अध्याय 03 दिल्ली: बारहवीं से पंद्रहवीं शताब्दी
हमने अध्याय 2 में देखा कि कावेरी डेल्टा जैसे क्षेत्र बड़े राज्यों के केंद्र बन गये थे। क्या आपने गौर किया कि अध्याय 2 में ऐसे किसी राज्य का ज़िक्र नहीं है जिसकी राजधानी दिल्ली रही हो? इसकी वजह यह है कि दिल्ली महत्त्वपूर्ण शहर बारहवीं शताब्दी में ही बना।
तालिका 1 पर नजजर डा। पहले पहल तोमर राजपूतों के काल में दिल्ली किस साम्राज्य की राजधानी बनी। बारहवीं सदी के मध्य में तोमरों को अजमेर के चौहानों (जिन्हें चाहमान नाम से भी जाना जाता है) ने परास्त किया। तोमरों और चौहानों के राज्यकाल में ही दिल्ली वाणिज्य का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गया। इस शहर में बहुत सारे समृद्धिशाली जैन व्यापारी रहते थे जिन्होंने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। यहाँ देहलीवाल कहे जाने वाले सिक्के भी ढाले जाते थे जो काफ़ी प्रचलन में थे।
मानचित्र 1
तेरहवीं-चौदहवीं सदी में दिल्ली सल्तनत के कुछ चुने हुए शहर।
तेरहवीं सदी के आरंभ में दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई और इसके साथ दिल्ली एक ऐसी राजधानी में बदल गई जिसका नियंत्रण इस उपमहाद्वीप के बहुत बड़े क्षेत्र पर फैला था। तालिका 1 पर फिर से नज़र डा और उन पाँच वंशों की पहचान कीजिए जिनसे मिलकर दिल्ली की सल्तनत बनी।
जिस इलाके को हम आज दिल्ली के नाम से जानते हैं, वहाँ इन सुलतानों ने अनेक नगर बसाए। मानचित्र 1 को देखकर देहली-ए कुह्ना, सीरी और जहाँपनाह को पहचानिए।
$\qquad$ $\qquad$ $\qquad$ $\qquad$ तालिका 1
$\qquad$ $\qquad$ $\quad$ $\quad$ $\quad$ दिल्ली के शासक
राजपूत वंश | |
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तोमर | आरंभिक बारहवीं शताब्दी-1165 |
अनंगपाल | $1130-1145$ |
चौहान | $1165-1192$ |
पृथ्वीराज चौहान | $1175-1192$ |
प्रारंभिक तुर्की शासक | $1206-1290$ |
कुत्बउद्दीन ऐबक | $1206-1210$ |
शमसुद्दीन इल्तुतमिश | $1210-1236$ |
रजिया | $1236-1240$ |
ग़यासुद्दीन बलबन | $1266-1287$ |
ख़लजी वंश | $1290-1320$ |
जलालुद्दीन ख़लजी | $1290-1296$ |
अलाउद्दीन ख़लजी | $1296-1316$ |
तुग़लक वंश | $1320-1414$ |
गयासुद्दीन तुग़लक़ | $1320-1324$ |
मुहम्मद तुग़लक़ | $1324-1351$ |
फिरोज़ शाह तुश | $1351-1388$ |
सैयद वंश | $1414-1451$ |
खिज्र ख़ान | $1414-1421$ |
लोदी वंश | $1451-1526$ |
बहलोल लोदी | $1451-1489$ |
सुलतानों के अधीन दिल्ली
‘इतिहास’, तारीख (एकवचन)/तवारीख (बहुवचन) हैं जो सुलतानों के शासनकाल में, प्रशासन की भाषा फ़ारसी में लिखे गए थे।
तवारीख के लेखक सचिव, प्रशासक, कवि और दरबारियों जैसे सुशिक्षित व्यक्ति होते थे जो घटनाओं का वर्णन भी करते थे और शासकों को प्रशासन संबंधी सलाह भी देते थे। वे न्यायसंगत शासन के महत्त्व पर बल देते थे।
क्या आपको लगता है कि न्याय-चक्र राजा और प्रजा के बीच के संबंध को समझाने के उपयुक्त शब्द है?
जन्मसिद्ध अधिकार
जन्म के आधार पर विशेषाधिकार का दावा। उदाहरण के , लोग मानते थे कि कुलीन व्यक्तियों को, कुछ खास परिवारों में जन्म लेने के कारण शासन करने का अधिकार विरासत में मिलता है।
लिंगभेद
स्त्रियों तथा पुरुषों के बीच सामाजिक तथा शरीर-रचना संबंधी अंतर। आमतौर पर यह तर्क दिया जाता है कि ऐसे अंतर के कारण पुरुष स्त्रियों की तुलना में श्रेष्ठ होते हैं।
न्याय-चक्र
तेरहवीं सदी के इतिहासकार फ़खर्र-ए मुदब्बिर ने लिखा था:
राजा का काम सैनिकों के बिना नहीं चल सकता। सैनिक वेतन के बिना नहीं जी सकते। वेतन आता है किसानों से एकत्रित किए गए राजस्व से। मगर किसान भी राजस्व तभी चुका सकेंगे, जब वे खुशहाल और प्रसन्न हों। ऐसा तभी हो सकता है, जब राजा न्याय और ईमानदार प्रशासन को बढ़ावा दे।
ये कुछ और बातें ध्यान में रखें: (1) तवारीख के लेखक नगरों में (विशेषकर दिल्ली में) रहते थे, गाँव में शायद ही कभी रहते हों। (2) वे अकसर अपने इतिहास सुलतानों के , उनसे ढेर सारे इनाम-इकराम पाने की आशा में लिखा करते थे। (3) ये लेखक अकसर शासकों को जन्मसिद्ध अधिकार और लिंगभेद पर आधारित ‘आदर्श’ समाज व्यवस्था बनाए रखने की सलाह देते थे। उनके विचारों से सारे लोग सहमत नहीं होते थे।
सन् 1236 में सुलतान इल्तुतमिश की बेटी रज़िया सिंहासन पर बैठी। उस युग के इतिहासकार मिन्हाज-ए-सिराज ने स्वीकार किया है कि वह अपने सभी भाइयों से अधिक योग्य और सक्षम थी, लेकिन फिर भी वह एक रानी को शासक के रूप में मान्यता नहीं दे पा रहा था। दरबारी जन भी उसके स्वतंत्र रूप से शासन करने की कोशिशों से प्रसन्न नहीं थे। सन् 1240 में उसे सिंहासन से हटा दिया गया।
रज़िया के विषय में मिन्हाज के विचार:अन्य महत्वपूर्ण भारतीय शासिकाओं ने क्या किया ?
मिन्हाज-ए-सिराज का सोचना था कि ईश्वर ने जो आदर्श समाज व्यवस्था बनाई है उसके अनुसार स्त्रियों को पुरुषों के अधीन होना चाहिए और रानी का शासन इस व्यवस्था के विरुद्ध जाता था। इस वह पूछुता है: “खुदा की रचना के खाते में उसका ब्यौरा चूँकि मर्दों की सूची में नहीं आता, इस इतनी शानदार खूबियों से भी उसे आखिर हासिल क्या हुआ?"
रज़िया ने अपने अभिलेखों और सिक्कों पर अंकित करवाया कि वह सुलतान इल्तुतमिश की बेटी थी। आधुनिक आंध्र प्रदेश के वारंगल क्षेत्र में किसी समय काकतीय वंश का राज्य था। उस वंश की रानी रुद्रम्मा देवी $(1262-1289)$ के व्यवहार से रजिया का व्यवहार बिलकुल विपरीत था। रुद्रम्मा देवी ने अपने अभिलेखों में अपना नाम पुरुषों जैसा लिखवाकर अपने पुरुष होने का भ्रम पैदा किया था। एक और महिला शासक थी-कश्मीर की रानी दिद्दा (980-1003)। उनका नाम ‘दीदी’ (बड़ी बहन) से निकला है। जाहिर है प्रजा ने अपनी प्रिय रानी को यह स्नेहभरा संबोधन दिया होगा।
मिन्हाज के विचार अपने शब्दों में व्यक्त कीजिए। क्या आपको लगता है कि रज़िया के विचार भी यही थे? आप के अनुसार, स्त्री के शासक बनना इतना कठिन क्यों था?
ख़लजी और तुग़लक़ वंश के अंतर्गत प्रशासन-नज़दीक से एक नज़र
दिल्ली सल्तनत जैसे विशाल साम्राज्य के समेकन के विश्वसनीय सूबेदारों तथा प्रशासकों की ज़रूरत थी। दिल्ली के आरंभिक सुलतान, विशेषकर इल्तुतमिश, सामंतों और ज़मींदारों के स्थान पर अपने विशेष गुलामों को सूबेदार नियुक्त करना अधिक पसंद करते थे। इन गुलामों को फ़ारसी में बंदगाँ कहा जाता है तथा इन्हें सैनिक सेवा के खरीदा जाता था। उन्हें राज्य के कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण राजनीतिक पदों पर काम करने के बड़ी सावधानी से प्रशिक्षित किया जाता था। वे चूँकि पूरी तरह अपने मालिक पर निर्भर होते थे, इस सुलतान भी विश्वास करके उन पर निर्भर हो सकते थे।
बेटों से बढ़कर गुलाम
सुलतानों को सलाह दी जाती थी:
जिस ग़ुलाम को हमने पाला-पोसा और आगे बढ़ाया है, उसकी हमें देखभाल करनी चाहिए, क्योंकि तकदीर अच्छी हो, तभी पूरी ज़िंदगी में कभी-कभी ही योग्य और अनुभवी गुलाम मिलता है। बुद्धिमानों का कहना है कि योग्य और अनुभवी गुलााम बेटे से भी बढ़कर होता है…
क्या आपको गुलाम को बेटे से बढ़कर मानने का कोई कारण समझ में आता है?
आश्रित
जो किसी अन्य व्यक्ति के संरक्षण में रहता हो, उस पर निर्भर हो।
ख़लजी तथा तुग़लक़ शासक बंदगाँ का इस्तेमाल करते रहे और साथ ही अपने पर आश्रित निम्न वर्ग के लोगों को भी ऊँचे राजनीतिक पदों पर बैठाते रहे। ऐसे लोगों को सेनापति और सूबेदार जैसे पद दिए जाते थे। लेकिन इससे राजनीतिक अस्थिरता भी पैदा होने लगी।
ग़ुलाम और आश्रित अपने मालिकों और संरक्षकों के प्रति तो वफ़ादार रहते थे मगर उनके उत्तराधिकारियों के प्रति नहीं। सुलतानों के अपने नौकर होते थे। फलस्वरूप किसी नए शासक के सिंहासन पर बैठते ही प्रायः नए और पुराने सरदारों के बीच टकराहट शुरू हो जाती थी। सुलतानों द्वारा निचले तबके के लोगों को संरक्षण दिए जाने के कारण उच्च वर्ग के कई लोगों को गहरा धक्का भी लगता था और फ़ारसी तवारीख के लेखकों ने ‘निचले खानदान’ के लोगों को ऊँचे पदों पर बैठाने के दिल्ली के सुलतानों की आलोचना भी की है।
सुलतान मुहम्मद तुग़लक़ के अधिकारीजन
सुलतान मुहम्मद तुग़लक़ ने अजीज खुम्मार नामक कलाल (शराब बनाने और बेचने वाला), फ़िरुजज हज्जाम नामक नाई, मनका तब्बाख नामक बावर्ची और लड्ढा तथा पीरा नामक मालियों को ऊँचे प्रशासनिक पदों पर बैठाया था। चौदहवीं शताब्दी के मध्य के इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी ने इन नियुक्तियों का उल्लेख सुलतान के राजनीतिक विवेक के नाश और शासन करने की अक्षमता के उदाहरणों के रूप में किया है।
आपके ख्याल से बरनी ने सुलतान की आलोचना क्यों की थी?
पहले वाले सुलतानों की ही तरह ख़लजी और तुगलक़ शासकों ने भी सेनानायकों को भिन्न-भिन्न आकार के इलाकों के सूबेदार के रूप में नियुक्त किया। ये इलाके इक़ता कहलाते थे और इन्हें सँभालने वाले अधिकारी इक़्तदार या मुक्ती कहे जाते थे। मुक्ती का फ़र्ज था सैनिक अभियानों का नेतृत्व करना और अपने इक़तों में कानून और व्यवस्था बनाए रखना। अपनी सैनिक सेवाओं के बदले वेतन के रूप में मुक़्ती अपने इलाकों से राजस्व की वसूली किया करते थे। राजस्व के रूप में मिली रकम से ही वे अपने सैनिकों को भी तनख्वाह देते थे। मुक्ती लोगों पर काबू रखने का सबसे प्रभावी तरीका यह था कि उनका पद वंश-परंपरा से न चले और उन्हें कोई भी इक्ता थोड़ेथोड़े समय के ही मिले, जिसके बाद उनका स्थानांतरण कर दिया जाए। सुलतान अलाउद्दीन ख़लजी और मुहम्मद तुग़लक़ के शासनकाल में नौकरी के इन कठोर नियमों का बड़ी सख्ती से पालन होता था। मुक्ती लोगों द्वारा एकत्रित किए गए राजस्व की रकम का हिसाब लेने के राज्य द्वारा लेखा अधिकारी नियुक्त किए जाते थे। इस बात का ध्यान रखा जाता था कि मुक्ती राज्य द्वारा निर्धारित कर ही वसूलें और तय संख्या के अनुसार सैनिक रखें।
इस काल में खराज़ के अलावा कुछ अन्य कर भी लगाए गए:- खुम्स- युद्ध मे लुटे गए माल पर लगने वाला कर। इस धन का $1 / 5$ सुल्तान का एवं $4 / 5$ सैनिकों का होता था। जकात- यह एक धार्मिक कर था जो मुस्लिमों की आय का $2.5 %$ या $1 / 40$ भाग था। लोकप्रिय मतों के अनुसार इसका आरंभ पैगंवर के द्वारा किया गया था। इसे सभी मुस्लिमों के लिए अनिवार्य कर दिया गया था। सल्तनत एवं मुगल काल में व्यापारियों से आयात-निर्यात पर $2.5 %$ जकात वसूला जाता था। जजिया- यह गैर मुस्लिमों से लिया जाने वाला कर था जो उन्हे जिम्मी या संरक्षित नागरिक का दर्जा प्रदान करता था। सल्तनत काल में इसकी वसूली खराज के साथ की जाती थी। किन्तु फिरोज़ शाह तुगलक ने जजिया को एक अलग कर के रूप में संगृहित किया। स्रोत- य.एन.डे., 1959 एडमिनिस्ट्रेटिव सिस्टम ऑफ दिल्ली सुल्तनत, किताब महल प्रकाशन, इलाहबाद
जब दिल्ली के सुलतान शहरों से दूर आंतरिक इलाकों को भी अपने अधिकार में ले आए तो उन्होंने भूमि के स्वामी सामंतों और अमीर ज़मींदारों को भी अपनी सत्ता के आगे झुकने को बाध्य कर दिया। अलाउद्दीन ख़लजी के शासनकाल में भू-राजस्व के निर्धारण और वसूली के कार्य को राज्य अपने नियंत्रण में ले आया। स्थानीय सामंतों से कर लगाने का अधिकार छीन लिया गया, बल्कि स्वयं उन्हें भी कर चुकाने को बाध्य किया गया। सुलतान के प्रशासकों ने ज़मीन की पैमाइश की और इसका हिसाब बड़ी सावधानी से रखा। कुछ पुराने सामंत और ज़मींदार राजस्व के निर्धारण और वसूली अधिकारी के रूप में सल्तनत की नौकरी करने लगे। उस समय तीन तरह के कर थे- (1) कृषि पर, जिसे खराज कहा जाता था और जो किसान की उपज का लगभग पचास प्रतिशत होता था; (2) मवेशियों पर; तथा (3) घरों पर।
यह याद रखना जरूरी है कि इस उपमहाद्वीप का काफ़ी बड़ा हिस्सा दिल्ली के सुलतानों के अधिकार से बाहर ही था। दिल्ली से बंगाल जैसे सुदूर प्रांतों का नियंत्रण कठिन था और दक्षिण भारत की विजय के तुंत बाद ही वह पूरा क्षेत्र फिर-से स्वतंत्र हो गया था। यहाँ तक कि गंगा के
मैदानी इलाके में भी घने जंगलों वाले ऐसे क्षेत्र थे, जिनमें पैठने में सुलतान की सेनाएँ अक्षम थीं। स्थानीय सरदारों ने इन क्षेत्रों में अपना शासन जमा लिया। अलाउद्दीन ख़लजी और मुहम्मद तुग़लक़ इन इलाकों पर जोर-जबबरदस्ती अपना अधिकार जमा तो लेते थे, पर वह अधिकार कुछ ही समय तक रह पाता था।
सरदार और उनकी किलेबंदी
अफ्रीकी देश, मोरक्को से चौदहवीं सदी में भारत आए यात्री इब्न बतूता ने बतलाया है कि सरदार कभी-कभी
चट्टानी, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी इलाकों में किले बनाकर रहते थे और कभी-कभी बाँस के झुरुमुटों में। भारत में बाँस पोला नहीं होता। यह बहुत बड़ा होता है। इसके अलग-अलग हिस्से आपस में इस तरह से गुँथे होते हैं कि उन पर आग का भी असर नहीं होता और वे कुल मिलाकर बहुत ही मजजबूत होते हैं। सरदार इन जंगलों में रहते हैं, जो इनके किले की प्राचीर का काम देते हैं। इस दीवार के घेरे में ही उनके मवेशी और फ़सल रहते हैं। अंदर ही पानी भी उपलब्ध रहता है, अर्थात् वहाँ एकत्रित हुआ वर्षा का जला इस उन्हें प्रबल बलशाली सेनाओं के बिना हराया नहीं जा सकता। ये सेनाएँ जंगल में घुसकर खासतौर से तैयार किए गए औजजारों से बाँसों को काट डालती हैं।
सरदारों की रक्षा-व्यवस्था का वर्णन कीजिए।
चंग़ेज ख़ान के नेतृत्व में मंगोलों ने 1219 में उत्तर-पूर्वी ईरान में ट्रांसऑक्ससियाना (आधुनिक उजबबेकिस्तान) पर हमला किया और इसके शीश्र बाद ही दिल्ली सल्तनत को उनका धावा झेलना पड़ा। अलाउद्दीन ख़लजी और मुहम्मद तुग़लक़ के शासनकालों के आरंभ में दिल्ली पर मंगोलों के धावे बढ़ गए। इससे मजबूर होकर दोनों ही सुलतानों को एक विशाल स्थानीय सेना खड़ी करनी पड़ी| इतनी विशाल सेना को सँभालना प्रशासन के भारी चुनौती थी।
पंद्रहवीं तथा सोलहवीं शताब्दी में सल्तनत
तालिका 1 को फिर से देखें। आप पाएँगें कि तुग़ाक़ वंश के बाद 1526 तक दिल्ली तथा आगरा पर सैयद तथा लोदी वंशों का राज्य रहा। तब
तक जौनपुर, बंगाल, मालवा, गुजरात, राजस्थान तथा पूरे दक्षिण भारत में स्वतंत्र शासक उठ खड़े हुए थे। उनकी राजधानियाँ समृद्ध थीं और राज्य फल-फूल रहे थे। इसी काल में अफ़गान तथा राजपूतों जैसे नए शासक समूह भी उभरे।
इस काल में स्थापित राज्यों में से कुछ छोटे तो थे पर शक्तिशाली थे और उनका शासन बहुत ही कुशल तथा सुव्यवस्थित तरीके से चल रहा था। शेरशाह सूर (1540-1545) ने बिहार में अपने चाचा के एक छोटे-से इलाके के प्रबंधक के रूप में काम शुरू किया था और आगे चलकर उसने इतनी उन्नति की कि मुग़ल सम्राट हुमायूँ $(1530-1540,1555-1556)$ तक को चुनौती दी और परास्त किया। शेरशाह ने दिल्ली पर अधिकार करके स्वयं अपना राजवंश स्थापित किया। सूर वंश ने केवल पंद्रह वर्ष (1540-1555) शासन किया, लेकिन इसके प्रशासन ने अलाउद्दीन ख़लजी वाले कई तरीकों को अपनाकर उन्हें और भी चुस्त बना दिया। महान सम्राट अकबर (1556-1605) ने जब मुग़ल साप्राज्य को समेकित किया, तो उसने अपने प्रतिमान के रूप में शेरशाह की प्रशासन व्यवस्था को ही अपनाया था।
बीज शब्द
इक्ता
तारीख
गैरिसन
मंगोल
लिंग
खराज
कल्पना करें
आप अलाउद्दीन ख़लजी या मुहम्मद तुग़लक़ के शासन काल में एक किसान हैं और आप सुलतान द्वारा लगाया गया कर नहीं चुका सकते। आप क्या करेंगे?
फिर से याद करें
1. दिल्ली में पहले-पहल किसने राजधानी स्थापित की?
2. दिल्ली के सुलतानों के शासनकाल में प्रशासन की भाषा क्या थी?
3. किसके शासन के दौरान सल्तनत का सबसे अधिक विस्तार हुआ?
4. इब्न बतूता किस देश से भारत में आया था?
आइए समझें
5. ‘न्याय चक्र’ के अनुसार सेनापतियों के किसानों के हितों का ध्यान रखना क्यों ज़रूरी था?
6. सल्तनत की ‘भीतरी’ और ‘बाहरी’ सीमा से आप क्या समझते हैं?
7. मुक़ती अपने कर्त्तव्यों का पालन करें, यह सुनिश्चित करने के कौन-कौन से कदम उठाए गए थे? आपके विचार में सुलतान के आदेशों का उल्लंघन करना चाहने के पीछे उनके क्या कारण हो सकते थे?
आइए विचार करें
8. क्या आपकी समझ में तवारीख के लेखक, आम जनता के जीवन के बारे में कोई जानकारी देते हैं?
9. दिल्ली सल्तनत के इतिहास में रजिया सुलतान अपने ढंग की एक ही थीं। क्या आपको लगता है कि आज महिला नेताओं को ज़्यादा आसानी से स्वीकार किया जाता है?
10. दिल्ली के सुलतान जंगलों को क्यों कटवा देना चाहते थे? क्या आज भी जंगल उन्हीं कारणों से काटे जा रहे हैं?
आइए करके देखें
11. पता लगाइए कि क्या आपके इलाके में दिल्ली के सुलतानों द्वारा बनवाई गई कोई इमारत है? क्या आपके इलाके में और भी कोई ऐसी इमारत है, जो बारहवीं से पंद्रहवीं सदी के बीच बनाई गई हो? इनमें से कुछ इमारतों का वर्णन कीजिए और उनके रेखाचित्र बनाइए।