अध्याय 03 चुनावी राजनीति

परिचय

अध्याय 1 में हमने देखा कि लोकतंत्र के यह न तो संभव है ना ही ज़रूरी कि लोग सीधे शासन करें। हमारे समय में लोकतंत्र का सबसे आम स्वरूप लोगों द्वारा अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन चलाने का है। इस अध्याय में हम देखेंगे कि किसी लोकतंत्र में प्रतिनिधियों का चुनाव कैसे होता है। हम शुरुआत यह समझने से करेंगे कि लोकतंत्र में चुनाव क्यों ज़रूरी और उपयोगी हैं। हम यह भी समझने की कोशिश करेंगे कि विभिन्न दलों की चुनावी प्रतिद्वंद्विता किस तरह लोगों को लाभ पहुँचाती है। फिर हम यह सवाल उठाएँगे कि किन-किन चीज़ों के कारण कोई चुनाव लोकतांत्रिक होता है। इसी के सहारे हम लोकतांत्रिक और गैर-लोकतांत्रिक चुनाव का अंतर समझ पाएँगे।

अध्याय के बाकी हिस्से में हम इन्हीं पैमानों के आधार पर भारत में हुए चुनावों का मूल्यांकन करेंगे। इस क्रम में हम चुनाव के प्रत्येक चरण यानी विभिन्न चुनाव क्षेत्रों के सीमा-निर्धारण से लेकर चुनाव परिणामों की घोषणा तक पर नज़र डालेंगे। हर चरण में हम यह सवाल पूछेंगे कि क्या होना चाहिए और प्रत्यक्ष चुनाव में क्या होता है। अध्याय के आखिर में हम इस सवाल पर विचार करेंगे कि भारत में हुए चुनाव निष्पक्ष और स्वतंत्र ढंग से हुए हैं या नहीं। यहाँ हम निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव कराने में चुनाव आयोग की भूमिका पर भी विचार करेंगे।

3.1 चुनाव क्यों?

हरियाणा के विधानसभा चुनाव

आधी रात के बाद का समय। उत्सुक भीड़ शहर के चौराहे के पास पिछले पाँच घंटों से अपने नेता के आने का इंतज़ार कर रही है। आयोजक भीड़ को बार-बार भरोसा दिला रहे हैं कि नेता बस अब आने ही वाले हैं। जब भी कोई गाड़ी पास से गुजरती तो लोग अपने नेता को देखने की उम्मीद में उठ खड़े होते। उन्हें लगता है कि हमारे नेता आ गए हैं।

यह नेता हैं श्री देवीलाल, हरियाणा संघर्ष समिति के प्रमुख, जो गुरुवार की उस रात करनाल में भाषण देने आने वाले हैं। 76 वर्ष के इस नेता को आजकल ज़रा भी फुरसत नहीं है। उनका राजनैतिक कार्यक्रम सुबह आठ बजे से शुरू होकर रात 11 बजे तक चलता है…आज सुबह से उन्होंने नौ चुनावी सभाओं में भाषण दिया है…पिछले 23 महीनों से वे लगातार जनसभाएँ कर रहे हैं और चुनाव की तैयारियाँ कर रहे हैं।

यह हरियाणा में 1987 में हुए राज्य विधानसभा चुनावों से जुड़ी एक अखबार की खबर है। राज्य में 1982 से कांग्रेस पार्टी की अगुवाई वाली सरकार थी। तब विपक्ष के एक नेता चौधरी देवीलाल ने ‘न्याय युद्ध’ नामक आंदोलन का नेतृत्व किया और लोकदल नामक अपनी नई पार्टी का गठन किया। उनकी पार्टी ने चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ़ अन्य विपक्षी दलों को मिलाकर एक मोर्चा बनाया। अपने चुनाव प्रचार में देवीलाल ने कहा कि अगर उनकी पार्टी चुनाव जीती तो वे किसानों और छोटे व्यापारियों के कर्ज़ माफ़ कर देंगे। उन्होंने वायदा किया कि यही उनकी सरकार का पहला काम होगा।

क्या अधिकांश नेता अपने चुनावी वायदे पूरा करते हैं?

लोग तब की सरकार से नाखुश थे। वे देवीलाल के वायदे की तरफ आकर्षित हुए। इस, जब चुनाव हुए तो उन्होंने लोकदल और उसके सहयोगी दलों के पक्ष में जमकर वोट दिए। लोकदल और उसकी सहयोगी पार्टियों को राज्य विधानसभा की 90 सीटों में से 76 पर जीत मिली। लोकदल को अकेले ही 60 सीटें मिलीं और उसे स्पष्ट बहुमत मिला। कांग्रेस के हाथ तब सिर्फ़ 5 सीटें लगीं।

चुनावी नतीजों की घोषणा के बाद तत्कालीन सरकार के मुख्यमंत्री ने पद छोड़ दिया। लोकदल के नवनिर्वाचित विधायकों ने देवीलाल को अपना नेता चुना। राज्यपाल ने देवीलाल को नए मुख्यमंत्री के रूप में काम संभालने का निमंत्रण दिया। चुनावी नतीजों की घोषणा के तीन दिन के अंदर वे मुख्यमंत्री बन गए। मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के तत्काल बाद उनकी सरकार ने एक आदेश जारी करके छोटे किसान, खेतिहर मज़दूर और छोटे व्यापारियों के बकाया ॠण को माफ़ कर दिया। उनकी पार्टी ने राज्य में चार वर्षों तक शासन किया। अगले चुनाव 1991 में हुए। इस बार उनकी पार्टी को लोगों का समर्थन नहीं मिला। कांग्रेस पार्टी ने चुनाव जीता और सरकार बनाई।

खुद् करें, खुद सीखें

क्रा आपको मालूम है आपके राज्य में विधानसभा के पिछले पुनात कब हुए ? आपपक इलाका मेंपिएल्ले पाँ वर्षों में और कौन-सो चुनात हुए हैं? इन चुनावों के स्तर (राष्ट्रीप, विधानासभा, पंचायत वगेरह), उनके होने का समय और उसमें आपकेक्षेत्र से चुने गए त्यक्ति के पद (सांसद, विधायक, पार्षद वगगरह) को भी दर्ज़ करें।

कहाँ पहुँचे? क्या समझे?
जगदीप और नवप्रीत के इस कथा को पढ़ा और निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले । क्या आप बता सकते हैं कि इनमें कौन-से निष्कर्ष सही हैं और कौन-से गलत। (या फिर इस कथा में दी गई सूचनाओं के आधार पर सही-गलत का फ़ैसला नहीं हो सकता):

  • चुनाव से सरकारी नीतियों में बदलाव हो सकता है।
  • राज्यपाल ने देवीलाल के भाषणों से प्रभावित होकर उन्हें मुख्यमंत्री बनने का न्यौता दिया।
  • लोग हर शासक दल से नाराज़ रहते हैं और हर अगले चुनाव में उसके खिलाफ वोट देते हैं।
  • चुनाव जीतने वाली पार्टी सरकार बनाती है।
  • इस चुनाव से हरियाणा के आर्थिक विकास में काफी मदद मिली।
  • अपनी पार्टी के चुनाव हारने के बाद कांग्रेसी मुख्यमंत्री को इस्तीफा देने की ज़रूरतत नहीं थी।

चुजावों की ज़ूरूत क्यों है ?

किसी भी लोकतंत्र में नियमित अंतराल पर चुनाव होते हैं। दुनिया के सौ से अधिक देश ऐसे हैं जहाँ जनप्रतिनिधियों को चुनने के चुनाव होते हैं। हम यह भी जानते हैं कि अनेक ऐसे देश जो लोकतांत्रिक नहीं हैं, वहाँ भी चुनाव होते हैं।

पर हमें चुनावों की ज़रूरत क्यों होती है? आइए बिना चुनाव वाले लोकतंत्र की कल्पना करें। अगर सारे लोग रोज़ साथ बैठें और सारे फ़ैसले मिल-जुलकर लें तब बिना चुनावों के लोगों का शासन संभव है। लेकिन जैसा हमने अध्याय 1 में देखा कि किसी भी बड़े समुदाय के ऐसा करना संभव नहीं है। ना ही यह संभव है कि हर किसी के पास हर मामले पर फ़ैसला करने का समय और ज्ञान हो। इस अधिकांश लोकतांत्रिक शासन व्यवस्थाओं में लोग अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन करते हैं।

क्या चुनाव के बिना भी लोकतांत्रिक ढंग से प्रतिनिधियों का चुनाव किया जा सकता है? आइए एक ऐसी जगह के बारे में कल्पना करें जहाँ प्रतिनिधियों का चुनाव उम्र और अनुभव के आधार पर किया जाता है। या, ऐसी जगह की कल्पना करें जहाँ प्रतिनिधियों का चुनाव शिक्षा या ज्ञान के आधार पर होता हो। किसे ज़्यादा अनुभव या ज़्यादा ज्ञान है यह तय करने में थोड़ी परेशानी आ सकती है। पर यह मान लें कि लोग मिल-जुलकर इन परेशानियों को दूर कर लेंगे। स्पष्ट है कि फिर ऐसी जगह पर चुनाव की ज़रूरत नहीं रह जाएगी।

लेकिन क्या फिर हम इस व्यवस्था को लोकतंत्र कह सकते हैं? हम यह कैसे पता करेंगे कि लोगों को उनका प्रतिनिधि पसंद है या नहीं? हम यह व्यवस्था कैसे करेंगे कि प्रतिनिधि, लोगों की इच्छा के अनुरूप ही शासन करे? हम इस चीज़ की व्यवस्था कैसे करेंगे कि जो प्रतिनिधि लोगों को पसंद न हों वे अपने पद पर न बने रहें। इसके ऐसी व्यवस्था करने की जरूरत है जिससे लोग नियमित अंतराल पर अपने प्रतिनिधियों को चुन सकें और अगर इच्छा हो तो उन्हें बदल भी दें। इस व्यवस्था का नाम चुनाव है। इस हमारे समय में प्रतिनिधित्व वाले लोकतंत्र में चुनाव को ज़रूरी माना जाता है।

चुनाव में मतदाता कई तरह से चुनाव करते हैं:

  • वे अपने कानून बनाने वाले का चुनाव कर सकते हैं।
  • वे सरकार बनाने और बड़े फ़ैसले करने वाले का चुनाव कर सकते हैं।
  • वे सरकार और उसके द्वारा बनने वाले कानूनों का दिशा-निर्देश करने वाली पार्टी का चुनाव कर सकते हैं।

हमने देखा कि लोकतंत्र के चुनाव क्यों ज़रूरी है, पर गैरलोकतांत्रिक देशों के शासकों को भी चुनाव कराने की ज़रूरत क्यों पड़ती है?

चुनाव को लोकतांत्रिक मानने के आधार क्या हैं ?

चुनाव कई तरह से हो सकते हैं। लोकतांत्रिक देशों में तो चुनाव होते ही हैं। यहाँ तक कि अधिकांश गैर-लोकतांत्रिक देशों में भी किसीन-किसी तरह के चुनाव होते हैं। सो चुनाव लोकतांत्रिक हुए हैं इसे जाँचने के हमारे क्या पैमाने हैं? हमने अध्याय 1 में इस सवाल पर हल्की-सी चर्चा की थी। हमने वहाँ अनेक देशों के चुनाव के उदाहरण दिए थे जिन्हें हम लोकतांत्रिक चुनाव नहीं मान सकते। आइए वहाँ सीखे सबक को याद करें और लोकतांत्रिक चुनावों के ज़रूरी न्यूनतम शर्तों के साथ अपनी बात की शुरुआत करें:

  • पहला, हर किसी को चुनाव करने की सुविधा हो। यानि हर किसी को मताधिकार हो और हर किसी के मत का समान मोल हो।
  • दूसरा, चुनाव में विकल्प उपलब्ध हों। पार्टियों और उम्मीदवारों को चुनाव में उतरने की आज़ादी हो और वे मतदाताओं के विकल्प पेश करें।
  • तीसरा, चुनाव का अवसर नियमित अंतराल पर मिलता रहे। नए चुनाव कुछ वर्षों में ज़रूर कराए जाने चाहिए।
  • चौथा, लोग जिसे चाहें वास्तव में चुनाव उसी का होना चाहिए।
  • पाँचवा, चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग से कराए जाने चाहिए जिससे लोग सचमुच अपनी इच्छा से व्यक्ति का चुनाव कर सकें।

ये शर्तें बहुत आसान और सरल लग सकती हैं। लेकिन अनेक देश ऐसे हैं जहाँ के चुनावों में इन शर्तों को भी पूरा नहीं किया जाता। इस अध्याय में हम अपने देश में हुए चुनावों पर भी ये शर्ते लागू करके यह जानने का प्रयास करेंगे कि हमारे यहाँ के चुनावों को लोकतांत्रिक कहा जा सकता है या नहीं।

क्या राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता अच्ठी चीज़ है ?

इस प्रकार हम पाते हैं कि चुनाव का मतलब राजनैतिक प्रतियोगिता या प्रतिद्वंद्विता है। यह प्रतियोगिता कई तरह का रूप ले सकती है। सबसे स्पष्ट रूप है राजनैतिक पार्टियों के बीच प्रतिद्वंद्विता। निर्वाचन क्षेत्रों में इसका स्वरूप उम्मीदवारों के बीच प्रतिद्वंद्विता का हो जाता है। अगर प्रतिद्वंद्विता नहीं रहे तो चुनाव बेमानी हो जाएँगे।

लेकिन क्या राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता का होना अच्छी चीज़ है? चुनावी प्रतिद्वंद्विता में कुछ स्पष्ट नुकसान दिखते हैं। इससे हर बस्ती, हर घर में बँटवारे जैसी स्थिति हो जाती है। आपने भी अपने इलाके में सुना होगा कि लोग ‘पार्टी-पॉलिटिक्स’ के फैलने की शिकायत कर रहे हैं। विभिन्न दलों के लोग और नेता अक्सर एक-दूसरे के खिलाफ़ आरोप लगाते हैं। पार्टियाँ और उम्मीदवार चुनाव जीतने के तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि चुनावी दौड़ जीतने का यह दबाव सही किस्म की दीर्घकालिक राजनीति को पनपने नहीं देता। समाज और देश की सेवा करने की चाह रखने वाले कई अच्छे लोग भी इन्हीं कारणों से चुनावी मुकाबले में नहीं उतरते। उन्हें इस मुश्किल और बेढंगी लड़ाई में उतरना अच्छा नहीं लगता।

हमारे संविधान निर्माता इन समस्याओं के प्रति सचेत थे। फिर भी उन्होंने भविष्य के नेताओं के चुनाव के मुक्त चुनावी मुकाबले का ही चयन किया। उन्होंने ऐसा इस किया क्योंकि दीर्घकालिक रूप से यही व्यवस्था बेहतर काम करती है। एक आदर्श दुनिया में ही सभी राजनैतिक नेताओं

को मालम होता है कि लोगों का हित किन चीज़ों में है तथा ये सभी नेता लोगों की सेवा की प्रेरणा से ही राजनीति में आते हैं। पर असल जीवन में ऐसा नहीं होता। दुनिया भर के सभी नेताओं को अन्य पेशों के लोगों के समान आगे बढ़ने की, अपना कॅरियर बनाने की चिंता होती है। वे सत्ता में बने रहना चाहते हैं या अपने बड़ी-से-बड़ी कुर्सी और ज़्यादा-से-ज़्यादा अधिकार पाना चाहते हैं। संभव है कि उनके अंदर लोगों की सेवा करने की भावना भी हो पर सिर्फ़ इस भावना के भरोसे चीज़ों को छोड़ना जोखिम का काम है। यह भी संभव है कि उनके अंदर लोगों की मदद करने की भावना हो पर उन्हें यह मालूम न हो कि यह काम कैसे किया जा सकता है। या फिर यह भी हो सकता है कि उनके मन में जो विचार हों उनका लोगों की ज़रूरत या स्थानीय स्थितियों से मेल ही न बैठे।

ऐसे में हम इन वास्तविकताओं का सामना कैसे कर सकते हैं? एक तरीका तो राजनेताओं के ज्ञान और चरित्र में बदलाव और सुधार लाने का है। दूसरा और ज़्यादा व्यावहारिक तरीका यह है कि हम ऐसी व्यवस्था बनाएँ जिसमें लोगों की सेवा करने वाले राजनेताओं

को पुरस्कार मिले और ऐसा न करने वालों को दंड मिले। इस पुरस्कार या दंड का फ़ैसला कौन करता है? इसका सीधा-सा ज़वाब है कि लोग करते हैं। चुनावी प्रतिद्वंद्विता का यही अर्थ है। नियमित चुनावी मुकाबले का लाभ राजनैतिक दलों और नेताओं को मिलता है। वे जानते हैं कि अगर उन्होंने लोगों की इच्छा के अनुसार मुद्दों को उठाया तो उनकी लोकप्रियता बढ़ेगी और अगले चुनाव में उनकी जीत की संभावना भी बढ़ेगी। लेकिन यदि वे अपने कामकाज से मतदाताओं को संतुष्ट करने में असफल रहते हैं तो वे अगला चुनाव नहीं जीत सकते।

इस तरह यदि कोई राजनीतिक पार्टी सिर्फ़ सत्ता में आने की इच्छा से ही आगे आई है तो भी उसे मज़बूरन जनता की सेवा करनी होगी। कुछ-कुछ इसी ढंग से बाज़ार काम करता है भले ही कोई दुकानदार सिर्फ़ अपने फ़ायदे की सोचता हो उसे मज़बूरन ग्राहक को अच्छा सौदा देना ही पड़ता है। अगर वह ऐसा नहीं करता तो ग्राहक दूसरी दुकान देखेगा। ठीक इसी तरह राजनीतिक मुकाबले से संभव है कुछ भेदभाव पनपें और लोगों में आपसी मन-मुटाव पैदा हों लेकिन आखिरकार इससे राजनैतिक दल और इसके नेता, लोगों की सेवा के बाध्य होते हैं।

कार्टून बूझें

यहाँ दिए दोनों कार्टूनों को ध्यान से देखें। प्रत्येक कार्टून क्या संदेश देता है, इसे अपने शब्दों में लिखें। अपनी कक्षा में चर्चा करें कि इनमें से कौन-सा कार्टून आपके अपने इलाके की असलियत के करीब है। मतदाता और उम्मीदवार के संबंधों पर चुनाव का असर बताने वाला एक कार्टून खुद बनाएँ।

3.2 चुनाव की हमारी प्रणाली क्या है ?

क्या हमारे देश में होने वाले चुनाव लोकतांत्रिक हैं? इस सवाल का जवाब देने के आइए देखें कि भारत में चुनाव किस तरह होते हैं। हमारे यहाँ लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव हर पाँच साल बाद होते हैं। पाँच साल के बाद सभी चुने हुए प्रतिनिधियों का कार्यकाल समाप्त हो जाता है। लोकसभा और विधानसभाएँ ‘भंग’ हो जाती हैं। फिर सभी चुनाव क्षेत्रों में एक ही दिन या एक छोटे अंतराल में अलगअलग दिन चुनाव होते हैं। इसे आम चुनाव कहते हैं। कई बार सिर्फ़ एक क्षेत्र में चुनाव होता है जो किसी सदस्य की मृत्यु या इस्तीफे से खाली हुआ होता है। इसे उपचुनाव कहते हैं। इस अध्याय में हम आम चुनाव पर ही ध्यान केंद्रित करेंगे।

चुनाव क्षेत्र

आपने पढ़ा है कि हरियाणा के लोगों ने 90 विधायकों का चुनाव किया। संभव है आपने सोचा हो कि उन्होंने ऐसा कैसे किया होगा। क्या हरियाणा का हर व्यक्ति सभी 90 विधायकों के वोट देता है? शायद आपको भी मालूम

गुलबर्गा संसदीय क्षेत्र

कर्नाटक का गुलबर्गा (कलाबुरगी) ज़िला

  • गुलबर्गा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र की सीमा और गुलबर्गा ( कलाबुरगी ) ज़िले की सीमा में अंतर क्यों है ? अपने लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र का ऐसा ही नकशा बनाइए।
  • गुलबर्गा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में विधानसभा के कितने क्षेत्र हैं ? क्या आपके लोकसभा क्षेत्र में भी विधानसभा की इतनी ही सीटें हैं ?

होगा कि ऐसा नहीं होता। अपने देश में हम क्षेत्र विशेष पर आधारित प्रतिनिधित्व की प्रणाली से काम करते हैं। चुनाव के उद्देश्य से देश को अनेक क्षेत्रों में बाँट लिया गया है। इन्हें निर्वाचन क्षेत्र कहते हैं। एक क्षेत्र में रहने वाले मतदाता अपने एक प्रतिनिधि का चुनाव करते हैं। लोकसभा चुनाव के देश को 543 निर्वाचन क्षेत्रों में बाँटा गया है। हर क्षेत्र से चुने गए प्रतिनिधियों को संसद सदस्य कहते हैं। लोकतांत्रिक चुनाव की एक विशेषता है हर वोट का बराबर मूल्य। इसी हमारे संविधान में यह व्यवस्था है कि हर चुनाव क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या काफ़ी हद तक एक समान हो।

इसी प्रकार, प्रत्येक राज्य को उसकी विधानसभा की सीटों के हिसाब से बाँटा गया है। इन सीटों से निर्वाचित प्रतिनिधियों को विधायक कहते हैं। प्रत्येक संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में विधानसभा के कई-कई निर्वाचन क्षेत्र आते हैं। पंचायतों और नगरपालिका के चुनावों में भी यही तरीका अपनाया जाता है। प्रत्येक पंचायत को कई ‘वार्डों’ में बाँटा जाता है जो छोटे-छोटे निर्वाचन क्षेत्र हैं। प्रत्येक वार्ड से पंचायत या नगरपालिका के एक सदस्य का चुनाव होता है। कई बार निर्वाचन क्षेत्रों को ‘सीट’ भी कहा जाता है क्योंकि हर क्षेत्र संसद या विधानसभा की एक सीट का प्रतिनिधित्व करता है। इस, हम जब कहते हैं कि लोकदल ने हरियाणा की 60 सीटें जीतों तो इसका मतलब है कि विधानसभा के 60 निर्वाचन क्षेत्रों से लोकदल के 60 लोग जीतकर राज्य विधानसभा में पहुँचे।

आरकित निर्वाचन क्षेत्र

हमारा संविधान प्रत्येक नागरिक को अपना प्रतिनिधि चुनने और जनप्रतिनिधि के तौर पर चुने जाने का अधिकार देता है। लेकिन हमारे संविधान निर्माताओं को चिंता थी कि संभव है खुले चुनावी मुकाबले में कुछ कमज़ोर समूहों के लोग लोकसभा और विधानसभाओं में पहुँच नहीं पाएँ। संभव है कि चुनाव लड़ने और जीतने लायक ज़रूरी संसाधन, शिक्षा और संपर्क उनके पास हों ही नहीं। संसाधनों वाले प्रभावशाली लोग उनको चुनाव जीतने से रोक भी सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो संसद और विधानसभाओं में हमारी आबादी के एक बड़े हिस्से की आवाज़ ही नहीं पहुँच पाएगी। इससे हमारे लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व का चरित्र कमज़ोर होगा और यह व्यवस्था कम लोकतांत्रिक होगी।

इस हमारे संविधान निर्माताओं ने कमज़ोर वर्गों के आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र की विशेष व्यवस्था सोची। इसी कारण कुछ चुनाव क्षेत्र अनुसूचित जातियों के लोगों के आरक्षित हैं तो कुछ क्षेत्र अनुसूचित जनजाति के लोगों के । अनुसूचित जाति के आरक्षित सीट पर केवल अनुसूचित जाति का ही व्यक्ति चुनाव लड़ सकता है। इसी तरह सिर्फ़ अनुसूचित जनजाति के ही व्यक्ति अनुसूचित जनजाति के आरक्षित चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़ सकते हैं। अभी लोकसभा की 84 सीटें अनुसूचित जातियों के और 47 सीटें अनुसूचित जनजातियों के आरक्षित हैं (26 जनवरी 2019 की स्थिति)। ये सीटें पूरी आबादी में इन समूहों के हिस्से के अनुपात में हैं। इस प्रकार अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आरक्षित सीटें किसी अन्य समूह के उचित हिस्से में से कुछ नहीं लेतीं।

कमज़ोर समूहों के आरक्षण की यह व्यवस्था बाद में जिला और स्थानीय स्तर पर भी लागू की गई। अनेक राज्यों में अब ग्रामीण (पंचायतों) और शहरी (नगरपालिका और नगर निगमों) स्थानीय निकायों में अन्य पिछड़े वर्गों के भी आरक्षण लागू हो गया है। पर हर राज्य में आरक्षित सीटों का अनुपात अलगअलग है। इसी प्रकार ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों में एक-तिहाई सीटें महिलाओं के आरक्षित की गई हैं।

पंचायतों की तरह क्या हम संसद और विधानसभाओं की एकतिहाई सीटें महिलाओं के आरक्षित नहीं कर सकते?

राज्य निर्वाचन क्षेत्र
आंध्र प्रदेश 25
अरुणाचल प्रदेश 2
असम 14
बिहार 40
छत्तीसगढ 11
गोवा 2
गुजरात 26
हरियाणा 10
हिमाचल प्रदेश 4
झारखंड 14
कर्नाटक 28
केरल 20
मध्य प्रदेश 29
महाराष्ट्र 48
मणिपुर 2
मेघालय 2
मिजोरम 1
नगालैंड 1
ओंडिशा 21
पंजाब 13
राजस्थान 25
सिक्किम 1
तमिलनाडु 39
तेलंगाणा 17
त्रिपुरा 2
उत्तर प्रदेश 80
उत्तराखंड 5
पश्चिम बंगाल 42
केंद्रशासित प्रदेश
अंडमान एवं निकोबार
द्वीप समूह 1
चंडीगढ़ 1
दादरा एवं
नगर हवेली 1
दमन और दीव 1
दिल्ली 7
जम्मू और कश्मीर 5
लद्दाख 1
लक्षीप्वीप 1
पुदुच्चेरी 1

ऊुपर दिए नक्शो को देखिए और निम्नलिखित सकालों का जवाब दीजिए।

  • आपके राज्य और इसके दो पड़ोसी राज्यों में लोकसभा निर्वाचन थेत्रों की संर्या कितनी है?
  • किन-किन राज्यों में लोकसभा के 30 से ज्यादा निर्वाचन क्षेत्र हैं ?
  • कुछ राज्यों में निर्वाचन कोत्रों की संर्या ज्यादा क्यों है ?
  • कुछ निर्वाचन क्षेत्र इलाके के हिसाब से पोटे और कुछ बहुत बड़े वयों हैं ?
  • अनुरूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरसित निर्वाचन क्षेत्र पूरे देश में बिखरे हैं या कुछ इलाकों में इनकी संर्या ज्यादा है ?

मतदाता सूची

एक बार जब निर्वाचन क्षेत्र का फ़ैसला हो जाता है तब यह तय किया जाता है कि कौन वोट दे सकता है, कौन नहीं। इस फ़ैसले को अंतिम दिन तक के किसी के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। लोकतांत्रिक चुनाव में मतदान की योग्यता रखने वालों की सूची चुनाव से काफ़ी पहले तैयार कर ली जाती है और हर किसी को दे दी जाती है। इस सूची को आधिकारिक रूप से मतदाता सूची कहते हैं। आम बोलचाल में इसे वोटर लिस्ट भी कहते हैं।

यह एक महत्त्वपूर्ण कदम है क्योंकि इसका सीधा संबंध लोकतांत्रिक चुनाव की पहली शर्त-अपना प्रतिनिधि चुनने के हर किसी को समान अवसर मिलने से है। पहले हमने सार्वभौम वयस्क मताधिकार के बारे में पढ़ा था। व्यवहार में इसका मतलब है कि हर किसी को मत देने का अधिकार होना चाहिए और हर एक का मत समान मोल का होना चाहिए। जब तक ठोस कारण न हों किसी को मताधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। अलग-अलग नागरिक अनेक मामलों में एक-दूसरे से भिन्न होते हैं: कोई अमीर है, कोई गरीब; कोई बहुत पढ़ालिखा है तो कोई कम या एकदम अशिक्षित; कोई बहुत दयालु है तो कोई नहीं। पर हर कोई इंसान तो है! और, अपनी ज़रूरतों और विचारों के अनुरूप समाज में योगदान करता है। इस सभी को प्रभावित करने वाले निर्णयों में सबकी भागीदारी होनी चाहिए।

हमारे देश में 18 वर्ष और उससे ऊपर की उम्र के सभी नागरिक चुनाव में वोट डाल सकते हैं। नागरिक की जाति, धर्म, लिंग चाहे जो हो उसे मत देने का अधिकार है। अपराधियों और दिमागी असंतुलन वाले कुछ लोगों को वोट देने के अधिकार से वंचित किया जा सकता है लेकिन ऐसा सिर्फ़ बेहद खास स्थितियों में ही होता है। सभी सक्षम मतदाताओं का नाम मतदाता सूची में हो यह व्यवस्था करना सरकार की ज़िम्मेदारी है। चूंकि हर अगले चुनाव में नए लोग मतदाता बनने की उम्र तक आ जाते हैं इस हर चुनाव से पूर्व मतदाता सूची को सुधारा जाता है। जो लोग उस इलाके से बाहर चले जाते हैं या जिनकी मौत हो जाती है उनके नाम इस सूची से काट दिए जाते हैं। हर पाँच वर्ष में मतदाता सूची का पूर्ण नवीनीकरण किया जाता है। ऐसा मतदाता सूची को एकदम ताज़ा रखने के किया जाता है। पिछले कुछ वर्षों से चुनावों में फोटो पहचान-पत्र की नई व्यवस्था लागू की गई है। सरकार ने मतदाता सूची में दर्ज़ सभी लोगों को यह कार्ड देने की कोशिश की है। वोट देने जाते समय मतदाता को यह पहचान-पत्र साथ रखना होता है जिससे किसी एक का वोट कोई दूसरा न डाल दे। पर मतदान के यह कार्ड अभी तक अनिवार्य नहीं हुआ है। वोट देने के मतदाता राशन कार्ड या ड्राइविंग लाइसेंस जैसे पहचान पत्र भी दिखा सकते हैं।

उम्मीदवारों का नामांकन

हमने ऊपर देखा कि लोकतांत्रिक चुनावों में लोगों के पास वास्तविक विकल्प होना चाहिए। यह तभी होगा जब किसी के भी चुनाव लड़ने पर लगभग किसी किस्म की बंदिश न हो। हमारी चुनाव प्रणाली ऐसा ही करती है। जो कोई व्यक्ति मतदाता है वह उम्मीदवार भी हो सकता है। सिर्फ़ एक फ़र्क यह है कि कोई भी व्यक्ति 18 वर्ष की उम्र में ही वोट डालने का अधिकारी हो जाता है जबकि उम्मीदवार बनने की न्यूनतम आयु 25 वर्ष है। उम्मीदवार बनने में भी

अपराधियों वगैरह पर रोक है लेकिन यह पाबंदी भी बहुत ही कम मामलों में लागू होती है। राजनैतिक दल अपने उम्मीदवार मनोनीत करते हैं जिन्हें पार्टी का चुनाव चिह्न और समर्थन मिलता है। पार्टी के मनोनयन को बोलचाल की भाषा में ‘टिकट’ कहते हैं।

चुनाव लड़ने के इच्छुक हर एक उम्मीदवार को एक ‘नामांकन पत्र’ भरना पड़ता है और कुछ रकम जमानत के रूप में जमा करानी पड़ती है। हाल में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर उम्मीदवारों से एक घोषणा-पत्र भरवाने की नई प्रणाली भी शुरू हुई है। अब हर उम्मीदवार को अपने बारे में कुछ ब्यौरे देते हुए वैधानिक घोषणा करनी होती है। प्रत्येक उम्मीदवार को इन मामलों के सारे विवरण देने होते हैं:

  • उम्मीदवार के खिलाफ़ चल रहे गंभीर आपराधिक मामले।

  • उम्मीदवार और उसके परिवार के सदस्यों की संपत्ति और देनदारियों का ब्यौरा।

  • उम्मीदवार की शैक्षिक योग्यता।

इन सूचनाओं को सार्वजनिक किया जाना चाहिए। इससे मतदाताओं को उम्मीदवारों द्वारा खुद के बारे में सूचना के आधार पर अपने फ़ैसले करने का मौका मिलता है।

उम्मीववारों की शैक्षिक योग्यता

जब देश की सभी नोकरियों के किसी-न-किसी किस्म की शैक्षिक योग्यता ज़रूरी है तो विधायक या सांसद महत्वपूर्ण पदों के चुनाव के किसी किस्म की शैक्षिक योग्यता की ज़रूरत क्यों नहीं है:

  • सभी तरह के काम सिर्फ शैकिक योग्यता के आधार पर नहीं होते । जैसे भारतीय क्रिकेट टीम में चुनाव के डिग्री की नहीं अच्छा क्रिकेट खेलने की योग्यता ज़रूरी है। इसी प्रकार विधायक या सांसद की सबसे बड़ी योग्यता यह है कि वह अपने क्षेत्र के लोगों की समस्याओं को समझे, उनकी चिंताओं को समझे और उनके हितों का प्रतिनिधित्व करे। वे यह काम कर रहे हैं या नहीं इसकी परीका उनके लाखों वोटर पाँच साल तक रोज़ लेते हैं।
  • अगर शिक्षा या डिग्री की प्रासंगिकता हो भी तो यह जिम्मा लोगों पर छोड़ देना चाहिए कि वे शैदिक योग्यता को कितना महत्त्व देते हैं।
  • हमारे देश में शैदिक योग्यता की शर्त लगाना एक अन्य कारण से भी लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ़ होगा। इसका मतलब होगा देश के अधिकांश लोगों को चुनाव लड़ने के मौलिक अधिकार से वंचित करना । जैसे यदि उम्मीदवारों के बी.ए., बी.कॉम. या बी.एससी. की स्नातक डिग्री को भी अनिवार्य किया गया तो 90 फीसदी से ज़्यादा नागरिक चुनाव लड़ने के अयोग्य हो जाएँगे।

उम्मीदवारों को अपनी संपत्ति का ब्यौरा देने की ज़रूरत क्यों होती है?

कहाँ पहुँचे? क्या समझे?

भारत की चुनाव प्रणाली की कुछ विशेषताएँ और कुछ सिद्धांत दिए गए हैं। इनके सही जोड़े बनाएँ।

सिद्धांत चुनाव प्रणाली की विशेषता
सार्वभौम वयस्क मताधिकार हर चुनाव क्षेत्र में लगभग बराबर मतदाता
कमजोर वर्गों को प्रतिनिधित्व 18 वर्ष और उससे ऊपर के सभी को मताधिकार
खुली राजनेतिक प्रतिद्वंद्विता सभी को पार्टी बनाने या चुनाव लड़ने की आज़ादी
एक मत, एक मोल अनुसूचित जातियों/जनजातियों के लिए सीटों का आरक्षण

चुनाव अभियान

चुनावों का मुख्य उद्देश्य लोगों को अपनी पसंद के प्रतिनिधियों, सरकार और नीतियों का चुनाव करने का अवसर देना है। इस, कौन प्रतिनिधि बेहतर है, कौन पार्टी अच्छी सरकार देगी या अच्छी नीति कौन-सी है, इस बारे में स्वतंत्र और खुली चर्चा भी बहुत ज़रूरी है। चुनाव अभियान के दौरान यही होता है।

हमारे देश में उम्मीदवारों की अंतिम सूची की घोषणा होने और मतदान की तारीख के बीच आम तौर पर दो सप्ताह का समय चुनाव प्रचार के दिया जाता है। इस अवधि में उम्मीदवार मतदाताओं से संपर्क करते हैं, राजनेता चुनावी सभाओं में भाषण देते हैं और राजनैतिक पार्टियाँ अपने समर्थकों को सक्रिय करती हैं। इसी अवधि में अखबार और टीवी चैनलों पर चुनाव से जुड़ी खबरें और बहसें भी होती हैं। पर असल में चुनाव अभियान सिर्फ़ दो हफ़्ते नहीं चलता। राजनैतिक दल चुनाव होने के महीनों पहले से इसकी तैयारियाँ शुरू कर देते हैं।

चुनाव अभियान के दौरान राजनैतिक पार्टियाँ लोगों का ध्यान कुछ बड़े मुद्दों पर केंद्रित कराना चाहती हैं। वे लोगों को इन मुद्दों पर आकर्षित करती हैं और अपनी पार्टी के पक्ष में वोट देने को कहती हैं। आइए, विभिन्न चुनावों में विभिन्न दलों द्वारा उठाए गए कुछ सफल नारों पर गौर करें। - इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी ने 1971 के लोकसभा चुनावों में गरीबी हटाओ का नारा दिया था। पार्टी ने वायदा किया कि वह सरकार की सारी नीतियों में बदलाव करके सबसे पहले देश से गरीबी हटाएगी।

  • 1977 में हुए लोकसभा चुनावों में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जनता पार्टी ने नारा दिया लोकतंत्र बचाओ। पार्टी ने आपात्काल के दौरान हुई ज़्यादतियों को समाप्त करने और नागरिक आज़ादी को बहाल करने का वायदा किया।

  • वामपंथी दलों ने 1977 में हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में ज़मीन-जोतने वाले को का नारा दिया था।

  • 1983 के आंध्र प्रदेश के विधानसभा चुनावों में तेलुगु देशम पार्टी के नेता एन.टी. रामाराव ने तेलुगु स्वाभिमान का नारा दिया था।

चुनावों में राजनैतिक दलों और उम्मीदवारों के निर्देश के आदर्श आचार संहिता पर यहाँ एक कार्टून बनाएँ। ${}$
$ \begin{array}{|l|} \hline \qquad \qquad \qquad\\ \qquad \qquad \qquad\\ \qquad \qquad \qquad\\ \qquad \qquad \qquad\\ \hline \end{array} $

लोकतंत्र में राजनैतिक दलों और उम्मीदवारों को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक चुनाव प्रचार करने के आज़ाद छोड़ देना ही सबसे अच्छा होता है। पर सभी दलों को उचित और समान अवसर मिले इसके कई बार कुछ दखल देना ज़रूरी होता है। चुनाव के कानूनों के अनुसार कोई भी

खुद् करें, खुद सीखें
पिप्यले लोकसभा चुनात में आपके चुनात क्षेत्र में चुनात अभियान कैसा चला था ? उम्मीदवारों और पार्टियों ने क्या-कया कहा और क्या-कया किया, इसकी सूची तैयार कीजिए।

उम्मीदवार या पार्टी ये सब काम नहीं कर सकतीं:

  • मतदाता को प्रलोभन देना, घूस देना या धमकी देना।
  • उनसे जाति या धर्म के नाम पर वोट माँगना।
  • चुनाव अभियान में सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल करना।
  • लोकसभा चुनाव में एक निर्वाचन क्षेत्र में 25 लाख या विधानसभा चुनाव में 10 लाख रुपए से ज़्यादा खर्च करना।

अगर वे इनमें से किसी भी मामले में दोषी पाए गए तो चुने जाने के बावजूद उनका चुनाव रद्द घोषित हो सकता है। इन कानूनों के अलावा हमारे देश की सभी राजनैतिक पार्टियों ने चुनाव प्रचार की आदर्श आचार संहिता को भी स्वीकार किया है। इसमें उम्मीदवारों और पार्टियों को यह सब करने की मनाही है:

  • चुनाव प्रचार के किसी धर्मस्थल का उपयोग।
  • सरकारी वाहन, विमान या अधिकारियों का चुनाव में उपयोग।
  • चुनाव की अधिघोषणा हो जाने के बाद मंत्री किसी बड़ी योजना का शिलान्यास, बड़े नीतिगत फ़ैसले या लोगों को सुविधाएँ देने वाले वायदे नहीं कर सकते।

मतदान और मतगणना

चुनाव का आखिरी चरण है मतदाताओं द्वारा वोट देना। इस दिन को आम तौर पर चुनाव का दिन कहते हैं। मतदाता सूची में नाम वाला हर व्यक्ति अपने इलाके में स्थित मतदान केंद्र पर जाता है। यह अस्थायी तौर पर स्थानीय स्कूल या किसी सरकारी इमारत में बना होता है। जब मतदाता मतदान केंद्र में जाता है तो चुनाव अधिकारी उसे पहचानकर उसकी अँगुली पर एक काला निशान लगा देते हैं और उसे वोट डालने की अनुमति देते हैं। सभी उम्मीदवारों के एजेंटों को मतदान केंद्र के अंदर बैठने की इजाज़त होती है जिससे कि वे देख सकें कि चुनाव ठीक ढंग से हो रहा है।

पहले मतदाता एक मतपत्र पर अलग-अलग छपे उम्मीदवारों के नाम और चुनाव चिह्न में से अपनी पसंद के उम्मीदवार के चुनाव चिह्न पर मोहर लगाकर अपनी पसंद जाहिर करते थे। अब मतदान के इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का इस्तेमाल होने लगा है। मशीन के ऊपर उम्मीदवारों

क्या हमारे देश में चुनाव बहुत महँगे हैं?

भारत में चुनाव करवाने पर बहुत ज़्यादा रकम खर्च होती है। जैसे 2014 में लोकसभा चुनावों पर ही सरकार ने करीब ₹ 3,500 करोड़ खर्च किए। हिसाब लगाएँ तो मतदाता सूची में दर्ज़ हर नाम पर ₹ 40 के करीब खर्च हुआ । पार्टियों और उम्मीदवारों ने चुनाव में सरकार से भी ज़्यादा खर्च किया। मोटे अनुमान के अनुसार सरकार, पार्टियों और उम्मीदवारों का कुल खर्च करीब ₹ 30,000 करोड़ हुआ होगा अर्थात् प्रति मतदाता करीब ₹ 500 ।

कुछ लोग कहते हैं कि चुनाव हमारी जनता पर, खासकर गरीब लोगों पर एक बोझ है और मुल्क हर पाँच साल पर चुनाव कराने का बोझ नहीं उठा सकता। आइए, इस खर्च की तुलना कुछ अन्य खर्चों से करें:

  • सन् 2005 में सरकार ने फ्रांस से छह परमाणु पनडुब्बियाँ खरीदने का फ़ैसला किया। प्रत्येक पनडुब्बी की कीमत करीब ₹ 3000 करोड़ है।
  • दिल्ली में सन् 2010 में राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन हुआ । अनुमानतः इस पर ₹ 20,000 करोड़ से भी ज़्यादा खर्च हुए।
    तो क्या चुनावों को महँगा माना जा सकता है? इस विषय पर अपनी राय बनाएँ और कक्षा में चर्चा करें।

गुलबर्गा के चुनाव परिणाम

आइए, एक बार फिर गुलबर्गा के उदाहरण पर गौर करें। सन् 2014 में यहाँ कुल 8 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा था। यहाँ के मतदाताओं की संख्या 17.21 लाख थीं। इनमे से 9.98 लाख लोगों के अपने मताधिकार का प्रयोग किया। कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार मल्लिकार्जुन खड़गे को 5.07 लाख वोट मिले। यह कुल पड़े मतों का 50.82 फीसदी था। लेकिन बाकी किसी भी उम्मीदवार से ज़्यादा वोट पाने के कारण उन्हें गुलबर्गा संसदीय क्षेत्र से सांसद निर्वाचित घोषित किया गया।

गुलबर्गा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र 2014 का चुनाव परिणाम

उम्मीद्वार पार्टी मिले तोट वोटों का प्रतिशत
डी. जी. सागर जनता दल (सेक्यूलर) 15690 1.57
मल्लिकार्जुन खड़गे इंडियन नेशनल काँग्रेस 507193 50.82
दन्नि महादेव बी. बहुजन समाज पार्टी 11428 1.14
रेवूनायक बेलमगि भारतीय जनता पार्टी 432460 43.33
बी.टी. ललिता नायक आम आदमी पार्टी 9074 0.91
एस. एम. शर्मा एसयूसीआई 4943 0.50
शंकर जाधव बीएचपीपी 2877 0.29
रामु निर्दलीय 4085 0.41
नोटा (नन ऑफ द एबव) - 9888 0.99
  • अपना मत डालने वाले मतदाताओं का प्रतिशत कितना था ?
  • क्या चुनात जीतने के यह ज़ाररी है कि किसी त्यक्ति की डाले गए मतों में से आधे से अधिक मत मिलें?

के नाम और उनके चुनाव चिह्न बने होते हैं। निर्दलीय उम्मीदवारों को भी चुनाव अधिकारी चुनाव चिह्न देते हैं। मतदाता को जिस उम्मीदवार को वोट देना होता है उसके चुनाव चिह्न के आगे बने बटन को एक बार दबा भर देना होता है।

मतदान हो जाने के बाद सभी वोटिंग मशीनों को सील बंद करके एक सुरक्षित जगह पर पहुँचा दिया जाता है। फिर एक तय तारोख पर एक चुनाव क्षेत्र की सभी मशीनों को एक साथ खोला जाता है और मतों की गिनती की जाती है। वहाँ सभी दलों के एजेंट रहते हैं जिससे मतगणना का काम निष्पक्ष ढंग से हो सके। किसी चुनाव क्षेत्र में सबसे ज्यादा मत पाने वाले उम्मीदवार को विजयी घोषित किया जाता है। आम चुनाव में अमूमन सभी निर्वाचन क्षेत्रों में मतगणना एक ही तारिख पर होती है। टीवी चैनल, रेडियो और अखबारों के यह बहुत बड़ा अवसर होता है और वे इसकी खबरें पूरे विस्तार से देते हैं। कुछ घंटों की गिनती में ही सारे परिणाम मालूम हो जाते हैं और यह स्पष्ट हो जाता है कि कौन अगली सरकार बनाने जा राह है।

कहाँ पहुँचे? क्या समझे?

इनमें कौन-सा काम आदर्श चुनाव संहिता का उल्लंघन है, कौन-सा नहीं?

  • मतदान की तारीख से पहले मंत्री द्वारा अपने निर्वाचन क्षेत्र के नई रेलगाड़ी को हरी झंडी दिखाकर रवाना करना।
  • एक उम्मीदवार ने वायदा किया कि चुने जाने पर वह अपने निर्वाचन क्षेत्र में नई रेलगाड़ी चलवाएगा।
  • एक उम्मीदवार के समर्थकों द्वारा मतदाताओं को एक मंदिर में ले जाकर उनसे उसी उम्मीदवार को वोट देने की शपथ दिलाना।
  • किसी उम्मीदवार के समर्थकों द्वारा झुग्गी बस्ती में वोट के वायदे लेकर कंबल बाँटना।

3.3 भारत मेंचुनाव क्योलोकतांत्रिक है?

हम चुनाव में गड़बड़ियों और धाँधलियों के बारे में पढ़ते रहते हैं। अखबार और टीवी चैनलों की खबरों में अकसर ऐसी गड़बड़ियों की चर्चा रहती है और आरोप लगाए जाते हैं। अधिकांश खबरों में कुछ इस तरह की गड़बड़ियों की सूचना होती हैं:

  • मतदाता सूची में फर्जी नाम डालने और असली नामों को गायब करने की।
  • शासक दल द्वारा सरकारी सुविधाओं और अधिकारियों के दुरुपयोग की।
  • अमीर उम्मीदवारों और बड़ी पार्टियों द्वारा बड़े पैमाने पर धन खर्च करने की।
  • मतदान के दिन चुनावी धांधली। मतदाताओं को डराना और फ़र्जी मतदान करना।

इनमें से अनेक खबरें सही होती हैं। ऐसी खबरों को पढ़ने या टीवी पर देखते हुए हमें दुख होता है। पर सौभाग्य से ये गड़बड़ियाँ इतने बड़े पैमाने पर नहीं होतीं कि चुनाव के उद्देश्य को ही नकार दें। इस परिप्रेक्ष्य में अगर एक-एक करके सवाल उठाएँ तो यह बात ज़्यादा स्पष्ट हो जाती है। क्या कोई पार्टी बिना जनसमर्थन के सिर्फ़ चुनावी धाँधलियों के सहारे चुनाव जीतकर सत्ता में आ सकती है? यह एक महत्त्वपूर्ण सवाल है। आइए, इस सवाल के विभिन्न पहलुओं पर सावधानी से गौर करें।

स्वतंत्र चुनाव आयोग

चुनाव निष्पक्ष हुए हैं या नहीं इसे जाँचने का एक सरल तरीका है यह देखना कि उनका संचालन कौन करता है। क्या चुनाव कराने वाले लोग सरकार से स्वतंत्र हैं? या फिर सरकार या शासक पार्टी उन पर दबाव और प्रभाव बनाती है? क्या उनके पास स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की शक्ति है? क्या वे इन शक्तियों का वास्तव में प्रयोग करते हैं?

हमारे देश के इन सवालों का जवाब काफी हद तक सकारात्मक है। हमारे देश में चुनाव एक स्वतंत्र और बहुत ताकतवर चुनाव आयोग द्वारा करवाए जाते हैं। इसे न्यायपालिका के समान ही आज़ादी प्राप्त है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति करते हैं। एक बार नियुक्ति हो जाने के बाद निर्वाचन आयुक्त राष्ट्रपति या सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं रहता। अगर शासक पार्टी या सरकार को चुनाव आयोग पसंद न हो तब भी मुख्य निर्वाचन आयुक्त को हटा पाना लगभग असंभव है।

दुनिया के शायद ही किसी चुनाव आयोग को भारत निर्वांन आयोग जितने अधिकार प्राप्त होंगे।

  • निर्वाचन आयोग चुनाव की अधिसूचना जारी करने से लेकर चुनावी नतीजों की घोषणा तक, पूरी चुनाव प्रक्रिया के संचालन के हर पहलू पर निर्णय लेता है।
  • यह आदर्श चुनाव संहिता लागू कराता है और इसका उल्लंघन करने वाले उम्मीदवारों और पार्टियों को सज़ा देता है।
  • चुनाव के दौरान निर्वाचन आयोग सरकार को दिशा-निर्देश मानने का आदेश दे सकता है। इसमें सरकार द्वारा चुनाव जीतने के चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग रोकना या अधिकारियों का तबादला करना भी शामिल है।
  • चुनाव ड्यूटी पर तैनात अधिकारी सरकार के नियंत्रण में न होकर निर्वाचन आयोग के अधीन काम करते हैं।

पिछले करीब पच्चीस वर्षों के दौरान निर्वाचन आयोग ने अपनी सारी शक्तियों का उपयोग भारत निर्वाचन आयोग के बारे में अधिक जानकारी के देखें

चुनाव आयोग के पास इतनी शक्ति क्यों है? क्या यह लोकतंत्र के अच्छा है?

शुरू किया है। साथ ही उसने अपनी शक्तियों में विस्तार भी किया है। अब यह आम बात हो गयी है कि निर्वाचन आयोग सरकार और प्रशासन को उनकी गलतियों के फटकार लगाए। अगर चुनाव अधिकारियों को लगता है कि कुछ मतदान केंद्रों पर या पूरे चुनाव क्षेत्र में मतदान ठीक ढंग से नहीं हुआ है तो वे वहाँ फिर से मतदान का आदेश देते हैं। अकसर शासक दलों को निर्वाचन आयोग के कामकाज से परेशानी होती है लेकिन उन्हें निर्वाचन आयोग के आदेश मानने होते हैं। अगर निर्वाचन आयोग स्वतंत्र और शक्तिशाली नहीं होता तो यह संभव न था।

कहाँ पहुँचे? क्या समझे?

इन सुर्खियों को ध्यान से पढ़िए और पहचानिए कि ख्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के चुनाव आयोग किन शक्तियों का प्रयोग कर रहा है।

चुनाव में लोगों की भागीदारी

चुनावी प्रक्रिया की गुणवत्ता को जाँचने का एक और तरीका यह देखना है कि इसमें लोग उत्साह से भागीदारी करते हैं या नहीं। अगर चुनाव प्रक्रिया स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं होगी तो लोग इसमें भागीदारी करना ज़ारी नहीं रखेंगे। अब इन लेखाचित्रों को पढ़िए और भारतीय चुनाव में लोगों की भागीदारी के बारे में कुछ निष्कर्ष निका।

1 चुनाव में लोगों की भागीदारी का पैमाना आम तौर पर मतदान करने वाले लोगों के आँकड़े को बनाया जाता है। मतदान की योग्यता रखने वाले कितने प्रतिशत लोगों ने असल में मतदान किया यह हिसाब लगाना मुश्किल नहीं है। पिछले पचास वर्षों में यूरोप और उत्तरी अमेरिका के लोकतांत्रिक देशों में मतदान का प्रतिशत गिरा है। भारत में यह या तो स्थिर रहा है या ऊपर गया है।

1 भारत और ब्रिटेन में मतदान का प्रतिशत

2 भारत में अमीर और बड़े लोगों की तुलना में गरीब, निरक्षर और कमज़ोर लोग ज्यादा संख्या में मतदान करते हैं। पश्चिम के लोकतंत्रों में स्थिति इससे उलट है। अमेरिका में गरीब लोग, अफ्रीकी मूल के लोग और हिस्पैनिक लोग अमीर और श्वेत लोगों की तुलना में

2 भारत और अमेरिका में विभिन्न सामाजिक समूहूं में मतदान प्रतिशत की तुलना काफी कम मतदान करते हैं।

स्रोतः भारत के आँकड़े-राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन 2004 और सीएसडीएस। अमेरिकी आँकड़े-केशनल इलेक्शन स्टडी 2004, यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन।

3 भारत में आम लोग चुनावों को बहुत महत्त्व देते हैं। उन्हें लगता है कि चुनाव के ज़रिए वे राजनैतिक दलों पर अपने अनुकूल नीति और कार्यक्रमों के दबाव डाल सकते हैं। उन्हें लगता है कि देश के शासन-संचालन के तरीके में उनके वोट का महत्त्व है।

3 क्या आपको लगता है कि आपके वोट से फ़र्क पड़ता है ?

4 साल-दर-साल चुनाव से संबंधित गतिविधियों में लोगों की सक्रियता बढ़ती जा रही है। 2004 के चुनाव में एक-तिहाई से ज़्यादा मतदाताओं ने चुनाव अभियान वाली गतिविधियों में किसी-न-किसी तरह की भागीदारी की। आधे से ज़्यादा लोगों ने खुद को किसी-न-किसी दल के नज़दीक बताया। प्रत्येक सात मतदाताओं में से एक व्यक्ति किसी-न-किसी राजनैतिक दल का सदस्य था।

4 भारत में चुनाव से संबंधित किसी भी गतिविधि में भाग लेने वालों का प्रतिशत

खुद करें, खुद सीखें

अपने परिवार के जो सदसय मतदाता हैं उनसे पूछें कि उन्होंने पिछले लोकसभा या विधानसभा चुनाव में वोट दिया था या नहीं ? अगर उन्होंने तोट नहीं दिया हो तो उनसे इसका कारण पूछिए। अगर उन्होंने मतदान किया हो तो उनसे पूछिए कि उन्होंने किस पार्टी और किस उम्मीदवार को वोट दिया और क्यों दिया।उनसे यह भी पूछिए कि क्या चुनावी सभा या रैली में शामिल होने जैसी किसी चुनावी गतिविधि में भी उन्होंने हिसा लिया था।

चुनावी नतीजों को स्वीकार करना

चुनाव के स्वतंत्र और निष्पक्ष होने का आखिरी पैमाना उसके नतीजे ही हैं। अगर चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग से न हों तो नतीजे हरदम ताकतवर जमात के पक्ष में ही जाते हैं। ऐसी स्थिति में शासक पार्टी चुनाव हारती ही नहीं है। आम तौर पर हारने वाली पार्टी गड़बड़ ढंग से कराए गए चुनाव के नतीज़ों को स्वीकार नहीं करती। भारत में चुनावी नतीज़े खुद ही काफ़ी कुछ कह देते हैं।

  • भारत में शासक दल राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर पर अकसर चुनाव हारते रहे हैं। बल्कि पिछले पंद्रह वर्षों में भारत में जितने चुनाव हुए हैं उनमें से प्रत्येक तीन में से दो में शासक पार्टियाँ हारी ही हैं।
  • अमेरिका में मौजूदा चुना हुआ प्रतिनिधि शायद ही कभी चुनाव हारता है। भारत में निवर्तमान सांसदों और विधायकों में से आधे चुनाव हार जाते हैं।
  • ‘वोट खरीदने’ में सक्षम पैसे वाले उम्मीदवार हों या आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार, उसका भी चुनाव हारना बहुत आम है।
  • कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो अकसर हारी हुई पार्टी भी चुनाव के नतीजों को जनादेश मानकर स्वीकार कर लेती है।

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की चुनौतियाँ

इन बातों से हम इस सरल से निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भारत में चुनाव बुनियादी रूप से स्वतंत्र और निष्पक्ष हैं। जो पार्टी चुनाव जीतकर सरकार बनाती है उसे लोगों का समर्थन प्राप्त होता ही है। संभव है कि हर निर्वाचन क्षेत्र पर यह बात लागू न होती हो। कुछ उम्मीदवार पैसों के ज़ोर पर या गलत तरीकों से जीते हो सकते हैं पर चुनाव का कुल नतीज़ा अभी भी लोगों की इच्छा को ही बताता है। पिछले पचास वर्षों में हमारे देश में इस सामान्य नियम के थोड़े-बहुत अपवाद हैं। और यही चीज़ भारतीय चुनाव प्रणाली को लोकतांत्रिक बनाती है।

पर जब आप थोड़े ज़्यादा गंभीर मसलों पर गौर करके कुछ सवाल उठाएँगे तो तस्वीर थोड़ी अलग लगेगी। क्या लोग पूरी समझदारी और सारी चीज़ों जानकर फ़ै़ले करते हैं? क्या मतदाताओं के पास सचमुच स्वस्थ विकल्प उपलब्ध होते हैं? क्या चुनाव मैदान सबको बराबरी का अवसर देता है? क्या कोई सामान्य नागरिक चुनाव जीतने की कल्पना भी कर सकता है? इस तरह के सवाल भारतीय चुनाव व्यवस्था की सीमाओं और चुनौतियों की ओर हमारा ध्यान दिलाते हैं। ये कुछ ऐसे ही मुद्दे हैं:

  • ज़्यादा रुपये-पैसे वाले उम्मीदवार और पार्टियाँ गलत तरीके से चुनाव जीत ही जाएँगे यह कहना मुश्किल है पर उनकी स्थिति दूसरों से ज़्यादा मज़बूत रहती है।

कार्टून बूझें

इस कार्टून में एक नेताजी को संवाददाता सम्मेलन से बाहर आते हुए दिखाया गया है और वे भाई-भतीजावाद के पक्ष में बोल रहे हैं। क्या भाईभतीजावाद कुछ राज्यों और पार्टियों तक ही सीमित है?

चुनावी अभियान शीर्षक वाला यह कार्टून लातिनी अमेरिका के संदर्भ में बना था। क्या यह भारत और अन्य लोकतांत्रिक देशों पर भी लागू होता है?

कार्टून बूझें

क्या यह कार्टून वोट के पहले और बाद में मतदाता की सही स्थिति को दिखाता है? क्या किसी लोकतंत्र में ऐसा हमेशा ही होगा? क्या आप कुछ ऐसे उदाहरण सोच सकते हैं जब ऐसा नहीं हुआ हो?

  • देश के कुछ इलाकों में आपराधिक पृष्ठभूमि और संबंधों वाले उम्मीदवार दूसरों को चुनाव मैदान से बाहर करने और बड़ी पार्टियों के टिकट पाने में सफल होने लगे हैं।

  • अलग-अलग पार्टियों में कुछेक परिवारों का ज़ोर है और उनके रिश्तेदार आसानी से टिकट पा जाते हैं।

  • अकसर आम आदमी के चुनाव में कोई ढंग का विकल्प नहीं होता क्योंकि दोनों प्रमुख पार्टियों की नीतियाँ और व्यवहार कमोबेश एक-से होते हैं।

  • बड़ी पार्टियों की तुलना में छोटे दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों को कई तरह की परेशानियाँ उठानी पड़ती हैं।

ये चुनौतियाँ भारत की ही नहीं हैं। कई स्थापित लोकतंत्रों की भी यही स्थिति है। लोकतंत्र में जो लोग आस्था रखते हैं उनके ये चीज़ें गहरी चिंता का विषय हैं। इनमें से कुछ समस्याओं से मुक्ति पाने के चुनाव प्रणाली में ज़रूरी बदलावों की माँग नागरिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों की तरफ़ से होती रही है। क्या आप कुछ चुनाव सुधार सुझा सकते हैं? इन चुनौतियों का सामना करने के एक आम नागरिक क्या कर सकता है?

कहाँ पहुँचे? क्या समझे?

ये भारतीय चुनावों के बारे में कुछ तथ्य हैं। इनमें से प्रत्येक पर टिप्पणी करके यह बताइए कि ये चीज़ें हमारी चुनाव प्रणाली की शक्ति को बढ़ाती हैं या कमज़ोरी को।

  • सोलहवीं लोकसभा में महिला सदस्यों की संख्या 12 फ़ीसदी ही है।
  • चुनाव कब हों इस बारे में अकसर चुनाव आयोग सरकार की नहीं सुनता।
  • सोलहवीं लोकसभा के 440 से अधिक सदस्यों की संपत्ति एक करोड़ से भी अधिक है।
  • चुनाव हारने के बाद एक मुख्यमंत्री ने कहा, ‘मुझे जनादेश मंजूर है।’

चुनावी धांधली: चुनाव में अपने वोट बढ़ाने के उम्मीदवारों और पार्टियों द्वारा की जाने वाली गड़बड़ या फ़रेब। इसमें कुछ ही लोगों द्वारा काफ़ी सारे लोगों के वोट डाल देना; एक ही व्यक्ति द्वारा अलग-अलग लोगों के नाम पर वोट डालना और मतदान-अधिकारियों को डरा- धमकाकर या रिश्वत देकर अपने उम्मीदवार के पक्ष में काम करवाना जैसी बातें शामिल हैं।

निर्वाचन क्षेत्र: एक खास भौगोलिक क्षेत्र के मतदाता जो एक प्रतिनिधि का चुनाव करते हैं।

आचार-संहिता: चुनाव के समय पार्टियों और उम्मीदवारों द्वारा माने जाने वाले कायदे-कानून और दिशा-निर्देश।

प्रश्नावली

1. चुनाव क्यों होते हैं, इस बारे में इनमें से कौन-सा वाक्य ठीक नहीं है?

क. चुनाव लोगों को सरकार के कामकाज का फ़ैसला करने का अवसर देते हैं।
ख. लोग चुनाव में अपनी पसंद के उम्मीदवार का चुनाव करते हैं।
ग. चुनाव लोगों को न्यायपालिका के कामकाज का मूल्यांकन करने का अवसर देते हैं।
घ. लोग चुनाव से अपनी पसंद की नीतियाँ बना सकते हैं।

2. भारत के चुनाव लोकतांत्रिक हैं, यह बताने के इनमें कौन-सा वाक्य सही कारण नहीं देता?

क. भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा मतदाता हैं।
ख. भारत में चुनाव आयोग काफ़ी शक्तिशाली है।
ग. भारत में 18 वर्ष से अधिक उम्र का हर व्यक्ति मतदाता है।
घ. भारत में चुनाव हारने वाली पार्टियाँ जनादेश स्वीकार कर लेती हैं।

3. निम्नलिखित में मेल ढूँढ़ें

$ \begin{array}{ll} \text{क. समय-समय पर मतदाता सूची का नवीनीकरण} & \text{1. समाज के हर तबके का समुचित प्रतिनिधित्व} \\ \text{ आवश्यक है ताकि } & \text{ हो सके।} \\ \text{ख. कुछ निर्वाचन-क्षेत्र अनु.जाति और अनु. } & \text{2. हर एक को अपना प्रतिनिधि चुनने का} \\ \text{जनजाति के आरक्षित हैं ताकि } & \text{ समान अवसर मिले।} \\ \text{ग. प्रत्येक को सिर्फ़ एक वोट डालने का हक है ताकि } & \text{3. हर उम्मीदवार को चुनावों में लड़ने का समान अवसर मिले।} \\ \text{घ. सत्ताधारी दल को सरकारी वाहन के } & \text{4. संभव है कुछ लोग उस जगह से अलग चले गए} \\ \text{इस्तेमाल की अनुमति नहीं क्योंकि} & \text{ हों जहाँ उन्होंने पिछले चुनाव} \\ & \text{ में मतदान किया था।} \\ \end{array} $

4. इस अध्याय में वर्णित चुनाव संबंधी सभी गतिविधियों की सूची बनाएँ और इन्हें चुनाव में सबसे पहले किए जाने वाले काम से लेकर आखिर तक के क्रम में सजाएँ। इनमें से कुछ मामले हैं:

चुनाव घोषणा पत्र जारी करना, वोटों की गिनती, मतदाता सूची बनाना, चुनाव अभियान, चुनाव नतीजों की घोषणा, मतदान, पुनर्मतदान के आदेश, चुनाव प्रक्रिया की घोषणा, नामांकन दाखिल करना।

5. सुरेखा एक राज्य विधानसभा क्षेत्र में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने वाली अधिकारी है। चुनाव के इन चरणों में उसे किन-किन बातों पर ध्यान देना चाहिए?

क. चुनाव प्रचार
ख. मतदान के दिन
ग. मतगणना के दिन

6. नीचे दी गई तालिका बताती है कि अमेरिकी कांग्रेस के चुनावों के विजयी उम्मीदवारों में अमेरिकी समाज के विभिन्न समुदाय के सदस्यों का क्या अनुपात था। ये किस अनुपात में जीते इसकी तुलना अमेरिकी समाज में इन समुदायों की आबादी के अनुपात से कीजिए। इसके आधार पर क्या आप अमेरिकी संसद के चुनाव में भी आरक्षण का सुझाव देंगे? अगर हाँ तो क्यों और किस समुदाय के ? अगर नहीं, तो क्यों?

समुदाय का प्रतिनिधित्व (प्रतिशत में)
अमेरिकी प्रतिनिधि सभा में अमेरिकी समाज में
अश्वेत 8 13
हिस्पैनिक 5 13
श्वेत 86 7

7. क्या हम इस अध्याय में दी गई सूचनाओं के आधार पर निम्नलिखित निष्कर्ष निकाल सकते हैं? इनमें से सभी पर अपनी राय के पक्ष में दो तथ्य प्रस्तुत कीजिए।

क. भारत के चुनाव आयोग को देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करा सकने लायक पर्याप्त अधिकार नहीं हैं।
ख. हमारे देश के चुनाव में लोगों की जबर्दस्त भागीदारी होती है।
ग. सत्ताधारी पार्टी के चुनाव जीतना बहुत आसान होता है।
घ. अपने चुनावों को पूरी तरह से निष्पक्ष और स्वतंत्र बनाने के कई कदम उठाने ज़रूरी हैं।

8. चिनप्पा को दहेज के अपनी पत्नी को परेशान करने के ज़ुर्म में सज़ा मिली थी। सतबीर को छुआछूत मानने का दोषी माना गया था। दोनों को अदालत ने चुनाव लड़ने की इजाज़त नहीं दी। क्या यह फ़ैसला लोकतांत्रिक चुनावों के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ़ जाता है? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिए।

9. यहाँ दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में चुनावी गड़बड़ियों की कुछ रिपोर्टें दी गई हैं। क्या ये देश अपने यहाँ के चुनावों में सुधार के भारत से कुछ बातें सीख सकते हैं? प्रत्येक मामले में आप क्या सुझाव देंगे?

क. नाइजीरिया के एक चुनाव में मतगणना अधिकारी ने जान-बूझकर एक उम्मीदवार को मिले वोटों की संख्या बढ़ा दी और उसे जीता हुआ घोषित कर दिया। बाद में अदालत ने पाया कि दूसरे उम्मीदवार को मिले पाँच लाख वोटों को उस उम्मीदवार के पक्ष में दर्ज कर लिया गया था।
ख. फिजी में चुनाव से ठीक पहले एक परचा बाँटा गया जिसमें धमकी दी गई थी कि अगर पूर्व प्रधानमंत्री महेंद्र चौधरी के पक्ष में वोट दिया गया तो खून-खराबा हो जाएगा। यह धमकी भारतीय मूल के मतदाताओं को दी गई थी।
ग. अमेरिका के हर प्रांत में मतदान, मतगणना और चुनाव संचालन की अपनी-अपनी प्रणालियाँ हैं। सन् 2000 के चुनाव में फ्लोरिडा प्रांत के अधिकारियों ने जॉर्ज बुश के पक्ष में अनेक विवादास्पद फ़ैसले पर उनके फ़ैसले को कोई भी नहीं बदल सका।

10. भारत में चुनावी गड़बड़ियों से संबधित कुछ रिपोरोंें यहाँ दी गई हैं। प्रत्येक मामले में समस्या क१ पहचान कीजिए। इन्हें दूर करने के क्या किया जा सकता है?

क. चुनाव की घोषणा होते ही मंत्री महोदय ने बंद पड़ी चीनी मिल को दोबारा खोलने के वित्तीय सहायता देने की घोषणा की।
ख. विपक्षी दलों का आरोप था कि दूरदर्शन और आकाशवाणी पर उनके बयानों और चुनाव अभियान को उचित जगह नहीं मिली।
ग. चुनाव आयोग की जाँच से एक राज्य की मतदाता सूची में 20 लाख फर्ज़ी मतदाताओं के नाम मिले।
घ. एक राजनैतिक दल के गुंडे बंदूकों के साथ घूम रहे थे, दूसरी पार्टियों के लोगों को मतदान में भाग लेने से रोक रहे थे और दूसरी पार्टी की चुनावी सभाओं पर हमले कर रहे थे।

11. जब यह अध्याय पढ़ाया जा रहा था तो रमेश कक्षा में नहीं आ पाया था। अगले दिन कक्षा में आने के बाद उसने अपने पिताजी से सुनी बातों को दोहराया। क्या आप रमेश को बता सकते हैं कि उसके इन बयानों में क्या गड़बड़ी है?

क. औरतें उसी तरह वोट देती हैं जैसा पुरुष उनसे कहते हैं इस उनको मताधिकार देने का कोई मतलब नहीं है।
ख. पार्टी-पॉलिटिक्स से समाज में तनाव पैदा होता है। चुनाव में सबकी सहमति वाला फ़ैसला होना चाहिए, प्रतिद्वांद्विता नहीं होनी चाहिए।
ग. सिर्फ स्नातकों को ही चुनाव लड़ने की इजाज़त होनी चाहिए।

आइए, अखबार पढ़े

राज्य विधानसभाओं के चुनाव अब किसी-न-किसी राज्य में हर वर्ष होते ही रहते हैं। तुम्हारी पढ़ाई के इस वर्ष में जिस राज्य में चुनाव हो रहे हैं उससे संबंधित सूचनाएँ इकट्ठा करो। सूचनाएँ जमा करते हुए उन्हें तीन हिस्सों में बाँटते चलो।

  • चुनाव के पहले क्या-क्या मुख्य घटनाएँ हुईं-राजनैतिक दलों का मुख्य एजेंडा, लोगों की मांगों के बारे में सूचनाएँ, चुनाव आयोग की भूमिका।
  • मतदान और मतगणना के दिन क्या मुख्य घटनाएँ थीं-चुनाव में भाग लेने वालों का प्रतिशत क्या था, क्या चुनावी गड़बड़ी भी हुई, क्या पुर्मतदान हुए, किस तरह की भविष्यवाणियाँ की गई थीं।
  • चुनाव के बाद क्या हुआ-चुनाव जीतने या हारने वाली पार्टियों ने क्या दावे किए, कौन पार्टी सफ़ल हुई, मुख्यमंत्री का चुनाव किस प्रकार हुआ।

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