अध्याय 03 ज्ञान-प्राप्ति

दर्शन परिचर्चा

शांतिप्रिय अराड मनि के आश्रम में राजकुमार सिद्धार्थ ने प्रवेश किया, तो ऐसा लगा, जैसे उनके शरीर की आभा से सारा आश्रम प्रकाशित हो गया हो। मुनि अराड ने दूर से ही राजकुमार को देख लिया और उच्च स्वर में कहा"स्वागत है, आइए।" राजकुमार धीरे-धीरे उनके पास आए। दोनों ने विधिपूर्वक एक-दूसरे का अभिनंदन, अभिवादन किया, कुशलक्षेम पूछा और फिर मृगचर्म बिछी दो चौकियों पर दोनों बैठ गए।

मुनि ने राजकुमार को निहारते हुए स्नेहपूर्वक कहा—“हे सौम्य! मुझे पता चला है कि आप सभी स्नेह-बंधनों को तोड़कर घर से निकल आए हैं। आपका मन सब प्रकार से धैर्यवान है। आप ज्ञानी हैं, तभी तो राजलक्ष्मी को त्यागकर याँँ आ गए हैं। वैसे राजा लोग भोगी हुई राजलक्ष्मी को अपनी संतान को सौंपकर ही वन में आते रहे हैं, परंतु आश्चर्य की बात है कि आप विषयों के बीच रहते हुए युवावस्था में ही लक्ष्मी को बिना भोगे ही यहाँ आ गए हैं। इस धर्म को जानने के लिए आप श्रेष्ठ पात्र हैं, आप ज्ञान रूपी नौका पर सवार होकर दुख रूपी सागर को पार कीजिए। यद्यपि शिष्य को अच्छी तरह जानकर ही उचित समय पर शास्त्र-ज्ञान दिया जाता है, परंतु आपकी गंभीरता और संकल्प को देखकर मैं आपकी परीक्षा नहीं लूँगा।"

अराड मुनि के ये शब्द सुनकर कुमार परित्राजक अत्यंत प्रसन्न हुए। वे बोले— “आप जैसे विरक्त की यह अनुकूलता देखकर मैं कृतार्थ हो गया हूँ। जैसे देखने

की इच्छा वाला प्रकाश को; यात्रा की इच्छा वाला पथ-प्रदर्शक को और नदी पार जाने की इच्छा वाला नौका को देखता है, वैसे ही मैं आपको देख रहा हूँ। यदि आप उचित समझें तो मुझे जरा और मृत्यु के रोग से मुक्त होने का उपाय बताइए।”

अराड मुनि ने कुमार से कहा— “हे श्रोताओं में श्रेष्ठ! पहले आप हमारा सिद्धांत सुनिए और समझिए कि यह संसार जीवन और मृत्यु के चक्र के रूप में चलता रहता है।

हे मोहमुक्त! आलस्य अंधकार है, जन्म-मृत्यु मोह हैं, काम महामोह है और

फँसकर व्यक्ति पुन:-पुन: जन्म और मृत्यु के चक्र में पड़ता है। इस प्रकार आत्मा तत्वज्ञान प्राप्त कर आवागमन से मुक्त होती है और अक्षय पद अमरत्व को प्राप्त करता है।” अराड मुनि से यह तत्वज्ञान प्राप्त करने के पश्चात कुमार ने अक्षय पद प्राप्त करने के उपाय पूछे। तब उन्होंने अनेक उपाय बताए और अंत में कहा"यदि आप संतुष्ट हों और उचित समझें तो इनका अनुपालन कीजिए, क्योंकि इन्हीं सिद्धांत का अनुसरण करके प्राचीनकाल में अनेक ऋषि-मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया है।"

अराड मुनि के प्रवचन सुुकर कुमार ने कहा— “हे मुनि! मैंने आपसे उत्तरोत्तर कल्याणकारी मार्ग सुना। किंतु मैं इसे मोक्ष नहीं मान सकता। आत्मा के अस्तित्व को मानने पर अहंकार के अस्तित्व को भी मानना पड़ता है। मुझे आपकी ये बातें स्वीकार नहीं हैं।",

अराड मुनि के सिद्धांतों को सुनने के बाद भी कुमार को संतोष नहीं हुआ। अत: ‘यह धर्म अधूरा है’’ ऐसा मानकर वे उस आश्रम से निकल गए और अपने लक्ष्य की खोज में आगे बढ़ गए।

अराड मुनि के आश्रम से निकलकर कुमार उद्रक ऋषि के आश्रम में गए। वहाँ भी आत्मा की सत्ता के विचार जानकर उन्हें संतोष नहीं हुआ, अत: ‘परम-पद’ पाने की इच्छा से उन्होंने उद्रक ऋषि का आश्रम भी छोड़ दिया और धीरे-धीरे वे राजर्षि गय के ‘नगरी’ नामक आश्रम में गए।

कुछ समय के बाद बोधिसत्व कुमार को एकांत विहार की इच्छा हुईई इसलिए उन्होंने नैरंजना नदी के तट पर निवास किया। वहाँ उन्होंने पाँच भिक्षुओं को देखा, जिन्होंने अपनी इंद्रियों को वश में कर लिया था और वहीं रहकर तपस्या कर रहे थे। उन भिक्षुओं ने जब इस नवागत साधु को देखा तो वे उनके निकट आए और उनकी सेवा करने लगे।

कुछ समय के बाद जन्म और मृत्यु का अंत करने के उपाय के रूप में बोधिसत्व ने निराहार रहकर कठोर तप प्रारंभ किया। वहाँ उन्होंने छह वर्षों तक कठोर तप किया और अनेक उपवास व्रत किए। कठोर तपस्या के कारण वे कृशकाय हो गए। वे भोजन के रूप में कभी एक बेर, कभी एक तिल, कभी एक तंडुल (चावल) का सेवन करते थे। इस कठोर तपस्या के कारण जैसे-जैसे उनका शरीर कृश होता जाता था, उनके मुखमंडल का तेज बढ़ता जाता था। मेदा, मांस और रक्त से रहित और मात्र त्वचा और अस्थि वाला उनका शरीर फिर भी समुद्र के समान भरा-भरा-सा लगता था।

कुछ समय के बाद उन्हें ऐसा लगने लगा कि इस प्रकार की कठोर तपस्या से

व्यर्थ ही शरीर को कष्ट होता है। यह तापस धर्म न वैराग्य दे पाता है, न बोध, न मुक्ति। उन्हें ऐसी अनुभूति भी हुई कि दुर्बल व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिल सकता। अत: वे शरीर-बल-वृद्धि के विषय में विचार करने लगे। उन्होंने सोचा भूख, प्यास और श्रम से अस्वस्थ मन के द्वारा मोक्ष भला कैसे प्राप्त हो सकता है? उन्हें लगा कि आहार तृप्ति से ही मानसिक शक्ति मिलती है। स्थिर और प्रसन्न मन ही समाधि पा सकता है तथा समाधि युक्त चित्त वाला व्यक्ति ही ध्यान योग कर सकता है, ध्यान योग के सिद्ध हो जाने के बाद साधक उस धर्म को प्राप्त करता है, जिससे उसे दुर्लभ, शांत, अजर-अमर पद प्राप्त होता है। उन्हें लगा कि मुक्ति का उपाय आहार पर ही आधारित है। अत: उन्होंने भोजन करने की इच्छा की।

कठोर तपश्चर्या से बोधिसत्व अत्यंत कृशकाय और दुर्वल हो गए थे, फिर भी वे धीरे-धीरे नैरंजना नदी की ओर गए, स्नान किया और तट के वृक्षों की शाखाओं का सहारा लेकर वे ऊपर आए।

उसी समय निकट ही रहने वाले गोपराज की कन्या ‘नंदबाला’ प्रसन्नता पूर्वक वहाँ आई। शंख जैसी गोरी बाँहों वाली गोपबाला ने नीला वस्त्र धारण किया था और लग रही थी, जैसे फेन मालाओं से युक्त यमुना प्रकट हो गई हो। नंदबाला ने पहले श्रद्धापूर्वक बोधिसत्व को प्रणाम किया और उन्हें पायस (खीर) से परिपूर्ण पात्र प्रदान किया। इस प्रकार के सुभोज्य से तृप्त होकर उन्हें लगा कि वे अब बोधि प्राप्त करने में समर्थ हो गए हैं।

बोधिसत्व के साथ रह रहे पाँच भिक्षुओं ने जब उनका यह आचरण देखा, तो उन्हें लगा कि अब यह मुनि भी धर्म-च्युत हो गया है। इसलिए वे इन्हें छोड़कर चले गए।

उन सबके चले जाने के बाद बोधिसत्व सिद्धार्थ ने बोधि प्राप्त करने के लिए दृढ़ संकल्प किया और वे पास ही एक अवश्थ (पीपल) वृक्ष के नीचे भूमि पर आसन लगा कर बैठ गए। तभी ‘काल’ नामक एक सर्प प्रकट हुआ, क्योंकि उसे ज्ञात हो चुका था कि यह मुनि अवश्य ही बोधि प्राप्त करेगा। उसने पहले उनकी स्तुति की। काल सर्प ने कहा— “हे मुनि, आपके चरणों से आक्रांत होकर यह पृथ्वी बार-बार डोल रही है, सूर्य के समान आपकी आभा सर्वर्र प्रकाशित है। आप अवश्य ही अपना लक्ष्य प्राप्त करेंगे। हे कमललोचन! जिस प्रकार आकाश में नीलकंठ पक्षियों के झुंड आपकी प्रदक्षिणा कर रहे हैं और मंद-मंद पवन प्रवाहित हो रही है, उससे लगता है कि आप अवश्य ही बुद्ध बनेंगे।”

सर्प द्वारा अपनी स्तुति सुनकर सिद्धार्थ ने तृण लेकर बोधि प्राप्ति के लिए प्रतिज्ञा की। वे महावृक्ष के नीचे बैठ गए। उन्होंने निश्चय किया— “जब तक में कृतार्थ नहीं हो जाता, इस आसन से नहीं उठूँगा।”

जब सिद्धार्थ ने प्रतिज्ञापूर्वक आसन लगाया तो देवतागण अत्यंत प्रसन्न हुए। सर्वत्र नीरवता छा गई। उस समय न मृग बोले, न पक्षी। वे धीरे-धीरे नितांत एकांत-शांत वातावरण में समाधिस्थ हो गए।

मार की पराजय

जब महामुनि सिद्धार्थ ने मोक्ष प्राप्ति की प्रतिज्ञा कर आसन लगाया तो सारा लोक अत्यंत प्रसन्न हुआ, परंतु सद्धर्म का शत्रु मार (कामदेव) भयभीत हो गया। उसे सामान्यत: कामदेव, चित्रायुध और पुष्पशर कहा जाता है। यह काम के संचार का अधिपति है, यही मार है। उसके विभ्रम, हर्ष और दर्प नाम के तीन पुत्र हैं और अरति, प्रीति और तृषा नाम की तीन कन्याएँ हैं। उन्होंने जब अपने पिता को भयभीत देखा तो इसका कारण जानना चाहा। मार ने अपने पुत्र और पुत्रियों को बताया—“देखो, इस मुनि ने प्रतिज्ञा का कवच पहनकर सत्व के धनुष पर अपनी बुद्धि के बाण चढ़ा लिए हैं। यह हमारे राज्य को जीतना चाहता है। यही मेरे दुख और भय का कारण है। यदि यह मुझे जीत लेता है और सारे संसार को मोक्ष का मार्ग बता देता है तो राज्य सूना हो जाएगा। इसलिए यह ज्ञान-दृष्टि प्राप्त करे उससे पहले ही मुझे इसका व्रत भंग कर देना चाहिए। अत: मैं भी अभी अपना धनुष-बाण लेकर तुम सबके साथ इस पर आक्रमण करने जा रहा हूँ”

इस प्रकार सारी स्थिति समझाकर मार अपने पुत्र-पुत्रियों को साथ लेकर उसी अश्वत्थ वृक्ष के पास गया, जहाँ महामुनि समाधि लगाकर विराजमान थे। उसने पहले महामुनि को ललकारा और फिर धनुष-बाण हाथ में लेकर कहा— “हे मृत्यु से डरने वाले क्षत्रिय उठो, अपने क्षत्रिय धर्म का आचरण करो। मोक्ष का संकल्प छोड़ो। शास्त्रों और यजों से लोक जीतकर इंद्रपद प्राप्त करो। नहीं तो मैं अपना बाण छोड़ दूँगा”

मार की इस चेतावनी का जब मुनि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो उसने अपने पुत्रों और कन्याओं को आगे भेजा और अपना बाण छोड़ दिया, परंतु इसका भी

कोई प्रभाव मुनि पर नहीं हुआ, तो वह बहुत दुखी हुआ। वह सोचने लगा— “मैंने यही बाण शिव पर छोड़ा था तो एक बार विचलित हो गए थे, परंतु आज यह ज्ञान-प्राप्ति निष्फल कैसे हो गया है? क्या इस मुनि के हृदय नहीं है, अथवा यह बाण वह बाण नहीं रहा जिसने शिव को पराजित किया था।" इस प्रकार सोचते हुए उसने अपनी सेना को याद किया। तत्काल उसकी विकराल सेना उपस्थित हो गई।

महामुनि के चारों ओर विचित्र और भयंकर आकृति वाले जीवों की भीड़-सी लग गई। वे विविध प्रकार की रूप-सज्जा धारण किए हुए थे। उनमें से कुछ त्रिशूल घुमा-घुमाकर नाच रहे थे, कुछ गदा हाथ में लिए इधर-उधर कूद रहे थे और साँड की तरह हुंकार रहे थे।

रात्रि के प्रारंभ में ही शाक्य मुनि और मार के बीच होने वाले युद्ध के कारण सारा आकाश मलिन हो गया, पृथ्वी काँपने लगी और दिशाएँ जलने लगीं। उस समय भयंकर झंझावात प्रवाहित होने लगा। आकाश में उस समय न तारे थे और न चंद्रमा था। चारों ओर घनघोर अंधकार छा गया। इन सबके बीच शाक्य मुनि उसी प्रकार स्थिर चित्त बैठे रहे, जिस प्रकार गायों के बीच में सिंह निश्चित भाव से बैठा रहता है।

मार ने तब अपनी सेना को आक्रमण करने का आदेश दिया और कहा कि महर्षि को भयभीत करो, जिससे इसका ध्यान भंग हो जाए। आज्ञानुसार सभी महामुनि को डराने लगे। किंतु जैसे खेल में उत्तेजित बालकों को न व्यथा होती है, न उद्वेग, वैसे ही महर्षि इन सबके भयंकर रूपों और क्रिया-कलापों से न व्यथित हुए और न ही उत्तेजित।

जब मार के किसी सैनिक ने अपनी आँखें तरेरकर महामुनि पर गदा से प्रहार किया तो उसका गदा सहित हाथ ही जकड़कर रह गया। किसी ने शिला और किसी ने वृक्ष उठाकर उन पर प्रहार करना चाहा तो स्वयं ही गिर गए। किसी ने उन पर अंगारों की वर्षा की तो मुनि के मैत्री भाव के कारण वे लाल कमलों की पंखुड़ियाँ बनकर बरसने लगे। शाक्य मुनि अपने आसन से ज़रा भी विचलित नहीं हुए। इस भयंकर वातावरण से वन के पशु-पक्षी आर्तनाद करने लगे। सभी भयभीत हो गए। किंतु सिद्धार्थ मार की सेना से भयभीत नहीं हुए। इस पर मार को बहुत दुख हुआ और उसे बहुत क्रोध भी आया। तभी किसी अदृश्य जीव ने आकाश से प्रकट होकर मार से कहा— “तुम व्यर्थ ही क्यों परिश्रम कर रहे हो? जैसे सुमेरु पर्वत को हवा हिला नहीं सकती, वैसे ही तुम और तुम्हारे भूतगण इस महामुनि को विचलित नहीं

कर सकते। चाहे अग्नि अपनी उष्णता छोड़ दे; चाहे जल अपना द्रवत्व त्याग दे; चाहे पृथ्वी अपनी कक्षा छोड़ दे, लेकिन अपने पूर्व जन्मों के पुण्य-प्रताप से यह मुनि अपना नहीं निश्चय छोड़ेगा। यह मुनि शारीरिक और मानसिक रोगों से पीड़ित, रोगों से पीड़ित सारे जगत का महावैद्य है। तुम इसके कार्य में विद्न न डालो|"

उस अदृश्य जीव ने आगे कहा- “देखो! क्षमा रूपी जटा; धैर्य रूपी दृढ़ मूल; चरित्र रूपी पुष्प, बुद्धि रूपी शाखा और धर्म रूपी फल देने वाला यह वृक्ष उखाड़ने योग्य नहीं है। बोधि-प्राप्ति के लिए जो कार्य पहले इन्होंने किए हैं, उनकी सिद्धि का समय अब आ गया है। यह स्थान भी वही है, जहाँ प्राचीनकाल में अनेक मुनियों ने साधना की है। यह स्थान भूतल की नाभि है। ऐसी श्रेष्ठ भूमि पृथ्वी पर अन्यत्र नहीं है जो इस महामुनि की समाधि के वेग को सह सके। इसलिए हे मार! तुम व्यर्थ परिश्रम मत करो। जाओ, शोक मत करो और शांति प्राप्त करो|”

अपने सभी प्रयत्नों को विफल होते देखकर और इस अदृश्य जीव की ये बातें सुनकर मार अत्यंत खिन्न हुआ और वहाँ से शीघ्र भाग गया।जैसे अपने सेनानायक के मारे जाने पर सैनिक भाग जाते हैं, वैसे ही मार के जाने के बाद उसके सारे भूतगण भाग गए और मार पर महर्षि की विजय हो गई।मार पर महर्षि की विजय होते ही सारा आकाश चंद्रमा से सुशोभित हो गया, सुगंधित जल सहित पुष्पों की वर्षा होने लगी, दिशाएँ निर्मल हो गईं।

बुद्धत्व-प्राप्ति

मार और मार की सेना को धैर्य से पराजित करके शाक्य मुनि ने परम तत्वों को जानने की इच्छा से ध्यान लगाया। ध्यान की समस्त विधियों पर पूरा अधिकार प्राप्त करने के बाद रात्रि के प्रथम प्रहर में उन्होंने अपने पूर्व जन्मों की परंपरा का स्मरण किया - “मैं कहाँ-कहाँ, कब-कब अवतीर्ण हुआ हूँ” इस प्रकार उन्होंने सहस्त्रों जन्मों का प्रत्यक्ष स्मरण किया। अपने उन अवतारों में उन्होंने जो दया-कर्म किए थे और जिस प्रकार मृत्यु प्राप्त की थी, उन सबका प्रत्यास्मरण किया। उन्हें अनुभूति हुई कि यह सारा संसार केले के गर्भ के समान नितांत निस्सार है।

द्वितीय प्रहर में उस महामुनि ने दिव्य चक्षु प्राप्त किए। उन्होंने नीच-ऊँच कर्म करने वाले प्राणियों के उत्थान-पतन का प्रत्यक्ष अनुभव किया जिससे उनकी दयालुता और भी बढ़ गई। उन्होंने पापकर्म करने वालों की नारकीय वेदना और पीड़ा का अनुभव कर दुख का साक्षात्कार किया। उन्होंने देखा कि कर्म-बंधनों से

बँधे हुए प्राणी किस प्रकार दु:ख भोगते हैं, पर मर नहीं पाते और जब मरते हैं तो कैसे

उन्होंने अनुभव किया कि संसार में छोटे-बड़े सभी जीव भूख और प्यास जनित दुखों से पीड़ित हैं। कुछ जीव हैं जो नरक के समान ‘गर्भ’ नामक सरोवर में गिरकर मनुष्य के रूप में जन्म लेकर दु:ख भोगते हैं। कुछ जीव हैं, जो पुण्य कर्म करके स्वर्ग जाते है और वहाँ काम की ज्वाला में जलते हैं और तृप्त होने के पूर्व ही स्वर्ग से गिर जाते हैं। उन्होंने जन्म, जरा और मृत्यु के मूल कारणों का साक्षात्कार किया। उन्हें लगा जैसे वायु के योग से अग्नि का एक कण भी सारे वन को जला देता है वैसे ही तृष्णायुक्त काम कर्म रूपी जंगल को जलाता रहता है। उन्होंने ध्यान में समझा कि तृष्णा का मूल कारण वेदना (संवेदना) है, जो इंद्रियों, वस्तुओं और मन के संयोग से उत्पन्न होती है। उन्हें बोध हुआ कि अविद्या के नष्ट होने पर ही संस्कार क्षीण होते हैं और परम पद का मार्ग प्रशस्त होता है। उन्हें प्रतीति हई कि उन्हें अब पूर्ण मार्ग का ज्ञान हो गया है।

रात्रि के चतुर्थ प्रहर में जब सारा चराचर जगत शांत था, महाध्यानी मुनि ने अविनाशी पद प्राप्त किया और वे सर्वज्ञ बुद्ध हो गए।

जैसे ही शाक्य मुनि बुद्ध हुए सारी दिशाएँ सिद्धों से दीप्त हो गईं और आकाश में दुंदुभि बजने लगी। बिना बादल बरसात होने लगी, मंद-मंद पवन प्रवाहित होने लगी, वृक्षों से फल-फूल बरसने लगे और स्वर्ग से पुष्प वर्षा होने लगी। चारों ओर धर्म छा गया।

इक्ष्वाकु वंश के मुनि ने सिद्धि प्राप्त कर ली और वे बुद्ध हो गए। यह जानकर देवता और ऋषिगण उनके सम्मान के लिए विमानों पर सवार होकर उनके पास आए और अदृश्य रूप में उनकी स्तुति करने लगे।

ध्यानावस्थित होकर महात्मा बुद्ध ने जीवन-मरण के कार्य-कारण संबंधों को भली-भाँति जान लिया था और मुक्ति प्राप्त कर ली थी। इस मुक्तावस्था में वे सात दिनों तक बैठे रहे। तभी उन्हें जगत को बोध प्रदान करने की अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण हो आया। तभी दो देवता आए और उन्होंने निवेदन किया— “हे भवसागर को पार करनेवाले मुनि, आप इस दु:खी जगत का उद्धार कीजिए। जैसे धनी धन बाँटता है, वैसे ही आप अपने गुण और ज्ञान को बाँटिए।” महात्मा बुद्ध ने देवताओं की प्रार्थना स्वीकार की। तभी अन्य दिशाओं से देवतागण आए और उन्होंने महामुनि को भिक्षा पात्र दिया। निकट से जाने वाले एक सार्थवाह के दो श्रेष्ठियों ने उन्हें भिक्षा प्रदान की।

तब उन्होंने अराड और उद्रक का स्मरण किया, परंतु तब तक वे दिवंगत हो चुके थे, अत: उन्होंने उपदेश देने के लिए उन पाँच भिक्षुओं का स्मरण किया जो उन्हें तप से भ्रष्ट मानकर छोड़कर चले गए थे। इस तरह संसार के अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाने के लिए महात्मा बुद्ध ने काशी जाने की इच्छा की। वे अपने आसन से उठे, उन्होंने अपने शरीर को इधर-उधर घुमाया और बोधिवृक्ष की और प्रेम से देखा।

प्रश्न

1. अराड मुनि ने अविद्या किसे कहा है?

2. कठोर तपस्या में लगे सिद्धार्थ ने किस कारण भोजन करने का निर्णय लिया?

3. मार कौन था? वह बुद्ध को क्यों डरा रहा था?

4. सिद्धार्थ के बुद्धत्व प्राप्त करने पर प्रकृति में किस प्रकार की हलचल दिखाई पड़ी?



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