अध्याय 07 जनसुविधाएँ
अमू और कुमार चेन्नई में एक बस से सफ़र कर रहे हैं। शहर के अलग-अलग इलाकों से गुजरते हुए वे जल सुविधाओं को देखते जा रहे हैं…
अन्नानगर
सैदापेट
मडीपाक्कम
मैलापुर
चेन्नई के लोग और पानी
श्री रामगोपाल जैसे आला सरकारी अफ़सर चेन्नई के अन्ना नगर में रहते हैं। भरपूर पानी के छिड़काव के कारण हरे-भरे बाग-बगीचों वाला यह इलाका खासा आकर्षक है। यहाँ के नलों में 24 घंटे पानी रहता है। जब पानी की आपूर्ति कम होती है तो श्री रामगोपाल नगर जल निगम में परिचित एक बड़े अफ़सर से बात करते हैं और फ़ौरन उनके पानी के टैंकर का इंतज़ाम हो जाता है।
शहर के ज़्यादातर इलाकों की तरह मैलापुर में सुत्रमण्यन के अपार्टमेंट में भी पानी को कमी है। यहाँ नगरपालिका दो दिन में एक बार पानी उपलब्ध कराती है। कुछ लोगों की ज़रूरतें निजी बोरवेल से पूरी हो जाती हैं। लेकिन बोरवेल का पानी खारा है। लोग उसे शौचालय और साफ़-सफ़ाई के ही इस्तेमाल करते हैं। दूसरे कामों के टैंकरों का पानी खरीदना पड़ता है। सुब्रमण्यन टैंकरों से पानी खरीदने के हर महीने 500-600 रुपए खर्च करते हैं। पीने के पानी को साफ़ करने के लोगों ने घरों में ही जलशोधन उपकरण लगवाए हुए हैं।
मडीपाक्कम के एक मकान में शिवा पहली मंजिल में किराए पर रहता है। उसे चार दिन में एक बार पानी मिलता है। पानी की कमी के कारण वह अपने परिवार को चेन्नई नहीं ला पा रहा है। पीने के शिवा बाज़ार से पानी की बोतलें खरीदता है।
1. आपने ऊपर उल्लिखित चार स्थितियों को देखा है। अब बताइए कि चेन्नई में पानी की स्थिति कैसी है।
2. उपरोक्त वर्णन में से घरेलू इस्तेमाल के विभिन्न जल स्रोतों को चुनें।
3. आपकी राय में सुब्रमण्यन और पद्मा के अनुभवों में क्या समानता है और क्या अलग है।
4. अपने इलाके में जलापूर्ति की स्थिति का वर्णन करते हुए एक अनुच्छेद लिखें।
5. देश के ज़्यादातर स्थानों पर गर्मियों में पानी बूँद-बूँद क्यों आने लगता है? पता लगाइए।
कक्षा में चर्चा के -
क्या चेन्नई में सभी के पानी का संकट है? क्या आप बता सकते हैं कि अलग-अलग लोगों को अलग-अलग मात्रा में पानी क्यों मिलता है? दो कारण बताएँ।
पद्मा घरेलू नौकरानी है। वह सैदापेट में काम करती है और पास ही एक झुग्गी बस्ती में रहती है। उसकी झुग्गी का किराया 650 रुपए माहवार है। उसकी झुग्गी में न तो शौचालय है और न ही पानी का अन्य स्रोत है। इस तरह की 30 झुग्गियों के कोने में एक ही नल है। इस नल में रोज़ 20 मिनट के एक बोरवेल से पानी आता है। इस दौरान एक परिवार को ज्यादा से ज़्यादा 3 बाल्टियाँ भरने का मौका मिलता है। इसी पानी को लोग नहाने, धोने और पीने के इस्तेमाल करते हैं। गर्मियों में पानी इतना कम हो जाता है कि कई परिवारों को पानी ही नहीं मिल पाता। उन्हें टैंकरों का घंटों इंतज़ार करना पड़ता है।
जीवन के अधिकार के रूप में पानी
जीवन और स्वास्थ्य के पानी आवश्यक है। न केवल यह हमारी दैनिक ज़रूरतों को पूरा करने के आवश्यक है, बल्कि पीने का साफ़ पानी बहुत सारी पानी से होने वाली बीमारियों को भी रोक सकता है। भारत की स्थिति यह है कि जिन देशों में दस्त, पेंचि, हैजा जैसी बीमारियों के सबसे ज़्यादा मामले सामने आते हैं, उनमें उसका स्थान काफ़ी ऊपर आता है। पानी से संबंधित बीमारियों के कारण हर रोज़ 1600 से ज़्यादा भारतीय मौत के मुँह में चले जाते हैं। उनमें से ज़्यादातर पाँच साल से भी कम उम्र के बच्चे होते हैं। अगर लोगों के पास पीने का पानी सहज रूप से उपलब्ध हो तो इन मौतों को रोका जा सकता है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत पानी के अधिकार को जीवन के अधिकार का हिस्सा माना गया है। इसका मतलब यह है कि अमीर-गरीब, हर व्यक्ति का यह अधिकार है कि उसे सस्ती कीमत पर दैनिक ज़रूरतों को पूरा करने के पर्याप्त मात्रा में पानी मिले। कहने का मतलब यह है कि पानी तक सार्वभौमिक पहुँच होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में सबको पानी मिलना चाहिए।
उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय ने कई मुकदमों में यह कहा है कि सुरक्षित पेयजल का अधिकार भी मौलिक अधिकारों में से एक है। 2007 में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने पानी में गंदगी के सवाल पर महबूब नगर जिले के एक किसान द्वारा लिखे गए पत्र के आधार पर चली सुनवाई में इस बात को फिर दोहराया है। पत्र भेजने वाले किसान की शिकायत थी कि एक कपड़ा बनाने वाली कंपनी गाँव के पास स्थित जलधारा में विषैषे रसायन छोड़ रही है। उससे भूमिगत पानी दूषित हो गया है जो कि सिंचाई और पीने के पानी का स्रोत है। इस मुकदमे के आधार पर न्यायाधीशों ने महबूब नगर के ज़िला कलेक्टर को आदेश दिया कि वह गाँव के प्रत्येक व्यक्ति को हर रोज़ 25 लीटर पानी उपलब्ध कराएँ।
जनसुविधाएँ
पानी की तरह कुछ अन्य सुविधाएँ भी हैं जिनका हर व्यक्ति के इंतज़ाम किया जाना चाहिए। पिछले साल आपने स्वास्थ्य और स्वच्छता, इन दो सुविधाओं के बारे में पढ़ा था। इसी तरह बिजली, सार्वजनिक परिवहन, विद्यालय और कॉलेज भी अनिवार्य चीज़ें हैं। इन्हें जनसुविधाएँ के नाम से जाना जाता है।
“…जल अधिकार का मतलब है कि प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत और घरेलू इस्तेमाल के पर्याप्त, सुरक्षित, स्वीकार्य, भौतिक रूप से पहुँच के भीतर और सस्ती दर पर पानी मिलना चाहिए।”
सतत विकास लक्ष्य 6: जल और स्वच्छता
भारतीय संविधान 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को शिक्षा के अधिकार की गारंटी देता है। इस अधिकार का महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि सभी बच्चों को समान रूप से स्कूली शिक्षा उपलब्ध हो। लेकिन शिक्षा पर अध्ययन करने वाले कार्यकत्ताओं एवं शोधार्थियों के निष्कर्षों से यह तथ्य सामने आया है कि भारत में स्कूली शिक्षा में हमेशा से काफ़ी असमानता रही है।
सरकार पूरी आबादी के समुचित स्वास्थ्य सुविधाओं की व्यवस्था करने में अहम भूमिका निभाती है। पोलियो जैसी बीमारियों का उन्मूलन भी इसी तरह की योजनाओं के तहत आता है। इस चित्र में एक छोटे बच्चे को पोलियो की खुराक दी जा रही है।
किसी जनसुविधा की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह होती है कि एक बार निर्माण हो जाने के बाद उसका बहुत सारे लोग इस्तेमाल कर सकते हैं। मसलन अगर गाँव में एक स्कूल बना दिया जाए तो उससे बहुत सारे बच्चों को शिक्षा मिलती है। इसी तरह किसी इलाके में बिजली की आपूर्ति बहुत सारे लोगों के फ़ायदेमंद हो सकती है : किसान अपने खेतों की सिंचाई के पंपसेट चला सकते हैं, लोग बिजली से चलने वाली छोटी-मोटी वर्कशॉप खोल सकते हैं, विद्यार्थियों को पढ़ने-लिखने में आसानी हो जाती है और किसी न किसी तरीके से गाँव के अधिकांश लोगों को फ़ायदा होता है।
सरकार की भूमिका
चूँकि जनसुविधाएँ इतनी महत्त्वपूर्ण हैं, इस उन्हें मुहैया कराने की ज़िम्मेदारी भी किसी न किसी के ऊपर ज़रूर आनी चाहिए। जी हाँ, यह ज़िम्मेदारी सरकार के ऊपर आती है। सरकार की बहुत सारी महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारियों में से एक यह है कि वह सभी लोगों को इस तरह की जनसुविधाएँ मुहैया कराए। आइए, इस बात को समझें कि यह ज़िम्मेदारी सरकार (और केवल सरकार) को ही क्यों उठानी चाहिए।
हम देख चुके हैं कि निजी कंपनियाँ मुनाफ़े के चलती हैं। कक्षा 7 की पुस्तक में ‘बाज़ार में एक कमीज़’ अध्याय को पढ़ कर आप यह समझ चुके होंगे। ज़्यादातर जनसुविधाओं में मुनाफ़े की गुंजाइश नहीं होती। उदाहरण के नालियों को साफ़ रखने या मलेरिया-रोधी अभियान चलाने से किसी कंपनी को क्या मुनाफ़ा हो सकता है? फलस्वरूप कोई निजी कंपनी इस तरह के कामों में दिलचस्पी नहीं लेगी।
लेकिन स्कूल और अस्पताल जैसी कुछ जनसुविधाओं में निजी कंपनियों को दिलचस्पी हो सकती है। हमारे पास इस आशय के बहुत सारे उदाहरण हैं। अगर आप शहर में रहते हैं तो आपने कई जगह निजी कंपनियों को टैंकरों या सीलबंद बोतलों के ज़रिए पानी की आपूर्ति करते हुए भी देखा होगा। ऐसी स्थितियों में निजी कंपनियाँ जनसुविधाएँ तो मुहैया कराती हैं, लेकिन उनकी कीमत इतनी ज़्यादा होती है कि चंद लोग ही उसका खर्च उठा पाते हैं। यह सुविधा सस्ती दर पर सभी लोगों के उपलब्ध नहीं होती। जितना खर्च करेंगे लोग उसके मुताबिक ही सुविधाएँ पाएँगे, यदि यह सामान्य नियम बन जाए तो बड़ी मुश्किल होगी। इसका नतीज़ा यह होगा कि जो इन सुविधाओं के एवज में खर्च नहीं कर पाएँगे वे सम्मानजनक जीवन जीने से वंचित रह जाएँगे।
यह कोई अच्छा विकल्प नहीं है। जनसुविधाओं का संबंध लोगों की मूलभूत सुविधाओं से होता है। किसी भी आधुनिक समाज के ज़रूरी है कि वहाँ इन सुविधाओं का इंतज़ाम हो ताकि लोगों की मूलभूत ज़रूरतें पूरी की जा सकें। संविधान में जीवन के अधिकार का जो आश्वासन दिया गया है वह देश के सभी लोगों को प्राप्त है। इस जनसुविधाएँ मुहैया कराने की ज़िम्मेदारी लाजिमी तौर पर सरकार के ऊपर ही आनी चाहिए।
सरकार को जनसुविधाओं के पैसा कहाँ से मिलता है?
आप हर साल सुनते होंगे कि सरकार ने संसद में बजट पेश किया है। बजट के ज़ारिए सरकार अपने नफ़े-नुकसान का ब्यौरा पेश करती है। इसमें सरकार पिछले साल के खर्चों का खाता पेश करती है और अगले साल के खर्चों की योजना सामने रखती है।
बजट में सरकार को इस बात का भी ऐलान करना पड़ता है कि अगले साल की योजनाओं के पैसे की व्यवस्था कहाँ से की जाएगी। जनता से मिलने वाला कर सरकार की आमदनी का मुख्य जरिया होता है। जनता से कर वसूल करने और उन्हें सार्वजनिक कार्यक्रमों पर खर्च करने का सरकार को पूरा अधिकार होता है। उदाहरण के पानी की आपूर्ति के सरकार को पानी निकालने, पानी को दूर तक पहुँचाने, पाइपों का जाल बिछाने, पानी को साफ करने और आखिर में गंदे पानी को ठिकाने लगाने पर खर्च करना पड़ता है। सरकार इन खर्चों को कुछ हद तक करों के ज़रिए और कुछ हद तक पानी की कीमत वसूल करके पूरा करती है। पानी की कीमत इस तरह तय की जाती है कि ज़्यादातर लोग रोज़ाना एक निश्चित मात्रा में पानी का खर्च उठा सकें।
केन्द्रीय सरकार जिन पर धन व्यय करती है
अमू- देखा तुमने, सैदापेट की सड़कें कितनी ऊबड़–खाबड़ थीं? सड़कों पर बत्ती भी नहीं थी। पता नहीं रात में वहाँ क्या हालत होती होगी!
कुमार- किसी झुग्गी बस्ती में तुम और क्या उम्मीद करोगी!
अमू- झुग्गी बस्तियाँ ऐसी क्यों होती हैं? क्या वहाँ जनसुविधाएँ नहीं होनी चाहिए?
कुमार- मेरे खयाल में जनसुविधाएँ उन लोगों के होती हैं जो बस्तियों में ठीक-ठाक घरों में रहते हैं। वही लोग हैं जो कर चुकाते हैं।
अमू- सरकार की जिम्मेदारी है कि वह केवल ‘ठीक-ठाक’ बस्तियों को ही नहीं, बल्कि सभी को जनसुविधाएँ मुहैया कराए। तुम ऐसे क्यों कह रहे हो? क्या बस्ती के लोग देश के नागरिक नहीं हैं? उनके भी तो कुछ अधिकार हैं।
कुमार (गुस्से में)- पर ऐसे तो सरकार दिवालिया हो जाएगी!
अमू- चाहे जो हो, उसे रास्ता तो निकालना पड़ेगा। क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि सड़क, पानी, बिजली के बिना झुग्गियों में जिंदगी कैसी होगी?
कुमार- अरे…!
अमू- हमारे संविधान में बहुत सारी जनसुविधाओं को जीवन के अधिकार का हिस्सा माना गया है। सरकार को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इन अधिकारों की अवहेलना न हो ताकि हर व्यक्ति एक सम्मानजनक जीवन जी सके।
आप किसकी राय से सहमत हैं?
1. जनसुविधाएँ क्या होती हैं? जनसुविधाएँ मुहैया कराने की ज़िम्मेदारी सरकार पर क्यों होनी चाहिए?
2. सरकार कुछ जनसुविधाओं के निजी कंपनियों का भी सहारा ले सकती है। उदाहरण के सड़कें बनाने के ठेके निजी कंपनियों या ठेकेदारों को भी दिए जाते हैं। दिल्ली में बिजली के वितरण का काम दो निजी कंपनियों के हाथ में है। लेकिन सरकार को इन कंपनियों पर कड़ी नज़र रखनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे इन सुविधाओं को सस्ती कीमत पर सभी लोगों तक पहुँचाने के लक्ष्य को पूरा करने में कोई कसर न छोड़ें।
आपको ऐसा क्यों लगता है कि जनसुविधाओं की ज़िम्मेदारी सरकार के ऊपर ही होनी चाहिए जबकि वह इन कामों को निजी कंपनियों के ज़रिए भी करवा सकती है?
3. अपने घर के पानी के बिल को देखें और पता लगाएँ कि आपके इलाके में नगरपालिका जल की न्यूनतम कीमत क्या है। अगर आप ज़्यादा पानी का इस्तेमाल करते हैं तो क्या उसकी दर भी बढ़ जाती है? पानी के ज़्यादा इस्तेमाल पर बढ़ी हुई दर से बिल वसूल करने के पीछे सरकार का क्या उद्देश्य है?
4. किसी वेतनभोगी कर्मचारी, अपना व्यवसाय/फैक्टरी चलाने वाले व्यक्ति और एक दुकानदार से बात करके पता लगाएँ कि लोग किस-किस तरह के कर सरकार को चुकाते हैं। अपने नतीजों को कक्षा में शिक्षक को दिखाएँ और चर्चा करें।
केन्द्रीय सरकार के कर राजस्व
रुपया कहाँ आता है
कम दूरी के बसें ही सार्वजनिक परिवहन का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन हैं। ज़्यादातर कामकाजी लोग बसों से ही अपनी मंजिल तक पहुँचते हैं। तेज़ शहरीकरण के कारण बड़े शहरों में भी सार्वजनिक बस प्रणाली ज़रूरत के हिसाब से कम साबित होती जा रही है।
इस कमी को पूरा करने के दिल्ली तथा अन्य महानगरों में सरकार ने मैट्रो रेल परियोजना के रूप में एक महत्त्वाकांक्षी योजना शुरू की है। दिल्ली में मैट्रो रेल के पहले खंड का निर्माण करने के सरकारी बजट से 11,000 करोड़ रुपए का खर्चा किया गया है। कुछ लोगों का कहना है कि अगर सरकार सार्वजनिक बस प्रणाली में सुधार पर ध्यान देती तो इतने भारी खर्चे की ज़रूरत न पड़ती और लोगों की ज़रूरत भी पूरी हो जाती। आपको क्या लगता है? आपकी राय में देश के दूसरे भागों के क्या हल ढूँढ़ा जा सकता है?
चेन्नई में पानी की आपूर्ति : क्या सबको पानी मिल रहा है?
इसमें कोई शक नहीं कि जनसुविधाएँ सभी को मुहैया होनी चाहिए। लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। बहुत सारे स्थानों पर ऐसी सुविधाओं का भारी अभाव है। इस अध्याय के अगले हिस्सों में आप पानी की व्यवस्था के बारे में पढ़ेंगे। यह जनसुविधा बहुत मायने रखती है।
जैसा कि इस अध्याय की शुरुआत में हमने देखा था, चेन्नई में पानी की भारी कमी है। नगरपालिका की आपूर्ति से शहर की लगभग आधी ज़रूरत ही पूरी हो पाती है। कुछ इलाकों में नियमित रूप से पानी आता है। कुछ इलाकों में बहुत कम पानी आता है। जहाँ पानी का भंडारण किया गया है उसके आसपास के इलाकों में ज्यादा पानी आता है, जबकि दूर की बस्तियों को कम पानी मिलता है।
जलापूर्ति में कमी का बोझ ज्यादातर गरीबों पर पड़ता है। जब मध्यम वर्ग के लोगों के सामने पानी की किल्लत पैदा हो जाती है तो इस वर्ग के लोग ज़्यादा आसानी से इसका हल ढूँढ़ लेते हैं। वे बोरवेल खोद कर, टैंकरों से पानी खरीद कर या बोतलबंद पानी खरीद का अपना काम चला लेते हैं। पानी की उपलब्धता के अलावा कुछ ही लोगों की ‘सुरक्षित’ पेयजल तक पहुँच है। यह इस पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति कितना खर्च कर सकता है। इस तरह संपन्न तबके के पास ही ज़्यादा विकल्प होते हैं। वे बोतलबंद पानी और जलशोधक उपकरणों के सहारे साफ पानी का इंतज़ाम कर सकते हैं। इस मद में खर्च कर सकने के कारण उन्हें साफ़ पानी मिल जाता है। परंतु गरीब इस सुविधा से वंचित रह जाते हैं। लिहाज़ा ऐसा लगता है कि जिन लोगों के पास पैसा है उन्हीं के पास पानी का अधिकार है। यह स्थिति ‘पर्याप्त और स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने’ के लक्ष्य से बहुत दूर है।
ग्रामीण इलाकों में मनुष्यों और मवेशियों, दोनों के पानी की ज़रूरत पड़ती है। यहाँ कुआँ, हैंडपंप, तालाब और कभी-कभार छत पर स्थित टंकियों से पानी मिलता है। इनमें से ज़्यादातर निजी स्वामित्व में हैं। शहरी इलाकों के मुकाबले ग्रामीण इलाकों में सार्वजनिक जलापूर्ति का और भी ज़्यादा अभाव है।
किसानों से पानी छीनना
पानी की कमी ने निजी कंपनियों के मुनाफ़े के नए रास्ते खोल दिए हैं। बहुत सारी निजी कंपनियाँ शहर के आसपास के इलाकों से पानी खरीद कर शहरों में बेचती हैं। चेन्नई में मामंदूर, पालुर, कारुनगिझी जैसे कस्बों और शहर के उत्तर में स्थित गाँवों से पानी लाया जाता है। 13,000 से भी ज़्यादा टैंकर इस काम में लगे हुए हैं। हर महीने पानी के व्यापारी किसानों को पेशगी रकम देते हैं ताकि वे किसानों की ज़मीन से पानी निकाल सकें। इस तरह न केवल खेती का पानी छिन जाता है, बल्कि गाँवों के पीने के पानी की आपूर्ति भी कम पड़ने लगती है। नतीज़ा यह है कि इन सारे कस्बों और गाँवों में भूमिगत जल स्तर बहुत बुरी तरह गिर चुका है।
सतत विकास लक्ष्य 11: संवहनीय शहर और समुदाय
चर्चा करें : अगर सरकार जलापूर्ति की ज़िम्मेदारी से हाथ खींच ले तो क्या होगा? क्या आपको लगता है कि यह सही कदम होगा?
विकल्पों की तलाश
चेन्नई की स्थिति कोई अनूठी नहीं है। गर्मियों के महीनों में पानी की कमी का यह हाल देश के दूसरे शहरों में भी दिखाई देने लगता है। नगरपालिका की जलापूर्ति में कमी से निपटने के निजी कंपनियाँ ज़्यादा से ज़्यादा इलाकों में फ़ैलती जा रही हैं। ये कंपनियाँ अपने मुनाफ़े के पानी बेचती हैं। पानी के इस्तेमाल में भी ज़बरदस्त गैर-बराबरी दिखाई देती है। शहरी इलाकों में प्रति व्यक्ति लगभग 135 लीटर पानी प्रतिदिन मिलना चाहिए। पानी की यह मात्रा लगभग 7 बाल्टी के बराबर है। शहरी जल आयोग ने यह मात्रा तय की है। लेकिन झुग्गी बस्तियों में लोगों को रोज़ाना प्रति व्यक्ति 20 लीटर पानी (एक बाल्टी) भी नहीं मिलता। दूसरी तरफ़ आलीशान होटलों में रहने वाले लोगों को रोज़ाना प्रति व्यक्ति 1600 लीटर ( 80 बाल्टी) तक पानी मिलता है।
नगरपालिका के ज़रिए जलापूर्ति में कमी को अकसर सरकार की नाकामयाबी माना जाता है। कुछ लोगों की दलील है कि चूँकि सरकार ज़रूरत के हिसाब से पानी मुहैया नहीं करवा पा रही है और बहुत सारे शहरी जल विभाग घाटे में चल रहे हैं, इस जलापूर्ति का काम निजी कंपनियों को सौंप दिया जाना चाहिए। उन्हें लगता है कि निजी कंपनियाँ ज़्यादा बेहतर काम कर सकती हैं।
इस दलील की रोशनी में निम्नलिखित तथ्यों पर विचार कीजिए-
1. दुनिया भर में जलापूर्ति की ज़िम्मेदारी सरकार पर रही है। निजी जलापूर्ति व्यवस्था के उदाहरण बहुत कम हैं।
2. दुनिया में कई ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ सार्वभौमिक जलापूर्ति सब लोगों तक पहुँच चुकी है (नीचे बॉक्स देखें)।
पोर्तो एलेग्रे में सार्वजनिक जलापूर्ति
पोर्तो एलेग्रे ब्राजील का एक शहर है। इस शहर में बहुत सारे लोग गरीब हैं, लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि दुनिया के दूसरे ज़्यादातर शहरों के मुकाबले यहाँ शिशु मृत्यु दर बहुत कम है। यहाँ नगर जल विभाग ने सभी लोगों को स्वच्छ पेयजल मुहैया करा दिया है। शिशु मृत्यु दर में गिरावट के पीछे यह सबसे बड़ा कारण है। यहाँ पानी की औसत कीमत कम रखी गई है और गरीबों से केवल आधी कीमत ली जाती है। विभाग को जो भी फ़ायदा होता है उसका इस्तेमाल जलापूर्ति में सुधार के किया जाता है। जल विभाग का काम पारदर्शी ढंग से चलता है। विभाग को कौन सी योजना हाथ में लेनी चाहिए, इस बारे में लोग मिलकर तय करते हैं। जनसभाओं में जनता प्रबंधकों का पक्ष सुनती है और जल विभाग की प्राथमिकताएँ तय करने में वोट के ज़रिए फ़ैसला करती है।
3. जहाँ जलापूर्ति की ज़िम्मेदारी निजी कंपनियों को सौंपी गई, ऐसे कुछ मामलों में पानी की कीमत में भारी इज़ाफ़ा हुआ। इस कारण वहाँ बहुत सारे लोगों के पानी का खर्चा उठाना संभव नहीं हो पाया। ऐसे शहरों में लोगों के विशाल प्रदर्शन हुए। बोलीविया आदि देशों में तो दंगे भी फैल गए जिसके दबाव में सरकार को जलापूर्ति व्यवस्था निजी हाथों से छीन कर दोबारा अपने हाथों में लेनी पड़ी।
4. भारत में सरकारी जल विभागों की सफलता के कई उदाहरण रहे हैं। लेकिन ये उदाहरण कम हैं और उनकी सफलता कुछ क्षेत्रों में ही सीमित दिखाई देती है। मुंबई का जलापूर्ति विभाग अपने खर्चों को पूरा करने के जल शुल्क के ज़ारिए पर्याप्त पैसा जुटा लेता है। हाल ही की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि हैदराबाद में जल विभाग के दायरे में इज़ाफ़ा हुआ है और उसकी आमदनी बढ़ी है। चेन्नई में जल विभाग ने वर्षा जल संचय के कई योजनाएँ शुरू की हैं ताकि भूमिगत जलस्तर में सुधार लाया जा सके। वहाँ पर पानी की ढुलाई और वितरण के निजी कंपनियों की भी सेवाएँ ली जा रही हैं, लेकिन पानी के टैंकरों की दर सरकारी जलापूर्ति विभाग ही तय करता है और वही उन्हें काम करने की इजाजत देता है। इस इन टैंकरों को ‘अनुबंधित’ कहा जाता है।
सतत विकास लक्ष्य 12 :
जि़्मेदारी से उपभोग और उत्पादन
ऊपर के भाग में आए मुख्य विचारों पर चर्चा करें। जलापूर्ति में सुधार के आपकी राय में क्या किया जा सकता है?
क्या आपको ऐसा लगता है कि पानी और बिजली जैसे संसाधनों को बचाना और सार्वजनिक परिवहन साधनों का ज़्यादा इस्तेमाल करना बेहतर है
मुंबई की उपनगरीय रेलवे एक अच्छी सार्वजनिक परिवहन प्रणाली है। यह दुनिया का सबसे घना यातायात मार्ग है। यह रेलवे हर रोज़ 65 लाख यात्रियों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाती है। 300 किलोमीटर से भी ज़्यादा लंबे नेटवर्क पर चलने वाली इन स्थानीय ट्रेनों के ज़रिए दूर-दूर रहने वाले लोग भी शहर में काम ढूँढ़ने आते हैं। इस बात पर गौर करें कि शहरों में रहन-सहन की भारी लागत के कारण साधारण मेहनतकश लोग शहर में नहीं रह सकते।
स्वच्छता संबंधी सुविधाओं का विस्तार
" ‘हमारे पाखाने/शौचालय!’ उन्होंने हैरानी से कहा।
‘हम तो बाहर खुले में जाकर अपना काम निपटा लेते हैं।’
‘लैट्रीन तो तुम्हारे जैसे बड़े लोगों के होती है।’"
‘अछूतो’ की शिकायतों को याद करते हुए महात्मा गांधी का वक्तव्य, राजकोट स्वच्छता समिति, 1896.
पीने के साफ पानी के अलावा यह भी ज़रूरी है कि पानी से फैलने वाली बीमारियों को रोकने के स्वच्छता का ध्यान रखा जाए। लेकिन भारत में स्वच्छता सुविधाओं का दायरा तो जलापूर्ति से भी छोटा है। 2011 के सरकारी आँकड़ों से पता चलता है कि भारत के 87 प्रतिशत परिवारों के पास पेयजल की सुविधा उपलन्ध है, जबकि स्वच्छता सुविधाएँ (घर के भीतर शौचालय) 53 प्रतिशत परिवारों में ही उपलब्ध हैं। यहाँ भी ग्रामीण और शहरी इलाकों के गरीबों की स्थिति ज़्यादा कमज़ोर दिखाई देती है।
गैर-सरकारी संगठन ‘सुलभ इंटरनेशनल’ पिछले लगभग पाँच दशक से निम्न-जाति, निम्न-आय वर्ग लोगों के सामने मौजूद स्वच्छता के अभाव की समस्या से निपटने के कोशिश कर रहा है। इस संगठन ने 8,500 से ज़्यादा सामुदायिक शौचालय इकाइयाँ और $15,00,000$ से ज्यादा घरेलू शौचालय बनाए हैं जिससे दो करोड़ लोग इन सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। सुलभ की सुविधाओं का इस्तेमाल करने वाले ज़्यादातर गरीब मेहनतकश वर्ग के लोग होते हैं।
सुलभ ने सरकारी पैसे से शौचालय इकाइयाँ बनाने के नगरपालिकाओं या अन्य स्थानीय निकायों के साथ अनुबंध भी किए हैं। स्थानीय विभाग इन सेवाओं की स्थापना के ज़मीन और पैसा मुहैया कराते हैं जबकि रख-रखाव की लागत कई बार प्रयोक्ताओं से मिलने वाले पैसे से पूरी की जाती है (शहरों में शौचालयों के इस्तेमाल पर ₹2 शुल्क लिया जाता है)।
अगली बार जब आप सुलभ शौचालय को देखेंगे तो हो सकता है खुद यह जानना चाहें कि ये शौचालय कैसे होते हैं!
क्या आपको लगता है कि समुचित स्वच्छता सुविधाओं के अभाव से लोगों का जीवन प्रभावित होता है? कैसे?
आपको ऐसा क्यों लगता है कि इससे औरतों और लड़कियों पर ज्यादा गहरा असर पड़ेगा?
2001 की जनगणना के अनुसार 44 प्रतिशत ग्रामीण घरों में बिजली पहुँच चुकी है। इसका मतलब यह है कि लगभग 7 करोड़ 80 लाख परिवार अभी भी अँधेरे में हैं।
निष्कर्ष
जनसुविधाओं का संबंध हमारी बुनियादी ज़रूरतों से होता है। भारतीय संविधान में पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि अधिकारों को जीवन के अधिकार का हिस्सा माना गया है। इस प्रकार सरकार की एक अहम ज़िम्मेदारी यह बनती है कि वह प्रत्येक व्यक्ति को पर्याप्त जनसुविधाएँ मुहैया करवाए।
लेकिन इस मोर्चे पर संतोषजनक प्रगति नहीं हुई है। आपूर्ति में कमी है और वितरण में भारी असमानता दिखाई देती है। महानगरों और बड़े शहरों के मुकाबले कस्बों और गाँवों में तो इन सुविधाओं की स्थिति और भी खराब है। संपन्न बस्तियों के मुकाबले गरीब बस्तियों में सेवाओं की स्थिति कमज़ोर है। इन सुविधाओं को निजी कंपनियों के हाथों में सौंप देने से समस्या हल होने वाली नहीं है। किसी भी समाधान में इस महत्त्वपूर्ण तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि देश के प्रत्येक नागरिक को इन सुविधाओं को पाने का अधिकार है और उसे ये सुविधाएँ समतापरक ढंग से मिलनी चाहिए।
अभ्यास
1. आपको ऐसा क्यों लगता है कि दुनिया में निजी जलापूर्ति के उदाहरण कम हैं?
2. क्या आपको लगता है कि चेन्नई में सबको पानी की सुविधा उपलब्ध है और वे पानी का खर्च उठा सकते हैं? चर्चा करें।
3. किसानों द्वारा चेन्नई के जल व्यापारियों को पानी बेचने से स्थानीय लोगों पर क्या असर पड़ रहा है? क्या आपको लगता है कि स्थानीय लोग भूमिगत पानी के इस दोहन का विरोध कर सकते हैं? क्या सरकार इस बारे में कुछ कर सकती है?
4. ऐसा क्यों है कि ज़्यादातर निजी अस्पताल और निजी स्कूल कस्बों या ग्रामीण इलाकों की बजाय बड़े शहरों में ही हैं?
5. क्या आपको लगता है कि हमारे देश में जनसुविधाओं का वितरण पर्याप्त और निष्पक्ष है? अपनी बात के समर्थन में एक उदाहरण दें।
6. अपने इलाके की पानी, बिजली आदि कुछ जनसुविधाओं को देखें। क्या उनमें सुधार की कोई गुंजाइश है? आपकी राय में क्या किया जाना चाहिए? इस तालिका को भरें।
क्या यह उपलब्ध है? | उसमें कैसे सुधार लाया जाए? | |
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पानी | ||
बिजली | ||
सड़क | ||
सार्वजनिक परिवहन |
7. क्या आपके इलाके के सभी लोग उपरोक्त जनसुविधाओं का समान रूप से इस्तेमाल करते हैं? विस्तार से बताएँ।
8. जनगणना के साथ-साथ कुछ जनसुविधाओं के बारे में भी आँकड़े इकट्ठा किए जाते हैं। अपने शिक्षक के साथ चर्चा करें कि जनगणना का काम कब और किस तरह किया जाता है।
9. हमारे देश में निजी शैक्षणिक संस्थान - स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, तकनीकी और व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थान बड़े पैमाने पर खुलते जा रहे हैं। दूसरी तरफ सरकारी शिक्षा संस्थानों का महत्त्व कम होता जा रहा है। आपकी राय में इसका क्या असर हो सकता है? चर्चा कीजिए।
शब्द संकलन
स्वच्छता- मानव मल-मूत्र को सुरक्षित ढंग से नष्ट करने की सुविधा। इसके शौचालयों का निर्माण किया जाता है और गंदे पानी की सफ़ाई के पाइप लगाए जाते हैं। संक्रमण से बचाने के ऐसा करना ज़रूरी होता है।
कंपनी- कंपनी एक तरह की व्यावसायिक संस्था होती है जिसकी स्थापना कुछ लोग या सरकार करती है। जिन कंपनियों का संचालन और स्वामित्व निजी समूहों या व्यक्तियों के हाथ में होता है उन्हें निजी कंपनी कहा जाता है। उदाहरण के टाटा स्टील एक निजी कंपनी है, जबकि इंडियन ऑयल सरकार द्वारा संचालित कंपनी है।
सार्वभौमिक पहुँच- जब हर व्यक्ति को कोई चीज़ पूरी तरह हासिल हो जाती है और वह उसका खर्च उठा सकता है तो इसे सार्वभौमिक पहुँच कहा जाता है। उदाहरण के घर में नल में पानी आ रहा हो तो परिवार को पानी तक पहुँच मिल जाती है और अगर उसकी कीमत कम हो या वह मुफ्त उपलब्ध हो तो हर कोई उसका इस्तेमाल कर सकता है।
मूलभूत सुविधाएँ- भोजन, पानी, आवास, साफ़-सफ़ाई, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी ज़रूरतें जो ज़िदा रहने के ज़रूरी होती हैं।