अध्याय 10 एक दिन की बादशाहत (कहानी)
मज़ाखटोला किताब का यह भाग हास्य या हँसी की रचनाओं का है। ‘किसी बात या रचना में ऐसा क्या है कि उसे सुनने या पढ़ने से हमें हँसी आ जाती है?’ इस प्रश्न का उत्तर हम एक चुटकुले की मदद से ढूँढ़ सकते हैंअध्यापक- ‘मैंने तुम्हें गाय और घास का चित्र बनाने के लिए कहा था, पर तुम्हारा कागज़ तो कोरा पड़ा है।’
दिनेश- ‘सर, मैं घास और गाय का चित्र बना रहा था पर जब तक चित्र पूरा होता, गाय घास खाकर अपने घर चली गई।’
इस चुटकुले में तीन ऐसी चीज़ें साफ़-साफ़ देखी जा सकती हैं जो लगभग हरेक हास्य रचना में होती हैं-
- स्थिति का दबाव या लाचारी
- लाचारी से निपटने के लिए कोई एकदम नई कल्पना या सूझ
- शुरू की स्थिति का उलट जाना
चुटकुले की शुरुआत में दिनेश पर यह दबाव है कि वह अपना चित्र दिखाए। चित्र उसने बनाया ही नहीं है, दिखाएगा क्या? मगर अपनी कल्पना से वह एक ऐसा उत्तर देता है जिसमें कमी ढूँढ़ना मुर्किल है। उसके उत्तर को हम कल्पनाशील कह सकते हैं। जो चीज़ हमें हँसने के लिए मजबूर करती है, वह यही कल्पनाशीलता या सूझबूझ है जो एक दबाव वाली स्थिति को बदल देती है।
इस तरह देखें तो हम कह सकते हैं कि हर हास्य रचना एक काल्पनिक स्थिति का निर्माण करती है। हमें हँसाकर वह रोज़ाना की वास्तविक दुनिया या ज़िंदगी के दबावों से थोड़ी देर के लिए मुक्ति दिलाती है। हास्य रचनाएँ हमें कुछ सिखाने की कोशिश नहीं करतीं, वे केवल हँसाती हैं। पर ऐसी रचनाओं को गौर से देखकर हम यह समझ सकते हैं कि कोई रचना या उसकी भाषा हमें क्यों और कैसे हँसाती है।
ऊपर दी गई तीन विशेषताओं को इस खंड में शामिल रचनाओं में ढूँढ़ा जा सकता है। चावल की रोटियाँ शीर्षक नाटक में कोको नाम के लड़के की लाचारी बढ़ती चली जाती है। चावल की रोटियाँ अकेले
बैठकर खाने की उसकी इच्छा अंत तक पूरी नहीं होती। दूसरी तरफ एक दिन की बादशाहत में रोज़ाना रहने वाली स्थिति उलट जाती है। घर के बड़ों को एक दिन बच्चों की तरह जीना पड़ता है।
उलटी हुई स्थिति का मज़ा हम गुरु और चेला में भी देख सकते हैं। यह एक ऐसी अँधेरे नगरी की कहानी है जहाँ हर चीज़ एक समान कीमत पर बिकती है। ऐसी नगरी में गुरु और चेला एक मुसीबत में बुरी तरह फँस जाते हैं, पर अंत में एक अनोखी स्थिति बनती है और वे बच जाते हैं। इस कविता की भाषा पर ध्यान दें तो हम शब्दों और मुहावरों के प्रयोग में छिपी हँसी को पहचान सकते हैं।
स्वामी की दादी शीर्षक कहानी में स्वामीनाथन के भोले-भाले प्रश्न सुनकर उसकी दादी मन-ही-मन खुश होती है। शायद दो बातें इस कहानी को मज़ेदार बनाती हैं- एक, दादी स्वामी के सवालों को बहुत ज़्यादा गंभीरता से लेती हैं। दूसरे, दादी-पोता दोनों में अपनी-अपनी बात कहने का उतावलापन और होड़ होती है।
पहेली बुझाने वाली कहानियाँ भी एक अलग तरह का आनंद देती हैं। अकबर-बीरबल के किस्से इसीलिए लोकप्रिय हैं कि उनमें अकबर के कठिन प्रश्नों का जवाब बीरबल बड़ी चतुराई से देते हैं। गोनू झा के किस्से भी इसी प्रकार के हैं।
मज़ा देने वाली रचनाओं को हम एक और कोण से देख सकते हैंहाज़िरजवाबी, व्यंग्य और हँसाने वाली परिस्थितियाँ, घटनाक्रम तथा अतिशयोक्ति। यदि हम मज़ाखटोला की रचनाओं को इस दृष्टि से देखें तो गुरु और चेला तथा गोनू झा का किस्सा बिना जड़ का पेड़ हाज़िरजवाबी और सूझूल के नमूने हैं। चावल की रोटियाँ और एक दिन की बादशाहत में हास्य के तत्त्व परिस्थितियों और घटनाक्रम से पैदा होते हैं। स्वामी की दादी हमें हँसाता नहीं है, पर दादी-पोते के बीच मज़ेदार संवाद पढ़कर हम मुस्कुराते ज़रूर हैं। ढब्बू जी के पहले कार्टून में अतिशयोक्ति से हास्य पैदा होता है तो दूसरा कार्टून व्यंग्य का उदाहरण है।
$\quad$ बच्चों में स्वस्थ और बुद्धिमत्ता पूर्ण हास्यबोध पैदा करने के लिए हाज़िरजवाबी और सूझबूूझ की लोककथाएँ, कार्टून और हास्य-व्यंय की रचनाएँ अधिक-से-अधिक उपलब्ध कराई जानी चाहिए।
“आरिफ़…सलीम…चलो, फ़ौरन सो जाओ,” अम्मी की आवाज़ ऐन उस वक्त आती थी, जब वे दोस्तों के साथ बैठे कव्वाली गा रहे होते थे। या फिर सुबह बड़े मज़े में आइसक्रीम खाने के सपने देख रहे होते कि आपा झिंझोड़कर जगा देतों “जल्दी उठो, स्कूल का वक्त हो गया,”
दोनों की मुसीबत में जान थी। हर वक्त पाबंदी, हर वक्त तकरार। अपनी मर्ज़ी से चूँ भी न कर सकते थे। कभी आरिफ़ को गाने का मूड आता, तो भाई-जान डाँटते “चुप होता है या नहीं? हर वक्त मेंढक की तरह टर्राए जाता है!”
बाहर जाओ, तो अम्मी पूछतीं “बाहर क्यों गए?" अंदर रहते, तो दादी चिल्लातों “हाय, मेरा दिमाग फटा जा रहा है शोर के मारे! अरी रज़िया, ज़रा इन बच्चों को बाहर हाँक दे!" जैसे बच्चे न हुए मुर्गी के चूज़े हो गए!
दोनों घंटों बैठकर इन पाबंदियों से बच निकलने की तरकीबें सोचा करते। उन दोनों से तो सारे घर को दुश्मनी हो गई थी। लिहाज़ा दोनों ने मिलकर एक योजना बनाई और अब्बा की खिदमत में एक दरखास्त पेश की कि एक दिन उन्हें बड़ों के सारे अधिकार दे दिए जाएँ और सब बड़े छोटे बन जाएँ!
“कोई ज़रूरत नहीं है ऊधम मचाने की!” अम्मी ने अपनी आदत के अनुसार डाँट पिलाई। लेकिन अब्बा जाने किस मूड में थे कि न सिऱ़् मान गए बल्कि यह इकरार भी कर बैठे कि कल दोनों को हर किस्म के अधिकार मिल जाएँगे।
अभी सुबह होने में कई घंटे थे कि आरिफ़ ने अम्मी को झिंझोड़ डाला “अम्मी, जल्दी उठिए, नाश्ता तैयार कीजिए!”
अम्मी ने चाहा एक झापड़ रसीद करके सो रहें, मगर याद आया कि आज तो उनके सारे अधिकार छीने जा चुके हैं।
फिर दादी ने सुबह की नमाज़ पढ़ने के बाद दवाएँ खाना और बादाम का हरीरा पीना शुरू किया, तो आरिफ़ ने उन्हें रोका “तौबा है, दादी! कितना हरीरा पिएँगी आप…पेट फट जाएगा!” और दादी ने हाथ उठाया मारने के लिए।
नाश्ता मेज़ पर आया, तो आरिफ़ ने खानसामा से कहा “अंडे और मक्खन वगैरह हमारे सामने रखो, दलिया और दूध-बिस्कुट इन सबको दे दो!”
आपा ने कहर-भरी नज़रों से उन्हें घूरा, मगर बेबस थी, क्योंकि रोज़ की तरह आज वह तर माल अपने लिए नहीं रख सकती थीं। सब खाने बैठे, तो सलीम ने अम्मी को टोका “अम्मी, ज़रा अपने दाँत देखिए, पान खाने से कितने गंदे हो रहे हैं!”
“मैं तो दाँत माँज चुकी हूँ,” अम्मी ने टालना चाहा!
“नहीं, चलिए, उठिए!” अम्मी निवाला तोड़ चुकी थीं, मगर सलीम ने ज़बरदस्ती कंधा पकड़कर उन्हें उठा दिया।
अम्मी को गुसलखाने में जाते देखकर सब हँस पड़े, जैसे रोज़ सलीम को जबरदस्ती भगा के हँसते थे।
फिर वह अब्बा की तरफ़ मुड़ा “ज़रा अब्बा की गत देखिए! बाल बढ़े हुए, शेव नहीं की, कल कपड़े पहने थे और आज इतने मैले कर डाले! आखिर अब्बा के लिए कितने कपड़े बनाए जाएँगे!”
यह सुनकर अब्बा का हँसते-हँसते बुरा हाल हो गया। आज ये दोनों कैसी सही नकल उतार रहे थे सबकी! मगर फिर अपने कपड़े देखकर वह सचमुच शर्मिंदा हो गए।
थोड़ी देर बाद जब अब्बा अपने दोस्तों के बीच बैठे अपनी नई गज़ल लहक-लहक कर सुना रहे थे, तो आरिफ़ फिर चिल्लाने लगा “बस कीजिए, अब्बा! फ़ौरन ऑफ़िस जाइए, दस बज गए!”
“चु…चु…चोप…” अब्बा डाँटते-डाँटते रुक गए। बेबसी से गज़ल की अधूरी पंक्ति दाँतों में दबाए पाँव पटकते आरिफ़ के साथ हो लिए।
“रज़िया, ज़रा मुझे पाँच रुपये तो देना,” अब्बा दप़्तर जाने को तैयार होकर बोले।
“पाँच रुपये का क्या होगा? कार में पैट्रोल तो है।” आरिफ़ ने तुनककर अब्बा जान की नकल उतारी, जैसे अब्बा कहते हैं कि इकन्नी का क्या करोगे, जेब-खर्च तो ले चुके!
थोड़ी देर बाद खानसामा आया “बेगम साहब, आज क्या पकेगा?”
“आलू, गोश्त, कबाब, मिर्चों का सालन…” अम्मी ने अपनी आदत के अनुसार कहना शुरू किया।
“नहीं, आज ये चीज़ें नहीं पकेंगी!” सलीम ने किताब रखकर अम्मी की नकल उतारी, “आज गुलाब-जामुन, गाजर का हलवा और मीठे चावल पकाओ!”
“लेकिन मिठाइयों से रोटी कैसे खाई जाएगी?” अम्मी किसी तरह सब्र न कर सकीं।
“जैसे हम रोज़ सिर्फ़ मिर्चों के सालन से खाते हैं!” दोनों ने एक साथ कहा।
दूसरी तरफ़ दादी किसी से तू-तू मैं-मैं किए जा रही थीं।
“ओफ़फ़ो! दादी तो शोर के मारे दिमाग पिघलाए दे रही हैं!” आरिफ़ ने दादी की तरह दोनों हाथों में सिर थामकर कहा।
इतना सुनते ही दादी ने चीखना-चिल्लाना शुरू कर दिया कि आज ये लड़के मेरे पीछे पंजे झाड़ के पड़ गए हैं। मगर अब्बा के समझाने पर खून का घूँट पीकर रह गईं।
कॉलेज का वक्त हो गया, तो भाई जान अपनी सफ़ेद कमीज़ को आरिफ़-सलीम से बचाते दालान में आए “अम्मी, शाम को मैं देर से आऊँगा, दोस्तों के साथ फ़िल्म देखने जाना है।”
“खबरदार!” आरिफ़ ने आँखें निकालकर उन्हें धमकाया। " कोई ज़रूरत नहीं फिल्म देखने की! इम्तिहान करीब हैं और हर वक्त सैर-सपाटों में गुम रहते हैं आप!
पहले तो भाई जान एक करारा हाथ मारने लपके, फिर कुछ सोचकर मुस्करा पड़े। “लेकिन, हुज़ूरे-आली, दोस्तों के साथ खाकसार फ़िल्म देखने की बात पक्की कर चुके हैं इसलिए इजाज़त देने की मेहरबानी की जाए!” उन्होंने हाथ जोड़ के कहा।
“बना करे… बस, मैंने एक बार कह दिया!” उसने लापरवाही से कहा और सोफ़े पर दराज़ होकर अखबार देखने लगा।
उसी वक्त आपा भी अपने कमरे से निकली। एक निहायत भारी साड़ी में लचकती-लटकती बड़े ठाठ से कॉलेज जा रही थीं।
“आप…!” सलीम ने बड़े गौर से आपा का मुआयना किया। “इतनी भारी साड़ी क्यों पहनी? शाम तक गारत हो आएगी। इस साड़ी को बदलकर जाइए। आज वह सफ़ेद वॉयल की साड़ी पहनना!”
“अच्छा अच्छा…बहुत दे चुके हुक्म…” आपा चिढ़ गई। “हमारे कॉलेज में आज फ़ंक्शन है,” उन्होंने साड़ी की शिकनें दुरस्त कीं।
“हुआ करे… मैं क्या कह रहा हूँ… सुना नहीं…?” अपनी इतनी अच्छी नकल देखकर आपा शर्मिंदा हो गईं-बिल्कुल इसी तरह तो वह आरिफ़ और सलीम से उनकी मनपसंद कमीज़ उतरवाकर निहायत बेकार कपड़े पहनने का हुक्म लगाया करती हैं।
दूसरी सुबह हुई।
सलीम की आँख खुली, तो आपा नाश्ते की मेज़ सजाए उन दोनों के उठने का इंतज़ार कर रही थीं। अम्मी खानसामा को हुक्म दे रहीं थीं कि हर खाने के साथ एक मीठी चीज़ ज़रूर पकाया करो। अंदर आरिफ़ के गाने के साथ भाई जान मेज़ का तबला बजा रहे थे और अब्बा सलीम से कह रहे थे “स्कूल जाते वक्त एक चवन्नी जेब में डाल लिया करो… क्या हर्ज़ है…!”
$\quad$ जीलानी बानो
$\quad$ उर्दू से अनुवाद-लक्ष्मीचंद्र गुप्त
कहानी की बात
1. अब्बा ने क्या सोचकर आरिफ़ की बात मान ली?
2. वह एक दिन बहुत अनोखा था जब बच्चों को बड़ों के अधिकार मिल गए थे। वह दिन बीत जाने के बाद इन्होंने क्या सोचा होगा-
- आरिफ़ ने
- अम्मा ने
- दादी ने
तुम्हारी बात
1. अगर तुम्हें घर में एक दिन के लिए सारे अधिकार दे दिए जाएँ तो तुम क्या-क्या करोगी?
2. कहानी में ऐसे कई काम बताए गए हैं जो बड़े लोग आरिफ़ और सलीम से करने के लिए कहते थे। तुम्हारे विचार से उनमें से कौन-कौन से काम उन्हें बिना शिकायत किए कर लेने चाहिए थे और कौन-कौन से कामों के लिए मना कर देना चाहिए था?
तरकीब
“दोनों घंटों बैठकर इन पाबंदियों से बच निकलने की तरकीबें सोचा करते थे।”
1. तुम्हारे विचार से वे कौन-कौन सी तरकीबें सोचते होंगे?
2. कौन-सी तरकीब से उनकी इच्छा पूरी हो गई थी?
3. क्या तुम उन दोनों को इस तरकीब से भी अच्छी तरकीब सुझा सकती हो?
अधिकारों की बात
“…आज तो उनके सारे अधिकार छीने जा चुके हैं।”
1. अम्मी के अधिकार किसने छीन लिए थे?
2. क्या उन्हें अम्मी के अधिकार छीनने चाहिए थे?
3. उन्होंने अम्मी के कौन-कौन से अधिकार छीने होंगे?
बादशाहत
1. ‘बादशाहत’ क्या होती है? चर्चा करो।
2. तुम्हारे विचार से इस कहानी का नाम ‘एक दिन की बादशाहत’ क्यों रखा गया है? तुम भी अपने मन से सोचकर कहानी को कोई शीर्षक दो।
3. कहानी में उस दिन बच्चों को सारे बड़ों वाले काम करने पड़े थे। ऐसे में कौन एक दिन का असली ‘बादशाह’ बन गया था?
तर माल
“रोज़ की तरह आज वह तर माल अपने लिए न रख सकती थी।”
1. कहानी में किन-किन चीज़ों को तर माल कहा गया है?
2. इन चीज़ों के अलावा और किन-किन चीज़ों को ‘तर माल’ कहा जा सकता है?
3. कुछ ऐसी चीज़ों के नाम भी बताओ, जो तुम्हें ‘तर माल’ नहीं लगतीं।
4. इन चीज़ों को तुम क्या नाम देना चाहोगी? सुझाओ।
मनपसंद कपड़े
“बिल्कुल इसी तरह तो वह आरिफ़ और सलीम से उनकी मनपसंद कमीज़ उतरवाकर निहायत बेकार कपड़े पहनने का हुक्म लगाया करती हैं।”
1. तुम्हें भी अपना कोई खास कपड़ा सबसे अच्छा लगता होगा। उस कपड़े के बारे में बताओ।
वह तुम्हें सबसे अच्छा क्यों लगता है?
2. कौन-कौन सी चीजें तुम्हें बिल्कुल बेकार लगती हैं?
(क) पहनने की चीज़ें ——————————————————
(ख) खाने-पीने की चीज़ें —————————————————
(ग) करने के काम ———————————————————
(घ) खेल ——————————————————————–
हल्का-भारी
(क) “इतनी भारी साड़ी क्यों पहनी?”
यहाँ पर ‘भारी साड़ी’ से क्या मतलब है?
- साड़ी का वज़न ज़्यादा था।
- साड़ी पर बड़े-बड़े नमूने बने हुए थे।
- साड़ी पर बेल-बूटों की कढ़ाई थी।
(ख) • भारी साड़ी • भारी अटैची • भारी काम • भारी बारिश
ऊपर ‘भारी’ विशेषण का चार अलग-अलग संज्ञाओं के साथ इस्तेमाल किया गया है।
इन चारों में ‘भारी’ का अर्थ एक-सा नहीं है। इनमें क्या अंतर है?
(ग) ‘भारी’ की तरह हल्का का भी अलग-अलग अर्थों में इस्तेमाल करो।