अध्याय 01 प्रारंभिक कथन : कैसे, कब और कहाँ

तारीख़ें कितनी महत्त्वपूर्ण होती हैं?

एक वक्त था जब इतिहासकार तारीख़ों के जाद में ही खोए रहते थे। कब किस राजा की ताजपोशी हुई, कब कौन-सा युद्ध हुआ-इन्हीं तारीख़ों पर गर्मागर्म बहसें चलती थीं। आम समझ के हिसाब से इतिहास को तारीख़ों का पर्याय माना जाता था। आपने भी लोगों को यह कहते हुए सुना होगा— “इतिहास तो बहुत उबाऊ है भई। बस तारीख़ें रटते चले जाओ!” क्या इतिहास के बारे में यह धारणा सही है?

इसमें कोई शक नहीं कि इतिहास अलग-अलग समय पर आने वाले बदलावों के बारे में ही होता है। इसका संबंध इस बात से है कि अतीत में चीज़ें किस तरह की थीं और उनमें क्या बदलाव आए हैं। जैसे ही हम अतीत और वर्तमान की तुलना करते हैं, हम समय का ज़िक्र करने लगते हैं। हम “पहले” और “बाद में" की बात करने लगते हैं।

रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हम अपने आसपास की चीज़ों पर हमेशा ऐतिहासिक सवाल नहीं उठाते। हम चीजों को स्वाभाविक मानकर चलते हैं। मानो जो कुछ हमें दिख रहा है वह हमेशा से ऐसा ही रहा हो। लेकिन हम सबके सामने कभी-कभी अचंभे के क्षण आते हैं। कई बार हम उत्सुक हो जाते हैं और ऐसे सवाल पूते हैं जो वाकई ऐतिहासिक होते हैं। किसी व्यक्ति को सड़क किनारे चाय के घूँट भरते देखकर आप इस बात पर हैरान हो सकते हैं कि चाय या कॉफ़ी पीने का चलन शुरू कब से हुआ होगा? रेलगाड़ी की खिड़की से बाहर झाँकते हुए आपके ज़हन में यह सवाल उठ सकता है कि रेलवे का निर्माण कब हुआ? रेलगाड़ी के आने से पहले लोग दूर-दूर की यात्रा किस तरह कर पाते थे? सुबह-सुबह अख़ार पढ़ते हुए आप यह जानने के उत्सुक हो सकते हैं कि जिस ज़माने में अख़बार नहीं छपते थे, उस समय लोगों को चीजों की जानकारी कैसे मिलती थी।

गतिविधि

चित्र 1 को ध्यान से देखें। यह चित्र किस प्रकार उपनिवेशवाद का बोध कराता है।


चित्र 1 - ब्राह्मण ब्रिटेनिया को शास्त्र भेंट कर रहे हैं, जेम्स रेनेल द्वारा तैयार किए गए पहले नक्शे का आवरण चित्र, 1782. रॉबर्ट क्लाइव ने रेनेल को हिंदुस्तान के नवशे तैयार करने का काम सौंपा था। भारत पर अंग्रेज़ों की विजय के समर्थक रेनेल को वर्चस्व स्थापित करने की प्रक्रिया में नक्शे तैयार करना बहुत महत्त्वपूर्ण लगता था। इस तसवीर में दिखाया गया है कि भारत के लोग स्वेच्छापूर्वक अपने प्राचीन पवित्र ग्रंथ ब्रिटिश सत्ता की प्रतीक ब्रिटेनिया को सौंप रहे हैं मानो वे उसे भारतीय संस्कृति की रक्षा के आने का आग्रह कर रहे हों। कराता है।

चित्र 2 - विज्ञापनों से भी पसंद-नापसंद तय होती है।

पुराने विज्ञापनों से हमें यह समझने में मदद मिलती है कि नए उत्पादों के बाज़ार किस तरह तैयार हुए और किस तरह नयी रुचियाँ चलन में आयीं। 1922 में लिप्टन चाय के तैयार किया गया यह विज्ञापन इस बात की ओर संकेत करता है कि दुनिया भर के शाही लोग यही चाय पीते हैं। इस तसवीर में पीछे की तरफ़ एक भारतीय महल दिखाई दे रहा है जबकि अगले हिस्से में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया का तीसरा बेटा राजकुमार आर्थर घोड़े पर बैठा हुआ है। राजकुमार आर्थर को ड्यूक ऑफ़ कनॉट की पदवी दी गई थी। ये सारे ऐतिहासिक सवाल हमें समय के बारे में सोचने के प्रेरित कर देते हैं। समय को हमेशा साल या महीनों के पैमाने पर ही नहीं देखा जा सकता। कई बार ऐसी प्रक्रियाओं के कोई तारीख़ तय करना वाकई गलत होता है जो एक लंबे समय तक चलती रहती हैं। भारत में लोगों ने अचानक एक दिन सुबहसबेरे चाय पीना शुरू नहीं कर दिया था। इसका स्वाद धीरे-धीरे ही उनकी ज़बान पर चढ़ा था। इस तरह की प्रक्रियाओं के कोई स्पष्ट तिथि नहीं हो सकती। इसी तरह हम ब्रिटिश शासन की स्थापना के भी कोई एक तिथि नहीं बता सकते। राष्ट्रीय आंदोलन किस दिन शुरू हुआ या अर्थव्यवस्था या समाज में किस दिन बदलाव आए, यह बताना भी संभव नहीं है। ये सारी चीज़ें एक लंबे समय में घटती हैं। ऐसे में हम सिर्फ़ एक अवधि की ही बात कर सकते हैं, एक लगभग सही अवधि के बारे में बता सकते हैं जब वे ख़ास बदलाव दिखाई देने शुरू हुए होंगे।

तो फिर लोग इतिहास को तारीख़ों से जोड़ कर क्यों देखते हैं? इस जुड़ाव की एक वजह है। एक समय था जब युद्ध और बड़ी-बड़ी घटनाओं के ब्योरों को ही इतिहास माना जाता था। यह इतिहास राजा-महाराजाओं और उनकी नीतियों के बारे में होता था। इतिहासकार यह लिखते थे कि कौन-से साल राजा को ताज पहनाया गया, किस साल उसका विवाह हुआ, किस साल उसके घर में बच्चा पैदा हुआ, कौन-से साल उसने कौन-सी लड़ाई लड़ी, वह कब मरा और उसके बाद कब कौन-सा शासक गद्दी पर बैठा। इस तरह की घटनाओं के निश्चित तिथि बताई जा सकती है और इस तरह के इतिहासों में तिथियों का महत्त्व बना रहता है।

जैसा कि पिछले दो साल की इतिहास की किताबों में आपने देखा है, अब इतिहासकार बहुत सारे दूसरे मुद्दों और दूसरे सवालों के बारे में भी लिखने लगे हैं। वे इस बात पर ध्यान देते हैं कि लोग किस तरह अपनी रोज़ी-रोटी चलाते थे। वे क्या पैदा करते थे और क्या खाते थे। शहर कैसे बने और बाज़ार किस तरह फैले। किस तरह रियासतें बनीं, नए विचार पनपे और संस्कृति व समाज किस तरह बदले।

कौन-सी तारीखेे?

कुछ तारीख़ों को महत्त्वपूर्ण मानने का पैमाना क्या होता है? हम जो तारीख़ें चुनते हैं, जिन तारीख़ों के इर्द-गिर्द हम अतीत की कहानी बुनते हैं, वे अपने आप में महत्त्वपूर्ण नहीं होतीं। वे इस महत्व्वपूर्ण हो जाती हैं क्योंकि हम कुछ ख़ास घटनाओं को महत्वपूर्ण्ण मानकर चलने लगते हैं। अगर अध्ययन का विषय बदल जाता है, अगर हम नए मुद्दों पर ध्यान देने लगते हैं तो महत्त्वपूर्ण तारीख़ें भी बदल जाती हैं।

एक उदाहरण पर विचार कीजिए। भारत में ब्रिटिश इतिहासकारों ने जो इतिहास लिखे उनमें हरेक गवर्नर-जनरल का शासनकाल महत्त्वपूर्ण है। ये इतिहास प्रथम गवर्नर-जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स के शासन से शुरू होते थे और आख़िरी वायसरॉय, लॉर्ड माउंटबैटन के साथ ख़त्म होते थे। अलग-अलग अध्यायों में हम दूसरे गवर्नर-जनरलों- हेस्टिंग्स, वेलेज़्ली, बेंटिंक, डलहौज़ी,

कैनिंग, लॉरेंस, लिटन, रिपन, कर्जन, हार्डिंग, इरविन - के बारे में भी पढ़ते हैं। इस इतिहास में गवर्नर-जनरलों और वायसरॉयों का कभी न ख़त्म होने वाला सिलसिला ही छाया रहता था। इतिहास की इन किताबों में सारी तारीखों का महत्व इन अधिकारियों, उनकी गतिविधियों, नीतियों, उपलव्धियों के आधार पर ही तय होता था। यह ऐसे था मानो इन लोगों के जीवन के बाहर कोई ऐसी चीज़ नहीं थी जिसे जानना महत्वपूर्ण हो। इन लोगों के जीवन का क्रम ब्रिटिश भारत के इतिहास में अलग-अलग अध्यायों का विषय बन जाता था।

क्या हम इसी दौर के इतिहास को अलग ढंग से नहीं लिख सकते? गवर्नर-जनरलों के इस इतिहास के चौखटे में हम भारतीय समाज के विभिन्न समूहों और वर्गों की गतिविधियों पर किस तरह ध्यान दे सकते हैं?

जब हम इतिहास या कोई कहानी लिखते हैं तो उसे टुकड़ों या अध्यायों में बाँट देते हैं। हम ऐसा क्यों करते हैं? ऐसा इस किया जाता है ताकि हर अध्याय में कुछ सामंजस्य रहे। इसका मकसद कहानी को इस तरह सामने लाना होता है कि उसे आसानी से समझा जा सके और याद रखा जा सके। इस प्रक्रिया में हम सिर्फ़ उन घटटाओं पर जोर देते हैं जो उस कहानी को पेश करने में मददगार होती हैं। जो इतिहास गवर्नर-जनरलों के जीवन के इर्व-गिर्द चलता है उसमें भारतीयों की गतिविधियाँ कोई मायने नहीं रखतीं। उनके वहाँ कोई जगह नहीं होती। तो फिर क्या किया जाए? ज्ञाहि है हमें अपने इतिहास का एक अलग ख़ाका बनाना पड़ेगा। इसका मतलब यह है कि अब तक जिन तिथियों को महत्त्व दिया जा रहा था, वे महत्तपूर्ण नहीं एहेंगी| हमारे नयी तिथियाँ महत्वपूर्णू हो जाएँगी।

हम अवधियाँ कैसे तय करते हैं?

1817 मेंस्कॉटलैंड के अर्थशास्त्री और राजनीतिक दार्शनिक जेम्स मिल ने तीन विशाल खंडों में ए हिस्ट्री ऑफ़ त्रिटिश इंडिया (ब्रिटिश भारत का इतिहास) नामक एक किताब लिखी। इस किताब में उन्होंने भारत के इतिहास को हिंदू, मुस्लिम और ब्रिटिश, इन तीन काल खंडों में बाँटा था। काल खंडों के इस निर्धारण को ज़्यादातर लोगों ने मान भी लिया। क्या आपको भारतीय इतिहास को समझने के इस तरीके में कोई समस्या दिखाई देती है?

इतिहास को हम अलग-अलग काल खंडों में बाँटने की कोशिश क्यों करते हैं? इसकी भी एक वजह है हम एक दौर कीख़ासियतों, उसके केंद्रीय तत्वों को पकड़ने की कोशिश करते हैं। इसी ऐसे शब्द महत्वपूर्ण हो जाते हैं जिनके सहारे हम समय को बाँटते हैं। ये शब्द अतीत के बारे में हमरोरे विचारों को दर्शाते हैं। वे हमें बताते हैं कि एक अवधि से दूसरी अवधि के बीच आए बदलावों का क्या महत्व होता है।

मिल को लगता था कि सारे एशियाई समाज सभ्यता के मामले में यूरोप से पीछे हैं। इतिहास की उनकी समझदारी ये थी कि भारत में अंग्रेजों के आने से पहले यहाँ हिंदू और मुसलमान तानाशाहों का हीराज चलता था। यहाँ चारों ओर केवल धार्मिक बैर, जातिगत बंधनों और अंधविश्वासों का ही बोलबाला था।

चित्र 3 - वॉरेन हेस्टिंग्स 1773 में पहले गवर्नर-जनरल बने। इतिहास की किताबों में गवर्नर-जनरलों के कारनामों, जीवनियों में उनकी गौरवगाथाओं और तसवीरों में उनके भव्य व्यक्तित्व को उभारा जाता था।

गतिविधि

अपनी माँ या परिवार के किसी अन्य सदस्य से बात करके उनके जीवन के बारे में पता लगाएँ। अब उनके जीवन को अलग-अलग काल खंडों में बाँटें और प्रत्येक अवधि की महत्त्वपूर्ण घटनाओं की सूची बनाएँ। स्पष्ट करें कि आपने काल खंडों को किस तरह तय किया है।

मिल की राय में ब्रिटिश शासन भारत को सभ्यता की राह पर ले जा सकता था। इस काम के जरूरी था कि भारत में योरोपीय शिष्टाचार, कला, संस्थानों और कानूनों को लागू किया जाए। मिल ने तो यहाँ तक सुझाव दिया था कि अंग्रेजों को भारत के सारे भूभाग पर क०ज़ा कर लेना चाहिए ताकि भारतीय जनता को ज्ञान और सुखी जीवन प्रदान किया जा सके। उसका मानना था कि अंग्रेजों की मदद के बिना हिंद्स्तान प्रगति नहीं कर सकता।

इतिहास की इस धारणा में अंग्रेज़ी शासन प्रगति और सभ्यता का प्रतीक था। अंग्रेजी शासन से पहले सारा अंधकार का दौर था। क्या इस तरह की धारणा को स्वीकार किया जा सकता है?

क्या इतिहास के किसी दौर को “हिंदू या मुसलमान" दौर कहा जा सकता है? क्या इन सारे दौरों में कई तरह के धर्म एक साथ नहीं चलते थे? किसी युग को केवल उस समय के शासकों के धर्म के हिसाब से तय करने की ज़रूत क्या है? अगर हम ऐसा करते हैं तो इसका मतलब यह कहना चाहते हैं कि औरों के जीवन और तौर-तरीकों का कोई महत्व नहीं होता| हमें याद रखना चाहिए कि प्राचीन भारत में सारे शासकों का भी एक धर्म नहीं होता था।

अंग्रेजों द्वारा सुझाए गए वर्गीकरण से अलग हटकर इतिहासकार भारतीय इतिहास को आमततर पर ‘प्राचीन’, ‘मध्यकालीन’, तथा ‘आधुनिक’ काल में बाँटकर देखते हैं। इस विभाजन की भी अपनी समस्याएँ हैं। इतिहास को इन खंडों में बाँटने की यह समझ भी पश्चिम से आई है। पश्चिम में आधुनिक काल को विज्ञान, तर्क, लोकतंत्र, मुक्ति और समानता जैसी आधुनिकता की ताकतों के विकास का युग माना जाता है। उनके मध्यकालीन समाज वे समाज थे जहाँ आधुनिक समाज की ये विशेषताएँ नहीं थीं। क्या हम अपने अध्ययन के आधुनिक काल की इस अवधारणा को बिना सोचे-विचारे ऐसे ही अपना सकते हैं? जैसा कि आप इस किताब में देखेंगे, अंग्रेजों के शासन में लोगों के पास समानता, स्वतंग्रता या मुक्ति नहीं थी। न ही यह आर्थिक विकास और प्रगति का दौर था।

बहुत सारे इतिहासकार इस युग को ‘औपनिवेशिक’ युग कहते हैं।

औपनिवेशिक क्या होता है?

इस किताब में आप पढ़ेंगे कि किस तरह अंग्रेजों ने हमरे देश को जीता और स्थानीय नवाबों और राजाओं को दबाकर अपना शासन स्थापित किया। आप देखेंगे कि किस तरह उन्होंने अर्थव्यवस्था व समाज पर नियंत्रण स्थापित किया, अपने सारे खर्चों को निपटाने के राजस्व वसूल किया, अपनी जरूरत की चीजों को सस्ती कीमत पर खरीदा, निर्यात के महत्त्वपूर्ण फ़सलों की खेती करायी और इन सारी कोशिशों के कारण क्या बदलाव आए। आप ये भी जानेंगे कि ब्रिटिश शासन के कारण यहाँ की मूल्य-मान्यताओं और पसंद-नापसंद, रीति-रिवाज व तौर-तरीकों में क्या बदलाव आए। जब एक देश पर दूसरे देश के दबदबे से इस तरह के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव आते हैं तो इस प्रक्रिया को औपनिवेशीकरण कहा जाता है।

लेकिन, जल्दी ही आप ये समझ जाएँगे कि सारे वर्ग और समूह इन बदलावों को एक ही ढंग से अनुभव नहीं कर रहे थे। इसी, इस किताब को हमारे अतीत (यानी कई अतीतों पर केंद्रित) नाम दिया गया है।

हम किस तरह जानते हैं?

भारतीय इतिहास के पिछले 250 साल का इतिहास लिखने के इतिहासकार कौन-से स्रोतों का इस्तेमाल करते हैं?

प्रशासन अभिलेख तैयार करता है

अंग्रेज़ी शासन द्वारातैयार किए गए सरकारी रिकॉर्ड इतिहासकारों का एक महत्वपूर्ण साधन होते हैं। अंग्रेजों की मान्यता थी कि चीजों को लिखना बहुत महत्वपूर्ण होता है। अनके हर निर्देश, हर योजना, नीतिगत क़ैसले, सहमति, जाँच कोसाफ़-साफ़ लिखना ज़ूरी था। ऐसा करने के बाद चीजों का अन्छी तरह अध्ययन किया जा सकता था और उन पर वाद-विवाद किया जा सकता है। इस समझदारी के चलते ज्ञापन, टिप्पणी और प्रतिवेदन पर आधारित शासन की संस्कृति पैदा हुईई।

अंग्रेजों को यह भी लगता था कि तमाम अहम दस्तावेज़ों और पत्रों को संभालकर रखना जरूरी है। लिहाजा, उन्होंने सभी शासकीय संस्थानों में अभिलेख कक्ष भी बनवा दिए। तहसील के दप़तर, कलेक्टेट, कमिश्नर के द़्तरर, प्रांतीय सचिवालय, कचहरी-सबके अपने रिकॉर्ड रूम होते थे। महत्वपूर्ण दस्तावेजों को बचाकर रखने के अभिलेखागार (आर्काइव) और संग्रहालय जैसे संस्थान भी बनाए गए।

उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में प्रशासन की एक शाखा से दूसरी शाखा के पास भेजेगए पत्रों और ज्ञापनों को आप आज भी अभिलेखागारों में देख सकते हैं। वहाँ आप जिला अधिकारियों द्वारा तैयार किए गए नोट्स और रिपोर्ट पढ़ सकते हैं या ऊपर बैठे अफ़सरों द्वारा प्रांतीय अधिकारियों को भेजे गए निर्देश और सुझाव देख सकते हैं। उन्नीसवीं सदी के शुरुआती सालों में इन दस्तावेजों की सावधानीपूर्वक नकलें बनाई जाती थीं।

चित्र 4 - भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार 1920 के दशक में बनाया गया। जब नयी दिल्ली का निर्माण हुआ तो राष्ट्रीय संग्रहालय और राष्ट्रीय अभिलेखागार, दोनों ही वायसरॉय के निवास के नज़दीक बनाए गए थे। इससे पता चलता है कि अंग्रेजों की सोच में इन संस्थानों का कितना भारी महत्त्व था।

स्रोत 1

गृह विभाग को भेजी गई रिपोरें

सन् 1946 में भारत की औपनिवेशिक सरकार शाही भारतीय नौसेना के जहाजों में सिपाहियों की बग़ावत को कुचलने का प्रयास कर रही थी। उस समय विभिन्न बंदरगाहों से गॄह विभाग को जो रिपोटें मिल रही थीं उनके कुछ नमूने इस प्रकार हैं-

बम्बई — इस बात का इंतजाम कर लिया गया है कि सेना जहाजजों और दप्तरों पर कब्ज़ा कर ले। शाही नौसैनिक जहाज़ अभी भी बंदगाह से बाहर ही हैं।

कराची - 301 विद्रोहियों को गिरफ़्तार कर लिया गया है। कुछ अन्य संदेहास्पद विद्रोही भी गिरफ़्तार किए गए हैं… सारे दफ़्तरर… सैनिक निगरानी में हैं।

विशाखापट्नम - स्थिति पूरी तरह नियंत्रण में है और कहीं हिंसा नहीं हुई है। जहाजों और प्रतिष्ठानों पर सैनिक गार्ड तैनात कर दिए गए हैं। किसी परेशानी की उम्मीद नहीं है सिवाय इसके कि संभव है कुछ सिपाही काम पर न आएँ।

डायरेक्टर ऑफ़ इंटेलिजेंस, हेडक्वार्टर, इंडिया कमान्ड, सिचुएशन रिपोर्ट सं. 7, फ़ाइल सं. 5/21/46.

$\quad$ गृह (राजनीतिक), भारत सरकार।

चित्र 5 - शरीफ़े का पौधा, 1770 का दशक।

अंग्रेज़ों द्वारा बनाए गए वानस्पतिक उद्यान और प्राकृतिक इतिहास के संग्रहालयों में विभिन्न पौधों के नमूने और उनसे संबंधित जानकारियाँ इकट्ठा को जाती थीं। इन नमूनों के चित्र स्थानीय कलाकारों से बनवाए जाते थे। अब इतिहासकार इस बात पर ध्यान दे रहे हैं कि इस तरह की जानकारी किस तरह इकट्ठा की जाती थी और इससे उपनिवेशवाद के बारे में क्या पता चलता है।

उन्हें खुशनवीसी के माहिर लिखते थे। खुशनवीसी या सुलेखनवीस ऐसे लोग होते हैं जो बहुत सुंदर ढंग से चीज़ें लिखते हैं। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक छपाई तकनीक भी फैलने लगी थी। इस तकनीक के सहारे अब प्रत्येक सरकारी विभाग की कार्रवाइयों के दस्तावेजों की कई-कई प्रतियाँ बनाई जाने लगीं।

सर्वेक्षण का बढ़ता महत्त्व

औपनिवेशिक शासन के दौरान सर्वेक्षण का चलन भी महत्वपूर्ण होता गया। अंग्रेजों का विश्वास था कि किसी देश पर अच्छी तरह शासन चलाने के उसको सही ढंग से जानना जखरूरी होता है।

उन्नीसवों सदी की शुरुआत तक पूरे देश का नक्शा तैयार करने के बड़े-बड़े से्वेक्षण किए जाने लगे। गांवों मेंराजस्व सर्वेक्षण किए गए। इन सर्वेक्षणों में धरती की सतह, मिट्टी की गुणवत्ता, वहाँ मिलने वाले पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं तथा स्थानीय इतिहासों ब क़सलों का पता लगाया जाता था। अंग्रेजों की राय में किसी इलाके का शासन चलाने के इन सारी बातों को जानना जरूरी था। उन्नससवों सदी के आख़िर से हर दस साल में जनगणना भी की जाने लगी|जनगणना के ज़रिए भारत के सभी प्रांतों मेंरहने वाले लोगों की संख्या, उ-की जाति, इलाके और व्यवसाय के बारे में जानकारियाँ इकद्ठा की जाती थीं। इसके अलावा वानस्पतिक सर्वेक्षण, प्राणि वैज्ञानिक सर्वेक्षण, पुरातात्वीय सर्वेक्षण, मानवशास्त्रीय सर्वेक्षण, वन सर्वेक्षण आदि कई दूसरे सर्वेक्षण भी किए जाते थे।

अधिकृत रिकॉड्र्स से क्या पता नहीं चलता

रिकॉर्ड्स के इस विशाल भंडार से हम बहुत कुछ पता लगा सकते हैं। फिर भी, इस बात को नज़अंदाजज नहीं किया जा सकता कि ये सारे सरकारी रिकॉर्ड हैं।

चित्र 6 - बंगाल में मानचित्रण और सर्वेक्षण कार्य चल रहा है। जेम्स प्रिंसेप द्वारा बनाई गई तसवीर, 1832 ध्यान से देखें कि सर्वेक्षण में इस्तेमाल होने वाले सारे उपकरणों को चित्र के अगले हिस्से में दिखाया गया है। चित्रकार इस परियोजना के वैज्ञानिक स्वरूप पर ख़ासतौर से जोर देना चाहता है।

चित्र 7 - 1857 के विद्रोही।

तसवीरों को भी बहुत ध्यान से देखना चाहिए। उनसे हमें चित्रकार की सोच पता चलती है। 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों द्वारा तैयार की गई सचित्र पुस्तकों में यह तसवीर कई जगह दिखाई देती है। इस तसवीर के नीचे लिखा होता था — “बागी सिपाही लूट-खसोट में लगे हुए हैं।। अंग्रेजों की नज़र में विद्रोही जनता लालची, दुष्ट और बेरहम थी। इस विद्रोह के बारे में आप अध्याय 5 में पढ़ेंगे।

इनसे हमें यही पता चलता है कि सरकारी अफ़सर क्या सोचते थे, उनकी दिलचस्पी किन चीजों में थी और बाद के वे किन चीज़ों को बचाए रखना चाहते थे। इन रिकॉड़र्स से हमें ये समझने में हमेशा मदद नहीं मिलती कि देश के दूसरे लोग क्या महसूस करते थे और उनकी कर्रवाइयों की क्या वजह थी।

इन बातों को जानने के हमें कहीं और देखना होगा। जब हम ऐसे दसरे स्रोतों की तलाश में निकलते हैं तो उनकी भी कोई कमी नहीं रहती। लेकिन, सरकारी रिकॉड्स्स के मुकाबले उन्हें ढूँढ़ना ज़रा मुश्किल साबित होता है। इस लिहाज़ से लोगों की डायरियाँ, तीर्थ यात्राओं और यात्रियों के संस्मरण, महत्त्वपूर्ण लोगों की आत्मकथाएँ और स्थानीय बाज़ारों में बिकने वाली लोकत्रिय पुस्तक-पुस्तिकाएँ महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। जैसे-जैसे छपाई की तकनीक फैली, अख़बार छपने लगे और विभिन्न मुद्दों पर जनता में बहस भी होने लगी। नेताओं और सुधारकों ने अपने विचारों को फैलाने के लिखा, कवियों और उपन्यासकारों ने अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिखा।

लेकिन ये सारे स्रोत उन लोगों ने रचे हैं जो पढ़ना-लिखना जानते थे। इनसे हम यह पता नहीं लगा सकते कि आदिवासी और किसान, खदानों में काम करने वाले मज़दूर या सड़कों पर ज़िदंगी गुज़ारने वाले गरीब किस तरह के अनुभवों से गुज़र रहे थे।

अगर हम थोड़ी और कोशिश करें तो हम इस बारे में भी जान सकते हैं। जैसे-जैसे आप इस किताब में आगे बढ़ेंगे, आपको यह बात समझ में आने लगेगी।

स्रोत 2

"इंसानों के खाने के लायक नहीं है"

अख़बारों से देश के विभिन्न विभागों में चल रहे आंदोलनों का पता चलता है। यहाँ 1946 में हुई पुलिस की एक हड़ताल की ख़बर दी गई है।

दिल्ली में 2000 से .ज्यादा पुलिसवालों ने बृहस्पतिवार सवेरे अपने कम वेतन और पुलिस लाइन्स बावर्चीखाने से आने वाले घटिया भोजन के खिलाफ़ खाना खाने से इनकार कर दिया।

जैसे-जैसे यह ख़बर दूसरे पुलिस थानों तक पहुँची, वहाँ भी पुलिस वालों ने खाने से इनकार कर दिया…। एक हड़ताली का कहना था — “पुलिस लाइन्स की रसोई से हमारे जो खाना आता है वह कोई इंसान नहीं खा सकता। हमें जो चपाती और दाल खानी पड़ती है उसे जानवर तक नहीं खा सकते”।

$\quad$ हिंदुस्तान टाइम्स, 22 मार्च 1946

गतिविधि

स्रोत 1 और 2 को देखें। क्या आपको प्रतिवेदनों के स्वरूप में कोई फ़र्क दिखाई देता है। बताएँ कि आपको क्या फ़र्क लगता है।

आइए कल्पना करें

कल्पना कीजिए कि आप इतिहासकार हैं। आप यह पता लगाना चाहते हैं कि आजादी मिलने के बाद एक दुर्गम आदिवासी इलाके की खेती में क्या बदलाव आए हैं। इन जानकारियों को ढूँढ़ने के विभिन्न तरीकों की सूची बनाएँ।

फिर से याद करें

1. सही और गलत बताएँ-

(क) जेम्स मिल ने भारतीय इतिहास को हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, तीन काल खंडों में बाँट दिया था।
(ख) सरकारी दस्तावेजों से हमें ये समझने में मदद मिलती है कि आम लोग क्या सोचते हैं।
(ग) अंग्रेज़ों को लगता था कि सही तरह शासन चलाने के सर्वेक्षण महत्त्वपूर्ण होते हैं।

आइए विचार करें

2. जेम्स मिल ने भारतीय इतिहास को जिस तरह काल खंडों में बाँटा है, उसमें क्या समस्याएँ हैं?

3. अंग्रेजों ने सरकारी दस्तावेजों को किस तरह सुरक्षित रखा?

4. इतिहासकार पुराने अख़बारों से जो जानकारी जुटाते हैं वह पुलिस की रिपोर्टों में उपलब्ध जानकारी से किस तरह अलग होती है?

आइए करके देखें

5. क्या आप आज की दुनिया के कुछ सर्वेक्षणों का उदाहरण दे सकते हैं? सोचकर देखिए कि खिलौना बनाने वाली कंपनियों को यह पता कैसे चलता है कि बच्चे किन चीजों को ज्यादा पसंद करते हैं। या, सरकार को यह कैसे पता चलता है कि स्कूलों में बच्चों की संख्या कितनी है? इतिहासकार ऐसे सर्वेक्षणों से क्या हासिल कर सकते हैं?



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