अध्याय 05 लोकतांत्रिक अधिकार
भूमिका
पिछले दो अध्यायों में हमने लोकतांत्रिक सरकार के दो बुनियादी तत्वों की चर्चा की है। अध्याय 3 में हमने देखा कि किस तरह लोकतांत्रिक सरकार का निर्धारित अवधि में लोगों द्वारा स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग से चुना जाना ज़रूरी है। अध्याय 4 में हमने जाना कि लोकतंत्र को कुछ ऐसी संस्थाओं के ऊपर निर्भर होना चाहिए जो निर्धारित कायदे-कानून के मुताबिक काम करती हों। ये तत्व ज़रूरी हैं पर लोकतंत्र के इन्हीं दो का होना पर्याप्त नहीं है। चुनाव और संस्थाओं के साथ-साथ तीसरा तत्व है-अधिकारों का उपयोग। इसकी मौजूदगी भी सरकार के लोकतांत्रिक चरित्र के ज़रूरी है। बहुत सही ढंग से चुने हुए और स्थापित संस्थाओं के माध्यम से काम करने वाले शासकों को भी यह ज़रूर जानना चाहिए कि उन्हें कुछ लक्ष्मण रेखाओं का उल्लंघन नहीं करना है। नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकार ही इन लक्ष्मण रेखाओं का निर्माण करते हैं।
इस पुस्तक के आखिरी अध्याय में हम इसी पर चर्चा करेंगे। अधिकारों के बिना जीवन कैसा होगा इसकी कल्पना करने के हम वास्तविक जीवन की कुछ घटनाओं से बात शुरू करते हैं। इससे हम इस चर्चा पर पहुँचेंगे कि अधिकारों का क्या मतलब है और हमें इनकी ज़रूरत क्यों है। पिछले अध्यायों की तरह पहले सामान्य बातों और फ़िर भारत पर केंद्रित चर्चा होगी। हम एक-एक करके भारतीय संविधान में दर्ज़ मौलिक अधिकारों पर चर्चा करेंगे। फ़िर हम इस बात पर गौर करेंगे कि सामान्य आदमी इन अधिकारों का प्रयोग कैसे कर सकता है, इनकी रक्षा कौन करेगा और इनको लागू कौन करेगा? आखिर में हम देखेंगे कि लोकतंत्र का विस्तार करने में इन अधिकारों की कैसी भूमिका हो सकती है और हाल के वर्षों में हमारे मुल्क में इन्होंने क्या भूमिका निभाई है।
5. 1 अधिकारों के बिना जीवन
इस किताब में हमने अधिकारों की चर्चा बारबार की है। अगर आप याद करने की कोशिश करें तो हमने इससे पहले के सभी चार अध्यायों में अधिकारों की बात की है। क्या आप नीचे दिए गए खाली स्थानों को पुराने अध्यायों के अधिकारों वाली चर्चा के आधार पर भर सकते हैं?
लोकतांत्रिक अधिकार अध्याय 1: लोकतंत्र की परिभाषा में…
अध्याय 2 : हमारे संविधान निर्माताओं का मानना था कि मौलिक अधिकार हमारे संविधान की आत्मा जैसे हैं क्योंकि…
अध्याय 3: भारत के प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को…और…का अधिकार प्राप्त है।
अध्याय 4: अगर कोई कानून संविधान के खिलाफ़ है तो हर नागरिक को उसके खिलाफ़… जाने का अधिकार है।
आइए तीन उदाहरणों से बात शुरू करें कि अधिकारों के बिना जीवन कैसा होता है।
गुआंतानामो बे का जेल
अमेरिकी फ़ौज ने दुनिया भर के विभिन्न स्थानों से 600 लोगों को चुपचाप पकड़ लिया। इन लोगों को गुआंतानामो बे स्थित एक जेल में डाल दिया। क्यूबा के निकट स्थित इस टापू पर अमेरिकी नौसेना का कब्ज़ा है। अमेरिकी सरकार कहती है कि ये लोग अमेरिका के दुश्मन हैं और न्यूयॉर्क में हुए 11 सितंबर 2001 के हमलों से इनका संबंध है। अनस के पिता जमिल अलबन्ना उन 600 लोगों में एक हैं जिन्हें केवल संदेह के आधार पर पकड़ कर जेल में डाल दिया गया। अधिकांश मामलों में, गिरफ़्तार लोगों के देश की सरकार को उनकी गिरफ़्तारी और जेल में डालने की सूचना भी नहीं दी गयी। अन्य कैदियों की तरह जमिल के परिवार वालों को भी अखबारों के माध्यम से ही खबर मिली कि उसे भी जेल में रखा गया है। इन कैदियों के परिवारवालों, मीडिया के लोगों और यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधियों को भी उनसे मिलने की इजाज़त नहीं दी जाती। अमेरिकी सेना ने उन्हें गिरफ़्तार किया, उनसे पूछताछ की और उसी ने फ़ैसला किया कि किसे जेल में डालना है किसे नहीं। न तो किसी भी जज के
सामने मुकदमा चला और ना ही ये कैदी अपने देश की अदालतों का दरवाजा खटखटा सके।
एक अंतर्रष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने गुआंतानामो बे के कैदियों की स्थिति के बारे में सूचनाएँ इकट्ठी कीं और बताया कि उनके साथ ज़्यादती की जा रही हैं। उनके साथ अमेरिकी कानूनों के अनुसार भी व्यवहार नहीं किया जा रहा है। अनेक कैदियों ने भूख हड़ताल करके इन स्थितियों के खिलाफ़ विरोध करना चाहा पर उनको ज़बर्दस्ती खिलाया गया या नाक के रास्ते उनके पेट में भोजन पहुँचाया गया। जिन कैदियों को आधिकारिक रूप से निर्दोष करार दिया गया था उनको भी नहीं छोड़ा गया। संयुक्त राष्ट्र द्वारा करायी गयी एक स्वतंत्र जाँच से भी इन बातों की पुष्टि हुई। संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव ने कहा कि गुआंतानामो बे जेल को बंद कर देना चाहिए। अमेरिकी सरकार ने इन अपीलों को मानने से इंकार कर दिया।
सऊदी अरब में नागरिक अधिकार
गुआंतानामो बे का उदाहरण एक अपवाद जैसा है क्योंकि इसमें एक देश की सरकार दूसरे देशों के नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन कर रही है। आइए, अब सऊदी अरब का उदाहरण देखें और वहाँ की सरकार अपने नागरिकों को कितनी आज़ादी देती है, इस पर गौर करें। जरा इन तथ्यों पर विचार करें:
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देश में एक वंश का शासन चलता है और राजा या शाह को चुनने या बदलने में लोगों की कोई भूमिका नहीं होती।
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शाह ही विधायिका और कार्यपालिका के लोगों का चुनाव करते हैं। जजों की नियुक्ति भी शाह करते हैं और वे उनके फ़ैसलों को पलट भी सकते हैं।
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लोग कोई राजनैतिक दल या संगठन नहीं बना सकते। मीडिया शाह की मर्जी के खिलाफ़ कोई भी खबर नहीं दे सकती।
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कोई धार्मिक आज़ादी नहीं है। सिर्फ़ मुसलमान ही यहाँ के नागरिक हो सकते हैं। यहाँ रहने वाले दूसरे धर्मों के लोग घर के अंदर ही अपने धर्म के अनुसार पूजापाठ कर सकते हैं। उनके सार्वजनिक/ धार्मिक अनुष्ठानों पर रोक है।
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औरतों को वैधानिक रूप से मर्दों से कमतर का दर्ज़ा मिला हुआ है और उन पर कई तरह की सार्वजनिक पाबंदियाँ लगी हैं। मर्दों को जल्दी ही स्थानीय निकाय के चुनावों के मताधिकार मिलने वाला है जबकि औरतों को यह अधिकार नहीं मिलेगा।
ये बातें सिर्फ़ं सऊदी अरब पर ही लागू नहीं होतीं। दुनिया में ऐसे अनेक देश हैं जहाँ ऐसी स्थितियाँ मौजूद हैं।
कोसोवो में जातीय नरसंहार
आप यह सोच सकते हैं कि ये चीज़ें सिर्फ़ राजशाही में ही चल सकती हैं और चुनी हुई सरकार वाली शासन व्यवस्था में ऐसा नहीं होगा। पर कोसोवो की इस कथा पर गौर कीजिए। कोसोवो पुराने यूगोस्लाविया का एक प्रांत था जो अब टूट कर अलग हो गया है। इस प्रदेश में अल्बानियाई लोगों की संख्या बहुत ज्यादा थी पर पूरे देश के लिहाज से सर्ब लोग बहुसंख्यक थे। उग्र सर्ब राष्ट्रवाद के भक्त मिलोशेविक ने यहाँ के चुनावों में जीत हासिल की। उनकी सरकार ने कोसोवो के अल्बानियाई लोगों के प्रति बहुत ही कठोर व्यवहार किया। उनकी इच्छा थी कि देश पर सर्ब लोगों का ही पूरा नियंत्रण हो। अनेक सर्ब नेताओं का मानना था कि अल्बानियाई लोगों जैसे अल्पसंख्यक या तो देश छोड़कर चले जाएँ या सर्बों का प्रभुत्व स्वीकार कर लें।
अगर आप सर्ब होते तो कोसोवो में मिलोशेविक ने जो कुछ किया, क्या उसका समर्थन करते? सर्ब लोगों का प्रभुत्व कायम करने की उनकी योजना क्या सर्ब लोगों के वास्तविक हित में थी?
कोसोवो के एक शहर में अप्रैल 1999 में एक अल्बानियाई परिवार के साथ कुछ ऐसी घटना हुई: 74 वर्षीया बतीशा होक्सा अपनी रसोई में अपने 77 वर्षीय पति इजेत के साथ बैठी आग ताप रही थी। उन्होंने विस्फोटों की आवाज़ सुनी पर उनको यह एहसास नहीं हुआ कि सर्बिया की फ़ौज शहर में घुस आई है। तभी उनका दरवाजा खोलकर पांच-छह सैनिक दनदनाते हुए अंदर आए और पूछा, “बच्चे कहाँ हैं?”
बतीशा याद करती है, “उन्होंने इजेत की छाती में तीन गोलियाँ दाग दीं।” उसके सामने ही उसके पति की मौत हो गयी और सैनिकों ने उसकी अंगुली से शादी की अंगूठी उतार ली और उसे भाग जाने को कहा, “मैं अभी दरवाजे़े से बाहर भी नहीं निकली थी कि उन्होंने घर में आग लगा दी।” वह बरसात में बेघर होकर सड़क पर खड़ी थी-उसके पास न मकान था, न पति और न शरीर पर पहने कपड़ों के अलावा कोई और चीज़। समाचारों में आई यह कथा उन हज़ारों अल्बानियाई लोगों के साथ हुए बर्ताव में से एक की सच्चाई बताती है। और याद रखिए कि यह नरसंहार उस देश की अपनी ही सेना, एक ऐसे नेता के निर्देश पर कर रही थी जो लोकतांत्रिक चुनाव में जीतकर सत्ता में आया था। जातीय पूर्वाग्रहों के चलते हाल के वर्षों में जो सबसे बड़े नरसंहार हुए हैं उनमें यह संभवतः सबसे भयंकर था। आखिरकार कई और देशों ने जब दखल दिया तब जाकर यह क्रम थमा। मिलोशेविक की सत्ता गयी और बाद में अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में उन पर मानवता के खिलाफ़ अपराध का मुकदमा चला।
खुद करें, खुद सीखें
- कोसोतोको की बतीसासा की तरफफ़े 1984 के सिख विरोधी दंगों ा 2002 के गुजरात दंगों में तैसी ही स्थिति झललने वाली किसी महिला के नाम एक प्र लिखिए।
- सऊुदी अरक की महिलाओं की तरफ से संयुक्ता राष्ट्र महासचिव के नाम एक ज्ञापन लिखिए।
कहाँ पहुँचे? क्या समझे?
अधिकारविहीन जीवन के इन तीनों मामलों से मिलते-जुलते उदाहरण भारत से भी दें । ये उदाहरण निम्नलिखित में से हो सकते हैं:
- पुलिस हिरासत में हिंसा की अखबारी खबरें
- भूख हड़ताल पर जाने वाले कैदियों को ज़बरदस्ती खाना खिलाने की अखबारी रपट
- हमारे देश के किसी हिसेे में जातीय हिंसा
- महिलाओं के साथ गैर-बराबरी वाले व्यवहार की खबरें फ़िर इन मामलों और भारतीय मामलों के बीच समानता और अंतरों की सूची बनाएँ। यह ज़रूरी नहीं है कि प्रत्येक मामले के आप ठीक उसी तरह का भारतीय उदाहरण दें।
5.2 लोकतंत्र में अधिकार
हमने पहले जिन उदाहरणों का जिक्र किया है उन सब पर विचार कीजिए। हर उदाहरण में जिसे कष्ट हुआ उसके बारे में सोचिए। गुआंतानामो बे के कैदियों, सऊदी अरब की औरतों और कोसोवो के अल्बानियाई लोगों और भारत में 1984 तथा 2002 के दंगों का शिकार हुए लोगों के बारे में सोचिए। अगर आप इनकी जगह होते तो आपके मन में क्या विचार आते? अगर आपके हाथ में महत्त्वपूर्ण फ़ैसले करने का अधिकार हो तो आप उपर्युक्त घटनाओं को न होने देने के क्या करेंगे?
शायद आप एक ऐसी व्यवस्था बनाना चाहेंगे जिसमें लोगों की सुरक्षा, उनके सम्मान का ख्याल और समान अवसर ज़रूर हों। जैसे, आप यह चाह सकते हैं कि बिना उचित कारण और सूचना के किसी को गिरफ़्तार न किया जाए और अगर किसी को गिरफ़्तार किया जाता है तो उसे अपना पक्ष रखने और अपने आपको निर्दोष साबित करने का पर्याप्त अवसर मिले। आप इस बात पर सहमत हो सकते हैं कि ऐसा भरोसा सभी चीज़ों पर लागू नहीं हो सकता। हम हर किसी से जिन चीज़ों की माँग करते हैं या जिन बातों की उम्मीद करते हैं उसमें हमें तार्किक नज़रिया अपनाना चाहिए, क्योंकि उसे ये चीज़ें सबको उपलब्ध करानी हैं। पर आप इस बात पर ज़ोर दे सकते हैं कि आश्वासन सिर्फ़ कागज़ों में ही न रहे, उन पर अमल भी हो और जो लोग ऐसा न करें उनको सज़ा भी मिले। दूसरे शब्दों में कहें तो आप एक ऐसी व्यवस्था बनाना चाहेंगे जहाँ हर किसी को कुछ न्यूनतम बातों की गारंटी होगी-अमीर या गरीब, ताकतवर या कमज़ोर, बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक, हर किसी को इन न्यूनतम चीज़ों की गारंटी होगी। अधिकारों की सोच के पीछे यही भावना होती है।
अधिकार क्या है ?
अधिकार किसी व्यक्ति का अपने लोगों, अपने समाज और अपनी सरकार से दावा है। हम सभी खुशी से, बिना डर-भय के और अपमानजनक व्यवहार से बचकर जीना चाहते हैं। इसके हम दूसरों से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा करते हैं जिससे हमें कोई नुकसान न हो, कोई कष्ट न हो। इसी प्रकार हमारे व्यवहार से भी किसी को नुकसान नहीं होना चाहिए, कोई कष्ट नहीं होना चाहिए। इस, अधिकार तभी संभव है जब आपका अपने बारे में किया हुआ दावा दूसरे पर भी समान रूप से लागू हो। आप ऐसे अधिकार नहीं रख सकते जो दूसरों को कष्ट दें या नुकसान पहुँचाएँ। आप इस तरह क्रिकेट खेलने के अधिकार का दावा नहीं कर सकते कि पड़ोसी की खिड़की के शीशे टूट जाएँ और आपके अधिकार को कुछ न हो। यूगोस्लाविया के सर्ब लोग पूरे देश पर सिर्फ़ अपना दावा नहीं कर सकते थे। सो, हम जो दावे करते हैं वे तार्किक भी होने चाहिए। वे ऐसे होने चाहिए कि हर किसी को समान मात्रा में उन्हें दे पाना संभव हो। इस प्रकार हमें कोई भी अधिकार इस बाध्यता के साथ मिलता है कि हम दूसरों के अधिकारों का आदर करें।
हम कुछ दावे कर दें सिर्फ़ं इतने भर से वह हमारा अधिकार नहीं हो जाता। इसे उस पूरे समाज से भी स्वीकृति मिलनी चाहिए जिसमें हम रहते हैं। हर समाज अपने आचरण को व्यवस्थित करने के कुछ कायदे-कानून बनाता है। ये कायदे-कानून हमें बताते हैं कि क्या सही है, क्या गलत है। समाज जिस चीज़ को सही मानता है, सबके अधिकार लायक मानता है वही हमारे भी अधिकार होते हैं। इसी समय और स्थान के हिसाब से अधिकारों की अवधारणा भी बदलती रहती है। दो सौ साल पहले अगर कोई कहता कि औरतों को भी वोट देने का अधिकार होना चाहिए तो उसे अजीब माना जाता। आज सऊदी अरब में उनको वोट का अधिकार न होना ही अजीब लगता है।
जब समाज में मान्य कायदों को लिखतपढ़त में ला दिया जाता है तो उनको असली ताकत मिल जाती है। इसके बिना वे प्राकृतिक या नैतिक अधिकार ही रह जाते हैं। गुआंतानामो बे के कैदियों को अपने दमन का विरोध करने का, उसे गलत बताने का सिर्फ़ नैतिक अधिकार है। पर वे इसके भरोसे किसी ऐसे व्यक्ति या संस्था के पास नहीं जा सकते जो इन्हें लागू करा दे। जब कानून कुछ दावों को मान्यता देता है तो
चुनी हुई सरकारों द्वारा अपने नागरिक के अधिकार की रक्षा न करने या इन अधिकारों पर हमला करने के उदाहरण कौन से हैं? सरकार ऐसा क्यों करती है?
उनको लागू किया जा सकता है। फ़िर हम उन्हें लागू करने की माँग कर सकते हैं।
अगर अन्य नागरिक या सरकार इन अधिकारों का आदर नहीं करते, इनका उल्लंघन करते हैं तो हम इसे अपने अधिकारों का हनन कहते हैं। ऐसी स्थिति में कोई भी नागरिक अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है, अपने अधिकारों की रक्षा की माँग कर सकता है। इस हम अगर किसी दावे को अधिकार कहते हैं तो उसमें ये तीन बुनियादी चीज़ें होनी चाहिए। अधिकार लोगों के तार्किक दावे हैं, इन्हें समाज से स्वीकृति और अदालतों द्वारा मान्यता मिली होती है।
लोकतंत्र में अधिकारों की क्या ज़रूरत है ?
लोकतंत्र की स्थापना के अधिकारों का होना ज़रूरी है। लोकतंत्र में हर नागरिक को वोट देने और चुनाव लड़कर प्रतिनिधि चुने जाने का अधिकार है। लोकतांत्रिक चुनाव हों इसके लोगों को अपने विचारों को व्यक्त करने की, राजनैतिक पार्टी बनाने और राजनैतिक गतिविधियों की आज़ादी का होना ज़रूरी है।
लोकतंत्र में अधिकारों की एक खास भूमिका भी है। अधिकार बहुसंख्यकों के दमन से अल्पसंख्यकों की रक्षा करते हैं। ये इस बात की व्यवस्था करते हैं कि बहुसंख्यक किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में मनमानी न करें। अधिकार स्थितियों के बिगड़ने पर एक तरह की गारंटी जैसे हैं। अगर कुछ नागरिक दूसरों के अधिकारों को हड़पना चाहें तो स्थिति बिगड़ सकती है। यह स्थिंति आम तौर पर तब आती है जब बहुमत के लोग अल्पमत में आ गए लोगों पर प्रभुत्व कायम करना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में सरकार को नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए। लेकिन कई बार चुनी हुई सरकार भी अपने ही नागरिकों के अधिकारों पर हमला करती है या संभव है, वह नागरिक के अधिकारों की रक्षा न करे। इसी कुछ अधिकारों को सरकार से भी ऊँचा दर्ज़ा दिए जाने की ज़रूरत है ताकि सरकार भी उनका उल्लंघन न कर सके। अधिकांश लोकतांत्रिक शासन व्यवस्थाओं में नागरिकों के अधिकार संविधान में लिखित रूप में दर्ज़ होते हैं।
5.3 भारतीय संतिधान में अधिकार
विश्व के अधिकांश दूसरे लोकतंत्रों की तरह भारत में भी ये अधिकार संविधान में दर्ज़ हैं। हमारे जीवन के बुनियादी रूप से ज़रूरी अधिकारों को विशेष दर्ज़ा दिया गया है। इन्हें मौलिक अधिकार कहा जाता है। अध्याय 3 में हमने अपने संविधान की प्रस्तावना पढ़ी है। यह सभी नागरिकों को समानता, स्वतंत्रता और न्याय दिलाने की बात कहता है। मौलिक अधिकार इन वायदों को व्यावहारिक रूप देते हैं। ये अधिकार भारत के संविधान की एक महत्त्वपूर्ण बुनियादी विशेषता है। आप जानते हैं कि हमारा संविधान छः मौलिक अधिकार प्रदान करता है। क्या आप इन्हें बता सकते हैं? एक आम नागरिक के इन अधिकारों का ठीक-ठीक क्या मतलब होता है? आइए एक-एक करके इन पर नज़र डालें।
समानता का अधिकार
हमारा संविधान कहता है कि सरकार भारत में किसी व्यक्ति को कानून के सामने समानता या कानून से संरक्षण के मामले में समानता के अधिकार से वंचित नहीं कर सकती। इसका मतलब यह हुआ कि किसी व्यक्ति का दर्ज़ा या पद, चाहे जो हो सब पर कानून समान रूप से लागू होता है। इसे कानून का राज भी कहते हैं। कानून का राज किसी भी लोकतंत्र की बुनियाद है। इसका अर्थ हुआ कि कोई भी व्यक्ति कानून के ऊपर नहीं है। किसी राजनेता, सरकारी अधिकारी या सामान्य नागरिक में कोई अंतर नहीं किया जा सकता।
प्रधानमंत्री हों या दूरदराज के गाँव का कोई खेतिहर मज़दूर, सब पर एक ही कानून लागू होता है। कोई भी व्यक्ति वैधानिक रूप से अपने पद या जन्म के आधार पर विशेषाधिकार या खास व्यवहार का दावा नहीं कर सकता। जैसे, कुछ साल पहले देश के एक पूर्व प्रधानमंत्री पर भी धोखाधड़ी का मुकदमा चला था। सारे मामले पर गौर करने के बाद अदालत ने उनको निर्दोष घोषित किया था। लेकिन जब तक मामला चला उन्हें किसी अन्य आम नागरिक की तरह ही अदालत में जाना पड़ा, अपने पक्ष में सबूत देने पड़े, कागज़ात दाखिल करने पड़े।
इस बुनियादी स्थिति को संविधान ने समानता के अधिकार के कुछ निहितार्थों को स्पष्ट करके और साफ़ किया है। सरकार किसी से भी उसके धर्म, जाति, समुदाय लिंग और जन्म स्थल के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकती। दुकान, होटल और सिनेमाघरों जैसे सार्वजनिक स्थल में किसी के प्रवेश को रोका नहीं जा सकता। इसी प्रकार सार्वजनिक कुएँ, तालाब, स्नानघाट, सड़क, खेल के मैदान और सार्वजनिक भवनों के इस्तेमाल से किसी को वंचित नहीं किया जा सकता। ये चीज़ें ऊपर से बहुत सरल लगती हैं पर जाति व्यवस्था वाले हमारे समाज में कुछ समुदायों के लोगों को सार्वजनिक सुविधाओं का इस्तेमाल करने से रोका जाता है। सरकारी नौकरियों पर भी यही सिद्धांत लागू होता है। सरकार में किसी पद पर नियुक्ति या रोज़गार के मामले में सभी नागरिकों के
अवसर की समानता है। उपरोक्त आधारों पर किसी भी नागरिक को रोजगार के अयोग्य नहीं करार दिया जा सकता या उसके साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता। पिछले अध्याय में आपने पढ़ा कि भारत सरकार ने नौकरियों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों के आरक्षण की व्यवस्था की है। अनेक सरकारें विभिन्न योजनाओं के तहत कुछ नौकरियों में स्त्री, गरीब या शारीरिक रूप से विकलांग लोगों को प्राथमिकता देती हैं। आप सोच सकते हैं कि आरक्षण की इस तरह की व्यवस्था समानता के अधिकार के खिलाफ़ है। पर असल में ऐसा नहीं है। समानता का मतलब है हर किसी से उसकी ज़रूरत का खयाल रखते हुए समान व्यवहार करना। समानता का मतलब है हर आदमी को उसकी क्षमता के अनुसार काम करने का समान अवसर उपलब्ध कराना है। कई बार अवसर की समानता सुनिश्चित करने भर के ही कुछ लोगों को विशेष अवसर देना ज़रूरी होता है। आरक्षण यही करता है। इसी बात को साफ़ करने के संविधान स्पष्ट
छुआघूत के अनेक रूप
1999 में प्रसिद्ध पत्रकार पी. साईंनाथ ने दलितों या अनुसूचित जाति के लोगों के खिलाफ़ अभी तक बरकरार छुआछूत के व्यवहार पर अंग्रेजी अखबार ‘हिंदू’ में एक लेखमाला लिखी। वे देश के अनेक स्थानों पर गए और पाया कि अनेक स्थानों परः
- चाय की दुकानों पर दो तरह के कप रखे जाते हैं-एक दलितों के , दूसरा बाकी लोगों के ।
- हजाम दलितों के बाल नहीं काटते, दाढ़ी नहीं बनाते ।
- दलित छात्रों को कक्षा में अलग बैठना होता है और अलग रखे घड़े से पानी पीना होता है।
- दलित दूल्हों को बारात में घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया जाता।
- दलितों को सार्वजनिक हैंड पंप से पानी नहीं लेने दिया जाता या उनके पानी भर लेने के बाद हैंड पंप को धो दिया जाता है।
ये सभी काम छुआछूत की परिभाषा के दायरे में आते हैं। क्या आप अपने इलाके से कुछ ऐसे ही उदाहरण सोच सकते हैं।
खुद करें, खुद सीखें
- किसी भी ख्कूल के खेल के मैदान या किसी खंटिडिय में जाकर 400 मीटर दौड़ वाली पट्टी को गौर से देखिए। वहाँ बाहरी लेन में दौड़ने वाले खिलाड़ी को अंदर वाली लेन के खिलाड़ी से आगे के स्थान से दौड़ गुरू करने कयों दिया जाता है ? अगर सभी दौड़ने वाले एक ही लाइन पर से दौड़ प्रारंभ करें तो क्या होगा ? इन दोनों स्थितियों में से कौन-कौन सी स्थिति दौड़ के मुकाबले को समान बनाती है ? नौकरियों में प्रतिद्धंद्विता के मामले में भी इसी चीज़ की लागू कीजिए।
- किसी भी बड़ी सार्वजनिक इमारत को गौर से देखिए। क्या तहाँ विकलांगों के आने-जाने के अलग से विशोष त्यवस्था है ? विकलांग लोग उस जगह का उपयोग किसी भी अन्य त्यक्ति की तरह ही कर सकें क्या इसका कोई और विशेष इंतजाम वहाँ है ? ज़्यादा खर्च होने पर भी क्या ये विशोष इंतजाम किए जाने चाहिए ? क्या ये विशेष इंतज़ाम समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं?
रूप से कहता है कि इस तरह का आरक्षण समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है।
किसी तरह का भेदभाव न होने का सिद्धांत सामाजिक जीवन पर भी इसी तरह लागू होता है। संविधान सामाजिक भेदभाव के एक बहुत
ही प्रबल रूप-छुआछूत का ज़िक्र करता है और सरकार को निर्देश देता है कि वह इसे समाप्त करे। किसी भी तरह के छुआछूत को कानूनी रूप से गलत करार दिया गया है। यहाँ छुआछूत का मतलब कुछ खास जातियों के लोगों के शरीर को छूने से बचना भर नहीं है। यह उन सारी सामाजिक मान्यताओं और आचरणों को भी गलत करार देता है जिसमें किसी खास जाति में जन्म लेने भर से लोगों को नीची नज़र से देखा जाता है या उनके साथ अलग तरह का व्यवहार किया जाता है। इसी संविधान ने छुआछूत को दंडनीय अपराध घोषित किया है।
स्वतंत्रता का अधिकार
स्वतंत्रता का मतलब बाधाओं का न होना है। व्यावहारिक जीवन में इसका मतलब होता है हमारे मामलों में किसी किस्म का दखल न होना-न सरकार का, न व्यक्तियों का। हम समाज में रहना चाहते हैं लेकिन हम स्वतंत्रता भी चाहते हैं। हम मनचाहे ढंग से काम करना चाहते हैं। कोई हमें यह आदेश न दे कि इसे ऐसे करो, वैसे करो। इसी भारतीय संविधान ने प्रत्येक नागरिक को कई तरह की स्वतंत्रताएँ दी हैं?
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
- शांतिपूर्ण ढंग से जमा होने की स्वतंत्रता
- संगठन और संघ बनाने की स्वतंत्रता
- देश में कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता
- देश के किसी भी भाग में रहने-बसने की स्वतंत्रता है, और
- कोई भी काम करने, धंधा चुनने या पेशा करने की स्वतंत्रता
याद रखिए कि हर नागरिक को ये स्वतंत्रताएँ प्राप्त हैं। इसका मतलब यह हुआ कि आप अपनी स्वतंत्रता का ऐसा उपयोग नहीं कर सकते जिससे दूसरे की स्वतंत्रता का हनन होता हो। आपकी स्वतंत्रता सार्वजनिक पेशशानी या अव्यवस्था पैदा नहीं कर सकती। आप वह सब करने के आज़ाद हैं जिससे दूसरों को परेशानी न हो। स्वतंत्रता का मतलब असीमित मनमानी करने का लाइसेंस पा लेना नहीं है। इसी कारण समाज के व्यापक हितों को देखते हुए सरकार हमारी स्वतंत्रताओं पर कुछ किस्म की पाबंदियाँ लगा सकती है।
अभिव्यक्ति की आज़ादी हमारे लोकतंत्र की एक बुनियादी विशेषता है। अभिव्यक्ति की आज़ादी में बोलने, लिखने और कला के विभिन्न रूपों में स्वयं को व्यक्त करना शामिल है। दूसरों से स्वतंत्र ढंग से विचार-विमर्श और संवाद करके ही हमारे विचारों और व्यक्तित्व का विकास होता है। आपकी राय दूसरों से अलग हो सकती है। संभव है कि कई सौ लोग एक ही तरह से सोचते हों, तब भी आपको अलग राय रखने और व्यक्त करने की आज़ादी है। आप सरकार की किसी नीति से या किसी संगठन की गतिविधियों से असहमति रख सकते हैं। अपने मां-बाप, दोस्तों या रिश्तेदार से बातचीत करते हुए आप सरकार की किसी नीति या किसी संगठन की गतिविधियों की आलोचना
करने को स्वतंत्र हैं। आप अपने विचारों को परचा छापकर या अखबारों-पत्रिकाओं में लेख लिखकर भी व्यक्त कर सकते हैं। आप यह काम चित्र बनाकर, कविता या गीत लिखकर भी कर सकते हैं। पर आप इस स्वतंत्रता का उपयोग करके किसी व्यक्ति या समुदाय के खिलाफ़ हिंसा को नहीं भड़का सकते। आप इस स्वतंत्रता का उपयोग करके लोगों को सरकार के खिलाफ़ बगावत के नहीं उकसा सकते। आप किसी के खिलाफ़ झूठी बातें कहने या उसकी प्रतिष्ठा गिराने वाली बातें प्रचारित करने में इस स्वतंत्रता का इस्तेमाल नहीं कर सकते।
नागरिकों को किसी मुद्दे पर जमा होने, बैठक करने, प्रदर्शन करने, जुलूस निकालने का अधिकार है। वे यह सब किसी समस्या पर चर्चा करने, विचारों का आदान-प्रदान करने, किसी उद्देश्य के जनमत तैयार करने या किसी चुनाव में किसी उम्मीदवार या पार्टी के वोट मांगने के कर सकते हैं। पर ऐसी बैठकें शांतिपूर्ण होनी चाहिए। इससे सार्वजनिक अव्यवस्था या समाज में अशांति नहीं फ़ैलनी चाहिए। इन बैठकों और गतिविधियों में भाग लेने वालों को अपने पास हथियार नहीं रखने चाहिए। नागरिकों को संगठन बनाने की भी स्वतंत्रता है। जैसे किसी कारखाने के मज़दूर अपने हितों की रक्षा के मज़दूर संघ बना सकते हैं। किसी शहर के कुछ लोग भ्रष्टाचार या प्रदूषण के खिलाफ़ अभियान चलाने के संगठन बना सकते हैं।
किसी भी नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में जाने की स्वतंत्रता है। हम भारत के किसी भी हिस्से में रह और बस सकते हैं। जैसे असम का कोई व्यक्ति हैदराबाद में व्यवसाय करना चाहता है। संभव है कि उसने इस शहर को देखा भी न हो या यहाँ उसका कोई संपर्क न हो। फिर भी भारत का नागरिक होने के कारण उसे ऐसा करने का अधिकार है। इसी अधिकार के चलते लाखों लोग गाँवों से निकल कर शहरों में और देश के गरीब इलाकों से निकल कर समृद्ध इलाकों में आकर काम करते हैं, बस जाते हैं। पेशा चुनने के मामले में भी ऐसी ही स्वतंत्रता प्राप्त है। आपको कोई भी यह आदेश नहीं दे सकता कि आप सिर्फ़ यह काम करें या वह। महिलाओं से यह नहीं कहा जा सकता कि फलां काम उनके नहीं है। पिछड़ी और कमज़ोर जातियों के लोगों से नहीं कहा जा सकता कि वे अपने परंपरागत पेशे में ही रहें।
संविधान कहता है कि किसी भी व्यक्ति को उसके जीने के अधिकार और निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकताकानून द्वारा स्थापित व्यवस्थाओं को छोड़कर। इसका मतलब यह है कि जब तक अदालत किसी व्यक्ति को मौत की सज़ा नहीं सुनाती, उसे मारा नहीं जा सकता। इसका यह भी मतलब है कि कानूनी आधार होने पर ही सरकार या पुलिस अधिकारी किसी नागरिक को गिरफ़्तार कर सकता है। अगर वे ऐसा करते हैं तब भी उन्हें कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है।
- गिरफ़्तार या हिरासत में गए व्यक्ति को उसकी गिरफ़्तारी और हिरासत में लेने के कारणों की जानकारी देनी होती है।
- गिरफ़्तार या हिरासत में गए व्यक्ति को सबसे निकट के मजिस्ट्रेट के सामने गिरफ़्तारी के 24 घंटों के अंदर प्रस्तुत करना होता है।
- ऐसे व्यक्ति को वकील से विचार-विमर्श करने और अपने बचाव के वकील रखने का अधिकार होता है।
आइए एक बार फिर से गुआंतानामो बे और कोसोवो को याद करें। इन दोनों ही मामलों में शिकार लोगों को सभी स्वतंत्रताओं में सबसे बुनियादी दो चीज़ों-जीवन रक्षा और निजी स्वतंत्रता-से वंचित रखा गया है।
कहाँ पहुँचे? क्या समझे?
क्या ये उदाहरण स्वतंत्रता के अधिकार के उल्लंघन के हैं? अगर हाँ, तो प्रत्येक में संविधान के कौन-से प्रावधान का उल्लंघन हुआ है?
- भारत सरकार के सलमान रुशदी की किताब ‘सैटेनिक वर्सेज’ को इस आधार पर प्रतिबंधित कर दिया कि इसमें पैंंबर मोहम्मद के प्रति अनादर का भाव दिखाया गया और इससे मुसलमानों की भावनाओं को ठेस पहुँच सकती है।
- हर फ़िल्म को सार्वजनिक प्रदर्शन से पूर्व भारत सरकार के सेंसर बोर्ड से प्रमाण पत्र लेना होता है। पर वही कहानी अगर किताब या पत्रिका में छुे तो उस पर ऐसी पाबंदी नहीं है।
- सरकार इस बात पर विचार कर रही है कि कुछ खास औद्योगिक क्षेत्रों या अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में काम करने वालों को यूनियन बनाने और हड़ताल पर जाने का अधिकार नहीं होगा।
- नगर प्रशासन के माध्यमिक परीकाओं के मद्देनजर शहर में रात 10 बजे के बाद सार्वजनिक लाउडस्पीकर के प्रयोग पर पाबंदी लगा दी है।
शोषण के रिवलाफ़ अधिकार
स्वतंत्रता और बराबरी का अधिकार मिल जाने के बाद स्वाभाविक है कि नागरिक को यह अधिकार भी हो कि कोई उसका शोषण न कर सके। हमारे संविधान निर्माताओं ने इसे भी संविधान में लिखित रूप से दर्ज़ करने का फैैसला किया ताकि कमज़ोर वर्गों का शोषण न हो सके।
संविधान ने खास तौर से तीन बुराइयों का जिक्र किया है और इन्हें गैर-कानूनी घोषित किया है। पहला, संविधान मनुष्य जाति के अवैध व्यापार का निषेध करता है। आम तौर पर ऐसे धंधे का शिकार महिलाएँ होती हैं जिनका अनैतिक कामों के शोषण होता है। दूसरा, हमारा संविधान किसी किस्म के ‘बेगार’ या जबरन काम लेने का निषेध करता है। बेगार प्रथा में मज़दूरों को अपने मालिक के मुफ़्त या बहुत थोड़े से अनाज वगैरह के जबरन काम करना पड़ता है। जब यही काम मज़दूर को जीवन भर करना पड़ जाता है तो उसे बंधुआ मज़दूरी कहते हैं। तीसरा, संविधान बाल मज़दूरी का भी निषेध
करता है। किसी कारखाने-खदान या रेलवे और बंदरगाह जैसे खतरनाक काम में कोई भी 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे से काम नहीं करा सकता। इसी को आधार बनाकर बाल मज़दूरी रोकने के अनेक कानून बनाए गए हैं। इसमें बीड़ी बनाने, पटाखे बनाने, दियासलाई बनाने, प्रिंटिंग और रंगरोगन जैसे कामों में बाल मज़दूरी रोकने के कानून शामिल हैं।
खुद करें, खुद सीखें
क्या आपकी अपने प्रदेश में लागू न्यूनतम मज़दूरी का पता है ? अगर नहीं तो क्या आप यह पाता कर सकते हैं ? अपने मुहल्ले में अलग- अलग काम करने वालों से बात करके यह ज्ञानने की कोशिशश कीजिए कि क्या उनको न्यूनतम मज़ादूरी मिल रही है। उनसे पूछिए कि क्या उनको न्यूनतम मज़दूरी का पता है ? उनसे यह भी पूछिए किउसी काम कि कया मर्द और औरत को समान मज़दूरी क्या आपकी अपने प्रदेश में लागू न्यूनतम मज़दूरी का पता है ?
कहाँ पहुँचे? क्या समझे?
इन खबरों के आधार पर संपादक के नाम एक लंबा पत्र या शोषण के खिलाफ़ अधिकार के उल्लंघन की बात उजागर करते हुए अदालत के अर्ज़ी लिखिए:
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
स्वतंत्रता के अधिकार में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार भी शामिल है और इस मामले में भी हमारे संविधान निर्माता खास तौर से चौकस थे। उन्होंने इस स्वतंत्रता को स्पष्ट रूप से अलग दर्ज़ किया। आप अध्याय 2 में पढ़ चुके हैं कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। विश्व के अन्य देशों के समान भारत के अधिकांश लोग अलगअलग धर्म को मानते हैं। कुछ लोग किसी भी धर्म को नहीं मानते। धर्मनिरपेक्षता इस सोच पर आधारित है कि शासन का काम व्यक्तियों के बीच के मामलों को ही देखना है, व्यक्ति और ईश्वर के बीच के मामलों को नहीं। धर्मनिरपेक्ष शासन वह है जहाँ किसी भी धर्म को आधिकारिक धर्म की मान्यता नहीं होती। भारतीय धर्मनिरपेक्षता में सभी धर्मों के प्रति शासन का समभाव रखना शामिल है। धर्म के मामले में शासन को सभी धर्मों से उदासीन और निरपेक्ष होना चाहिए।
हर किसी को अपना धर्म मानने, उस पर आचरण करने और उसका प्रचार करने का अधिकार है। हर धार्मिक समूह या पंथ को अपने धार्मिक कामकाज का प्रबंधन करने की आज़ादी है। पर अपने धर्म का प्रचार करने के
अधिकार का मतलब किसी को झाँसा देकर, फ़रेब करके, लालच देकर उससे धर्म परिवर्तन कराना नहीं है। निस्संदेह व्यक्ति को अपनी इच्छा से धर्म परिवर्तन करने की आज़ादी है। अपना धर्म मानने और उसके अनुसार आचरण का यह अर्थ भी नहीं है कि व्यक्ति अपने मन के अनुसार जो चाहे सो करे। जैसे, कोई आदमी देवता या कथित अदृश्य शक्तियों को संतुष्ट करने के नर बलि या पशु बलि नहीं दे सकता। औरतों को कमतर मानने या औरतों की आज़ादी का हनन करने वाले धार्मिक रीतिरिवाजों पर आचरण करने की अनुमति नहीं है। जैसे, कोई ज़बर्दस्ती किसी विधवा का मुंडन नहों करा सकता या उसे सिर्फ़ सफेेद कपड़े पहनने के मज़बूर नहीं कर सकता।
धर्मनिरपेक्ष शासन का मतलब किसी एक धर्म का पक्ष लेना या उसे विशेषाधिकार देना भी नहीं है। ना ही ऐसा शासन किसी व्यक्ति को उसकी धार्मिक मान्यताओं के कारण सजा दे सकता है या उसके साथ भेदभाव कर सकता है। इसी प्रकार सरकार किसी धर्म या धार्मिक संस्था को बढ़ावा देने या उसके रख-रखाव के कर देने के किसी व्यक्ति को मज़बूर नहीं कर सकती। सरकारी शैक्षिक संस्थानों में किसी किस्म का धार्मिक निर्देश नहीं होना चाहिए। अगर किसी शैक्षिक संस्थान का संचालन कोई निजी संस्था करती है तो वहाँ के किसी भी व्यक्ति को प्रार्थना में हिस्सा लेने या किसी धार्मिक निर्देश का पालन करने के मज़बूर नहीं किया जा सकता।
सांस्कृतिक और शैभिक अधिकार
आप हैरान हो सकते हैं कि हमारे संविधान निर्माता अल्पसंख्यकों के अधिकारों की लिखित गारंटी को लेकर इतने सचेत क्यों थे। बहुसंख्यकों के ऐसी कोई गारंटी क्यों नहीं है? इसका सीधा सा कारण यह है कि लोकतंत्र की कार्यपद्धति अपने आप बहुसंख्यकों को ज़्यादा ताकत दे देती है। अल्पसंख्यकों को ही भाषा, संस्कृति और धर्म के विशेष संरक्षण की ज़रूरत होती है। अन्यथा वे बहुसंख्यकों की भाषा, धर्म और संस्कृति के प्रभाव में पिछड़ते चले जाएँगे। इसी के चलते संविधान अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों को स्पष्ट करता है:
- नागरिकों में विशिष्ट भाषा या संस्कृति वाले किसी भी समूह को अपनी भाषा और संस्कृति को बचाने का अधिकार है।
- किसी भी सरकारी या सरकारी अनुदान पाने वाले शैक्षिक संस्थान में किसी नागरिक को धर्म या भाषा के आधार पर दाखिला लेने से नहीं रोका जा सकता।
- सभी अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद का शैक्षिक संस्थान स्थापित करने और चलाने का अधिकार है।
यहाँ अल्पसंख्यक का अर्थ राष्ट्रीय स्तर पर धार्मिक अल्पसंख्यक भर नहीं है। किसी स्थान पर एक खास भाषा को बोलने वालों का बहुमत होगा। वहाँ अलग भाषा बोलने वाले अल्पसंख्यक होंगे। जैसे आंध्र प्रदेश में तेलुगु बोलने वालों का बहुमत है, पर कर्नाटक में वे अल्पसंख्यक हैं। पंजाब में सिख बहुसंख्यक हैं, पर राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली में वे अल्पसंख्यक हैं।
हमें यो अधिकार कैसे मिल सकते हैं ?
यद्यपि अधिकार गारंटी की तरह हैं तब भी ये हमारे किसी काम के नहीं हैं, अगर इन गारंटियों
कहाँ पहुँचे? क्या समझे?
इन खबरों को पढ़िए और प्रत्येक में जिस अधिकार की चर्चा है, उसकी पहचान कीजिए।
- शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की आपात् बैठक में हरियाणा के सिख धार्मिक स्थलों के प्रबंधन के अलग संगठन बनाने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया। सरकार को यह चेतावनी दी गई कि सिख समुदाय अपने धार्मिक मामलों कें किसी भी किस्म की दखलंदाजी बरदाश्त नहीं करेगा। (जून 2005)
- इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा देने वाले केंद्रीय कानून को रद्द कर दिया और मेडिकल स्नातकोत्तर डिग्री कोर्स में सीटों के आरक्षण को गैर-कानूनी करार दिया। (जनवरी 2005)
- राजस्थान सरकार ने धर्म परिवर्तन विरोधी कानून बनाने का फ़ैसला किया है। ईसाई नेताओं का कहना है कि इस विधेयक से अल्पसंख्यकों कें डर और असुरक्षा की भावना बढ़ेगी। (मार्च 2005)
को मानने और लागू करने वाला न हो। संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार महत्त्वपूर्ण हैं। इसी इन्हें लागू किया जा सकता है। हमें उपर्युक्त अधिकारों को लागू कराने की माँग करने का अधिकार है, हमारे पास उन्हें लागू कराने के उपाय हैं। इसे संवैधानिक उपचार का अधिकार कहा जाता है। यह भी एक मौलिक अधिकार है। यह अधिकार अन्य अधिकारों को प्रभावी बनाता है। संभव है कि कई बार हमारे अधिकारों का उल्लंघन कोई और नागरिक या कोई संस्था या फिर स्वयं सरकार ही कर रही हो। पर जब इनमें से हमारे किसी भी अधिकार का उल्लंघन हो रहा हो तो हम अदालत के ज़रिए उसे रोक सकते हैं, इस समस्या का निदान पा सकते हैं। अगर मौलिक अधिकारों का मामला हो तो हम सीधे सर्वोच्च न्यायालय या किसी राज्य के उच्च न्यायालय में जा सकते हैं। इसी कारण डॉ. अंबेडकर ने संवैधानिक उपचार के अधिकार को हमारे संविधान की ‘आत्मा और हदय’ कहा था।
मौलिक अधिकार विधायिका, कार्यपालिका और सरकार द्वारा गठित किसी भी अन्य प्राधिकारी की गतिविधियों तथा फ़ैसलों से ऊपर हैं। मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाला कोई कानून नहीं बन सकता, कोई फ़ैसला नहीं लिया जा सकता। विधायिका या कार्यपालिका के किसी भी फ़ैसले या काम से मौलिक अधिकारों का हनन हो या उनमें कमी हो तो वह फ़ैसला या काम ही अवैध हो जाएगा। हम केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा बनाए गए ऐसे कानूनों को, उनकी नीतियों और फ़ैसलों को या राष्ट्रीयकृत बैंक या बिजली बोर्ड जैसी उनके द्वारा गठित संस्थाओं की नीतियों और फ़ैसलों को चुनौती दे सकते हैं। वे भी व्यक्तियों या निजी संस्थाओं के खिलाफ़ मौलिक अधिकार के मामले में दखल दे सकती हैं। सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों को मौलिक अधिकार लागू कराने के मामले में निर्देश देने, आदेश या रिट जारी करने का अधिकार है। अदालतें गड़बड़ी का शिकार होने वालों को हर्जाना दिलवा सकती हैं और गड़बड़ी करने वालों को दंडित कर सकती हैं। अध्याय 4 में हमने देखा है कि हमारे देश की न्यायपालिका सरकार और संसद से स्वतंत्र है। हमने यह भी देखा है कि न्यायपालिका बहुत शक्तिशाली है और नागरिकों के अधिकारों के जो कुछ ज़रूरी हो, वह करने में सक्षम है।
मौलिक अधिकारों के हनन के मामले में कोई भी पीड़ित व्यक्ति न्याय पाने के तुरंत अदालत में जा सकता है। पर अब, अगर मामला सामाजिक या सार्वजनिक हित का हो तो ऐसे मामलों में मौलिक अधिकारों के उल्लंघन को
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग
क्या आपने उपपर बने ‘न्यूज कोलाज’ पर ध्यान दिया। इसमें राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का जिक्र आया है। यह संदर्भ मानवाधिकार के प्रति बढ़ती जागरूकता और मानव गरिमा के संघर्षों के बारे में है। विभिन्न क्षेत्रों में मानवाधिकार उल्लंघनों के गुजरात दंगे जैसे कई मामले हैं। इनके बारे में देश भर से लोगों का ध्यान आकृष्ट किया जा रहा है। इन मामलों को गम्भीरता से नहीं लेने और उनके दोषियों को नहीं पकड़ पाने के मानवाधिकार संगठन तथा संचार माध्यम अक्सर सरकारी ऐजेन्सियों की आलोचना करते हैं।
ऐसे में पीड़ितों की तरफ़ से किसी को दखल देने की आवश्यकता थी और राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने इस मामले में पहल की। यह 1993 में कानून के द्वारा बनाया गया एक स्वतंत्र आयोग है। न्यायपालिका की तरह आयोग भी सरकार से स्वतंत्र होते हैं। आयोग की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं और इसमें आमतौर पर सेवानिवृत्त जज, अधिकारी या प्रमुख नागरिकों को ही नियुक्त किया जाता है। किंतु इस पर अदालती मामलों में फ़ैसले देने का दायित्व या बोझ नहीं होता। सो यह पीड़ितों को उनके मानवाधिकार दिलाने में मदद करने पर ही सारा ध्यान दे सकता है। इनमें संविधान प्रदत्त अधिकार भी शामिल हैं। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अधिकारों की परिभाषा में संयुक्त राष्ट्र द्वारा कराई गई वे संधियाँ और अंतर्राष्ट्रीय घोषणाएँ भी शामिल हैं जिन पर भारत ने दस्तखत किए हैं।
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग खुद किसी को सज़ा नहीं दे सकता। यह ज़िम्मेवारी अदालतों की है। आयोग का काम मानवाधिकार के उल्लंघन के किसी मामले में स्वतंत्र और विश्वसनीय जाँच करना है। यह उन मामलों की भी जाँच करता है जहाँ ऐसे उल्लंघन में या इन्हें रोकने में सरकारी अधिकारियों पर उपेका बरतने का आरोप हो। यह देश में मानवाधिकारों को बढ़ाने और उनके प्रति चेतना जगाने का काम भी करता है। आयोग अपनी जाँच की रिपोर्ट और अपने सुझाव सरकार को देता है या पीड़ितों की ओर से अदालत में दखल देता है। अपनी जाँच करने के सिलसिले में इसके पास व्यापक अधिकार हैं। किसी भी अदालत की तरह यह चश्मदीद गवाहों को सम्मन भेजकर बुला सकता है, किसी सरकारी अधिकारी से पूछताछ कर सकता है, किसी सरकारी दस्तावेज़ की माँग कर सकता है, किसी जेल में जाकर जाँच कर सकता है या घटनास्थल पर अपनी जाँच टीम भेज सकता है।
भारत का कोई भी नागरिक मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले में इसके पास निम्नलिखित पते पर शिकायत भेज सकता हैः राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग, जी.पी.ओ. कम्प्लेक्स, आई.एन.ए., नई दिल्ली110023 आयोग के पास अर्जी भेजने की न तो कोई फ़ीस है, न फ़ार्म और न ही कोई तय तरीका। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की तरह ही 26 राज्यों (10 दिसंबर 2018 की स्थिति ) में राज्य मानव अधिकार आयोग हैं। अधिक जानकारी के , देखें $\text{www.nhrc.nic.in}$
लेकर कोई भी व्यक्ति अदालत में जा सकता है। ऐसे मामलों को ‘जनहित याचिका’ के माध्यम से उठाया जाता है।
इसमें कोई भी व्यक्ति या समूह सरकार के किसी कानून या काम के खिलाफ़ सार्वजनिक हितों की रक्षा के सर्वोच्च न्यायालय या किसी उच्च न्यायालय में जा सकता है। ऐसे मामले जज के नाम पोस्टकार्ड पर लिखी अर्जी के माध्यम से भी उठाए जा सकते हैं। अगर न्यायाधीशों को लगे कि सचमुच इस मामले में सार्वजनिक हितों पर चोट पहुँच रही है तो वे मामले को विचार के स्वीकार कर सकते हैं।
खुद करें, खुद सीखें
क्या आपकेराज्य में मानवाधिकार आयोग है? इसकीी गतिविधियों के बारे में जानकारियाँ इकही कीजिए। इस अधााय में आए मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों या आपको ज्ञात किसी भी ऐसे मामले को लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को एक आवेदन लिखें।
5.4 अधिकारौं का बढ़ता दायरा
हमने इस अध्याय की शुरुआत अधिकारों के महत्त्व पर चर्चा से की थी। पर अध्याय के ज्यादातर हिस्से में हमारा ध्यान संविधान द्वारा दिए गये मौलिक अधिकारों पर ही रहा। आप सोच सकते हैं कि संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकार ही नागरिकों को मिलने वाले अधिकार हैं। यह सही नहीं है। मौलिक अधिकार बाकी सारे अधिकारों के स्रोत हैं। हमारा संविधान और हमारे कानून हमें और बहुत सारे अधिकार देते हैं और साल दर साल अधिकारों का दायरा बढ़ता गया है। समय-समय पर अदालतों ने ऐसे फ़ैसले दिए हैं जिनसे अधिकारों का दायरा बढ़ा है। प्रेस की बच्चों के कौन-कौन स्वतंत्रता का अधिकार, सूचना का अधिकार और शिक्षा का अधिकार जैसी चीजें मौलिक अधिकारों का ही विस्तार हैं, उन्हीं से निकली हैं। अब स्कूली शिक्षा हर भारतीय का अधिकार बन चुकी है। 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा दिलाना सरकार की ज़िम्मेदारी है। संसद ने नागरिकों को सूचना का अधिकार देने वाला कानून भी पास कर दिया है। यह अधिकार विचारों और अभिव्यक्ति की आज़ादी के मौलिक अधिकार के तहत ही है। हमें सरकारी दफ़्तरों से सूचना माँगने और पाने का अधिकार है। हाल में ही सर्वोच्च न्यायालय ने जीवन के अधिकार को नया विस्तार देते हुए उसमें भोजन के अधिकार को भी शामिल कर दिया है। साथ ही, अधिकारों का दायरा संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों तक ही सीमित नहीं है। संविधान अनेक दूसरे अधिकार भी देता है जो मौलिक अधिकार नहीं हैं। जैसे संपत्ति रखने का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है पर संवैधानिक अधिकार है। चुनाव में वोट देने का अधिकार एक महत्वपूर्ण संवैधानिक अधिकार है।
जरा सोचिए: क्या ये अधिकार सिप्फ़ वयसक लोगों के हैं? से अधिकार हैं?
कई बार मानवाधिकारों का भी विस्तार होता है। ये असल में सर्वमान्य नैतिक दावे हैं जो कानून द्वारा मान्य हो भी सकते हैं और नहीं भी और इन्हें उस अर्थ में अधिकार नहीं कहा जा सकता जैसा कि हमने पहले परिभाषा के माध्यम से बताया था। दुनिया में लोकतंत्र के फ़ैलाव के साथ सरकारों पर दबाव बढ़ता जा रहा है कि वे इन सर्वमान्य नैतिक दावों को मानें, उन्हें कानूनी रूप दें। कई अंतर्राष्ट्रीय संधियों और प्रतिज्ञा पत्रों ने भी अधिकारों का दायरा बढ़ाने में मदद की है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अधिकारों का दायरा बढ़ता जा रहा है और हर समय नए अधिकार सामने आ रहे हैं। ये लोगों के संघर्षों से हासिल हुए हैं। समाज के विकास या नए संविधानों के निर्माण के साथ नए अधिकार सामने आते हैं। संविधान बनाने संबंधी अध्याय में हमने देखा है कि दक्षिण अफ्रीका के संविधान में नागरिकों को कई तरह के नए अधिकार मिले हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
- निजता का अधिकार: इसके कारण नागरिकों और उनके घरों की तलाशी नहीं ली जा सकती, उनके फ़ोन टैप नहीं किए जा सकते, उनकी चिट्ठी-पत्री को खोलकर पढ़ा नहीं जा सकता।
- पर्यावरण का अधिकारः ऐसा पर्यावरण पाने का अधिकार जो नागरिकों के स्वास्थ्य या कुशलक्षेम के प्रतिकूल न हो।
- पर्याप्त आवास पाने का अधिकार।
- स्वास्थ्य सेवाओं, पर्याप्त भोजन और पानी तक पहुँच का अधिकार; किसी को भी आपात् चिकित्सा देने से इंकार नहीं किया जा सकता।
अनेक लोगों का मानना है कि काम का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार, जीने के ज़रूरी न्यूनतम आवश्यकताओं का अधिकार और निजता के अधिकार को भारत में भी मौलिक अधिकार बना देना चाहिए? आप इसके बारे में क्या सोचते हैं?
आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिज्ञा पत्र
इस अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्र में अनेक ऐसे अधिकारों को मान्यता दी गई है जो भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों से सीधे नहीं जुड़े हैं। इसने अभी अंतर्राष्ट्रीय संधि का रूप नहीं लिया है। लेकिन दुनिया भर के मानवाधिकार कार्यकर्त्ता इसे एक मानक मानवाधिकार के रूप में देखते हैं। इनमें शामिल हैं:
- काम करने का अधिकारः हर किसी को काम करने, अपनी जीविका का उपार्जन करने का अवसर।
- काम करने के सुरक्षित और स्वास्थप्रद माहौल का अधिकार तथा मज़दूरों और उनके परिवारों के सम्मानजनक जीवनस्तर लायक उचित मज़दूरी का अधिकार।
- समुचित जीवन स्तर जीने के अधिकार में पर्याप्त भोजन, कपड़ा और मकान का अधिकार शामिल है।
- सामाजिक सुरक्षा और बीमा का अधिकार।
- स्वास्थ्य का अधिकारः बीमारी के समय इलाज, प्रजनन काल में महिलाओं का खास ख्याल और महामारियों से रोकथाम।
- शिक्षा का अधिकारः मुफ्त एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा, उच्चतर शिक्षा तक समान पहुँच ।
शब्दावली
प्रतिज्ञा पत्र: नियमों और सिद्धांतों को कायम रखने का व्यक्ति, समूह या देशों का वायदा। ऐसे बयान या संधि पर दस्तखत करने वाले पर इसके पालन की कानूनी बाध्यता होती है।
दावाः सभी नागरिकों, समाज या सरकार से किसी नागरिक द्वारा कानूनी या नैतिक अधिकारों की माँग। दलितः ऐसी जाति में जन्मा व्यक्ति जिसे दूसरी जातियों के व्यक्ति छूने लायक नहीं मानते। दलितों के अनुसूचित जाति, कमज़ोर वर्ग जैसे शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है।
जातीय समूहः मानव जाति का ऐसा समूह जिसमें लोग आपस में एक मूल या सम्यक वंश के हों। एक जातीय समूह के लोग सांस्कृतिक आचरणों, धार्मिक विश्वासों और ऐतिहासिक स्मृतियों के ज़रिए जुड़े होते हैं। सम्मनः अदालत द्वारा ज़ारी एक आदेश जिसमें किसी व्यक्ति को अदालत के सामने पेश होने के कहा गया हो।
अवैध व्यापारः अनैतिक कामों के स्त्री, पुरुष या बच्चों की खरीद-बिक्री।
रिट : उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार को जारी किया गया एक औपचारिक लिखित आदेश।
एमनेस्टी इंटरनेशनल: मानवाधिकारों के काम करने वाले कार्यकर्ताओं का एक अंतरराष्ट्रीय संगठन। यह संगठन दुनिया भर में मानवाधिकारों के उल्लंघन पर स्वतंत्र रिपोर्ट जारी करता है।
प्रश्नावली
1. इनमें से कौन-सा मौलिक अधिकारों के उपयोग का उदाहरण नहीं है?
क. बिहार के मजदूरों का पंजाब के खेतों में काम करने जाना।
ख. ईसाई मिशनों द्वारा मिशनरी स्कूलों की श्रृंखला चलाना।
ग. सरकारी नौकरी में औरत और मर्द को समान वेतन मिलना।
घ. बच्चों द्वारा मां-बाप की संपत्ति विरासत में पाना।
2. इनमें से कौन-सी स्वतंत्रता भारतीय नागरिकों को नहीं है?
क. सरकार की आलोचना की स्वतंत्रता
ख. सशस्त्र विद्रोह में भाग लेने की स्वतंत्रता
ग. सरकार बदलने के आंदोलन शुरू करने की स्वतंत्रता
घ. संविधान के केंद्रीय मूल्यों का विरोध करने की स्वतंत्रता
3. भारतीय संविधान इनमें से कौन-सा अधिकार देता है?
क. काम का अधिकार
ख. पर्यास्त जीविका का अधिकार
ग. अपनी संस्कृति की रक्षा का अधिकार
घ. निजता का अधिकार
4. उस मौलिक अधिकार का नाम बताएँ जिसके तहत निम्नलिखित स्वतंत्रताएँ आती हैं?
क. अपने धर्म का प्रचार करने की स्वतंत्रता
ख. जीवन का अधिकार
ग. छुआछूत की समाप्ति
घ. बेगार पर प्रतिबंध
5. लोकतंत्र और अधिकारों के बीच संबंधों के बारे में इनमें से कौन-सा बयान ज़्यादा उचित है? अपनी पसंद के पक्ष में कारण बताएँ?
क. हर लोकतांत्रिक देश अपने नागरिकों को अधिकार देता है।
ख. अपने नागरिकों को अधिकार देने वाला हर देश लोकतांत्रिक है।
ग. अधिकार देना अच्छा है, पर यह लोकतंत्र के ज़रूरी नहीं है।
6. स्वतंत्रता के अधिकार पर ये पाबंदियाँ क्या उचित हैं? अपने जवाब के पक्ष में कारण बताएँ।
क. भारतीय नागरिकों को सुरक्षा कारणों से कुछ सीमावर्ती इलाकों में जाने के अनुमति लेनी पड़ती है।
ख. स्थानीय लोगों के हितों की रक्षा के कुछ इलाकों में बाहरी लोगों को संपत्ति खरीदने की अनुमति नहीं है।
ग. शासक दल को अगले चुनाव में नुकसान पहुँचा सकने वाली किताब पर सरकार प्रतिबंध लगाती है।
7. मनोज एक सरकारी दफ़्तर में मैनेजर के पद के आवेदन देने गया। वहाँ के किरानी ने उसका आवेदन लेने से मना कर दिया और कहा, ‘झाड़ू लगाने वाले का बेटा होकर तुम मैनेजर बनना चाहते हो। तुम्हारी जाति का कोई कभी इस पद पर आया है? नगरपालिका के दप़्तर जाओ और सफ़ाई कर्मचारी के अर्जी दो।’ इस मामले में मनोज के किस मौलिक अधिकार का उल्लंघन हो रहा है? मनोज की तरफ़ से जिला अधिकारी के नाम लिखे एक पत्र में इसका उल्लेख करो।
8. जब मधुरिमा संपत्ति के पंजीकरण वाले दफ़्तर में गई तो रजिस्ट्रार ने कहा, " आप अपना नाम मधुरिमा बनर्जी, बेटी ए.केे. बनर्जी नहीं लिख सकतीं। आप शादीशुदा हैं और आपको अपने पति का ही नाम देना होगा। फ़िर आपके पति का उपनाम तो राव है। इस आपका नाम भी बदलकर मधुरिमा राव हो जाना चाहिए।" मभुरिमा इस बात से सहमत नहीं हुई। उसने कहा, “अगर शादी के बाद मेंरे पति का नाम नहीं बदला तो मेरा नाम क्यों बदलना चाहिए? अगर वह अपने नाम के साथ पिता का नाम लिखते रह सकते हैं तो मैं क्यों नहीं लिख सकती?" आपकी राय में इस विवाद में किसका पक्ष सही है? और क्यों?
9. मध्य प्रदेश के होशंगाबाद ज़िले के पिपरिया में हज़ारों आदिवासी और जंगल में रहने वाले लोग सतपुड़ा राष्ट्रीय पार्क, बोरी वन्यजीव अभ्यारण्य और पंचमढ़ी वन्यजीव अभ्यारण्य से अपने प्रस्तावित विस्थापन का विरोध करने के जमा हुए। उनका कहना था कि यह विस्थापन उनकी जीविका और उनके विश्वासों पर हमला है। सरकार का दावा है कि इलाके के विकास और वन्य जीवों के संरक्षण के उनका विस्थापन ज़रूरी है। जंगल पर आधारित जीवन जीने वाले की तरफ़ से राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को एक पत्र, इस मसले पर सरकार द्वारा दिया जा सकने वाला संभावित जवाब और इस मामले पर मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट तैयार करो।
10. इस अध्याय में पढ़े विभिन्न अधिकारों को आपस में जोड़ने वाला एक मकड़जाल बनाएँ। जैसे आनेजाने की स्वतंत्रता का अधिकार तथा पेशा चुनने की स्वतंत्रता का अधिकार आपस में एक-दूसरे से जुड़े हैं। इसका एक कारण है कि आने-जाने की स्वतंत्रता के चलते व्यक्ति अपने गाँव या शहर के अंदर ही नहीं, दूसरे गाँव, दूसरे शहर और दूसरे राज्य तक जाकर काम कर सकता है। इसी प्रकार इस अधिकार को तीर्थाटन से जोड़ा जा सकता है जो किसी व्यक्ति द्वारा अपने धर्म का अनुसरण करने की आज़ादी से जुड़ा है। आप इस मकड़जाल को बनाएँ और तीर के निशानों से बताएँ कि कौन-से अधिकार आपस में जुड़े हैं। हर तीर के साथ संबंध बताने वाला एक उदाहरण भी दें।
आइए, अखबार पढ़े
अभी तक के सभी अध्यायों में हमने अखबार पढ़ने वाला अभ्यास रखा है। आइए, अब अखबारों के लिखने का प्रयास करें। इस अध्याय में आई रिपोरों या अपने आसपास के उदाहरणों के आधार पर इन कुछ चीजों को लिखने का प्रयास करें:
- मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले पर संपादक के नाम पत्र।
- मानवाधिकार संगठन की तरफ़ से एक प्रेस विज्ञप्ति।
- मौलिक अधिकार संबंधी सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले से जुड़े समाचार और उनका शीर्षका
- पुलिस हिरासत में मौत की बढ़ती घटनाओं पर संपादकीय टिप्पणी। इन सबको मिलाकर अपने स्कूल के नोटिस बोर्ड के एक अखबार तैयार करें।