अध्याय 35 युधिष्ठिर की और चिंता और कामना
दुर्योधन को अर्जुन का पीछा करते देखकर पांडव-सेना ने शत्रुओं पर और भी ज़ोर का हमला कर दिया। धृष्टद्युम्न ने सोचा कि जयद्रथ की रक्षा करने हेतु यदि द्रोण भी चले गए, तो अनर्थ हो जाएगा। इस कारण द्रोणाचार्य को रोके रखने के इरादे से उसने द्रोण पर लगातार आक्रमण जारी रखा। धृष्टद्युम्न की इस चाल के कारण कौरव-सेना तीन हिस्सों में बँटकर कमज़ोर पड़ गई।
इतने में धृष्ट्द्युम्न उछलकर द्रोणाचार्य के रथ पर जा चढ़ा और विक्षिप्त-सा होकर द्रोण पर वार करने लगा। धुष्टद्युम्न का हमला जारी रहा। अंत में द्रोण ने क्रोध में आकर एक अत्यधिक पैना बाण चलाया। वह पांचालकुमार के प्राण ही ले लेता, यदि सात्यकि का बाण उसे बीच में ही पुन: न काट देता। अचानक सात्यकि के बाण रोक लेने पर द्रोण का ध्यान उसकी ओर चला गया। इसी बीच पांचाल-सेना के रथसवार धृष्टद्युम्न को वहाँ से हटा ले गए। परंतु सात्यकि भी कोई मामूली वीर नहीं था। पांडव-सेना के सबसे चतुर योद्धाओं में उसका स्थान था। जब उसने द्रोणाचार्य को अपनी ओर झपटते देखा, तो वह खुद भी उनकी ओर झपटा। इस तरह बहुत देर तक दोनों वीर लड़ते रहे।
इसी बीच युधिष्ठिर को पता चला कि सात्यकि पर संकट आया हुआ है, तो वह अपने आसपास के वीरों से बोले- “कुशल योद्धा, नरोत्तम और सच्चे वीर सात्यकि आचार्य द्रोण के बाणों से बहुत ही पीड़ित हो रहे हैं। चलो, हम लोग उधर चलकर उस वीर महारथी की सहायता करें।”
उसके बाद वह धृष्टद्युम्न से बोले- “द्रुपद-कुमार! आपको अभी जाकर द्रोणाचार्य पर आक्रमण करना चाहिए, नहीं तो डर है कि कहीं आचार्य के हाथों सात्यकि का वध न हो जाए। युधिष्ठिर ने द्रोण पर हमला करने के लिए धृष्टद्युम्न के साथ एक बड़ी सेना भेज दी। समय पर कुमुक के पहुँच जाने पर भी बड़े परिश्रम के बाद ही सात्यकि को द्रोण के फँदे से छुड़ाया जा सका।
इसी समय श्रीकृष्ण के पांचजन्य की ध्वनि सुनाई दी। वह आवाज़ सुनकर युधिष्ठिर चिंतित हो गए। “इस घड़ी अर्जुन की सहायता को चले जाओ”, इतना कहते-कहते युधिष्ठिर बहुत ही अधीर हो उठे। युधिष्ठिर के इस प्रकार आग्रह करने पर सात्यकि ने बड़ी नम्रता से कहा"युधिष्ठिर! द्रोण की प्रतिज्ञा तो आप जानते ही हैं। अतः आपकी रक्षा का भार हमारे ऊपर है। महाराज, वासुदेव और अर्जुन मुझे यह आदेश दे गए हैं और मुझ पर भरोसा करके यह भारी ज़िम्मेदारी डाल गए हैं। मैं उनकी बात को कैसे टालूँ? आप अर्जुन की ज़रा भी चिता न करें। अर्जुन को कोई नहीं जीत सकता।”
उधर जैसे ही सात्यकि युधिष्ठिर को छोड़कर अर्जुन की ओर चला, वैसे ही द्रोणाचार्य ने पांडव-सेना पर हमले करने शुरू कर दिए। पांडव-सेना की पंक्तियाँ कई जगह से टूट गईं और उन्हें पीछे हटना पड़ गया। यह देखकर युधिष्ठिर बड़े चिंतित हो उठे और बोले- “भीम, मेरा कहा मानो तो तुम भी अर्जुन के पास चले जाओ और सात्यकि तथा अर्जुन का हालचाल मालूम करो। इसके लिए जो कुछ करना ज़रूरी हो, वह करके वापस आकर मुझे सूचना दो। मेरा कहना मानकर ही सात्यकि अर्जुन की सहायता को कौरव-सेना से युद्ध करता हुआ गया है। यदि तुम उनको कुशलपूर्वक पाओ तो सिंहनाद करना। मैं समझ लूँगा कि सब कुशल है।”
भीमसेन ने युधिष्ठिर की बात का प्रतिवाद नहीं किया और वह धृष्टद्युम्न से बोला- “आचार्य द्रोण के इरादे से तो आप परिचित हैं ही। किसी-न-किसी तरह भ्राता युधिष्ठिर को जीवित पकड़ने का उनका प्रण है। राजा की रक्षा करना ही हमारा प्रथम कर्तव्य है। जब वह स्वयं मुझे जाने की आज्ञा दे रहे हैं, तो उसका भी पालन करना मेरा धर्म हो जाता है। इस कारण भ्राता युधिष्ठिर को आपके ही भरोसे पर छोड़कर जा रहा हूँ। इनकी भली-भाँति रक्षा कीजिएगा।”
धृष्टद्युम्न ने कहा- “तुम किसी प्रकार की चिंता न करो और निश्चित होकर जाओ। विश्वास रखो कि द्रोण मेरा वध किए बिना युधिष्ठिर को नहीं पकड़ सकेंगे।” आचार्य द्रोण के जन्म के बैरी धृष्टद्युम्न के इस प्रकार विश्वास दिलाने पर भीम निश्चित होकर तेज़ी से अर्जुन की तरफ़ चल दिया।
जितने भी सैन्यदल मुकाबला करने आए, उन्हें मारता-गिराता हुआ भीम अंत में उस स्थान पर पहुँच गया, जहाँ अर्जुन जयद्रथ की सेना से लड़ रहा था।
अर्जुन को सुरक्षित देखते ही भीमसेन ने सिंहनाद किया। भीम का सिंहनाद सुनकर श्रीकृष्ण और अर्जुन आनंद के मारे उछल पड़े और उन्होंने भी ज़ोरों से सिंहनाद किया। इन सिंहनादों को सुनकर युधिष्ठिर बहुत ही प्रसन्न हुए। उनके मन से शोक के बादल हट गए। उन्होंने अर्जुन को मन-ही-मन आशीर्वाद दिया। वह सोचने लगे-अभी सूरज डूबने से पहले अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर लेगा और जयद्रथ का वध करके लौट आएगा। हो सकता है, जयद्रथ के वध के बाद दुर्योधन शायद संधि कर ले। इधर युधिष्ठिर मन-ही-मन शांति स्थापना की कामना कर रहे थे और उधर मोर्चे पर जहाँ भीम, सात्यकि और अर्जुन थे, वहाँ घोर संग्राम हो रहा था।
थोड़े ही समय में जिस स्थान पर अर्जुन और जयद्रथ का युद्ध हो रहा था, दुर्योधन भी वहाँ आ पहुँचा मगर थोड़ी ही देर में बुरी तरह हारकर मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ। इस भाँति उस रोज़ कई मोर्चों पर ज़ोरों से युद्ध हो रहा था।
द्रोण ने कहा- “बेटा दुर्योधन, तुम्हें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। तुम जयद्रथ की सहायता के लिए जाओ और वहाँ जो कुछ करना आवश्यक हो, वह करो।” आचार्य के कहने-सुनने पर दुर्योधन कुछ सेना लेकर फिर से लड़ाई के उस मोर्चे पर चला गया, जहाँ अर्जुन और जयद्रथ में ज़ोरों की लडा़ हो रही थी। उस दिन भीम और कर्ण में जो युद्ध हुआ, वह एक रोमांचकारी घटना के रूप में वर्णित है। भीमसेन उत्तेजना और उग्रता की प्रतिमूर्ति-सा दिखाई दे रहा था। कर्ण जो कुछ करता, धीरज और व्यवस्था के साथ शांतभाव से करता, किंतु भीम को तो थोड़ा-सा भी अपमान असह्य हो जाता था।
दोनों ही बड़े वीर थे। वे एक-दूसरे पर झपटकर आघात करने लगे। भीमसेन को उस समय पिछले घोर अपमानों, यातनाओं और मुसीबतों की याद हो आई, जो उसे, उसके भाइयों और द्रौपदी को पहुँचाई गई थीं। प्राणों का मोह छोड़कर वह लड़ने लगा। उस समय भीमसेन का घावों से भरा हुआ शरीर धधकती हुई आग-सा प्रतीत हो रहा था।
कर्ण और भीम के युद्ध में इस बार भीमसेन के रथ के घोड़े मारे गए। सारथी भी कटकर गिर पड़ा। रथ टूट-फूट गया और धनुष भी कट गया। भीम ने ढाल-तलवार ले ली और जान झोंककर लड़ने लगा। पलक झपकते ही कर्ण ने उसकी ढाल के भी टुकड़े-टुकड़े कर दिए। जब ढाल भी न रही तो कर्ण ने भीम को खूब परेशान किया। इससे भीम बहुत ही पीड़ित हुआ। उसे असीम क्रोध आया। वह उछलकर कर्ण के रथ पर जा कूदा। कर्ण ने रथ के ध्वज-स्तंभ की आड़ लेकर भीमसेन की झपट से अपने को बचा लिया। भीम नीचे ज़मीन पर कूद पड़ा और विलक्षण युद्ध करने लगा। मैदान में जो रथ के पहिए, घोड़े, हाथी आदि पड़े हुए थे, उन्हीं को उठा-उठाकर वह कर्ण पर फेंकता गया, जिससे उसे क्षणभर भी आराम न मिल पाया। उस समय कर्ण चाहता, तो वह भीम को आसानी से मार सकता था, पर निहत्थे भीम को उसने मारना नहीं चाहा। माता कुंती को दिया हुआ वचन भी उसे याद था कि वह अर्जुन के अतिरिक्त और किसी को युद्ध में न मारेगा।