अधयाय 01 समानता

भारतीय संविधान सब व्यक्तियों को समान मानता है। इसका अर्थ है कि देश के व्यक्ति चाहे वे पुरुष हों या स्त्री, किसी भी जाति, धर्म, शैक्षिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से संबंध रखते हों, वे सब समान माने जाएँगे। लेकिन इसके बाद भी हम यह नहीं कह सकते कि असमानता खत्म हो गई है। यह खत्म नहीं हुई है, लेकिन फिर भी कम-से-कम भारतीय संविधान में सब व्यक्तियों की समानता के सिद्धांत को मान्य किया गया है। जहाँ पहले भेदभाव और दुर्च्यवहार से लोगों की रक्षा करने के कोई कानून नहीं था, अब अनेक कानून लोगों के सम्मान तथा उनके साथ समानता के व्यवहार को सुनिश्चित करने के मौजूद हैं।

समानता को स्थापित करने के संविधान में जो प्रावधान हैं, उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं- प्रथम, कानून की दृष्टि में हर व्यक्ति समान है। इसका तात्पर्य यह है कि हर व्यक्ति को देश के राष्ट्रपति से लेकर कांता जैसी घरेलू काम की नौकरी करने वाली महिला तक, सभी को एक ही जैसे कानून का पालन करना है। दूसरा, किसी भी व्यक्ति के साथ उसके धर्म, जाति, वंश, जन्मस्थान और उसके स्त्री या पुरुष होने के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। तीसरा, हर व्यक्ति सार्वजनिक स्थानों पर जा सकता है, जिनमें खेल के मैदान, होटल, दुकानें और बाज़ार आदि सम्मिलित हैं। सब लोग सार्वजनिक कुँओं, सड़कों और नहाने के घाटों का उपयोग कर सकते हैं। चौथा, अस्पृश्यता का उन्मूलन कर दिया गया है।

क्या आपको अपने जीवन की कोई ऐसी घटना याद है, जब आपकी गरिमा को चोट पहुँची हो? आपको उस समय कैसा महसूस हुआ था?

1975 में बनी दीवार फ़िल्म में जूते पॉलिश करने वाला एक लड़का फ़ेंक कर दिए गए पैसे को उठाने से इंकार कर देता है। वह मानता है कि उसके काम की भी गरिमा है और उसे उसका भुगतान आदर के साथ किया जाना चाहिए।

संसद हमारे लोकतंत्र का आधार स्तंभ है और हम अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से उसमें प्रतिनिधित्व पाते हैं।

शासन ने संविधान द्वारा मान्य किए गए समानता के अधिकार को दो तरह से लागू किया है - पहला, कानून के द्वारा और दूसरा, सरकार की योजनाओं व कार्यक्रमों द्वारा सुविधाहीन समाजों की मदद करके। भारत में ऐसे अनेक कानून हैं, जो व्यक्ति के समान व्यवहार प्राप्त करने के अधिकार की रक्षा करते हैं। कानून के साथ-साथ सरकार ने उन समुदायों, जिनके साथ सैकड़ों वर्षों तक असमानता का व्यवहार हुआ है, उनका जीवन सुधारने के अनेक कार्यक्रम और योजनाएँ लागू की हैं। ये योजनाएँ यह सुनिश्चित करने के चलाई गई हैं कि जिन लोगों को अतीत में अवसर नहीं मिले, अब उन्हें अधिक अवसर प्राप्त हों।

इस दिशा में सरकार द्वारा उठाया गया एक कदम है - मध्याह्न भोजन की व्यवस्था। इस कार्यक्रम के अंतर्गत सभी सरकारी प्राथमिक स्कूलों के बच्चों को दोपहर का भोजन स्कूल द्वारा दिया जाता है। यह योजना भारत में सर्वप्रथम तमिलनाडु राज्य में प्रारंभ की गई और 2001 में उच्चतम न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों को इसे अपने स्कूलों में छह माह के अंदर आरंभ करने के निर्देश दिए। इस कार्यक्रम के काफ़ी सकारात्मक प्रभाव हुए। उदाहरण के , दोपहर का भोजन मिलने के कारण गरीब बच्चों ने अधिक संख्या में स्कूल में प्रवेश लेना और नियमित रूप से स्कूल जाना शुरू कर दिया। शिक्षक बताते हैं कि पहले बच्चे खाना खाने घर जाते थे और फिर वापस स्कूल लौटते ही नहीं थे, परंतु अब, जब से स्कूल में मध्याह्न भोजन मिलने लगा है, उनकी उपस्थिति में सुधार आया है। वे माताएँ जिन्हें पहले अपना काम छोड़कर दोपहर को बच्चों को खाना खिलाने घर आना पड़ता था, अब उन्हें ऐसा नहीं करना पड़ता है। इस कार्यक्रम से जातिगत पूर्वाग्रहों को कम करने में भी सहायता मिली है, क्योंकि स्कूल में सभी जातियों के बच्चे साथ-साथ भोजन करते हैं और कुछ स्थानों पर तो भोजन पकाने के दलित महिलाओं को काम पर रखा गया है। मध्याह्न भोजन कार्यक्रम ने निर्धन विद्यार्थियों की भूख मिटाने में भी सहायता की है, जो प्रायः खाली पेट स्कूल आते हैं और इस कारण पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते हैं।

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उत्तराखंड की एक शासकीय शाला में बच्चों को उनका मध्याह्न भोजन परोसा जा रहा है।

मध्याह्न भोजन कार्यक्रम क्या है? क्या आप इस कार्यक्रम के तीन लाभ बता सकते हैं? आपके विचार से यह कार्यक्रम किस प्रकार समानता की भावना बढ़ा सकता है?

अपने क्षेत्र में लाग की गई किसी एक सरकारी योजना के बारे में पता लगाइए। इस योजना में क्या किया जाता है? यह किसके लाभ के बनाई गई है?

"अपने आत्मसम्मान को दाँव पर लगा कर जीवित रहना अशोभनीय है। आत्मसम्मान जीवन का सबसे जरुरी हिस्सा है। इसके बिना व्यक्ति नगण्य है। आत्मसम्मान के साथ जीवन बिताने के व्यक्ति को कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करनी होती है। केवल कठिन और निरंतर संघर्ष से ही व्यक्ति बल, विश्वास और मान्यता प्राप्त कर सकता है।"

“मनुष्य नाशवान है। हर व्यक्ति को किसी-न-किसी दिन मरना है, परंतु व्यक्ति को यह संकल्प लेना चाहिए कि वह अपने जीवन का बलिदान, आत्मसम्मान के उच्च आदर्शों को विकसित करने और अपने मानव जीवन को बेहतर बनाने में करेगा। किसी साहसी व्यक्ति के आत्मसम्मान रहित जीवन जीने से अधिक अशोभनीय और कुछ नहीं है।"

— बी.आर. अंबेडकर

यद्यपि शासकीय कार्यक्रम, अवसरों की समानता बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, किंतु अभी-भी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। मध्याह्न भोजन कार्यक्रम ने निर्धन बच्चों का स्कूलों में प्रवेश और उनकी उपस्थिति तो बढ़ा दी है, लेकिन फिर भी इस देश में वे स्कूल जहाँ अमीरों के बच्चे जाते हैं, उन स्कूलों से बहुत अलग हैं जहाँ गरीबों के बच्चे पढ़ते हैं। आज भी देश में कई स्कूल हैं, जिनमें ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे दलित बच्चों के साथ भेदभाव और असमानता का व्यवहार किया जाता है। इन बच्चों को ऐसी असमान स्थितियों में ढकेला जाता है, जहाँ उनके सम्मान की रक्षा नहीं हो पाती है। ऐसा इस है, क्योंकि कानून बन जाने के बाद भी लोग उन्हें समान समझने से इंकार कर देते हैं।

इसका मुख्य कारण यह है कि दृष्टिकोण में बहुत धीर–धीरे परिवर्तन आता है। यद्यपि लोग यह जानते हैं कि भेदभाव का व्यवहार कानून के विरुद्ध है, फिर भी वे जाति, धर्म, अपंगता, आर्थिक स्थिति और महिला होने के आधार पर लोगों से असमानता का व्यवहार करते हैं। वर्तमान दृष्टिकोण को बदलना तभी संभव है, जब लोग यह विश्वास करने लगें कि कोई भी कमतर नहीं है और हर व्यक्ति सम्मानजनक व्यवहार का अधिकारी है। प्रजातंत्रीय समाज में समानता स्थापित करना एक सतत संघर्ष है, जिसमें व्यक्तियों और विभिन्न समाजों को सहयोग देना है। इस पुस्तक में आप इसके बारे में और अधिक पढ़ेंगे।

अन्य लोकतंत्रों में समानता के मुद्दे

शायद आप सोच रहे होंगे कि क्या भारतीय लोकतंत्र ही ऐसा है जहाँ असमानता का अस्तित्व है और जहाँ समानता के संघर्ष जारी है। सच तो यह है कि संसार के अधिकांश लोकतंत्रीय देशों में, समानता के मुद्दे पर विशेष रूप से संघर्ष हो रहे हैं। उदाहरण के संयुक्त राज्य अमेरिका में अफ्रीकी-अमेरिकन लोग, जिनके पूर्वज गुलाम थे और अफ्रीका से लाए गए थे, वे आज भी अपने जीवन को मुख्य रूप से असमान बताते हैं। जबकि 1950 के अंतिम दशक में अफ्रीकी-अमेरिकनों को समान अधिकार दिलाने के आंदोलन हुआ था। इससे पहले अफ्रीकी-अमेरिकनों के साथ संयुक्त राज्य में बहुत असमानता का व्यवहार होता था और कानून भी उन्हें समान नहीं मानता था। उदाहरण के बस से यात्रा करते समय उन्हें बस में पीछे बैठना पड़ता था या जब भी कोई गोरा आदमी बैठना चाहे, उन्हें अपनी सीट से उठ जाना पड़ता था।

रोज़ापार्क्स(1913-2005)एकअफ्रीकी-अमेरिकन महिला थीं। 1 दिसंबर 1955 को दिन भर काम करके थक जाने के बाद बस में उन्होंने अपनी सीट एक गोरे व्यक्ति को देने से मना कर दिया। उस दिन उनके इंकार से अफ्रीकी-अमेरिकनों के साथ असमानता को लेकर एक विशाल आंदोलन प्रारंभ हो गया, जो नागरिक अधिकार आंदोलन (सिविल राइट्स मूवमेंट) कहलाया। 1964 के नागरिक अधिकार अधिनियम ने नस्ल, धर्म और राष्ट्रीय मूल के आधार पर भेदभाव का निषेध कर दिया। इसने यह भी कहा कि अफ्रीकी-अमेरिकन बच्चों के सब स्कूलों के दरवाजे़ खोले जाएँगे और उन्हें उन अलग स्कूलों में नहीं जाना पड़ेगा, जो विशेष रूप से केवल उन्हीं के खोले गए थे। इतना होने के बावजूद भी अधिकांश अफ्रीकी-अमेरिकन गरीब हैं। अधिकतर अफ्रीकी-अमेरिकन बच्चे केवल ऐसे सरकारी स्कूलों में प्रवेश लेने की ही सामर्थ्य रखते हैं, जहाँ कम सुविधाएँ हैं और कम योग्यता वाले शिक्षक हैं; जबकि गोरे विद्यार्थी निजी स्कूलों में जाते हैं या उन क्षेत्रों में रहते हैं, जहाँ के सरकारी स्कूलों का स्तर निजी स्कूलों जैसा ही ऊँचा है।

रोजा पार्क्स, एक अफ्रीकी-अमेरिकन औरत, जिनकी एक विद्रोही प्रतिक्रिया ने अमेरिकी इतिहास की दिशा बदल दी।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 के अंश

धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध-

(1) राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।

(2) कोई नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर-

(क) दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश

या

(ख) पूर्णतः या भागतः राज्य-निधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के समर्पित कुँओं, तालाबों, स्नानघाटों, सड़कों और सार्वजनिक समागम के स्थानों के उपयोग,

के संबंध में किसी भी निर्योग्यता, दायित्व, निर्बंधन या शर्त के अधीन नहीं होगा।

लोकतंत्र की चुनौती

किसी भी देश को पूरी तरह से लोकतंत्रीय नहीं कहा जा सकता। हमेशा से ही ऐसे समुदाय और व्यक्ति होते हैं, जो लोकतंत्र को नए अर्थ देते हैं और अधिक से अधिक समानता लाने के नए-नए सवाल उठाते हैं। इसके केंद्र में वह संघर्ष है, जो सब व्यक्तियों को समानता और सम्मान दिलाने का पक्षधर है। इस पुस्तक में आप पढ़ेंगे कि किस तरह समानता का प्रश्न भारतीय लोकतंत्र में हमारे दैनिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करता है। इन पाठों को पढ़ते हुए विचार कीजिए कि क्या सब व्यक्तियों की समानता और उनके आत्मसम्मान को ऊँचा रखने की भावना को लोग स्वीकार कर रहे हैं या नहीं।

  1. लोकतंत्र में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार क्यों महत्तपूर्ण है?
  2. बॉक्स में दिए गए संविधान के अनुच्छेद 15 के अंश को पुनः पढ़िए और दो ऐसे तरीके बताइए, जिनसे यह अनुच्छेद असमानता को दूर करता है?
  3. “कानून के सामने सब व्यक्ति बराबर हैं” इस कथन से आप क्या समझते हैं? आपके विचार से यह लोकतंत्र में महत्त्वपूर्ण क्यों है?
  4. दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016, के अनुसार उनको समान अधिकार प्राप्त हैं और समाज में उनकी पूरी भागीदारी संभव बनाना सरकार का दायित्व्व है। सरकार को उन्हें निःशुल्क शिक्षा देनी है और विकलांग बच्चों को स्कूलों की मुख्यधारा में सम्मिलित करना है। कानून यह भी कहता है कि सभी सार्वजनिक स्थल, जैसे - भवन, स्कूल आदि में ढलान बनाए जाने चाहिए, जिससे वहाँ विकलांगों के पहुँचना सरल हो।

चित्र को देखिए और उस बच्चे के बारे में सोचिए, जिसे सीढ़ियों से नीचे लाया जा रहा है। क्या आपको लगता है कि इस स्थिति में उपर्युक्त कानून लागू किया जा रहा है? वह भवन में आसानी से आ-जा सके, उसके क्या करना आवश्यक है? उसे उठाकर सीढ़ियों से उतारा जाना, उसके सम्मान और उसकी सुरक्षा को कैसे प्रभावित करता है?

http://disabilityaffairs.gov.in


शब्द-संकलन

सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार - यह लोकतंत्रीय समाज का अत्यंत महत्त्वपूर्ण पहलू है। इसका अर्थ है कि सभी वयस्क (18 वर्ष एवं उससे अधिक आयु के) नागरिकों को वोट देने का अधिकार है, चाहे उनकी सामाजिक या आर्थिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो।

गरिमा - इसका तात्पर्य अपने-आपको और दूसरे व्यक्तियों को सम्मान योग्य समझने से है।

संविधान - यह वह दस्तावेज़ है, जिसमें देश की जनता व सरकार द्वारा पालन किए जाने वाले नियमों और अधिनियमों को निरूपित किया गया है।

नागरिक अधिकार आंदोलन - एक आंदोलन, जो संयुक्त राज्य अमेरिका में 1950 के दशक के अंत में प्रारंभ हुआ और जिसमें अफ्रीकी-अमेरिकन लोगों ने नस्लगत भेदभाव को समाप्त करने और समान अधिकारों की माँग की।



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