अध्याय 25 मंत्रणा

तेरहवाँ बरस पूरा होने पर पांडव विराट की राजधानी छोड़कर विराटराज के ही राज्य में स्थित ‘उपप्लव्य’ नामक नगर में जाकर रहने लगे। अज्ञातवास की अवधि पूरी हो चुकी थी। इसलिए पाँचों भाई प्रकट रूप में रहने लगे। आगे का कार्यक्रम तय करने के लिए उन्होंने अपने भाई-बंधुओं एवं मित्रों को बुलाने के लिए दूत भेजे। भाई बलराम, अर्जुन की पत्नी सुभद्रा तथा पुत्र अभिमन्यु और यदुवंश के कई वीरों को लेकर श्रीकृष्ण उपप्लव्य जा पहुँचे। इंद्रसेन आदि राजा अपने-अपने रथों पर चढ़कर उपप्लव्य आ पहुँचे। काशिराज और वीर शैव्य भी अपनी दो अक्षौहिणी सेना के साथ आकर युधिष्ठिर के नगर में पहुँच गए। पांचालराज द्रुपद तीन अक्षौहिणी सेना लाए। उनके साथ शिखंडी, द्रौपदी का भाई धृष्टद्युम्न और द्रौपदी के पुत्र भी आ पहुँचे। और भी कितने ही राजा अपनी-अपनी सेनाओं को साथ लेकर पांडवों की सहायता के लिए आ गए।

सबसे पहले अभिमन्यु के साथ उत्तरा का विवाह किया गया। इसके बाद विराटराज के सभा भवन में सभी आगंतुक राजा मंत्रणा के लिए इकटे हुए। विराट के पास श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर बैठे। द्रुपद के पास बलराम और सात्यकि। और भी कितने ही प्रतापी राजा सभा में विराजमान थे। सभा में सबके अपने-अपने आसन पर बैठ जाने पर श्रीकृष्ण उठे और बोले- “सम्माननीय बंधुओ और मित्रो! आज हम सब यहाँ इसलिए इकट्टे हुए हैं कि कुछ ऐसे उपाय सोचें, जो युधिष्ठिर और राजा दुर्योधन के लिए लाभप्रद हों, न्यायोचित हों और जिनसे पांडवों तथा कौरवों का सुयश बढ़े। जो राज्य युधिष्ठिर से छीना गया है वह उनको वापस मिल जाए, तो पांडव शांत हो जाएँगे और दोनों में संधि हो सकती है। मेरी राय में इस बारे में दुर्योधन के साथ उचित रीति से बातचीत करके उसे समझाने के लिए एक ऐसे व्यक्ति को दूत बनाकर भेजना होगा, जो सर्वथा योग्य हो।”

तब बलराम उठे और बोले- “कृष्ण ने जो सलाह दी है, वह मुझे न्यायोचित लगती है। आप लोग जानते ही हैं कि कुंती के पुत्रों को आधा राज्य मिला था। वे उसे जुए में हार गए। अब वे उसे फिर से प्राप्त करना चाहते हैं। यदि शांतिपूर्ण ढंग से, बिना युद्ध किए ही वे अपना राज्य प्राप्त कर सकें, तो उससे न केवल पांडवों बल्कि दुर्योधन तथा सारी प्रजा की भलाई ही होगी।”

बलराम के कहने का सार यह था कि युधिष्ठिर ने जान-बूझकर अपनी इच्छा से जुआ खेलकर राज्य गँवाया था। उनकी इन बातों से यदुकुल का वीर और पांडवों का हितैषी सात्यकि आगबबूला हो उठा। उससे न रहा गया। वह उठकर कहने लगा- “बलराम जी की बातें मुझे ज़रा भी न्यायोचित नहीं मालूम होतीं। युधिष्ठिर को आग्रह करके जुआ खेलने पर विवश किया गया और खेल में कपट से हराया गया था। फिर भी इनकी सज्जनता ही थी, जो प्रण निभाकर उन्होंने खेल की शर्तें पूरी कीं। दुर्योधन और उनके साथी जो यह चिल्ल-पुकार मचा रहे हैं कि बारह महीने पूरे होने से पहले ही पांडवों को उन्होंने पहचान लिया है, सरासर झूठ है और बिलकुल अन्याय है। मेरी राय में दुर्योधन बगैर युद्ध के मानेगा ही नहीं। इसलिए विलंब करना हमारे लिए बिलकुल नासमझी की बात होगी।”

सात्यकि की इन दृढ़तापूर्ण और ज़ोरदार बातों से राजा द्रुपद बड़े खुश हुए। वह उठे और बोले- “सात्यकि ने जो कहा, वह बिलकुल सही है। मैं उनका ज़ोरों से समर्थन करता हूँ। शल्य, धृष्टकेतु, जयत्सेन, कैकय आदि राजाओं के पास अभी से दूत भेज देने चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि सुलह का प्रयत्न ही न किया जाए, बल्कि मेरी राय में तो राजा धृतराष्ट्र के पास अभी से किसी सुयोग्य व्यक्ति को दूत बनाकर भेजना बहुत ही ज़रूरी है।”

राजा द्रुपद के कह चुकने के बाद श्रीकृष्ण उठे और बोले- “सज्जनो! पांचालराज ने जो सलाह दी है वह बिलकुल ठीक है। भैया बलराम जी और मुझ पर कौरवों का जितना हक है, उतना ही पांडवों का भी है। हम यहाँ किसी का पक्षपात करने नहीं, बल्कि उत्तरा के विवाह में शामिल होने के लिए आए हैं। हम अब अपने स्थान पर वापस चले जाएँगे। (द्रुपद की ओर देखकर) द्रुपदराज! आप सभी राजाओं में श्रेष्ठ हैं, बुद्धि एवं आयु में भी बड़े हैं। हमारे लिए तो आप आचार्य के समान हैं। धृतराष्ट्र भी आपकी बड़ी इज़्ज़त करते हैं। द्रोण और कृपाचार्य तो आपके लड़कपन के साथी हैं। इसलिए उचित तो यही होगा कि जो कुछ दूत को समझाना-बुझाना हो, वह आप ही समझा दें और उन्हें हस्तिनापुर भेज दें। यदि इसके बाद दुर्योधन न्यायोचित रूप से संधि के लिए तैयार न हो, तो सब लोग सब तरह से तैयार हो जाएँ और हमें भी कहला भेजें।”

यह निश्चय हो जाने के बाद श्रीकृष्ण अपने साथियों सहित द्वारका लौट गए। विराट, द्रुपद, युधिष्ठिर आदि युद्ध की तैयारियाँ करने में लग गए। चारों ओर दूत भेजे गए। सब मित्र-राजाओं को सेना इकट्ठी करने का संदेश भेज दिया गया। पांडवों के पक्ष में राजा लोग अपनी-अपनी सेना सज्जित करने लगे। इधर ये तैयारियाँ होने लगीं, उधर दुर्योधन आदि भी चुपचाप बैठे नहीं रहे। वे भी युद्ध की तैयारियों में जी-जान से लग गए। उन्होंने अपने मित्रों के यहाँ दूतों द्वारा संदेश भेजे, जिससे सेनाएँ इकट्ठी की जा सकें। इस तरह सारा भारतवर्ष आगामी युद्ध के कोलाहल से गूँजने लगा।

शांति-चर्चा के लिए हस्तिनापुर को दूत भेजने के बाद पांडव और उनके मित्र राजागण ज़ोरों से युद्ध की तैयारी में जुट गए। श्रीकृष्ण के पास अर्जुन स्वयं पहुँचा। इधर दुर्योधन को भी इस बात की खबर मिल गई कि उत्तरा के विवाह से निवृत्त होकर श्रीकृष्ण द्वारका लौट गए हैं, सो वह भी द्वारका को रवाना हो गया। संयोग की बात है कि जिस दिन अर्जुन द्वारका पहुँचा, ठीक उसी दिन दुर्योधन भी वहाँ पहुँचा। श्रीकृष्ण के भवन में भी दोनों एक साथ ही प्रविष्ट हुए। श्रीकृष्ण उस समय आराम कर रहे थे। अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही उनके निकट संबंधी थे। इसलिए दोनों ही बेखटके शयनागार में चले गए। दुर्योधन आगे था, अर्जुन ज़रा पीछे। कमरे में प्रवेश करके दुर्योधन श्रीकृष्ण के सिरहाने एक ऊँचे आसन पर जा बैठा। अर्जुन श्रीकृष्ण के पैताने ही हाथ जोड़े खड़ा रहा। श्रीकृष्ण की नींद खुली, तो उन्होंने सामने अर्जुन को खड़े देखा। उन्होंने उठकर उसका स्वागत किया और कुशल पूछी। बाद में घूमकर आसन पर बैठे दुर्योधन को देखा, तो उसका भी स्वागत किया और कुशल-समाचार पूछे। उसके बाद दोनों के आने का कारण पूछा।

दुर्योधन जल्दी से पहले बोला- " श्रीकृष्ण, ऐसा मालूम होता है कि हमारे और पांडवों के बीच जल्दी ही युद्ध छिड़ेगा। यदि ऐसा हुआ, तो मैं आपसे प्रार्थना करने आया हूँ कि आप मेरी सहायता करें। सामान्यतः यह नियम है कि जो पहले आए, उसका काम पहले हो। आप विद्वज्जनों में श्रेष्ठ हैं। आप सबके पथ-प्रदर्शक हैं। अतः बड़ों की चलाई हुई प्रथा पर चलें और पहले मेरी सहायता करें।"

यह सुनकर श्रीकृष्ण बोले- “राजन्! आप पहले पहुँचे ज़रूर, लेकिन मैंने तो पहले अर्जुन को ही देखा था। मेरी निगाह में तो दोनों ही बराबर हैं। इसलिए कर्तव्यभाव से मैं दोनों की ही समान रूप से सहायता करूँगा। पूर्वजों की चलाई हुई प्रथा यह है कि जो आयु में छोटा हो, उसी को पहले पुरस्कार देना चाहिए। अर्जुन आपसे आयु में छोटा है। इसलिए मैं पहले उससे ही पूछता हूँ कि वह क्या चाहता है?”

अर्जुन की तरफ़ मुड़कर श्रीकृष्ण बोले- " पार्थ! सुनो! मेरे वंश के लोग नारायण कहलाते हैं। वे बड़े साहसी और वीर भी हैं। उनकी एक भारी सेना इकट्ठी की जा सकती है। मेरी यह सेना एक तरफ़ होगी। दूसरी तरफ़ अकेला मैं रहूँगा। मेरी प्रतिज्ञा यह भी है कि युद्ध में मैं न तो हथियार उठाऊँगा और न ही लड़ूँगा। तुम भली-भाँति सोच लो, तब निर्णय करो। इन दो में से जो पसंद हो, वह ले लो।"

बिना किसी हिचकिचाहट के अर्जुन बोला"आप शस्त्र उठाएँ या न उठाएँ, आप चाहे लड़ें या न लड़ें, मैं तो आपको ही चाहता हूँ।"

दुर्योधन के आनंद की सीमा न रही। वह सोचने लगा कि अर्जुन ने खूब धोखा खाया और श्रीकृष्ण की वह लाखों वीरोंवाली भारी-भरकम सेना सहज में ही उसके हाथ आ गई। यह सोचता और हर्ष से फूला न समाता दुर्योधन बलराम जी के यहाँ पहुँचा और उनको सारा हाल कह सुनाया। बलराम जी ने दुर्योधन की बातें ध्यान से सुनों और बोले- “दुर्योधन! मालूम होता है कि उत्तरा के विवाह के अवसर पर मैंने जो कुछ कहा था उसकी खबर तुम्हें मिल गई है। कृष्ण से भी मैंने कई बार तुम्हारी बात छेड़ी और उसको समझाता रहा कि कौरव और पांडव दोनों ही हमारे बराबर के संबंधी हैं। किंतु कृष्ण मेरी सुने तब न! मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं युद्ध में तटस्थ रहूँगा, क्योंकि जिधर कृष्ण न हो, उस तरफ़ मेरा रहना ठीक नहीं है। अर्जुन की सहायता मैं करूँगा नहीं, इस कारण मैं अब तुम्हारी भी सहायता करने योग्य नहीं रहा। मेरा तटस्थ रहना ही ठीक होगा।”

हस्तिनापुर को लौटते हुए दुर्योधन का दिल बल्लियों उछल रहा था। वह सोच रहा था कि अर्जुन बड़ा बुद्धू बना। द्वारका की इतनी बड़ी सेना अब मेरी हो गई है और बलराम जी का स्नेह तो मुझ पर है ही। श्रीकृष्ण भी नि:शस्त्र और सेनाविहीन हो गए। यही सोचते-विचारते दुर्योधन खुशी-खुशी अपनी राजधानी में आ पहुँचा।

कृष्ण ने पूछा- “सखा अर्जुन! एक बात बताओ। तुमने सेना-बल के बजाए मुझा नि:शस्त्र को क्यों पसंद किया?”

अर्जुन बोला- “बात यह है कि आप में वह शक्ति है कि जिससे आप अकेले ही इन तमाम राजाओं से लड़कर इन्हें कुचल सकते हैं।”

अर्जुन की बात सुनकर कृष्ण मुसकराए और बोले- “अच्छा, यह बात है!” और अर्जुन को बड़े प्रेम से विदा किया। इस प्रकार श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने और पार्थ-सारथी की पदवी प्राप्त की।

मद्र देश के राजा शल्य, नकुल-सहदेव की माँ माद्री के भाई थे। जब उन्हें यह खबर मिली कि पांडव उपप्लव्य के नगर में युद्ध की तैयारियाँ कर रहे हैं, तो उन्होंने एक भारी सेना इकट्ठी की और उसे लेकर पांडवों की सहायता के लिए उपप्लव्य की ओर रवाना हो गए।

राजा शल्य की सेना बहुत बड़ी थी। उपप्लव्य की ओर जाते हुए रास्ते में जहाँ कहीं भी शल्य विश्राम करने के लिए डेरा डालते थे, तो उनकी सेना का पड़ाव कोई डेढ़ योजन तक लंबा फैल जाता था।

जब दुर्योधन ने सुना कि राजा शल्य विशाल सेना लेकर पांडवों की सहायता के लिए जा रहे हैं, तो उसने किसी प्रकार इस सेना को अपनी ओर कर लेने का निश्चय कर लिया। अपने कुशल कर्मचारियों को उसने आज्ञा दी कि रास्ते में जहाँ कहीं भी राजा शल्य और उनकी सेना डेरा डाले, उसे हर तरह की सुविधा पहुँचाई जाए। शल्य पर दुर्योधन के आदर-सत्कार का कुछ ऐसा असर हुआ कि उन्होंने पुत्रों के समान प्यार करने योग्य भानजों (पांडवों) को छोड़ दिया और दुर्योधन के पक्ष में रहकर युद्ध करने का वचन दे दिया। उपप्लव्य में राजा शल्य का खूब स्वागत किया गया। मामा को आया देखकर नकुल और सहदेव के आनंद की तो सीमा ही न रही। जब भावी युद्ध की चर्चा छिड़ी, तो शल्य ने युधिष्ठिर को बताया कि किस प्रकार दुर्योधन ने धोखा देकर उनको अपने पक्ष में कर लिया है।

युधिष्ठिर बोला- “मामा जी! मौका आने पर निश्चय ही महाबली कर्ण आपको अपना सारथी बनाकर अर्जुन का वध करने का प्रयत्न करेगा। मैं यह जानना चाहता हूँ कि उस समय आप अर्जुन की मृत्यु का कारण बनेंगे या अर्जुन की रक्षा का प्रयत्न करेंगे? मैं यह पूछकर आपको असमंजस में नहीं डालना चाहता था, पर फिर भी पूछने का मन हो गया।”

मद्रराज ने कहा- “बेटा युधिष्ठिर, मैं धोखे में आकर दुर्योधन को वचन दे बैठा। इसलिए युद्ध तो मुझे उसकी ओर से ही करना होगा। पर एक बात बताए देता हूँ कि कर्ण मुझे सारथी बनाएगा, तो अर्जुन के प्राणों की रक्षा ही होगी।”

उपप्लव्य में महाराज युधिष्ठिर और द्रौपदी को मद्रराज शल्य ने दिलासा दिया और कहा- “जीत उन्हीं की होती है, जो धीरज से काम लेते हैं। युधिष्ठिर! कर्ण और दुर्योधन की बुद्धि फिर गई है। अपनी दुष्टता के फलस्वरूप निश्चय ही उनका सर्वनाश होकर रहेगा।”



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