अध्याय 10 गाँव, इमारतें, चित्र तथा किताबें

मरुतसामि और लौह स्तंभ

मरुतसामि आज बहुत खुश था। पहिएदार कुर्सी में बिठाकर उसका भाई उसे कुतुबमीनार दिखाता हुआ प्रसिद्ध लौह स्तंभ के सामने ले आया। धूल भरे, पथरीले रास्तों से रैम्प के सहारे यहाँ तक आना काफी मुश्किल था। अपने इस अनुभव को मरुतसामि कभी नहीं भूल पाएगा।

धातु विज्ञान

प्राचीन भारतीय धातुवैज्ञानिकों ने विश्व धातुविज्ञान के क्षेत्र में प्रमुख योगदान दिया है। पुरातात्विक खुदाई ने यह दर्शाया है कि हड़प्पावासी कुशल शिल्पी थे और उन्हें तांबे के धातुकर्म (धातुशोधन) की जानकारी थी। उन्होंने तांबे और टिन को मिलाकर कांसा भी बनाया था। जहाँ हड़प्पावासी कांस्य युग से जुड़े थे वहीं उनके उत्तराधिकारी लौह युग से संबद्ध थे। भारत अत्यंत विकसित किस्म के लोहे का निर्माण करता था - खोटा लोहा, पिटवा लोहा, ढलवा लोहा।

लौह स्तंभ

महरौली (दिल्ली) में कुतुबमीनार के परिसर में खड़ा यह लौह स्तंभ भारतीय शिल्पकारों की कुशलता का एक अद्भुत उदाहरण है। इसकी ऊँचाई 7.2 मीटर और वज़न 3 टन से भी.ज्यादा है। इसका निर्माण लगभग 1500 साल पहले हुआ। इसके बनने के समय की जानकारी हमें इस पर खुदे अभिलेख से मिलती है। इसमें ‘चन्द्र’ नाम के एक शासक का जिक्र है जो संभवतः गुप्त वंश के थे। आश्चर्य की बात यह है कि इतनी शताब्दियों के बाद भी इसमें जंग नहीं लगा है।

ईंटों और पत्थरों की इमारतें

हमारे शिल्पकारों की कुशलता के नमनने स्तूपों जैसी कुछ इमारतों में देखने को मिलते हैं। स्तूप का शाब्दिक अर्थ टीला होता है हालाँकि स्तूप विभिन्न आकार के थे - कभी गोल या लंबे तो कभी बड़े या छोटे। उन सब में एक समानता है। प्रायः सभी स्तूपों के भीतर एक छोटा-सा डिब्बा रखा रहता है। इन डिब्बों में बुद्ध या उनके अनुयायियों के शरीर के अवशेष (जैसे दाँत,हड्डी या राख) या उनके द्वारा प्रयुक्त कोई चीज़ या कोई कीमती पत्थर अथवा सिक्के रखे रहते हैं।

लौह-स्तंभ

इसे धातु-मंजूषा कहते हैं। प्रारंभिक स्तूप, धातुमंजूषा के ऊपर रखा मिट्टी का टीला होता था। बाद में टीले को ईंटों से ढक दिया गया और बाद के काल में उस गुम्बदनुमा ढाँचे को तराशे हुए पत्थरों से ढक दिया गया।

प्रायः स्तूपों के चारों ओर परिक्रमा करने के लिए एक वृत्ताकार पथ बना होता था, जिसे प्रदक्षिणा पथ कहते हैं। इस रास्ते को रेलिग से घेर दिया जाता था जिसे वेदिका कहते हैं। वेदिका में प्रवेशद्वार बने होते थे। रेलिग तथा तोरण प्राय: मूर्तिकला की सुंदर कलाकृतियों से सजे होते थे।

ऊपरः साँची का महान स्तूप (मध्य प्रदेश)।

इस तरह के स्तूपों का निर्माण कई सौ सालों तक चलता रहा। इस स्तूप में ईंटों का प्रयोग संभवतः अशोक (अध्याय 7) के जमाने का है, जबकि रेलिंग और प्रवेशद्वार बाद के शासकों के काल में जोड़े गए। बाएँ: अमरावती की एक शिल्पकृति। इस चित्र को देखकर इसका वर्णन करो।

मानचित्र 7 (पृष्ठ 89) में अमरावती ढूँढ़ो। यहाँ कभी एक भव्य स्तूप हुआ करता था। लगभग 2000 साल पहले इस स्तूप को सजाने के लिए शिलाओं पर चित्र उकेरे गए। कई बार पहाड़ियों को काट कर बनावटी गुफाएँ बनाई जाती थीं। इस तरह की कई गुफाओं को मूर्त्रियों तथा चित्रों द्वारा सजाया जाता था।

इस काल में कुछ आरंभिक हिन्दू मंदिरों का भी निर्माण किया गया। इन मंदिरों में विष्णु, शिव तथा दुर्गा जैसे देवी-देवताओं की पूजा होती थी। मंदिरों का सबसे महत्वपूर्ण भाग गर्भगृह होता था, जहाँ मुख्य देवी या देवता की मूर्ति को रखा जाता था। इसी स्थान पर पुरोहित धार्मिक अनुष्ठान करते थे और भक्त पूजा करते थे। अक्सर गर्भगृह को एक पवित्र स्थान के रूप में दिखाने के लिए, भितरगाँव

जैसे मंदिरों में उसके ऊपर काफी ऊँचाई तक निर्माण किया जाता था, जिसे शिखर कहते थे। शिखर निर्माण के कठिन कार्य के लिए सावधानी से योजना बनानी पड़ती थी। अधिकतर मंदिरों में मण्डप नाम की एक जगह होती थी। यह एक सभागार होता था, जहाँ लोग इकट्ठा होते थे। मानचित्र 7 (पृष्ठ 89) में महाबलिपुरम और ऐहोल को ढूँढ़ो। इन शहरों में पत्थरों से बने कुछ उत्कृष्ट मंदिर हैं। उनमें से कुछ यहाँ दिखाए गए हैं।

बाएँ ऊपरः उत्तर प्रदेश के भितरगाँव का एक आरंभिक मंदिर।

यह लगभग 1500 साल पहले पकी ईंट और पत्थरों से बनाया गया था।

दाएँ ऊपरः महाबलिपुरम के एकाष्मिक मंदिर।

इनमें से प्रत्येक मंदिर एक ही विशाल पहाड़ी को तराश कर बनाया गया है। इसीलिए इन्हें एकाश्म (monolith) कहा गया है। ईंटों से बनाए जाने वाले मंदिरों से यह बिल्कुल भिन्न होते थे। ईंट से बनी इमारतों में नीचे से ईंटों की एक-एक तह जोड़ते हुए उसे ऊपर की ओर ले जाते हैं, जबकि चट्टान तराश कर बनाए जाने वाले मंदिरों को पत्थर काटने वाले ऊपर से नीचे के क्रम में बनाते हैं।

इन मंदिरों को बनाते समय पत्थर काटने वालों को किन समस्याओं का सामना करना पड़ता होगा, इसकी सूची बनाओ। दाएँ: ऐहोल का दुर्गा मंदिर। यह लगभग 1400 साल पहले बनाया गया था।

स्तूपों तथा मंदिरों को बनाने की प्रक्रिया में कई अवस्थाएँ आती थीं। इसके लिए काफी धन खर्च होता था। इसलिए आमतौर पर राजा या रानी ही इन्हें बनवाने का निश्चय करते थे। पहला काम, अच्छे किस्म के पत्थर ढूँढ़कर शिलाखंडों को खोदकर निकालना होता था। फिर मंदिर या स्तप के लिए सोच-विचार कर तय किए गए स्थान पर शिलाखंडों को पहुँचाना होता था। यहाँ पत्थरों को काट-छाँटकर तराशने के बाद खंभों, दीवारों की चौखटों, फ़र्शों तथा छतों का आकार दिया जाता था। इन सबके तैयार हो जाने पर सही जगहों पर उन्हें लगाना काफी मुश्किल का काम था।

बाएँ: उड़ीसा का जैन मठ। एक पहाड़ी को खोद कर इस दो मंजिली इमारत को बनाया गया है। कमरों के प्रवेशद्वारों को ध्यान से देखो। इनमें जैन भिक्षु रहते और ध्यान करते थे। पृष्ठ 13 पर दिए चित्र (अध्याय 2) और यहाँ दिखाई गई गुफाओं में क्या अंतर है?

नीचे: राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली से एक मूर्ति का चित्र। क्या तुम यहाँ देख पा रहे हो कि किस प्रकार गुफाओं की खुदाई की गई होगी? स्तूप तथा मंदिर किस तरह बनाए जाते थे?

इस तरह के शानदार ढाँचों का निर्माण करने वाले शिल्पकारों की को को सारा खर्च संभवतः राजा-रानी ही देते थे। इसके अतिरिक्त इन स्तूपों या मंदिरों में आने वाले भक्त जो उपहार अपने साथ लाते थे उनसे इमारत की सजावट की जाती थी। जैसे हाथी दांत का काम करने वाले श्रमिकों के संघ ने साँची के एक अलंकृत प्रवेशद्वार (तोरण) को बनाने का खर्च दिया था।

इनकी सजावट के लिए पैसे देने वालों में व्यापारी, कृषक, माला बनाने वाले, इत्र बनाने वाले, लोहार-सुनार, तथा ऐसे कई स्त्री-पुरुष शामिल थे जिनके नाम खंभों, रेलिगों तथा दीवारों पर खुदे हैं, इसलिए जब तुम इन स्थानों को देखने जाओ तो याद रखना कि कितने सारे लोगों ने इन्हें बनाने और सजाने में अपना योगदान दिया था।

चित्रकला

मानचित्र 7 में अजंता को ढूँढ़ो। यह वह जगह है, जहाँ के पहाड़ों में सैकड़ों सालों के दौरान कई गुफाएँ खोदी गईं। इनमें से .ज्यादातर बौद्ध भिक्षुओं के लिए बनाए गए विहार थे। इनमें से कुछ को चित्रों द्वारा सजाया गया था। यहाँ इनके कुछ उदाहरण दिए गए हैं। गुफाओं के अंदर अंधेरा होने की वजह से, अधिकांश चित्र मशालों की रोशनी में बनाए गए थे। इन चित्रें के रंग 1500 साल बाद भी चमकदार हैं। ये रंग पौधों तथा खनिजों से बनाए गए थे। इन महान कृतियों को बनाने वाले कलाकार अज्ञात हैं।

अजंता के चित्र तुम्हें इनमें से प्रत्येक चित्र में जो दिखता है उसका वर्णन करो।

पुस्तकों की दुनिया

इस युग में कई प्रसिद्ध महाकाव्यों की रचना की गई। इन उत्कृष्ट रचनाओं में स्त्री-पुरुषों की वीरगाथाएँ तथा देवताओं से जुड़ी कथाएँ हैं।

करीब 1800 साल पहले एक प्रसिद्ध तमिल महाकाव्य सिलप्पदिकारम की रचना इलांगो नामक कवि ने की। इसमें कोवलन् नाम के एक व्यापारी की कहानी है। वह पुहार में रहता था। अपनी पत्नी कन्नगी की उपेक्षा कर वह एक नर्तकी माधवी से प्रेम करने लगा। बाद में, वह और कन्नगी पुहार छोड़कर मदुरै चले गए। वहाँ पांड्य राजा के दरबारी जौहरी ने कोवलन् पर चोरी का झूठा आरोप लगाया जिस पर राजा ने उसे प्राणदंड दे दिया। कन्नगी जो अभी भी उससे प्रेम करती थी, इस अन्याय के कारण दु:ख और रोष से भर गई। उसने मदुरै शहर का विनाश कर डाला।

सिलप्पदिकारम से लिया गया एक वर्णन

यहाँ कवि ने कन्नगी के दु:ख का इस तरह वर्णन किया है :

“ओ मेरा दु:ख तो देखो, तुम मुझे साँत्वना तक नहीं दे सकते। क्या यह सही है कि विशुद्ध सोने से भी सुंदर तुम्हारा शरीर बिना धुला, धूल से सना यूँ ही पड़ा है? यह कहाँ का न्याय है कि गोधूलि की इस स्वर्णिम आभा में फूलमाला से ढके सुन्दर वक्ष:स्थल वाले तुम जमीन पर गिरे पड़े हो। मैं अकेली, असहाय और हताश होकर खड़ी हूँ। क्या ईश्वर नहीं है? क्या इस देश में ईश्वर नहीं हैं? पर क्या उस स्थान पर ईश्वर रह सकते हैं जहाँ के राजा की तलवार निर्दोष नवागन्तुक के प्राण ले लेती है? क्या ईश्वर नहीं है? नहीं है?”

एक और तमिल महाकाव्य, मणिमेखलई को करीब 1400 साल पहले सत्तनार द्वारा लिखा गया। इसमें कोवलन् तथा माधवी की बेटी की कहानी है। ये रचनाएँ कई सदियों पहले ही खो गई थीं। उनकी पाण्डुलिपियाँ दोबारा लगभग एक सौ साल पहले मिलीं।

अन्य लेखक, जैसे कालिदास (जिनके बारे में तुमने अध्याय 9 में पढ़ा है) संस्कृत में लिखते थे।

पुरानी कहानियों का संकलन तथा संरक्षण

हिंदू धर्म से जुड़ी कई कहानियाँ जो बहुत पहले से प्रचलित थीं, इसी काल में लिखी गईं। इनमें पुराण भी शामिल हैं। पुराण का शब्दिक अर्थ है प्राचीन। पुराणों में विष्णु, शिव, दुर्गा या पार्वती जैसे देवी-देवताओं से जुड़ी कहानियाँ हैं। इनमें इन देवी-देवताओं की पूजा की विधियाँ दी गई हैं। इसके अतिरिक्त इनमें संसार की सृष्टि तथा राजाओं के बारे में भी कहानियाँ हैं।

‘मेघदूत’ का एक श्लोक

यहाँ उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना ‘मेघदूत’ से एक अंश दिया गया है। यहाँ एक विरही प्रेमी बरसात के बादल को अपना संदेशवाहक बनाने की कल्पना करता है।

देखो इसमें किस तरह कवि ने बादलों को उत्तर की ओर ले जाती ठंडी हवा का वर्णन किया है:

“तुम्हारे बौछारों से मुलायम हो उठी मिट्टी की भीनी खुशबू से भरे,

हाथियों की सांस में बसी

जंगली गूलर को पकाने वाली,

शीतल बयार तुम्हारे साथ धीरे-धीरे बहेगी।”

क्या तुम्हें लगता है कि कालिदास को प्रकृतिप्रेमी कहा जा सकता है?

अधिकतर पुराण सरल संस्कृत श्लोक में लिखे गए हैं, जिससे सब उन्हें सुन और समझ सकें। पुराणों का पाठ पुजारी मंदिरों में किया करते थे जिसे लोग सुनने आते थे।

दो संस्कृत महाकाव्य महाभारत और रामायण लंबे अर्से से लोकप्रिय रहे हैं। तुममें से भी कुछ बच्चे इन कहानियों से परिचित होंगे। महाभारत कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध की कहानी है। इस युद्ध का उद्देश्य पुरु-वंश की राजधानी हस्तिनापुर की गद्दी प्राप्त करना था। यह कहानी तो बहुत ही पुरानी है, पर आज इसे हम जिस रूप में जानते हैं, वह करीब 1500 साल पहले लिखी गई। माना जाता है कि पुराणों और महाभारत दोनों को ही व्यास नाम के ऋषि ने संकलित किया था। महाभारत में भगवद् गीता भी है।

रामायण की कथा कोसल के राजकुमार राम के बारे में है। उनके पिता ने उन्हें वनवास दे दिया था। वन में उनकी पत्नी सीता का लंका के राजा रावण ने अपहरण कर लिया था। सीता को वापस पाने के लिए राम को लड़ाई लड़नी पड़ी। वे विजयी होकर कोसल की राजधानी अयोध्या लौटे। महाभारत की तरह ही रामायण भी एक प्राचीन कहानी है, जिसे बाद में लिखित रूप दिया गया। संस्कृत रामायण के लेखक वाल्मीकि माने जाते हैं।

इस उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में महाभारत और रामायण के भिन्न-भिन्न रूपांतर लोकप्रिय हैं। इनके आधार पर नाटक, गीत और नृत्य परंपराएँ भी उभरीं। पता करो तुम्हारे राज्य में कौन-सा रूपांतर प्रचलित है।

आम लोगों द्वारा कही जाने वाली कहानियाँ

आम लोग भी कहानियाँ कहते थे, कविताओं और गीतों की रचना करते थे, गाने गाते थे, नाचते थे और नाटकों को खेलते थे। इनमें से कुछ तो इस समय के आस-पास जातक और पंचतंत्र की कहानियों के रूप में लिखकर सुरक्षित कर लिए गए। जातक कथाएँ तो अक्सर स्तूपों की रेलिगों तथा अजंता के चित्रें में दर्शायी जाती थीं।

इनमें से एक कहानी अगले पृष्ठ पर दी गई है :

बंदर राजा की कहानी

एक समय बंदरों का एक महान राजा हुआ। वह हिमालय पर गंगा के किनारे अपने 80,000 अनुयायियों के साथ रहता था। इन सारे बंदरों को एक खास आम के पेड़ के फल बहुत प्रिय थे। ये आम बड़े मीठे होते थे। इतने स्वादिष्ट आम धरातल पर नहीं उगते थे।

एक दिन एक पका हुआ आम गंगा नदी में गिर कर बहते-बहते वाराणसी पहुँच गया। उस वक्त नदी में वहाँ का राजा नहा रहा था। उसे वह आम मिला, उसे चखकर वह हैरान रह गया। उसने अपने राज्य के जंगलों की देखभाल करने वालों से पूछा कि क्या वे इस आम के पेड़ को ढूँढ़ सकते हैं या नहीं। वे राजा को हिमालय की पहाड़ी पर ले गए।

वहाँ पहुँचकर राजा तथा उसके दरबारियों ने खूब आम खाए। रात में राजा ने देखा कि बंदर भी पके आमों का मजा ले रहे हैं। राजा को यह बात बुरो लगी और उसने उन्हें मार डालने का फ़ैसला किया। बंदरों के राजा ने अपनी प्रजा को बचाने की एक योजना बनाई। उसने आम के पेड़ की टहनियों को तोड़कर, उन्हें आपस में बांधकर, नदी पर एक पुल बनाया। इसके एक छोर को वह तब तक पकड़े रहा जब तक उसकी सारी प्रजा ने नदी को पार न कर लिया। पर इस प्रयास से वह इतना थक गया कि मरणासन्न होकर गिर गड़ा।

राजा ने जब यह सब देखा तो उसने बंदर राजा को बचाने की काफी कोशिश की। पर वह सफल न हुआ। बंदर राजा की मृत्यु पर उसे शोक हुआ और राजा ने उसे पूरा सम्मान दिया।

मध्यभारत में भरहुत के एक स्तूप से मिले एक पत्थर पर उकेरे गए चित्र में इसे दिखाया गया है।

क्या तुम बता सकते हो कि इसमें कहानी का कौन-सा हिस्सा दिखाया गया है? यह हिस्सा क्यों चुना गया होगा?

विज्ञान की पुस्तकें

इसी समय गणितज्ञ तथा खगोलशास्त्री आर्यभट्ट ने संस्कृत में आर्यभट्टीयम नामक पुस्तक लिखी। इसमें उन्होंने लिखा कि दिन और रात पृथ्वी के अपनी धुरी पर चक्कर काटने की वजह से होते हैं, जबकि लगता है कि रोज सूर्य निकलता है और डूबता है। उन्होंने ग्रहण के बारे में भी एक वैज्ञानिक तर्क दिया। उन्होंने वृत्त की परिधि को मापने की भी विधि ढूँढ़ निकाली, जो लगभग उतनी ही सही है, जितनी कि आज प्रयुक्त होने वाली विधि। वराहमिहिर, ब्रह्हगुप्त और भास्कराचार्य कुछ अन्य गणितज्ञ और खगोलवेत्ता थे जिन्होंने कई खोजें कीं। इनके बारे में और पता लगायें।

शून्य

अंकों का प्रयोग पहले से होता रहा था, पर अब भारत के गणितज्ञों ने शून्य के लिए एक नए चिह्न का आविष्कार किया। गिनती की यह पद्धति अरबों द्वारा अपनाई गई और तब यूरोप में भी फैल गई। आज भी यह पूरी दुनिया में प्रयोग की जाती है।

रोम के निवासी शून्य का प्रयोग किए बगैर गिनती करते थे। उसके बारे में और भी जानकारी हासिल करने की कोशिश करो।

आयुर्वेद

आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान की एक विख्यात पद्धति है जो प्राचीन भारत में विकसित हुई। प्राचीन भारत में आयुर्वेद के दो प्रसिद्ध चिकित्सक थे - चरक (प्रथम - द्वितीय शताब्दी ईस्वी) और सुश्रुत्त (चौथी शताब्दी ईस्वी)। चरक द्वारा रचित चरकसंहिता औषधिशास्त्र की एक उल्लेखनीय पुस्तक है। अपनी रचना सुश्रुतसंहिता में सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा की विधियों का विस्तृत वर्णन किया है।

कल्पना करो

तुम एक मंदिर के मण्डप में बैठे हो। अपने चारों तरफ़ के दृश्य का वर्णन करो।

आओ याद करें

1. निम्नलिखित का सुमेल करो

स्तूप $ \qquad $ देवी-देवता की मूर्ति स्थापित करने की जगह
शिखर $ \qquad $ टीला
मण्डप $ \qquad $ स्तूप के चारों तरफ़ वृत्ताकार पथ
गर्भगृह $ \qquad $ मंदिर में लोगों के इकट्ठा होने की जगह
प्रदक्षिणापथ $ \qquad $ गर्भगृह के ऊपर लंबाई में निर्माण

उपयोगी शब्द

स्तूप मंदिर
चित्रकला
महाकाव्य
कहानी
पुराण
गणित
विज्ञान

2. खाली जगहों को भरो

(क) _____________ एक बड़े गणितज्ञ थे।

(ख) _____________ में देवी-देवताओं की कहानियाँ मिलती हैं।

(ग) _____________ को संस्कृत रामायण का लेखक माना जाता है।

(घ) _____________ और _____________ दो तमिल महाकाव्य हैं।

आओ चर्चा करें

3. धातुओं के प्रयोग पर जिन अध्यायों में चर्चा हुई है, उनकी सूची बनाओ। धातु से बनी किन-किन चीजोों के बारे में चर्चा हुई है या उन्हें दिखाया गया है?

4. पृष्ठ 104 पर लिखी कहानी को पढ़ो। जिन राजाओं के बारे में तुमने अध्याय 5 और 9 में पढ़ा है उनसे यह बंदर राजा कैसे भिन्न या समान था?

5. और भी जानकारी इकट्ठी कर किसी महाकाव्य से एक कहानी सुनाओ।

आओ करके देखें

6. इमारतों तथा स्मारकों को अन्य प्रकार से सक्षम व्यक्तियों (विकलांग) के लिए और अधिक प्रवेश योग्य कैसे बनाया जाए? इसके लिए सुझावों की एक सूची बनाओ।

7. कागजज के अधिक से अधिक उपयोगों की एक सूची बनाओ।

8. इस अध्याय में बताए गए स्थानों में से तुम्हें किसी एक को देखने का मौका मिले तो किसे चुनोगे और क्यों?

कुछ महत्वपूर्ण तिथियाँ

  • स्तूप निर्माण की शुरुआत (2300 साल पहले)

  • अमरावती (2000 साल पहले)

  • कालिदास (1600 साल पहले)

  • लौह स्तंभ, भितरगाँव का मंदिर, अजंता की चित्रकारी, आर्यभट्ट (1500 साल पहले)

  • दुर्गा मंदिर (1400 साल पहले)

तिथियों पर एक नज़र

इस पूरी पुस्तक में हमने वर्ष 2000 को शुरुआती बिंदु के रूप में रखकर घटनाओंग्रक्रियाओं के होने की अनुमानित तिथियों की जानकारी दी है। पर अन्य पुस्तकें, जो तुम पढ़ते होगे, उनमें तिथियाँ अलग तरह से लिखी होंगीं। इस पुस्तक में इन तिथियों के पहले करीब या लगभग लिखा गया है।

  • जैसे कि पुरापाषाण युग (अध्याय 2) के लिए तिथियाँ लाखों वर्ष पहले के रूप में लिखी गई हैं।
  • मेहरगढ़ (अध्याय 2) में कृषि तथा पशुपालन की शुरुआत की तिथि लगभग 6000 ई० पू० दी गई है।
  • हड़प्पा के नगरों का विकास लगभग 2700 से 1900 ई० पू० के बीच
  • ऋग्वेद की रचना का काल लगभग 1500 से 1000 ई० पू० के बीच
  • महाजनपदों तथा गंगा के मैदानी इलाकों में नगरों का विकास तथा उपनिषद, जैनधर्म तथा बौद्धधर्म से जुड़े विचारों का उदय, लगभग 500 ई० पू०
  • पश्चिमोत्तर में सिकन्दर का आक्रमण, लगभग 327-325 ई० पू०
  • चन्द्रगुप्त मौर्य का राजा बनना लगभग 321 ई० पू०
  • अशोक का शासन काल लगभग 272/268 ई० पू० से 231 ई० पू० के बीच
  • संगम साहित्य की रचना लगभग 300 ई० पू० - 300 ई०
  • कनिष्क का शासन लगभग 78-100 ई० (?)
  • गुप्त साम्राज्य की स्थापना लगभग 320 ई०
  • वल्लभी की परिषद् में जैन साहित्य का संकलन, लगभग 512/521 ई०
  • हर्ष्वर्धन का शासन 606-647 ई०
  • चीनी यात्री श्‍वैन त्सांग का भारत आगमन 630-643 ई०
  • पुलकेशिन II का शासन, 609-642 ई०

कुछ घटनाओं के लिए, जैसे कि अशोक के शासन की शुरुआत की तिथि के रूप में तुम्हें एक से अधिक तिथियाँ देखने को मिल सकती हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इतिहासकार इस बात पर एकमत नहीं हो पाए हैं कि सही तिथि क्या है। प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ दी गई तिथियाँ इस बात का संकेत करती हैं कि यह तिथियाँ निश्चित नहीं हैं।



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