अध्याय 08 राष्ट्रीय आंदोलन का संघटन : 1870 के दशक से 1947 तक

पिछले अध्यायों में हम निम्नलिखित का अध्ययन कर चुके हैं-

  • भारतीय भूक्षेत्र पर अंग्रेजों का कब्जा और रियासतों का अधिग्रहण
  • नए कानूनों और प्रशासकीय संस्थाओं की शुरुआत
  • किसानों और आदिवासियों की ज़िदगी में बदलाव
  • उन्नीसवीं सदी में आए शैक्षणिक बदलाव
  • महिलाओं की स्थिति से संबंधित वाद-विवाद
  • जाति व्यवस्था को चुनौतियाँ
  • सामाजिक एवं धार्मिक सुधार
  • 1857 का विद्रोह और उसके बाद की स्थिति
  • हस्तकलाओं का पतन और उद्योगों का विकास

इन मुदों के बारे में आपने जो कुछ पढ़ा, उसके आधार पर क्या आपको ऐसा लगता है कि भारत के लोग ब्रिटिश शासन से असंतुष्ट थे? यदि हाँ तो विभिन्न समूह और वर्ग क्यों असंतुष्ट थे?

चित्र 1 - भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान प्रदर्शनकारियों पर आँसू गैस के गोले छोड़ती पुलिस

राष्ट्रवाद का उदय

उपरोक्त बदलावों ने लोगों को एक अहम सवाल के बारे में सोचने के विवश कर दिया— यह देश क्या है और किसके है? इसका जवाब धीरे-धीरे इस रूप में सामने आया— भारत का मतलब है यहाँ की जनता—भारत, यहाँ रहने वाले किसी भी वर्ग, रंग, जाति, पंथ, भाषा या जेंडर वाले तमाम लोगों का घर है। यह देश और इसके सारे संसाधन और इसकी सारी व्यवस्था उन सभी के है। इस जवाब के साथ ये अहसास भी सामने आया कि अंग्रेज भारत के संसाधनों व यहाँ के लोगों की ज़िंदगी पर कब्जा जमाए हुए हैं और जब तक यह नियंत्रण ख़त्म नहीं होता, भारत यहाँ के लोगों का, भारतीयों का नहीं हो सकता।

यह चेतना 1850 के बाद बने राजनीतिक संगठनों में साफ़ दिखाई देने लगी थी। 1870 और 1880 के दशकों में बने राजनीतिक संगठनों में यह चेतना और गहरी हो चुकी थी। इनमें से ज़्यादतर संगठनों की बागडोर वकील आदि अंग्रेज़ी शिक्षित पेशेवरों के हाथों में थी। पूना सार्वजनिक सभा, इंडियन एसोसिएशन, मद्रास महाजन सभा, बॉम्बे रेजिडेंसी एसोसिएशन और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आदि इस तरह के प्रमुख संगठन थे।

“पूना सार्वजनिक सभा” नाम को गौर से देखिए। “सार्वजनिक" का मतलब होता है “सब लोगों का या सबके ’ (सर्व=सभी, जनिक=लोगों का)। हालाँकि इनमें से बहुत सारे संगठन देश के ख़ास हिस्सों में काम कर रहे थे लेकिन वे अपने लक्ष्य को भारत के सभी लोगों का लक्ष्य बताते थे। उनके मुताबिक, उनके लक्ष्य किसी ख़ास इलाके, समुदाय या वर्ग के लक्ष्य नहीं थे। वे इस सोच के साथ काम कर रहे थे कि लोग सम्प्रभु हों। संप्रभुता एक आधुनिक विचार और राष्ट्रवाद का बुनियादी तत्व होता है। ये संगठन इस धारणा से चलते थे कि भारतीय जनता को अपने मामलों के बारे में फ़ैसले लेने की आजादी होनी चाहिए।

सम्प्रभु - बाहरी हस्तक्षेप के बिना स्वतंत्र रूप से कदम उठाने की क्षमता।

1870 और 1880 के दशकों में ब्रिटिश शासन के प्रति असंतोष और ज़्यादा गहरा हुआ। 1878 में आर्म्स एक्ट पारित किया गया जिसके ज़रिए भारतीयों द्वारा अपने पास हथियार रखने का अधिकार छीन लिया गया। उसी साल वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट भी पारित किया गया जिससे सरकार की आलोचना करने वालों को चुप कराया जा सके। इस कानून में प्रावधान था कि अगर किसी अख़ार में कोई ‘आपत्तिजनक’ चीज़ छपती है तो सरकार उसकी प्रिंटिंग प्रेस सहित सारी सम्पत्ति को ज़ब्त कर सकती है। 1883 में सरकार ने इल्बर्ट बिल लागू करने का प्रयास किया। इसको लेकर काफ़ी हंगामा हुआ। इस विधेयक में प्रावधान किया गया था कि भारतीय न्यायाधीश भी ब्रिटिश या यूरोपीय व्यक्तियों पर मुकदमे चला सकते हैं ताकि भारत में काम करने वाले अंग्रेज़ और भारतीय न्यायाधीशों के बीच समानता स्थापित की जा सके। जब अंग्रेजों के विरोध की वजह से सरकार ने यह विधेयक वापस ले लिया तो भारतीयों ने इस बात का काफ़ी विरोध किया। इस घटना से भारत में अंग्रेजों के असली रवैये का पता चलता था।

पढ़े-लिखे भारतीयों के एक अखिल भारतीय संगठन की ज़रूरत 1880 से ही महसूस की जा रही थी परंतु इल्बर्ट विधेयक ने इस चाह को और गहरा कर दिया था। 1885 में देश भर के 72 प्रतिनिधियों ने बम्बई में सभा करके भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का फ़ैसला लिया। संगठन के प्रारंभिक नेता— दादा भाई नौरोजी, फिरोज़शाह मेहता, बदरूद्दीन तैयब जी, डब्ल्यू. सी. बैनर्जी, सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी, रोमेशचन्द्र दत्त, एस. सुब्रमण्यम अय्यर एवं अन्यप्रायः बम्बई और कलकत्ता के ही थे। नौरोजी व्यवसायी और प्रचारक थे। वे लंदन में रहते थे और कुछ समय के ब्रिटिश संसद के सदस्य भी रहे। उन्होंने युवा राष्ट्रवादियों का मार्गदर्शन किया। सेवानिवृत्त ब्रिटिश अफ़सर ए.ओ. ह्यम ने भी विभिन्न क्षेत्रों के भारतीयों को निकट लाने में अहम भूमिका अदा की।

स्रोत 1

कांग्रेस किसके पक्ष में बोलने का प्रयास कर रही थी?

जनवरी 1886 में दि इंडियन मिरर नामक अख़बार ने लिखा—

बम्बई में आयोजित प्रथम राष्ट्रीय कांग्रेस हमारे देश की भावी संसद का केंद्रक है और यह हमोरे देशवासियों के अकल्पनीय रूप से लाभकारी परिणामों को जन्म देगी।

बदरूद्दीन तैयबजी ने 1887 में अध्यक्ष की हैसियत से कांग्रेस को संबोधित करते हुए कहा था-

यह कांग्रेस भारत के किसी एक वर्ग या समुदाय के प्रतिनिधियों से मिलकर नहीं बनी है बल्कि यह भारत के सभी समुदायों की संस्था है।

उभरता हुआ राष्ट्र

अकसर कहा जाता है कि अपने पहले बीस सालों में कांग्रेस अपने उद्देश्य और तरीकों के लिहाज़ से “मध्यमार्गी” पार्टी थी। इस दौरान कांग्रेस ने सरकार और शासन में भारतीयों को और ज़्यादा जगह दिए जाने के आवाज़ उठाई। कांग्रेस का आग्रह था कि विधान परिषदों में भारतीयों को ज़्यादा जगह दी जाए, परिषदों को ज़्यादा अधिकार दिए जाएँ और जिन प्रांतों में परिषदें नहीं हैं वहाँ उनका गठन किया जाए। कांग्रेस चाहती थी कि सरकार में भारतीयों को भी ऊँचे पद दिए जाएँ। इस काम के उसने माँग की कि सिविल सेवा के लंदन के साथ-साथ भारत में भी परीक्षा आयोजित की जाए।

प्रचारक - ऐसा व्यक्ति जो सूचनाओं के प्रसार, रिपोट्र्स, बैठकों में भाषण आदि के ज़रिए किसी ख़ास विचार का प्रचार-प्रसार करता है।

चित्र 2 - दादाभाई नौरोजी। नौरोजी की पुस्तक पावर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया में ब्रिटिश शासन के आर्थिक परिणामों की बहुत तीखी आलोचना की गई थी।

गतिविधि

शुरुआत से ही कांग्रेस सभी भारतीय लोगों के हक में और उनकी ओर से बोलने का संकल्प व्यक्त कर रही थी। कांग्रेस ने ऐसा क्यों किया?

निरस्त करना - किसी कानून को समाप्त करना, किसी कानून की वैधता अधिकृत रूप से समाप्त कर देना।

स्रोत 2

सोने की चाह में

डिनशॉ वाचा नामक एक मध्यमर्गी नेता ने 1887 में नौरोजी को संबोधित करते हुए लिखा था-

आजकल फिरोज़शाह अपने निजी कामों में बहुत ज़्यादा व्यस्त हैं…। वे लोग पहले ही काफ़ी अमीर हैं…। तेलंग साहब भी व्यस्त रहते हैं। मुझे समझ में नहीं आता अगर सभी लोग सोने की चाह में इतने व्यस्त रहेंगे तो देश की प्रगति कैसे हो सकती है?

शासन व्यवस्था के भारतीयकरण की माँग नस्लवाद के खिलाफ़ चल रहे आंदोलन का एक हिस्सा थी क्योंकि तब तक ज़्यादातर महत्त्वपर्ण नौकरियों पर गोरे अफ़सरों का ही कब्जा था। अंग्रेज आमतौर पर यह मानकर चलते थे कि भारतीयों को ज़िम्मेदारी भरे पद नहीं दिए जा सकते। क्योंकि अंग्रेज़ अफ़सर अपने भारी-भरकम वेतन का एक बड़ा हिस्सा ब्रिटेन भेज देते थे इस लोगों को उम्मीद थी कि भारतीयकरण से यहाँ की धन-सम्पत्ति भी कुछ हद तक भारत में रुकने लगेगी। भारतीयों की माँग थी कि न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग किया जाए, आर्म्स एक्ट को निरस्त किया जाए और अभिव्यक्ति व बोलने कीस्वतंत्रता दी जाए।

शुरुआती सालों में कांग्रेस ने कई आर्थिक मुद्दे भी उठाए। उसका कहना था कि भारत में ब्रिटिश शासन की वजह से ही गरीबी और अकाल पड़ रहे हैं। बढ़ते लगान के कारण काश्तकार और जजमींदार विपन्न हो गए थे और अनाजों के भारी निर्यात की वजह से खाद्य पदार्थों का अभाव पैदा हो गया था। कांग्रेस की माँग थी कि लगान कम किया जाए, फौज़ी खर्चों में कटौती की जाए और सिंचाई के ज़्यादा अनुदान दिए जाएँ। उसने नमक कर, विदेशों में भारतीय मज़दों के साथ होने वाले बर्ताव तथा भारतीयों के कामों में दखलअंदाज़ी करने वाले वन प्रशासन की वजह से वनवासियों की बढ़ती मुसीबतों के बारे में बहुत सारे प्रस्ताव पारित किए। इससे पता चलता है कि पढ़े-लिखे सम्पन्न वर्ग की संस्था होते हुए भी कांग्रेस केवल पेशेवर समूहों, जमींदारों और उद्योगपतियों के हक में ही नहीं बोल रही थी।

मध्यमार्गी नेता जनता को ब्रिटिश शासन के अन्यायपर्ण चरित्र से अवगत कराना चाहते थे। उन्होंने अख़बार निकाले, लेख लिखे और यह साबित करने का प्रयास किया कि ब्रिटिश शासन देश को आर्थिक तबाही की ओर ले जा रहा है। उन्होंने अपने भाषणों में ब्रिटिश शासन की निंदा की और जनमत निर्माण के देश के विभिन्न भागों में अपने प्रतिनिधि भेजे। लेकिन मध्यमार्गियों को ये भी लगता था कि अंग्रेज़ स्वतंत्रता व न्याय के आदर्शों का सम्मान करते हैं इस वे भारतीयों की न्यायसंगत माँगों को स्वीकार कर लेंगे। लिहाजा, कांग्रेस का मानना था कि सरकार को भारतीयों की भावना से अवगत कराया जाना चाहिए।

“स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है”

1890 के दशक तक बहुत सारे लोग कांग्रेस के राजनीतिक तौर-तरीकों पर सवाल खड़ा करने लगे थे। बंगाल, पंजाब और महाराष्ट्र में बिपिनचंद्र पाल, बाल गंगाधार तिलक और लाला लाजपत राय जैसे नेता ज़्यादा आमल परिवर्तनवादी उद्देश्य और पद्धतियों के अनुरूप काम करने लगे थे। उन्होंने “निवेदन की राजनीति” के नरमपंथियों की आलोचना की और आत्मनिर्भरता तथा रचनात्मक कामों के महत्त्व पर जोर दिया। उनका कहना था कि लोगों को सरकार के “नेक” इरादों पर नहीं बल्कि अपनी ताकत पर भरोसा करना चाहिए-लोगों को स्वराज के लड़ना चाहिए। तिलक ने नारा दिया— “स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा!”

गतिविधि

उपरोक्त टिप्पणी के आधार पर शुरुआती कांग्रेस के बारे में कौन-सी समस्याओं का पता चलता है?

1905 में वायसराय कज़र्न ने बंगाल का विभाजन कर दिया। उस वक्त बंगाल ब्रिटिश भारत का सबसे बड़ा प्रांत था। बिहार और उड़ीसा के कुछ भाग भी उस समय बंगाल का हिस्सा थे। अंग्रेज़ों का कहना था कि प्रशासकीय सुविधा को ध्यान में रखते हुए बंगाल का बँटवारा करना ज़रूरी था। परंतु इस “प्रशासकीय सुविधा” का मतलब क्या था? इससे किसको “सुविधा" मिलने वाली थी? ज्ञाहिर है इसका ताल्लुक अंग्रेज़ अफ़सरों और व्यापारियों के फायदे से था। लेकिन सरकार ने गैर-बंगाली इलाकों को अलग करने की बजाय उसके पूर्वी भागों को अलग करके असम में मिला दिया। पूर्वी बंगाल को अलग करने के पीछे अंग्रेजों का मुख्य उद्देश्य ये रहा होगा कि बंगाली राजनेताओं के प्रभाव पर अंकुश लगाया जाए और बंगाली जनता को बाँट दिया जाए।

चित्र 3 - बाल गंगाधर तिलक। मेज़ पर रखे अख़बार का नाम देखिए। तिलक के संपादन में निकलने वाला मराठी अख़बार - केसरी - ब्रिटिश शासन का कट्टर आलोचक बन गया था।

बंगाल के विभाजन से देश भर में गुस्से की लहर फैल गई। मध्यमार्गी और आमूल परिवर्तनवादी, कांग्रेस के सभी धड़ों ने इसका विरोध किया। विशाल जनसभाओं का आयोजन किया गया और जुलूस निकाले गए। जनप्रतिरोध के नए-नए रास्ते ढूँढ़े गए। इससे जो संघर्ष उपजा उसे स्वदेशी आंदोलन के नाम से जाना जाता है। यह आंदोलन बंगाल में सबसे ताकतवर था परंतु अन्य इलाकों में भी

चित्र 4 - स्वदेशी आंदोलन के दौरान हजारों लोग जुलूसों में शामिल होने लगे।

चित्र 5 - लाला लाजपत राय।

लाजपत राय पंजाब के जाने-माने राष्ट्रवादियों में से थे। वह याचिका और निवेदनों की राजनीति का विरोध करने वाले आमूल परिवर्तनवादी के एक प्रमुख नेता थे। वह आर्यसमाज के भी सक्रिय सदस्य थे।

क्रांतिकारी हिंसा - समाज में आमूल बदलाव लाने के हिंसा का उपयोग करना।

परिषद् - प्रशासकीय, सलाहकारी या प्रातिनिधिक दायित्वों को निभाने वाली मनोनीत या निर्वाचित संस्था।

गतिविधि

पता लगाएँ कि पहला विश्व युद्ध किन देशों ने लड़ा था?

इसकी भारी अनुगूँज सुनाई दी। उदाहरण के , आंध्र के डेल्टा इलाकों में इसे वंदेमातरम् आंदोलन के नाम से जाना जाता था।

स्वदेशी आंदोलन ने ब्रिटिश शासन का विरोध किया और स्वयं सहायता, स्वदेशी उद्यमों, राष्ट्रीय शिक्षा और भारतीय भाषा के उपयोग को बढ़ावा दिया। स्वराज के आमूल परिवर्तनवादी ने जनता को लामबंद करने और ब्रिटिश संस्थानों व वस्तुओं के बहिष्कार पर ज़ोर दिया। कुछ लोग ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के “क्रांतिकारी हिंसा” के समर्थक थे।

बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में कई दूसरी महत्त्वपूर्ण घटनाएँ भी घटीं। 1906 में मुसलमान ज़मींदारों और नवाबों के एक समूह ने ढाका में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग का गठन किया। लीग ने बंगाल विभाजन का समर्थन किया। लीग की माँग थी कि मुसलमानों के अलग निर्वाचिका की व्यवस्था की जाए। 1909 में सरकार ने यह माँग मान ली। अब परिषदों में कुछ सीटें मुसलमान उम्मीदवारों के आरक्षित कर दी गईं जिन्हें मुस्लिम मतदाताओं द्वारा ही चुनकर भेजा जाना था। इससे राजनेताओं में अपने धार्मिक समुदाय के लोगों को अपना राजनीतिक समर्थक बनाने का लालच पैदा हो गया।

1907 में कांग्रेस टूट गई। मध्यमार्गी धड़ा बहिष्कार की राजनीति के विरुद्ध था। इन लोगों का मानना था कि इसके बल प्रयोग की आवश्यकता होती है जो कि सही नहीं है। संगठन टूटने के बाद कांग्रेस पर मध्यमार्गी का दबदबा बन गया जबकि तिलक के अनुयायी बाहर से काम करने लगे। दिसंबर 1915 में दोनों खेमों में एक बार फिर एकता स्थापित हुई। अगले साल कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच ऐतिहासिक लखनऊ समझौते पर दस्तख़त हुए और दोनों संगठनों ने देश में प्रातिनिधिक सरकार के गठन के मिलकर काम करने का फ़ैसला लिया।

जनराष्ट्रवाद का उदय

1919 के बाद अंग्रेजों के खिलाफ़ चल रहा संघर्ष धीरे-धीरे एक जनांदोलन में तब्दील होने लगा। किसान, आदिवासी, विद्यार्थी और महिलाएँ बड़ी संख्या में इस आंदोलन से जुड़ते गए। कई बार औद्योगिक मजजदूरों ने भी आंदोलन में योगदान दिया। बीस के दशक से कुछ ख़ास व्यावसायिक समूह भी कांग्रेस को सक्रिय समर्थन देने लगे थे। ऐसा क्यों हुआ?

पहले विश्व युद्ध ने भारत की आर्थिक और राजनीतिक स्थिति बदल दी थी। इस युद्ध की वजह से ब्रिटिश भारत सरकार के रक्षा व्यय में भारी इजााफ़ हुआ था। इस खर्चे को निकालने के सरकार ने निजी आय और व्यावसायिक मुनाफ़े पर कर बढ़ा दिया था। सैनिक व्यय में इजाफे तथा युद्धक आपूर्ति की वजह से ज़रूरी कीमतों की चीजों में भारी उछाल आया और आम लोगों की जिंदगी मुश्किल होती गई। दूसरी ओर व्यावसायिक समूह युद्ध से बेहिसाब मुनाफ़ा कमा रहे थे। जैसा कि आप अध्याय 6 में देख चुके हैं, इस युद्ध में औद्योगिक वस्तुओं (जूट के बोरे, कपड़े,

पटरियाँ) की माँग बढ़ा दी और अन्य देशों से भारत आने वाले आयात में कमी ला दी थी। इस तरह, युद्ध के दौरान भारतीय उद्योगों का विस्तार हुआ और भारतीय व्यावसायिक समह विकास के और अधिक अवसरों की माँग करने लगे।

युद्ध ने अंग्रेजों को अपनी सेना बढ़ाने के विवश किया। एक विदेशी युद्ध की खातिर गाँवों में सिपाहियों की भर्ती के दबाव डाला जाने लगा। बहुत सारे सिपाहियों को दूसरे देशों में युद्ध के मोर्चों पर भेज दिया गया। इनमें से बहुत सारे सिपाही युद्ध के बाद यह समझदारी लेकर लौटे कि साम्राज्यवादी शक्तियाँ एशिया और अफ्रीका के लोगों का किस तरह शोषण कर रही हैं। फलस्वरूप ये लोग भी भारत में औपनिवेशिक शासन का विरोध करने लगे।

इसके अलावा, 1917 में रूस में क्रांति हुईा इस घटना के चलते किसानों और मज़दरों के संघर्षों का समाचार तथा समाजवादी विचार बड़े पैमाने पर फैलने लगे थे जिससे भारतीय राष्ट्रवादियों को नई प्रेणा मिलने लगी।

महात्मा गांधी का आगमन

इन्हीं हालात में महात्मा गांधी एक जननेता के रूप में सामने आए। गांधीजी 46 वर्ष की उम्र में 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे। वे वहाँ पर नस्लभेदी पाबंदियों के खिलाफ़ अहिंसक आंदोलन चला रहे थे और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी अच्छी मान्यता थी और लोग उनका आदर करते थे। दक्षिण अफ़ीकी आंदोलनों की वजह से उन्हें हिंदू, मुसलमान, पारसी और ईसाई; गुजराती, तमिल और उत्तर भारतीय; उच्च वर्गीय व्यापारी, वकील और मज़ूरू, सब तरह के भारतीयों से मिलने-जुलने का मौका मिल चुका था।

महात्मा गांधी ने पहले साल पूरे भारत का दौरा किया। इस दौरान वे यहाँ के लोगों, उनकी ज़रूतों और हालात को समझने में लगे रहे। उनके शुरुती प्रयास चंपरण, खेड़ा और अहमदाबाद के स्थानीय आंदोलनों के रूप में

चित्र 6 - नटाल कांग्रेसे के संस्श्भापक, डरबन, दक्षिण अफ़्रीका, 1895.

1895 में अन्य भारतीयों के साथ महात्मा गांधी ने नस्ली भेदभाव का विरोध करने के नटाल कांग्रेस का गठन किया था। क्या आप चित्र में गांधीजी को पहचान सकते हैं? वह पिछली कतार के ठीक बीच में कोट और टाई पहने दिखाई दे रहे हैं।

सामने आए। इन आंदोलनों के माध्यम से उनका राजेंद्र प्रसाद और वल्लभ भाई पटेल से परिचय हुआ। 1918 में अहमदाबाद में उन्होंने मिल मज़दूरों की हड़ताल का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया।

आइए अब 1919 से 1922 के बीच के आंदोलनों को कुछ गहराई से देखें।

गतिविधि

जलियाँवाला बाग हत्याकांड के बारे में जानकारियाँ इकट्ठा करें। जलियाँवाला बाग क्या है? यहाँ किस तरह के अत्याचार हुए? ये अत्याचार कैसे हुए?

रॉलट सत्याग्रह

1919 में गांधीजी ने अंग्रेजों द्वारा हाल ही में पारित किए गए रॉलट कानून के खिलाफ़ सत्याग्रह का आह्वान किया। यह कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मूलभूत अधिकारों पर अंकुश लगाने और पुलिस को और ज़्यादा अधिकार देने के लागू किया गया था। महात्मा गांधी, मोहम्मद अली जिन्ना तथा अन्य नेताओं का मानना था कि सरकार के पास लोगों की बुनियादी स्वतंत्रताओं पर अंकुश लगाने का कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने इस कानून को “शैतान की करतूत" और निरंकुशवादी बताया। गांधीजी ने लोगों से आह्वान किया कि इस कानून का विरोध करने के 6 अप्रैल 1919 को अहिंसक विरोध दिवस के रूप में, “अपमान व याचना" दिवस के रूप में मनाया जाए और हड़तालें की जाएँ। आंदोलन शुरू करने के सत्याग्रह सभाओं का गठन किया गया।

चित्र 7 - वह परिसर जहाँ जनरल डायर ने लोगों की सभा पर गोलियाँ चलाई थीं। बाद के इस चित्र में लोग दीवार पर बने गोलियों के निशानों की तरफ़ इशारा कर रहे हैं।

नाइटहुड - ब्रिटिश राजा/रानी की तरफ़ से किसी व्यक्ति की अप्रतिम व्यक्तिगत सफलताओं या जनसेवा के दी जाने वाली उपाधि।

रॉलट सत्याग्रह ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ पहला अखिल भारतीय संघर्ष था हालाँकि यह मोटे तौर पर शहरों तक ही सीमित था। अप्रैल 1919 में पूरे देश में जगह-जगह जुलूस निकाले गए और हड़तालों का आयोजन किया गया। सरकार ने इन आंदोलनों को कुचलने के दमनकारी रास्ता अपनाया। बैसाखी (13 अप्रैल) के दिन अमृतसर में जनरल डायर द्वारा जलियाँवाला बाग में किया गया हत्याकांड इसी दमन का हिस्सा था। इस जनसंहार पर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी पीड़ा और गुस्सा जताते हुए नाइटहुड की उपाधि वापस लौटा दी।

रॉलट सत्याग्रह के दौरान लोगों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ हिंदुओं और मुसलमानों के बीच गहरी एकता बनाए रखने के प्रयास किए।

महात्मा गांधी भी यही चाहते थे। उनकी राय में भारत यहाँ रहने वाले सभी लोगों, यानी सभी हिंदुओं, मुसलमानों और अन्य धर्मों के लोगों का देश है। उनकी गहरी आकांक्षा थी कि हिंदू और मुसलमान किसी भी न्यायपूर्ण उद्देश्य के एक-दूसरे का समर्थन करें।

ख़िलाफ़त आंदोलन और असहयोग आंदोलन

खिलाफ़त का मुद्दा इसी तरह का एक ज्वलंत मुद्दा था। 1920 में अंग्रेजों ने तुर्की के सुल्तान (ख़लीफ़ा) पर बहुत सख्त संधि थोप दी थी। जलियाँवाला बाग हत्याकांड की तरह इस घटना पर भी भारत के लोगों में भारी गुस्सा था। भारतीय मुसलमान यह भी चाहते थे कि पुराने ऑटोमन साम्राज्य में स्थित पवित्र मुस्लिम स्थानों पर खलीफ़ा का नियंत्रण बना रहना चाहिए। खिलाफ़त आंदोलन के नेता मोहम्मद अली और शौकत अली अब एक सर्वव्यापी असहयोग आंदोलन शुरू करना चाहते थे। गांधीजी ने उनके आह्बान का समर्थन किया और कांग्रेस से आग्रह किया कि वह पंजाब में हुए अत्याचारों (जलियाँवाला हत्याकांड) और खिलाफ़त के मामले में हुए अत्याचार के विरुद्ध मिल कर अभियान चलाएँ और स्वराज की माँग करें।

1921-1922 के दौरान असहयोग आंदोलन को और गति मिली। हज़ारों विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूल-कॉलेज छोड़ दिए। मोतीलाल नेहरू, सी.आर. दास, सी. राजगोपालाचारी और आसफ़ अली जैसे बहुत सारे वकीलों ने वकालत छोड़ दी। अंग्रेजों द्वारा दी गई उपाधियों को वापस लौटा दिया गया और विधान मंडलों का बहिष्कार किया गया। जगह-जगह लोगों ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई। 1920 से 1922 के बीच विदेशी कपड़ों के आयात में भारी गिरावट आ गई। परंतु यह तो आने वाले तूफ़ान की सिर्फ़ एक झलक थी। देश के ज़्यादातर हिस्से एक भारी विद्रोह के मुहाने पर खड़े थे।

लोगों की पहलकदमी

कई जगहों पर लोगों ने ब्रिटिश शासन का अहिंसक विरोध किया। लेकिन कई स्थानों पर विभिन्न वर्गों और समूहों ने गांधीजी के आह्वान के अपने हिसाब से अर्थ निकाले और इस तरह के रास्ते अपनाए जो गांधीजी के विचारों से मेल नहीं खाते थे। सभी जगह लोगों ने अपने आंदोलनों को स्थानीय मुद्दों के साथ जोड़कर आगे बढ़ाया। आइए ऐसे कुछ उदाहरणों पर विचार करें।

खेड़ा, गुजरात में पाटीदार किसानों ने अंग्रेजों द्वारा थोप दिए गए भारी लगान के खिलाफ़ अहिंसक अभियान चलाया। तटीय आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के भीतरी भागों में शराब की दुकानों की घेराबंदी की गई। आंध्र प्रदेश के गुंटूर ज़िले में आदिवासी और गरीब किसानों ने बहुत सारे “वन सत्याग्रह” किए। इन सत्याग्रहों में कई बार वे चरायी शुल्क अदा किए बिना भी अपने जानवरों को जंगल में छोड़ देते थे। उनका विरोध इस था क्योंकि औपनिवेशिक सरकार ने वन संसाधनों पर उनके अधिकारों को बहुत सीमित कर दिया था।

स्रोत 3

पीड़ा का चिरंतन सिद्धांत

अहिंसा से गांधीजी का क्या आशय था? अहिंसा किसी संघर्ष का आधार कैसे बन सकती थी? इस बारे में गांधीजी का यह कहना था-

प्रतिफल की मामूली सी भी इच्छा किए बिना लगातार अच्छे काम करते जाने से अहिंसा का जन्म होता है…। यही अहिंसा का सबसे अमूल्य सबक है…। दक्षिण अफ्रोका में… मैंने अन्याय और अत्याचार को रोकने के उद्देश्य से पीड़ा के अनन्त सिद्धांत को सीख लिया है। इसका सकारात्मक आशय अहिंसा से है। इसके आपको किसी भी व्यक्ति के हाथों खुशी-खुशी पीड़ा सहने के तैयार रहना चाहिए और आप किसी के प्रति दुर्भावना नहीं रखेंगे, यहाँ तक कि आपके साथ बुरा करने वालों के साथ भी नहीं।

महात्मा गांधी, 12 मार्च 1938

घेराबंदी - लोगों को किसी इमारत या दुकान में जाने से रोकने के किया जाने वाला विरोध प्रदर्शन।

महंत - सिख गुर्द्वारों के धार्मिक कर्ता-धर्ता

गैर-काननी बेदख़ली - पटाईदारों को उनके पट्टे से जबरन और गैर-कानूनी ढंग से निकाल देना।

उन्हें यकीन था कि गांधीजी उन पर लगे कर कम करा देंगे और वन कानूनों को ख़त्म करा देंगे। बहुत सारे वन गाँवों में किसानों ने स्वराज का ऐलान कर दिया क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि “गांधी राज" जल्दी ही स्थापित होने वाला है।

सिंध (मौजूदा पाकिस्तान) में मुस्लिम व्यापारी और किसान ख़िलाफ़त के आह्वान पर बहुत उत्साहित थे। बंगाल में भी ख़िलाफ़त-असहयोग के गठबंधन ने ज़बरदस्त साम्प्रदायिक एकता को जन्म दिया और राष्ट्रीय आंदोलन को नई ताकत प्रदान की।

पंजाब में सिखों के अकाली आंदोलन ने अंग्रेजों की सहायता से गुरुद्वारों में जमे बैठे भ्रष्ट महंतों को हटाने के आंदोलन चलाया। यह आंदोलन असहयोग आंदोलन से काफ़ी घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ दिखाई देता था। असम में “गांधी महाराज की जय" के नारे लगाते हुए चाय बाग़ान मज़दरों ने अपनी तनख़्वाह में इज़ाफ़े की माँग शुरू कर दी। उन्होंने अंग्रेजी स्वामित्व वाले बाग़ानों की नौकरी छोड़ दी। उनका कहना था कि गांधीजी भी यही चाहते हैं। उस दौर के बहुत सारे असमिया वैष्णव गीतों में कृष्ण की जगह “गांधी राज" का यशगान किया जाने लगा था।

चित्र 8 - महात्मा गांधी की जनता से उपजी एक छवि।

जनता से उपजी छवियों में भी महात्मा गांधी को अकसर एक दैवी शक्ति के रूप में दिखाया जाता रहा था। इस तसवीर में वह कृष्ण के सारथी बने हैं। मार्गदर्शन कर रहे हैं। वह अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ युद्ध में अन्य राष्ट्रवादी नेताओं का मार्गदर्शन कर रहे हैं।

जनता के महात्मा

इन उदाहरणों के आधार पर हम देख सकते हैं कि कई जगह के लोग गांधीजी को एक तरह का मसीहा, एक ऐसा व्यक्ति मानने लगे थे जो उन्हें मुसीबतों और गरीबी से छुटकारा दिला सकता है। गांधीजी वर्गीय टकरावों की बजाय वर्गीय एकता के समर्थक थे। परंतु किसानों को लगता था कि गांधीजी ज़मींदारों के खिलाफ़ उनके संघर्ष में मदद देंगे। खेतिहर मजजदूरों को यकीन था कि गांधीजी उन्हें ज्मीन दिला देंगे। कई बार आम लोगों ने खुद अपनी उपलव्धियों के भी गांधीजी को श्रेय दिया। उदाहरण के , एक शक्तिशाली आंदोलन के बाद संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) स्थित प्रतापगढ़ के किसानों ने पट्टेदारों की गैर-कानूनी बेदखली को रुकवाने में सफलता पा ली थी परंतु उन्हें लगता था कि यह सफलता उन्हें गांधीजी की वजह से मिली है। कई बार गांधीजी का नाम लेकर आदिवासियों और किसानों ने ऐसी कार्रवाईयाँ भी कीं जो गांधीवादी आदर्शों के अनुरूप नहीं थीं।

स्रोत 4

"वही थे जिन्होंने प्रतापगढ़ में बेदख़ली रुकवाई थी"

इलाहाबाद ज़िले में किसान आंदोलन पर सीआईडी द्वारा तैयार की गई जनवरी 1921 की रिपोर्ट का एक अंश इस प्रकार था-

दर-दराज़ के गाँवों में भी गांधीजी के नाम का सिक्का जितना चलने लगा है, उसे देखकर अचंभा होता है। किसी को भी पता नहीं है कि वह कौन हैं या क्या हैं? फिर भी सबने मान लिया है कि वे जो कहते हैं वह सही है और उनका जो भी आदेश है वह पूरा होना चाहिए। वह एक महात्मा या साधु, एक पंडित, इलाहाबाद के एक ब्राह्मण, यहाँ तक कि एक देवता हैं… उनके नाम की असली ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रतापगढ़ के लोग मानते हैं कि उन्होंने ही बेदखखली रुकवाई थी… आमतौर पर गांधीजी को लोग सरकार का विरोधी नहीं मानते बल्कि केवल ज़मींदारों का विरोधी मानते हैं… हम गांधीजी और सरकार के पक्ष में हैं।

गतिविधि

स्रोत 4 को पढ़ें।

इस रिपोर्ट के मुताबिक लोग महात्मा गांधी को किस तरह देखते थे। आपकीराय में लोग ऐसा क्यों सोचते थे किगांधीजी जमींदारों के विरोधी हैं पंतु सरकार के विरोधी नहीं हैं। आपकी राय में लोग गांधीजी के अनुयायी क्यों थे?

1922-1929 की घटनाएँ

महात्मा गांधी हिंसक आंदोलनों के विर्द्ध थे। इसी कारण फ़रवरी 1922 में जब किसानों की एक भीड़ ने चौरी-चौरा पुलिस थाने पर हमला कर उसे जला दिया तो गांधीजी ने अचानक असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। उस दिन 22 पुलिस वाले मारे गये। किसान इस बेकाबू हो गए थे क्योंकि पुलिस ने उनके शांतिपूर्ण जुलूस पर गोली चला दी थी।

असहयोग आंदोलन ख़त्म होने के बाद गांधीजी के अनुयायी ग्रामीण इलाकों में रचनात्मक कार्य शुरू करने पर जोर देने लगे। चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू जैसे अन्य नेताओं की दलील थी कि पार्टी को परिषद् चुनावों में हिस्सा लेना चाहिए और परिष्दों के माध्यम से सरकारी नीतियों को प्रभावित करना चाहिए। बीस के दशक के मध्य में गाँवों में किए गए व्यापक सामाजिक कार्यों की बदौलत गांधीवादियों को अपना जनाधार फैलाने में काफ़ी मदद मिली। 1930 में शुरू किए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन के यह जनाधार काफ़ी उपयोगी साबित हुआ।

चित्र 9 - चितरंजन दास।

स्वतंत्रता आंदोलन में चितरंजन दास एक मुख्य नेता थे। वह पूर्वी बंगाल में वकील थे। असहयोग आंदोलन में वह काफ़ी सक्रिय रहे।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और हिंदुओं के संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना बीस के दशाक के मध्य की दो महत्वपूर्ण घटनाएँ थीं। भारत के भविष्य को लेकर इन पार्टियों की सोच में गहरा फ़र्क रहा है। अपने अध्यापकों की सहायता से उनके विचारों के बारे में पता लगाएँ। उसी दौरान क्रांतिकारी राष्ट्रादादी भगत सिंह भी सक्रिय थे इस दशक के आखिए में कांग्रेस

चित्र 10 - साइमन कमीशन का विरोध करते आंदोलनकारी।

1927 में इंग्लैंड में बैठी ब्रिटिश सरकार ने लॉर्ड साइमन की अगुवाई में एक आयोग भारत भेजा। इस आयोग को भारत के राजनीतिक भविष्य का फ़ैसला करना था। इस आयोग में कोई भारतीय प्रतिनिधि नहीं था। इस फ़ैसले की वजह से भारत में भारी असंतोष पैदा हुआ। सभी राजनीतिक संगठनों ने भी आयोग के बहिष्कार का फ़ैसला लिया। जब कमीशन के सदस्य भारत पहुँचे तो प्रदर्शनों के साथ उनका स्वागत किया गया। प्रदर्शनकारियों का नारा था, “साइमन वापस जाओ”।

ने पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित किया। जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में 1929 में पारित किए गए इस प्रस्ताव के आधार पर 26 जनवरी 1930 को पूरे देश में “स्वतंत्रता दिवस” मनाया गया।

"बहरे कानों को सुनाने के धमाके की ज़रूरत होती है। इंक़लाब ज़िंदाबाद!"

भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सुखदेव और उनके जैसे अन्य क्रांतिकारी राष्ट्रवादी औपनिवेशिक शासन तथा अमीर शोषक वर्गों से लड़ने के मजदूरों और किसानों की क्रांति चाहते थे। इस काम को पूरा करने के उन्होंने 1928 में दिल्ली स्थित फ़िरोजशाह कोटला में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) की स्थापना की थी। 17 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह, चंद्रेखर आजाद एवं राजगुरु ने लाला लाजपत राय पर लाठीचार्ज करने वाले सांडर्स नामक पुलिस अफ़सर की हत्या की थी। इसी लाठीचार्ज के कारण बाद में लाजपत राय की मृत्यु हो गई थी।

अपने साथी राष्ट्रवादी बी.के. दत्त के साथ भगत सिंह ने 8 अप्रैल 1929 को केंद्रीय विधान परिषद् में बम फेंका था। क्रांतिकारियों ने अपने पर्चे में कहा था कि उनका मकसद किसी की जान लेना नहीं बल्कि “बहरों को सुनाना है” तथा विदेशी सरकार को उसके द्वारा किए जा रहे भयानक शोषण से अवगत कराना है। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को 23 मार्च, 1931 को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। उस समय भगत सिंह की आयु सिर्फ़ 23 साल थी।

चित्र 11 - भगत सिंह।

दांडी मार्च

पूर्ण स्वराज अपने आप आने वाला नहीं था। इसके लोगों को लड़ाई में उतरना था। 1930 में गांधीजी ने ऐलान किया कि वह नमक कानून तोड़ने के यात्रा निकालेंगे। उस समय नमक के उत्पादन और बिक्री पर सरकार का एकाधिकार होता था। महात्मा गांधी और अन्य राष्ट्रवादियों का कहना था कि नमक पर टैक्स वसूलना पाप है क्योंकि यह हमारे भोजन का एक बुनियादी हिस्सा होता है। नमक सत्याग्रह ने स्वतंत्रता की व्यापक चाह को लोगों की एक ख़ास शिकायत सभी से जोड़ दिया था और इस तरह अमीरों और गरीबों के बीच मतभेद पैदा नहीं होने दिया।

गांधीजी और उनके अनुयायी साबरमती से 240 किलोमीटर दूर स्थित दांडी तट पैदल चलकर गए और वहाँ उन्होंने तट पर बिखरा नमक इकट्ठा करते हुए नमक कानून का सार्वजनिक रूप से उल्लंघन किया। उन्होंने पानी उबालकर

चित्र 12 - महात्मा गांधी प्राकृतिक नमक इकहा करते हुए नमक कानून की अवहेलना कर रहे हैं, दांडी, 6 अप्रैल 1930.

स्वतंत्रता संघर्ष में महिलाएँ : कर्नाटक की अम्बाबाई

राष्ट्रीय आंदोलन में अलग-अलग पृष्ठभूमि वाली बहुत सारी महिलाओं ने हिस्सा लिया। युवा और वृद्ध, अकेली और विवाहित, ग्रामीण और शहरी, रूढ़िवादी और उदारवादी, सभी तरह के माहौल से आने वाली महिलाएँ आंदोलन में शामिल हुईीं स्वतंत्रता संघर्ष, महिला आंदोलन और स्वयं उनके भी यह हिस्सेदारी बहुत महत्त्वपूर्ण थी।

अंग्रेज अफ़सरों और भारतीय राष्ट्रवादियों, दोनों को लगता था कि महिलाओं की सहभागिता ने राष्ट्रीय संघर्ष को ज़बरदस्त ताकत दी है। स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सेदारी के कारण महिलाएँ घरों से बाहर आने लगी थीं। इसने उन्हें विभिन्न व्यवसायों व शासन में जगह दिलाई और पुरुषों के साथ समानता का मार्ग प्रशस्त किया।

महिलाओं के सहभागिता का क्या अर्थ था? इसकी सबसे अच्छी अभिव्यक्ति खुद उन्हीं के शब्दों में देखी जा सकती है। कर्नाटक की अम्बाबाई का विवाह 12 साल की उम्र में कर दिया गया था। 16 साल की उम्र में वह विधवा हो गईं। उन्होंने उडीपी में विदेशी कपड़ों और शराब की दुकानों की घेराबंदी की। उन्हें गिएफ़्तार किया गया और सज़ा दी गई। रिहा होने पर उन्हें दोबारा गिरफ़्तार कर लिया गया। जब भी वह जेल से बाहर होतीं, सभाओं में भाषण देतीं, बुनाई-कताई सिखातीं और प्रभातफेरियों का आयोजन करतीं। अम्बाबाई इन्हें अपने जीवन के सबसे सुखद क्षण मानती थीं क्योंकि ऐसे क्षणों में उन्हें एक नया मकसद और प्रतिबद्धता दिखाई देती थी।

आंदोलन में हिस्सेदारी के अपने अधिकार को मनवाने के महिलाओं को काफ़ी जद्दोजहद करनी पड़ती थी। उदाहरण के , नमक सत्याग्रह के दौरान शुरुआत में खुद महात्मा गांधी भी महिलाओं की हिस्सेदारी के समर्थन में नहीं थे। आख़िरकार सरोजिनी नायडू ने उन्हें इस बात के तैयार किया कि वे महिलाओं को भी आंदोलन में शामिल होने दें।

भी नमक बनाया। इस आंदोलन में किसानों, आदिवासियों और महिलाओं ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया। नमक के मुद्दे पर एक व्यावसायिक संघ ने पर्चा प्रकाशित किया। सरकार ने शांतिपूर्ण सत्याग्रहियों के निर्मम दमन के ज़ारिए आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया। हजाारों आंदोलनकारियों को जेल में डाल दिया गया।

चित्र 13 - महात्मा गांधी के साथ सरोजिनी नायडू, पेरिस, 1931.

1920 के दशक की शुरुआत से ही राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय सरोजिनी नायडू दांडी यात्रा के मुख्य नेताओं में से एक थीं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर पहुँचने वाली वह पहली महिला थीं (1925)।

प्रांतीय स्वायत्तता - संघ के भीतर रहते प्रांतों को तुलनात्मक रूप से स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता देना।

भारतीय जनता के साझा संघर्षों के चलते आख़िरकार 1935 के गवर्मेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट में प्रांतीय स्बायत्तता का प्रावधान किया गया। सरकार ने ऐलान किया कि 1937 में प्रांतीय विधायिकाओं के चुनाव कराए जाएँगे। इन चुनावों के परिणाम आने पर 11 में से 7 प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बनी।

प्रांतीय स्तर पर 2 साल के कांग्रेसी शासन के बाद सितंबर 1939 में दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। हिटलर के प्रति आलोचनात्मक रवैये के कारण कांग्रेस के नेता ब्रिटेन के युद्ध प्रयासों में मदद देने को तैयार थे। इसके बदले में वे चाहते थे कि युद्ध के बाद भारत को स्वतंत्र कर दिया जाए। अंग्रेजों ने यह बात नहीं मानी। कांग्रेसी सरकारों ने विरोध में इस्तीफा दे दिया।

स्रोत 5

वीर लखन नायक को फाँसी दे दी गई

तीस के दशक में नबंगंपुर कांग्रेस, उड़ीसा के अध्यक्ष, बाजी मुहम्मद लिखते हैं-

25 अगस्त 1942 को… 19 लोग नबरंगणपर स्थित पपरंदी में हुई पुलिस फारांगं में मौके पर ही मारे गए। बहुत सारे लोग बाद में घावों के कारण मर गए। 300 से ज़्यादा घायल हुए। 1000 से ज़्यादा को कोरापुट ज़िले की जेल में डाल दिया गया। कई को गोली मार दी गई या फाँसी पर लटका दिया गया। वीर लखन नायक (अंग्रेज़ों की अवहेलना करने वाले एक विख्यात जनजातीय नेता) को भी फाँसी पर लटका दिया गया।

बाजी हमें बताते हैं कि लखन नायक अपनी फाँसी के बोरे में चिंतित नहीं थे बल्कि उन्हें केवल इस बात का दुख था कि वे स्वतंत्रता का प्रभात नहीं देख पाएँगे।

बाजी मुहम्मद ने राष्ट्रीय संचर्ष में शामिल होने के 20,000 लोगों को लामबंद किया था। उन्होंने कई बार सत्याग्रह किया। उन्होंने दूसरे विश्व युद्ध के खिलाफ़ हुए विरोध और भारत छोड़ो s. आंदोलन में हिस्सा लिया तथा कई बार लंबे समय तक जेल में रहे।

चित्र 14 - भारत छोड़ो आंदोलन, अगस्त 1942.

प्रदर्शनकारी हर जगह पुलिस से लोहा ले रहे थे। हजारों लोग गिरफ़्तार हुए, हज़ार से ज़्यादा मारे गए और असंख्य लोग घायल हुए।

भारत छोड़ो और उसके बाद

महात्मा गांधी ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों के खिलाफ़ आंदोलन का एक नया चरण शुरू किया। उन्होंने अंग्रेज़ों को चेतावनी दी कि वे फ़ौरन भारत छोड़ दें। गांधीजी ने भारतीय जनता से आह्नान किया कि वे “करो या मरो” के सिद्धांत पर चलते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध अहिंसक ढंग से संघर्ष करें। गांधीजी और अन्य नेताओं को फ़ौरन जेल में डाल दिया गया। इसके बावजूद यह आंदोलन फैलता गया। किसान और युवा इस आंदोलन में बड़ी संख्या में शामिल हुए। विद्यार्थी अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर आंदोलन में कूद पड़े। देश भर में संचार तथा राजसत्ता के प्रतीकों पर हमले हुए। बहुत सारे इलाकों में लोगों ने अपनी सरकार का गठन कर लिया।

सबसे पहले अंग्रेजों ने बर्बर दमन का रास्ता अपनाया। 1943 के अंत तक 90,000 से ज़्यादा लोग गिरफ़्तार कर गए थे और लगभग 1,000 लोग पुलिस की गोली से मारे गए थे। बहुत सारे इलाकों में हवाई जहाज़ों से भी भीड़ पर गोलियाँ बरसाने के आदेश दिए गए। परंतु आखिरकार इस विद्रोह ने ब्रिटिश राज को घुटने टेकने के मज़बूर कर दिया।

बोस और आईएनए

चित्र 15 - सुभाषचंद्र बोस।

समाजवादी विचार रखने वाले आमूल परिवर्तनवादी राष्ट्रवादी सुभाषचंद्र बोस अहिंसा के गांधीवादी आदर्शों में विश्वास नहीं रखते थे हालाँकि “राष्ट्रपिता" के रूप में गांधीजी का सम्मान करते थे। जनवरी 1941 में उन्होंने बिना किसी को बताए कलक्ता छोड़ दिया और जर्मनी के रास्ते होते हुए सिंगापुर पहुँच गए। भारत को अंग्रेज़ों के नियंत्रण से मुक्त कराने के उन्होंने वहाँ आज्ञाद हिंद फौज़ (इंडियन नैशनल आर्मी-आईएनए) का गठन किया। 1944 में आज़ाद हिंद फौज ने इम्फाल और कोहिमा की ओर से भारत में प्रवेश करने का प्रयास किया परंतु यह अभियान सफल नहीं हो पाया। आईएनए के सदस्यों को क़ैद कर लिया गया और उन पर मुकदमे चलाए गए। देश भर में तमाम तरह के लोगों ने आज़ाद हिंद फौज़ के सिपाहियों पर चलाए गए मुकदमों के खिलाफ़ चले संघर्षों में हिस्सा लिया।

स्वतंत्रता और विभाजन की ओर

1940 में मुस्लिम लीग ने देश के पश्चिमोत्तर तथा पूर्वी क्षेत्रों में मुसलमानों के “स्वतंत्र राज्यों" की माँग करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव में विभाजन या पाकिस्तान का ज़िक्र नहीं था। मुस्लिम लीग ने उपमहाद्वीप के मुसलमानों के स्वायत्त व्यवस्था की माँग क्यों की थी?

1930 के दशक के आखिरी सालों से लीग मुसलमानों और हिंदुओं को अलग-अलग “राष्ट्र" मानने लगी थी। इस विचार तक पहुँचने में बीस और तीस के दशकों में हिंदुओं और मुसलमानों के कुछ संगठनों के बीच हुए तनावों

चित्र 16 - मौलाना आजाद तथा कांग्रेस कार्यकारी समिति के अन्य सदस्य, सेवाग्राम, 1942.

मौलाना आज़ाद का जन्म मक्का में हुआ था। उनके पिता बंगाली और माँ अरब मूल की थीं। बहुत सारी भाषाओं के जानकार आज़ाद इस्लाम के विद्यान और वहादते-दीन यानी सभी धर्मों की बुनियादी एकता के हिमायती थे। गांधीवादी आंदोलनों में हमेशा सक्रिय रहने वाले और हिंद-मुस्लिम एकता के पक्के हिमायती थे। उन्होंने जिन्ना के दो-राष्ट्र सिद्धांत का विरोध किया था।

चित्र 17 - गांधी-जिन्ना वार्ताओं से पहले गांधीजी के साथ बात करते चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, 1944. वयोवृद्ध राष्ट्रवादी और दक्षिण में नमक सत्याग्रह के नेता सी. राजगोपालाचारी 1946 में बनी अंतरिम सरकार के सदस्य थे और स्वतंत्र भारत के पहले भारतीय गवर्नर-जनरल रहे। उन्हें लोग राजाजी के नाम से जानते थे।

चित्र 18 - सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 1945-1947 के दौरान आजादी के लिए चली वार्ताओं में एक अहम भूमिका अदा की थी।

पटेल नादियाड़, गुजरात के एक गरीब किसान-व्यवसायी परिवार से थे। 1918 के बाद स्वतंत्रता आंदोलन की अगली कतार में रहने वाले पटेल 1931 में कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे।

चित्र 19 - महात्मा गांधी के साथ मोहम्मद अली जिन्ना, सितंबर 1944.

1920 तक हिंदू-मुस्लिम एकता के समर्थन में सक्रिय रहे जिन्ना ने लखनऊ समझौता करवाने में एक अहम भमिका अदा की थी। 1934 के बाद उन्होंने मुस्लिम लीग को पुनर्जीवित किया और अंत में वे पाकिस्तान की स्थापना के सबसे मुख्य प्रवक्ताओं की कतार में जा पहुँचे।

चित्र 20 - जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के बम्बई अधिवेशन से पहले महात्मा गांधी से बात कर रहे हैं, जुलाई 1946.

गांधीजी के शिष्य, कांग्रेस समाजवादी और अंतर्राष्ट्रीयतावादी विचार रखने वाले नेहरू राष्ट्रीय आंदोलन तथा स्वतंत्र भारत की आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था के मुख्य शिल्पियों में से थे।

“सामान्य" निर्वाचन क्षेत्र - ऐसे निर्वाचन क्षेत्र जहाँ किसी धार्मिक तथा अन्य सम्प्रदाय के कोई आरक्षण नहीं था।

का भी हाथ रहा होगा। 1937 के प्रांतीय चुनाव संभवतः इससे भी ज़्यादा बड़ा कारण रहे। इन चुनावों ने मुस्लिम लीग को इस बात का यकीन दिला दिया था कि यहाँ मुसलमान अल्पसंख्यक हैं और किसी भी लोकतांत्रिक संरचना में उन्हें हमेशा गौण भूमिका निभानी पड़ेगी। लीग को यह भी भय था कि संभव है कि मुसलमानों को प्रतिनिधित्व ही न मिल पाए। 1937 में मुस्लिम लीग संयुक्त प्रांत में कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनना चाहती थी परंतु कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया जिससे फासला और बढ़ गया।

तीस के दशक में मुस्लिम जनता को अपने साथ लामबंद करने में कांग्रेस की विफलता ने भी लीग को अपना सामाजिक जनाधार फैलाने में मदद दी। चालीस के दशक के शुरुआती सालों में जिस समय कांग्रेस के ज़्यादातर नेता जेल में थे, उस समय लीग ने अपना प्रभाव फैलाने के तेज़ी से प्रयास किए। 1945 में विश्व युद्ध ख़त्म होने के बाद अंग्रेजों ने भारतीय स्वतंत्रता के कांग्रेस और लीग से बातचीत शुरू कर दी। यह वार्ता असफल रही क्योंकि लीग का कहना था कि उसे भारतीय मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि माना जाए। कांग्रेस इस दावे को मंजूर नहीं कर सकती थी क्योंकि बहुत सारे मुसलमान अभी भी उसके साथ थे।

1946 में दोबारा प्रांतीय चुनाव हुए। “सामान्य” निर्वाचन क्षेत्रों में कांग्रेस का प्रदर्शन तो अच्छा रहा परंतु मुसलमानों के आरक्षित सीटों पर लीग को बेजोड़ सफलता मिली। लीग “पाकिस्तान” की माँग पर चलती रही। मार्च 1946 में ब्रिटिश सरकार ने इस माँग का अध्ययन करने और स्वतंत्र भारत के एक सही राजनीतिक बंदोबस्त सुझाने के तीन सदस्यीय परिसंघ भारत भेजा। इस परिसंघ ने सुझाव दिया कि भारत अविभाजित रहे और उसे मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को कुछ स्वायत्तता देते हुए एक ढीले-ढाले महासंघ के रूप में संगठित किया जाए। कांग्रेस और मुस्लिम लीग, दोनों ही इस प्रस्ताव

चित्र 21 - ख़ान अब्दुल ग़फ़्फार खान उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत के प्रमुख पश्तून नेताओं में से एक थे। इस चित्र में अपने सहयोगियों के साथ बिहार में एक शांति यात्रा में हिस्सा ले रहे हैं, मार्च 1947.

ग़फ़्फ़ार ख़ान को बादशाह ख़ान के नाम से भी जाना जाता है। वह खुदाई खिदमतगार संगठन के संस्थापक थे। यह उनके प्रांत के पठानों में लोकप्रिय शक्तिशाली अहिंसक आंदोलन था। बादशाह ख़ान भारत विभाजन के सख्त खिलाफ़ थे। उन्होंने 1947 में इस फ़ैसले पर मंज़री देने के कांग्रेस के अपने साथियों की भर्त्सना की थी।

के कुछ ख़ास प्रावधानों पर सहमत नहीं थे। अब देश का विभाजन अवश्यंभावी था।

चित्र 22 - हिंसाग्रस्त पंजाब से आए शरणार्थी आश्रय और भोजन की तलाश में दिल्ली में इकट्ठा हो रहे हैं।

कैबिनेट मिशन की इस विफलता के बाद मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की अपनी माँग मनवाने के जनांदोलन शुरू करने का फ़ैसला लिया। उसने 16 अगस्त 1946 को “प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस” मनाने का आह्नान किया। इसी दिन कलकत्ता में दंगे भड़क उठे जो कई दिन चलते रहे। इन दंगों में हज़ारों लोग मारे गए। मार्च 1947 तक उत्तर भारत के विभिन्न भागों में भी हिंसा फैल गई थी। कई लाख लोग मारे गए। असंख्य महिलाओं को विभाजन की इस हिंसा में अकथनीय अत्याचारों का सामना करना पड़ा। करोड़ों लोगों को अपने घर-बार छोड़कर भागना पड़ा। अपने मूल स्थानों से बिछड़कर ये लोग रातोंरात अजनबी ज़मीन पर शरणार्थी बनकर रह गए। विभाजन का नतीजा यह भी हुआ कि भारत की शक्ल-सूरत बदल गई, उसके शहरों का माहौल बदल गया और एक नए देश - पाकिस्तान - का जन्म हुआ। इस तरह ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता का यह आनंद विभाजन की पीड़ा और हिंसा के साथ हमारे सामने आया।

फिर से याद करें

1. 1870 और 1880 के दशकों में लोग ब्रिटिश शासन से क्यों असंतुष्ट थे?

2. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस किन लोगों के पक्ष मे बोल रही थी?

3. पहले विश्व युद्ध से भारत पर कौन-से आर्थिक असर पड़े?

4. 1940 के मुस्लिम लीग के प्रस्ताव में क्या माँग की गई थी?

आइए विचार करें

5. मध्यमार्गी कौन थे? वे ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ किस तरह का संघर्ष करना चाहते थे?

6. कांग्रेस में आमूल परिवर्तनवादी की राजनीति मध्यमार्गी की राजनीति से किस तरह भिन्न थी?

7. चर्चा करें कि भारत के विभिन्न भागों में असहयोग आंदोलन ने किस-किस तरह के रूप ग्रहण किए? लोग गांधीजी के बारे में क्या समझते थे?

8. गांधीजी ने नमक कानून तोड़ने का फ़ैसला क्यों लिया?

9. 1937-1947 की उन घटनाओं पर चर्चा करें जिनके फलस्वरूप पाकिस्तान का जन्म हुआ?

आइए करके देखें

10. पता लगाएँ कि आपके शहर, ज़िले, इलाके या राज्य में राष्ट्रीय आंदोलन किस तरह आयोजित किया गया। किन लोगों ने उसमें हिस्सा लिया और किन लोगों ने उसका नेतृत्व किया? आपके इलाके में आंदोलन को कौन-सी सफलताएँ मिलीं?

11. राष्ट्रीय आंदोलन के किन्हीं दो सहभागियों या नेताओं के जीवन और कृतित्व के बारे में और पता लगाएँ तथा उनके बारे में एक संक्षिप्त निबंध लिखें। आप किसी ऐसे व्यक्ति को भी चुन सकते हैं जिसका इस अध्याय में ज़िक्र नहीं आया है।

आइए कल्पना करें

मान लीजिए कि आप भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय हैं। इस अध्याय को पढ़ने के बाद संक्षेप में बताइए कि आप संघर्ष के कौन-से तरीके अपनाते और आप किस तरह का स्वतंत्र भारत रचते?



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