अध्याय 38 अश्वत्थामा

दुर्योधन पर जो कुछ बीती, उसका हाल सुनकर अश्वत्थामा बहुत क्षुब्ध हो उठा। उसके पिता द्रोणाचार्य को मारने के लिए जो कुचक्र रचा गया था, वह उसे भूला नहीं था। वह उस स्थान पर जा पहुँचा, जहाँ दुर्योधन मृत्यु की प्रतीक्षा करता हुआ पड़ा था। दुर्योधन के सामने जाकर अश्वत्थामा ने दृढ़तापूर्वक प्रतिज्ञा की कि वह आज ही रात में पांडवों को नष्ट करके रहेगा।

मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए दुर्योधन ने जब यह सुना, तो उसका पुराना वैर फिर से जाग्रत हो गया और उसे कुछ प्रसन्नता हुई। उसने आसपास खड़े हुए लोगों से कहकर अश्वत्थामा को कौरव-सेना का विधिवत् सेनापति बनाया और बोला- “आचार्य-पुत्र! शायद मेरा यह अंतिम कार्य है। शायद आप ही मुझे शांति दिला सकें। मैं बड़ी आशा से आपकी राह देखता रहूँगा।”

सूरज डूब चुका था, रात हो गई थी। एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे अश्वत्थामा, कृपाचार्य, और कृतवर्मा रात बिताने की गरज़ से ठहरे। कृप और कृतवर्मा बहुत थके हुए थे। इसलिए दोनों वहीं पड़े-पड़े सो गए। लेकिन अश्वत्थामा को नींद नहीं आई। अश्वत्थामा सोचने लगा- “मैं इन पांडवों और पिता जी की हत्या करने वाले धृष्टद्युम्न को उनके संगी-साथियों समेत एक साथ ही क्यों न मार डालूँ? अभी रात का समय है और वे सब अपने शिविरों में पड़े सो रहे होंगे। इस समय उन सबका वध कर डालना बहुत सुगम होगा।’ अश्वत्थामा ने कृपाचार्य को जगाकर उनको अपना निश्चय सुनाया।

अश्वत्थामा की ये बातें सुनकर कृपाचार्य व्यथित हो गए। वह बोले- “अश्वत्थामा! सोते हुओं को मारना कभी भी धर्म नहीं हो सकता। तुम यह विचार छोड़ दो।” यह सुनकर अश्वत्थामा झल्लाकर बोला- “आपने भी क्या यह धर्म-धर्म की रट लगा रखी है?”

दृढ़तापूर्वक अपनी इच्छा जताकर अश्वत्थामा पांडवों के शिविर की ओर जाने को उठा। यह देखकर कृपाचार्य और कृतवर्मा भी अश्वत्थामा के साथ हो लिए। आधी रात बीत चुकी थी। पांडवों के शिविर में भी सभी सैनिक मीठी नींद में सो रहे थे। अश्वत्थामा पहले धृष्टद्युम्न के शिविर में घुसा और उसने सोए हुए धृष्टद्युम्न को पैरों तले ऐसा कुचला कि वह तत्काल ही मर गया। इसी प्रकार सभी पांचाल-वीरों को अश्वत्थामा ने कुचलकर भयानक ढंग से मार डाला और द्रौपदी के पुत्रों की भी एक-एक करके हत्या कर दी।

कृपाचार्य और कृतवर्मा ने भी इस हत्याकांड में अश्वत्थामा का हाथ बँटाया। वहाँ तीनों ने ऐसे-ऐसे अत्याचार किए, जैसे कि अब तक किसी ने सुने भी न थे। उन्होंने वहाँ आग लगा दी। आग भड़क उठी और सारे शिविरों में फैल गई। इससे सोए हुए सारे सैनिक जाग गए और भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे। उन सबको अश्वत्थामा ने बड़ी निर्दयता से मार डाला। दुर्योधन के पास पहुँचकर अश्वत्थामा ने कहा- “महाराज दुर्योधन! आप अभी जीवित हैं क्या? देखिए, आपके लिए मैं ऐसा अच्छा समाचार लाया हूँ कि जिसे सुनकर आपका कलेजा ज़रूर ठंडा हो जाएगा। जो कुछ हम लोगों ने किया है, उसे आप ध्यान से सुनें। सारे पांचाल खत्म कर दिए गए हैं। पांडवों के भी सारे पुत्र मारे गए हैं। पांडवों की सारी सेना का हमने सोते में ही सर्वनाश कर दिया। पांडवों के पक्ष में अब केवल सात ही व्यक्ति जीवित बच गए हैं। हमारे पक्ष में कृपाचार्य, कृतवर्मा और मैं-तीन ही रह गए हैं।”

यह सुनकर दुर्योधन बहुत प्रसन्न हुआ और बोला- “गुरु भाई अश्वत्थामा, आपने मेरी खातिर वह काम किया है, जो न भीष्म पितामह से हुआ और न जिसे महावीर कर्ण ही कर सके।” इतना कहकर दुर्योधन ने अपने प्राण त्याग दिए।

द्रौपदी की दयनीय अवस्था की क्या कहें! युधिष्ठिर के पास आकर वह कातर स्वर में पुकार उठी- “क्या इस पापी अश्वत्थामा से बदला लेनेवाला हमारे यहाँ कोई नहीं रहा है?”

शोक-विह्लल द्रौपदी की हालत देखकर पाँचों पांडव अश्वत्थामा की खोज में निकले। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते आखिर उन्होंने गंगा नदी के तट पर छिपे हुए अश्वत्थामा का पता लगा ही लिया। अश्वत्थामा और भीमसेन में युद्ध छिड़ गया लेकिन अंत में अश्वत्थामा हार गया।

पांडव-वंश का नामोनिशान तक मिट गया होता, लेकिन उत्तरा के गर्भ की रक्षा हो गई। समय पर उत्तरा ने परीक्षित को जन्म दिया। यही परीक्षित पांडवों के वंश का एकमात्र चिह्न रह गया था।

हस्तिनापुर का सारा नगर निःसहाय स्त्रियों और अनाथ बच्चों के रोने-कलपने के हृदय-विदारक शब्दों से गूँज उठा। युद्ध समाप्त होने का समाचार पाकर हज़ारों निःसहाय स्त्रियों को लेकर वृद्ध महाराज धृतराष्ट्र कुरुक्षेत्र की समर-भूमि में गए, जहाँ एक ही वंश के बंधु-बांधवों ने एक-दूसरे से भयानक युद्ध करके अपने ही कुल का सर्वनाश कर डाला था। धृतराष्ट्र ने बीती बातों का स्मरण करते हुए बहुत विलाप किया।



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