पाठ 21 खाना-खिलाना
ट्रिनऽऽऽ…! घंटी बजते ही मनप्रीत ने दरवाज़ा खोला। बाहर दिव्या और स्वास्तिक को देखते ही वह खुशी से चिल्लाई, “गुरनूर! देखो तो, कौन आया है?” गुरनूर दौड़ती हुई आई। दोस्तों को देखते ही वह खुशी से उनसे लिपट गई और बोली, “तुम लोग अपने बोर्डिंग स्कूल से कब आए?” “कल ही! तुम्हारे मम्मी-पापा कहाँ हैं? उनसे तो मिल लें,” स्वास्तिक बोला।
“वे तो गुरुद्वारे गए हैं। हम भी वहीं जा रहे हैं,” गुरनूर ने जवाब दिया। “अरे, वाह! चलो हम भी चलते हैं,” दिव्या खुशी से बोली।
गुरनूर ने पूछा, “तुम तो बस छुट्टियों में ही घर आते हो। क्या तुम्हें हॉस्टल में रहना अच्छा लगता है? कैसे रह लेते हो मम्मी-पापा के बिना?”
“उनकी याद तो आती है, पर हॉस्टल में बड़े मज़े भी आते हैं। भले ही कभी-कभी हमें खाना पसंद नहों आता, पर सभी बच्चों के साथ एक साथ बैठकर खाना खाने में मज़ा आता है,” दिव्या ने बताया।
“हॉस्टल में जब किसी के घर से खाने की कोई चीज़ आती है, तो सभी बच्चे उसके कमरे में पहुँच जाते हैं, और बस! मिनटों में चीज़ खत्म,” स्वास्तिक ने हँसते हुए बताया।
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क्या तुम बोर्डिंग स्कूल में पढ़ते हो? अगर नहीं, तो किसी हॉस्टल में रहने वाले बच्चे से बातचीत करके पता करो-
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बोर्डिंग स्कूल और दूसरे स्कूल किन-किन बातों में अलग होते हैं?
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वहाँ पर कैसा खाना मिलता है?
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बच्चे कहाँ बैठकर खाना खाते हैं?
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बोर्डिंग स्कूल में बच्चों के लिए खाना कौन बनाता है? कौन परोसता है?
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बर्तन कौन धोता है?
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क्या कभी बच्चों को घर के खाने की याद आती है?
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क्या तुम बोर्डिंग स्कूल में पढ़ना चाहोगे? क्यों?
गुकुद्धारे में
बच्चे बातें करते हुए गुरुद्वारे पहुँचे। वहाँ सभी ने सिर ढँके।
वे गुरुद्वारे के रसोई घर में गए, जो बहुत बड़ा था। वहाँ कई काम हो रहे थे। खाना बड़े-बड़े बर्तनों में पक रहा था। वहाँ एक बड़े पतीले में उड़द और चने की दाल पक रही थी। दूसरी तरफ़ पतीले में आलू और गोभी की सब्ज़ी बन रही थी। स्वास्तिक ने कहा, “अरे! देखो गुरनूर तुम्हारे पापा वहाँ हैं! चलो, मिलकर आते हैं।”
मनजीत सिंह बच्चों से बहुत प्यार से मिले और पूछा, “तुम सब यहाँ क्या कर रहे हो?”
“अंकल! क्या हम भी खाना पकाने में मदद करें? आप क्या बना रहे हैं?” स्वास्तिक ने पूछा।
मनजीत सिंह ने बताया, “मैं कड़ाह प्रसाद बना रहा हूँ। इस बड़ी-सी कड़ाही में आटे को भून रहा हूँ। इसमें बड़ी मेहनत लगती है।”
“मुझे पता है, यह हलुआ है। इसमें आप चीनी कब डालेंगे?” दिव्या ने पूछा।
तभी उन्हें मनप्रीत की मम्मी दिखाईं दीं। वे लोग मुस्कराते हुए उनके पास गए। “आंटी! आप क्या कर रही हैं?” दिव्या ने पूछा। “बेटा, हम लोग तंदूर में रोटी सेंक रहे हैं,” उन्होंने बताया। दिव्या ने आश्चर्य से कहा, “आंटी, इतनी सारी रोटियाँ एक साथ! मैं भी सेकूँ?” “हाँ, हाँ, आओ, तुम भी करके देखो। यहाँ तो हर कोई सेवा कर सकता है। लेकिन पहले अपने हाथ धो लो,” आंटी ने कहा।
दिव्या जल्दी से हाथ धोकर आ गई। तंदूर में हाथ डालते ही उसे बहुत गर्म लगा। सेंकना छोड़ कर वह रोटियों पर घी लगाने लगी।
स्वास्तिक ने हैरानी से पूछा, “इतने सारे लोगों के लिए खाना पकाने का सामान कौन लाता है?”
एक औरत ने बताया, “सभी मिल-जुल कर मदद करते हैं। कोई सामान देता है, तो कोई पैसे। जिसका जैसा मन होता है, वैसे ही काम में मदद करते हैं।”
मनप्रीत ने चिढ़ाते हुए कहा, “क्यों स्वास्तिक! कैसा लग रहा है? पहले भी कभी रसोई का काम किया है क्या?”
“नहीं, पर सबके साथ काम करने में बहुत अच्छा लग रहा है,” स्वास्तिक ने कहा, पता ही नहीं चला कि कब रोटी, चावल, हलुआ, दाल और सब्ज़ी तैयार हो गए।
अरदास के बाद सभी को कड़ाह प्रसाद दिया जाने लगा। कुछ लड़कों ने जल्दी से बरामदे में दरियाँ बिछा दीं। सब लोग लाइनों में बैठ गए। कुछ लोग पत्तलों में खाना परोसने लगे और कुछ लोग पानी। सभी ने मिल-जुलकर खाना खाया।
खाने के बाद सब ने अपने-अपने पत्तल उठा कर बड़े से ड्रम में डाले। अंत में खाना-खिलाने वाले लोगों ने भी मिलकर एक साथ खाया और वहाँ की सफ़ाई करके बर्तन भी साफ़ किए।
बताओ
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गुरुद्वारे में एक साथ मिलकर खाना पकाने और खाने को ‘लंगर’ कहते हैं। क्या तुमने कभी लंगर में खाना खाया है? कब और कहाँ?
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कितने लोग खाना बना रहे थे और कितने लोग खाना परोस रहे थे?
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क्या किसी दूसरे अवसर पर भी तुमने बहुत से लोगों के साथ मिलकर खाना खाया है? कब और कहाँ? वहाँ किस-किस ने खाना बनाया और परोसा था?