अध्याय 20 मायावी सरोवर
पांडवों के वनवास की अवधि पूरी होने को ही थी। बारह बरस समाप्त होने में कुछ ही दिन रह गए थे। उन्हों दिनों एक निर्धन ब्राह्मण की सहायता करते हुए पाँचों भाई जंगल में काफ़ी दूर निकल आए। वे थके हुए थे, सो ज़रा सुस्ताने लगे। युधिष्ठिर नकुल से बोले-“भैया! ज़रा उस पेड़ पर चढ़कर देखो तो सही कि कहों कोई जलाशय या नदी दिखलाई दे रही है?"
नकुल ने पेड़ पर चढ़कर देखा और उतरकर कहा कि कुछ दूरी पर ऐसे पौधे दिखाई दे रहे हैं जो पानी के नज़दीक ही उगते हैं। आसपास कुछ बगुले भी बैठे हुए हैं। वहीं कहीं आसपास पानी अवश्य होना चाहिए। युधिष्ठिर ने कहा कि जाकर देखो और पानी मिले, तो ले आओ। यह सुनकर नकुल तुरंत पानी लाने चल पड़ा। कुछ दूर चलने पर अनुमान के अनुसार नकुल को एक जलाशय मिला। उसने सोचा कि पहले तो मैं अपनी प्यास बुझा लूँ और फिर तरकश में पानी भरकर भाइयों के लिए ले जाऊँगा। यह सोचकर उसने दोनों हाथों की अंजुलि में पानी लिया और पीना ही चाहता था कि इतने में आवाज़ आई- “माद्री के पुत्र! दुःसाहस न करो। यह जलाशय मेरे अधीन है। पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो। फिर पानी पियो।”
पर उसे प्यास इतनी तेज़ लगी थी कि उस वाणी की परवाह न करके उसने अंजुलि से पानी पी लिया। पानी पीकर किनारे पर चढ़ते ही उसे कुछ चक्कर-सा आया और वह गिर पड़ा।
बड़ी देर तक नकुल के न लौटने पर युधिष्ठिर चिंतित हो गए और उन्होंने सहदेव को भेजा। सहदेव जलाशय के नज़दीक पहुँचा तो नकुल को ज़मीन पर पड़ा हुआ देखा। पर उसे भी प्यास इतनी तेज़ लगी थी कि वह कुछ ज़्यादा सोच न सका। वह पानी पीने को ही था कि पहले जैसी वाणी उसे भी सुनाई दी। उसने वाणी की चेतावनी पर ध्यान न देते हुए पानी पी लिया और किनारे पर चढ़ते-चढ़ते वह अचेत होकर नकुल के पास ही गिर पड़ा।
जब सहदेव भी बहुत देर तक नहीं लौटा, तो युधिष्ठिर घबराकर अर्जुन से बोले- “जाकर देखो तो उनके साथ कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई?” अर्जुन बड़ी तेज़ी से चला। तालाब के किनारे पर दोनों भाइयों को उसने मृत पड़े हुए देखा, तो वह चौंक उठा। वह नहीं समझ पाया कि इनकी मृत्यु का क्या कारण है! यह सोचते हुए अर्जुन भी पानी पीने के लिए जलाशय में उतरा कि तभी उसे भी वही वाणी सुनाई दी- “अर्जुन! मेरे प्रश्नों का उत्तर देने के बाद ही प्यास बुझा सकते हो। यह तालाब मेरा है। मेरी बात नहीं मानोगे, तो तुम्हारी भी वही गति होगी, जो तुम्हारे दो भाइयों की हुई है।”
अर्जुन यह सुनकर गुस्से से भर गया। उसने बाण छोड़ने शुरू कर दिए। जिधर से आवाज़ सुनाई दी थी, उसी ओर निशाना लगाकर वह तीर चलाता रहा, किंतु उन बाणों का कोई असर नहीं हुआ।
अपने बाणों को बेकार होते देखकर अर्जुन के क्रोध की सीमा न रही। उसने सोचा पहले अपनी प्यास तो बुझा ही लूँ। फिर लड़ लिया जाएगा। यह सोचकर अर्जुन ने जलाशय में उतरकर पानी पी लिया और किनारे आते-आते चारों खाने चित्त होकर गिर पड़ा।
उधर बाट जोहते-जोहते युधिष्ठिर बड़े व्याकुल हो उठे। भीमसेन से चितिंत स्वर में बोले- “भैया भीमसेन! देखो तो अर्जुन भी नहीं लौटा। ज़रा तुम्हीं जाकर तलाश करो कि तीनों भाइयों को क्या हो गया है।”
युधिष्ठिर की आज्ञा मानकर भीमसेन तेज़ी से जलाशय की ओर बढ़ा। तालाब के किनारे पर देखा कि तीनों भाई मरे-से पड़े हुए हैं। सोचा, यह किसी यक्ष की करतूत मालूम होती है। ज़रा पानी पी लूँ फिर देखता हूँ। यह सोचकर भीमसेन तालाब में उतरना ही चाहता था कि फिर वही आवाज़ आई। “मुझे रोकनेवाला तू कौन है?” कहता हुआ भीमसेन बेधड़क तालाब में उतर गया और पानी भी पी लिया। पानी पीते ही अपने भाइयों की तरह वह भी वहों ढेर हो गया। उधर युधिष्ठिर अकेले बैठे घबराने लगे और सोचने लगे कि बड़े आश्चर्य की बात है कि कोई भी अब तक नहीं लौटा! आखिर भाइयों को हो क्या गया? क्या कारण है कि अभी तक वे लौटे नहीं? जल की खोज में वे जंगल में इधर-उधर भटक तो नहीं गए? मैं ही चलकर देखूँ कि क्या बात है!