अध्याय 01 भारतीय संविधान

इस अध्याय में हम फुटबॉल के खेल से अपनी बात शुरू करेंगे। आपमें से ज़्यादातर बच्चों ने इस खेल के बारे में ज़रूर सुना होगा। बहुतों ने खेला भी होगा। जैसा कि इसके नाम से ही अंदाज़ा हो जाता है, यह खेल पैरों से संबंधित है। फुटबॉल का एक नियम यह है कि गोलकीपर के अलावा और कोई खिलाड़ी गेंद को बाँह से नहीं छू सकता। अगर किसी खिलाड़ी की बाँह गेंद को छू जाती है तो इसे फाउल या गलत माना जाता है। कहने का मतलब यह है कि अगर खिलाड़ी फुटबॉल को हाथों में लेकर एक-दूसरे को थमाने लगें तो उस खेल को फुटबॉल नहीं माना जाएगा। इसी तरह हॉकी या क्रिकेट आदि दूसरे खेलों के भी कुछ तय नियम होते हैं। इन नियमों से खेल को परिभाषित करने और अलग-अलग खेलों के बीच फ़र्क करने में मदद मिलती है। इन खेलों की तरह हर समाज के भी कुछ मूलभूत नियम (Constitutive rules) होते हैं। उन्हीं से समाज का स्वरूप तय होता है और अलग-अलग समाजों के बीच फ़र्क पता चलता है। बड़े समाजों में कई अलग-अलग समुदाय एक साथ रहते हैं। वहाँ नियमों को आम सहमति के ज़रिए तय किया जाता है। आधुनिक देशों में यह सहमति आमतौर पर लिखित रूप में पाई जाती है। जिस दस्तावेज़ में हमें ऐसे नियम मिलते हैं उसे संविधान कहा जाता है।

कक्षा 6 और 7 में भी सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन की पाठ्यपुस्तकों में हम भारतीय संविधान पर चर्चा कर चुके हैं। इन किताबों को पढ़कर क्या कभी यह सवाल आपके भीतर पैदा हुआ कि हमें संविधान की ज़रूरत क्यों पड़ती है? क्या आपने यह जानने की कोशिश की कि संविधान कैसे लिखा गया? या उसे किसने लिखा था? इस अध्याय में हम इन्हीं मुद्दों पर चर्चा करेंगे और भारतीय संविधान की मुख्य बातों पर ध्यान देंगे। ये बातें भारतीय लोकतंत्र के बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इस पुस्तक के विभिन्न अध्यायों में इनमें से कुछ बातों पर विशेष ज़ोर दिया जाएगा।

किसी देश को संविधान की ज़रूरत क्यों पड़ती है?

आज दुनिया के ज़्यादातर देशों के पास अपना संविधान है। आमतौर पर सभी लोकतांत्रिक देशों के बारे में उम्मीद की जा सकती है कि उनके पास संविधान ज़रूर होगा। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि जिन देशों के पास अपने संविधान होते हैं वे सभी लोकतांत्रिक देश ही होंगे। संविधान कई उद्देश्यों की पूर्ति करता है। पहला, यह दस्तावेज़ उन आदर्शों को सूत्रबद्ध करता है जिनके आधार पर नागरिक अपने देश को अपनी इच्छा और सपनों के अनुसार रच सकते हैं। यानी संविधान ही बताता है कि हमारे समाज का मूलभूत स्वरूप क्या हो। देश के भीतर आमतौर पर कई समुदाय रहते हैं। उनके बीच कई बातें समान होती हैं लेकिन ज़रूरी नहीं कि वे सारे मुद्दों पर एक-दूसरे से सहमत हों। संविधान नियमों का एक ऐसा समूह होता है जिसको एक देश के सभी लोग अपने देश को चलाने की पद्धति के रूप में अपना सकते हैं। इसके ज़ारिए वे न केवल यह तय करते हैं कि सरकार किस तरह की होगी बल्कि उन आदर्शों पर भी एक साझी समझ विकसित करते हैं जिनकी हमेशा पूरे देश में रक्षा की जानी चाहिए। 1934 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने संविधान सभा के गठन की माँग को पहली बार अपनी अधिकृत नीति में शामिल किया। केवल भारतीयों को लेकर बनने वाली एक स्वतंत्र संविधान सभा की यह माँग दूसरे विश्व युद्ध के दौरान और तेज़ हो गई और अंततः दिसंबर 1946 में संविधान सभा का गठन किया गया। पृष्ठ 2 पर दिए गए चित्र में संविधान सभा के कुछ सदस्यों को दर्शाया गया है।

दिसबंर 1946 से नवंबर 1949 के बीच संविधान सभा ने स्वतंत्र भारत के नए संविधान का एक प्रारूप तैयार किया। 150 साल की अंग्रेज़ी हुकूमत के बाद भारतीयों को आखिरकार अपनी नियति और भविष्य तय करने का मौका मिला था। संविधान सभा के सदस्यों ने स्वतंत्रता संघर्ष से उपजे महान आदर्शों को ध्यान में रखते हुए इस काम को गंभीरता से अंजाम दिया। संविधान सभा के कामों के बारे में आप इसी अध्याय में आगे पढ़ेंगे।

बगल में दिए गए चित्र में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु संविधान सभा को संबोधित कर रहे हैं।

नेपाल में लोकतंत्र के कई जनसंघर्ष हो चुके हैं। 1990 में हुए संघर्ष के बाद लोकतंत्र की स्थापना हुईं यह लोकतांत्रिक व्यवस्था 2002 तक यानी 12 साल कायम रही। अक्तूबर 2002 में राजा ज्ञानेन्द्र ने गाँवों में माओवादी संगठनों के बढ़ते प्रभाव का बहाना बनाकर सेना की मदद से सरकार के विभिन्न कामों को अपने कब्ज़े में लेना शुरू कर दिया। फ़रवरी 2005 में राजा ने शासन की बागडोर पूरी तरह अपने हाथों में ले ली। नवंबर 2005 में माओवादियों ने अन्य राजनीतिक दलों के साथ एक 12 सूत्री समझौते पर दस्तखत किए। इस समझौते में आम लोगों को लोकतंत्र और अमन-चैन बहाल होने की उम्मीद दिखाई दे रही थी। लोकतंत्र के चल रहा यह जनांदोलन 2006 तक अपने शिखर पर पहुँच चुका था। आंदोलनकारियों ने राजा की ओर से दी गई छोटी-मोटी रियायतों को नामंज़ूर कर दिया और आखिरकार अप्रैल 2006 में राजा को तृतीय संसद बहाल करके राजनीतिक दलों को सरकार बनाने का मौका देना पड़ा। 2008 में, राजतंत्र को खत्म करने के बाद नेपाल लोकतंत्र बन गया।

2006 में लोकतंत्र की माँग को लेकर चलने वाले जनतांत्रिक आंदोलन के दृश्य ऊपर के चित्रों में हैं।

अपने शिक्षक के साथ चर्चा करें कि मूलभूत (Constitutive) शब्द से आप क्या समझते हैं? अपने रोज़मर्रा के जीवन के आधार पर मूलभूत नियम का एक उदाहरण दें।

नेपाल की जनता एक नया संविधान क्यों चाहती थी?

इन बातों का क्या मतलब है, यह समझने के आइए दो बिल्कुल अलग-अलग परिस्थितियों पर गौर करें। दोनों घटनाएँ भारत की उत्तरी सीमा पर स्थित नेपाल के ताज़ा इतिहास की घटना है। समाचार पत्रों के माध्यम से ऊपर दी गई खबर में बताया गया है कि नेपाल के लोगों ने हाल ही में एक अंतरिम संविधान को मंज़ूरी दी है। सवाल यह उठता है कि जब नेपाल में पहले से ही संविधान था तो उसे नए संविधान की ज़रूरत क्यों पड़ी? इसका कारण यह है कि कुछ समय पहले तक नेपाल एक राजतंत्र था। वहाँ राजा का शासन था। 1990 में बना नेपाल का पिछला संविधान इस सिद्धांत पर आधारित था कि शासन की सर्वोच्च सत्ता राजा के पास रहेगी। नेपाल के लोग कई दशक से लोकतंत्र की स्थापना के जनांदोलन करते चले आ रहे थे। इसी संघर्ष के फलस्वरूप 2006 में आखिरकार उन्हें राजा की सत्ता को खत्म करने में कामयाबी मिल गई। नेपाल के लोग लोकतंत्र के रास्ते पर चलना चाहते थे और इसके उन्हें एक नया संविधान चाहिए था। वे पिछले संविधान को इस नहीं अपनाना चाहते थे क्योंकि उसमें वे आदर्श नहीं थे जो वे नेपाल के चाहते थे और जिनके वे लड़ते रहे थे।

जिस तरह फुटबॉल के खेल में नियम बदलते ही खेल बदल जाता है, उसी तरह नेपाल को भी राजतंत्र की जगह लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था पर चलने के कारण अपने सारे नियम बदलने होंगे ताकि एक नए समाज की रचना की जा सके। यही कारण है कि नेपाल के लोगों ने 2015 में अपने देश के एक नया संविधान अपनाया। ऊपर के चित्र के साथ दिए गए अंश में लोकतंत्र के नेपाल के संघर्ष के बारे में बताया गया है।

विधान का दूसरा मुख्य उद्देश्य होता है देश की राजनीतिक व्यवस्था को तय करना। नेपाल के पुराने संविधान में कहा गया था कि देश के

शासन की बागडोर राजा और मंत्रिपरिषद् के हाथ में रहेगी। जिन देशों ने लोकतांत्रिक शासन पद्धति या राज्य व्यवस्था चुनी है वहाँ निर्णय प्रक्रिया के नियम तय करने में संविधान बहुत अहम भूमिका अदा करता है।

लोकतंत्र में हम अपने नेता खुद चुनते हैं ताकि हमारी ओर से वे सत्ता का ज़िम्मेदारी के साथ इस्तेमाल कर सकें। फिर भी इस बात की संभावना हमेशा रहती है कि ये नेता सत्ता का दुरुपयोग कर सकते हैं। इस तरह की विकृतियों से बचाव का उपाय संविधान में मिलता है। राजनेताओं द्वारा सत्ता के इस दुरुपयोग से लोगों के साथ भारी अन्याय हो सकता है। इसका एक उदाहरण नीचे दी गई चित्रकथा-पट्ट में देखा जा सकता है -

लोकतांत्रिक समाजों में प्रायः संविधान ही ऐसे नियम तय करता है जिनके द्वारा राजनेताओं के हाथों सत्ता के इस दुरुपयोग को रोका जा सकता है। भारतीय संविधान में ऐसे बहुत सारे कानून मौलिक अधिकारों वाले खण्ड में दिए गए हैं। वहाँ आपने पढ़ा था कि भारतीय संविधान देश के सभी व्यक्तियों को समानता का अधिकार देता है। हमारा संविधान कहता है कि धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्मस्थान के आधार पर देश के किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता। इस प्रकार समानता का अधिकार भारतीय संविधान में दिया गया एक मौलिक अधिकार है।

1. मॉनीटर अपनी शक्ति का किस तरह दुरुपयोग कर रहा है?

2. नीचे दी गई किस परिस्थिति में मंत्री को अपनी सत्ता के दुरुपयोग का दोषी कहा जाएगा-

(क) जब वह ठोस तकनीकी कारणों से अपने मंत्रालय की किसी परियोजना को नामंज़ूर कर देता है

( ख) जब वह अपने पड़ोसी को अपने सुरक्षाकर्मियों से पिटवाने की धमकी देता है;

(ग) जब वह थाने में फ़ोन करके पुलिस अधिकारियों पर दबाव डालता है कि उसके किसी दोषी रिश्तेदार के खिलाफ़ एफ.आई.आर. दर्ज न की जाए।

उपरोक्त चित्रकथा-पद्ट में कौन लोग अल्पसंख्या में हैं? बहुसंख्यक गुट द्वारा गए फ़ैसलों से यह अल्पसंख्यक गुट किस तरह दबाया जा रहा है?

लोकतंत्र में संविधान का एक महत्त्वपूर्ण काम यह होता है कि कोई भी ताकतवर समूह किसी दूसरे या कम ताकतवर समूह या लोगों के खिलाफ़ अपनी ताकत का इस्तेमाल न करे। नीचे दिए गए चित्रकथा-पट्ट में कक्षा के भीतर की एक घटना के आधार पर इस बात को समझाया गया है।

शिक्षक इस विवाद को हल करने के दोनों पक्षों को हाथ उठाकर अपनी राय बताने के कहते हैं।

इस तरह के अस्वस्थ हालात लोकतांत्रिक समाजों में भी पैदा हो सकते हैं जहाँ बहुमत वाला गुट लगातार ऐसे फ़ैसले लागू करता रहता है जिनमें अल्पसंख्यकों की सहमति नहीं होती और उनका नुकसान होता है। जैसा कि इस चित्रकथा-पट्ट से पता चलता है, बहुमत की निरंकुशता का खतरा हर समाज में बना रहता है। संविधान में दिए गए नियमों से इस बात का खयाल रखा जाता है कि अल्पसंख्यकों को किसी ऐसी चीज़ से वंचित न किया जाए जो बहुसंख्यकों के सामान्य रूप से उपलब्ध है। अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यकों की इस निरंकुशता या दबदबे पर प्रतिबंध लगाना भी संविधान का महत्त्वपूर्ण कार्य है। यह दबदबा एक समुदाय द्वारा दूसरे समुदाय के ऊपर भी हो सकता है जिसे अंतर-सामुदायिक (Inter-community) वर्चस्व कहते हैं, या फिर एक ही समुदाय के भीतर कुछ लोग दूसरों को दबा सकते हैं, जिसे अंतःसामुदायिक (Intra-community) वर्चस्व कहते हैं।

संविधान क्यों होना चाहिए - इसका तीसरा महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि हम खुद को अपने आप से बचा सकें। यह बात सुनने में जरा अजीब लगती है। असल में इसका मतलब यह है कि कई बार हम किसी मुद्दे पर बहुत तीखे ढंग से सोचने लगते हैं। ऐसे विचार हमारे व्यापक हितों के नुकसानदेह हो सकते हैं। संविधान हमें ऐसी भावनाओं से बचाने में मदद करता है। इसे समझने के नीचे के चित्रकथा-पट्ट को देखिए।

को इस तरह के उन्माद से बचाता है। यह ऐसे प्रावधानों को आसानी से पलटने नहीं देता जिनके ज़रिए नागरिकों को अधिकारों का आश्वासन मिलता है और उनकी स्वतंत्रता की रक्षा होती है।

इस चर्चा से आप समझा जाएँगे कि संविधान किसी भी लोकतांत्रिक

शबनम इस बात पर क्यों खुश हो रही है कि उसने टी.वी. नहीं देखा? ऐसी स्थिति में आप क्या करते? समाज में कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

आइए अब निम्नलिखित उदाहरणों से जुड़े मूलभूत नियमों से तालिका को भरें। इसके ज़रिए इस बात को दोहराएँ कि लोकतांत्रिक समाजों में संविधान इतनी महत्त्वपूर्ण भूमिका क्यों निभाता है-
उदाहरण मूलभूत नियम
नेपाल में लोकतंत्र के चले आंदोलन की सफलता के बाद वहाँ के लोगों ने एक नया संविधान अपनाया। ये ऐसे आदर्श हैं जिनसे पता चलता है कि हम किस तरह की शासन व्यवस्था में रहना चाहते हैं।
सुरेश अपने सहपाठी अनिल को बेवज़ह परेशान कर रहा है।
लड़कियों को बास्केटबॉल खेलने का मौका नहीं मिलता क्योंकि उनकी कक्षा में लड़कों की संख्या ज़्यादा है।
शबनम ने टी.वी. देखने की बजाय अपने अध्यायों को दोहराने का फ़ैसला लिया।

आइए अब भारतीय संविधान के कुछ मुख्य आयामों का अध्ययन करें और इस बात को समझें कि उपरोक्त बिंदु कुछ खास आदर्शों और नियमों का रूप किस तरह ग्रहण करते हैं।

भारतीय संविधान : मुख्य लक्षण

बीसवीं सदी तक आते-आते भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन कई दशक पुराना हो चुका था। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान राष्ट्रवादियों ने इस बात पर काफ़ी विचार किया था कि स्वतंत्र भारत किस तरह का होना चाहिए। ब्रिटिश शासन के अंतर्गत उन्हें जिन नियमों को मानना पड़ता था वे उन्होंने खुद नहीं बनाए थे। औपनिवेशिक राज्य के लंबे अत्याचारी शासन ने भारतीयों के सामने इतना ज़रूर स्पष्ट कर दिया था कि स्वतंत्र भारत को एक लोकतांत्रिक देश होना चाहिए। उसमें प्रत्येक नागरिक को समान माना जाएगा और सभी को सरकार में हिस्सेदारी का अधिकार होगा। इसके बाद यह तय करना था कि भारत में लोकतांत्रिक सरकार का गठन कैसे किया जाए और उसके कामकाज के नियम क्या हों। यह काम किसी एक आदमी के वश का नहीं था। इसमें लगभग 300 लोगों ने योगदान दिया जो 1946 में गठित की गई संविधान सभा के सदस्य थे। भावी संविधान के निर्माण के अगले तीन साल तक संविधान सभा की बैठकें होती रहीं।

संविधान सभा के सदस्यों के बीच एकता की एक जबरदस्त भावना थी। भावी संविधान के एक-एक प्रावधान पर जमकर चर्चा हुई और सभी लोग सहमति विकसित करने के बारे में गंभीर थे। उपरोक्त चित्र के मध्य में सरदार वल्लभभाई पटेल दिखाई दे रहे हैं जो संविधान सभा के एक महत्त्वपूर्ण सदस्य थे।

संविधान सभा के इन सदस्यों के सामने एक बड़ी ज़िम्मेदारी थी। हमारे देश में कई समुदाय थे। उनकी न तो भाषा एक थी, न एक धर्म था और न ही एक जैसी संस्कृति थी। वैसे भी जब संविधान लिखा जा रहा था, उस समय हमारा देश भारी उथल-पुथल से गुज़र रहा था। भारत और पाकिस्तान का बँटवारा लगभग तय हो चुका था। कुछ रियासतें तय नहीं कर पा रही थीं कि उनका भविष्य क्या होगा, वे किधर जाएँगी। जनता की सामाजिक-आर्थिक स्थिति भयानक थी। संविधान सभा के सदस्यों के सामने ये सारे मुद्दे थे। लेकिन उन्होंने अपने इस ऐतिहासिक दायित्व को बहादुरी से पूरा किया और देश को एक ऐसा कल्पनाशील दस्तावेज़ दिया जिसमें राष्ट्रीय एकता को बनाए रखते हुए विविधता के प्रति गहरा सम्मान दिखाई देता है। उन्होंने जो दस्तावेज़ तैयार किया उसमें सामाजिक-आर्थिक सुधारों के ज़रिए गरीबी उन्मूलन और जनप्रतिनिधियों के चयन में जनता की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर काफ़ी ज़ोर दिया गया है।

आगे के हिस्सों में भारतीय संविधान के कुछ मुख्य आयामों का उल्लेख किया गया है। इन बातों को पढ़ते हुए विविधता, एकता, सामाजिक-आर्थिक सुधार और प्रतिनिधित्व से संबंधित उपरोक्त चिंताओं को लगातार ध्यान में रखिए जिनसे इस दस्तावेज़ को लिखने वाले जूझ रहे थे। इसे समझने की कोशिश कीजिए कि उन्होंने स्वतंत्र भारत को एक शक्तिशाली लोकतांत्रिक समाज बनाने के उद्देश्य को पूरा करने के साथ इन चिंताओं को किस तरह हल किया।

बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर को भारतीय संविधान का जनक कहा जाता है। डॉ. अम्बेडकर का विश्वास था कि संविधान सभा में उनकी हिस्सेदारी से अनुसूचित जातियों को संविधान के प्रारूप में कुछ सुरक्षात्मक व्यवस्था मिली है। लेकिन उन्होंने यह भी कहा था कि भले ही कानून बन गए हों, अभी भी अनुसूचित जातियाँ बेफ़िक्र नहीं हो सकतीं क्योंकि इन कानूनों का संचालन ‘सवर्ण हिंदू अधिकारियों के हाथों में ही है। इस उन्होंने अनुसूचित जातियों से आह्वान किया कि वे सरकार के अलावा लोक सेवाओं में भी बढ़-चढ़कर शामिल हों।

जब संविधान सभा ने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के सिद्धांत को स्वीकृति दी तो सभा के सदस्य ए.के. अय्यर ने कहा था कि यह कदम “आम आदमी और लोकतांत्रिक शासन की सफलता में गहरी आस्था का द्योतक और इस विश्वास पर आधारित है कि वयस्क मताधिकार के ज़रिए लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना ज्ञानोदय लाएगी। यह आम आदमी के कुशलक्षेम, जीवन स्तर, सुविधा और बेहतर जीवन स्थिति को प्रोत्साहन देगी।”

ऑस्टिन, जी. 1966, दि इंडियन कॉस्स्टीट्यूशन : कॉर्नरस्टोन ऑफ़ ए नेशन, क्लेरेंडन प्रेस, ऑक्सफ़ोर्ड।

नीचे चित्र में दर्शाया गया है कि लोग अपना वोट डालने के कतार में खड़े हैं।

1. संघवाद (Federalism )- इसका मतलब है देश में एक से ज़्यादा स्तर की सरकारों का होना। हमारे देश में राज्य स्तर पर भी सरकारें हैं और केंद्र स्तर पर भी। पंचायती राज व्यवस्था शासन का तीसरा स्तर है जिसके बारे में आप कक्षा 6 में पढ़ चुके हैं। कक्षा 7 की किताब में आपने राज्य सरकार के कामकाज को देखा था। इस साल हम केंद्र सरकार के बारे में ज़्यादा पढ़ेंगे।

भारत में इतने सारे समुदायों की उपस्थिति का सीधा मतलब यह था कि यहाँ शासन की एक ऐसी व्यवस्था विकसित करनी होगी जिसमें राजधानी दिल्ली में बैठे मुट्री भर लोग ही पूरे देश के फ़ैसले न लेने

लगें। इसी प्रांतीय स्तर पर भी सरकार की व्यवस्था की गई ताकि इलाकों के हिसाब से अलग फ़ैसले भी जा सकें। भारत के सभी राज्यों को कुछ मुद्दों पर फ़ैसले लेने का स्वायत्त अधिकार है। राष्ट्रीय महत्त्व के सवालों पर सभी राज्यों को केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों को मानना पड़ता है। कार्यक्षेत्र की स्पष्टता के संविधान में कुछ सूचियाँ दी गई हैं जिनमें बताया गया है कि कौन से स्तर की सरकार किन मुद्दों पर कानून बना सकती है। इसके साथ संविधान यह भी तय करता है कि प्रत्येक स्तर की सरकार अपने कार्यों के पैसे का इंतज़ाम कहाँ से कर सकती है। संघवाद के अंतर्गत राज्य केवल केंद्रीय सरकार के प्रतिनिधि नहीं होते। उन्हें भी संविधान से ही अपनी ताकत और अधिकार मिलते हैं। भारत के सभी लोग इन सभी स्तरों की सरकारों द्वारा बनाए गए कानूनों और नीतियों के अंतर्गत आते हैं।

2. संसदीय शासन पद्धति- सरकार के सभी स्तरों पर प्रतिनिधियों का चुनाव लोग खुद करते हैं। कक्षा 7 की किताब के शुरू में कांता की कहानी दी गई थी जो वोट डालने के कतार में खड़ी है। भारत का संविधान अपने सभी वयस्क नागरिकों को वोट डालने का अधिकार देता है। संविधान सभा के सदस्य जब संविधान की रचना कर रहे थे

तो उन्हें लगा कि स्वतंत्रता संघर्ष ने भारतीय जनता को वयस्क मताधिकार का प्रयोग करने के योग्य बना दिया है। उन्हें विश्वास था कि इससे न केवल लोकतांत्रिक सोच व तौर-तरीकों को प्रोत्साहन मिलेगा, बल्कि जाति, वर्ग और औरत-मर्द के फ़र्क पर आधारित ऊँच-नीच की बेड़ियों को भी तोड़ा जा सकता है। सार्वभौमिक मताधिकार का मतलब है कि अपने प्रतिनिधियों के चुनाव में देश के सभी लोगों की सीधी भूमिका होती है। इसके अलावा हर व्यक्ति खुद चुनाव भी लड़ सकता है चाहे उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि कैसी भी क्यों न हो। ये प्रतिनिधि जनता के प्रति जवाबदेह होते हैं। लोकतांत्रिक कार्यपद्धति में प्रतिनिधित्व क्यों महत्त्वपूर्ण होता है, इसके बारे में आप इसी पुस्तक की दूसरी इकाई में और विस्तार से पढ़ेंगे।

3. शक्तियों का बँटवारा- संविधान के अनुसार सरकार के तीन अंग हैं - विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। विधायिका में हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं। कार्यपालिका ऐसे लोगों का समूह है जो कानूनों को लागू करने और शासन चलाने का काम देखते हैं। न्यायालयों की व्यवस्था को न्यायपालिका कहा जाता है जिसके बारे में आप इस पुस्तक की इकाई 3 में पढ़ेंगे। सरकार की किसी भी शाखा द्वारा सत्ता के दुरुपयोग को रोकने के प्रावधान किया गया है कि इन सभी अंगों की शक्तियाँ एक-दूसरे से अलग होंगी। शक्तियों के इस बँटवारे के आधार पर प्रत्येक अंग दूसरे अंग पर अंकुश रखता है और इस तरह तीनों अंगों के बीच सत्ता का संतुलन बना रहता है।

इस अध्याय में ‘राज्य’ शब्द का अकसर इस्तेमाल किया गया है। ध्यान रखें, इसका मतलब राज्य सरकारों से नहीं है। जब हम ‘राज्य’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो हम उसे ‘सरकार’ से भिन्न अर्थ में लेते हैं। ‘सरकार’ की ज़िम्मेदारी होती है कानून बनाना और लागू करना। लेकिन चुनावों के ज़रिए सरकार बदल सकती है। पर राज्य एक ऐसी राजनीतिक संस्था होती है जो निश्चित भूभाग में रहने वाले संप्रभु लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। इस आधार पर हम भारतीय राज्य, नेपाली राज्य आदि की बात कर सकते हैं। भारतीय राज्य की एक लोकतांत्रिक सरकार है। सरकार (या कार्यपालिका) राज्य का एक हिस्सा होती है। राज्य का मतलब सरकार से कहीं ज़्यादा व्यापक होता है। उसे सरकार के स्थान पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

संविधान सभा के सदस्यों को भय था कि कहीं कार्यपालिका इतनी ताकतवर न हो जाए कि विधायिका के प्रति अपने दायित्वों की उपेक्षा ही करने लगे। इस आशंका को ध्यान में रखते हुए सभा ने ऐसे कई प्रावधानों को संविधान में शामिल किया जिनके ज़रिए शासन की कार्यकारी शाखा द्वारा की जाने वाली कार्रवाइयों को सीमित और नियंत्रित किया जा सके।

अपने शिक्षक के साथ चर्चा करें कि राज्य और सरकार के बीच क्या फ़र्क होता है।

4. मौलिक अधिकार- मौलिक अधिकारों वाला खंड भारतीय संविधान की ‘अंतरात्मा’ भी कहलाता है। औपनिवेशिक शासन ने राष्ट्रवादियों के दिमाग में राज्य के प्रति संदेह का भाव पैदा कर दिया था। इसी राष्ट्रवादी चाहते थे कि स्वतंत्र भारत में राज्य की सत्ता के दुरुपयोग से बचने के कुछ लिखित अधिकार होने चाहिए। लिहाज़ा मौलिक अधिकार देश के सभी नागरिकों को राज्य की सत्ता के मनमाने और निरंकुश इस्तेमाल से बचाते हैं। इस तरह संविधान राज्य और अन्य व्यक्तियों के समक्ष व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करता है।

विभिन्न अल्पसंख्यक समुदाय भी चाहते थे कि संविधान में ऐसे अधिकारों को शामिल किया जाए जो उनके समूह की रक्षा कर सकें। फलस्वरूप बहुसंख्यकों से अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा का आश्वासन भी संविधान में दिया गया है। इन मौलिक अधिकारों के बारे में डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि इनका दोहरा उद्देश्य हैपहला, हरेक नागरिक ऐसी स्थिति में हो कि वह उन अधिकारों के दावेदारी कर सकें और दूसरा, ये अधिकार हर उस सत्ता और संस्था के बाध्यकारी हों जिसे कानून बनाने का अधिकार दिया गया है।

मौलिक अधिकारों के अलावा हमारे संविधान में एक खंड नीतिनिर्देशक तत्त्वों का भी है। संविधान सभा के सदस्यों ने यह खंड इस जोड़ा था ताकि और ज़्यादा सामाजिक व आर्थिक सुधार लाए जा सकें। वे चाहते थे कि स्वतंत्र भारतीय राज्य जनता की गरीबी दूर करने वाले कानून और नीतियाँ बनाते हुए इन सिद्धांतों को मार्गदर्शक के रूप में हमेशा अपने सामने रखे।

भारतीय संविधान में उल्लिखित मौलिक अधिकारों में से कुछ अधिकार-

1. समानता का अधिकार

कानून की नज़र में सभी लोग समान हैं। इसका मतलब है कि सभी लोगों को देश का कानून बराबर सुरक्षा प्रदान करेगा। इस अधिकार में यह भी कहा गया है कि धर्म, जाति या लिंग के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता। खेल के मैदान, होटल, दुकान इत्यादि सार्वजनिक स्थानों पर सभी को बराबर पहुँच का अधिकार होगा। रोज़गार के मामले में राज्य किसी के साथ भेदभाव नहीं कर सकता। लेकिन इसके कुछ अपवाद हैं जिनके बारे में इसी किताब में हम आगे पढ़ेंगे। छुआछूत की प्रथा का भी उन्मूलन कर दिया गया है।

2. स्वतंत्रता का अधिकार

इस अधिकार के अंतर्गत अभिव्यक्ति और भाषण की स्वतंत्रता, सभा/संगठन बनाने की स्वतंत्रता, देश के किसी भी भाग में आने-जाने और रहने तथा कोई भी व्यवसाय, पेशा या कारोबार करने का अधिकार शामिल है।

  1. शोषण के विरुद्ध अधिकार

संविधान में कहा गया है कि मानव व्यापार, जबरिया श्रम और 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को मज़दूरी पर रखना अपराध है।

4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार

सभी नागरिकों को पूरी धार्मिक स्वतंत्रता दी गई है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा का धर्म अपनाने, उसका प्रचार-प्रसार करने का अधिकार है।

5. सांस्कृतिक और शैक्षणिक अधिकार

संविधान में कहा गया है कि धार्मिक या भाषाई, सभी अल्पसंख्यक समुदाय अपनी संस्कृति की रक्षा और विकास के अपने-अपने शैक्षणिक संस्थान खोल सकते हैं।

6. संवैधानिक उपचार का अधिकार

यदि किसी नागरिक को लगता है कि राज्य द्वारा उसके किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है तो इस अधिकार का सहारा लेकर वह अदालत में जा सकता है।

निम्नलिखित परिस्थितियों में कौन से मौलिक अधिकारों का उल्लघंन हो रहा है -

- यदि 13 साल का एक बच्चा कालीन के कारखाने में मज़दूरी करता है।

- यदि किसी राज्य का कोई नेता दूसरे राज्यों के लोगों को अपने राज्य में काम करने से रोकता है।

- यदि किसी जनसमूह को राजस्थान में तेलुगु माध्यम का स्कूल खोलने की अनुमति नहीं दी जाती है।

- यदि सरकार सशस्त्र बलों में कार्यरत किसी अधिकारी को इस पदोन्नति नहीं दे रही है क्योंकि वह अधिकारी महिला है।

5. धर्मनिरपेक्षता- धर्मनिरपेक्ष राज्य वह होता है जिसमें राज्य अधिकृत रूप से किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में बढ़ावा नहीं देता। इसके बारे में हम अगले अध्याय में और विस्तार से पढ़ेंगे।

अब आप इस बात को समझने लगे होंगे कि कभी-कभी देश का इतिहास यह तय कर देता है कि देश का संविधान कैसा होगा। संविधान उन आदर्शों को तय करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है जिन्हें हम अपने देश और अपने प्रतिनिधियों के ज़रिए साकार करना चाहते हैं। जिस तरह फुटबॉल के नियम बदलते ही खेल बदल जाता है, उसी तरह जिन देशों के संविधान में भारी बदलाव आ जाते हैं वहाँ देश का बुनियादी स्वरूप भी बदल जाता है। हम नेपाल में यह देख चुके हैं। वहाँ लोकतंत्र बनाने की ज़रूरत के साथ ही एक नए संविधान की ज़रूरत भी पैदा हो गई थी।

ऊपर हमने भारतीय संविधान के जिन आयामों का ज़िक्र किया है वे कई बार काफ़ी जटिल दिखाई देते हैं और उन्हें समझने में मुश्किल भी महसूस होती है। लेकिन अभी आप इस बारे में ज्यादा फ़िक्र न करें। इस पुस्तक के बाकी अध्यायों में और अगली कक्षाओं में भारतीय संविधान के इन सभी पहलुओं के बारे में आप लगातार सीखते जाएँगे। ठोस रूप से उनका अर्थ जान पाएँगे।

संविधान में मूल कर्त्त्यों का भी उल्लेख किया गया है। अपने शिक्षक की सहायता से पता लगाएँ कि ये कर्त्तव्य कौन से हैं और लोकतंत्र में नागरिकों द्वारा इन कर्त्तव्यों का पालन करना क्यों महत्त्वपूर्ण है?

ग्यारह मौलिक कर्तव्यों में से प्रत्येक से संबंधित रेखाचित्र, तस्वीरें बनाएं अथवा उन पर कविताएं, गीत लिखें तथा कक्षा में इन पर चर्चा करें।

उपरोक्त तस्वीरों में 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा के विभिन्न सदस्य अपनी आखिरी बैठक में संविधान की एक प्रति पर हस्ताक्षर कर रहे हैं। सबसे ऊपर वाले चित्र में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू दस्तखत कर रहे हैं। दूसरे चित्र में संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद हैं। सबसे निचले चित्र में दाएँ से बाएँ क्रम में ये लोग दिखाई दे रहे हैं : श्री जयरामदास दौलतराम, खाद्य एवं कृषि मंत्री; राजकुमारी अमृत कौर, स्वास्थ्य मंत्री; डॉ. जॉन मथाई, वित्त मंत्री; सरदार वल्लभभाई पटेल, उपप्रधानमंत्री तथा उनके पीछे श्री जगजीवन राम, श्रम मंत्री खड़े हैं।

अभ्यास

1. किसी लोकतांत्रिक देश को संविधान की ज़रूरत क्यों पड़ती है?

2. नीचे दिए गए दो दस्तावेज़ों के हिस्सों को देखिए। पहला कॉलम 1990 का नेपाल के संविधान का है। दूसरा कॉलम नेपाल के ताज़ा संविधान में से लिया गया है।

1990 का नेपाल का संविधान भाग-7: कार्यपालिका 2015 का नेपाल का संविधान भाग-7: संघीय कार्यपालिका
अनुच्छेद 35: कार्यकारी शक्तियाँ नेपाल अधिराज्य की कार्यकारी शक्तियाँ महामहिम नरेश एवं मंत्रिपरिषद् में निहित होंगी। अनुच्छेद 75: कार्यकारी शक्तियाँ नेपाल की कार्यकारी शक्तियाँ संविधान और कानून के अनुसार मंत्रिपरिषद् में निहित होंगी।

नेपाल के इन दोनों संविधानों में ‘कार्यकारी शक्ति’ के उपयोग में क्या फ़र्क दिखाई देता है? इस बात को ध्यान में रखते हुए क्या आपको लगता है कि नेपाल को एक नए संविधान की ज़रूरत है? क्यों?

3. अगर निर्वाचित प्रतिनिधियों की शक्ति पर कोई अंकुश न होता तो क्या होता?

4. निम्नलिखित स्थितियों में अल्पसंख्यक कौन हैं? इन स्थितियों में अल्पसंख्यकों के विचारों का सम्मान करना क्यों महत्त्वपूर्ण है। इसका एक-एक कारण बताइए।

(क) एक स्कूल में 30 शिक्षक हैं और उनमें से 20 पुरुष हैं।

(ख) एक शहर में 5 प्रतिशत लोग बौद्ध धर्म को मानते हैं।

(ग) एक कारखाने के भोजनालय में 80 प्रतिशत कर्मचारी शाकाहारी हैं।

(घ) 50 विद्यार्थियों की कक्षा में 40 विद्यार्थी संपन्न परिवारों से हैं।

5. नीचे दिए गए बाएँ कॉलम में भारतीय संविधान के मुख्य आयामों की सूची दी गई है। दूसरे कॉलम में प्रत्येक आयाम के सामने दो वाक्यों में लिखिए कि आपकी राय में यह आयाम क्यों महत्त्वपूर्ण है-

मुख्य आयाम महत्त्व
संघवाद
शक्तियों का बँटवारा
मौलिक अधिकार
संसदीय शासन पद्धति

6. उन भारतीय राज्यों के नाम लिखिए जिनकी सीमाएँ निम्नलिखित पड़ोसी देशों से लगती हैं।

(क) बांग्लादेश

(ख) भूटान

(ग) नेपाल

शब्द संकलन

मनमानापन- जब सब कुछ किसी के व्यक्तिगत फ़ैसलों या पसंद-नापसंद से चलने लगता है तो उसे मनमानापन कहा जाता है। जहाँ नियम तय नहीं किए गए हों या जहाँ फैसलों का कोई आधार नहीं है, उसे ही मनमाना कहा जा सकता है।

आदर्श- जब कोई लक्ष्य या सिद्धांत अपने सबसे शुद्ध या सर्वश्रेष्ठ रूप में होता है तो उसे आदर्श कहा जाता है।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का उदय उन्नीसवीं सदी में हुआ था। इस आंदोलन में हज़ारों मर्द-औरत ब्रिटिश शासन से लोहा लेने के एकजुट हो गए थे। यह आंदोलन 1947 में भारत की आज़ादी में परिणत हुआ। इसी वर्ष की इतिहास की पाठ्यपुस्तक में इस आंदोलन को आप और अच्छी तरह से जानेंगे।

राज्य व्यवस्था ( Polity )- इसका आशय एक ऐसे समाज से है जिसकी राजनीतिक संरचना व्यवस्थित है। भारत एक लोकतांत्रिक राज्यव्यवस्था है।

संप्रभु- इस अध्याय के संदर्भ में स्वतंत्र जनता को संप्रभु कहा गया है।

मानव व्यापार- राष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार विभिन्न चीज़ों की ग़ैरानूनी खरीद-बिक्री को अवैध व्यापार कहा जाता है। इस अध्याय में जिन मौलिक अधिकारों की चर्चा की गई है, उनके संबंध में अवैध व्यापार का मतलब औरतों और बच्चों की ग़ैरकानूनी ख़रीद-फ़रोख़्त से है जिसे मानव व्यापार कहा जाता है।

निरंकुशता- इसका मतलब सत्ता या अधिकारों के क्रूर एवं अन्यायपूर्ण इस्तेमाल से है।



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