अध्याय 08 कानून और सामाजिक न्याय
क्या आपको कक्षा 7 का ‘बाज़ार में एक कमीज़’ अध्याय याद है? वहाँ हमने देखा था कि बाज़ारों की भृंखला किस तरह कपास उत्पादकों को सुपर बाज़ार में कमीज़ खरीदने वाले ग्राहक से जोड़ देती है। इस शृंखला में हर मोड़ पर क्रय-विक्रय चल रहा था।
कपास पैदा करने वाला छोटा किसान, ईरोड के बुनकर या कपड़ा निर्यात कारखाने के मज़दूर कमीज़ के उत्पादन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल बहुत सारे लोग बाज़ार में शोषण का शिकार होते हैं। उनके साथ उचित बर्ताव नहीं होता। बाज़ार में हर जगह लोगों के शोषण की संभावना बनी रहती है, चाहे वे मज़दूर हों, उपभोक्ता हों या उत्पादक हों।
लोगों को इस तरह के शोषण से बचाने के सरकार कुछ कानून बनाती है। इन कानूनों के ज़रिए इस बात की कोशिश की जाती है कि बाजार में अनुचित तौर-तरीकों पर अंकुश लगाया जाए।
आइए बाज़ार की एक आम स्थिति को देखें जिसमें कानून बहुत मायने रखता है। मसला मज़दूरों के मेहनताना का है। निजी कंपनियाँ, ठेकेदार, कारोबारी लोग आमतौर पर ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने की कोशिश करते हैं। मुनाफ़े की चाह में कई बार वे मज़दूरों को उनका हक नहीं देते और कई बार तो उनका मेहनताना तक नहीं देते। मज़दूरों को उनका मेहनताना न देना कानून की नज़र में गैर-कानूनी या गलत है। मज़दूरों को मेहनताना कम न मिले या उनको वाजिब मेहनताना मिले, इस बात को सुनिश्चित करने के न्यूनतम वेतन का भी एक कानून बनाया गया है। इस कानून के तहत किसी भी मज़दूर को न्यूनतम वेतन से कम मज़दूरी नहीं दी जा सकती। न्यूनतम वेतन में हर कुछ साल में बढ़ोतरी कर दी जाती है।
जिस तरह मज़दूरों को सुरक्षा प्रदान करने के न्यूनतम वेतन का कानून बनाया गया है उसी तरह बाज़ार में उत्पादकों और उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने के भी कानून बनाए गए हैं। इन कानूनों के ज़रिए मज़दूर, उपभोक्ता और उत्पादक तीनों के संबंधों को इस तरह संचालित किया जाता है कि उनमें से किसी का शोषण न हो।
न्यूनतम वेतन के कानून की ज़रूरत क्यों पड़ती है?
पता लगाएँ-
(क) आपके राज्य में निर्माण मज़दूरों के तय न्यूनतम वेतन क्या है?
( ख ) क्या आपको निर्माण मज़दूरों के तय न्यूनतम वेतन सही, कम या ज़्यादा लगता है?
( ग ) न्यूनतम वेतन कौन तय करता है?
अहमदाबाद के एक कपड़ा मिल में काम करते मज़दूर। बिजली से चलने वाले करघों के साथ बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण 1980 और 1990 के दशकों में ज़्यादातर कपड़ा मिल बंद हो गए थे। पावरलूम बिजली से चलने वाले करघों को कहते हैं। यह 4-6 करघों की छोटी इकाई है। इन करघों के मालिक खुद उन पर काम करते हैं और परिवार के लोगों के साथ बाहर के श्रमिकों को भी काम में लगाते हैं। यह जानी हुई बात है कि बिजली से चलने वाले करघों में कार्यस्थितियाँ बहुत खराब होती हैं।
तालिका संख्या 1 में विभिन्न पक्षों की सुरक्षा से संबंधित कुछ महत्त्वपूर्ण कानून दिए गए हैं। उसमें में दिए गए कॉलम (2) और (3) में बताया गया है कि ये कानून क्यों और किसके ज़रूरी हैं। कक्षा में चर्चा के आधार पर इस तालिका के खाली खानों को भरें।
तालिका 1
कानून | इसकी ज़रूरत क्यों है? | यह कानून किसके हित में है? |
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न्यूनतम मेहनताना कानून। इसमें यह निश्चित किया गया है कि किसी का भी मेहनताना एक निर्धारित न्यूनतम राशि से कम नहीं होना चाहिए। |
बहुत सारे मज़दूरों को उनके मालिक सही मेहनताना नहीं देते। चूँकि मज़दूरों को काम की ज़रूरत होती है, इस वे सौदेबाजी भी नहीं कर पाते और बहुत कम मज़दूरी पर ही काम करने को तैयार हो जाते हैं। |
यह कानून सारे मज़दूरों, खासतौर से खेत मज़़ूरों, निर्माण मज़दूरों, फैक्ट्री मज़दूरों, घरेलू नौकरों आदि के हितों की रक्षा के बनाया गया है। |
कार्यस्थल पर पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था का इंतज़ाम करने वाले कानून। उदाहरण के , चेतावनी अलार्म, आपातकालीन द्वार आदि सही ढंग से काम कर रहे हों। |
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चीज़ों की गुणवत्ता निर्धारित मानकों के अनुरूप होनी चाहिए यह बताने वाले कानून। उदाहरण के , विद्युत उपकरण सुरक्षा मानकों के अनुरूप होने चाहिए। |
विद्युत उपकरणों, भोजन, दवाई आदि को खराब गुणवत्ता के कारण उपभोक्ताओं का जीवन खतरे में पड़ सकता है। |
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ज़रूरी चीज़ों जैसे चीनी, मिट्टी का तेल, अनाज आदि की कीमतों को नियंत्रण में रखने वाले कानून। |
ऐसे गरीबों के हितों की रक्षा के जो कि इन चीज़ों की भारी कीमत वहन नहीं कर सकते। |
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ऐसे कानून जो फैक्ट्रियों को हवा या पानी में प्रदूषण फैलाने से रोकते हैं। |
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कार्यस्थल पर बाल मज़दूरी को रोकने वाले कानून। |
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मज़दूर यूनियन/संगठन बनाने से संबंधित कानून |
यूनियनों में संगठित होकर मज़दूर अपनी संयुक्त ताकत के सहारे सही वेतन और बेहतर कार्यस्थितियों के आवाज उठा सकते हैं। |
कानून बना देना ही काफी नहीं होता। सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होता है कि कानूनों को लागू किया जाए। इसका मतलब यह है कि कानून को लागू किया जाना बहुत ज़रूरी होता है। जब कोई कानून ताकतवर लोगों से कमज़ोर लोगों की रक्षा के बनाया जाता है तो उसको लागू करना और भी महत्त्वपूर्ण बन जाता है। उदाहरण के , प्रत्येक मज़दूर को सही वेतन मिले, यह सुनिश्चित करने के सरकार को कार्यस्थलों का नियमित रूप से निरीक्षण करना चाहिए और अगर कोई कानून का उल्लंघन करता है तो उसको सज़ा देनी चाहिए। अगर मज़दूर गरीब या शक्तिहीन है तो आमदनी गँवाने या बदले की कार्रवाई के डर से वह कम वेतन पर भी काम करने को तैयार हो जाता है। मालिक भी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं। वे अपनी ताकत का इस्तेमाल करते हैं ताकि मज़दूरों से कम पैसे में काम कराया जा सके। ऐसी सूरत में यह बहुत ज़रूरी होता है कि संबंधित कानूनों को अच्छी तरह लागू किया जाए।
इन कानूनों को बनाने, लागू करने और कायम रखने के सरकार व्यक्तियों या निजी कंपनियों की गतिविधियों को नियंत्रित कर सकती है ताकि सामाजिक न्याय सुनिश्चित किया जा सके। इनमें से बहुत सारे कानूनों का जन्म भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों से हुआ है। उदाहरण के , शोषण से मुक्ति के अधिकार का अर्थ है कि किसी को भी कम मेहनताना पर काम करने या बंधुआ मज़दूर के तौर पर काम करने के मजबूर नहीं किया जा सकता। संविधान में यह भी कहा गया है कि 14 साल से कम उम्र के किसी भी बच्चे को किसी कारखाने या खदान या किसी अन्य खतरनाक व्यवसाय में काम पर नहीं रखा जाएगा।
व्यवहार में ये कानून किस तरह सामने आते हैं? ये कानून सामाजिक न्याय की चिंताओं को किस हद तक संबोधित करते हैं? इस अध्याय में हम ऐसे ही कुछ सवालों की पड़ताल करेंगे।
सन् 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में 5 से 14 साल की उम्र के 40 लाख से ज़्यादा बच्चे विभिन्न व्यवसायों में नौकरी करते हैं। इनमें से बहुत सारे बच्चे खतरनाक व्यवसायों में हैं। 2016 में संसद ने बाल श्रम (प्रतिषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 में यह संशोधन किया है कि 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों के सभी व्यवसायों में तथा किशोरों (14-18 वर्ष) के जोखिमकारी व्यवसायों और प्रक्रियाओं में नियोजन करने पर प्रतिबंध है। बच्चों या किशोरों के नियोजन को अब एक संज्ञेय अपराध बना दिया गया है। 2017 में, एक ऑनलाइन पोर्टल, https://pencil.gov.in, प्लेटफ़ॉर्म फ़ॉर इफ़ेक्टिव इनफ़ोर्समेंट फ़ॉर नो चाइल्ड लेबर (पेंसिल) प्रारंभ हुआ है। यह पोर्टल शिकायतें दर्ज कराने, चाइल्ड ट्रेकिंग तथा राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना (एनसीएलपी) के कार्यान्वयन एवं मॉनीटरिंग के है।
भोपाल गैस त्रासदी
24 साल पहले भोपाल में दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक त्रासदी हुई भोपाल में यूनियन कार्बाइड नामक अमेरिकी कंपनी का कारखाना था जिसमें कीटनाशक बनाए जाते थे। 2 दिसंबर 1984 को रात के 2 बजे यूनियन कार्बाइड के इसी संयंत्र से मिथाइल आइसासाइनाइड (मिक) गैस रिसने लगी। यह बेहद जहरीली गैस होती है…।
इस दुर्धटना की चपेट में आने वाली अज़ीज़ा सुल्तान : “तकरीबन 12.30 बजे मुझे अपने बच्चे की तेज्ञ खाँसी की आवाज सुनाई दी। कमरे में हल्की सी रोशनी थी। मैंने देखा कि पूरा कमरा सफ़ेद धुँए से भरा हुआ था। मुझे लोगों की चीखने की आवाजेंे सुनाई दीं। सब कह रहे थे, ‘भागो, भागो’। इसके बाद मुझे भी खाँसी आने लगी। लगता था जैसे मैं आग में साँस ले रही हूँ। आँखें बुरी तरह जलने लगीं।
तीन दिन के भीतर 8,000 से ज्यादा लोग मौत के मुँह में चले गए। लाखों लोग गँभीर रूप से प्रभावित हुए।
ज़हरीली गैस के संपर्क में आने वाले ज़्यादातर लोग गरीब कामकाजी परिवारों के लोग थे। उनमें से लगभग 50,000 लोग आज भी इतने बीमार हैं कि कुछ काम नहीं कर सकते। जो लोग इस गैस के असर में आने के बावजूद जिंदा रह गए उनमें से बहुत सारे लोग गंभीर श्वास विकारों, आँख की बीमारियों और अन्य समस्याओं से पीड़ित हैं। बच्चों में अजीबो-गरीब विकृतियाँ पैदा हो रही हैं। इस चित्र में दिखाई दे रही लड़की इस बात का उदाहरण है।
यह तबाही कोई दुर्घटना नहीं थी। यूनियन कार्बाइड ने पैसा बचाने के सुरक्षा उपायों को जानबूझकर नज़रअंदाज़ किया था। 2 दिसंबर की त्रासदी से बहुत पहले भी कारखाने में गैस का रिसाव हो चुका था। इन घटनाओं में एक मज़दूर की मौत हुई थी जबकि बहुत सारे घायल हुए थे।
यूनियन कार्बाइड कर्मचारी यूनियन के सदस्यों का आंदोलन सबूतों से पूरी तरह साफ़ था कि इस महाविनाश के यूनियन कार्बाइड ही दोषी है, लेकिन कंपनी ने अपनी गलती मानने से इनकार कर दिया।
इसके बाद शुरू हुई कानूनी लड़ाई में पीड़ितों की ओर से सरकार ने यूनियन कार्बाइड के खिलाफ़ दीवानी मुकदमा दायर कर दिया। 1985 में सरकार ने 3 अरब डॉलर का मुआवजा माँगा था, लेकिन 1989 में केवल 47 करोड़ डॉलर के मुआवजे पर अपनी सहमति दे दी। इस त्रासदी से जीवित बच निकलने वाले लोगों ने इस फ़ैसले के खिलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की, मगर सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस फ़ैसले में कोई बदलाव नहीं किया।
यूनियन कार्बाइड ने कारखाना तो बंद कर दिया, लेकिन भारी मात्रा में विषेले रसायन वहीं छोड़ दिए। ये रसायन रिस-रिस कर ज्रमीन में जा रहे हैं जिससे वहाँ का पानी दूषित हो रहा है। अब यह संयंत्र डाओ कैमिकल नामक कंपनी के कब्जे़ में है जो इसकी साफ़-सफ़ाई का जिम्मा उठाने को तैयार नहीं है।
24 साल बाद भी लोग न्याय के संघर्ष कर रहे हैं। वे पीने के साफ पानी, स्वास्थ्य सुविधाओं और यूनियन कार्बाइड के जहर से ग्रस्त लोगों के नौकरियों की माँग कर रहे हैं। उन्होंने यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन एंडरसन को सज़ा दिलाने के भी आंदोलन चलाया है।
यूनियन कार्बाइड संयंत्र के इर्द-गिर्द बिखरे पड़े रसायनों के बोरे
एक मज़दूर की कीमत क्या होती है?
अगर आप भोपाल के महाविनाश की वजहों को समझना चाहते हैं तो सबसे पहले यह जानना पड़ेगा कि यूनियन कार्बाइड ने भारत में ही अपना कारखाना क्यों खोला।
विदेशी कंपनियों के भारत आने का एक कारण यहाँ का सस्ता श्रम है। अगर ये कंपनियाँ अमेरिका या किसी और विकसित देश में काम करें तो उन्हें भारत जैसे गरीब देशों के मज़दूरों के मुकाबले वहाँ के मज़दूरों को ज्यादा वेतन देना पडेगा। भारत में न केवल वे कम कीमत पर काम करवा सकती हैं, बल्कि यहाँ के मज़दूर ज़्यादा घंटों तक भी काम कर सकते हैं। यहाँ मज़दूरों के आवास जैसी दूसरी चीज़ों पर भी खर्चे की ज़्यादा ज़रूरत नहीं होती। इस तरह ये कंपनियाँ यहाँ कम लागत पर ज़्यादा मुनाफ़ा कमा सकती हैं।
लागत में कटौती के तरीके इससे खतरनाक भी हो सकते हैं। लागत में कमी लाने के सुरक्षा उपायों की अकसर अनदेखी की जाती है। यूनियन कार्बाइड के कारखाने में एक भी सुरक्षा उपकरण या तो सही ढंग से काम नहीं कर रहा था या उनकी संख्या कम थी। 1980 से 1984 के बीच मिक संयंत्र के कामगारों के दल की संख्या 12 से घटाकर 6 की जा चुकी थी। मज़दूरों के सुरक्षा प्रशिक्षण की अवधि तो 6 महीने से घटा कर केवल 15 दिन कर दी गई थी! मिक कारखाने के रात की पाली के मज़दूर का पद ही खत्म कर दिया गया था।
निर्माण स्थलों पर दुर्घटनाएँ आम हैं। इसके बावजूद सुक्षा उपकरणों और अन्य सावधानियों को अकसर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।
यूनियन कार्बाइड के भोपाल और अमेरिकी संयंत्रों में सुरक्षा व्यवस्था में फ़र्क जानने के नीचे पढ़ें-
“पश्चिम वर्जीनिया (अमेरिका) में कंप्यूटरीकृत चेतावनी और निगरानी व्यवस्था मौजूद थी। भोपाल के यूनियन कार्बाइड कारखाने में गैस के रिसाव के केवल मज़दूरों के अंदाज़े के सहारे काम चलाया जाता था। पश्चिम वर्जीनिया में खतरा पैदा होने पर लोगों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाने की व्यवस्था मौजूद थी, जबकि भोपाल में ऐसा कुछ नहीं था।”
अलग-अलग देशों के बीच सुरक्षा मानकों में इतने भारी फ़र्क क्यों हैं? और दुर्घटना हो जाने के बाद पीड़ितों को इतना मामूली मुआवज़ा क्यों दिया जा रहा है?
इस बात का जवाब यह है कि भारतीय मज़दूर का मोल अभी भी ज़्यादा नहीं माना जाता। एक मज़दूर जाता है तो फ़ौरन उसकी जगह
दूसरा मिल सकता है। हमारे यहाँ बेरोज़गारी इतनी ज़्यादा है कि थोड़ी सी तनख्वाह के बदले न जाने कितने लोग असुरक्षित स्थितियों में भी काम करने को तैयार हो जाते हैं। मज़दूरों की इस कमज़ोरी का फायदा उठाकर मालिक कार्यस्थल पर सुरक्षा की ज़िम्मेदारी से बच जाते हैं। इस तरह भोपाल गैस त्रासदी के इतने सालों बाद भी मालिकों के बर्बर रवैये के कारण निर्माण स्थलों, खदानों या कारखानों में दुर्घटना की खबरें हर रोज़ आती रहती हैं।
सुरक्षा कानूनों का क्रियान्वयन
कानून बनाने और लागू करने वाली संस्था के नाते यह सुनिश्चित करना सरकार की ज़िम्मेदारी है कि सुरक्षा कानूनों को सही ढंग से लागू किया जाए। सरकार को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि अनुच्छेद 21 में दिए गए जीवन के अधिकार का उल्लंघन न हो। जब यूनियन कार्बाइड संयंत्र में सुरक्षा मानकों की इस तरह खुले आम अवहेलना हो रही थी तो सरकार क्या कर रही थी?
पहली बात, भारत में सुरक्षा कानून ढीले थे। दूसरा, उन कमज़ोर सुरक्षा कानूनों को भी ठीक से लागू नहीं किया जा रहा था।
सरकारी अफ़सर इस कारखाने को खतरनाक कारखानों की श्रेणी में रखने को भी तैयार नहीं थे। इस कारखाने को घनी आबादी वाले इलाके में खोलने पर उन्हें कोई ऐतराज नहीं किया। जब भोपाल के कुछ नगर निगम अधिकारियों ने इस बात पर उँगली उठाई कि 1978 में मिक उत्पादन कारखाने की स्थापना सुरक्षा मानकों के खिलाफ़ थी तो सरकार का कहना था कि प्रदेश को भोपाल के संयंत्र में लगातार निवेश चाहिए ताकि रोज़गार मिलते रहें। सरकार की राय में यूनियन कार्बाइड से इस बात की माँग करना असंभव था कि वह साफ़-सुथरी तकनीक या ज़्यादा सुरक्षित प्रक्रियाओं को अपनाए। सरकारी निरीक्षक कारखाने में अपनाई जा रही दोषपूर्ण प्रक्रियाओं को बार-बार मंज़ूरी देते रहे। जब कारखाने में बार-बार गैस का रिसाव होने लगा और सबको यह बात समझ में आ चुकी थी कि कहीं कुछ भारी गड़बड़ी चल रही है, तब भी निरीक्षकों के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी।
कानून बनाने और उनको लागू करने वाली संस्था के यह रवैया सही नहीं है। लोगों के हितों की रक्षा करने की बजाय सरकार और निजी कंपनी, दोनों ही उनकी सुरक्षा को नज़रअंदाज़ करती जा रही थीं।
यह हरगिज़ अच्छी स्थिति नहीं है। जब भारत में स्थानीय और विदेशी व्यवसायी नए-नए कारखाने खोलते जा रहे हैं तो मज़दूरों के अधिकारों की रक्षा करने वाले सख्त कानूनों और उनके ज़्यादा बेहतर क्रियान्वयन की ज़रूरत और बढ़ गई है।
आपको ऐसा क्यों लगता है कि किसी फैक्ट्री में सुरक्षा कानूनों को लागू करना बहुत महत्त्वपूर्ण होता है?
क्या आप कुछ दूसरी ऐसी स्थितियों का उल्लेख कर सकते हैं जहाँ कानून या नियम तो मौजूद हैं, परंतु उनके क्रियान्वयन में ढिलाई के कारण लोग उनका पालन नहीं करते? (उदाहरण के मोटर गाड़ियों की तेज़ रफ़्तार हेलमेट/सीट-बेल्ट न पहनना और वाहन चलाते समय मोबाइल फोन का उपयोग करना )। कानूनों को लागू करने में क्या समस्साएँ आती हैं? क्या आप क्रियान्वयन में सुधार के कुछ सुझाव दे सकते हैं?
हाल ही में एक ट्रेवल एजेंसी को आदेश दिया गया कि वह अपने कुछ ग्राहकों को 8 लाख रुपए का मुआवज़ा दे। इन सैलानियों को मुआवज़ा इस दिया जा रहा था क्योंकि कंपनी की लापरवाही के कारण वे डिज्नीलैंड देखने और पेरिस में खरीदारी करने से वंचित रह गए थे। तो फिर भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को ज़िदगी भर की पीड़ा और नुकसान के बदले इतना कम मुआवज़ा क्यों मिला?
भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड फ़ैक्टरी के आसपास दूषित इलाकों में स्थित हैंडपंपों को सरकार ने लाल रंग से पुतवा दिया है। फिर भी स्थानीय लोग उनका इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि उनके पास साफ़ पानी का कोई स्रोत नहीं है।
**सतत विकास लक्ष्य 9: उद्योग, नवाचार और बुनियादी सुविधाएँ **
‘स्वच्छ वातावरण एक जनसुविधा है’, क्या आप इस बयान की व्याख्या कर सकते हैं?
हमें नए कानूनों की ज़रूरत क्यों है?
कंपनियाँ और ठेकेदार पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन कैसे कर पाते हैं?
पर्यावरण की रक्षा के नए कानून
1984 में हमारे पास पर्यावरण की रक्षा के बहुत कम कानून थे। इन कानूनों को लागू करने की व्यवस्था तो और भी कमज़ोर थी। पर्यावरण को एक ‘मुफ़्त’ चीज़ माना जाता था। किसी भी उद्योग को हवा-पानी में प्रदूषण छोड़ने की खुली छूट मिली हुई थी। चाहे नदियाँ हों, हवा हो या भूमिगत पानी हो - पर्यावरण दूषित हो रहा था और लोगों की सेहत के साथ खिलवाड़ किया जा रहा था।
ढीले सुरक्षा मानकों से न केवल यूनियन कार्बाइड को फ़ायदा मिला, बल्कि उसे प्रदूषण से निपटने के पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ा। अमेरिका में यही कंपनी इस ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकती थी।
भोपाल त्रासदी ने पर्यावरण के मुद्दों को अगली कतार में ला दिया। कई लाख ऐसे लोग कारखाने से निकली जहरीली गैस का शिकार बन गए थे जो इस कारखाने से किसी भी तरह जुड़े नहीं थे। इससे लोगों को यह अहसास हुआ कि मौज़ूदा कानून चाहे कितने भी कमज़ोर हों, वे केवल मज़दूरों से ही संबंधित हैं। उनमें उन आम लोगों के अधिकारों पर ध्यान नहीं दिया गया है जो औद्योगिक दुर्घटनाओं के कारण घायल होते हैं।
पर्यावरणवादी कार्यकर्ताओं तथा अन्य लोगों के इस दवाब से निपटने के भोपाल गैस त्रासदी के बाद भारत सरकार ने पर्यावरण के बारे में नए कानून बनाए। पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने के प्रदूषण फैलाने वालों को ही ज़िम्मेदार माना जाने लगा। इसके पीछे समझ यह थी कि हमारे पर्यावरण पर अगली पीढ़ियों का भी हक बनता है और उसे केवल औद्योगिक विकास के नष्ट नहीं किया जा सकता।
अदालतों ने स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार को जीवन के मौलिक अधिकार का हिस्सा बताते हुए कई महत्त्वपूर्ण फैसले दिए। सुभाष कुमार बनाम बिहार राज्य (1991) के मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जीवन का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार है और इसमें प्रदूषण-मुक्त हवा और पानी का अधिकार भी शामिल है। यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह प्रदूषण पर अंकुश लगाने, नदियों को साफ़ रखने और जो दोषी हैं उन पर भारी जुर्माना लगाने के कानून और प्रक्रियाएँ तय करे।
जनसुविधा के रूप में पर्यावरण
हाल के वर्षों में न्यायालयों ने पर्यावरण से जुड़े मुद्धों पर कई कड़े आदेश दिए हैं। ऐसे कई आदेशों से लोगों की रोज़ी-रोटी पर भी बुरा असर पड़ा है।
मिसाल के तौर पर, अदालत ने आदेश दिया कि दिल्ली के रिहायशी इलाकों में काम करने वाले उद्योगों को बंद कर दिया जाए या उन्हें शहर से बाहर दूसरे इलाकों में भेज दिया जाए। इनमें से कई कारखाने आसपास के वातावरण को प्रदूषित कर रहे थे। इन कारखानों की गंदगी से यमुना नदी भी प्रदूषित हो रही थी क्योंकि इन कारखानों को नियमों के हिसाब से नहीं चलाया जा रहा था।
अदालत की कार्रवाई से एक समस्या तो हल हो गई, लेकिन एक नई समस्या पैदा भी हो गईं कारखानों के बंद हो जाने से बहुत सारे मज़दूरों के रोज़गार खत्म हो गए। बहुतों को दूर-दराज के इलाकों में जाना पड़ा जहाँ उन कारखानों को दोबारा चालू किया गया था। अब प्रदूषण की समस्या इन नए इलाकों में पैदा हो रही है ये इलाके प्रदूषित होने लगे हैं। मज़्यूरों की सुरक्षा संबंधी स्थितियों का मुद्दा अभी भी वैसा का वैसा है।
भारत में पर्यावरणीय मुद्दों पर हुए ताज़ा अनुसंधानों से यह बात सामने आई है कि मध्य वर्ग के लोग पर्यावरण की चिंता तो करने लगे हैं, लेकिन वे अक्सर गरीबों की पीड़ा को ध्यान में नहीं रखते। इस उनमें से बहुतों को यह तो समझ में आता है कि शहर को सुंदर बनाने के वास्ते बस्तियों को हटाना चाहिए या प्रदूषण फैलाने वाली फैक्ट्रियों को शहर के बाहर ले जाना चाहिए, लेकिन यह समझ में नहीं आता कि इससे बहुत सारे लोगों की रोज़ी-रोटी भी खतरे में पड़ सकती है। जहाँ एक तरफ़ स्वच्छ पर्यावरण के बारे में जागरूकता बढ़ रही है वहीं दूसरी तरफ़ मज़ूरूं की सुर्षा के बारे में लोग ज़्यादा चिंता नहों जता रहे हैं।
अब चुनौती ऐसे समाधान ढूँढ़ने की है जिनमें स्वच्छ वातावरण का लाभ सभी को मिल सके। इसका एक तरीका यह है कि हम कारखानों में ज़्यादा स्वच्छ तकनीकों और प्रक्रियाओं को अपनाने पर ज़ोर दें। इसके सरकार को भी चाहिए कि वह कारखानों को प्रोत्साहन और मदद दे। उसे प्रदूषण फैलाने वालों पर जुर्माना करना होगा। इस तरह मज़दूरों के रोज़गार भी बच जाएँगे और समुदायों व मज़दूरों को सुरक्षित पर्यावरण का अधिकार भी मिल जाएगा।
क्या आपको लगता है कि ऊपर उद्धात मामले में सभी पक्षों को न्याय मिला है?
क्या आपको पर्यावरण की रक्षा के और तरीके दिखाई देते हैं? कक्षा में चर्चा करें।
गाड़ियों से उत्सर्जित धुआँ पर्यावरणीय प्रदूषण का एक बड़ा स्रोत हैं। 1998 के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई फ़ैसलों में यह आदेश दिया कि दिल्ली में डीजल से चलने वाले सभी सार्वजनिक वाहन कम्प्रेस्ड नेचुरल गैस (सी.एन.जी.) ईंधन का इस्तेमाल करें। इन प्रयासों से दिल्ली जैसे शहरों के वायु प्रदूषण में काफ़ी गिरावट आई है। लेकिन सेंटर फ़ॉर साइंस ऐण्ड एनवायरनमेंट (नयी दिल्ली) की एक ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि हवा में विषैले पदार्थों का स्तर काफ़ी ऊँचा है। ये विषैले पदार्थ पेट्रोल की बजाय डीजल से चलने वाली बसोंकारों के कारण पैदा हो रहे हैं।
बंद कारखानों के बाहर परेशान मज़दूर रोज़गार छिन जाने के बाद बहुत सारे मज़ुदूर छोटा-मोटा व्यापार या दिहाड़ी मज़दूरी करने लगते हैं। कुछ मज़ूदूरों को पहले से भी छोटे कारखानों में काम मिलता है जहाँ के हालात पहले से भी ज्यादा शोषण भरे होते हैं और जहाँ कानूनों की स्थिति और भी ज़्यादा कमज़ोर होती है।
विकसित देश अपने विषैले और खतरनाक उद्योगों को विकासशील देशों में ले जा रहे हैं ताकि इन देशों के कमज़ोर कानूनों का फ़ायदा उठा सकें और अपने देशों को सा़़-सुथरा रख सकें। दक्षिण एशियाई देश, खासतौर से भारत, बांगलादेश और पाकिस्तान कोटनाशक, ऐस्बेस्टॉस बनाने वाले या जस्ते व सीसे को संसाधित करने वाले कारखानों को बड़े पैमाने पर अपने यहाँ बुला रहे हैं।
सतत विकास लक्ष्य 8: उचित कार्य और आर्थिक वृद्धि www.in.undp.org
निष्कर्ष
चाहे बाज़ार हो, दफ़्तर हो या कोई कारखाना हो बहुत सारी स्थितियों में लोगों को गलत तौर-तरीकों से बचाने के कानून ज़रूरी होते हैं। निजी कंपनियाँ, ठेकेदार, व्यवसायी आदि ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के चक्कर में गलत हथकंडे भी अपनाने लगते हैं। उदाहरण के तौर पर वे मज़दूरों को कम मेहनताना देते हैं, बच्चों से काम करवाते हैं, काम की स्थितियों पर ध्यान नहीं देते या पर्यावरण का खयाल नहीं रखते और इस तरह आस-पास के लोगों को भी नुकसान पहुँचाते हैं।
ऐसे में सरकार की एक अहम ज़िम्मेदारी यह बनती है कि वह निजी कंपनियों के गलत तौर-तरीकों को रोकने और सामाजिक न्याय प्रदान करने के कानून बनाए, उनको लागू करे और उन पर निगरानी रखे। यानी न सरकार को केवल ‘सही कानून’ बनाने चाहिए, बल्कि उनको लागू भी करना चाहिए। अगर कानून कमज़ोर हों और उनको सही ढंग से लागू न किया जाए तो उनसे भारी नुकसान हो सकता है। भोपाल गैस त्रासदी इस बात का सबूत है।
इस दिशा में सरकार की तो ज़िम्मेदारी बनती ही है, आम लोग भी दवाब डालकर निजी कंपनियों और सरकार दोनों को समाज के हित में काम करने के बाध्य कर सकते हैं। जैसा कि हमने पहले देखा, पर्यावरण एक ऐसा विषय है जहाँ लोगों ने जनहित के दवाब डाला है और न्यायालयों ने भी स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में जीवन का अभिन्न अंग माना है। इस अध्याय में हमने इस बात पर ज़ोर दिया है कि लोगों को इस बात के आवाज़ उठानी चाहिए कि स्वस्थ वातावरण की सुविधा सबको मिले। इसी तरह मज़दूर अधिकारों (यानी काम का अधिकार, सही मेहनताना और मानवोचित कार्यस्थितियों का अधिकार) के क्षेत्र में भी अभी हालात काफ़ी खराब हैं। लोगों को इस बात के आवाज़ उठानी चाहिए कि कामगारों के अधिकारों की रक्षा के सख्त कानून बनाए जाएँ ताकि सबको जीवन का अधिकार मिल सके।
अभ्यास
1. दो मज़दूरों से बात करके पता लगाएँ कि उन्हें कानून द्वारा तय किया गया न्यूनतम वेतन मिल रहा है या नहीं। इसके आप निर्माण मज़दूरों, खेत मज़दूरों, फ़ैक्ट्री मज़दूरों या किसी दुकान पर काम करने वाले मज़दूरों से बात कर सकते हैं।
2. विदेशी कंपनियों को भारत में अपने कारखाने खोलने से क्या फ़ायदा है?
3. क्या आपको लगता है कि भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को सामाजिक न्याय मिला है? चर्चा करें।
4. जब हम कानूनों को लागू करने की बात करते हैं तो इसका क्या मतलब होता है? कानूनों को लागू करने की जि़म्मेदारी किसकी है? कानूनों को लागू करना इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है?
5. कानून के ज़रिए बाजारों को सही ढंग से काम करने के किस तरह प्रेरित किया जा सकता है? अपने जवाब के साथ दो उदाहरण दें।
6. मान लीजिए कि आप एक रासायनिक फैक्ट्री में काम करने वाले मज़दूर हैं। सरकार ने कंपनी को आदेश दिया है कि वह वर्तमान जगह से 100 किलोमीटर दूर किसी दूसरे स्थान पर अपना कारखाना चलाए। इससे आपकी ज़िंदगी पर क्या असर पड़ेगा? अपनी राय पूरी कक्षा के सामने पढ़कर सुनाएँ।
7. इस इकाई में आपने सरकार की विभिन्न भूमिकाओं के बारे में पढ़ा है। इनके बारे में एक अनुच्छेद लिखें।
8. आपके इलाके में पर्यावरण को दूषित करने वाले स्रोत कौन से हैं? (क) हवा; (ख) पानी और (ग) मिट्टी में प्रदूषण के संबंध में चर्चा करें। प्रदूषण को रोकने के किस तरह के कदम उठाए जा रहे हैं? क्या आप कोई और उपाय सुझा सकते हैं?
9. पहले पर्यावरण को किस तरह देखा जाता था? क्या अब सोच में कोई बदलाव आया है? चर्चा करें।
बच्चों पर इस तरह बोझ डालना कितनी बुरी बात है। देखो, मुझे
अपने बेटे की मदद के इस लड़के को नौकरी पर रखना पड़ा!
10. प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर. के. लक्ष्मण इस कार्टून के ज़रिए क्या कहना चाह रहे हैं? इसका 2016 में बनाए गए उस कानून से क्या संबंध है जिसको पृष्ठ 105 पर आपने पढ़ा था।
11. आपने भोपाल गैस त्रासदी और उसके बारे में चल रहे संघर्ष के बारे में पढ़ा है। दुनिया भर के विद्यार्थी न्याय के इस संघर्ष में अपना योगदान दे रहे हैं। वे जुलूस-प्रदर्शनों से लेकर जागरूकता अभियान तक चला रहे हैं। उनकी गतिविधियों के बारे में आप www.studentsforbhopal.com पर पढ़ सकते हैं। इस वेबसाइट पर बहुत सारे चित्र, पोस्टर, वृतचित्र और पीड़ितों के बयान आदि उपलब्ध हैं।
इस वेबसाइट तथा अन्य संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए अपनी कक्षा में दिखाने के भोपाल गैस त्रासदी पर एक दीवार पत्रिका (वॉल-पेपर)/प्रदर्शनी तैयार करें। पूरे स्कूल को अपनी रचनाएँ देखने और उन पर चर्चा करने के आमंत्रित करें।
उपभोक्ताः जो व्यक्ति बाज़ार में बेचने के नहीं बल्कि निजी इस्तेमाल के कोई चीज़ खरीदता है उसे उपभोक्ता कहा जाता है।
उत्पादकः ऐसा व्यक्ति या संस्थान जो बाज़ार में बेचने के चीज़ें बनाता है। कई बार उत्पादक अपने उत्पादन का कुछ हिस्सा निजी इस्तेमाल के भी रख लेते हैं, उदाहरण के , किसान।
निवेशः भविष्य में उत्पादन बढ़ाने/सुधारने के नई मशीनरी या इमारत या प्रशिक्षण पर खर्च होने वाला पैसा।
मज़दूरों की यूनियनः मज़दूरों का संगठन। आमतौर पर मज़दूर यूनियनें कारखानों और दफ़्तरों में दिखाई देती हैं लेकिन अन्य किस्म के मज़दूरों की भी यूनियनें हो सकती हैं, जैसे घरेलू नौकरों की यूनियन। यूनियन के नेता अपने सदस्यों की ओर से मालिकों के साथ सौदेबाजी और बातचीत करते हैं। मज़दूर यूनियनें वेतन, श्रम नियमावली, नियुक्ति, बर्खास्तगी और पदोन्नति से संबंधित नियमों, लाभों और कार्यस्थल सुरक्षा आदि मुद्दों पर काम करती हैं।
एक जीवित आदर्श के रूप में संविधान
जीवन का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। संविधान के माध्यम से यह अधिकार देश के सभी नागरिकों को मिला हुआ है। जैसा कि आपने इस किताब में पढ़ा है, आम नागरिकों ने इस अधिकार, यानी संविधान के अनुच्छेद 21 का विभिन्न संदर्भों में इस्तेमाल किया है। नागरिकों के इन प्रयासों से ही यह अधिकार और सार्थक व व्यापक हो गया है। उदाहरण के , आपने पढ़ा कि किस तरह हाकिम शेख ने स्वास्थ्य के अधिकार को जीवन के अधिकार का अभिन्न अंग साबित कर दिया। इसी तरह मुंबई के झुग्गीवासियों की कोशिशों से रोज़गार के अधिकार को जीवन के अधिकार का हिस्सा माना गया। इसी अध्याय में आपने यह भी पढ़ा कि किस तरह न्यायालय ने “प्रदूषण मुक्त पानी एवं हवा” के अधिकार को जीवन के अधिकार का हिस्सा बताया था। इसके अलावा शिक्षा और आवास के अधिकार को भी अदालतों ने जीवन के अधिकार का हिस्सा बताया है।
जीवन के अधिकार की यह विस्तृत व्याख्या आम नागरिकों के प्रयासों का नतीज़ा है। जब भी नागरिकों को ऐसा लगता है कि उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है तो वे अदालत में जाकर न्याय माँगते हैं। जैसा कि आपने इस पुस्तक में कई जगह पढ़ा है, इन्हों मौलिक अधिकारों ने नए कानून बनाने और खास तरह की नीतियों को लागू करने में भी मदद दी है। ये सब कुछ इसी संभव हुआ कि हमारे संविधान में कुछ खास नियम हैं जो भारत के सभी नागरिकों की प्रतिष्ठा और स्वाभिमान की रक्षा करते हैं। मौलिक अधिकारों तथा कानून के शासन से संबंधित विभिन्न प्रावधानों में इस बात की व्याख्या की गई है।
इन उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि हमारा संविधान काफ़ी लचीला भी है। इसी आधार पर संविधान द्वारा दिए गए प्रतिष्ठा और न्याय के विचार में नए सिरे से उभरकर आनेवाले मुद्दों की सूची का भी समावेश किया जाना चाहिए। इस लचीलेपन के कारण संविधान के प्रावधानों की नई व्याख्याएँ की जा सकती हैं। इस आधार पर संविधान को एक जीवन्त दस्तावेज़ माना जा सकता है। स्वास्थ्य का अधिकार या आवास का अधिकार आदि ऐसे मुद्दे हैं जो 1949 में संविधान सभा के सदस्यों द्वारा पेश किए गए संविधान में लिखित तौर पर मौजूद नहीं थे। लेकिन भावना के स्तर पर वे निश्चित रूप से मौजूद थे। इसका मतलब यह है कि संविधान में ऐसे लोकतांत्रिक आदर्श उस समय भी मौजूद थे जिनके ज़रिए लोग राजनीतिक प्रक्रिया का इस्तेमाल करके यह सुनिश्चित कर सकते थे कि आम नागरिकों की ज़िंदगी में ये आदर्श हकीकत का रूप लें।
जैसा कि इस पुस्तक के अध्यायों में चर्चा की गई है, संवैधानिक आदर्शों को यथार्थ रूप देने के काफ़ी कुछ किया जा चुका है। दूसरी ओर, इन्हों अध्यायों में यह भी बताया गया है कि अभी बहुत कुछ होना बाकी है। देश के विभिन्न भागों में जनता द्वारा किए जा रहे विभिन्न संघर्ष बार-बार इस बात को याद दिलाते हैं कि समाज के ज़्यादातर लोगों की ज़िदगी में समानता, प्रतिष्ठा और स्वाभिमान जैसे सवाल अभी भी अधूरे हैं। जैसा कि कक्षा 7 की पुस्तक में आपने पढ़ा था, मीडिया भी इन संघर्षों पर अकसर ध्यान नहीं देता। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि इन आंदोलनों पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए।
इस पुस्तक के विभिन्न अध्यायों में यह समझाने की चेष्टा की गई है कि संविधान में कौन से लोकतांत्रिक आदर्श दिए गए हैं और उनसे लोगों के दैनिक जीवन पर किस तरह असर पड़ता है। इसके पीछे हमारा मकसद आपको ऐसे साधन मुहैया कराना है जिनके सहारे आप अपने आसपास की दुनिया को समझने-बूझने का प्रयास कर सकें और संविधान द्वारा बताए गए रास्ते पर चलते हुए उसमें हिस्सा ले सकें।
शब्द संकलन
उपभोक्ता: जो व्यक्ति बाजार में बेचने के लिए नहीं बल्कि निजी इस्तेमाल के लिए कोई चीज़ खरीदता है उसे उपभोक्ता कहा जाता है।
उत्पादक: ऐसा व्यक्ति या संस्थान जो बाजार में बेचने के लिए चीजें बनाता है। कई बार उत्पादक अपने उत्पादन का कुछ हिस्सा निजी इस्तेमाल के लिए भी रख लेते हैं, उदाहरण के लिए, किसान।
निवेश: भविष्य में उत्पादन बढ़ाने/सुधारने वारने वाला पैसा। के लिए नई मशीनरी या इमारत या प्रशिक्षण पर खर्च होने
मजदूरों की यूनियनः मजदूरों का संगठन। आमतौर पर मजदूर यूनियनें कारखानों और दफ़्तरों में दिखाई देती हैं लेकिन अन्य किस्म के मजदूरों की भी यूनियनें हो सकती हैं, जैसे घरेलू नौकरों की यूनियन। यूनियन के नेता अपने सदस्यों की ओर से मालिकों के साथ सौदेबाजी और बातचीत करते हैं। मजदूर यूनियनें वेतन, श्रम नियमावली, नियुक्ति, बर्खास्तगी और पदोन्नति से संबंधित नियमों, लाभों और कार्यस्थल सुरक्षा आदि मुद्दों पर काम करती हैं।
एक जीवित आदर्श के रूप में संविधान
जीवन का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। संविधान के माध्यम से यह अधिकार देश के सभी नागरिकों को मिला हुआ है। जैसा कि आपने इस किताब में पढ़ा है, आम नागरिकों ने इस अधिकार, यानी संविधान के अनुच्छेद 21 का विभिन्न संदर्भों में इस्तेमाल किया है। नागरिकों के इन प्रयासों से ही यह अधिकार और सार्थक व व्यापक हो गया है। उदाहरण के लिए, आपने पढ़ा कि किस तरह हाकिम शेख ने स्वास्थ्य के अधिकार को जीवन के अधिकार का अभिन्न अंग साबित कर दिया। इसी तरह मुंबई के झुग्गीवासियों की कोशिशों से रोजगार के अधिकार को जीवन के अधिकार का हिस्सा माना गया। इसी अध्याय में आपने यह भी पढ़ा कि किस तरह न्यायालय ने “प्रदूषण मुक्त पानी एवं हवा” के अधिकार को जीवन के अधिकार का हिस्सा बताया था। इसके अलावा शिक्षा और आवास के अधिकार को भी अदालतों ने जीवन के अधिकार का हिस्सा बताया है।
जीवन के अधिकार की यह विस्तृत व्याख्या आम नागरिकों के प्रयासों का नतीजा है। जब भी नागरिकों को ऐसा लगता है कि उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है तो वे अदालत में जाकर न्याय माँगते हैं। जैसा कि आपने इस पुस्तक में कई जगह पढ़ा है, इन्हीं मौलिक अधिकारों ने नए कानून बनाने और खास तरह की नीतियों को लागू करने में भी मदद दी है। ये सब कुछ इसीलिए संभव हुआ कि हमारे संविधान में कुछ खास नियम हैं जो भारत के सभी नागरिकों की प्रतिष्ठा और स्वाभिमान की रक्षा करते हैं। मौलिक अधिकारों तथा कानून के शासन से संबंधित विभिन्न प्रावधानों में इस बात की व्याख्या की गई है।
इन उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि हमारा संविधान काफ़ी लचीला भी है। इसी आधार पर संविधान द्वारा दिए गए प्रतिष्ठा और न्याय के विचार में नए सिरे से उभरकर आनेवाले मुद्दों की सूची का भी समावेश किया जाना चाहिए। इस लचीलेपन के कारण संविधान के प्रावधानों की नई व्याख्याएँ की जा सकती हैं। इस आधार पर संविधान को एक जीवन्त दस्तावेज़ माना जा सकता है। स्वास्थ्य का अधिकार या आवास का अधिकार आदि ऐसे मुद्दे हैं जो 1949 में संविधान सभा के सदस्यों द्वारा पेश किए गए संविधान में लिखित तौर पर मौजूद नहीं थे। लेकिन भावना के स्तर पर वे निश्चित रूप से मौजूद थे। इसका मतलब यह है कि संविधान में ऐसे लोकतांत्रिक आदर्श उस समय भी मौजूद थे जिनके जरिए लोग राजनीतिक प्रक्रिया का इस्तेमाल करके यह सुनिश्चित कर सकते थे कि आम नागरिकों की जिंदगी में ये आदर्श हकीकत का रूप लें।
जैसा कि इस पुस्तक के अध्यायों में चर्चा की गई है, संवैधानिक आदर्शों को यथार्थ रूप देने के लिए काफ़ी कुछ किया जा चुका है। दूसरी ओर, इन्हीं अध्यायों में यह भी बताया गया है कि अभी बहुत कुछ होना बाकी है। देश के विभिन्न भागों में जनता द्वारा किए जा रहे विभिन्न संघर्ष बार-बार इस बात को याद दिलाते हैं कि समाज के ज्यादातर लोगों की जिंदगी में समानता, प्रतिष्ठा और स्वाभिमान जैसे सवाल अभी भी अधूरे हैं। जैसा कि कक्षा 7 की पुस्तक में आपने पढ़ा था, मीडिया भी इन संघर्षों
पर अकसर ध्यान नहीं देता। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि इन आंदोलनों पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए। इस पुस्तक के विभिन्न अध्यायों में यह समझाने की चेष्टा की गई है कि संविधान में कौन से लोकतांत्रिक आदर्श दिए गए हैं और उनसे लोगों के दैनिक जीवन पर किस तरह असर पड़ता है। इसके पीछे हमारा मकसद आपको ऐसे साधन मुहैया कराना है जिनके सहारे आप अपने आसपास की दुनिया को
समझने-बूझने का प्रयास कर सकें और संविधान द्वारा बताए गए रास्ते पर चलते हुए उसमें हिस्सा ले सकें।