अध्याय 04 भारत में खाद्य सुरक्षा
अवलोकन
खाद्य सुरक्षा का अर्थ है, सभी लोगों के लिए सदैव भोजन की उपलब्धता, पहुँच और उसे प्राप्त करने का सामर्थ्य। जब भी अनाज के उत्पादन या उसके वितरण की समस्या आती है, तो सहज ही निर्धन परिवार इससे अधिक प्रभावित होते हैं। खाद्य सुरक्षा सार्वजनिक वितरण प्रणाली, शासकीय सतर्कता और खाद्य सुरक्षा के खतरे की स्थिति में सरकार द्वारा की गई कार्यवाही पर निर्भर करती है।
खाद्य सुरक्षा क्या है?
जीवन के लिए भोजन उतना ही आवश्यक है जितना कि साँस लेने के लिए वायु। लेकिन खाद्य सुरक्षा मात्र दो जून की रोटी पाना नहीं है, बल्कि उससे कहीं अधिक है। खाद्य सुरक्षा के निम्नलिखित आयाम हैं :
(क) खाद्य उपलब्धता का तात्पर्य देश में खाद्य उत्पादन, खाद्य आयात और सरकारी अनाज भंडारों में संचित पिछले वर्षों के स्टॉक से है।
(ख) पहुँच का अर्थ है कि खाद्य प्रत्येक व्यक्ति को मिलता रहे।
(ग) सामर्थ्य का अर्थ है कि लोगों के पासे अपनी भोजन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त और पौष्टिक भोजन खरीदने के लिए धन उपलन्ध हो। किसी देश में खाद्य सुरक्षा केवल तभी सुनिश्चित होती है जब (1) सभी लोगों के लिए पर्याप्त खाद्य उपलन्ध हो, (2) सभी लोगों के पास स्वीकार्य गुणवत्ता के खाद्य-पदार्थ खरीदने की क्षमता हो और (3) खाद्य की उपलब्धता में कोई बाधा नहीं हो।
खाद्य सुरक्षा क्यों?
समाज का अधिक गरीब वर्ग तो हर समय खाद्य असुरक्षा से ग्रस्त हो सकता है परंतु जब देश भूकंप, सूखा, बाढ़, सुनामी, फसलों के खराब होने से पैदा हुए अकाल आदि राष्ट्रीय आपदाओं से गुज़र रहा हो, तो निर्धनता रेखा से ऊपर के लोग भी खाद्य असुरक्षा से ग्रस्त हो सकते हैं।
1970 के दशक में खाद्य सुरक्षा का अर्थ था-‘आधारिक खाद्य पदार्थों की सदैव पर्याप्त उपलब्धता’ (सं. रा. 1975)। अमर्त्य सेन ने खाद्य सुरक्षा में एक नया आयाम जोड़ा और हकदारियों के आधार पर खाद्य तक पहुँच पर ज़ोर दिया। हकदारियों का अभिप्राय राज्य या सामाजिक रूप से उपलब्ध कराई गई अन्य पूर्तियों के साथ-साथ उन वस्तुओं से है, जिनका उत्पादन और विनिमय बाज़ार में किसी व्यक्ति द्वारा किया जा सकता है। तदनुसार, खाद्य सुरक्षा के अर्थ में काफ़ी परिवर्तन हुआ है। विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन, 1995 में यह घोषणा की गई कि “वैयक्तिक, पारिवारिक, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय तथा वैश्विक स्तर पर खाद्य सुरक्षा का अस्तित्व तभी है, जब सक्रिय और स्वस्थ जीवन व्यतीत करने के लिए आहार संबंधी ज़रूरतों और खाद्य पदार्थों को पूरा करने के लिए पर्याप्त, सुरक्षित एवं पौष्टिक खाद्य तक सभी लोगों की भौतिक एवं आर्थिक पहुँच सदैव हो” (खाद्य एवं कृषि संगठन 1996, पृष्ठ 3)। इसके अतिरिक्त घोषणा में यह भी स्वीकार किया गया कि “खाद्य तक पहुँच बढ़ाने में निर्धनता का उन्मूलन किया जाना परमावश्यक है।”
किसी आपदा के समय खाद्य सुरक्षा कैसे प्रभावित होती है? किसी प्राकृतिक आपदा जैसे, सूखे के कारण खाद्यान्न की कुल उपज में गिरावट आती है। इससे प्रभावित क्षेत्र में खाद्य की कमी हो जाती है। खाद्य की कमी के कारण कीमतें बढ़ जाती हैं। कुछ लोग ऊँची कीमतों पर खाद्य पदार्थ नहीं खरीद सकते। अगर यह आपदा अधिक विस्तृत क्षेत्र में आती है या अधिक लंबे समय तक बनी रहती है, तो भुखमरी की स्थिति पैदा हो सकती है। व्यापक भुखमरी से अकाल की स्थिति बन सकती है।
अकाल के दौरान बड़े पैमाने पर मौतें होती हैं जो भुखमरी तथा विवश होकर दूषित जल या सड़े भोजन के प्रयोग से फैलने वाली महामारियों तथा भुखमरी से उत्पन्न कमज़ोरी से रोगों के प्रति शरीर की प्रतिरोधी क्षमता में गिरावट के कारण होती है।
भारत में जो सबसे भयानक अकाल पड़ा था, वह 1943 का बंगाल का अकाल था। इस अकाल में भारत के बंगाल प्रांत में तीस लाख लोग मारे गए थे।
क्या आपको मालूम है कि बंगाल के अकाल से सबसे अधिक कौन लोग प्रभावित हुए? चावल की कीमतों में भारी वृद्धि से खेतिहर मज़दूर, मछुआरे, परिवहनकर्मी और अन्य अनियमित श्रमिक सबसे अधिक प्रभावित हुए। इस अकाल में सबसे अधिक वही मरे।
सारणी 4.1 : बंगाल प्रांत में चावल की उपज
वर्ष | उत्पादन (लाख टन) |
आयात (लाख टन) |
निर्यात (लाख टन) |
कुल उपलब्धता (लाख टन) |
---|---|---|---|---|
1938 | 85 | - | - | 85 |
1939 | 79 | 04 | - | 83 |
1940 | 82 | 03 | - | 85 |
1941 | 68 | 02 | - | 70 |
1942 | 93 | - | 01 | 92 |
1943 | 76 | 03 | - | 79 |
सोत : सेन, ए.के., 1983, पृष्ठ 61 (देखें इस अध्याय का ‘संदर्भ’)
आइड चर्चा करें
- कुछ लोगों का कहना है कि बंगाल का अकोल चावल की कमी के कारण हुआ था। सारणी 4.1 का अध्ययन करें और बताएँ कि क्या आप इस कथन से सहमत हैं?
- किस वर्ष में खाद्य उपलब्धता में भारी कमी हुई?
चित्र 4.1 : राहत केंद्र पर भुखमरी से पीड़ित लोग, 1945
चित्र 4.2 : 1943 के बंगाल के अकाल के दौरान पूर्वी बंगाल के चटगाँव ज़िले में गाँव छोड़ कर जाता हुआ एक परिवार।
सुझाए गड कार्य
(क) चित्र 4.1 में आप क्या देखते हैं?
(ख) पहले चित्र में कौन सा आयु वर्ग दिख रहा है?
(ग) क्या आप कह सकते हैं कि चित्र 4.2 में दिखाया गया परिवार गरीब है? क्यों?
(घ) क्या आप अकाल पड़ने से पहले (दोनों चित्रों में दिखाए गए) लोगों की जीविका के स्रोत के बारे में अनुमान लगा सकते हैं? (गाँव के संदर्भ में)
(ङ) ज्ञात करें कि किसी राहत शिविर में प्राकृतिक आपदा के पीड़ितों को किस तरह की मदद दी जाती है।
(च) क्या आपने इस तरह के पीड़ितों की कभी (धन, खाद्य, कपड़ों, दवाओं आदि के रूप में) सहायता की है?
परियोजना कार्य : भारत में अकाल संबंधी और सूचनाएँ एकत्र करें।
भारत में बंगाल जैसा अकाल पुन: कभी नहीं पड़ा। लेकिन यह चिंता का विषय है कि आज भी अकाल जैसी स्थिति व्याप्त है और भूख के कारण कुछ लोगों की मृत्यु भी हुई है। प्राकृतिक आपदाओं एवं महामारियों के कारण भी खाद्य में भी कमी आ सकती है। उदाहरण के लिए कोविड 19 महामारी का विपरीत प्रभाव पड़ा। लोगों के आवागमन पर तथा वस्तुओं एवं सेवाओं पर प्रतिबंध लगाया गया जिससे आर्थिक गतिविधि प्रभावित हुई। अतः किसी भी देश में खाद्य सुरक्षा आवश्यक होती है ताकि सदैव खाद्य की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके।
खाद्य-असुरक्षित कौन हैं?
यद्यपि भारत में लोगों का एक बड़ा वर्ग खाद्य एवं पोषण की दृष्टि से असुरक्षित है, परंतु इससे सर्वाधिक प्रभावित वर्गों में निम्नलिखित शामिल हैं : भूमिहीन जो थोड़ी बहुत अथवा नगण्य भूमि पर निर्भर हैं, पारंपरिक दस्तकार, पारंपरिक सेवाएँ प्रदान करने वाले लोग, अपना छोटा-मोटा काम करने वाले कामगार और निराश्रित तथा भिखारी। शहरी क्षेत्रों में खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित वे परिवार हैं जिनके कामकाजी सदस्य प्रायः कम वेतन वाले व्यवसायों और अनियत श्रम-बाज़ार में काम करते हैं। ये कामगार अधिकतर मौसमी कार्यों में लगे हैं और उनको इतनी कम मज़दूरी दी जाती है कि वे मात्र जीवित रह सकते हैं।
रामू की कहानी
रामू रायपुर गाँव में कृषि क्षेत्रक में एक अनियत खेतिहर मज़दूर के रूप में काम करता है। उसका सबसे बड़ा बेटा सोमू दस वर्ष का है। वह भी गाँव के सरपंच सतपाल सिंह के पशुओं की देखभाल करने वाले पाली के रूप में काम करता है। सोमू सरपंच के यहाँ पूरे वर्ष काम करता है और उसे इस काम के लिए सिर्फ़ एक हज़ार रुपये मिलते हैं। रामू के तीन और बेटे और दो बेटियाँ हैं, लेकिन वे अभी बहुत कम उम्र के हैं और वे खेत में काम नहीं कर सकते। रामू की पत्नी सुनहरी भी पशुओं की सफ़ाई करने और गोबर हटाने का काम (अंशकालिक) करती है। उसे अपने रोज़ाना काम के बदले आधा लीटर दूध और सब्ज़ियों के साथ कुछ पका खाना मिलता है। इसके अलावा व्यस्त मौसम में वह अपने पति के साथ मिल कर खेती में काम करती है और उनकी आमदनी बढ़ जाती है। कृषि एक मौसमी कार्य है और रामू को केवल बुआई, पौधा-रोपण और फसल की कटाई के समय काम मिलता है। वह वर्ष में फसल तैयार होने और पकने तक की अवधि के दौरान लगभग चार महीने बेरोज़गार रहता है। तब वह दूसरे कार्यों में काम की तलाश करता है। कभी-कभी उसे ईंट भट्टे में या गाँव में चल रहे निर्माण कार्यों में काम मिल जाता है। रामू अपने इन प्रयासों से नकद या फिर वस्तु रूप में इतना कमा लेता है, जिससे वह अपने परिवार के दो जून के भोजन के लिए ज़रूरी चीज़ें जुटा सके। बहरहाल, जब वह कहीं काम पाने में असफल रहता है तो उसे और उसके परिवार को वास्तव में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, और कभी-कभी उसके छोटे बच्चों को भूखे पेट ही सोना पड़ता है। परिवार को दूध तथा सब्ज़ियाँ भोजन के साथ नियमित रूप से नहीं मिलती हैं। रामू कृषि कार्य की मौसमी प्रकृति के कारण अपनी बेरोज़गारी के चार महीनों में खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित रहता है।
आइड चर्चा करें
- कृषि एक मौसमी क्रिया क्यों है?
- रामू वर्ष के लगभग चार महीने बेरोज़गार क्यों रहता है?
- जब रामू बेरोज़गार होता है, तो वह क्या करता है?
- रामू के परिवार में पूरक आय कौन प्रदान करता है?
- कोई भी काम पाने में असमर्थ होने पर, रामू को कठिनाई क्यों होती है?
- रामू खाद्य की दृष्टि से कब असुरक्षित होता है?
अहमद की कहानी
अहमद बंगलोर में रिक्शा चलाता है। वह अपने तीन भाइयों, दो बहनों और बूढ़े माँ-बाप के साथ झुमरी तलैया से आया है। वह एक झुग्री में रहता है। उसके परिवार के समस्त सदस्यों का पालन-पोषण रिक्शा चलाने से होने वाली उसकी प्रतिदिन की आय पर निर्भर है। बहरहाल, उसका रोज़गार सुरक्षित नहीं है और उसकी आय प्रतिदिन घटती-बढ़ती रहती है। कभी-कभी वह इतना कमा लेता है कि समस्त दैनिक आवश्यकताओं की चीज़ें खरीदने के पश्चात् अपनी आय में से कुछ बचा लेता है। अन्य दिनों में वह मुश्किल से इतना ही कमा पाता है, जिससे वह दैनिक आवश्यकता की वस्तुएँ ही खरीद सके। सौभाग्यवश, अहमद को एक पीला कार्ड प्राप्त है, जो निर्धनता रेखा से नीचे के लोगों का पी.डी.एस. कार्ड है। इस कार्ड से अहमद अपनी दैनिक ज़रूरतों के उपभोग के लिए पर्याप्त मात्रा में गेहूँ, चावल, चीनी और मिट्टी का तेल प्राप्त कर लेता है। वह इन चीज़ों को बाज़ार की कीमत से आधी कीमत पर प्राप्त कर लेता है। वह अपना मासिक भंडार उस विशेष दिन खरीदता है, जिस दिन दुकान निर्धनता रेखा के नीचे के लोगों के लिए खुलती है। इस तरह अहमद अपनी इस अपर्याप्त आय से अपने बड़े परिवार का किसी तरह पालन-पोषण कर रहा है, जहाँ वह अकेला कमाने वाला सदस्य है।
आइड चर्चा करें
- क्या रिक्शा चलाने से अहमद को नियमित आय होती है?
- रिक्शा चलाने से होने वाली थोड़ी सी आय के बावजूद पीला कार्ड अहमद को अपना परिवार चलाने में कैसे मदद कर रहा है?
- रामू खाद्य की दृष्टि से कब असुरक्षित होता है?
खाद्य पदार्थ खरीदने में असमर्थता के साथ सामाजिक संरचना भी खाद्य की दृष्टि से असुरक्षा में भूमिका निभाती है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों के कुछ वर्गों (इनमें से निचली जातियाँ) का या तो भूमि का आधार कमज़ोर होता है या फिर उनकी भूमि की उत्पादकता बहुत कम होती है, वे खाद्य की दृष्टि से शीघ्र असुरक्षित हो जाते हैं। वे लोग भी खाद्य की दृष्टि से सर्वाधिक असुरक्षित होते हैं, जो प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित हैं और जिन्हें काम की तलाश में दूसरी जगह जाना पड़ता है। कुपोषण से सबसे अधिक महिलाएँ प्रभावित होती हैं। यह गंभीर चिता का विषय है क्योंकि इससे अजन्मे बच्चों को भी कुपोषण का खतरा रहता है। खाद्य असुरक्षा से ग्रस्त आबादी का बड़ा भाग गर्भवती तथा दूध पिला रही महिलाओं तथा पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों का है। देश के कुछ क्षेत्रों, जैसे, आर्थिक रूप से पिछड़े राज्य जहाँ
राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं पारिवारिक सर्वेक्षण (एन.एच.एफ़.एस.) 1998-99 के अनुसार भारत में ऐसी महिलाओं और बच्चों की संख्या 11 करोड़ के लगभग है।
गरीबी अधिक है, आदिवासी और सुदूर-क्षेत्र, प्राकृतिक आपदाओं से बार-बार प्रभावित होने वाले क्षेत्र आदि में खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित लोगों की संख्या आनुपातिक रूप से बहुत अधिक है। वास्तव में, उत्तर प्रदेश (पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी हिस्से), बिहार, झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ भागों में खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित लोगों की सर्वाधिक संख्या है।
भुखमरी खाद्य की दृष्टि से असुरक्षा को इंगित करने वाला एक दूसरा पहलू है। भुखमरी गरीबी की एक अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, यह गरीबी लाती है। इस तरह खाद्य की दृष्टि से सुरक्षित होने से वर्तमान में भुखमरी समाप्त हो जाती है और भविष्य में भुखमरी का खतरा कम हो जाता है। भुखमरी के दीर्घकालिक और मौसमी आयाम होते हैं। दीर्घकालिक भुखमरी मात्रा एवं / या गुणवत्ता के आधार पर अपर्याप्त आहार ग्रहण करने के कारण होती है। गरीब लोग अपनी अत्यंत निम्न आय और जीवित रहने के लिए खाद्य पदार्थ खरीदने में अक्षमता के
कारण दीर्घकालिक भुखमरी से ग्रस्त होते हैं। मौसमी भुखमरी फसल उपजाने और काटने के चक्र से संबद्ध है। यह ग्रामीण क्षेत्रों की कृषि क्रियाओं की मौसमी प्रकृति के कारण तथा नगरीय क्षेत्रों में अनियमित श्रम के कारण होती है। जैसे, बरसात के मौसम में अनियत निर्माण श्रमिक को कम काम रहता है। इस तरह की भुखमरी तब होती है, जब कोई व्यक्ति पूरे वर्ष काम पाने में अक्षम रहता है।
सारणी 4.2 में दिखाया गया है कि भारत में मौसमी और साथ ही दीर्घकालिक भुखमरी के प्रतिशत में गिरावट आई है।
सारणी 4.2 : भारत में ‘भुखमरो’ से ग्रस्त परिवारों का प्रतिशत
वर्ष | भुखमरी के प्रकार | ||
---|---|---|---|
मौसमी | दीर्घकालिक | कुल | |
ग्रामीण | |||
1983 | 16.2 | 2.3 | 18.5 |
1993-94 | 4.2 | 0.9 | 5.1 |
1999-2000 | 2.6 | 0.7 | 3.3 |
शहरी | |||
1983 | 5.6 | 0.8 | 6.4 |
1993-94 | 1.1 | 0.5 | 1.6 |
1999-2000 | 0.6 | 0.3 | 0.9 |
स्रोत : सागर 2004, विद्या (देखें इस अध्याय का ‘संदर्भ’)
स्वतंत्रता के बाद खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर होना भारत का लक्ष्य रहा है।
स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय नीति-निर्माताओं ने खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के सभी उपाय किए। भारत ने कृषि में एक नयी रणनीति अपनाई, जिसकी परिणति हरित क्रांति में हुई, विशेषकर गेहूँ और चावल के उत्पादन में।
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जुलाई, 1968 में ‘गेहूँ क्रांति’ शीर्षक से एक विशेष डाक टिकट जारी कर कृषि के क्षेत्रक में हरित क्रांति की प्रभावशाली प्रगति को आधिकारिक रूप से दर्ज किया। गेहूँ की सफलता के बाद चावल के क्षेत्र में इस सफलता की पुनरावृत्ति हुई। बहरहाल, अनाज की उपज में वृद्धि समानुपातिक नहीं थी। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में
चित्र 4.3 : पंजाव का एक किसान एच.वाई.वी. प्रकारों वाले गेूूँ के एक खेत के सामने, जिस पर हरित क्रांति आधारित है
सर्वाधिक वृद्धि हुई जोकि 58 और 33 करोड़ टन क्रमशः 2020-21 में है। वर्ष 2020-21 में कुल अनाजों का उत्पादन 310 करोड़ टन है। वर्ष 2021-22 में कुल अनाजों का उत्पादन 315 करोड़ टन है। गेहूँ के उत्पादन में उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश में उल्लेखनीय वृद्धि हुई जोकि 36 और 18 करोड़ टन क्रमशः $2020-21$ में है। दूसरी तरफ, पश्चिम बंगाल एवं उत्तर प्रदेश में चावल के उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि जोकि 17 एवं 16 करोड़ टन क्रमशः 2020-21 में है।
सुझाई गई क्रियाएँ
- निकट के किसी गाँव में कुछ खेतों पर जाएँ और किसानों द्वारा उपजाई गई खाद्य फसलों का ब्यौरा एकत्रित करें।
भारत में खाद्य सुरक्षा
70 के दशक के प्रारंभ में हरित क्रांति के आने के बाद से मौसम की विपरीत दशाओं के दौरान भी देश में अकाल नहीं पड़ा है।
देश भर में उपजाई जाने वाली विविध फसलों के कारण भारत पिछले तीस वर्षों के दौरान खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर बन गया है। सरकार द्वारा सावधानीपूर्वक तैयार की गई खाद्य सुरक्षा व्यवस्था के कारण देश में (खराब मौसम स्थितियों के बावजूद अथवा किसी अन्य कारण से) अनाज की उपलब्धता और भी सुनिश्चित हो गई। इस व्यवस्था के दो घटक हैं: (क) बफ़र स्टॉक और (ख) सार्वजनिक वितरण प्रणाली।
आरेख 4.1 : भारत में अनाज की उपज (करोड़ टन)
स्रोत : कृषि निगम और किसानों के कल्याण विभाग, वार्षिक रिपोट 2021-23
- चौथा अनुभाग
आइड चर्चा करें
आरेख 4.1 का अध्ययन करें और निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें :
- हमारे देश में किस वर्ष में अनाज उत्पादन 200 करोड़ टन प्रतिवर्ष से अधिक हुआ?
- भारत में किस दशक में अनाज उत्पादन में सर्वाधिक दशकीय वृद्धि हुई?
- क्या 2000-01 से भारत में उत्पादन में वृद्धि स्थायी है?
बफ़र स्टॉक क्या है?
बफ़र स्टॉक भारतीय खाद्य निगम (एफ़.सी.आई.) के माध्यम से सरकार द्वारा अधिप्राप्त अनाज, गेहूँ और चावल का भंडार है। भारतीय खाद्य निगम अधिशेष उत्पादन वाले राज्यों में किसानों से गेहूँ और चावल खरीदता है। किसानों को उनकी फसल के लिए पहले से घोषित कीमतें दी जाती हैं। इस मूल्य को न्यूनतम समर्थित कीमत कहा जाता है। इन फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से बुआई के मौसम से पहले सरकार न्यूनतम समर्भित कीमत की घोषणा करती है। खरीदे हुए अनाज खाद्य भंडारों में रखे जाते हैं। क्या आप जानते हैं कि सरकार बफ़र स्टॉक क्यों बनाती है? ऐसा कमी वाले क्षेत्रों में और समाज के गरीब वर्गों में बाज़ार कीमत से कम कीमत पर अनाज के वितरण के लिए किया जाता है। इस कीमत को निर्गम कीमत भी कहते हैं। यह खराब मौसम में या फिर आपदा काल में अनाज की कमी की समस्या हल करने में भी मदद करता है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली क्या है?
भारतीय खाद्य निगम द्वारा अधिप्राप्त अनाज को सरकार विनियमित राशन दुकानों के माध्यम से समाज के गरीब वर्गों में वितरित करती है। इसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.)कहते हैं। अब अधिकांश क्षेत्रों, गाँवों, कस्बों और शहरों में राशन की दुकानें हैं। देश भर में लगभग 5.5 लाख राशन की दुकानें हैं। राशन की दुकानों में, जिन्हें उचित दर वाली दुकानें कहा जाता है, चीनी खाद्यान्न और खाना पकाने के लिए मिट्टी के तेल का भंडार होता है। ये सब बाज़ार कीमत से कम कीमत पर लोगों को बेचा जाता है। राशन कार्ड रखने वाला कोई भी परिवार प्रतिमाह इनकी एक अनुबंधित मात्रा (जैसे 35 किलोग्राम अनाज, 5 लीटर मिट्टी का तेल, 5 किलोग्राम चीनी आदि) निकटवर्ती राशन की दुकान से खरीद सकता है।
राशन कार्ड तीन प्रकार के होते हैं : (क) निर्धनों में भी निर्धन लोगों के लिए अंत्योदय कार्डं, (ख) निर्धनता रेखा से नीचे के लोगों के लिए बी पी एल कार्ड और (ग) अन्य लोगों के लिए ए पी एल कार्ड।
सुझाई गई क्रियाएँ
-
अपने इलाके की राशन की दुकान पर जाएँ और वहाँ से निम्नलिखित ब्यौरा प्राप्त करें :
1 राशन की दुकान कब खुलती है?
2 राशन की दुकान पर कौन-कौन सी चीज़ें बेची जाती हैं?
3 राशन की दुकान के चावल और चीनी (निर्धरता की रेखा से नीचे वाले परिवारों के लिए) की कीमत की तुलना किसी अन्य किराने की दुकान की कीमतों से करें। -
पता लगाएँ :
1 क्या आपके पास राशन कार्ड है?
2 इस राशन कार्ड से आपके परिवार ने हाल में कौन-सी चीज़ खरीदी है?
3 क्या उन्हें किसी तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है
4 राशन की दुकानें क्यों ज़रूरी हैं?
चित्र 4.4
भारत में राशन व्यवस्था की शुरुआत बंगाल के अकाल की पृष्ठभूमि में 1940 के दशक में हुई। हरित क्रांति से पूर्व भारी खाद्य संकट के कारण 60 के दशक के दौरान राशन प्रणाली पुनर्जीवित की गई। गरीबी के उच्च स्तरों को ध्यान में रखते हुए 70 के दशक के मध्य एन.एस.एस.ओ. की रिपोर्ट के अनुसार खाद्य संबंधी तीन महत्त्वपूर्ण अंतःक्षेप कार्यक्रम प्रारंभ किए गए: सार्वजनिक वितरण प्रणाली (जो पहले से ही थी, लेकिन उसे और मज़बूत किया गया), एकीकृत बाल विकास सेवाएँ (आई.सी.डी.एस., जो प्रायोगिक आधार पर 1975 में शुरू की गई) और काम के बदले अनाज (एफ.एफ.डब्ल्यू., 1977-78 में प्रारंभ)। इन वर्षों में कई नए कार्यक्रम शुरू किए गए हैं और कार्यक्रमों को चलाने के बढ़ते अनुभवों के आधार पर अन्य कार्यक्रमों का पुनर्गठन किया गया। वर्तमान में अनेक गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम (पी.ए.पी.) चल रहे हैं जो अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। इनमें स्पष्ट रूप से घटक खाद्य भी है, जहाँ सार्वजनिक वितरण प्रणाली, दोपहर का भोजन आदि विशेष रूप से खाद्य की दृष्टि से सुरक्षा के कार्यक्रम हैं। अधिकतर पी.ए.पी. भी खाद्य सुरक्षा बढ़ाते हैं, रोज़गार कार्यक्रम गरीबों की आय मे बढ़ोतरी कर खाद्य सुरक्षा में बड़ा योगदान करते हैं।
सुझाइ गड क्रियाकलाप
सरकार की ओर से शुरू किए गए खाद्य पर आधारित कार्यक्रमों की विस्तृत जानकारी एकत्र करें। संकेतः ग्रामीण वेतन रोज़गार कार्यक्रम, रोज़गार गारंटी योजना, संपूर्ण ग्रामीण रोज़गार योजना, दोपहर का भोजन, एकीकृत बाल विकास सेवाएँ आदि।
अपने शिक्षक के साथ चर्चा करें।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली की वर्तमान स्थिति
सार्वजनिक वितरण प्रणाली खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में भारत सरकार का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कदम है। प्रारंभ में यह प्रणाली सबके लिए थी और निर्धनों और गैर-निर्धनों के बीच कोई भेद नहीं किया जाता था। बाद के वर्षों में सार्वजनिक
भारतीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013
भारतीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 के तहत खाद्य एवं पोषण संबंधी सुरक्षा सस्ती कीमतों पर उपलब्ध कराई जा सके ताकि मानव गरिमामय जीवन निर्वाह कर सके। इस अधिनियम के तहत 75 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या एवं 50 प्रतिशत शहरी जनसंख्या को योग्य परिवार में वर्गीकृत किया गाया है।
वितरण प्रणाली को अधिक दक्ष और अधिक लक्षित बनाने के लिए संशोधित किया गया। 1992 में देश के 1700 ब्लॉकों में संशोधित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (आर पी डी एस) शुरू की गई। इसका लक्ष्य दूर-दराज़ और पिछड़े क्षेत्रों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली से लाभ पहुँचाना था। जून 1997 से ‘सभी क्षेत्रों में गरीबों को लक्षित करने के सिद्धांत को अपनाने के लिए लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टी.पी.डी.एस.) प्रारंभ की गई। यह पहला मौका था जब निर्धनों और गैर-निर्धनों के लिए विभेदक कीमत नीति अपनाई गई। इसके अलावा, 2000 में दो विशेष योजनाएँ-अंत्योदय अन्न योजना और अन्नपूर्णा योजना प्रारंभ की गइैं। ये योजनाएँ क्रमशः ‘गरीबों में भी सर्वाधिक गरीब’ और ‘दीन वरिष्ठ नागरिक’ समूहों पर लक्षित हैं। इन दोनों योजनाओं का संचालन सार्वजनिक वितरण प्रणाली के वर्तमान नेटवर्क से जोड़ दिया गया है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली की कुछ महत्त्वपूर्ण विशेषताओं का सारांश सारणी 4.3 में दिया गया है।
इन वर्षों के दौरान सार्वजनिक वितरण प्रणाली मूल्यों को स्थिर बनाने और सामर्थ्य अनुसार कीमतों पर उपभोक्ताओं को खाद्यान्न उपलब्ध कराने की सरकार की नीति में सर्वाधिक प्रभावी साधन सिद्ध हुई है। इसने देश के अनाज की अधिशेष क्षेत्रों
सारणी 4.3 : सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कुछ महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ
योजना का काम |
आरंभ का वर्ष | लक्षित समूह | अद्यतन मात्रा | निर्गम कीमत ( रु. प्र.कि. ) |
---|---|---|---|---|
सार्वजनिक वितरण प्रणाली |
1992 तक | सर्वजनीन | - | गेहूँ - 2.34 चावल - 2.89 |
संशोधित सार्वजनिक वितरण प्रणाली |
1992 | पिछड़े ब्लॉक | 20 कि. खाद्यान्न |
गेहूँ - 2.80 चावल - 3.77 |
लक्षित सार्वजनिक विवरण प्रणाली |
1997 (2000 से कार्यान्वित) |
निर्धन और गैर-निर्धन बी.पी.एल. ए.पी.एल. |
35 कि. खाद्यान्न/महीना |
बी पी एल - गेहूँ - 4.15 चावल - 5.65 ए पी एल - गेहूँ - 6.10 चावल - 8.30 |
अंत्योदय अन्न योजना |
2002 | निर्धनों में सबसे निर्धन | 35 कि./मुखिया खाद्यान्न/महीना |
गेहूँ - 2.00 चावल - 3.00 |
अन्नपूर्णा योजना | 2000 | दीन वरिष्ठ नागरिक | 10 कि. खाद्यान्न | नि:शुल्क |
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम |
2013 | योग्य परिवार | 5 कि. प्रति व्यक्ति प्रति माह |
गेंहू- 2.00 चावल- 3.00 अनाज- 1.00 |
नोट : बी पी एल: निर्धनता रेखा से नीचे, ए पी एल : निर्धनता रेखा से ऊपर।
स्रोत : भारतीय खाद्य निगम, 2020
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 (अपडेटेड ऑन 29/09/2021)
से कमी वाले क्षेत्रों में खाद्य पूर्ति के माध्यम से अकाल और भुखमरी की व्यापकता को रोकने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके अतिरिक्त, आमतौर पर निर्धन परिवारों के पक्ष में कीमतों का संशोधन होता रहा है। न्यूनतम समर्थित कीमत और अधिप्राप्ति ने खाद्यान्नों के उत्पादन की वृद्धि में योगदान दिया है तथा कुछ क्षेत्रों में किसानों को आय सुरक्षा प्रदान की है।
एफ.सी.आई. के भंडार अनाज से भरे हैं। कहीं अनाज सड़ रहा हैं तो कुछ स्थानों पर चूहे अनाज खा रहे हैं। नीचे दिया गया आरेख 4.2 में केन्द्रीय पूल में खाद्यान्न का स्टॉक और इसकी मोजा मानदडों में अंतर को दर्शाती है।
आओ चर्चा करें
आरेख 4.2 का अध्ययन करें और निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें:
- हाल में किस वर्ष में सरकार के पास खाद्यान्न का स्टॉक सबसे अधिक था?
- एफ.सी.आई. का न्यूनतम बफ़र स्टॉक प्रतिमान क्या है?
- एफ.सी.आई. के भंडारों में खाद्यान्न ठसाठस क्यों भरा हुआ है?
अंत्योदय अन्न योजना
अंत्योदय अन्न योजना दिसंबर 2000 में शुरू की गई थी। इस योजना के अंतर्गत लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली में आने वाले निर्धनता रेखा से नीचे के परिवारों में से एक करोड़ लोगों की पहचान की गई। संबंधित राज्य के ग्रामीण विकास विभागों ने गरीबी रेखा से नीचे के गरीब परिवारों को सर्वेक्षण के द्वारा चुना। 2 रुपये प्रति किलोग्राम गेहूँ और 3 रुपये प्रति किलोग्राम की अत्यधिक आर्थिक सहायता प्राप्त दर पर प्रत्येक पात्र परिवार को 25 किलोग्राम अनाज उपलब्ध कराया गया। अनाज की यह मात्रा अप्रैल 2002 में 25 किलोग्राम से बढ़ा कर 35 किलोग्राम कर दी गई। जून 2003 और अगस्त 2004 में इसमें 50-50 लाख अतिरिक्त बी.पी.एल. परिवार दो बार जोड़े गए। इससे इस योजना में आने वाले परिवारों की संख्या 2 करोड़ हो गई।
सहायिकी (सब्सिडी) वह भुगतान है जो सरकार द्वारा किसी उत्पादक को बाज़ार कीमत की अनुपूर्ति के लिए किया जाता है। सहायिकी से घरेलू उत्पादकों के लिए ऊँची आय कायम रखते हुए, उपभोक्ता कीमतों को कम किया जा सकता है।
आरेख 4.2 : न्यूनतम ब़़र स्टॉक का स्तर (करोड़ टन) एवं चावल और गोहूँ के मानक
स्रोत : भारतीय खाद्य निगम, 2020-21; बफ़र स्टॉक का स्तर 1 जुलाई 2017 से माननीय है
वर्ष 2022 में केंद्रीय पूल के पास 159 लाख मिलियन टन गेहूँ और 104 लाख मिलियन टन चावल का भंडार था जो न्यूनतम बफ़र प्रतिमान से बहुत अधिक था। फिर भी यह बफ़र स्टॉक प्रतिमानों से लगातार ऊँचा बना रहा। सरकार द्वारा शुरू की गई विभिन्न योजनाओं के अधीन खाद्यान्नों के वितरण के द्वारा स्थिति में सुधार हुआ। अनाज वितरण से हालात सुधरे। इस बात पर आम सहमति है कि बफ़र स्टॉक का उच्च स्तर बेहद अवांछनीय है और यह बर्बादी भी है। विशाल खाद्य स्टॉक का भंडारण बर्बादी और अनाज की गुणवत्ता में ह्रास के अतिरिक्त उच्च रख-रखाव लागत के लिए भी ज़िम्मेदार है। न्यूनतम समर्भित कीमत को कुछ वर्ष के लिए स्थिर रखने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
वर्धित न्यूनतम समर्थित कीमत पर अनाज की अधिक खरीदारी प्रमुख अनाज उत्पादक राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा और आंध्र प्रदेश की ओर से डाले गए दबावों का नतीजा है। इसके अलावा, चूँकि खरीदारी कुछ समृद्ध क्षेत्रों (पंजाब, हरियाणा पश्चिमी उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और कुछ सीमा तक पश्चिम बंगाल) में मुख्यत: दो फसलों-गेहूँ और चावल तक सीमित है, न्यूनतम समर्थित कीमत में वृद्धि ने विशेषतया खाद्यान्नों के अधिशेष वाले राज्यों के किसानों को अपनी भूमि पर मोटे अनाजों की खेती समाप्त कर धान और गेहूँ उपजाने के लिए प्रेरित किया है, जबकि मोटे अनाज गरीबों का प्रमुख भोजन है। धान की खेती के लिए सघन सिंचाई से पर्यावरण और जल स्तर में गिरावट भी आई है, जिससे इन राज्यों में कृषिगत विकास को बनाए रखने में खतरा पैदा हो गया है।
न्यूनतम समर्थित कीमतों के बढ़ने से सरकार की खाद्यान्नों की वसूली अनुरक्षण लागत बढ़ गई है। एफ.सी.आई. की बढ़ती परिवहन और भंडारण लागत ने इसे और बढ़ा दिया है।
एन.एस.एस.ओ. न. 558 की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत में प्रति व्यक्ति चावल की खपत 6.38 किग्रा. वर्ष 2004-05 से घटकर 5.98 किग्रा. वर्ष 2011-12 में हो गया।
चित्र 4.5 : भंडारों में खाद्यान्न ले जाते हुए किसान
नगरीय भारत में प्रति व्यक्ति प्रति माह चावल की खपत 4.71 किग्रा. से घटकर 4.49 किग्रा. 2011-12 में हो गया। प्रतिव्यक्ति पी.डी.एस. चावल की खपत 2004-05 से 2011-12 तक ग्रामीण भारत में दुगनी हुई है और नगरीय भारत में 66 प्रतिशत बढ़ी हैं। पी.डी.एस. गेहूँ की प्रति माह प्रति व्यक्ति खपत 2004- 05 से ग्रामीण एवं नगरीय भारत में दोगुना हो गई है।
पी.डी.एस. डीलर अधिक लाभ कमाने के लिए अनाज को खुले बाज़ार में बेचना, राशन दुकानों में घटिया अनाज बेचना, दुकान कभी-कभार खोलना जैसे अपचार करते हैं। राशन दुकानों में घटिया किस्म के अनाज का पड़ा रहना आम बात है, जो बिक नहीं पाता। यह एक बड़ी समस्या साबित हो रही है। जब राशन की दुकानें इन अनाजों को बेच नहीं पातीं, तो एफ.सी.आई. के गोदामों में अनाज का विशाल स्टॉक जमा हो जाता है। हाल के वर्षों में एक और कारण से सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गिरावट आई है। पहले प्रत्येक परिवार के पास निर्धन या गैर-निर्धन राशन कार्ड था जिसमें चावल, गेहूँ, चीनी आदि वस्तुओं का एक निश्चित कोटा होता था। ये प्रत्येक परिवार को एक समान निम्न कीमत पर बेचे जाते थे।
आज आप जो तीन प्रकार के कार्ड और कीमतों की शृंखला देखते हैं, पहले यह नहीं थी। बड़ी संख्या में परिवार राशन की दुकानों से अनाज खरीद सकते थे। हाँ, उनका कोटा निश्चित था। इनमें निम्न आय वर्ग के परिवार शामिल थे, जिनकी आय निर्धनता रेखा से नीचे के परिवार की आय से थोड़ी ही अधिक थी। अब तीन भिन्न कीमतों वाले टी.पी.डी.एस. की व्यवस्था में निर्धनता रेखा से ऊपर वाले किसी भी परिवार को राशन दुकान पर बहुत कम छूट मिलती है। ए.पी.एल. परिवारों के लिए कीमतें लगभग उतनी ही ऊँची हैं जितनी खुले बाज़ार में, इसलिए राशन की दुकान से इन चीज़ों की खरीदारी के लिए उनको बहुत कम प्रोत्साहन प्राप्त है।
सहकारी समितियों की खाद्य सुरक्षा में भूमिका
भारत में विशेषकर देश के दक्षिणी और पश्चिमी भागों में सहकारी समितियाँ भी खाद्य सुरक्षा में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। सहकारी समितियाँ निर्धन लोगों को खाद्यान्न की बिक्री के लिए कम कीमत वाली दुकानें खोलती हैं। उदाहरणार्थ, तमिलनाडु में जितनी राशन की दुकानें है, उनमें से करीब 94 प्रतिशत सहकारी समितियों के माध्यम से चलाई जा रही हैं। दिल्ली में मदर डेयरी उपभोक्ताओं को दिल्ली सरकार द्वारा निर्धारित नियंत्रित दरों पर दूध और सब्ज़ियाँ उपलब्ध कराने में तेज़ी से प्रगति कर रही है। गुजरात में दूध तथा दुग्ध उत्पादों में अमूल एक और सफल सहकारी समिति का उदाहरण है। इसने देश में श्वेत क्रांति ला दी हैं। देश के विभिन्न भागों में कार्यरत सहकारी समितियों के और अनेक उदाहरण हैं, जिन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कराई है।
इसी तरह, महाराष्ट्र में एकेडमी आफ डेवलपमेंट साइंस (ए.डी.एस.) ने विभिन्न क्षेत्रों में अनाज बैंकों की स्थापना के लिए गैर-सरकारी संगठनों के नेटवर्क में सहायता की है। ए.डी.एस. गैर-सरकारी संगठनों के लिए खाद्य सुरक्षा के विषय में प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण कार्यक्रम संचालित करती है। अनाज बैंक अब धीरे-धीरे महाराष्ट्र के विभिन्न भागों में खुलते जा रहे हैं। अनाज बैंकों की स्थापना, गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से उन्हें फैलाने और खाद्य सुरक्षा पर सरकार की नीति को प्रभावित करने में ए.डी.एस. की कोशिश रंग ला रही है। ए.डी.एस. अनाज बैंक कार्यक्रम को एक सफल और नए प्रकार के खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के रूप में स्वीकृति मिली है।
सारांश
किसी देश की खाद्य सुरक्षा तब सुनिश्चित होती है, जब उसके सभी नागरिकों को पोषक भोजन उपलब्ध होता है। सभी व्यक्तियों के पास स्वीकार्य गुणवत्ता के खाद्य खरीदने की सामर्थ्य होती है और भोजन तक पहुँचने में कोई अवरोध नहीं होता। निर्धनता रेखा से नीचे रह रहे लोग खाद्य की दृष्टि से सदैव ही असुरक्षित रह सकते हैं, जबकि संपन्न लोग भी आपदाओं के समय खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित हो सकते हैं। यद्यपि भारत में लोगों का एक बड़ा वर्ग खाद्य और पोषक तत्वों की असुरक्षा से ग्रस्त है, सबसे अधिक प्रभावित समूह ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीन और गरीब परिवार, बहुत कम वेतन वाले कार्यों में लगे लोग और शहरी क्षेत्रों में मौसमी कार्यों में लगे अनियत श्रमिक हैं। देश के कुछ क्षेत्रों में खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित लोगों की बड़ी संख्या तुलनात्मक रूप से बहुत अधिक है जैसे, आर्धिक रूप से पिछड़े राज्यों में जहाँ बहुत अधिक गरीबी है, जनजातियों वाले व दूरस्थ क्षेत्रों में और ऐसे क्षेत्रों में जहाँ प्राकृतिक आपदाएँ आती रहती हैं। समाज के सभी वर्गों के लिए खाद्य की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार ने सावधानीपूर्वक खाद्य सुरक्षा प्रणाली तैयार की है, जिसके दो घटक हैं: (क) बफ़र स्टॉक और (ख) सार्वजनिक वितरण प्रणाली। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अतिरिक्त कई निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम भी शुरू किए गए, जिनमें खाद्य सुरक्षा का घटक भी शामिल था। इनमें से कुछ कार्यक्रम हैं: एकीकृत बाल विकास सेवाएँ, काम के बदले अनाज, दोपहर का भोजन, अंत्योदय अन्न योजना आदि। खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराने में सरकार की भूमिका के अतिरिक्त अनेक सहकारी समितियाँ और गैर-सरकारी संगठन भी हैं, जो इस दिशा में तेज़ी से काम कर रहे हैं।
अभ्यास
1. भारत में खाद्य सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जाती है?
2. कौन लोग खाद्य असुरक्षा से अधिक ग्रस्त हो सकते हैं?
3. भारत में कौन से राज्य खाद्य असुरक्षा से अधिक ग्रस्त हैं?
4. क्या आप मानते हैं कि हरित क्रांति ने भारत को खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बना दिया है? कैसे?
5. भारत में लोगों का एक वर्ग अब भी खाद्य से वंचित है? व्याख्या कीजिए।
6. जब कोई आपदा आती है तो खाद्य पूर्ति पर क्या प्रभाव होता है?
7. मौसमी भुखमरी और दीर्घकालिक भुखमरी में भेद कीजिए?
8. गरीबों को खाद्य सुरक्षा देने के लिए सरकार ने क्या किया? सरकार की ओर से शुरू की गई किन्हीं दो योजनाओं की चर्चा कीजिए।
9. सरकार बफ़र स्टॉक क्यों बनाती है?
10. टिप्पणी लिखें :
(क) न्यूनतम समर्थित कीमत
(ख) बफ़र स्टॉक
(ग) निर्गम कीमत
(घ) उचित दर की दुकान
11. राशन की दुकानों के संचालन में क्या समस्याएँ हैं?
12. खाद्य और संबंधित वस्तुओं को उपलब्ध कराने में सहकारी समितियों की भूमिका पर एक टिप्पणी लिखें।