अध्याय 09 गाँव, नए साम्राज्य और राज्य
अरविन्द राजा बना
अरविन्द अपने स्कूल में खेले जाने वाले नाटक में राजा की भूमिका अदा करने के लिए चुना गया। उसने सोचा था कि वह शाही वेशभूषा में, मूँछों पर ताव देते हुए, रूपहले कागज़ में लिपटी तलवार को शान से पकड़कर चहलकदमी करेगा। जरा सोचो, उसे कितनी हैरानी हुई जब उसे बताया गया कि उसे बैठकर वीणा भी बजानी होगी और कविता पाठ भी करना होगा। एक संगीतज्ञ राजा? कौन हो सकता है वह? अरविन्द सोचने लगा।
क्या बताती हैं प्रशस्तियाँ
दरअसल अरविन्द गुप्तवंश के प्रसिद्ध राजा समुद्रगुप्त की भूमिका अदा करने जा रहा था। समुद्रगुप्त के बारे में हमें इलाहाबाद में अशोक स्तंभ पर खुदे एक लंबे अभिलेख से पता चलता है। इसकी रचना समुद्रगुप्त के दरबार में कवि व मंत्री रहे हरिषेण द्वारा एक काव्य के रूप में की गई थी।
यह एक विशेष किस्म का अभिलेख है, जिसे प्रशस्ति कहते हैं। यह एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ ‘प्रशंसा’ होता है। प्रशस्तियाँ लिखने का प्रचलन पहले भी था। जैसे तुमने अध्याय 8 में गौतमी-पुत्र श्री सातकर्णी की प्रशस्ति के बारे में पढ़ा। परन्तु गुप्तकाल में इनका महत्त्व और बढ़ गया।
समुद्रगुप्त की प्रशस्ति
आओ देखें, समुद्रगुप्त की प्रशस्ति हमें क्या बताती है। कवि ने इसमें राजा की एक योद्धा, युद्धों को जीतने वाले राजा, विद्वान तथा एक उत्कृष्ट कवि के रूप में भरपूर प्रशंसा की है। यहाँ तक कि उसे ईश्वर के बराबर बताया गया है। प्रशस्ति में लंबे-लंबे वाक्य दिए गए हैं। यहाँ वैसे ही एक वाक्य का अंश दिया गया है:
योद्धा समुद्रगुप्त
जिनका शरीर युद्ध मैदान में कुठारों, कुल्हाड़ियों, तीरों, भालों, बर्छों, तलवारों, लोहे की गदाओं, नुकीले तीरों तथा अन्य सैकड़ों हथियारों से लगे घावों के दाग से भरे होने के कारण अत्यंत सुंदर दिखता है।
यह वर्णन तुम्हें उस राजा के बारे में क्या बताता है? राजा किस प्रकार युद्ध लड़ते थे?
वीणा बजाने वाला राजा। समुद्रगुप्त के कुछ अन्य गुणों को सिक्कों पर दिखाया गया है जैसे इस सिक्के में उन्हें वीणा बजाते हुए दिखाया गया है।
अगर तुम मानचित्र 7 (पृष्ठ 89) को गौर से देखो तो पाओगे कि एक क्षेत्र को हरे रंग से रंगा गया है। तुम्हें पूर्वी समुद्र तट के साथ-साथ एक क्रम में लाल बिंदु दिखेंगे। उसी तरह कुछ क्षेत्र बैंगनी और नीले रंग के भी मिलेंगे।
यह मानचित्र इस प्रशस्ति में प्राप्त जानकारियों के आधार पर बनाया गया है। हरिषेण चार विभिन्न प्रकार के राजाओं और उनके प्रति समुदगुप्त की नीतियों का वर्णन करते हैं।
1. मानचित्र में हरे रंग का क्षेत्र आर्यावर्त्त के उन नौ शासकों का है, जिन्हें समुद्रगुप्त ने हराकर उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया।
2. इसके बाद दक्षिणापथ के बारह शासक आते हैं। इनमें से कुछ की राजधानियों को दिखाने के लिए मानचित्र पर लाल बिंदु दिए गए हैं। इन सब ने हार जाने पर समुद्गुप्त के सामने समर्पण किया था। समुद्रगुप्त ने उन्हें फिर से शासन करने की अनुमति दे दी।
3. पड़ोसी देशों का आंतरिक घेरा बैंगनी रंग से रंगा गया है। इसमें असम, तटीय बंगाल, नेपाल और उत्तर-पश्चिम के कई गण या संघ (अध्याय 5 याद करो) आते थे। ये समुद्रगुप्त के लिए उपहार लाते थे, उनकी आज्ञाओं का पालन करते थे तथा उनके दरबार में उपस्थित हुआ करते थे।
4. बाह्य इलाके के शासक, जिन्हें नीले रंग से रंगा गया है संभवतः कुषाण तथा शक वंश के थे। इसमें श्रीलंका के शासक भी थे। इन्होंने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की और अपनी पुत्रियों का विवाह उससे किया।
मानचित्र में प्रयाग (इलाहाबाद का पुराना नाम), उज्जैन तथा पाटलिपुत्र (पटना) ढूँढ़ो। ये गुप्त शासन के महत्वपूर्ण केंद्र थे।
आर्यावर्त्त तथा दक्षिणापथ के राज्यों के साथ समुद्रगुप्त के व्यवहार में क्या अंतर था?
क्या इस अंतर के पीछे तुम्हें कोई कारण दिखाई देता है?
विक्रम संवत्
58 ईसा पूर्व में प्रारंभ होने वाले विक्रम संवत् को परंपरागत रूप से गुप्त राजा चन्द्रुग्त द्वितीय के नाम से जोड़ा जाता है और ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने शकों पर विजय के प्रतीक के रूप में इस संवत् की स्थापना की तथा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी।
वंशावलियाँ
अधिकांश प्रशस्तियाँ शासकों के पूर्वजों के बारे में भी बताती हैं। यह प्रशस्ति भी समुद्रगुप्त के प्रपितामह, पितामह यानी कि परदादा, दादा, पिता और माता के बारे में बताती है। उनकी माँ कुमार देवी, लिच्छवि गण की थीं और पिता चन्द्रगुप्त गुप्तवंश के पहले शासक थे, जिन्होंने महाराजाधिराज जैसी बड़ी उपाधि धारण की। समुद्रगुप्त ने भी यह उपाधि धारण की। उनके दादा और परदादा का महाराजा के रूप में ही उल्लेख है। इससे यह आभास मिलता है कि धीर–धीरे इस वंश का महत्त्व बढ़ता गया।
इन उपाधियों को महत्त्व के हिसाब से सजाओ। राजा, महाराज-अधिराज, महा-राजा।
समुद्रगुप्त के बारे में हमें उनके बाद के शासकों, जैसे उनके बेटे चन्द्रगुप्त द्वितीय की वंशावली (पूर्वजों की सूची) से भी जानकारी मिलती है। उनके बारे में अभिलेखों तथा सिक्कों से पता चलता है। उन्होंने पश्चिम भारत में सैन्य अभियान में अंतिम शक शासक को परास्त किया। बाद में ऐसा विश्वास किया जाने लगा कि उनका दरबार विद्वानों से भरा था। इनमें से कुछ के बारे में जानकारी अध्याय 10 में मिलेगी।
हर्षवर्धन तथा हर्षचरित
जिस तरह गुप्त वंश के शासकों के बारे में अभिलेखों तथा सिक्कों से पता चलता है, उसी तरह कुछ अन्य शासकों के बारे में उनकी जीवनी से पता चलता है। ऐसे ही एक राजा हर्षवर्धन थे, जिन्होंने करीब 1400 साल पहले शासन किया। उनके दरबारी कवि बाणभट्ट ने संस्कृत में उनकी जीवनी हर्षचरित लिखी है। इसमें हर्षवर्धन की वंशावली देते हुए उनके राजा बनने तक का वर्णन है। चीनी तीर्थयात्री श्वैन त्सांग, जिनके बारे में तुमने अध्याय 8 में पढ़ा है, काफी समय के लिए हर्ष के दरबार में रहे। उन्होंने वहाँ जो कुछ देखा, उसका विस्तृत विवरण दिया है।
हर्ष अपने पिता के सबसे बड़े बेटे नहीं थे पर अपने पिता और बड़े भाई की मृत्यु हो जाने पर थानेसर के राजा बने। उनके बहनोई कन्नौज (मानचित्र 7, पृष्ठ 89) के शासक थे। जब बंगाल के शासक ने उन्हें मार डाला, तो हर्ष ने कन्नौज को अपने अधीन कर लिया और बंगाल पर आक्रमण कर दिया।
मगध तथा सम्भवतः बंगाल को भी जीतकर उन्हें पूर्व में जितनी सफलता मिली थी, उतनी सफलता अन्य जगहों पर नहीं मिली। जब उन्होंने नर्मदा नदी को पार कर दक्कन की ओर आगे बढ़ने की कोशिश की तब चालुक्य नरेश, पुलकेशिन द्वितीय ने उन्हें रोक दिया।
भारत का राजनीतिक मानचित्र देखो और सूची बनाओ कि जब हर्षवर्धन (क) बंगाल तथा (ख) नर्मदा तक गए होंगे तो आज के किन-किन राज्यों से गुजरे होंगे?
पल्लव, चालुक्य और पुलकेशिन द्वितीय की प्रशस्तियाँ
इस काल में पल्लव और चालुक्य दक्षिण भारत के सबसे महत्वपूर्ण राजवंश थे। पल्लवों का राज्य उनकी राजधानी काँचीपुरम के आस-पास के क्षेत्रों से लेकर कावेरी नदी के डेल्टा तक फैला था, जबकि चालुक्यों का राज्य कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच स्थित था।
चालुक्यों की राजधानी ऐहोल थी। यह एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र था (मानचित्र 7, पृष्ठ 89)। धीरे-धीरे यह एक धार्मिक केंद्र भी बन गया जहाँ कई मंदिर थे। पल्लव और चालुक्य एक-दूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण करते थे। मुख्य रूप से राजधानियों को निशाना बनाया जाता था जो समृद्ध शहर थे।
पुलकेशिन द्वितीय सबसे प्रसिद्ध चालुक्य राजा थे। उनके बारे में हमें उनके दरबारी कवि रविकीर्ति द्वारा रचित प्रशस्ति से पता चलता है। इसमें उनके पूर्वजों, खासतौर से पिछली चार पीढ़ियों के बारे में बताया गया है। पुलकेशिन द्वितीय को अपने चाचा से यह राज्य मिला था।
रविकीर्ति के अनुसार उन्होंने पूर्व तथा पश्चिम दोनों समुद्रतटीय इलाकों में अपने अभियान चलाए। इसके अतिरिक्त उन्होंने हर्ष को भी आगे बढ़ने से रोका। हर्ष का अर्थ ‘आनंद’ होता है। कवि का कहना है कि इस पराजय के बाद हर्ष अब ‘हर्ष’ नहीं रहा। पुलकेशिन द्वितीय ने पल्लव राजा के ऊपर भी आक्रमण किया, जिसे काँचीपुरम की दीवार के पीछे शरण लेनी पड़ी।
पर चालुक्यों की विजय अल्पकालीन थी। लड़ाई से दोनों वंश दुर्बल होते गए। पल्लवों और चालुक्यों को अन्ततः राष्ट्रकूट तथा चोलवंशों ने समाप्त कर दिया। इनके बारे में तुम कक्षा सात में पढ़ोगे।
वे कौन-से अन्य शासक थे जो तटों पर अपना नियंत्रण करना चाहते थे? (अध्याय 8 देखो)
इन राज्यों का प्रशासन कैसे चलता था?
पहले के राजाओं की तरह इन राजाओं के लिए भूमि कर सबसे महत्वपूर्ण बना रहा।
प्रशासन की प्राथमिक इकाई गाँव होते थे। लेकिन धीरे-धीरे कई नए बदलाव आए। राजाओं ने आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक या सैन्य शक्ति रखने वाले लोगों का समर्थन जुटाने के लिए कई कदम उठाए। उदाहरण के तौर पर:
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कुछ महत्वपूर्ण प्रशासकीय पद आनुवंशिक बन गए अर्थात् बेटे अपने पिता का पद पाते थे जैसे कि कवि हरिषेण अपने पिता की तरह महादंडनायक अर्थात् मुख्य न्याय अधिकारी थे।
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कभी-कभी, एक ही व्यक्ति कई पदों पर कार्य करता था जैसे कि हरिषेण एक महादंडनायक होने के साथ-साथ कुमारामात्य अर्थात् एक महत्वपूर्ण मंत्री तथा एक संधि-विग्रहिक अर्थात् युद्ध और शांति के विषयों का भी मंत्री था।
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संभवतः वहाँ के स्थानीय प्रशासन में प्रमुख व्यक्तियों का बहुत बोलबाला था। इनमें नगर-श्रेष्ठी यानी मुख्य बैंकर या शहर का व्यापारी, सार्थवाह यानी व्यापारियों के काफ़िले का नेता, प्रथम-कुलिक अर्थात् मुख्य शिल्पकार तथा कायस्थों यानी लिपिकों के प्रधान जैसे लोग होते थे।
इस तरह की नीतियाँ कुछ हद तक प्रभावशाली होती थीं, पर समय के साथ-साथ इनमें से कुछ व्यक्ति इतने अधिक शक्तिशाली हो जाते थे कि अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लेते थे।
सोचकर बताओ कि अफ़सरों का पद आनुवंशिक कर देने में क्या-क्या फायदे और क्या-क्या नुकसान हो सकते थे?
एक नए प्रकार की सेना
कुछ राजा अभी भी पुराने राजाओं की तरह एक सुसंगठित सेना रखते थे, जिसमें हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदल सिपाही होते थे पर इसके साथ-साथ कुछ सेनानायक भी होते थे, जो आवश्यकता पड़ने पर राजा को सैनिक सहायता दिया करते थे। इन सेनानायकों को कोई नियमित वेतन नहीं दिया जाता था। बदले में इनमें से कुछ को भूमिदान दिया जाता था। दी गई भूमि से ये कर वसूलते थे जिससे वे सेना तथा घोड़ों की देखभाल करते थे। साथ ही वे इससे युद्ध के लिए हथियार जुटाते थे। इस तरह के व्यक्ति सामंत कहलाते थे। जहाँ कहीं भी शासक दुर्बल होते थे, ये सामंत स्वतंत्र होने की कोशिश करते थे।
दक्षिण के राज्यों में सभाएँ
पल्लवों के अभिलेखों में कई स्थानीय सभाओं की चर्चा है। इनमें से एक था ब्राह्मण भूस्वामियों का संगठन जिसे सभा कहते थे। ये सभाएँ उप-समितियों के जरिए सिंचाई, खेतीबाड़ी से जुड़े विभिन्न काम, सड़क निर्माण, स्थानीय मंदिरों की देखरेख आदि का काम करती थीं। जिन इलाकों के भूस्वामी ब्राह्मण नहीं थे वहाँ उर नामक ग्राम सभा के होने की बात कही गई है। नगरम व्यापारियों के एक संगठन का नाम था। संभवतः इन सभाओं पर धनी तथा शक्तिशाली भूस्वामियों और व्यापारियों का नियंत्रण था। इनमें से बहुत-सी स्थानीय सभाएँ शताब्दियों तक काम करती रहीं।
उस ज़माने में आम लोग
जनसाधारण के जीवन की थोड़ी बहुत झलक हमें नाटकों तथा कुछ अन्य स्रोतों से मिलती है। चलो, इसके कुछ उदाहरण देखते हैं।
कालिदास अपने नाटकों में राज-दरबार के जीवन के चित्रण के लिए प्रसिद्ध है। इन नाटकों में एक रोचक बात यह है कि राजा और अधिकांश ब्राह्मणों को संस्कृत बोलते हुए दिखाया गया है जबकि अन्य लोग तथा महिलाएँ प्राकृत बोलते हुए दिखाए गए हैं। उनका सबसे प्रसिद्ध नाटक ‘अभिज्ञान-शाकुन्तलम्’ दुष्यंत नामक एक राजा और शकुन्तला नाम की एक युवती की प्रेम कहानी है। इस नाटक में एक गरीब मछुआरे के साथ राजकर्मचारियों के दुर्व्यवहार की बात कही गई है।
एक मछुआरे को एक अंगूठी मिली
एक मछुआरे को एक कीमती अंगूठी मिली। यह अंगूठी राजा ने शकुन्तला को भेंट की थी, पर दुर्घटनावश उसे एक मछली निगल गई। जब मछुआरा इस अंगूठी को लेकर राजमहल पहुँचा तो द्वारपाल ने उस पर चोरी का आरोप लगाया और मुख्य पुलिस अधिकारी भी बहुत बुरी तरह से पेश आया। राजा उस अंगूठी को देखकर बहुत खुश हुए और उन्होंने मछुआरे को इनाम दिया। पुलिसवाला और द्वारपाल मछुआरे से इनाम का कुछ हिस्सा हड़पने के लिए उसके साथ शराबखाने चल पड़े।
आज अगर किसी गरीब आदमी को कुछ मिलता है और वह पुलिस में खबर करता है तो क्या उसके साथ इसी तरह का बर्ताव किया जाएगा?
एक प्रसिद्ध व्यक्ति का नाम बताओ, जिसने प्राकृत में उपदेश दिए और एक राजा का नाम बताओ, जिसने प्राकृत में अपने अभिलेख लिखवाए। (अध्याय 6 तथा 7 देखो।)
चीनी तीर्थयात्री फा-शिएन का ध्यान उन लोगों की दुर्गति पर भी गया, जिन्हें ऊँचे और शक्तिशाली लोग अछूत मानते थे। इन्हें शहरों के बाहर रहना पड़ता था। वे लिखते हैं - “अगर इन लोगों को शहर या बाजार के भीतर आना होता था तो सभी को आगाह करने के लिए ये लकड़ी के एक टुकड़े पर चोट करते रहते थे। यह आवाज़ सुनकर लोग सतर्क होकर अपने को, छू जाने से या किसी भी प्रकार के संपर्क से बचाते थे।”
एक जगह बाणभट्ट द्वारा अभियान पर निकली राजा की सेना का बड़ा सजीव चित्रण किया गया है।
राजा की सेना
राजा बड़ी मात्रा में साजो-सामान लेकर यात्रा करते थे। इनमें हथियारों के अतिरिक्त, रोजमर्रा के उपयोग में आने वाली चीज़ें, जैसे बर्तन, असबाब (जिसमें सोने के पायदान भी शामिल थे), खाने-पीने का सामान (बकरी, हिरण, खरगोश, सब्जियाँ, मसाले) आदि, विभिन्न प्रकार की चीज़ें शामिल होती थीं। ये सारी चीज़ें ठेलेगाड़ियों पर या ऊँटों तथा हाथियों जैसे सामान ढोने वाले जानवरों की पीठ पर लादकर ले जायी जाती थीं। इस विशाल सेना के साथ-साथ संगीतकार नगाड़े, बिगुल तथा तुरही बजाते हुए चलते रहते थे।
रास्ते में पड़ने वाले गाँव वालों को उनका सत्कार करना पड़ता था। वे दही, गुड़ तथा फूलों का उपहार लाते थे तथा जानवरों को चारा भी देते थे। वे राजा से भी मिलना चाहते थे, ताकि अपनी शिकायत या कोई अनुरोध उनके सामने रख सकें। पर ये सेनाएँ अपने पीछे विनाश और विध्वंस की निशानी छोड़ जाती थीं। अक्सर गाँव वालों की झोपड़ियाँ हाथी कुचल डालते थे और व्यापारियों के काफ़िलों में जुते बैल, इस हलचल भरे माहौल से डरकर भाग खड़े होते थे। बाणभट्ट लिखते हैं - “पूरी दुनिया धूल के गर्त में डूब जाती थी”
सेना के साथ ले जाई जाने वाली चीजों की सूची बनाओ।
ग्रामवासी राजा के लिए क्या-क्या लेकर आते थे?
कल्पना करो
हर्षवर्धन की सेना अगले हफ़्ते तुम्हारे गाँव आने वाली है। तुम्हारे माता-पिता इसके लिए तैयारी कर रहे हैं। वर्णन करो कि वे क्या-क्या बोल रहे हैं और क्या कर रहे हैं।
उपयोगी शब्द
प्रशस्ति
आर्यावर्त्त
दक्षिणापथ
वंशावली
आनुवंशिक पदाधिकारी सामंत
सभा
नगरम
आओ याद करें
1. सही या गलत बताओ
(क) हरिषेण ने गौतमी पुत्र श्री सातकर्णी की प्रशंसा में प्रशस्ति लिखी।
(ख) आर्यावर्त्त के शासक समुद्रगुप्त के लिए भेंट लाते थे।
(ग) दक्षिणापथ में बारह शासक थे।
(घ) गुप्त शासकों के नियंत्रण में दो महत्वपूर्ण केन्द्र तक्षशिला और मदुरै थे।
(ङ) ऐहोल पल्लवों की राजधानी थी।
(च) दक्षिण भारत में स्थानीय सभाएँ सदियों तक काम करती रहीं।
2. ऐसे तीन लेखकों के नाम बताओ, जिन्होंने हर्षवर्धन के बारे में लिखा।
3. इस युग में सैन्य संगठन में क्या बदलाव आए?
4. इस काल की प्रशासनिक व्यवस्था में तुम्हें क्या-क्या नई चीजेें दिखती हैं?
आओ चर्चा करें
5. तुम्हें क्या लगता है कि समुद्रगुप्त की भूमिका अदा करने के लिए अरविन्द को क्या-क्या करना पड़ेगा?
6. क्या प्रशस्तियों को पढ़कर आम लोग समझ लेते होंगे? अपने उत्तर के कारण बताओ।
आओ करके देखें
7. अगर तुम्हें अपनी वंशावली बनानी हो, तो तुम उसमें किन लोगों को शामिल करोगे? कितनी पीढ़ियों को तुम इसमें शामिल करना चाहोगे? एक चार्ट बनाओ और उसे भरो।
8. आज युद्ध का असर जनसाधारण पर किस तरह पड़ता है?
कुछ महत्वपूर्ण तिथियाँ
गुप्त वंश की शुरुआत (1700 साल पहले)
हर्षवर्धन का शासन (1400 साल पहले)