैसा खर्च न किया जाए क्योंकि सरकारी बजट अभी भी घाटे में ही चल रहा था। लेकिन नात्सी जर्मनी में एहतियात पसंद लोगों के कोई जगह नहीं थी। शाख़्त को उनके पद से हटा दिया गया। हिटलर ने आर्थिक संकट से निकलने के युद्ध का विकल्प चुना। वह राष्ट्रीय सीमाओं का विस्तार करते हुए ज़्यादा से ज़्यादा संसाधन इकट्डा करना चाहता था। इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए सितंबर 1939 में उसने पोलैंड पर हमला कर दिया। इसकी वजह से फ़्रांस और इंग्लैंड के साथ भी उसका युद्ध शुरू हो गया। सितंबर 1940 में जर्मनी ने इटली और जापान के साथ एक त्रिपक्षीय संधि पर हस्ताक्षर किए। इस संधि से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में हिटलर का दावा और मज़बूत हो गया। यूरोप के ज़्यादातर देशों में नात्सी जर्मनी का समर्थन करने वाली कठपुतली सरकरें बिठा दी गईं। 1940 के अंत में हिटलर अपनी ताकत के शिखर पर था।
अब हिटलर ने अपना सारा ध्यान पूर्वी यूरोप को जीतने के दीर्घकालिक सपने पर केंद्रित कर दिया। वह जर्मन जनता के संसाधन और रहने की जगह (Living Space) का इंतज़ाम करना चाहता था। जून 1941 में उसने सोवियत संघ पर हमला किया। यह हिटलर की एक ऐतिहासिक बेवकूफ़ी थी। इस आक्रमण से जर्मन पश्चिमी मोर्चा ब्रिटिश वायुसैनिकों के बमबारी की चपेट में आ गया जबकि पूर्वी मोर्चे पर सोवियत सेनाएँ जर्मनों को नाकों चने चबवा रही थीं। सोवियत लाल सेना ने स्तालिनग्राद में जर्मन सेना को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। सोवियत लाल सैनिकों ने पीछे हटते जर्मन सिपाहियों का आखिर तक पीछा किया और अंत में वे बर्लिन के बीचोंबीच जा पहुँचे। इस घटनाक्रम ने अगली आधी सदी के समूचे पूर्वी यूरोप पर सोवियत वर्चस्व स्थापित कर दिया।
अमेरिका इस युद्ध में फँसने से लगातार बचता रहा। अमेरिका पहले विश्वयुद्ध की वजह से पैदा हुई आर्थिक समस्याओं को दोबारा नहीं झेलना चाहता था। लेकिन वह लंबे समय तक युद्ध से दूर भी नहीं रह सकता था। पूरब में जापान की ताकत फैलती जा रही थी। उसने फ्रेंच-इंडो-चाइना पर कब्ज़ा कर लिया था और प्रशांत महासागर में अमेरिकी नौसैनिक ठिकानों पर हमले की पूरी योजना बना ली थी। जब जापान ने हिटलर को समर्थन दिया और पर्ल हार्बर पर अमेरिकी ठिकानों को बमबारी का निशाना बनाया तो अमेरिका भी दूसरे विश्वयुद्ध में कूद पड़ा। यह युद्ध मई 1945 में हिटलर की पराजय और जापान के हिरोशिमा शहर पर अमेरिकी परमाणु बम गिराने के साथ खत्म हुआ।
दूसरे विश्वयुद्ध के इस संक्षिप्त ब्यौरे के बाद अब हम एक बार फिर हेलमुट और उसके पिता की कहानी पर वापस लौटते हैं। यह युद्ध के दौरान नात्सी ज़ुल्मों की कहानी है।
चित्र 12 - भारतीय समाचारपत्रों में जर्मनी के हालात पर नज़र.
3 नात्सियों का विश्व दृष्टिकोण
नात्सियों ने जो अपराध किए वे खास तरह की मूल्य-मान्यताओं, एक खास तरह के व्यवहार से संबंधित थे।
स्रोत क
‘यह पृथ्वी न तो किसी को हिस्से में मिली है और न तोहफ़े में। नियति ने यह उन्हें सौंपी हैं जिनके हृदय में इसको जीत लेने का, इसको बचाए रखने का साहस है और जिनके पास इस पर हल चलाने की उद्यमशीलता है…। इस दुनिया का सबसे बुनियादी अधिकार है जीवन का अधिकार बशर्ते किसी के पास उसे हासिल करने की ताकत हो। इस अधिकार के आधार पर एक ऊर्जावान राष्ट्र अपने भूभाग को अपनी जनसंख्या के हिसाब से फैलाने के रास्ते ढूँढ़ लेगा।’
हिटलर, सीक्रेट बुक, सं., टेलफ़ोर्ड टेलर।
नात्सी विचारधारा हिटलर के विश्व दृष्टिकोण का पर्यायवाची थी। इस विश्व दृष्टिकोण में सभी समाजों को बराबरी का हक नहीं था, वे नस्ली आधार पर या तो बेहतर थे या कमतर थे। इस नज़रिये में ब्लॉन्ड, नीली आँखों वाले, नॉर्डिक जर्मन आर्यसबसे ऊपरी और यहूदी सबसे निचली पायदान पर आते थे। यहूदियों को नस्ल विरोधी, यानी आर्यों का कट्टर शत्रु माना जाता था। बाकी तमाम समाजों को उनके बाहरी रंग-रूप के हिसाब से जर्मन आर्यों और यहूदियों के बीच में रखा गया था। हिटलर की नस्ली सोच चार्ल्स डार्विन और हर्बर्ट स्पेंसर जैसे विचारकों के सिद्धांतों पर आधारित थी। डार्विन प्रकृति विज्ञानी थे जिन्होंने विकास और प्राकृतिक चयन की अवधारणा के ज़रिए पौधों और पशुओं की उत्पत्ति की व्याख्या का प्रयास किया था। बाद में हर्बर्ट स्पेंसर ने ‘अति जीविता का सिद्धांत’ (सरवाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट)-जो सबसे योग्य है, वही ज़िंदा बचेगा-यह विचार दिया। इस विचार का मतलब यह था कि जो प्रजातियाँ बदलती हुई वातावरणीय परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढाल सकती हैं वही पृथ्वी पर ज़िंदा रहती हैं। यहाँ हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि डार्विन ने चयन के सिद्धांत को एक विशुद्ध प्राकृतिक प्रक्रिया कहा था और उसमें इंसानी हस्तक्षेप की वकालत कभी नहीं की। लेकिन नस्लवादी विचारकों और राजनेताओं ने पराजित समाजों पर अपने साम्राज्यवादी शासन को सही ठहराने के डार्विन के विचारों का सहारा लिया। नात्सियों की दलील बहुत सरल थी : जो नस्ल सबसे ताकतवर है वह ज़िंदा रहेगी; कमज़ोर नस्लें खत्म हो जाएँगी। आर्य नस्ल सर्वश्रेष्ठ है। उसे अपनी शुद्धता बनाए रखनी है, ताकत हासिल करनी है और दुनिया पर वर्चस्व कायम करना है।
क्रियाकलाप
स्रोत क और ख को पढ़ें -
इनसे हिटलर के साम्राज्यवादी मंसूबों के बारे में आपको क्या पता चलता है?
आपकी राय में इन विचारों पर महात्मा गांधी हिटलर से क्या कहते?
हिटलर की विचारधारा का दूसरा पहलू लेबेन्स्राउम या जीवन-परिधि की भू-राजनीतिक अवधारणा से संबंधित था। वह मानता था कि अपने लोगों को बसाने के ज़्यादा से ज़्यादा इलाकों पर कब्ज़ा करना ज़रूरी है। इससे मातृ देश का क्षेत्रफल भी बढ़ेगा और नए इलाकों में जाकर बसने वालों को अपने जन्मस्थान के साथ गहरे संबंध बनाए रखने में मुश्किल भी पेश नहों आएगी। हिटलर की नज़र में इस तरह जर्मन राष्ट्र के संसाधन और बेहिसाब शक्ति इकट्ठा की जा सकती थी।
नए शब्द
नॉर्डिक जर्मन आर्य : आर्य बताए जाने वालों की एक शाखा। ये लोग उत्तरी यूरोपीय देशों में रहते थे और जर्मन या मिलते-जुलते मूल के लोग थे।
ब्लॉन्ड: नीली आँखों और सुुहरे बालों वाले।
पूरब में हिटलर जर्मन सीमाओं को और फैलाना चाहता था ताकि सारे जर्मनों को भौगोलिक दृष्टि से एक ही जगह इकट्ठा किया जा सके। पोलैंड इस धारणा की पहली प्रयोगशाला बना।
3.1 नस्लवादी राज्य की स्थापना
सत्ता में पहुँचते ही नात्सियों ने ‘शुद्ध’ जर्मनों के विशिष्ट नस्ली समुदाय की स्थापना के सपने को लागू करना शुरू कर दिया। सबसे पहले उन्होंने विस्तारित जर्मन साम्राज्य में मौजूद उन समाजों या नस्लों को खत्म करना शुरू किया जिन्हें वे ‘अवांछित’ मानते थे। नात्सी ‘शुद्ध और स्वस्थ नॉर्डिक आर्यों’ का समाज बनाना चाहते थे। उनकी नज़र में केवल ऐसे लोग ही ‘वांछित’ थे। केवल ये ही लोग थे जिन्हें तरक्की और वंश-विस्तार के योग्य माना जा सकता था। बाकी सब ‘अवांछित’ थे। इसका मतलब यह निकला कि ऐसे जर्मनों को भी ज़िंदा रहने का कोई हक नहीं है जिन्हें नात्सी अशुद्ध या असामान्य मानते थे। यूथनेज़िया (दया मृत्यु) कार्यक्रम के तहत बाकी नात्सी अफ़सरों के साथ-साथ हेलमुट के पिता ने भी असंख्य ऐसे जर्मनों को मौत के घाट उतारा था जिन्हें वह मानसिक या शारीरिक रूप से अयोग्य मानते थे।
चित्र 13 - पुलिस के पहरे में औषवित्स भेजे जा रहे जिप्सी, 1943-1944.
केवल यहूदी ही नहीं थे जिन्हें ‘अवांछितों’ की श्रेणी में रखा गया था। इनके अलावा भी कई नस्लें थीं जो इसी नियति के अभिशप्त थीं। जर्मनी में रहने वाले जिप्सियों और अश्वेतों की पहले तो जर्मन नागरिकता छीन ली गई और बाद में उन्हें मार दिया गया। रूसी और पोलिश मूल के लोगों को भी मनुष्य से कमतर माना गया। जब जर्मनी ने पोलैंड और रूस के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा कर लिया तो स्थानीय लोगों को भयानक परिस्थितियों में गुलामों की तरह काम पर झोंक दिया गया। उन्हें इंसानी बर्ताव के लायक नहीं माना जाता था। उनमें से बहुत सारे बेहिसाब काम के बोझ और भूख से ही मर गए।
स्रोत ख
‘पृथ्वी को लगातार राज्यों के बीच बाँटा जा रहा है और उनमें से कई तो महाद्वीप जितने बड़े हैं। ऐसे युग में हम किसी ऐसी विश्व शक्ति की बात नहीं सोच सकते जिसका राजनीतिक मातृ-देश केवल पाँच सौ वर्ग किलोमीटर जैसे वाहियात से क्षेत्रफल में सिमटा हुआ हो।’
हिटलर, मेन काम्फ़, पृ. 644 ।
नात्सी जर्मनी में सबसे बुरा हाल यहूदियों का हुआ। यहूदियों के प्रति नात्सियों की दुश्मनी का एक आधार यहूदियों के प्रति ईसाई धर्म में मौजूद परंपरागत घृणा भी थी। ईसाइयों का आरोप था कि ईसा मसीह को यहूदियों ने ही मारा था। ईसाइयों की नज़र में यहूदी आदतन हत्यारे और सूदखोर थे। मध्यकाल तक यहूदियों को ज़मीन का मालिक बनने की मनाही थी। ये लोग मुख्य रूप से व्यापार और धन उधार देने का धंधा करके अपना गुज़ारा चलाते थे। वे बाकी समाज से अलग बस्तियों में रहते थे जिन्हें घेटो(Ghettoes) यानी दड़बा कहा जाता था। नस्ल-संहार के ज़रिए ईसाई बार-बार उनका सफ़ाया करते रहते थे। उनके खिलाफ़ जब-तब संगठित हिंसा की जाती थी और उन्हें उनकी बस्तियों से खदेड़ दिया जाता था। लेकिन ईसाइयत ने उन्हें बचने का एक रास्ता फिर भी दिया हुआ था। यह धर्म परिवर्तन का रास्ता था। आधुनिक काल में बहुत सारे यहूदियों ने ईसाई धर्म अपना लिया और जानते-बूझते हुए जर्मन संस्कृति में ढल गए। लेकिन यहूदियों के प्रति हिटलर की घृणा तो नस्ल के छद्म वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित थी। इस नफ़रत में ‘यहूदी समस्या’ का हल धर्मांतरण से नहीं निकल सकता था। हिटलर की ‘दृष्टि’ में इस समस्या का सिर्फ़ एक ही हल था यहूदियों को पूरी तरह खत्म कर दिया जाए।
नए शब्द
जिप्सी : ‘जिप्सी’ के नाम से श्रेणीबद्ध किए गए समूहों की अपनी सामुदायिक पहचान थी। सिन्ती और रोमा ऐसे ही दो समुदाय थे।
सूदखोर : बहुत ज़्यादा ब्याज वसूल करने वाले महाजन; इस शब्द का प्राय: गाली के रूप प्रयोग किया जाता है।
घेटो: किसी समुदाय को औरों से अलग-थलग करके रखना।
सन् 1933 से 1938 तक नात्सियों ने यहूदियों को तरह-तरह से आतंकित किया, उन्हें दरिद्र कर आजीविका के साधनों से हीन कर दिया और उन्हें शेष समाज से अलग-थलग कर डाला। यहूदी देश छोड़कर जाने लगे। 1939-45 के दूसरे दौर में यहूदियों को कुछ खास इलाकों में इकट्ठा करने और अंततः पोलैंड में बनाए गए गैस चेंबरों में ले जाकर मार देने की रणनीति अपनाई गई।
3.2 नस्ली कल्पनालोक ( यूटोपिया )
युद्ध के साए में नात्सी अपने कातिलाना, नस्लवादी कल्पनालोक या आदर्श विश्व के निर्माण में लग गए। जनसंहार और युद्ध एक ही सिक्के के दो पहलू बन गए। पराजित पोलैंड को पूरी तरह तहस-नहस कर दिया गया। उत्तर-पश्चिमी पोलैंड का ज़्यादातर हिस्सा जर्मनी में मिला लिया गया। पोलैंड के लोगों को अपने घर और माल-असबाब छोड़कर भागने के मजबूर किया गया ताकि जर्मनी के कब्ज़े वाले यूरोप में रहने वाले जर्मनों को वहाँ लाकर बसाया जा सके। इसके बाद पोलैंडवासियों को मवेशियों की तरह खदेड़ कर जनरल गवर्नमेंट नामक दूसरे हिस्से में पहुँचा दिया गया। जर्मन साम्राज्य में मौजूद तमाम अवांछित तत्त्वों को जनरल गवर्नमेंट नामक इसी इलाके में लाकर रखा जाता था। पोलैंड के बुद्धिजीवियों को बड़े पैमाने पर मौत के घाट उतारा गया। यह पूरे पोलैंड के समाज को बौद्धिक और आध्यात्मिक स्तर पर गुलाम बना लेने की चाल थी। आर्य जैसे लगने वाले पोलैंड के बच्चों को उनके माँ-बाप से छीन कर जाँच के ‘नस्ल विशेषज्ञों’ के पास पहुँचा दिया गया। अगर वे नस्ली जाँच में कामयाब हो जाते तो उन्हें जर्मन परिवारों में पाला जाता और अगर ऐसा नहीं होता तो उन्हें अनाथाश्रमों में डाल दिया जाता जहाँ उनमें से ज़्यादातर मर जाते थे। जनरल गवर्नमेंट में कुछ विशालतम घेटो और गैस चेंबर भी थे इस यहाँ यहूदियों को बड़े पैमाने पर मारा जाता था।
क्रियाकलाप
अगले दो पन्नों को देखिए और इनके बारे में संक्षेप में लिखिए :
आपके नागरिकता का क्या मतलब है? अध्याय 1 एवं 3 को देखें और 200 शब्दों में बताएँ कि फ्रांसीसी क्रांति और नात्सीवाद ने नागरिकता को किस तरह परिभाषित किया?
नात्सी जर्मनी में ‘अवांछितों’ के न्यूरेम्बर्ग कानूनों का क्या मतलब था? उन्हें इस बात का अहसास कराने के कि वह ‘अवांछित’ हैं अन्य कौन-कौन से कानूनी कदम उठाए गए?
चित्र 14 - यहूदियों को गैस चेंबरों तक ले जाने वाली एक मालवाहक गाड़ी.
मौत का सिलसिला
पहला चरण : बहिष्कार : 1933-39
हमारे बीच तुम्हें नागरिकों की तरह रहने का कोई हक नहीं।
न्यूरेम्बर्ग नागरिकता अधिकार, सितंबर 1935 :
1. जर्मन या उससे संबंधित रक्त वाले व्यक्ति ही जर्मन नागरिक होंगे और उन्हें जर्मन साम्राज्य का संरक्षण मिलेगा।
2. यहूदियों और जर्मनों के बीच विवाह पर पाबंदी।
3. यहूदियों और जर्मनों के बीच विवाहेतर संबंधों को अपराध घोषित कर दिया गया।
4. यहूदियों द्वारा राष्ट्रीय ध्वज फहराने पर पाबंदी लगा दी गई।
अन्य कानूनी उपाय :
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यहूदी व्यवसायों का बहिष्कार।
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सरकारी सेवाओं से निकाला जाना।
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यहूदियों की संपत्ति की ज़ब्ती और बिक्री।
इसके अलावा नवंबर 1938 के एक जनसंहार में यहूदियों की संपत्तियों को तहस-नहस किया गया, लूटा गया, उनके घरों पर हमले हुए, यहूदी प्रार्थनाघर (Synagogues) जला दिए गए और उन्हें गिरफ़्तार किया गया। इस घटना को ‘नाइट ऑफ़ ब्रोकन ग्लास’ के नाम से याद किया जाता है।
चित्र 15 - इस संकेतपट्ट में एलान किया जा रहा है कि उत्तरी समुद्र स्नान क्षेत्र यहूदियों से मुक्त है.
चित्र 16 - पार्क में रखी बेंच : केवल आर्यों के लिए.
दूसरा चरण : दड़बाबंदी (Ghettoisation):1940-44
तुम्हें हमारे बीच रहने का कोई हक नहीं।
चित्र 17 - मेरे पास बेचने के बस यही है.
घंटो के लोगों के पास जीने का कोई रास्ता नहीं बचा था।
सितंबर 1941 से सभी यहूदियों को हुक्म दिया गया कि वह डेविड का पीला सितारा अपनी छाती पर लगा कर रखेंगे। उनके पासपोर्ट, तमाम कानूनी दस्तावेजों और घरों के बाहर भी यह पहचान चिह्न छाप दिया गया। जर्मनी में उन्हें यहूदी मकानों में और पूर्वी क्षेत्र के लोद्ज़ एवं वॉरसा जैसी घेटो बस्तियों में कष्टपूर्ण और दरिद्रता की स्थिति में रखा जाता था। ये बेहद पिछड़े और निर्धन इलाके थे। घेटो में दाखिल होने से पहले यहूदियों को अपनी सारी संपत्ति छोड़ देने के मजबूर किया गया। कुछ ही समय में घेटो बस्तियों में वंचना, भुखमरी, गंदगी और बीमारियों का साम्राज्य व्याप्त हो गया।
तीसरा चरण : सर्वनाश : 1941 के बाद
तुम्हें जीने का अधिकार नहीं।
चित्र 18 - भागने की कोशिश में मौत। यातना गृह के चारों तरफ लगी तारों में करंट दौड़ता रहता था.
चित्र 19 - गैस चेंबर के बाहर कपड़ों के ढेर.
समूचे यूरोप के यहूदी मकानों, यातना गृहों और घेटो बस्तियों में रहने वाले यहूदियों को मालगाड़ियों में भर-भर कर मौत के कारखानों में लाया जाने लगा। पोलैंड तथा अन्य पूर्वी इलाकों में, मुख्य रूप से बेलज़ेक, औषवित्स, सोबीबोर, त्रेबलिंका, चेल्म्नो, तथा मायदानेक में उन्हें गैस चेंबरों में झोंक दिया गया। औद्योगिक और वैज्ञानिक तकनीकों के सहारे बहुत सारे लोगों को पलक झपकते मौत के घाट उतार दिया गया।
चित्र 20 - एक यातना गृह
चित्र 21 - एक यातना गृह। कैमरा मौत के मैदानों को भी खूबसूरत बना सकता है.
चित्र 22 - ‘अंतिम समाधान’ से पहले कैदियों से छीने गए जूते.
4 नात्सी जर्मनी में युवाओं की स्थिति
युवाओं में हिटलर की दिलचस्पी जुनून की हद तक पहुँच चुकी थी। उसका मानना था कि एक शक्तिशाली नात्सी समाज की स्थापना के बच्चों को नात्सी विचारधारा की घुट्टो पिलाना बहुत ज़रूरी है। इसके स्कूल के भीतर और बाहर, दोनों जगह बच्चों पर पूरा नियंत्रण आवश्यक था।
चित्र 23 - यहूदी-विरोधी विषयों की पढ़ाई को दर्शाता कक्षा का चित्र.
अर्न्स्ट हीमर (न्यूरेम्बर्ग : डेअर श्रुर्मर, 1938) द्वारा रचित डेअर गिफ़्टपिल्ज़ (विषैला मशरूम) से, पृष्ठ 7. चित्र का शीर्षक इस प्रकार है : ‘यहूदी नाक सिरे पर मुड़ी हुई है। यह अंग्रेज़ी के अंक 6 जैसी दिखती है।’
नात्सीवाद के दौरान स्कूलों में क्या हो रहा था? तमाम स्कूलों में सफ़ाए और शुद्धीकरण की मुहिम चलाई गई। यहूदी या ‘राजनीतिक रूप से अविश्वसनीय’ दिखाई देने वाले शिक्षकों को पहले नौकरी से हटाया गया और बाद में मौत के घाट उतार दिया गया। बच्चों को अलग-अलग बिठाया जाने लगा। जर्मन और यहूदी बच्चे एक साथ न तो बैठ सकते थे और न खेल-कूद सकते थे। बाद में ‘अवांछित बच्चों’ को यानी यहूदियों, जिप्सियों के बच्चों और विकलांग बच्चों को स्कूलों से निकाल दिया गया। चालीस के दशक में तो उन्हें भी गैस चेंबरों में झोंक दिया गया।
चित्र 24 - बाकी बच्चों की हँसी-ठिठोली के बीच यहूदी शिक्षक और यहूदी विद्यार्थियों को स्कूल से निकाला जा रहा है.
एल्वीरा बाऊअअर (न्यूरेम्बर्ग : डेअर श्टुर्मर, 1936) रचित ट्राऊ कीनेम जुड आऊफ़ ग्रुनर हीद : ईन बिल्दरबुश फ़ुर ग्रॉस उंद कियोम (ग्रीन हीथ में किसी यहूदी पर यकीन न करो : छोटे-बड़ों के एक चित्र पुस्तक) से।
‘अच्छे जर्मन’ बच्चों को नात्सी शिक्षा प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता था। यह विचारधारात्मक प्रशिक्षण की एक लंबी प्रक्रिया थी। स्कूली पाठ्यपुस्तकों को नए सिरे से लिखा गया। नस्ल के बारे में प्रचारित नात्सी विचारों को सही ठहराने के नस्ल विज्ञान के नाम से एक नया विषय पाठ्यक्रम में शामिल किया गया। और तो और, गणित की कक्षाओं में भी यहूदियों की एक खास छवि गढ़ने की कोशिश की जाती थी। बच्चों को सिखाया गया कि वे वफ़ादार व आज्ञाकारी बनें, यहूदियों से नफ़रत और हिटलर की पूजा करें। खेल-कूद के ज़रिए भी बच्चों में हिंसा और आक्रामकता की भावना पैदा की जाती थी। हिटलर का मानना था कि मुक्केबाज़ी का प्रशिक्षण बच्चों को फौलादी दिल वाला, ताकतवर और मर्दाना बना सकता है।
जर्मन बच्चों और युवाओं को ‘राष्ट्रीय समाजवाद की भावना’ से लैस करने की ज़िम्मेदारी युवा संगठनों को सौंपी गई। 10 साल की उम्र के बच्चों को युंगफ़ोक में दाखिल करा दिया जाता था। 14 साल की उम्र में सभी लड़कों को नात्सियों के युवा संगठन-हिटलर यूथ-की सदस्यता लेनी पड़ती थी। इस संगठन में वे युद्ध की उपासना, आक्रामकता व हिंसा, लोकतंत्र की निंदा और यहूदियों, कम्प्युनिस्टों, जिप्सियों व अन्य ‘अवांछितों’ से घृणा का सबक सीखते थे। गहन विचारधारात्मक और शारीरिक प्रशिक्षण के बाद लगभग 18 साल की उम्र में वे लेबर सर्विस (श्रम सेवा) में शामिल हो जाते थे। इसके बाद उन्हें सेना में काम करना पड़ता था और किसी नात्सी संगठन की सदस्यता लेनी पड़ती थी।
नए शब्द
युंगफ़ोक : 14 साल से कम उम्र वाले बच्चों के नात्सी युवा संगठन।
क्रियाकलाप
अगर आप ऐसी किसी कक्षा में होते तो यहूदियों के प्रति आप का रवैया कैसा होता?
क्या आपने कभी सोचा है कि आपके जान-पहचान वाले अन्य समुदायों के बारे में क्या सोचते हैं? उन्होंने इस तरह की छवियाँ कहाँ से हासिल की हैं?
स्रोत ग
छह से दस साल तक की उम्र के सभी लड़कों को नात्सी विचारधारा का शुरुआती प्रशिक्षण दिया जाता था। प्रशिक्षण पूरा होने पर उन्हें हिटलर के प्रति निष्ठा की यह शपथ लेनी पड़ती थी :
‘हमारे प़्यूहरर का प्रतिनिधित्व करने वाले इस रक्तध्वज की उपस्थिति में मैं शपथ लेता हूँ कि मेरी सारी ऊर्जा और मेरी सारी शक्ति हमारे देश के रक्षक एडॉल्फ़ हिटलर को समर्पित है। में उनके अपना जीवन देने को इच्छुक और तैयार हूँ। ईश्वर मेरी मदद करे।’ डब्ल्यू. शाइरर, द राइज़ एंड फ़ॉल ऑफ़ द थर्ड राइख से उद्धत।
स्रोत घ
जर्मन लेबर फ़्ंट के प्रमुख रॉबर्ट ले ने कहा था :
हम तभी से काम शुरू कर देते हैं जब बच्चा तीन साल का होता है। जैसे ही वह ज़रा-सा भी सोचने लगता है उसे लहराने के एक छोटा-सा झंडा थमा दिया जाता है। इसके बाद स्कूल, हिटलर यूथ और सैनिक सेवा का नंबर आता है। लेकिन यह सब कुछ पूरा हो जाने के बाद भी हम किसी को छोड़ते नहीं हैं। लेबर फ्रंट उन्हें अपनी गिरफ़्त में ले लेता है। चाहे उन्हें अच्छा लगे या बुरा, कत्र तक यह उनका पीछा नहीं छोड़ता।’
चित्र 25 - ‘वांछित’ बच्चे जिनकी संख्या हिटलर बढ़ाना चाहता था.
चित्र 26 - कब्जे वाले यूरोप से अधिक्रत पोलैंड में बसाने के भेजा जा रहा एक शिशु अपनी माँ के साथ.
नात्सी यूथ लीग का गठन 1922 में हुआ था। चार साल बाद उसे हिटलर यूथ का नया नाम दिया गया। 1933 तक आते-आते इस संगठन में 12.5 लाख से ज़्यादा बच्चे थे। युवा आंदोलन को नात्सीवाद के तहत एकजुट करने के बाकी सभी युवा संगठनों को पहले भंग कर दिया गया और बाद में उन पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
चित्र 27 - मौत के कारखाने में आते यहूदी बच्चे जिन्हें गैस से मार दिया जाएगा.
क्रियाकलाप
चित्र 23,24 और 27 को देखिए। कल्पना कीजिए कि आप नात्सी जर्मनी में रहने वाले यहूदी या पोलिश मूल के व्यक्ति हैं। आप सितंबर 1941 में जी रहे हैं और अभी-अभी कानून बनाया गया है कि यहूदियों को डेविड का तमगा पहनकर रहना होगा। ऐसी परिस्थिति में अपने जीवन के एक दिन का ब्यौरा लिखिए।
4.1 मातृत्व की नात्सी सोच
नात्सी जर्मनी में प्रत्येक बच्चे को बार-बार यह बताया जाता था कि औरतें बुनियादी तौर पर मर्दों से भिन्न होती हैं। उन्हें समझाया जाता था कि औरत-मर्द के समान अधिकारों का संघर्ष गलत है। यह समाज को नष्ट कर देगा। इसी आधार पर लड़कों को आक्रामक, मर्दाना और पत्थरदिल होना सिखाया जाता था जबकि लड़कियों को यह कहा जाता था कि उनका फर्ज़ एक अच्छी माँ बनना और शुद्ध आर्य रक्त वाले बच्चों को जन्म देना और उनका पालन-पोषण करना है। नस्ल की शुद्धता बनाए रखने, यहूदियों से दूर रहने, घर संभालने और बच्चों को नात्सी मूल्य-मान्यताओं की शिक्षा देने का दायित्व उन्हें ही सौंपा गया था। आर्य संस्कृति और नस्ल की ध्वजवाहक वही थीं।
स्रोत च
न्यूरेम्बर्ग पार्टी रैली में औरतों को संबोधित करते हुए 8 सितंबर 1934 को हिटलर ने कहा था :
हम इस बात को अच्छा नहीं मानते कि औरतें मर्द की दुनिया में, उसके मुख्य दायरे में दखल दें। हमारी नज़र में यह कुदरती बात है कि ये दोनों दुनिया एक-दूसरे से अलग-अलग हैं…। जिस तरह मर्द अपने साहस के रूप में युद्ध के मोर्चे पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है उसी तरह औरतें अपने अनंत आत्मबलिदान, अनंत पीड़ा और दर्द के रूप में अपना योगदान देती हैं। हर बच्चा जो औरत संसार में लाती है वह उसके एक युद्ध ही है, अपने समाज को ज़िंदा रखने के औरत द्वारा छेड़ा गया युद्ध।
1933 में हिटलर ने कहा था : ‘मेरे राज्य की सबसे महत्त्वपूर्ण नागरिक माँ है।’ लेकिन नात्सी जर्मनी में सारी माताओं के साथ भी एक जैसा बर्ताव नहीं होता था। जो औरतें नस्ली तौर पर अवांछित बच्चों को जन्म देती थीं उन्हें दंडित किया जाता था जबकि नस्ली तौर पर वांछित दिखने वाले बच्चों को जन्म देने वाली माताओं को इनाम दिए जाते थे। ऐसी माताओं को अस्पताल में विशेष सुविधाएँ दी जाती थीं, दुकानों में उन्हें ज़्यादा छूट मिलती थी और थियेटर व रेलगाड़ी के टिकट उन्हें सस्ते में मिलते थे। हिटलर ने खूब सारे बच्चों को जन्म देने वाली माताओं के वैसे ही तमगे देने का इंतज़ाम किया था जिस तरह के तमगे सिपाहियों को दिए जाते थे। चार बच्चे पैदा करने वाली माँ को काँसे का, छः बच्चे पैदा करने वाली माँ को चाँदी का और आठ या उससे ज़्यादा बच्चे पैदा करने वाली माँ को सोने का तमगा दिया जाता था।
निर्धारित आचार संहिता का उल्लंघन करने वाली ‘आर्य’ औरतों की सार्वजनिक रूप से निंदा की जाती थी और उन्हें कड़ा दंड दिया जाता था। बहुत सारी औरतों को गंजा करके, मुँह पर कालिख पोत कर और उनके गले में तख्ती लटका कर पूरे शहर में घुमाया जाता था। उनके गले में लटकी तख्ती पर लिखा होता था - ‘मैंने राष्ट्र के सम्मान को मलिन किया है।’ इस आपराधिक कृत्य के बहुत सारी औरतों को न केवल जेल की सज़ा दी गई बल्कि उनसे तमाम नागरिक सम्मान और उनके पति व परिवार भी छीन लिए गए।
4.2 प्रचार की कला
नात्सी शासन ने भाषा और मीडिया का बड़ी होशियारी से इस्तेमाल किया और उसका ज़बर्दस्त फ़ायदा उठाया। उन्होंने अपने तौर-तरीकों को बयान करने के जो शब्द ईजाद किए थे वे न केवल भ्रामक बल्कि दिल दहला देने वाले शब्द थे। नात्सियों ने अपने अधिकृत दस्तावेज़ों में ‘हत्या’ या ‘मौत’ जैसे शब्दों का कभी इस्तेमाल नहीं किया। सामूहिक हत्याओं को विशेष व्यवहार, अंतिम समाधान (यहूदियों के संदर्भ में), यूथनेज़िया (विकलांगों के ), चयन और संक्रमण-मुक्ति आदि शब्दों से व्यक्त किया जाता था। ‘इवैक्युएशन’ (खाली कराना) का आशय था लोगों को गैस चेंबरों में ले जाना। क्या आपको मालूम है कि गैस चेंबरों को क्या कहा जाता था? उन्हें ‘संक्रमण मुक्ति-क्षेत्र’ कहा जाता था। गैस चेंबर स्नानघर जैसे दिखाई देते थे और उनमें नकली फव्वारे भी लगे होते थे।
स्रोत छ
न्यूरेम्बर्ग पार्टी रैली में 8 सितंबर 1934 को ही हिटलर ने यह भी कहा था :
‘औरत किसी समुदाय के संरक्षण में सबसे स्थिर तत्त्व है… उसे इस बात का सबसे अच्छी तरह पता होता है कि अपनी नस्ल को खत्म होने से बचाने के क्या-क्या चीज़ें महत्त्वपूर्ण होती हैं क्योंकि उसी के बच्चे हैं जो इस सारी पीड़ा से सबसे पहले प्रभावित होंगे…। इसी हमने नस्ली समुदाय के संघर्ष में औरत को भी वही जगह दी है जो प्रकृति और नियति के अनुसार है।’
शासन के समर्थन हासिल करने और नात्सी विश्व दृष्टिकोण को फैलाने के मीडिया का बहुत सोच-समझ कर इस्तेमाल किया गया। नात्सी विचारों को फैलाने के तस्वीरों, फ़िल्मों, रेडियो, पोस्टरों, आकर्षक नारों और इश्तहारी पर्चों का खूब सहारा लिया जाता था। पोस्टरों में जर्मनों के ‘दुश्मनों’ की रटी-रटाई छवियाँ दिखाई जाती थीं, उनका मज़ाक उड़ाया जाता था, उन्हें अपमानित किया जाता था, उन्हें शैतान के रूप में पेश किया जाता था। समाजवादियों और उदारवादियों को कमज़ोर और पथभ्रष्ट तत्त्वों के रूप में प्रस्तुत किया जाता था। उन्हें विदेशी एजेंट कहकर बदनाम किया जाता था। प्रचार फिल्मों में यहूदियों के प्रति नफरत फैलाने पर ज़ोर दिया जाता था। ‘द एटर्नल ज्यू’ (अक्षय यहूदी) इस सूची की सबसे कुख्यात फिल्म थी। परंपराप्रिय यहूदियों को खास तरह की छवियों में पेश किया जाता था। उन्हें दाढ़ी बढ़ाए और काफ़्तान (चोगा) पहने दिखाया जाता था, जबकि वास्तव में जर्मन यहूदियों और बाकी जर्मनों के बीच कोई फ़र्क करना असंभव था क्योंकि दोनों समुदाय एक-दूसरे में काफ़ी घुले-मिले हुए थे। उन्हें केंचुआ, चूहा और कीड़ा जैसे शब्दों से संबोधित किया जाता था। उनकी चाल-ढाल की तुलना कुतरने वाले छछुंदरी जीवों से की जाती थी। नात्सीवाद ने लोगों के दिलोदिमाग पर गहरा असर डाला, उनकी भावनाओं को भड़का कर उनके गुस्से और नफरत को ‘अवांछितों’ पर केंद्रित कर दिया। इसी अभियान से नात्सीवाद का सामाजिक आधार पैदा हुआ।
नात्सियों ने आबादी के सभी हिस्सों को आकर्षित करने के प्रयास किए। पूरे समाज को अपनी तरफ़ आकर्षित करने के उन्होंने लोगों को इस बात का अहसास कराया कि उनकी समस्याओं को सिर्फ नात्सी ही हल कर सकते हैं।
चित्र 28 - यहूदियों पर हमला करता एक नात्सी पोस्टर.
चित्र के नीचे दी गई पंक्तियाँ : ‘पैसा ही यहूदी का भगवान है। पैसे के वह भयानक अपराध करता है। वह तब तक चैन से नहीं बैठता जब तक कि नोटों से भरे बोरे पर न बैठ जाए, जब तक कि वह पैसे का राजा न हो जाए।’
क्रियाकलाप
अगर आप
यहूदी औरत या
गैर-यहूदी जर्मन औरत
होतीं तो हिटलर के विचारों पर किस तरह की प्रतिक्रिया देतीं?
क्रियाकलाप
आपके विचार से इस पोस्टर में क्या दिखाने की कोशिश की जा रही है?
जर्मन किसान तुम सिर्फ़ हिटलर के हो! क्यों? |
---|
आज |
जर्मन किसान दो भयानक पाटों के बीच पिस रहा है : |
एक खतरा अमेरिकी अर्थव्यवस्था |
यानी बड़े पूँजीवाद का है |
दूसरा खतरा बोलशेविज्म की मार्क्सवादी अर्थव्यवस्था का है |
बड़ा पूँजीवाद और बोलशेविज्म, दोनों हाथ मिला कर काम करते हैं : |
ये दोनों ही यहूदी विचारों से जन्मे हैं |
और विश्व यहूदीवाद की महायोजना को लागू कर रहे हैं। |
किसान को इन खतरों से कौन बचा सकता है? |
केवल |
राष्ट्रीय समाजवाद |
1932 में छपे एक नात्सी पर्चे से। |
चित्र 29 - यह पोस्टर दर्शाता है कि किसानों को नात्सी किस तरह आकर्षित करते थे.
चित्र 30 - बीस के दशक का एक नात्सी पार्टी पोस्टर.
इसमें हिटलर, को अग्रिम मोर्चे पर युद्धरत सिपाही बताकर उसे वोट देने का आह्बान किया जा रहा है।
क्रियाकलाप
चित्र 29-30 को देखें और निम्नलिखित का उत्तर दें :
इनसे नात्सी प्रचार के बारे में हमें क्या पता चलता है? आबादी के विभिन्न हिस्सों को गोलबंद करने के नात्सी क्या प्रयास कर रहे हैं?
कुछ महत्त्वपूर्ण तिथियाँ
1 अगस्त 1914
पहला विश्वयुद्ध शुरू9 नवंबर 1918
जर्मनी ने घुटने टेक दिए, युद्ध समाप्त9 नवंबर 1918
वाइमर गणराज्य की स्थापना का एलान28 जून 1919
वर्साय की संधि30 जनवरी 1933
हिटलर जर्मनी का चांसलर बनता है1 सितंबर 1939
जर्मनी का पोलैंड में घुसना। दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत।22 जून 1941
जर्मन सेनाएँ सोवियत संघ में घुसती हैं।23 जून 1941
यहूदियों का कत्लेआम शुरू8 दिसंबर 1941
अमेरिका भी दूसरे विश्वयुद्ध में कूद पड़ा।27 जनवरी 1945
सोवियत फौजें औषवित्स को मुक्त कराती हैं।8 मई 1945
यूरोप में मित्र राष्ट्रों की विजय।
5 आम जनता और मानवता के खिलाफ़ अपराध
नात्सीवाद पर आम लोगों की प्रतिक्रिया क्या रही?
बहुत सारे लोग नात्सी शब्दाडंबर और धुआँधार प्रचार का शिकार हो गए। वे दुनिया को नात्सी नज़रों से देखने लगे और अपनी भावनाओं को नात्सी शब्दावली में ही व्यक्त करने लगे। किसी यहूदी से आमना-सामना हो जाने पर उन्हें अपने भीतर गहरी नफ़रत और गुस्से का अहसास होता था। उन्होंने न केवल यहूदियों के घरों के बाहर निशान लगा दिए बल्कि जिन पड़ोसियों पर शक था उनके बारे में पुलिस को भी सूचित कर दिया। उन्हें पक्का विश्वास था कि नात्सीवाद ही देश को तरक्की के रास्ते पर लेकर जाएगा; यही व्यवस्था सबका कल्याण करेगी।
लेकिन जर्मनी का हर व्यक्ति नात्सी नहीं था। बहुत सारे लोगों ने पुलिस दमन और मौत की आशंका के बावजूद नात्सीवाद का जमकर विरोध किया। लेकिन जर्मन आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा इस पूरे घटनाक्रम का मूक दर्शक और उदासीन साक्षी बना हुआ था। लोग कोई विरोधी कदम उठाने, अपना मतभेद व्यक्त करने, नात्सीवाद का विरोध करने से डरते थे। वे अपने दिल की बात कहने की बजाय आँख फेर कर चल देना ज़्यादा बेहतर मानते थे। पादरी नीम्योलर ने नात्सियों का लगातार विरोध किया। उन्होंने पाया कि नात्सी साम्राज्य में लोगों पर जिस तरह के निर्मम और संगठित ज़ुल्म किए जा रहे हैं उनका जर्मनी की आम जनता विरोध नहीं कर पाती थी। जनता एक अजीब-सी खामोशी में डूबी हुई थी। गेस्तापो की दहशतनाक कार्यशैली और कुकृत्यों पर निशाना साधते हुए इस खामोशी के बारे में उन्होंने बड़े मर्मस्पर्शी ढंग से लिखा है :
‘पहले वे कम्युनिस्टों को ढूँढ़ते आए,
मैं कम्युनिस्ट नहीं था
इस मैंने कुछ नहीं कहा।
फिर वे सोशल डेमोक्रैट्स को ढूँढ़ते आए,
मैं सोशल डेमोक्रैट नहीं था
इस चुप रहा।
इसके बाद वे ट्रेड यूनियन वालों को ढूँढ़ते आए,
पर मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था।
और फिर वे यहूदियों को ढूँढ़ते आए,
लेकिन मैं यहूदी नहीं था-इस मैंने कुछ नहीं किया।
फिर, अंत में जब वह मेरे आए
तो वहाँ कोई नहीं बचा था जो मेरे साथ खड़ा हो सके।’
बॉक्स 1
क्या नात्सियों द्वारा सताए गए लोगों के प्रति हमदर्दी का अभाव केवल दहशत की वजह से था? लॉरेंस रीस का कहना है कि यह मानना गलत होगा। लॉरेंस रीस ने हाल ही में अपने वृत्तचित्र ‘द नात्सीज़ : ए वार्निंग फ़्रॉम हिस्ट्री’ के तरह-तरह के लोगों से बातचीत की थी। इसी सिलसिले में उन्होंने एर्ना क्राँत्स से भी बात की जो 1930 के दशक में किशोरी थीं और अब दादी बन चुकी हैं। एर्ना ने रीस से कहा :
तीस के दशक में एक उम्मीद सी दिखाई देती थी। यह बेरोज़गारों के ही नहीं बल्कि हर किसी के उम्मीद का दौर था क्योंकि हम सभी दबा-कुचला महसूस करते थे। अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकती हूँ कि उन दिनों तनख्वाहें बढ़ी थीं और जर्मनी को मानो अपना उद्देश्य दोबारा मिल गया था। कम से कम मुझे तो यही लगता था कि वह अच्छा दौर था। मुझे अच्छा लगता था।
क्रियाकलाप
एर्ना क्राँत्स ने ये क्यों कहा-‘कम से कम मुझे तो यही लगता था’? आप उनकी राय को किस तरह देखते हैं?
नात्सी जर्मनी में यहूदी क्या महसूस करते थे यह एक बिल्कुल अलग कहानी है। शार्लट बेराट ने अपनी डायरी में लोगों के सपनों को चोरी-छिपे दर्ज किया था। बाद में उन्होंने अपनी इस डायरी को पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। पढ़ने वालों को झकझोर कर रख देने वाली इस किताब का नाम है थर्ड राइख़ ऑफ़़ ड्रीम्स/ शार्लटे ने इस किताब में बताया है कि एक समय के बाद किस तरह खुद यहूदी भी अपने बारे में नात्सियों द्वारा फैलाई जा रही रूढ़ छवियों पर यकीन करने लगे थे। अपने सपनों में उन्हें भी अपनी नाक आगे से मुड़ी हुई, बाल व आँखें काली और यहूदियों जैसी शक्ल-सूरत व चाल-ढाल दिखने लगी थी। नात्सी प्रेस में यहूदियों की जो छवियाँ और तस्वोरें छपती थीं, वे दिन-रात यहूदियों का पीछा कर रही थीं। ये छवियाँ सपनों में भी उनका पीछा नहीं छोड़ती थीं। बहुत सारे यहूदी गैस चेंबर में पहुँचने से पहले ही दम तोड़ गए।
चित्र 31 - वॉरसा घेटो के निवासियों ने दस्तावेज़ इकट्टा किए और उन्हें दूध के तीन टिनों में रख दिया। जब यह तय दिखाई देने लगा कि अब सब कुछ तबाह हो जाएगा तो उन्होंने 1943 में तीनों कनस्तरों को अपनी काल कोठरियों के तहखाने में दबा दिया। ये कनस्तर 1950 में लोगों के हाथ लगे.
5.1 महाध्वंस ( होलोकॉस्ट ) के बारे में जानकारियाँ
नात्सी तौर-तरीकों की जानकारी नात्सी शासन के आखिरी सालों में रिस-रिस कर जर्मनी से बाहर जाने लगी थी। लेकिन, वहाँ कितना भीषण रक्तपात और बर्बर दमन हुआ था, इसका असली अंदाज़ा तो दुनिया को युद्ध खत्म होने और जर्मनी के हार जाने के बाद ही लग पाया। जर्मन समाज तो मलबे में दबे एक पराजित राष्ट्र के रूप में अपनी दुर्दशा से दुखी था ही, लेकिन यहूदी भी चाहते थे कि दुनिया उन भीषण अत्याचारों और पीड़ाओं को याद रखे जो उन्होंने नात्सी कत्लेआम में झेली थीं। इन्हीं कत्लेआमों को महाध्वंस (होलोकॉस्ट) भी कहा जाता है। जब दमनचक्र अपने शिखर पर था उन्हीं दिनों एक यहूदी टोले में रहने वाले एक आदमी ने अपने साथी से कहा था कि वह युद्ध के बाद सिर्फ़ आधा घंटा और जीना चाहता है। शायद वह दुनिया को यह बता कर जाना चाहता था कि नात्सी जर्मनी में क्या-क्या हो रहा था। जो कुछ हुआ उसकी गवाही देने और जो भी दस्तावेज़ हाथ आए उन्हें बचाए रखने की यह अदम्य चाह घेटो और कैंपों में नारकीय जीवन भोगने वालों में बहुत गहरे तौर पर देखी जा सकती है। उनमें से बहुतों ने डायरियाँ लिखों, नोटबुक लिखों और दस्तावेज़ों के संग्रह बनाए। लेकिन, इसके विपरीत, जब यह दिखाई देने लगा कि अब युद्ध में नात्सियों की पराजय तय ही है तो नात्सी नेतृत्व ने दफ़्तरों में मौजूद तमाम सबूतों को नष्ट करने के अपने कर्मचारियों को पेट्रोल बाँटना शुरू कर दिया।
चित्र 32 - डेनमार्क ने अपने यहूदियों को चोरी-छिपे जर्मनी से निकाल लिया था। इस काम के लिए इस्तेमाल की गई नौकाओं में से एक.
दुनिया के बहुत सारे हिस्सों में स्मृति लेखों, साहित्य, वृत्तचित्रों, शायरी, स्मारकों और संग्रहालयों में इस महाध्वंस का इतिहास और स्मृति आज भी ज़िंदा है। ये सारी चीज़ें उन लोगों के एक श्रद्धांजलि हैं जिन्होंने उन स्याह दिनों में भी प्रतिरोध का साहस दिखाया। उन लोगों के भी ये सारी बातें शर्मनाक यादगार हैं जिन्होंने ये जुल्म ढाए और उनके चेतावनी की आवाज़ें हैं जो खामोशी से सब कुछ देखते रहे।
बॉक्स 2
गांधी जी ने हिटलर को लिखा
हिटलर को गांधीजी का पत्र
वर्धा, मध्य प्रान्त, भारत
23 जुलाई 1939
प्रिय मित्र,
मित्रों का यह आग्रह रहा है कि मानवता की खातिर मैं आपको कुछ लिखूँ। लेकिन मैं उनके अनुरोध को अस्वीकार करता रहा हूँ, क्योंकि मैं यह महसूस करता हूँ कि मेरा आपको पत्र लिखना धृष्टता होगी। लेकिन मुझे कुछ ऐसा लगता है कि इस मामले में मुझे हिसाब-किताब करके नहीं चलना चाहिए और मुझे आपसे अपील करनी ही चाहिए, चाहे वह जिस लायक हो।
यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि आज संसार में आप ही एक ऐसे व्यक्ति हैं जो उस युद्ध को रोक सकते हैं, जो मानव-जाति को बर्बर अवस्था में पहुँचा सकता है। क्या आपको किसी उद्देश्य के इतना बड़ा मूल्य चुकाना चाहिए, फिर चाहे वह उद्देश्य आपकी दृष्टि में कितना ही महान क्यों न हो? क्या आप एक ऐसे व्यक्ति की अपील पर ध्यान देंगे जिसने सोच-विचार कर युद्ध के तरीके का त्याग कर दिया है और इसमें उसे काफी सफलता भी मिली है? जो भी हो, मैं यह मान लेता हूँ कि यदि मैंने आपको पत्र लिख कर कोई भूल की है तो उसके आप मुझे क्षमा कर देंगे?
मैं हूँ,
आपका सच्चा मित्र,
मो. क. गांधी
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड 70 , प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार
हिटलर को गांधीजी का पत्र
वर्धा
24 दिसंबर 1940 हमें अहिंसा के रूप में एक ऐसी शक्ति प्राप्त हो गई है जिसे यदि संगठित कर लिया जाए तो वह संसार भर की सभी प्रबलतम हिंसात्मक शक्तियों के गठजोड़ का मुकाबला कर सकती है। जैसा कि मैंने कहा, अहिंसात्मक तरीके में पराजय नाम की कोई चीज है ही नहीं। यह तरीका तो बिना मारे या चोट पहुँचाए “करने या मरने” का तरीका है। इसका इस्तेमाल करने में धन की लगभग कोई ज़रूरत नहीं है और उस विनाशशास्त्र की तो नहीं ही जिसे आपने पूर्णता के चरमबिंदु पर पहुँचा दिया है। मुझे यह देखकर आश्चर्य होता है कि आप यह भी नहीं देख पाते कि विनाशकारी यंत्रों पर किसी का एकाधिकार नहीं है। अगर ब्रिटिश लोग नहीं तो कोई और देश निश्चय ही आपके तरीकों से ज़्यादा बेहतर तरीका ईजाद कर लेगा और आपके ही तरीकों से आपको नीचा दिखाएगा। आप अपने देशवासियों के कोई ऐसी विरासत नहीं छोड़ रहे हैं जिस पर उन्हें गर्व होगा। वे एक क्रूर कर्म की चर्चा करने में गर्व का अनुभव नहीं करेंगे फिर भले ही वह कृत्य कितनी ही निपुणतापूर्वक नियोजित क्यों न किया गया हो। अत: मैं मानवता के नाम पर आपसे युद्ध रोक देने की अपील करता हूँ।
हृदय से आपका मित्र,
मो. क. गांधी
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड 73 , प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार
क्रियाकलाप
1. एक पन्ने में जर्मनी का इतिहास लिखें :
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नात्सी जर्मनी के एक स्कूली बच्चे की नज़र से।
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यातना गृह से ज़िंदा बच निकले एक यहूदी की नज़र से।
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नात्सी शासन के राजनीतिक विरोधी की नज़र से।
2. कल्पना कीजिए कि आप हेलमुट हैं। स्कूल में आपके बहुत सारे यहूदी दोस्त हैं। आपका मानना है कि यहूदी खराब नहीं होते। ऐसे में आप अपने पिता से क्या कहेंगे, इस बारे में एक पैराग्राफ़ लिखें।
प्रश्न
1. वाइमर गणराज्य के सामने क्या समस्याएँ थीं?
2. इस बारे में चर्चा कीजिए कि 1930 तक आते-आते जर्मनी में नात्सीवाद को लोकप्रियता क्यों मिलने लगी?
3. नात्सी सोच के खास पहलू कौन-से थे?
4. नात्सियों का प्रोपैगैडा यहूदियों के खिलाफ़ नफ़रत पैदा करने में इतना असरदार कैसे रहा?
5. नात्सी समाज में औरतों की क्या भूमिका थी? फ्रांसीसी क्रांति के बारे में जानने के अध्याय 1 देखें फ्रांसीसी क्रांति और नात्सी शासन में औरतों की भूमिका के बीच क्या फ़र्क था? एक पैरगग्राफ़ में बताएँ।
6. नात्सियों ने जनता पर पूरा नियंत्रण हासिल करने के लिए कौन-कौन से तरीके अपनाए?