अध्याय 08 अठारहवीं शताब्दी में नए राजनीतिक गठन
यदि आप मानचित्र 1 और 2 को ध्यानपूर्वक देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के दौरान उपमहाद्वीप में कुछ विशेष रूप से उल्लेखनीय घटनाएँ घटीं। गौर कीजिए कि कई स्वतंत्र राज्यों के उदय से मुग़ल साम्राज्य की सीमाएँ किस तरह से बदलीं। आप यह भी देखें कि 1765 तक एक अन्य शक्ति यानी ब्रिटिश सत्ता ने पूर्वी भारत के बड़े-बड़े हिस्सों को सफलतापूर्वक हड़प लिया था। ये मानचित्र हमें
मानचित्र 1
अठारहवीं शताब्दी में नए राज्यों का गठन
यह दर्शाते हैं कि अठारहवीं शताब्दी एक ऐसी अवधि थी, जब भारत में राजनीतिक परिस्थितियाँ अपेक्षाकृत एक छोटे से समयांतराल में बड़ी तेज़ी से अचानक बदलनी शुरू हो गई थीं। इस अध्याय में हम अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध (मोटे तौर पर 1707 में जब औरंगजेब की मृत्यु हुई थी, से 1761 तक, जब पानीपत की तीसरी लड़ाई हुई) के दौरान उपमहाद्वीप में उत्पन्न हुई नई राजनीतिक शक्तियों के बारे में पढ़ेंगे।
मानचित्र 2
अठारहवीं शताब्दी के मध्य ब्रिटिश क्षेत्र
मुग़ल साप्राज्य और परवर्ती मुग़लों के संकट की स्थिति
अध्याय 4 में आपने देखा था कि मुग़ल साम्राज्य अपनी सफलता की ऊँचाई पर किस प्रकार पहुँचा था और फिर सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में उसके सामने तरह-तरह के संकट किस प्रकार खड़े होने लगे थे। ऐसा अनेक कारणों से हुआ। बादशाह औरंगजे़ब ने दक्कन में (1679 से) लंबी
अध्याय 4 में तालिका 1 देखें। औरंगजजेब के शासनकाल में किन-किन लोगों ने मुग़ल सत्ता को सबसे लंबे समय तक चुनौती दी।
लड़ाई लड़ते हुए साम्राज्य के सैन्य और वित्तीय संसाधनों को बहुत अधिक खर्च कर दिया था।
औरंगज़ेब के उत्तराधिकारियों के शासनकाल में साम्राज्य के प्रशासन की कार्य-कुशलता समाप्त होने लगी और मनसबदारों के शक्तिशाली वर्गों को वश में रखना केंद्रीय सत्ता के कठिन हो गया। सूबेदार के रूप में नियुक्त अभिजात अकसर राजस्व और सैन्य प्रशासन (दीवानी एवं फ़ौजदारी) दोनों कार्यालयों पर नियंत्रण रखते थे। इससे मुग़ल साम्राज्य के विशाल क्षेत्रों पर उन्हें विस्तृत राजनैतिक, आर्थिक और सैन्य शक्तियाँ मिल गईं। जैसे-जैसे सूबेदारों ने प्रांतों पर अपना नियंत्रण सुदृढ़ किया, राजधानी में पहुँचने वाले राजस्व की मात्र में कमी आती गई।
उत्तरी तथा पश्चिमी भारत के अनेक हिस्सों में हुए ज़मींदारों और किसानों के विद्रोहों और कृषक आंदोलनों ने इन समस्याओं को और भी गंभीर बना दिया। कभी-कभी ये विद्रोह बढ़ते हुए करों के भार के विरुद्ध किए गए थे और कभी-कभी ये शक्तिशाली सरदारों के द्वारा अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाने की कोशिशें थीं। अतीत में भी विद्रोही समूहों ने मुग़ल सत्ता को चुनौती दी थी। परंतु अब ऐसे समूहों ने क्षेत्र के आर्थिक संसाधनों का प्रयोग अपनी स्थितियों को मजबबत करने के किया। जिस तरह से धीरे-धीरे राजनैतिक व आर्थिक सत्ता, प्रांतीय सूबेदारों, स्थानीय सरदारों व अन्य समूहों के हाथों में आ रही थी, औरंगज़ेब के उत्तराधिकारी इस बदलाव को रोक न सके।
भरपूर फ़सल और खाली तिजोरियाँ
एक तत्कालीन लेखक ने साम्राज्य के वित्तीय दिवालियेपन का वर्णन इन शब्दों में किया है:
बड़े ज़ींदार निस्सहाय और निर्धन हो गए हैं। उनके किसान वर्ष में दो फ़सलें उगाते हैं, लेकिन उन्हें दोनों में से कुछ नहीं मिलता है। उनके स्थानीय गुमाश्ते एक तरह से किसानों के हाथ की कठुपतली बने रहते हैं, जैसे कि स्वयं किसान अपने ऋणदाता के वश में रहता है, जब तक कि वह साहूकार का कर्जा नहीं चुका देता। इस प्रकार संपूर्ण व्यवस्था एवं प्रशासन इतना चकनाचूर हो चुका है कि यद्यपि किसान अपनी फ़सल के जरिए मानो सोना बटोरता है, लेकिन उसके मालिक जमींदार को एक तिनके का टुकड़ा भी नहीं मिलता है। ऐसी हालत में जमींदार सशस्त्र सेना कैसे रख सकते हैं, जिनकी उससे आशा की जाती है? वे अपने सैनिकों को जो लड़ाई के समय उनके आगे-आगे चलते हैं और घुड़सवारों को जो उनके ठीक पीछे चलते हैं, पैसा कहाँ से देंगे?
इस आर्थिक व राजनीतिक संकट के बीच ईरान के शासक नादिरशाह ने 1739 में दिल्ली पर आक्रमण किया और संपूर्ण नगर को लूट कर वह बड़ी भारी मात्रा में धन-दौलत ले गया। नादिरशाह के आक्रमण के बाद अफ़गान शासक अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों का ताँता लगा रहा। उसने तो 1748 से 1761 के बीच पाँच बार उत्तरी भारत पर आक्रमण किया और लूटपाट म माई।
नादिशशाह का दिल्ली पर आक्रमण
नादिशशाह के आक्रमण के परिणामस्वरूप दिल्ली में जो विध्वंस हुआ, उसका वर्णन समकालीन प्रेक्षकों ने किया था। इनमें से एक ने मुग़ल कोष से जिस तरह धन लूटा गया था, उसका वर्णन इस तरह से किया है:
साठ लाख रुपए और कई हजार सोने के सिक्के, लगभग एक करोड़ रुपए के सोने के बर्तन, लगभग पचास करोड़ रुपए के गहने, जवाहरात और अन्य चीज़ें ले गया, जिनमें से कुछ तो इतनी बेशकीमती थीं कि दुनिया में उनका मुकाबला कोई नहीं कर सकता है, जैसे-तख्ते ताउस यानी मयूर सिंहासन। एक अन्य वृत्तांत में दिल्ली पर आक्रमण के प्रभाव का वर्णन मिलता है: जो कभी मालिक थे, अब बड़ी दर्दनाक हालत में आ गए। जिन्हें कभी भरपूर आदर-इजजज दी जाती थी, उन्हें अब प्यास बुझाने के पानी भी नहीं मिलता। अलग-थलग पड़े लोगों को उनके कोनों से खींचकर बाहर निकाल दिया गया। दौलतमंदों को भिखारी बना दिया गया। जो शौकीन लोग कभी तरह-तरह के सुंदर कपड़े पहनकर पोशाकों का नया-नया फैशन चलाते थे, अब नंगे घूमने लगे, और जिनके पास जमीन-जायदाद की कोई कमी नहीं थी, वे अब बेघर हो गए… नया शहर (शाहजहाँनाबाद) अब मलबे का ढेर बन गया। (नादिशशाह ने) तब शहर के पुराने मोहल्लों पर हमला बोला और वहाँ की सारी की सारी दुनिया को तबाह कर डाला…
चित्र 1
नादिशाह का 1779 का एक चित्र
साम्राज्य पर सब ओर से दबाव तो पड़ ही रहा था, अभिजातों के विभिन्न समूहों की पारस्परिक प्रतिद्यंद्विता ने उसे और भी कमजोर बना डाला। ये अभिजात दो बड़े गुटों में बँटे हुए थे - ईरानी और तूरानी (तुर्क मूल के)। काफ़ी समय तक परवर्त्ती मुग़ल बादशाह इनमें से एक या दूसरे समूह के हाथों की कठपुतली बने रहे। बेहद अपमानजनक स्थिति तब पैदा हो गई, जब दो मुग़ल बादशाहों-फर्रूख़सियर (1713-1719) और आलमगीर द्वितीय
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एक अभिजात के दरबार में स्वागत करते हुए फर्रू.खसियर
(1754-1759) की हत्या हो गई और दो अन्य बादशाहों, अहमदशाह $(1748-1754)$ और शाह आलम द्वितीय (1759-1816) को उनके अभिजातों ने अंधा कर दिया।
मुग़ल सम्राटों की सत्ता के पतन के साथ-साथ बड़े प्रांतों के सूबेदारों और बड़े ज़मींदारों ने उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में अपनी शक्ति और प्रबल बना ली, जैसे अवध, बंगाल और हैदराबाद।
राजपूत
बहुत-से राजपूत घराने विशेष रूप से अम्बर और जोधपुर के राजघराने मुग़ल व्यवस्था में विशिष्टता के साथ सेवारत रहे थे। बदले में उन्हें अपनी वतन जागीरों पर पर्याप्त स्वायत्तता का आनंद लेने की अनुमति मिली हुई थी। अब अठारहवीं शताब्दी में इन शासकों ने अपने आस-पास के इलाकों पर अपने नियंत्रण का विस्तार करने के अपने हाथ-पाँव मारने शुरू किए। जोधपुर के राजा अजीत सिंह ने भी मुग़ल दरबार की गुटीय राजनीति में अपने पैर फँसा दिए।
इन प्रभावशाली राजपूत घरानों ने गुजरात और मालवा के लाभदायक सूबों की सूबेदारी का दावा किया। जोधपुर के राजा अजीत सिंह को गुजरात की सूबेदारी और अम्बर के सवाई राजा जयसिंह को मालवा की सूबेदारी मिल गई। बादशाह जहांदार शाह ने 1713 में इन राजाओं के इन पदों का नवीकरण कर दिया। उन्होंने अपने वतनों के पास-पड़ौस के शाही इलाकों के कुछ हिस्सों पर कब्जा करने की भी कोशिशें की। जोधपुर राजघराने ने नागौर को जीत लिया और अपने राज्य में मिला लिया।दूसरी ओर अम्बर ने भी बूंदी के बड़े-बड़े हिस्सों पर अपना कब्जा कर लिया। सवाई राजा जयसिंह ने जयपुर में अपनी नई राजधानी स्थापित की और उसे 1722 में आगरा की सूबेदारी दे दी गई। 1740 के दशक से राजस्थान में मराठों
कई राजपूत सरदारों ने पहाड़ियों की चोटियों पर किले बनाये, जो सत्ता के केंद्र बने व्यापक किलेबंदी के साथ इन भव्य संरचनाओं में नगर, महलें, मंदिर, व्यापारिक केंद्र, जल संग्रहण संरचनाएँ और अन्य इमारतें होती थीं चित्रोडगढ़ किले में, तालाब, कुण्डी (कुएँ), बावली जैसे कई जल निकाय थे।
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चित्रोड़ाग़ किला, राजस्थान
के अभियानों ने इन रजवाड़ों पर भारी दबाव डालना शुरू कर दिया, जिससे उनका अपना विस्तार आगे होने से रुक गया।
कई राजपूत शासकों ने मुगलों का अधिराजत्व स्वीकार किया था लेकिन मेवाड़ एकमात्र ऐसा राजपूत राज्य था जिसने मुग़ल सत्ता को चुनौती दी थी। राणा प्रताप 1572 में उदयपुर तथा मेवाड़ के बड़े क्षेत्र पर नियंत्रण के साथ मेवाड़ की राजगद्दी पर आसीन हुए। राणा के पास मुग़ल अधिराजत्व को स्वीकार करने के लिए कई दूतों को भेजा गया लेकिन वे अपने निर्णय पर दृढ़ रहे।
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जयपुर में जंतर मंतर
जयपुर के राजा जयसिंह
1732 के एक फारसी वृत्तांत में राजा जयसिंह का वर्णन:
राजा जयसिंह अपनी सत्ता की चरम सीमा पर थे। बारह वर्ष के वे आगरा के सूबेदार रहे और पाँच या छह वर्ष के मालवा के। उनके पास विशाल सेना, तोपखाना तथा भारी मात्र में धन-संपदा थी। उनका प्रभाव दिल्ली से लेकर नर्मदा के तट तक फैला हुआ था।
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मेहरानगढ़ किला, जोधपुर
अम्बेर के शासक सवाई जयसिंह ने दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, मथुरा और वाराणसी में पांच खगोलीय वेधशालाओं का निर्माण किया। जंतर मंतर के नाम से विख्यात इन वेधशालाओं में खगोलीय पिंडों के अध्ययन हेतु कई उपकरण हैं।
आज़ादी हासिल करना
सिक्ख
अध्याय 6 में आपने पढ़ा कि सत्रहवीं शताब्दी के दौरान सिक्ख एक राजनैतिक समुदाय के रूप में गठित हो गए। इससे पंजाब के क्षेत्रीय राज्य-निर्माण को बढ़ावा मिला। गुरु गोबिंद सिंह ने 1699 में खालसा पंथ की स्थापना से पूर्व और उसके पश्चात् राजपूत व मुग़ल शासकों के खिलाफ़ कई लड़ाइयाँ लड़ीं। 1708 में गुरु गोबिंद सिंह की मृत्यु के बाद बंदा बहादुर
खालसा से क्या अभिप्राय है? क्या आपको याद है कि इसके बारे में आपने अध्याय 6 में पढ़ा है?
के नेतृत्व में ‘खालसा’ ने मुगल सत्ता के खिलाफ़ विद्रोह किए। उन्होंने बाबा गुरु नानक और गुरु गोबिंद सिंह के नामों वाले सिक्के गढ़कर अपने शासन को सार्वभौम बताया। सतलुज और यमुना नदियों के बीच के क्षेत्र में उन्होंने अपने प्रशासन की स्थापना की। 1715 में बंदा बहादुर को बंदी बना लिया गया और उसे 1716 में मार दिया गया।
अठारहवीं शताब्दी में कई योग्य नेताओं के नेतृत्व में सिक्खों ने अपनेआपको पहले ‘जत्थों’ में, और बाद में ‘मिस्लों’ में संगठित किया। इन जत्थों और मिस्लों की संयुक्त सेनाएँ ‘दल खालसा’ कहलाती थीं। उन दिनों दल खालसा, बैसाखी और दीवाली के पर्वों पर अमृतसर में मिलता था। इन बैठकों में वे सामूहिक निर्णय जाते थे, जिन्हें गुरमत्ता (गुरु के प्रस्ताव) कहा जाता था। सिक्खों ने राखी व्यवस्था स्थापित की, जिसके अंतर्गत किसानों से उनकी उपज का 20 प्रतिशत कर के रूप में लेकर बदले में उन्हें संरक्षण प्रदान किया जाता था।
चित्र 6
दसवें गुरु, गुरु गोबिद सिंह
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महाराजा रणजीत सिंह की तलवार
गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा को प्रेरित किया था कि शासन उनके भाग्य में है (राज करेगा खालसा)। अपने सुनियोजित संगठन के कारण खालसा, पहले मुग़ल सूबेदारों के खिलाफ़ और फिर अहमदशाह अब्दाली के खिलाफ़ सफल विरोध प्रकट कर सका। (अहमदशाह अब्दाली ने मुग़लों से पंजाब का समृद्ध प्रांत और सरहिंद की सरकार को अपने कब्जे में कर लिया था।) खालसा ने 1765 में अपना सिक्का गढ़कर सार्वभौम शासन की घोषणा की। यह महत्त्वपूर्ण है कि सिक्के पर उत्कीर्ण शब्द वही थे, जो बंदा बहादुर के समय में खालसा के आदेशों में पाए जाते हैं।
अठारहवीं शताब्दी के अंतिम भाग में सिक्ख इलाके सिंधु से यमुना तक फैले हुए थे, यद्यपि ये विभिन्न शासकों में बँटे हुए थे। इनमें से एक शासक महाराजा रणजीत सिंह ने विभिन्न सिक्ख समूहों में फिर से एकता कायम करके 1799 में लाहौर को अपनी राजधानी बनाया।
मराठा
मराठा राज्य एक अन्य शक्तिशाली क्षेत्रीय राज्य था, जो मुग़ल शासन का लगातार विरोध करके उत्पन्न हुआ था। शिवाजी (1627-1680) ने शक्तिशाली योद्धा परिवारों (देशमुखों) की सहायता से एक स्थायी राज्य की स्थापना की। अत्यंत गतिशील कृषक-पशुचारक (कुनबी) मराठों की सेना के मुख्य आधार बन गए। शिवाजी ने प्रायद्वीप में मुग़लों को चुनौती देने के इस सैन्य-बल का प्रयोग किया। शिवाजी की मृत्यु के पश्चातू, मराठा राज्य में प्रभावी शक्ति, चितपावन ब्राह्मणों के एक परिवार के हाथ में रही, जो शिवाजी के उत्तराधिकारियों के शासनकाल में ‘पेशवा’ (प्रधानमंत्री) के रूप में अपनी सेवाएँ देते रहे। पुणे मराठा राज्य की राजधानी बन गया।
पेशवाओं की देखरेख में मराठों ने एक अत्यंत सफल सैन्य संगठन का विकास कर लिया। उनकी सफलता का रहस्य यह था कि वे मुग़लों के किलाबंद इलाकों से टक्कर न लेते हुए, उनके पास से चुपचाप निकलकर शहरों-कस्बों पर हमला बोलते थे और मुगल सेना से ऐसे मैदानी इलाकों में मुउभेड़ लेते थे; जहाँ रसद पाने और कुमक आने के रास्ते आसानी से रोके जा सकते थे।
1720 से 1761 के बीच, मराठा साम्राज्य का काफ़ी विस्तार हुआ। उसने शनैः:शनैः और काफ़ी सफलतापूर्वक मुगल साम्राज्य की सत्ता को क्षति
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शिवाजी का रूपचित्र17 वीं सदी के अंत तक दक्कन में शिवाजी के नेतृत्व में एक शक्तिशाली राज्य के उदय की शुरुआत हुई, जिससे अंततः एक मराठा राज्य की स्थापना हुई। शिवाजी का जन्म 1630 में शाहजी और जीजाबाई से हुआ। अपनी माता और अभिभावक दादा कोंडदेव के मार्ग निर्देशन में शिवाजी कम उम्र में ही विजयपथ पर निकल पड़े। जावली पर कब्जे ने उन्हें मवाला पठारों का अविवादित मुखिया बना दिया जिसने उनके क्षेत्र-विस्तार का पथ प्रशस्त किया। बीजापुर और मुगलों के खिलाफ उनके कारनामों ने उन्हें विख्यात व्यक्तित्व बना दिया। वे अपने विरोधियों के खिलाफ प्राय: गुरिल्ला युद्धकला का प्रयोग करते थे। चौथ और सरदेशमुखी पर आधारित राजस्व संग्रह प्रणाली की सहायता से उन्होंने एक मजजूत मराठा राज्य की नींव रखी।
चौथ
ज्ञींदारों द्वारा वसूले जाने वाले भू-राजस्व का 25 प्रतिशता दक्कन में इनको मराठा वसूलते थे।
सरदेशमुखी
दक्कन में मुख्य राजस्व संग्रहकर्त्ता को दिए जाने वाले भूराजस्व का 9- 10 प्रतिशत हिस्सा।
बाजी राव प्रथम, जो बाजीराव बल्लाल के नाम से भी जाने जाते हैं, पेशवा बालाजी विश्वनाथ के पुत्र थे। वह एक महान मराठा सेनापति थे। उन्हें विंध्य के पार मराठा राज्य के विस्तार का श्रेय प्राप्त है तथा वे मालवा, बुंदेलखंड, गुजरात और पुर्तगालियों के खिलाफ सैन्य अभियानों के भी जाने जाते हैं।
पहुँचाई। 1720 के दशक तक मालवा और गुजरात मुग़लों से छीन गए। 1730 के दशक तक, मराठा नरेश को समस्त दक्कन प्रायद्वीप के अधिपति के रूप में मान्यता मिल गई और साथ ही इस क्षेत्र पर चौथ और सरदेशमुखी कर वसूलने का अधिकार भी मिल गया।
1737 में दिल्ली पर धावा बोलने के बाद मराठा प्रभुत्व की सीमाएँ तेज़ी से बढ़ीं। वे उत्तर में राजस्थान और पंजाब, पूर्व में बंगाल और उड़ीसा तथा दक्षिण में कर्नाटक और तमिल एवं तेलुगु प्रदेशों तक फैल गईं। इन क्षेत्रों को औपचारिक रूप से मराठा साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया गया, मगर मराठा प्रभुसत्ता को स्वीकार करने के तरीके के रूप में उनसे भेंट की रकम ली जाने लगी। साम्राज्य के इस विस्तार से उन्हें संसाधनों का भंडार तो मिल गया, मगर उसके उन्हें कीमत भी चुकानी पड़ी। मराठों के सैन्य अभियानों के कारण अन्य शासक भी उनके खिलाफ़ हो गए। परिणामस्वरूप मराठों को 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में अन्य शासकों से कोई सहायता नहीं मिली।
अंतहीन सैन्य अभियानों के साथ-साथ मराठों ने एक प्रभावी प्रशासन व्यवस्था तैयार की। जब किसी इलाके पर एक बार विजय अभियान पूरा हो जाता था और मराठों का शासन सुरक्षित हो जाता था, तो वहाँ स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए धीरे-धीरे भू-राजस्व की माँग की गई। कृषि को प्रोत्साहित किया गया और व्यापार को पुनर्जीवित किया गया। इससे सिंधिया, गायकवाड़ और भोंसले जैसे मराठा सरदारों को शक्तिशाली सेनाएँ खड़ी करने के संसाधन मिल सके। 1720 के दशक में मालवा में मराठा अभियानों ने उस क्षेत्र में स्थित शहरों के विकास व समृद्धि को कोई हानि नहीं पहुँचाई। उज्जैन सिंधिया के संरक्षण में और इंदौर होल्कर के आश्रय में फलता-फूलता रहा। ये शहर हर तरह से बड़े और समृद्धिशाली थे और वे महत्वपूर्ण वाणिज्यिक और सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में कार्य कर रहे थे। मराठों द्वारा नियंत्रित इलाकों में व्यापार के नए मार्ग खुले। चंदेरी के क्षेत्र में उत्पादित रेशमी वस्त्रों को मराठों की राजधानी पुणे में नया बाज़ार मिला। बुरहानपुर पहले आगरा और सूरत के बीच की धुरी पर ही अपने व्यापार में संलग्न था, लेकिन अब उसने अपने वाणिज्यिक भीतरी क्षेत्र को बढ़ाकर दक्षिण में पुणे और नागपुर को तथा पूर्व में लखनऊ तथा इलाहाबाद को शामिल कर लिया था।
जाट
अन्य राज्यों की तरह जाटों ने भी सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दियों में अपनी सत्ता सुदृढ़ की। अपने नेता चूड़ामन के नेतृत्व में उन्होंने दिल्ली के पश्चिम में स्थित क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण कर लिया। 1680 के दशक तक आते-आते उनका प्रभुत्व दिल्ली और आगरा के दो शाही शहरों के बीच के क्षेत्र पर होना शुरू हो गया। वस्तुतः कुछ अर्से के वे आगरा शहर के अभिरक्षक ही बन गए।
जाट, समृद्ध कृषक थे और उनके प्रभुत्व-क्षेत्र में पानीपत तथा बल्लभगढ़ जैसे शहर महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बन गए। सूरजमल के राज में भरतपुर शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरा। 1739 में जब नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला बोलकर उसे लूटा, तो दिल्ली के कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भरतपुर में शरण ली। नादिरशाह के पुत्र जवाहिरशाह के पास तीस हज़ार सैनिक थे। उसने बीस हज़ार अन्य सैनिक मराठाओं से , पंद्रह हज़ार सैनिक सिक्खों से और इन सबके बलबूते पर वह मुग़लों से लड़ा।
जहाँ भरतपुर का किला काफ़ी हद तक पारंपरिक शैली में बनाया गया, वहीं दीग में जाटों ने अम्बर और आगरा की शैलियों का समन्वय करते हुए एक विशाल बाग-महल बनवाया। शाही वास्तुकला से जिन रूपों को पहली बार शाहजहाँ के युग में जोड़ा गया था, दीग की इमारतें उन्हीं रूपों के नमूने पर बनाई गई थीं।
जाटों की शक्ति सूरज मल के समय पराकाष्ठा पर पहुँची, जिन्होंने $1756-1763$ के दौरान भरतपुर जाट राज्य को (आधुनिक राजस्थान में) संगठित किया। सूरज मल के राजनैतिक नियंत्रण में, जो क्षेत्र शामिल थे उसमें आधुनिक पूर्वी राजस्थान, दक्षिणी हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली शामिल थे। सूरज मल ने कई किले और महल बनवाए जिनमें भरतपुर का प्रसिद्ध लोहागढ़ का किला इस क्षेत्र में बने सबसे मजबूत किलों में से एक था।
चित्र 9
अठारहवीं शताब्दी का दीग का राजमहल समूह। इमारत की छत पर मुख्य सभा भवन के ‘बांग्ला गुंबद’ पर गौर करें।
बीज शब्द
सूबेदारी
दल खालसा
मिस्ल
फौज़दारी
इजारादारी
चौथ
सरदेशमुखी
कल्पना करें
आप अठारहवीं शताब्दी के एक राज्य के शासक हैं। अब यह बताएँ कि आप अपने प्रांत में अपनी स्थिति को मज़बूत करने के क्या-क्या कदम उठाना चाहेंगे और ऐसा करते समय आपके सामने क्या-क्या विरोध अथवा समस्याएँ खड़ी की जा सकती हैं।
फिर से याद करें
1. बताएँ सही या गलत:
(क) नादिरशाह ने बंगाल पर आक्रमण किया।
(ख) सवाई राजा जयसिंह इन्दौर का शासक था।
(ग) गुरु गोबिद सिंह सिक्खों के दसवें गुरु थे।
(घ) पुणे अठारहवीं शताब्दी में मराठों की राजधानी बना।
आइए विचार करें
2. अठारहवीं शताब्दी में सिक्खों को किस प्रकार संगठित किया गया?
3. मराठा शासक दक्कन के पार विस्तार क्यों करना चाहते थे?
4. क्या आपके विचार से आज महाजन और बैंकर उसी तरह का प्रभाव रखते हैं, जैसाकि वे अठारहवीं शताब्दी में रखा करते थे?
5. क्या अध्याय में उल्लिखित कोई भी राज्य आपके अपने प्रांत में विकसित हुए थे? यदि हाँ, तो आपके विचार से अठारहवीं शताब्दी का जनजीवन आगे इक्कीसवीं शताब्दी के जनजीवन से किस रूप में भिन्न था?
आइए करके देखें
6. राजपूतों, जाटों, सिक्खों अथवा मराठों में से किसी एक समूह के शासकों के बारे में कुछ और कहानियों का पता लगाएँ।